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ज्ञानार्णवः ।
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आश्रय कर । भावार्थ-जबतक प्रमाद और इन्द्रियोंके विषयोंमें चित्तकी प्रवृत्ति रहती है, तबतक कोई ध्यान में नहीं लग सकता, इस कारण ऐसा उपदेश है ॥ २० ॥ इमेऽनन्तभ्रमासारप्रसरैकपरायणाः ।
यदि रागादयः क्षीणास्तदा ध्यातुं विचेष्ट्यताम् ॥ २१ ॥ अर्थ - हे भव्य ! अनन्त भ्रमरूपवृष्टिके विस्तार करनेमें मोहादिक भाव तेरे क्षीण हो गये हों, तो तुझे ध्यानकी चेष्टा रागादिकका विस्तार रहते ध्यानमें प्रवर्त्तना नहीं हो सकती ॥ २१ ॥
यदि संवेगनिर्वेदविवेकैर्वासितं मनः
तदा धीर स्थिरीय खस्मिन् खान्तं निरूपय ॥ २२ ॥
अर्थ - हे धीर पुरुष ! जो संवेग अर्थात् मोक्ष वा मोक्षमार्गसे अनुराग, तथा निर्वेद' अर्थात् संसारदेहभोगोंसे वैराग्य और विवेक अर्थात् खपरका भेदविज्ञान इससे तेरा मन वासित है, तो तू स्थिर होकर आपहीमें अपने मनको देख, कि कैसा है ? भावार्थसंवेग, निर्वेद और भेदविज्ञान के बिना चित्तकी वृत्ति परमें ही रहती है, अपने खरूपकी ओर नहीं आती है ॥ २२ ॥
२३ ॥
विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम् । निर्ममत्वं यदि प्राप्तस्तदा ध्यातासि नान्यथा ॥ अर्थ- हे भव्य ! यदि तू कामभोगों में विरक्त होकर तथा शरीर में निर्ममताको प्राप्त हुआ है, तो ध्यान करनेवाला ध्यान हो सकता है, सकता । क्योंकि भोगोंकी इच्छा वा भोग विलास करनेमें जब चित्त रहता चित्त कैसे लगे ? तथा शरीरमें अनुराग होता है, तो उसको सँवरने तथा मन लगा रहता है, अथवा रोगादिक होने वा नाश होनेका भय निरन्तर तव ध्यानकरने में चित्त कैसे लगे ? इस कारण ध्याताको ध्यान करनेका पात्र बनाने से ध्यान हो सकता है || २३ ॥
स्पृहाको छोड़कर, अन्यथा नहीं हो है, तब ध्यानमें
पुष्ट करनेमें ही
बना रहता है,
तत्पर ऐसे ये रागद्वेषकरनी चाहिये; क्योंकि
ए
१ "धन्ययोगीन्द्रसेवितं” इत्यपि पाठः ।
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निर्विण्णोऽसि यदा भ्रातर्दुरन्ताजन्मसंक्रमात् ।
तदा धीर परां ध्यानधुरां धैर्येण धारय ॥ २४ ॥
अर्थ- हे धीर पुरुष ! जो तू दुरन्तर संसारके भ्रमणसे विरक्त है, तो उत्कृष्ट ध्यानकी | धुराको धारण कर । क्योंकि संसारसे विरक्त हुए विना ध्यानमें चित्त नहीं ठहरता ॥ २४ ॥ पुनात्याकर्णितं चेतो दत्ते शिवमनुष्ठितम् ।
ध्यानतन्त्रमिदं धीर धन्ययोगीन्द्रगोचरम् || २५ ॥