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ज्ञानार्णवः ।
अर्थ --- इस तीन जगतमें भोग और मोक्षका ऐसा कोई भी कारण नहीं है, जिसको धर्मात्मा पुरुष धर्मकी सामर्थ्य से न पाते हो अर्थात् धर्मसामध्ये समन्त मनोवांछित पदको प्राप्त होते हैं ॥ ९ ॥
नमन्ति पादराजीव राजिकां नतमौलयः । धर्मैकशरणीभूतचेतसां त्रिदशेश्वराः ॥ १० ॥
अर्थ - जिनके चित्तमें धर्म ही एक शरणभूत है, उनके चरणकमलोकी पंक्तिका इन्द्रगण भी नम्रीभूत मस्तकसे नमस्कार करते हैं । भावार्थ - धर्मके माहात्म्यसे जब तीर्थकर पदवी प्राप्त होती है, तब इन्द्र भी आकर नमस्कार करते हैं ॥ १० ॥
धर्मो गुरुश्च मित्रं च धर्मः खामी च बान्धवः । अनाथवत्सल सोऽयं संत्राता कारणं विना ॥ ११ ॥
अर्थ - धर्म गुरु है, मित्र है, खामी है, बांधव है, हितू है, और, धर्म ही विना कारण अनाथोंका प्रीतिपूर्वक रक्षाकरनेवाला हैं । इस प्राणीको धर्मके अतिरिक्त और कोई शरण नहीं है ॥ ११ ॥
धत्ते नरकपाताले निमज्जज्जगतां त्रयम् । योजयत्यपि धर्मोऽयं सौख्यमत्यक्षमङ्गिनां ॥
१२ ॥
अर्थ —यह धर्म नरकों के नीचे जो निगोदस्थान हैं, उसमें पड़ते हुए जगत्रयको धारण करता है—अवलम्बन देकर बचाता है तथा जीवों को अतीन्द्रियमुख भी प्रदान करता है ॥ १२ ॥
नरकान्धमहाकूपे पततां प्राणिनां स्वयम् ।
धर्म एव स्वसामर्थ्याद्दत्ते हस्तावलम्बनम् ॥ १३ ॥
अर्थ - नरकरूपी महाअंधकूपमें स्वयं गिरते हुए जीवांको धर्म ही अपने सामर्थ्य से हस्तावलम्बन (हाथका सहारा ) देकर बचाता है ॥ १३ ॥
महातिशयसम्पूर्ण कल्याणोदाममन्दिरम् |
धर्मो ददाति निर्विघ्नं श्रीमत्सर्वज्ञवैभवम् ॥ १४ ॥
अर्थ - धर्म, महा अतिशय से पूर्ण, कल्याणोंके उत्कटनिवासस्थान और निर्विन ऐसे लक्ष्मीसहित सर्वज्ञभगवान् के वैभवको देता है अर्थात् तीर्थंकरपदवीको प्राप्त करता है ॥ १४ ॥
याति सार्धं तथा पाति करोति नियतं हितम् । जन्मपङ्कात्समुद्धृत्य स्थापयत्यमले पथि ॥ १५ ॥