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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् सततारम्भयोगैश्च व्यापारैजन्तुघातकैः। . . .
शरीरं पापकर्माणि संयोजयति देहिनाम् ॥८॥ अर्थ-निरन्तर आरंभ करनेवाले और जीवघातके कार्योंसे तथा व्यापारोंसे जीवोंका शरीर ( काययोग) पापकर्मोको संग्रह करता है, अर्थात् काययोगसे अशुभास्रव करता है ॥ ८॥ अब आस्रवभावनाका व्याख्यान पूर्ण करते हैं,
शिखरिणी। कषायाः क्रोधाद्याः स्मरसहचराः पञ्चविषयाः
प्रमादा मिथ्यात्वं वचनमनसी काय इति च । दुरन्ते दुर्ध्याने विरतिविरहश्चेति नियतम्
स्रवन्त्येते पुंसां दुरितपटलं जन्मभयदम् ॥९॥ अर्थ-प्रथम तो मिथ्यात्वरूप परिणाम, दूसरे क्रोधादि कपाय, तीसरे कामके सहचारी (मित्र ) पंचेन्द्रियोंके विषय, चौथे प्रमाद विकथा, पांचवें मनवचनकायके योग, छठे व्रतरहित अविरतिरूप परिणाम और सातवें आर्त्त-रौद्र दोनों अशुभध्यान ये सब परिणाम नियमसे पापरूप आस्रवोंको करते हैं । इन परिणामोंका विशेष कथन तत्त्वार्थसूत्रकी टीकाओंसे जानना चाहिये । इस प्रकार आस्रवभावनाका व्याख्यान पूर्ण किया ॥९
इसका संक्षिप्त अभिप्राय यह है कि, यद्यपि यह आत्मा शुद्ध निश्चयनयकी दृष्टि से तो आस्रवसे रहित केवलज्ञानरूप है, तथापि अनादिकर्मके संवन्धसे मिथ्यात्वादि परि. णामरूप परिणमता है, अतएव नवीन कर्मोंका आस्रव करता है । जब उन मिथ्यात्वादि परिणामोंसे निवृत्ति पाके अपने स्वरूपका ध्यान करे, तब कासवोंसे रहित हो और मुक्त हो । यह आस्रवभावनाका आशय है ॥ ७ ॥
दोहा। आतम केवलज्ञानमय, निश्चयदृष्टि निहार । सव विभावपरिणाममय, आस्रवभाव विडार ॥७॥
इति आस्रवभावना ॥ ७ ॥ अथ संवरभावना लिख्यते ।
आगे संवरभावनाका व्याख्यान करते हैं । पहिले संवरका खरूप कहते हैं,
सर्वास्रवनिरोधो यः संवरः स प्रकीर्तितः।
द्रव्यभावविभेदेन स द्विधा भिद्यते पुनः॥१॥ ... . अर्थ-समस्त आस्रवोंके निरोधको संवर कहा है । वह द्रव्यसंवर तथा भावसंवरके भेदसे दो प्रकारका है ॥ १॥