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पर प्रयास भी योग्य रीतिसे योग्य दिशामें पूर्ण जोशके साथ किया जा सके । आजकल साध्यरहित बहुधा व्यर्थ प्रयास किया जाता है और उसके परिणामस्वरूप वे वस्तुएं विशेषतया प्राप्त की जाती है। जोकि हमारी नहीं हैं। अपनी और पराइ वस्तुके समझनेके शानको जैन शास्त्रोंमें भेदज्ञान कहा गया है । इस भेदज्ञानको सम. झनेकी अत्यन्त आवश्यकता है तथा समझकर तदनुसार वर्तन करनेकी भी उतनी ही आवश्यकता है। केवल समझने मात्रसे बहुत लाभ नहीं होता है, परन्तु समझकर उसे कार्यरूपमें प्रणित करनेकी -शानको व्यवहारमें रखनेकी अत्यन्त आवश्यकता है। इस शानक्रियासे साध्यकी प्राप्ति होती है। यह साध्य क्या है ? इसके विचारनेसे पहिले इतना जानलेना अत्यन्त आवश्यक है कि वैराग्यका विषय उक्त भेदज्ञानका कारण और कार्य दोनों ही है। जब वैराग्यके विषयमें प्रवेश किया जाता है तब उससे जीवका स्वरूप, सगेस्नेहियोंका स्वरूप, प्रिय पदार्थो, गृह, आभूषण, सामान ( Furni. ture) का स्वरूप और उन सबके साथ, जीवका सम्बन्ध आदि समझमें आजाता है, और इसके समझमें आजानेपर भेदज्ञान प्राप्त हो जाता है तथा भेदज्ञानके प्राप्त हो जानेपर सर्व पदार्थोपरसे वैराग्य उत्पन्न हो जाता है।
जिस जीवको वस्तुस्वरूप समझनेसे भेदज्ञान प्राप्त होता है उसको एक महान् तत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है, उसका व्यवहार एक
बहुत उत्तम श्रेणीका होजाता है, वह व्यर्थ सांसा. साक्षीभाव. रिक कार्योमें नहीं फँसता हैं, यदि फँसता है
तो उनमें बहुत ममत्व नहीं रखता है, परन्तु निर. न्तर उनसे मुक्त होनेकी अभिलाषा रखता है । सारांशमें कहा जाय तो वेदान्ती जिसे “ साक्षीभाव " कहते हैं उसीकी सटश अति उदात्त स्थितिको प्राप्त करता है। ऐसी स्थितिको प्राप्त करलेने पश्चात् कितने ही संयोगेके वशीभूत कदाच उसे व्यवहारमें रहना पड़े फिर भी उसके अन्तःकरणमें वैसे मिथ्याव्यवहोरपर आसक्ति नहीं होती है, प्रेम नहीं होता है, एकाग्रहता नहीं होती है। वह सर्व कार्योको ऊपर ऊपरसे करता है, परन्तु किसी भी कार्यको अपना समझ कर नहीं करता है, और जिसप्रकार काराग्रहमें रहनेवाला बन्दी उसमेंसे छुटनेका प्रयत्न करता है उसी प्रकार वह संसाररूपी