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रामचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
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च्युत हुए मनुष्योंके द्वारा नष्ट किये जाते हैं और कोई २ प्रचंड पापंडियोंके उपदेशे हुए मतोंको देखकर मार्ग से च्युत हो जाते हैं ॥ ९ ॥
त्यक्त्वा विवेकमाणिक्यं सर्वाभिमतसिद्धिदम् । अविचारितरम्येषु पक्षेष्वज्ञः प्रवर्त्तते ॥ १० ॥ .
अर्थ - जो मार्ग से च्युत अज्ञानी है, वह समस्त मनोवांछित सिद्धिके देनेवाले विवेकरूपी चिन्तामणिरत्नको छोडकर विना विचारके रमणीक भासनेवाले पक्षोंमं ( मतोंमें ) प्रवृत्ति करने लग जाता है ॥ १० ॥
अविचारितरम्याणि शासनान्यसतां जनैः । अमान्यपि सेव्यन्ते जिह्वोपस्थादिदण्डितैः ॥ ११ ॥
अर्थ - जो पुरुष जिह्वा तथा उपस्थादि इन्द्रियोंसे दंडित हैं, वे अविचारसे रमणीक भासनेवाले दुष्टोंके चलाये हुए अधममतों को भी सेवन करते हैं । विपयकपाय क्या क्या अनर्थ नहिं कराते ! ॥ ११॥
सुप्रापं न पुनः पुसां बोधिरत्नं भवार्णवे । हस्ताष्टं यथा रत्नं महामूल्यं महार्णवे ॥
अर्थ - यह जो बोधि जर्थात् सम्यग्दर्शन - ज्ञान - चारित्र - खरूप रत्नत्रय है, संसाररूपी समुद्र में प्राप्त होना सुगम नहीं है, किन्तु अत्यन्तदुर्लभ है । इसको पाकर भी जो खो बैठते हैं, उनको हाथमें रक्खे हुए रत्तको बडे समुद्र में डाल देने पर जैसे फिर मिलना कठिन है, उसी प्रकार सम्यग्रत्नत्रयका पाना दुर्लभ है ॥ १२ ॥ अब इस भावनाके कथनको पूर्ण करते हैं -
१२ ॥
सुलभमिह समस्तं वस्तुजातं जगत्यामुरगसुरनरेन्द्रः प्रार्थितं चाधिपत्यम् । कुलबलसुभगत्वोद्दामरामादि चान्यत्
किमुत तदिदमेकं दुर्लभं बोधिरत्नम् ॥ १३ ॥
अर्थ -- इस जगत में (त्रैलोकमें) समस्तद्रव्योंका समूह सुलभ है, तथा धरणीन्द्र नरेन्द्र सुरेंन्द्रों द्वारा प्रार्थना करने योग्य अधिपतिपना भी सुलभ है, क्योंकि ये सब ही कर्मोके उदयसे मिलते हैं । तथा उत्तमकुल, बल, सुभगता, सुन्दरस्त्री आदिक समस्त पदार्थ सुलभ हैं; किन्तु जगत्प्रसिद्ध सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्ररूप बोधिरल अत्यन्त दुर्लभ है । इस प्रकार बोधिदुर्लभ भावनाका व्याख्यान पूर्ण किया ॥ १३ ॥
इसका संक्षिप्त आशय ऐसा है कि, यदि परमार्थसे ( निश्चयसे ) विचार किया जाय, तो पराधीनवस्तु होती है वह दुर्लभ है और स्वाधीन वस्तु सुलभ है । यह बोधि ( रत्नत्रय )