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ज्ञानार्णवः ।
संयोगे विप्रयोगे च संभवे मरणेऽथ वा ।
सुखदुःखविधौ वास्य न सखान्योऽस्ति देहिनः ॥ ४ ॥ अर्थ- - इस प्राणी संयोगवियोगमं अथवा जन्ममरणमें तथा दुःख सुख भोगने में कोई भी मित्र साथी नही है । अकेला ही भोगता है ॥ ४ ॥ मित्रपुत्रकलत्रादिकृते कर्मकरोत्ययम् ।
यत्तस्य फलमेकाकी भुङ्क्ते श्वभ्रादिषु स्वयम् ॥ ५ ॥
अर्थ
- तथा यह जीव पुत्र मित्र स्त्री आदिकके निमित्त जो कुछ बुरे भले कार्य करता है उनका फल भी नरकादिक गतियोंमें स्वयम् अकेला ही भोगता है । वहां भी कोई पुत्रमित्रादि कर्मफल भोगनेको साथी नहिं होते ॥ ५ ॥
सहाया अस्य जायन्ते भोक्तुं वित्तानि केवलम् । न तु सोढुं स्वकर्मोत्थं निर्दयां व्यसनावलीम् ॥ ६ ॥ अर्थ --- यह प्राणी बुरे भले कार्यकरके जो धनोपार्जन करता है, उस धनको भोगनेको तो पुत्रमित्रादि अनेक साथी हो जाते हैं, परन्तु अपने कर्मोसे उपार्जन किये हुए निर्दयरूप दुःखोंके समूहको सहनेके अर्थ कोई भी साथी नहिं होता है । यह जीव अकेला ही सब दुःखोंको भोगता है ॥ ६ ॥
एकत्वं किं न पयन्ति जड़ा जन्मग्रहार्दिताः । यज्जन्ममृत्युसम्पाते प्रत्यक्षमनुभूयते ॥ ७ ॥
अर्थ - आचार्य महाराज कहते हैं कि, ये मूर्ख प्राणी संसाररूपी पिशाचसे पिड़ीत हुए भी अपनी एकताको क्यों नही देखते; जिसे जन्ममरणके प्राप्त होनेपर सब ही जीव प्रत्यक्ष अनुभव करते है । भावार्थ- - आप अपनी आँखोंसे देखता है कि, यह जन्मा और यह मरा । जो जन्म लेता है वह मरता है । दूसरा कोई भी उसका साथी नही है । इस प्रकार एकाकीपन देखकर भी अपने एकाकीपनको नहिं देखता है, यह बड़ी मूल है ॥ ७ ॥
अज्ञात स्वस्वरूपोऽयं लुप्तबोधादिलोचनः ।
भ्रमत्यविरतं जीव एकाकी विधिवञ्चितः ॥ ८ ॥
यह जीव अपने अकेलेपनको नहिं देखता है । इसका कारण यह है कि, ज्ञानादि नेत्रोंके लुप्त होनेसे यह अपने स्वरूपको भले प्रकार नहिं जानता है और इसी कारण से कर्मोसे ठगाया हुआ यह जीव एकाकी ही इस संसार में भ्रमण करता रहता है । भावार्थइसका अज्ञान ही कारण है ॥ ८ ॥
यदैक्यं मनुते मोहादयमर्थः स्थिरेतरः ।
तदा स्वं खेन बध्नाति तद्विपक्षैः शिवी भवेत् ॥ ९ ॥