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ज्ञानार्णवः । आयो ।
यद्यत्वस्यानिष्टं तत्तद्वाकचित्तकर्म्मभिः कार्यम् ।
suit परेषामिति धर्मस्याग्रिमं लिङ्गम् ॥ २१ ॥ अर्थ - धर्मका मुख्य (प्रधान) चिह्न यह है कि, जो जो क्रियायें अपनेको अनिष्ट ( बुरी ) लगती हों, सो सो अन्यकेलिए मनवचनकायसे सममें भी नहिं करनी ॥ २१ ॥ अत्र धर्मभावनाका व्याख्यान पूर्ण करते हुए सामान्यतासे कहते हैं
शार्दूलविक्रीडितम् ।
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धर्मः शर्मभुजङ्गपुङ्गवपुरीसारं विधातुं क्षमो
धर्मः प्रापितमर्त्यलोक विपुलप्रीतिस्तदाशंसिनां । धर्मः खर्नगरीनिरन्तर सुखास्वादोदयस्यास्पदम्
धर्मः किं न करोति मुक्तिललना संभोगयोग्यं जनम् ॥ २२ ॥ अर्थ -- यह धर्म धर्मात्मापुरुषों के धरणीन्द्रकी पुरीके सारसुखको करने में समर्थ है, तथा यह धर्म उस धर्मके पालनेवाले पुरुषोंको मनुष्यलोकमें विपुल प्रीति (मुख) प्राप्त करता है और यह धर्म खर्गपुरीके निरन्तर सुखाखादके उदयका स्थान हैं तथा धर्म ही मनुष्यको मुक्तिस्त्रीसे संभोग करनेके योग्य करता है । धर्म और क्या २ नहिं कर सकता ! ||२२||
मालिनी ।
यदि नरकनिपातस्त्वक्तुमत्यन्तभिष्टत्रिदशपतिमा प्रमेकान्ततो वा ।
यदि चरमपुमर्थः प्रार्थनीयस्तदानी
terrari नाम धर्मं विधत्त || २३ ||
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अर्थ - हे आत्मन् । जो तुझे नरकनिपातका छोडना परम दृष्ट है अथवा इन्द्रकी महान विभव पाना एकान्त ही इष्ट है । यदि चारों पुरुषार्थमेनं अन्तका पुरुषार्थ (गोक्ष) प्रार्थनीय ही है, तो और विशेष क्या कहा जावे, तृ एकमात्र धर्मका सेवन कर | क्योंकि धर्मसे ही समस्त प्रकार के अनिष्ट नष्ट होकर समस्तप्रकारके इष्टकी प्राप्ति होती है । इस प्रकार धर्मभावनाका व्याख्यान पूर्ण किया || २३ ॥
इसका संक्षिप्त आशय यह है कि, जिनागममें धर्म चार प्रकारका वर्णन किया है अर्थात् - वस्तुस्वभावरूप १, उत्तमक्षमादि दशरूप २, रत्नत्रय ( सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र ) रूप ३, और दयामय ४ । निश्चय व्यवहाररूपनयसे साधन किया हुआ यह धर्म एकरूप तथा अनेकरूप सधता है । यहां व्यवहारनयकी प्रधानताने वर्णन किया गया है अर्थात् धर्मका स्वरूप, महिमा तथा फल अनेकप्रकारसे वर्णन किया जाता है सो उसको विचारके धर्मकी भावना निरन्तर चित्तमें रखनी चाहिये ॥ १० ॥