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ज्ञानार्णवः ।
अथ संसारभावना लिख्यते ।
आगे संसार भावनाका व्याख्यान करते हैं,चतुर्गतिमहावत् दुःखवाडचदीपिते ! भ्रमन्ति भविनोऽजस्रं बराका जन्मसागरे ॥ १ ॥
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अर्थ- -चार गतिरूप महा आवर्त ( भरें ) वाले तथा दुःखरूप बडवानलसे प्रज्ज्वलित इस संसाररूपी समुद्रमें जगत् के दीन, अनाथ प्राणी निरन्तर भ्रमण करते रहते हैं ॥ १ ॥ उत्पद्यन्ते विपद्यन्ते स्वकर्मनिगडैर्वृताः । स्थिरेतरशरीरेषु संचरन्तः शरीरिणः ॥ २ ॥
अर्थ - ये जीव अपने २ कर्मरूपी बेड़ियोंसे बंधे स्थावर और त्रस शरीरोंमें संचार करते हुए मरते और उपजते हैं,
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कदाचिद्देवगत्यायुर्नामकर्मोदयादिह ।
प्रभवन्त्यङ्गिनः खर्गे पुण्यप्राग्भारसंभृताः ॥ ३ ॥
अर्थ-कभी तो यह जीव देवगति - नामकर्म और देवायुकर्मके उदयसे पुण्यकर्मके समूहोंसे भरे खर्गोमं देव उत्पन्न होता है ॥ ३ ॥
प्रच्यवन्ते ततः सद्यः प्रविशन्ति रसातलम् । भ्रमन्त्यनिवद्विश्वं पतन्ति नरकोदरे ॥ ५ ॥
कल्पेषु च विमानेषु निकायेष्वितरेषु च ।
निर्विशन्ति सुखं दिव्यमासाद्य त्रिदिवश्रियम् ॥ ४ ॥
अर्थ — और वहां देवगतिमें कल्पवासियोंके विमानोंमें तथा भवनवासी ज्योतिषी तथा व्यन्तर- देवोंमें उनकी लक्ष्मी पाकर देवोपनीत सुखोंको भोगता है ॥ ४ ॥
अर्थ - फिर उस देवगतिसे च्युत होकर पृथिवीतलपर आता है और वहां पवनके समान जगतमें भ्रमण करता है; तथा नरकोंमें गिरता है ॥ ५ ॥
स्वर्गी पतति सानन्दं श्वा स्वर्गमधिरोहति ।
श्रोत्रियः सारमेयः स्यात् कृमिर्वा श्वपचोऽपि वा ॥ ७ ॥
विडम्बयत्यसौ हन्त संसारः समयान्तरे । अधमोत्तम पर्यायैर्नियोज्य प्राणिनां गणम् ॥ ६ ॥
अर्थ – आचार्य महाराज आश्चर्य करते हैं कि, देखो यह संसार जीवोंके समूहको समयान्तरमें ऊंची नीची पर्यायोंसे जोड़कर विडम्बनारूप करता है और जीवके रूपको अनेक प्रकारसे विगाडता है ॥ ६ ॥