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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
अर्थ :- हे धीर पुरुष ! यह ध्यानका तंत्र ( शास्त्र ) सुननेसे चित्तको पवित्र करता है । तीव्ररागादिकका अभाव करते चित्तको विशुद्ध करता है । तथा आचरण किया हुआ मोक्ष देता है । योगीश्वरोंका जानाहुआ है, इस कारण इसको तू आस्वाद, धार वा सुन और ध्यानका आचरण कर ॥ २५ ॥
विस्तरेणैव तुष्यन्ति केऽप्यहो विस्तरप्रियाः । संक्षेपरुचयश्चान्ये विचित्राश्चित्तवृत्तयः ॥ २६ ॥
अर्थ -- आचार्य महाराज कहते हैं कि, अनेक पुरुष तो विस्तारसे ही प्रसन्न होते हैं और अनेक संक्षेपसे रुचि रखनेवाले होते हैं । आचार्य है कि, चित्तकी वृत्तियां भी विचित्र होती हैं । भावार्थ-जैसे वक्ता और श्रोता होते हैं, वैसा ही कहना और सुनना होता है; अतएव प्रथम ही इस प्रकरणमें संक्षिप्तरुचिवाले श्रोताओंके लिये ध्यानका संक्षिप्तस्वरूप कहते हैं ॥ २६ ॥
संक्षेपरुचिभिः सूत्रात्तन्निरूप्यात्मनिश्चयात् ।
त्रिधैवाभिमतं कैश्चिद्यतो जीवाशयस्त्रिधा ॥ २७ ॥
अर्थ - आत्माका है निश्चय जिसमें, ऐसे सूत्रसे निरूपण करके कितने ही संक्षेपरुचिवालोंने तीन प्रकारका ही ध्यान माना है । क्योंकि जीवका आशय तीन प्रकारका ही है अर्थात् - अध्यात्मशास्त्रकी अपेक्षा आत्माके उपयोगकी प्रवृत्ति संक्षेपसे तीन प्रकारकी ही मानी गई है ॥ २७ ॥
उन तीन प्रकारके आशयका व्याख्यान करते हैं,
तत्र पुण्याशयः पूर्वस्तद्विपक्षोऽशुभाशयः । शुद्धोपयोगसंज्ञो यः स तृतीयः प्रकीर्तितः ॥ २८ ॥
अर्थ - उन तीनोंमें प्रथम पुण्यरूप शुभ आशय है और उसका विपक्षी दूसरा पापरूप अशुभ आशय है और तीसरा शुद्धोपयोगनामा आशय है ॥ २८ ॥
पुण्याशयवशाज्जातं शुद्धलेश्यावलम्बनात् । चिन्तनाद्वस्तुतत्त्वस्य प्रशस्तं ध्यानमुच्यते ॥ २९ ॥
अर्थ - पुण्यरूप आशयके वशसे तथा शुद्धलेश्याके अवलंबनसे और वस्तुके यथार्थस्वरूप चितवनसे उत्पन्न हुआ ध्यान कहाता है ॥ २९ ॥ औरपापाशयवशान्मोहान्मिथ्यात्वाद्वस्तुविभ्रमात् । कषायाज्जायतेऽजस्रमसद्ध्यानं शरीरिणाम् ॥ ३० ॥
अर्थ -- जीवोंके पापरूप आशयके वशसे तथा मोह - मिथ्यात्व - कषाय और तत्त्वोंके अयथार्थरूप विभ्रमसे अप्रशस्त अर्थात् असमीचीन ध्यान होता है ॥ ३० ॥