________________
४३
ज्ञानार्णवः । दोंने (ऋषियोंने ) आस्रव कहा है । यह खरूप तत्त्वार्थसूत्रमें कहा है, यथा"कायवाङ्मनः कर्मयोगः स आस्रव" ॥ १ ॥ .
वार्द्धरन्तः समादत्ते यानपात्रं यथा जलम् । .: छिद्रे वस्तथा कर्मयोगरन्धैः शुभाशुभैः ॥२॥ ___ अर्थ-जैसे समुद्रमें प्राप्त हुआ जहाज छिद्रोंसे जलको ग्रहण करता है, उस ही प्रकार जीव शुभाशुभयोगरूप छिद्रोंसे (मनवचनकायसे) शुभाशुभकर्मोको ग्रहण करता है ॥२॥
यमप्रशमनिर्वेदतत्त्वचिन्तावलम्बितम् ।
मैत्र्यादिभावनारूढं मनः सूते शुभास्रवम् ॥ ३॥ अर्थ-यम (अणुव्रत महाव्रत), प्रशम (कषायोंकी मंदता), निर्वेद (संसारसे विरागता अथवा धर्मानुराग), तथा तत्त्वोंका चिन्तवन इत्यादिका अवलंबन हो; एवम् मैत्री, प्रमोद कारुण्य और माध्यस्थ्य इन चार भावोंकी जिस मनमें भावना हो, वही मन शुभास्रवको उत्पन्न करता है ॥ ३ ॥ और,- कषायदहनोदीसं विषयाकुलीकृतम् ।
'संचिनोति मनः कम जन्मसम्बन्धसूचकम् ॥ ४॥ ___ अर्थ-कषायरूप अग्निसे प्रज्वलित और इन्द्रियोंके विषयोंसे व्याकुल मन संसारके संबंधके सूचक अशुभकर्मोंका संचय करता है ॥ ४ ॥
विश्वव्यापारनिर्मुक्तं श्रुतज्ञानावलम्बितम् ।
शुभास्त्रवाय विज्ञेयं वचः सत्यं प्रतिष्टितम् ॥५॥ ___ अर्थ-समस्त विश्वके व्यापारोंसे रहित, तथा, श्रुतज्ञानके अवलम्बनयुक्त और सत्यरूप प्रामाणिक वचन शुभास्रवकेलिये होते हैं ॥ ५॥
अपवादास्पदीभूतमसन्मार्गोपदेशकम् ।
पापासवाय विज्ञेयमसत्यं परुषं वचः॥६॥ अर्थ-अपवाद (निन्दा)का स्थान, असन्मार्गका उपदेशक, असत्य, कठोर, कानौसे सुनते हो जो दूसरेके कपाय उत्पन्नकर दे, और जिससे परका वुरा हो जाय; ऐसे वचन । अशुभास्रवके कारण होते हैं ॥ ६॥
सुगुप्तेन सुकायेन कायोत्सर्गेण वानिशम् ।
संचिनोति शुभं कर्म काययोगेन संयमी ॥७॥ अर्थ-भले प्रकार गुप्तरूप किये हुए, अर्थात् अपने वशीभूत किये हुए कायसे तथा निरन्तर कायोत्सर्गसे संयमी मुनि शुभकर्मको संचय (आस्रवरूप) करते हैं ॥ ७ ॥