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ज्ञानार्णवः ।
क्षीणे रागादिसन्ताने प्रसन्ने चान्तरात्मनि ।
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यः स्वरूपोपलम्भः स्यात्स शुद्धाख्यः प्रकीर्तितः ॥ ३१ ॥ अर्थ -- रागादिककी सन्तानके क्षीण होनेपर अन्तरंग आत्माके प्रसन्न होने से जो अपने खरूपका उपलंभन ( आलंबन ) होता है, वह शुद्ध ध्यान है ॥ ३१ ॥ शुभध्यानफेलोद्भूतां श्रियं त्रिदशसंभवाम् । निर्विशन्ति नरा नाके क्रमाद्यान्ति परं पदम् ॥
३२ ॥
अर्थ --- मनुष्य शुभध्यानके फलसे उत्पन्न हुई स्वर्गकी लक्ष्मीको स्वर्गमें भोगते हैं और क्रमसे मोक्षको प्राप्त होते हैं ॥ ३२ ॥
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दुर्ध्यानाद्दुर्गतेव जायते कर्म देहिनाम् ।
क्षीयते यन्न कष्टेन महतापि कथंचन ॥ ३३ ॥ अर्थ- दुर्ध्यानसे जीवोंकी दुर्गतिका कारणभूत अशुभकर्म होता है, जो कि बड़े कष्टसे भी कभी क्षय नहीं होता ॥ ३३ ॥
निःशेषक्लेशनिर्मुक्तं स्वभावजमनश्वरम् ।
फलं शुद्धोपयोगस्य ज्ञानराज्यं शरीरिणाम् ॥ ३४ ॥
अर्थ - जीवोंके शुद्धोपयोगका फल समस्त दुःखोंसे रहित, स्वभावसे उत्पन्न, और अविनाशी ज्ञानरूपी राज्यका पाना है । भावार्थ- शुद्धोपयोगसे जीवोंको केवलज्ञानकी प्राप्ति होती है ॥ ३४ ॥
इति संक्षेपतो ध्यानलक्षणं समुदाहृतम् । वन्धमोक्षफलोपेतं सङ्क्षेपरुचिरञ्जकम् ॥ ३५ ॥
अर्थ - इस प्रकार संक्षेपसे संक्षेपरुचिपुरुषों को रंजन करनेवाला बन्धमोक्षके फलसहित ध्यानका लक्षण कहा गया । भावार्थ- शुभध्यानसे पुण्यवन्ध तथा अशुभध्यानसे पापबन्ध होता है और शुद्धध्यानसे पापपुण्यरूप बंधोंका नाश होकर मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ ३५ ॥
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अब इस अधिकारको पूर्ण करते हुए कहते हैं, -
शिखरिणी ।
अविद्याविक्रान्तैश्चपलचरितैर्दुर्नयशतैजगमालोकं कृतमतिधनध्वान्तनिचितम् । त्वयोच्छेद्याशेषं परमततमोत्रातमतुलं
प्रणीतं भव्यानां शिवपद्मयानन्दनिलयम् ॥ ३६ ॥ अर्थ -- अविद्या के कारण विकाररूप होकर अनिश्चयरूप तथा भ्रमात्मक आचरणवाले