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कुछ नहीं हो सकता है । इसलिये व्यवसायी पुरुषों के लिये पुस्तकसंग भी सत्संग जितना ही लाभदायक है; यदि वे पढ़नेके पश्चात् उस पर उचित मनन किया करें। प्राचीन कालमें प्राकृतमें वाचनशक्ति अल्प थी और इसके साधन भी बहुत कम थे, इस, लिये पुस्तकसंग होना अति कठिन था, परन्तु आधुनिक कालमें प्राथमिक शिक्षाके बिशेष प्रचार और मुद्रणकलाके कारण विशेष सुविधा होने मात्रसे ही ऐसे ग्रन्थोंके लिखने की आवश्यकता हुई हो इतना ही नहीं अपितु ये आत्मिक विषय की एक बड़ी भारी कमीको पूरा करनेका साधन है। ऊपर लिखे अनुसार ऐसे ग्रन्थोंकी आवश्यकता सिद्ध करने के पश्चात् अब वैराग्य और अध्यात्म के विषयपर कुछ विचार किया जाता है।
वैराग्य । वैराग्यके विषय का मुख्य उद्देश स्ववस्तु पहचान करानेका. उसपर प्रेम उत्पन्न कराने का और पर वस्तु क्या है उसको
हढकर उसका सम्बन्ध कम करा के धीरे धीरे उसका विचार-कर्तव्य. विच्छेदन कराने का है। कौनसी वस्तु अपनी
है और कौनसी पराई है, इस सम्बन्धमें बहुत विचार करनेकी आवश्यकता है। हम प्रचलित व्यवहाररूपसे शरीर, धन अथवा स्त्री पुत्रादिक को अपना मानते हैं । इन सबका वास्तविक स्वरुप कैसा है ? उसमें और इस जीवमें क्या सम्बन्ध हैं ? कितना हैं ? कब तक का है ? किन कारणोंसे उत्पन्न हुआ है ? वे सब विचार अध्यात्मके प्रन्थों में वैराग्य उत्पन्न कराने के हेतु से बहुत मुख्यतया पुनरुक्ति करके भी वारंवार चर्चित किये हुए होते हैं । वैराग्यका अर्थ ही उदासीनता है । सांसारिक सर्व वस्तुओं और सम्बन्धियों की वास्तविक स्वरूप बतलाकर उनकों पर ' रूपसे देखा जोता है। वे हमारे नहीं हैं, हम उनके नहीं है, उनके साथका सम्बन्ध अाकस्मिक है, अल्पकाल तक रहनेवाला है । इसप्रकार परवस्तुपर उदासिनता उत्पन्न की जाती है। अब इस सबमें वास्तविक क्या हैं यह विचारने योग्य है। हजारों रुपये व्यय करके निमित किया हुआ महल भी नष्ट होजाता है, नष्ट होने की स्थिति की पहुंचने के पूर्व ही उसका इस संसारसे कुंच कर जाता है, यह कहां जाता है, यह कोई भी