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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ___ अर्थ-धर्म, परलोकमें प्राणीके साथ जाता है, उसकी रक्षा करता है, नियमसे उसका हित करता है तथा संसाररूपी कईगसे उसे निकालकर निर्मल मोक्षमामें स्थापन करता है ॥ १५ ॥
न धर्मसदृशः कश्चित्सर्वाभ्युदयसाधकः ।
आनन्दकुजकन्दश्च हितः पूज्यः शिवप्रदः ॥ १६ ॥ अर्थ-इस जगतमें धर्मके समान अन्य कोई समस्तप्रकारके अभ्युदयका साधक नहीं है । यह मनोवांछित सम्पदाका देनेवाला है | आनंदरूपी वृक्षका कन्द है अर्थात् आनंदके अंकुर इससे ही उत्पन्न होते हैं तथा हितरूप पूजनीय और मोक्षका देनेवाला भी यही है ॥ १६॥
व्यालानलोरगव्याघ्रदिपशादूलराक्षसाः।
नृपायोऽपि द्वह्यन्ति न धर्माधिष्ठितात्मने ॥ १७ ॥ अर्थ-जो धर्मसे अधिष्ठित (सहित) आत्मा है, उसके साथ सर्प, अग्नि, विप, व्याघ्र, हस्ती, सिंह, राक्षस, तथा राजादिक भी द्रोह नही करते हैं अर्थात् यह धर्म इन सबसे रक्षा करता है अथवा धर्मात्माओंके ये सव रक्षक होते हैं ।। १७ ।।
निशेष धर्मसामर्थ्य न सम्यग्वक्तुमीश्वरः।। स्फुरबक्रसहस्रेण भुजगेशोऽपि भूतले ॥ १८ ॥
अर्थ-आचार्य महाराज कहते हैं कि, धर्मका समस्त सामर्थ्य भले प्रकार कहनेको स्फुरायमान सहस्रमुखवाला नागेन्द्र भी इस भूतलमें समर्थ नहीं है। फिर हम कैसे समर्थ हो सकते हैं? ॥ १८॥ ,
धर्मधर्मेति जल्पन्ति तत्त्वशून्याः कुदृष्टयः।
वस्तुतत्त्वं न बुध्यन्ते तत्परीक्षाऽक्षमा यतः ॥ १९॥ अर्थ-तत्त्वके यथार्थज्ञानसे शून्य मिथ्यादृष्टि 'धर्म धर्म' ऐसा तो कहते हैं, परन्तु वस्तुके यथार्थवरूपको नहिं जानते । क्योंकि वे उसकी परीक्षा करनेमें असमर्थ हैं । भावार्थ-नाममात्रको 'धर्म धर्म' ऐसा तो कहते हैं, परन्तु वस्तुका यथार्थवरूप जाने विना सत्यपरीक्षा कैसे हो ? यह परीक्षा जिनागमसे ही हो सकती है । अतः जिनागममें जो धर्म कहा है, उसे कहते है ।। १९ ॥
तितिक्षा मार्दवं शौचमार्जवं सत्यसंयमौ। ब्रह्मचर्यतपस्त्यागाकिश्चन्यं धर्म उच्यते ॥ २० ॥ अर्थ-क्षमा १, मार्दव २, शौच ३, आर्जव ४, सत्य ५, संयम ६, ब्रह्मचर्य ७, तप ८, त्याग ९, और आकिंचन्य १०, ये दश प्रकारके धर्म हैं । इनका विशेपस्वरूप तत्त्वार्थ-सूत्रकी टीकाओंसे जानना चाहिये ॥२०॥