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ज्ञानार्णवः । • अर्थ-द्वादशांगसूत्रमें जो ध्यानका लक्षण विस्तारसहित कहा गया है, उसका शतांश (सौवां भाग) भी आज कोई कहनेको समर्थ नहीं है, तथापि उसकी प्रसिद्धिके लिये इस ग्रन्थमें दिग्दर्शनमात्र वर्णन किया जाता है ॥ २॥
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां गुणदोषैः प्रपश्चितम् ।
हेयोपादेयभावेन सविकल्पं निगद्यते ॥३॥ अर्थ-यह ध्यानका लक्षण गुण दोष और अन्वयव्यतिरेकसे जिस प्रकार विस्ताररूप है, उसी प्रकार हेयोपादेय भावोंसे भेदोसहित कहा जाता है। अन्वयगुणोंसे अर्थात् ऐसे गुण हों तो वहां ध्यान होता है और व्यतिरेकदोपोंसे अर्थात् जहां ये दोष हों वहां ध्यान नहीं होता। तथा अप्रशस्तध्यान तो हेय है और प्रशस्तध्यान उपादेय है। और आर्त, रौद्र धर्म और शुक्ल ऐसे चार भेद कहे गये हैं, सो इनके विशेषवर्णनसे विस्ताररूप ध्यानका स्वरूप कहा जावेगा ॥ ३ ॥
शार्दूलविक्रीडितम् । ध्याता ध्यानमितस्तदङ्गमखिलं दृग्योधवृत्तान्वितं
ध्येयं तद्गुणदोषलक्षणयुतं नामानि कालः फलम् । एतत्सूत्रमहार्णवात्समुदितं यत्प्राक्मणीतं वुधैः
तत्सम्यक्परिभावयन्तु निपुणा अनोच्यमानं मात्॥४॥ अर्थ-पूर्वकालके ज्ञानी पुरुषोंने (पूर्वाचार्योने ) ध्यानकरनेवाला ध्याता, ध्यान, ध्यानके दर्शन ज्ञान चारित्र सहित समस्त अंग, ध्येय, तथा ध्येयके गुणदोषलक्षणसहित ध्यानके नाम, ध्यानका समय, और ध्यानका फल ये सब ही जो सूत्ररूप महासमुद्रसे प्रगट होके बुद्धिमानोंके द्वारा पूर्वमें प्रणीत किये गये हैं, वे ही सब इस ग्रंथमें क्रमसे कहे जाते हैं । निपुण पुरुषोंको भले प्रकार इनका परिशीलन करना चाहिये ॥४॥
ध्याता ध्यानं तथा ध्येयं फलं चेति चतुष्टयम् ।
इति सूत्रसमासेन सविकल्पं निगद्यते ॥५॥ अर्थ-ध्याता, ध्यान ध्येय और फल यह चतुष्टय सूत्ररूप संक्षेपसे भेदसहित कहा जाता है ॥५॥
मुमुक्षुर्जन्मनिर्विष्णः शान्तचित्तो वशी स्थिरः। .
जिताक्षः संवृतो धीरो ध्याता शास्त्रे प्रशस्यते ॥६॥ अर्थशास्त्रमें ऐसे ध्याताकी प्रशंसा की गई है कि, जो मुमुक्षु हो, अर्थात् मोक्षकी. इच्छा रखनेवाला हो । क्योंकि यदि ऐसा नहीं हो, तो मोक्षके कारण ध्यानको क्यों करे ?