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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अथ अशुचित्वभावना लिख्यते।
अव अशुचि भावनाका व्याख्यान करते हैं । प्रथम शरीरकी अशुद्धता दिखाते हैं,
निसर्गगलिनं निन्द्यमनेकाशुचिसम्भृतम् ।
शुक्रादिवीजसम्भूतं घृणास्पदमिदं वपुः ॥१॥ अर्थ-इस संसारमें जीवोंका जो शरीर है, वह प्रथम तो स्वभावसे ही गलनरूप ( मैलाझरनेवाला ) है, निंद्य है, तथा अनेक धातु उपधातुओंसे भरा हुआ है । एवं शुक्र रुधिरके वीजसे उत्पन्न हुआ है, इस कारण ग्लानिका स्थान है ॥ १॥
असृग्मांसवसाकीर्ण शीर्ण कीकसपञ्चरम् ।।
शिरानडं च दुर्गन्धं क शरीरं प्रशस्यते ॥२॥ अर्थ यह शरीर रुधिर मांस चर्वीसे घिरा हुआ सड़ रहा है, हाडोंका पंजर है. और शिराओंसे (नसोंसे ) बंधा हुआ दुर्गन्धमय है । आचार्य महाराज कहते हैं, कि इस शरीरके कौनसे स्थानकी प्रशंसा करें ? सर्वत्र निंद्य ही दीख पडता है ॥ २ ॥
प्रस्रवन्नवभिारैः पूतिगन्धान्निरन्तरम् ।
क्षणक्षयं पराधीनं शश्वनरकलेवरम् ॥३॥ अर्थ-यह मनुप्यका शरीर नव द्वारोंसे निरन्तर दुर्गन्धरूप पदार्थोसे झरता रहता है, तथा क्षणध्वंशी पराधीन है और नित्य अन्नपानीकी सहायता चाहता है ॥ ३ ॥
कृमिजालशताकीर्ण रोगप्रचयपीडिते।
जराजर्जरिते काये कीदृशी महतां रतिः ॥ ४ ॥ अर्थ-यह शरीर लट कीडोंके समूहोंसे भरा हुआ रोगोंके समूहसे पीड़ित तथा वृद्धावस्थासे जर्जरित है। ऐसे शरीरमें महन्त पुरुषोंकी रति (प्रीति ) कैसे हों! कदापि नही हो ॥ ४ ॥
यद्यवस्तु शरीरेऽत्र साधुवुद्ध्या विचार्यते । __ तत्तत्सर्वं घृणां दत्ते दुर्गन्धामध्यमंदिरे ॥५॥
अर्थ-इस शरीरमें जो जो पदार्थ हैं, सुवुद्धिसे विचार करनेपर वे सव धृणाके स्थान तथा दुर्गन्धमय विष्टाके घर ही प्रतीत होते हैं । इस शरीरमें कोई भी पदार्थ पवित्र नहीं है ॥५॥
यदीदं शोध्यते देवाच्छरीरं सागरा वुभिः । दूपयत्यपि तान्येवं शोध्यमानमपि क्षणे ॥ ६॥