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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम्
भूगर्भे सन्निविष्टं समदकरिघटा सङ्कटे वा वलीयान्
arasi क्रूरकर्मा कवलयति वलाज्जीवितं देहभाजां ॥ १८ ॥ . अर्थ-यह काल बडा बलवान् और क्रूरकर्मा अर्थात् दुष्ट है । जीवोंको पातालमें, ब्रह्मलोकमें, इन्द्रके भवनमें, समुद्रके तट, बनके पार, दिशावोंके अन्तमें, पर्वतके शिखरपर, अग्नि, जलमें, हिमालयमें, अंधकारमें, वज्रमयी स्थानमें, तलवारोंके पहरेमं, गढ कोट भूमि घर में, तथा मदोन्मत्त हस्तियोंके समूह इत्यादि किसी भी स्थानमें यत्नपूर्वक बिठाओ, तौ भी यह काल बलात्कारपूर्वक जीवोंके जीवनको ग्रसीभूत कर लेता है । इस कालके आगे किसीका भी वश नहिं चलता ॥ १८ ॥
अब अशरणभावनाका वर्णन पूरा करने के लिये कथनको संकोचते हैं, शार्दूलविक्रीडितम् । अस्मिन्नन्तक भोगिवकविवरे संहारदंष्ट्राङ्किते संसुतं भुवनत्रयं स्मरगरव्यापारमुग्धीकृतम् । प्रत्येकं गिलितोऽस्य निर्दयधियः केनाप्युपायेन वै नास्मान्निःसरणं तवार्य कथमन्यत्यक्षबोधं विना ॥ १९ ॥
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अर्थ - हे आर्य सत्पुरुष ! अन्तसमयरूपी दाढसे चिह्नित कालरूप सर्पके मुखरूपी विवर में कामरूपी विषकी गहलतासे मूर्छित भुवनत्रयके प्राणी गाढ़निद्रामें सो रहे हैं, उनमें प्रत्येकको यह निर्दयबुद्धि काल निगलता जाता हैं । परन्तु प्रत्यक्षज्ञानकी प्राप्तिके विना इस कालके पंजेसे निकलनेका और कोई भी उपाय नहीं है अर्थात् अपने ज्ञान व खरूपका शरण लेनेसे ही इस कालसे रक्षा हो सकती है । इस प्रकार अशरणभावनाका वर्णन किया है ॥ १९ ॥
इस भावनाका संक्षेप यह है कि, निश्चयसे तो समस्तद्रव्य अपनी २ शक्तिके भोगनेवाले हैं तथा कोई किसीका कर्ता हर्ता नहीं है । किन्तु व्यवहार दृष्टिसे निमित्त नैमि - तिक भाव देखकर यह जीव किसीके शरणकी कल्पना करता है, यह नोकर्मके उदयका माहात्म्य है । इस कारण यदि निश्चय दृष्टिसे विचारा जाय, तो अपनी आत्माहीका शरण है और व्यवहार दृष्टि से विचार किया जाय, तो परंपराय सुखके कारण वीतरागताको प्राप्त हुए पंचपरमेष्ठिका ही शरण है; क्योंकि ये वीतरागताके एकमात्र कारण हैं, अतएव अन्यका शरण छोड़कर उक्त दो ही शरणको विचारना चाहिये ।
सोरठा । जगमें शरणा दोय, शुद्धतम अरु पंचगुरु ।
आन कल्पना होय, मोह उदय जियकै वृथा ॥ २ ॥
इति अशरणभावना ॥ २ ॥