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नहीं जान सकता है। परम प्रिय मित्र, प्राणाधिक पत्नी, प्राणोंसे प्रिय पुत्र, पुत्रप्रेमी पिता और वात्सल्य भरपुर माता जब इस संसारसे विदा होकर चले जाते हैं तब जानेके पश्चात् वे उनके मित्र, पति, पिता अथवा पुत्रकी क्या दशा है इसको देखनेको भी नहीं आते हैं । यह बात जीवोंके स्नेह सम्बन्धी विचित्रता और अस्थिरताकी द्योतक है। इसप्रकारका वैराग्यभावः उत्पन्न करनेका ही सम्पूर्ण ग्रन्थका मुख्य उद्देश्य होने से इस पर विशेष विवेचन करनेकी आवश्यकता प्रतीत नहीं होती है। यहां एक मात्र यही बतलाना है कि वैराग्यका विषय परवस्तुओंके साथका सम्बन्ध उसके यथास्थित स्वरूप बता कर उसपर होनेवाले झूठे ममत्व को त्याग करनेकी शिक्षा देता है। इस ममत्व त्याग करनेका कोइ अकारण नहीं कहा जाता है; सकारण कहा जाता है। सञ्चा बात तो यह है कि इस जीवको संसारअटवीमें भ्रमण करानेवाला ममत्वभाव ही है। जिनको यह जीव अपना समझता है, जिन वस्तुओंको अपनी समझता है, वे वस्तुतः वैसी नहीं है। उनका और ईस जीवका सम्बन्ध अनित्य है। निकटसे निकट स्नेही चले जाते हैं, प्रियमें प्रिय स्त्री दूर भग जाती है, प्रियसे प्रिय वस्तु छिन्नभिन्न हो जाती है, टूट जाती हैं, नष्ट हो जाती है-इस सबका क्या कारण है ? जो अपनी वस्तु होती है वह किसी भी दिन पराई न होनी चाहिये। इस बातमें कोई मतभेद न होना चाहिये परन्तु फिर भी हम स्वयं सदैव देखते हैं कि हमारी अपनी मानी हुई वस्तुये पराई हो जाती है और सदैवके लिये कष्टप्रद सिद्ध होती हैं । जब अपनी कौनसी है इसके समझनेका प्रयास करते हुए प्रथम तो ऐसा प्रतीत होता है कि जिन वस्तुओंको अपनो समझी जाती है वे वास्तव में हमारी नहीं, और दूसरा यह प्रतीत होता है कि अपनी वस्तु कौनसी है इसको यह जीव अभी तक बराबर नहीं समझता है । यदि इस स्वपरूको समझ लिया जाय तो अत्यन्त लाभ होनेकी संभावना है। क्योंकि अपना क्या है और क्या नहीं यह यदि स्पष्टतया समझमें आजाय तो अपना जो है उसको प्रगट करने-प्रकाशित करनेके लिये प्रयास किया जाय, जिसके किये जानेसे साध्य स्पष्ट होजाय और साध्यके स्पष्ट होने