________________
ज्ञानार्णवः। अर्थ-और कितनेही वादी अपने सिद्धान्तके गर्वसे संसारकी सन्ततिके नाशकी परिपाटीमें विज्ञान, दर्शन (श्रद्धान) और चारित्र इन तीनोंमेंसे दो दो को इष्ट कहते हैं, अर्थात् कोई तो दर्शन और ज्ञानकोही मानते हैं, किसीने दर्शन और चारित्रकोही माना है और कोई २ ज्ञान और चारित्रकोही मानते हैं । इस प्रकारसे तीन प्रकारके वादी हैं ॥ २६ ॥ - एकैकं च विभिनष्टं दे दे नष्टे तथाऽपरैः।
त्रयं न रुच्यतेऽन्यस्य ससैते दुद्देशः स्मृताः ॥ २७ ॥ अर्थ-इन वादियोंमें तीन वादियोंने तो एक एकको नष्ट किया और तीन वादियोंने दोदो को नष्ट किया । इनके अतिरिक्त एकको ये तीनोंही नहीं रुचते, इस प्रकार मिथ्यामतियोंके सात भेद हुए। भावार्थ-जिसने दर्शन और ज्ञान दोहीको मोक्षका मार्ग माना उसने तो एक चारित्रको नष्ट किया; जिसने ज्ञान और चारित्र माना, उसने एक दर्शनको नष्ट किया, और जिसने दर्शन और चारित्र ये दो माने उसने एक ज्ञानको नष्टं किया। इसी प्रकार जिसने एक दर्शनहीको माना उसने ज्ञान चारित्रको नष्ट किया और जिसने एक ज्ञानहीको माना उसने दर्शन और चारित्रको नष्ट किया
और जिसने एक चारित्रकोही माना उसने दर्शन और ज्ञानपर पानी फेर दिया । इस प्रकार छह पक्ष तो ये हुए और एक नास्तिकका पक्ष है, जो इन तीनोंमें किसीको नहीं मानता है । इस प्रकार सात पक्ष मिथ्यादृष्टियोंके हैं ॥ २७ ॥
उक्तं च अन्यान्तरे"ज्ञानहीने क्रिया पुंसि परं नारभते फलम् । तरोश्छायेव किं लभ्या फलश्रीनेष्टदृष्टिभिः ॥१॥ ज्ञानं पढ़ी क्रिया चान्धे निःश्रद्धे नार्थकृद्वयम् ।। ततो ज्ञानं क्रिया श्रद्धा वयं तत्पदकारणम् ॥२॥ हतं ज्ञानं क्रियाशुन्यं हता चाज्ञानिनः क्रिया।
धावन्नप्यन्धको नष्टः पश्यन्नपि च पडकः॥३॥" अर्थ-"ज्ञानहीन पुरुषकी क्रिया फलदायक नहीं होती। जिसकी दृष्टि नष्ट हो गई है वह अन्धा पुरुष चलते २ जिस प्रकार वृक्षकी छायाको प्राप्त होता है, उसी प्रकार क्या उसके फलकोभी पासक्ता है ? कदापि नहीं! ॥ १ ॥ पंगुमें तो वृक्षके फलका देख लेना प्रयोजनको नहीं साधता और अंधेमें फल जानकर तोड़नेरूप क्रिया प्रयोजनको नहीं साधती । श्रद्धारहितके ज्ञान और क्रिया दोनोंही (दवाईकी समान) प्रयोजनसाधक नहीं हैं, इस कारण ज्ञान क्रिया और श्रद्धा तीनों एकत्र होकर ही वांछित अर्थकी साधक होती हैं ॥ २ ॥ क्रियारहित तो ज्ञान नष्ट है. और अज्ञा