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ज्ञानार्णवः। नरत्वं यद्गुणोपेतं देशजात्यादिलक्षितम् ।
प्राणिनः प्राप्नुवन्त्यत्र तन्मन्ये कर्मलाघवात् ॥ ४ ॥ अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि, ये प्राणीगण संसारमें मनुष्यपन और उसमें गुणसहितपना तथा उत्तम देश, जाति, कुलआदि साहित्य उत्तरोत्तर कर्मों के क्षयसे पाता है । यह बहुत दुर्लभ हैं, ऐसा मैं मानता हूं ॥ ४ ॥
आयुः सर्वाक्षसामग्री बुद्धि साध्वी प्रशान्तता। ___ यत्स्यात्तत्काकतालीयं मनुष्यत्वेऽपि देहिनाम् ॥५॥
अर्थ-जीवोंके देश, जाति, कुलादि सहित मनुप्यपन होते भी दीर्घायु, पांचों इन्द्रियोंकी पूर्णसामग्री, विशिष्ट तथा उत्तमबुद्धि, शीतल मंदकपायरूप परिणामोंका होना काकतालीयन्यायके समान दुर्लम जानना चाहिये । जैसे किसी समय तालका फल पककर गिरे और उस ही समय काकका आना हो एवम् वह उस फलको आकाशमै ही पाकर खाने लगे । ऐसा योग मिलना अत्यन्त कठिन हैं ॥ ५॥
ततो निर्विपयं चेतो यमप्रशमवासितम्।
यदि स्यात्पुण्ययोगेन न पुनस्तत्त्वनिश्चयः ।।६॥ अर्थ-कदाचिन् पुण्यके योगसे उक्त सामग्री प्राप्त हो जावे तो विषयोंसे विरक्त वा तरूप परिणाम, तथा यम-प्रशमन्रूप शुद्धभावांसहित चित्तका होना बडा कठिन है। कदाचित् पुण्यक योगसे इसकी भी प्राप्ति हो जाय, तो तत्त्वनिर्णय होना अत्यन्त दुर्लभ है ॥ ६॥
अत्यन्तदुर्लभेप्येषु देवाल्लब्धेष्वपि कचित् ।
प्रमादात्मच्यवन्तेऽत्र केचित्कामाथेलालसाः॥७॥ अर्थ-यद्यपि पूर्वोक्त सामग्री अत्यन्त दुर्लभ है, तथापि यदि देवयोगसे प्राप्त हो जाय, तो अनेक संसारी जीव प्रमादक वशीभूत हो, काम और अर्थमें लुब्ध होकर सम्यग्मागसे च्युत हो जाते हैं ।। ७ ॥
मागेमासाद्य केचिच सम्यग्रतत्रयात्मकम् ।
यजन्ति गुरुमिथ्यात्वविपच्यामूढचेतसः ।। ८॥ अर्थ-कोई २ सम्यक् रत्नत्रयमार्गको पाकर भी तीव-मिथ्यात्वरूप विपसे व्यामूद चित्त होते हुए सम्यग्मार्ग को छोड़ देते हैं । गृहीतमिथ्यात्व बडा बलवान् है, जो उत्तम मार्ग मिले, तो उसको भी छुड़ा देता है ।। ८ ।।
स्वयं नष्टो जनः कश्चित्कश्चिन्नप्टेंश्च नाशितः।
कश्चित्प्रच्यवते मागाँचण्डपापण्डशासनैः ॥९॥ अर्थ-कोई २ तो सम्यग्मार्गसे आप ही नष्ट हो जाते हैं, कोई अन्यमार्गसे