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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
अविद्याप्रसरोद्भूतं तमस्तत्त्वावरोधकम् । ज्ञानसूर्यांशुभिर्वाढं स्फोटयन्त्यात्मदर्शिनः ॥ ८ ॥
अर्थ- आत्माको अवलोकन करनेवाले मुनिगण अविद्याके विस्तारसे उत्पन्न और तत्त्वज्ञानको रोकनेवाले अज्ञानरूपी अन्धकारको ज्ञानरूपी सूर्य की किरणोंसे अतिशय दूर कर देते हैं ॥ ८ ॥
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असंयमगरोद्गारं सत्संयम सुधाम्बुभिः ।
निराकरोति निःशङ्कं संयमी सवरोद्यतः ॥ ९॥
अर्थ-संवर करनेमें तत्पर संयमी और निःशंक मुनि असंयमरूपी विषके (जहरके) उद्गारको संयमरूपी अमृतमयी जलोंसे दूर कर देते हैं ॥ ९ ॥ द्वारपाली यस्योचैर्विचारचतुरा मतिः
हृदि स्फुरति तस्याधसूतिः स्वमेऽपि दुर्घटा ॥ १० ॥
अर्थ — जिस पुरुष के हृदयमें द्वारपालीके समान अतिशय विचार करनेवाली चतुर मति कलोलें करती है, उसके हृदयमें खममें भी पापकी उत्पत्ति होनी कठिन है । भावार्थ- जैसे चतुर द्वारपाल मैले तथा असभ्यजनोंको घरमें प्रवेश नहीं करने देता है उसी प्रकार समीचीन बुद्धि पाप बुद्धिको हृदयमें फटकने नहीं देती ॥ १० ॥ अब संक्षेपतासे कहते हैं,
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विहाय कल्पनाजालं स्वरूपे निश्चलं मनः ।
यदाधत्ते तदैव स्यान्मुनेः परमसंवरः ॥ ११ ॥
अर्थ - जिस समय समस्त कल्पनाओंके जालको छोडकर अपने खरूपमें मनको निश्चलतासे थांभते हैं, उस ही काल मुनिको परमसंवर होता है ॥ ११ ॥
आगे संवरका कथन पूरण करते हुए संवरकी महिमा कहते हैं,मालिनी ।
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सकलसमितिमूलः संयमोद्दामकाण्डः प्रशमविपुलशाखो धर्मपुष्पावकीर्णः । अविकलफलबन्धैर्बन्धुरो भावनाभि
जयति जितविपक्षः संवरोद्दामवृक्षः ॥ १२ ॥
अर्थ – ईर्यासमिति आदि पांचसमितियां ही हैं । मूल अर्थात् जड़ जिसकी, सामायिक आदि संयम ही हैं स्कँन्ध जिसके और प्रशमरूप ( विशुद्धभावरूप ) वडी २ शाखावाला, उत्तमक्षमादि दश धर्म हैं पुष्प जिसके, तथा मजबूत अविकल हैं फल जिसमें, ऐसी बारह भावनाओ सुंदर यह संवररूपी महावृक्ष सर्वोपरि है, इस प्रकार संवरभावनाका व्याख्यान किया ॥ १२ ॥