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ज्ञानार्णवः ।
त्वत्स्वरूपमतिक्रम्य पृथक्पृथग्व्यवस्थिताः । सर्वेऽपि सर्वथा मूढ भावास्त्रैलोक्यवर्त्तिनः ॥ ११ ॥
अर्थ - हे मूढ प्राणी ! तीन लोकवर्ती समस्त ही पदार्थ तेरे स्वरूपसे भिन्न सर्वथा
पृथक् पृथक् तिष्ठते हैं; तू उनसे अपना एकत्व न मान ॥ ११ ॥
अव अन्यत्वभावनाके कथनको पूरा करते हैं, - शार्दूलविक्रीडितम् ।
मिथ्यात्वप्रतिबद्धदुर्णय पथभ्रान्तेन वाह्यानल
भावान् खान् प्रतिपद्य जन्मगहने खिन्नं त्वया प्राकू चिरं । संप्रत्यस्तसमस्तविभ्रमभवचिद्रूपमेकं परम्
स्वस्थं खं प्रविगाह्य सिद्धिवनितावक्रं समालोकय ॥ १२ ॥ अर्थ - हे आत्मन् ! तू इस संसाररूपी गहनवनमें मिध्यात्वके संबंधसे उत्पन्न हुए सर्वथा एकान्तरूप दुर्नयके मार्गमें भ्रमरूप होता हुआ, बाह्यपदार्थोको अतिशय करके अपने मान करके तथा अंगीकार करके, चिरकालसे सदैव खेदखिन्न हुआ और अब अस्त हुआ है समस्त विमा भार जिसका ऐसा होकर, तू अपने आपहीमें रहनेवाले उत्कृष्ट चैतन्यखरूपको अवगाहन करके उसमें मुक्तिरूपी स्त्रीके मुखको अवलोकन कर ( देख ) । भावार्थ —यह आत्मा अनादिकालसे पर पदार्थोको अपने मानकर उनमें रमता है इसी कारण से संसार में भ्रमण किया करता है । आचार्य महाराजने ऐसे ही जीवको उपदेश किया है कि, तू पर भावोंसे भिन्न अपने चैतन्यभावमें लीन होकर मुक्तिको प्राप्त हो । इस प्रकार यह अन्यत्वभावनाका उपदेश है ।
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इसका संक्षिप्त अभिप्राय यह है कि, इस लोकमें समस्त द्रव्य अपनी अपनी सत्ताको लिये भिन्न भिन्न हैं । कोई मी किसी में मिलता नहीं है और परस्पर निमित्तनैमित्तिकभावसे कुछ कार्य होता है, उसके भ्रमसे यह प्राणी परमें अहंकार ममकार करता है, सो जब यह अपना स्वरूप जाने तव अहंकार ममकार अपने आपहीमें हो और तब परका उपद्रव आपके नहिं आवै यह अन्यत्वभावना है ॥ ५ ॥
दोहा ।
अपने अपने सत्त्वकं सर्व वस्तु विलसाय । ऐसे चितवै जीव तव, परतें ममत न थाय ॥ ५ ॥
इति अन्यत्वभावना ॥ ५ ॥