________________
२४.
रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
अब अन्य सामग्रीकी व्यवस्था कैसी है, यह दिखाते हैं, - घनमालानुकारीणि कुलानि च बलानि च । राज्यालङ्कारवित्तानि कीर्त्तितानि महर्षिभिः ॥ ४ ॥
अर्थ - महर्षियोंने जीवोंके कुल-कुटुंब, बल, राज्य अलंकार, धनादिकोंको मेघपटलोंके समूह समान देखते २ विलुप्त होनेवाले कहे हैं । यह मूढप्राणी वृधा ही नित्यकी बुद्धि करता है ॥ ४१ ॥
अब शरीरको निःसार बताते हैं, -
फेनपुचेऽथवा रम्भास्तम्भे सारः प्रतीयते ।
शरीरे न मनुष्याणां दुर्बुद्धे विद्धि वस्तुतः ॥ ४२ ॥
अर्थ – हे दुर्बुद्धि, मूढप्राणी ! वास्तवमें देखा जाय, तो झागोंके समूहमें तथा केलेके थंभमें तो कुछ सार प्रतीत होता भी है, परन्तु मनुष्योंके शरीरमें तो कुछ भी सार नहीं है । भावार्थ-यह दुर्बुद्धि प्राणी मनुष्यके शरीरमें कुछ सार समझता हैं; इससे कहा गया है कि, इसमें कुछ भी सार नहीं है। मरने के पीछे यह शरीर भस्म कर दिया जाता है तथा अवशेष कुछ भी नहीं रहता । यह प्राणी वृधा ही शरीरको सार जानता है ॥ ४२ ॥ फिर भी कहते हैं,
यातायातानि कुर्वन्ति ग्रहचन्द्रार्कतारकाः ।
ऋतवश्च शरीराणि न हि स्वप्नेऽपि देहिनाम् ॥ ४३ ॥
अर्थ- - इस लोक में ग्रह चन्द्र सूर्य तारे यथा छहऋतु आदि सव ही जाते और आते हैं, अर्थात् निरन्तर गमनागमन करते रहते हैं । परन्तु जीवोंके गये हुए शरीर स्वप्नमें भी कभी लौटकर नहीं आते यह प्राणी वृथा ही इनसे प्रीति करता है ॥ ४३ ॥ ये जाताः सातरूपेण पुद्गलाः प्रायनः प्रियाः । पश्य पुंसां समापन्ना दुःखरूपेण तेऽधुना ॥ ४४ ॥
अर्थ- हे आत्मन् ! इस जगतमें जो पुद्गलस्कन्ध पहिले जिन पुरुषोंके मनको प्रिय और सुखके देनेवाले उपजे थे, वे ही अब दुःखके देनेवाले हो गये हैं । उन्हें देख अर्थात् जगतमें ऐसा कोई भी नहीं है जो शाश्वता सुखरूप ही रहता हो ॥ ४४ ॥
अव सामान्यतासे कहते हैं,
मोहाञ्जनमिवाक्षाणामिन्द्रजालोपमं जगत् ।
मुह्यत्यस्मिन्नयं लोको न विद्मः केन हेतुना ॥ ४५ ॥
अर्थ – यह जगत इन्द्रजालवत् है । प्राणियोंके नेत्रोंको मोहनीअञ्जनके समान भुलाता है, और लोग इसमें मोहको प्राप्त होकर अपनेको मूल जाते हैं, अर्थात् लोग