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रायचन्द्रवैशाखमालायाम्
हिताहितविमूढात्मा खं शश्वद्वेष्टये गृही । अनेकारम्भजैः पापैः कोशकारः कृमिर्यथा ॥ १४ ॥
अर्थ —— जैसे रेशमका कीड़ा अपने ही मुखसे तारोंको निकालकर अपनेको ही उसने आच्छादित कर लेता है, उसी प्रकार हिताहितने विचारशून्य होकर यह गृहस्थजन भी अनेक प्रकारके आरंभोंसे पापोपार्जन करके अपनेको शीघ्र ही पापजाल में फँसा - लेते हैं ॥ १४ ॥
जेतुं जन्मशतेनापि रागाद्यरिपताकिनी ।
विना संयमशस्त्रेण न सद्भिरपि शक्यते ॥ १६ ॥
अर्थ — रागादिशत्रुओंकी सेना संयमरूपी शस्त्रके विना वड़े २ सत्पुरुषोंसे ( राजाओंसे ) सैकड़ों जन्म लेकर भी जब जीती नहिं जा सकती है, तो अन्यकी कथा ही क्या हैं ? ॥ १५ ॥
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प्रचण्डपवनैः प्रायश्चात्यन्ते यत्र भूभृतः ।
तत्राङ्गनादिभिः खान्तं निसर्गतरलं न किम् ॥ १६ ॥
अर्थ—स्त्रियां प्रचंड पवनके समान हैं । प्रचंड पवन बड़े २ भूभृतों (पर्वतों) को उड़ा देता है और स्त्रियां बड़े २ भूभृतों ( राजाओंको ) चला देती हैं । ऐसी स्त्रियोंसे जो स्वभावसे ही चंचल है ऐसा मन क्या चलायमान नहिं होगा ? भावार्थ-त्रियोंके संसर्गनें ध्यानकी योग्यता कहां ? ॥ १६ ॥
खपुष्पमथवा शृङ्गं खरस्यापि प्रतीयते ।
न पुनर्देशकालेऽपि ध्यानसिद्धिर्गृहाश्रमे ॥ १७ ॥
अर्थ - आकाशपुष्प और गधेके सींग नहीं होते हैं । कदाचित् किसी देश वा कालने इनके होनेकी प्रतीति हो सकती है, परन्तु गृहस्थाश्रम में ध्यानकी सिद्धि होनी तो किसी देश वा कालमें संभव नहीं है ॥ १७ ॥
इसप्रकार गृहस्थके ध्यानकी योग्यताका निषेध किया । शंका- यदि यहां कोई यह प्रश्न करे कि, “सिद्धान्तमें अविरतसम्यग्दृष्टि तथा श्रावकके धर्मध्यानका होना सुना है, यहां गृहस्थके सर्वथा ध्यानका निषेध क्यों किया ? " - इसका समाधान
इस ग्रंथमें मोक्षके साधनरूप ध्यानका अधिकार हैं इसलिये उसकी अपेक्षा मुनियोंके ही ध्यानकी प्रधानता कहीं गई है । सम्यग्दृष्टि गृहस्थोंके धर्म ध्यान जघन्यतासे होता है, सो यहां गौण है । स्याद्वादमतमें प्राधान्य गौण कथनी में विरोध नहीं होता । अब मिथ्यादृष्टियोंके ध्यानकी सिद्धिका निषेध करते हैं, - दुर्दशामपि न ध्यानसिडि : स्वप्नेऽपि जायते । गृह्णतां दृष्टिवैकल्याद्वस्तुजातं यदृच्छया ॥ १८ ॥