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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् अर्थ-कर्पूर, केशर, अगर, कस्तूरी, हरिचंदनादि सुन्दर सुन्दर पदार्थों को भी यह मनुप्योंका शरीर संसर्गमात्रसे अर्थात् लगाते ही अशुद्ध (मैले) कर देता है । भावार्थआप तो मैला है ही और संसर्गसे उत्तमोत्तम पदार्थों को भी मलीन कर देता है, यह अधिकता है ।। १२ ॥ अब अशुचिभावनाके कथनको पूरा करते हैं,
मालिनी । अजिनपटलगूढं पञ्जरं कीकसानाम्
कुथितकुणपगन्धैः पूरितं मृद गाढम् । यमवदननिषण्णं रोगभोगीन्द्रगेहं
__ कथमिह मनुजानां प्रीतये स्थाच्छरीरम् ॥ १३ ॥ अर्थ-हे मूढपाणी ! इस संसारमें मनुष्योंका यह शरीर चर्मके पटलोंसे (परदोंसे) ढका हुआ हाड़ोंका पिंजरा है, तथा विगड़ी हुई राघकी (पीवकी ) दुर्गन्धसे परिपूर्ण है, एवम् कालके मुखमें बैठे हुए रोगरूपी सपोंका घर है। ऐसा शरीर प्रीतिकरनेके योग्य कैसे हो? यह बड़ा आश्चर्य है ॥ १३ ॥
इस अशुचिभावनाके व्याख्यानका संक्षिप्त अभिप्राय यह है कि, आत्मा तो निर्मल है, अमूर्तीक है और उसके मल लगता ही नहीं है; परन्तु कर्मोके निमित्तसे जो इसके शरीरका संबंध है, उसे यह अज्ञानसे (मोहसे) अपना मानकर भला जानता है, और मनुप्योंका यह शरीर सर्वतया अपवित्रताका घर है । इस कारण इसमें जब अशुचिभावना भावे, तब इससे विरक्तता होकर अपने निर्मल आत्मस्वरूपमें रमनेकी रुचि हो । इस प्रकार अशुचिभावनाका आशय है ॥ ६ ॥
दोहा। निर्मल अपनो भातमा, देह अपावनगेह । जानि भव्य निजभावको, यासों तजो सनेह ॥६॥
__ इति अशुचिभावना ॥ ६॥
अथ आस्रवभावना लिख्यते ।
आगे आस्रवभावनाका व्याख्यान करते हैं । प्रथम ही आत्रवका स्वरूप कहते हैं
मनस्तनुवाकर्म योग इत्यभिधीयते ।
स एवास्रव इत्युक्तस्तत्त्वज्ञानविशारदैः॥१॥ अर्थ-मन-वचन-कायकी क्रियाको योग कहते हैं और इस योगको ही तत्त्वविशार