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ज्ञानार्णवः । कोई ईश्वर स्वामी या कर्ता नहीं है; तथापि जीवादिक पदार्थोसे भरा हुआ है। अन्यमती लोकरचनाकी अनेकप्रकारकी कल्पनायें करते हैं, वे सब ही सभा मिथ्या हैं ॥ ४॥
अधो वेत्रासनाकारो मध्ये स्याउझलरीनिमः । मृदङ्गसदृशश्वाग्रे स्यादित्यं सत्रयात्मकः ॥५॥ अर्थ-यह .लोक नीचे तो वेत्रासन अर्थात् मोके आकारका है अर्थात् नीचेसे चौड़ा है, पीछे ऊपर ऊपर घटता आया है और बीचमें झालरके ऐसा है तथा ऊपर मृदंगके समान अर्थात् दोनों तरफ सकरा और वीचमें चौड़ा है। इसप्रकार तीनस्वरूपात्मक यह लोक स्थित है ॥ ५॥
यत्रैते जन्तवः सर्वे नानागतिघु संस्थिताः।
उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते कर्मपाशवशंगताः ॥ ६॥ अर्थ-इस लोकमें ये सव प्राणी नाना गतियोंमें संस्थित अपने अपने कर्मपी फांसीके वशीभूत होकर मरते तथा उपजते रहते हैं ॥ ६ ॥ अव लोकभावनाका व्याख्यान पूर्ण करते हुए सामान्यतासे कहते हैं,
मालिनी। पवनवलयमध्ये संभृतोऽत्यन्तगाद
स्थितिजननविनाशालिङ्गितैवस्तुजातैः। स्वयमिह परिपूर्णोऽनादिसिद्धः पुराणः
कृतिविलयविहीनः स्मयंतामेप लोकः ॥ ७॥ अर्थ-इस लोकको ऐसा चितवन करना चाहिये कि, तीन क्लयोंके मध्यमें स्थित है। पवनोंसे अतिशय गाढरूप घिरा हुआ है । इधर उधर चलायमान नहिं होता और उत्पाद-व्यय-प्रौव्यसहित वस्तुसमूहोंसे अनादिकालसे स्वयमेव भरा हुआ है अर्थात् अनादिसिद्ध है। किसीका रचा हुआ नहीं है, इसी कारण पुराण है तथा उत्पत्ति और प्रलयसे रहित है। इस प्रकार लोकको सरण करते रहो, यह लोकभावनाका उपदेश है । इसका विशेषस्वरूप त्रैलोकसारादि ग्रंथोंसे जानना चाहिए। किसीको लोकक अनादिनिधन होनेमें (अकर्त्तापनमें) संदेह हो, तो उसे परीक्षमुखकी प्रमेयरनमाला, प्रमेयकमलमार्तण्डटीका तथा अष्टसहस्री, श्लोकवार्तिकादि ग्रंथोंको देखना चाहिए। इनमें कर्तृवादका विद्वानोंके देखनेयोग्य विशेष प्रकारसे (युक्ति प्रमाणोंसे) निराकरण किया गया है ॥ ७ ॥
इस भावनाका संक्षिप्त अभिप्राय यह है कि, यह लोक जीवादिकद्रव्योंकी रचना है।