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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
स्वास्थ्यको भज और परिग्रहों को छोडकर स्थिरीभूत हो । जिससे कि हम तेरे लिये ध्यानकी सामग्री भेदोंसहित कहैं ॥ १५ ॥
फिर भी कहते हैं, -
उत्तितीर्षुर्महापङ्काज्जन्मसंज्ञाद्दुरुत्तरात् ।
यदि किं न तदा धत्से धैर्य ध्याने निरन्तरम् ॥ १६ ॥
अर्थ - हे आत्मन् ! यदि तू कष्टसे पारपानेयोग्य संसार नामक महापंक (कीचड़ ) से निकलनेकी इच्छा रखता है, तो ध्यानमें निरन्तर धैर्य क्यों नहीं धारण करता ? भावार्थ - ध्यानमें धैर्यावलंबन कर, क्योंकि संसाररूपी कर्दमसे पार होनेका कारण एकमात्र यही है । इसके अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं है ॥ १६ ॥
चित्ते तव विवेकश्रीर्यद्यशङ्का स्थिरीभवेत् ।
कीर्त्यते तदा ध्यानलक्षणं स्वान्तशुद्धिदम् ॥ १७ ॥
अर्थ — हे भव्य ! जो तेरे चित्तमें निःशङ्क ( सन्देहरहित ) विवेकरूप लक्ष्मी स्थिर होवे, तो तेरे मनको शुद्धता देनेवाले ध्यानका लक्षण हम कहते हैं । भावार्थ-ज चित्तको संदेहरहित स्थिर करके सुने, तब कहे हुए वचनका ग्रहण होता है अथवा उसकी प्रतीति होती है, इस कारण ऐसा कहा गया है ॥ १७ ॥
इयं मोहमहानिद्रा जगत्रयविसर्पिणी ।
यदि क्षीणा तदा. क्षिप्रं पिव ध्यानसुधारसं ॥ १८ ॥
अर्थ - हे भव्य ! तीन जगत में फैलनेवाली यह अज्ञानरूपी महानिद्रा जो तेरे क्षीण हो गई हो - नष्ट हो गई हो, तो तू ध्यानरूपी अमृतरसका पान कर । क्योंकि सुषुप्त अवस्थामें पीना नहीं हो सक्ता ॥ १८ ॥
बाह्यान्तर्भूतनिःशेषसङ्गमूर्च्छा क्षयं गता ।
यदि तत्त्वोपदेशेन ध्याने चतस्तदार्पय ॥ १९ ॥
अर्थ - हे भव्य ! यदि तेरे तत्त्वोंके उपदेशसे वाह्य और अभ्यन्तरकी समस्त मूर्च्छा
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. . ( ममत्व परिणाम ) नष्ट हो गई हो, तो तू अपने चित्तको ध्यान में ही लगा । भावार्थपरिग्रहका ममत्वरहनेसे ध्यानमें चित्त नहीं लग सकता, इस कारण ऐसा उपदेश किया गया है ॥ १९ ॥
प्रमादविषयग्राहृदन्तयन्त्राद्यदि च्युतः । त्वं तदा क्लेशसङ्घातघातकं ध्यानमाश्रय
२० ॥
अर्थ- हे भव्य ! यदि तू प्रमाद और इन्द्रियोंके विषयरूपी पिशाच अथवा जलजन्तु'ओंके दांतरूपी यंत्रसे छूट गया है, तो क्लेशोंके समूहको घात तथा नष्ट करनेवाले ध्यानका