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ज्ञानार्णवः। अथ अन्यत्वभावना लिख्यते।
अब अन्यत्वभावनाका व्याख्यान करते हैं । प्रथम ही परमार्थतः आत्माको शरीरादिकसे मिन्न दिखाते हैं,
अयमात्मा स्वभावेन शरीरादेविलक्षणः ।
चिदानन्दमयः शुद्धो वन्धं प्रत्येकवानपि ॥१॥ __ अर्थ यह आत्मा यदि कर्मवन्धकी दृष्टिसे देखा जाय, तो वंधरूप वा एकरूप है और स्वभावकी दृष्टि से देखा जाय, तो शरीरादिकसे विलक्षण चिदानंदमय शुद्ध है ॥ १॥
अचिचिद्रूपयोरैक्यं बन्धं प्रति न वस्तुतः।
अनादिश्चानयोः श्लेपः स्वर्णकालिकयोरिव ॥ २ ॥ अर्थ-चेतन और अचेतनके वन्धदृष्टिकी अपेक्षा एकपना है और वस्तुतः देखनेसे दोनों भिन्न २ वस्तु हैं, एकपन नहीं हैं । इन दोनोंका अनादिकालसे एकक्षेत्रावगाहरूप संश्लेष है मिलाप है। जैसे सुवर्ण और कालिमाके खानिमें एकपना है, उसी प्रकार जीव पुद्गलोंके एकता है, परन्तु वास्तवमें भिन्न २ वस्तु हैं ॥२॥
इह मूर्तममूर्तन चलेनात्यन्तनिश्चलम् ।
शरीरमुह्यते मोहाचेतनेनास्तचेतनम् ॥ ३ ॥ अर्थ-इस जगतमें मोहके कारण अमूर्तीक और चलनेवाले जीवको यह मूर्तीक अतिनिश्चल चेतनारहित शरीर अपने साथ २ लगाये रहना पडता है । भावार्थ-जीव अमूक चेतन है और मोहके कारण चलनेके स्वभावसहित है । और शरीर मूर्तीक है, अचेतन है, चलनेकी इच्छारहित है और चल नहीं है। यह जीव उसको जीता पुरुष जैसे मुरदेको लिये फिरै, उसी प्रकार लिये लिये फिरता हैं ॥ ३ ॥
अणुप्रचयनिष्पन्नं शरीरमिद्मङ्गिनाम् ।
उपयोगात्मकोऽत्यक्षः शरीरी ज्ञानविग्रहः ॥ ४ ॥ अर्थ-जीवोंका यह शरीर पुद्गल-परमाणुओंसे बना है और शरीरी अर्थात् आत्मा उपयोगमयी है और अतीन्द्रिय है । यह इन्द्रियगोचर नहीं है तथा इसका ज्ञान ही शरीर है । शरीर और आत्मामें इस प्रकार अत्यन्त भेद है ॥ ४ ॥
अन्यत्वं किं न पश्यन्ति जड़ा जन्मग्रहार्दिताः।
यजन्ममृत्युसंपाते सर्वेणापि प्रतीयते ॥५॥ अर्थ-यद्यपि उक्त प्रकारसे शरीर और आत्माके अन्यपना है, तथापि संसाररूपी