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रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम्
विशुद्ध्यति हुताशेन सदोषमपि काश्चनम् । तथैव जीवोऽयं तप्यमानस्तपोग्निना ॥ ४ ॥
अर्थ - जैसे सदोष भी सुवर्ण (सोना) अनिमें तपानेसे विशुद्ध होजाता है, उसी प्रकार यह कर्मरूपी दोषों सहित जीव तपरूपी अग्नि में तपनेसे विशुद्ध और निर्दोष ( कर्मरहित ) हो जाता है ॥ ४ ॥
चमत्कारकरं धीरैर्वाह्य माध्यात्मिकं तपः । तप्यते जन्मसन्तानशङ्कितैरार्यसूरिभिः ॥ ५ ॥
अर्थ संसारकी परिपाटीसे भयभीत धीर और श्रेष्ठ मुनीश्वरगण उक्त निर्जराका एक . मात्र कारण तप ही है, ऐसा जानकर बाह्य और अभ्यन्तर दोनों प्रकारका तप करते हैं ॥५॥ तत्र बाह्यं तपः प्रोक्तमुपवासादिषड्विधम् । प्रायश्चित्तादिभिर्भेदैरन्तरङ्गं च षडिधम् ॥ ६ ॥
अर्थ - उनमेंसे अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, और कायक्लेश ये छह तो बाह्य ( बहिरंग ) तप हैं और प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्युत्सर्ग, और ध्यान ये छह अभ्यन्तर तप हैं इनका विशेपखरूप जानना हो, तो तत्त्वार्थसूत्रकी टीकाओंको देखना चाहिये ॥ ६ ॥
निर्वेदपदवीं प्राप्य तपस्यति यथा यथा ।
यमी क्षपति कर्माणि दुर्जयानि तथा तथा ॥ ७ ॥
अर्थ – संयमी मुनि वैराग्यपदवीको प्राप्त होकर जैसे जैसे ( ज्यों ज्यों ) तप करते हैं, तैसे तैसे (त्यों त्यों ) दुर्जयकमाको क्षय करते हैं ॥ ७ ॥
ध्यानानलसमालीढमप्यनादिसमुद्भवम् ।
सद्यः क्षीयते कर्म शुद्धयत्यङ्गी सुवर्णवत् ॥ ८ ॥
अर्थ - यद्यपि कर्म अनादिकालसे जीवके साथ लगे हुए हैं, तथापि वे ध्यानरूपी अमिसे स्पर्श होने पर तत्काल ही क्षय हो जाते हैं । उनके क्षय होनेसे जैसे अग्नि तापसे सुवर्ण शुद्ध होता है, उसी प्रकार यह प्राणी भी तपसे कर्मनष्ट होकर शुद्ध ( मुक्त ) हो जाता है ॥ ८ ॥
अब निर्जराका कथन पूर्ण करते हुए कहते हैं, - शिखरिणी ।
तपस्तावद्वाह्यं चरति सुकृती पुण्यचरितस्ततश्चात्माधीनं नियतविषयं ध्यानपरमम् ।