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ज्ञानार्णवः । • अर्थ-यदि इस शरीरको दैवात् समुद्रके जलसे भी शुद्ध किया जाय, तो उसी क्षण समुद्रके जलकी भी यह अशुद्ध (मैला ) कर देता है । अन्य वस्तुको अपवित्र कर दे, तो आश्चर्य ही क्या है ? ॥ ६॥
कलेवरमिदं न स्याद्यदि चावगुण्ठितम् ।
मक्षिकाकृमिकाकेभ्यः स्यात्रातुं कस्तदा प्रभुः ॥७॥ __ अर्थ-यदि यह शरीर बाहिरके चमड़ेसे ढका हुआ नहीं होता, तो मक्खी कृमि तथा कौओंसे इसकी रक्षा करने में कोई भी समर्थ नहीं होता । ऐसे घृणास्पद शरीरको देखकर सत्पुरुष जब दूरहीसे छोड देते हैं, तब इसकी रक्षा कौन करै । ॥ ७ ॥
सर्वदैव रुजाक्रान्तं सर्वदैवाशुचेहम् ।। . सर्वदा पतनप्रायं देहिनां देहपञ्जरम् ॥ ८॥
अर्थ-इन जीवोंका देहरूपी पीजरा सदा ही रोगोंसे व्याप्त, सर्वदा अशुद्धताओंका घर । और सदा ही पतन होनेके स्वभाववाला है । ऐसा कभी मत समझो कि, किसी कालमें i यह उत्तम और पवित्र होता होगा ॥ ८ ॥
तैरेव फलमेतस्य गृहीतं पुण्यकर्मभिः ।
विरज्य जन्मनः स्वाथै यैः शरीरं कर्थितम् ॥९॥ अर्थ-इस शरीरके प्राप्त होनेका फल उन्हींने लिया, जिन्होंने संसारसे विरक्त होकर इसे अपने कल्याणमार्गमें पुण्यकर्मोंसे क्षीण किया ॥ ९ ॥
शरीरमेतदादाय त्वया दुःखं विसह्यते । - जन्मन्यस्मिंस्ततस्तद्धि निःशेषानर्थमन्दिरम् ॥१०॥ अर्थ-हे आत्मन् ! इस संसार में तूने इस शरीरको ग्रहण करके दुःख पाये वा सहे हैं, इसीसे तू निश्चयकर जान कि, यह शरीर ही समस्त अनर्थोका घर है; इसके संसर्गसे सुखका लेश भी नहीं मान ॥ १० ॥
भवोद्भवानि दुःखानि यानि यानीहं देहिभिः ।
सह्यन्ते तानि तान्युच्चैर्वपुरादाय केवलम् ॥ ११ ॥. अर्थ-इस जगतमें संसारसे (जन्ममरणसे ) उत्पन्न जो जो दुःख जीवोंको सहने पडते हैं; वे सब इस शरीरके ग्रहणसे ही सहने पडते हैं । इस शरीरसे निवृत्त (मुक्त) होने पर फिर कोई भी दुःख नहीं है ॥ ११ ॥
आर्या । कपूरकुङ्कमागुरुमृगमदहरिचन्दनादिवस्तूनि । • भव्यान्यपि संसर्गान्मलिनयति कलेवरं नृणाम् ॥ १२ ॥