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ज्ञानार्णवः ।
शार्दूलविक्रीडितम् ।
रुद्राशागजदेवदैत्यखचरग्राहग्रहव्यन्तरा -
दिक्पाला : प्रतिशत्रवो हरिवला व्यालेन्द्रचक्रेश्वराः । 'ये चान्ये मरुदर्यमादिबलिनः संभूय सर्वे खयम्
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arrai यमकिङ्करैः क्षणमपि त्रातुं क्षमा देहिनः ॥ १६ ॥ अर्थ - रुद्र, दिग्गज, देव, दैत्य, विद्याधर, जलदेवता, ग्रह, व्यन्तर, दिक्पाल, नारायण, प्रतिनारायण, बलभद्र, धरणीन्द्र, चक्रवर्त्ति, तथा पवन देव सूर्यादि बलिष्ठ देहधारी, सब एकत्र होकर भी कालके किंकर स्वरूप कालकी कलासे आरंभ किये अर्थात् पकड़े हुए प्राणीको क्षणमात्र भी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं है । कोई ऐसा समझता होगा कि, मृत्युसे बचानेवाला कोई तो इस जगत में अवश्य होगा, परन्तु ऐसा समझना सर्वथा मिथ्या है; क्योंकि कालसे मृत्युसे रक्षा करनेवाला न तो कोई हुआ और न कभी कोई होगा ॥ १६ ॥
फिर भी उपदेश करते हैं,
आरब्धा मृगबालिकेव विपिने संहारदन्तिद्विषा
पुंसां जीवकला निरेति पवनव्याजेन भीता सती । जातुं न क्षमसे यदि क्रमपदप्राप्तां वराकीमिमां
न त्वं निर्घुण लज्जसेऽत्र जनने भोगेपु रन्तुं सदा ॥ १७ ॥ अर्थ - हे मूढप्राणी ! जिस प्रकार वनमें मृगकी बालिकाको सिंह पकडनेका आरंभ करता है और वह भयभीत होकर भागती है; उसी प्रकार जीवोंके जीवनकी कला कालरूपी सिंहसे भयभीत होकर उच्छास के बहानेसे बाहर निकलती है अर्थात् भागती है । और जिस प्रकार वह मृगकी बालिका सिंहके पावोंतले आ जाती हैं, उसी प्रकार जीवोंके जीवनकी कला कालके अनुक्रमसे अन्तको प्राप्त हो जाती है, अतएव तू इस निर्बलकी रक्षा करनेमें समर्थ नहीं है । और हे निर्दयी ? तू इस जगतमें रमनेको उद्यमी होकर प्रवृत्ति करता है और लज्जित नहिं होता है, यह तेरा निर्दयपन है क्योंकि सत्पुरुषोंकी ऐसी प्रवृत्ति होती है कि, जो कोई किसी असमर्थप्राणीको समर्थ दबावै, तो अपने समस्त कार्य छोड़कर उसकी रक्षा करनेका विचार करते हैं और तू कालसे हनते हुए प्राणियोंको देखकर भी भोगों में रमता है और सुकृत करके अपनेको नहिं बचाता है, यह तेरी बडी निर्दयता है ॥ १७ ॥
खग्धरा ।
पाताले ब्रह्मलोके सुरपतिभवने सागरान्ते वनान्ते
दिक्चक्रे शैलशृङ्गे दहनवनहिमध्वान्तवज्रासिदुगं ।