Book Title: Descriptive Catalogue of Manuscripts in Jain Bhandars at Patan
Author(s): Lalchandra B Gandhi
Publisher: Oriental Research Institute Vadodra
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE FREE INDOLOGICAL COLLECTION WWW.SANSKRITDOCUMENTS.ORG/TFIC FAIR USE DECLARATION This book is sourced from another online repository and provided to you at this site under the TFIC collection. It is provided under commonly held Fair Use guidelines for individual educational or research use. We believe that the book is in the public domain and public dissemination was the intent of the original repository. We applaud and support their work wholeheartedly and only provide this version of this book at this site to make it available to even more readers. We believe that cataloging plays a big part in finding valuable books and try to facilitate that, through our TFIC group efforts. In some cases, the original sources are no longer online or are very hard to access, or marked up in or provided in Indian languages, rather than the more widely used English language. 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We shall work with you immediately. -The TFIC Team. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ K.S.R.I. LIBRARY ACCESSION NUMBER 2471 Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE KUPPUSWAMI SASTRI RESEARCH INSTITUTE. MAORAS. Page #4 --------------------------------------------------------------------------  Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GAEKWAD'S ORIENTAL SERIES. Published under the Authority of the Government of His Highness the Maharaja Gaekwad of Baroda. GENERAL EDITOR: B. BHATTACHARYYA, M. A., Ph. D., Rajaratna. THE KUPPUSWAMI SASTRI RESEARCH INSTITUTE, MADRAS. पत्तनस्थप्राच्यजैनभाण्डागारीयग्रन्थसूची । [ताडपत्रीयविविधग्रन्थपरिचयात्मकः प्रथमो भागः] Page #6 --------------------------------------------------------------------------  Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ DESCRIPTIVE CATALOGUE OF MANUSCRIPTS In the Jain Bhandars at Pattan THE KUPPUSWAMI SASTRI RESEARCH INSTITUTE, MADRAS. Compiled from the Notes OF THE LATE MR. C. D. DALAL WITH INTRODUCTION, INDICES AND APPENDICES LALCHANDRA BHAGAWANDAS GANDHI, JAIN PANDIT, ORIENTAL INSTITUTE, BARODA. IN TWO VOLUMES Vol. I Palm-leaf MSS. BARODA ORIENTAL INSTITUTE 1937 Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Printed by Ramchandra Yesu Shedge, at the Nirnaya Sagar Press, 26-28, Kolbhat Street, Bombay. Published by Benoytosh Bhattacharyya, Director, Oriental Institute on behalf of the Government of His Highness the Maharaja Gaekwad of Baroda, at the Oriental Institute, Baroda. Price Rs. 8-0-0. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद पुन त निवडावीतरागवल्य वामनासि साइप दिएर सोधे मावलीविराजमहाराजावि परमेश्वरथी विनयोजयि सारा कि TAN ान जिलश्रीकरणादायक ि फीरकाभर समस्त पात्रो श्रीखटका वयाहरी के नया नव प्रणिधि मुक् जाण्या जम "यशपत्र माम यायावर कितना उन विधियं का दावा वायवाल नत्रातील डिप विपिस ठाममुचवादनपरिक श्री विमलप्रवयति अपमया साड्याने विषयमा मलालाला नियन मध . अवयवापाद्वारापाश्रयद त्रि. सं. १९९९ वर्षे सिद्धराजराज्ये लिखिता प्रा. पुष्पवतीकथा ताडपत्रीया प्रतिः [ १८२-३ पत्रे सूचिता ] Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SHEER शाजिarda थाना पाचग्रामी AYAN वयाशाला नामदा श्रीपतिपार्थिवाद्यति हातरुराजनऊंडचा प्रतिकृति: ( २ ) हिरवाग तालावा पर मदरस एपिडियाला 203 06 शना १-२ ) वि. सं. १२९४ वर्षे लिखिता श्रीहेमचन्द्राचार्य - कुमारपाल भूपालचित्राङ्किता ताडपत्रीया प्रतिः [ २०६ पत्रे सूचिता ] (३) वि. सं. १३३६ वर्षे सारङ्गदेवराज्ये लिखिता चित्राङ्किता ताडपत्रीया प्रतिः [ ३८७ पत्रे सूचिता ] Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७-३२ अनुक्रमः। वि. सं. ११९१, १२९४, १३३६ वर्षेषु लिखितानां ताडपत्रीय पुस्तकानां प्रतिकृतयः। प्रास्ताविकम् (सम्पादकस्य ) गतशताब्द्यां भाण्डागार-निरीक्षकाः भाण्डागार-परिचयः सं. प्राकृतापभ्रंशादिभाषासु विविधविषयेवप्रसिद्धा ग्रन्थाः व्याकरणे प्राकृतप्रधाना जैनसिद्धान्त-व्याख्या-ग्रन्थाः । भाषायाम् , जैनोपदेशग्रन्थाः । काव्ये अपभ्रंशभाषायां , नाटके अलङ्कारे प्राकृतभाषायां जैनकथा-चरितग्रन्थाः । छन्दःशास्त्रे राजनीतिशास्त्रे अपभ्रंशभाषायां कामशास्त्रे ज्योतिर्निमित्तादी संस्कृतभाषायां , योगे नीति-सुभाषिते प्राकृतापभ्रंशादी जैन-स्तुति-स्तोत्रादि । वेदान्ते प्राकृते प्रकीर्णग्रन्थाः । न्याये सचित्राम्ताडपत्रीयाः पुस्तिकाः । बौद्धन्याये जिनागमादिलेखन-संरक्षणादि-प्रवृत्तिः । जैनन्याये उपसंहारः । A Report on the search for manuscripts in the Jain Bhundars at Pattan. by C. D. Dalal. pp. 33–72. १ सङ्घवीपाटक-भाण्डागारस्य ४१३ पुस्तिका-परिचयः १-२५८ २ खेतरवसी- ७६ २५९-३०९ ३ सङ्घ (फो. व.)-, ७० , .३१०-३९६ ४ तपागच्छ (फो. आ.) ३९७-४०६ ५ महालक्ष्मीपाटक-, ४०७-४१० ६ वाडीपार्श्वनाथ-, ४११-४१२ ७ मोदी ४१३ ८ अदुवसीपाटक-.. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम्-( वाडीपार्श्वनाथ-विधिचैत्य-प्रशस्ति-शिलालेखः ) ४१४-४१५ पत्तनस्थजैनग्रन्थागारीय-ताडपत्रीयपुस्तिकान्तर्गतग्रन्थानां वर्णानुपूर्व्या सूची (अप्रसिद्धग्रन्थाभिशापकसङ्केतसङ्कलिता) ४१७-४३६ पत्तनस्थजैनग्रन्थागारीयसूचिपत्रे निर्दिष्टसंवत्सराणां सूची ४३७-४४० पत्तनस्थजैनग्रन्थागारीयसूचिपत्रसूचितानामितिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची (स्थान-भूपाल-राज्याधिकारि-ग्रन्थकाराभिशानाङ्किता) ४४१-४८९ प्रास्ताविक-टिप्पनी ४९१-४९८ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविकम् प्राचीनग्रन्थरत्नगवेषिणोऽवगाहितवाङ्मयाः प्राच्यविद्या-कलोत्कर्षबद्धकक्षा भारतीयेतिवृत्त-पुरातत्त्वान्वेषिणो भारतीसमुपासकाः ! प्रमोदप्रकर्ष प्राप्नुवन्तु प्रतिभावन्तो भवन्तोऽद्य, प्रवलप्रतापचापोत्कटवनराजप्रतिष्ठितायां चौलुक्यादिराजवंशीयश्चिरपरिपालितायां सुप्रसिद्धहेमचन्द्राचार्यादिभिरनेकैः सूरिपुङ्गवैवर्णितायां पावितायां च कालक्रमेण परचक्राक्रमणादिना परिपीडितायां विलुप्तविशिष्टवैभवायामप्यद्याप्यवशिष्टसंरक्षितवाङ्मयवैभवगौरवितायां साम्प्रतं पष्टिवीयसुराज्यहीरकमहोत्सवसमुपार्जितकीर्तेः 'श्रीमन्त सरकार सयाजीराव गायकवाड' महोदयस्य प्रशस्तराज्यान्तर्गतायां 'अणहिलवाड पत्तन' इति प्रख्यया प्रख्यातायां प्राचीनायां गूर्जरराजधान्यां विद्यमानानां जैनसङ्घलेखित-सङ्ग्रहीत-सुरक्षितानां ताडपत्रादिपुस्तिकापरिकलित-भारतीयप्राच्यगौरवप्रदर्शक-विविधज्ञानप्रद-दुर्लभोपयुक्तानल्पग्रन्थरत्नभाण्डागाराणां रहस्यप्रकाशिकया प्रारम्भ-प्रान्त-प्रशस्त्यादि-प्रमाणोपेतयाऽनया विशिष्टया सूच्या । येषां ग्रन्थभाण्डागाराणां निरीक्षणार्थं सूक्ष्मपरिचयपूर्वकं रहस्य विज्ञानार्थं ग्रन्थरत्नादिगतशताब्द्यां ग्रहणार्थं च व्यतीतायां शताब्द्यां राज्याधिष्टातृप्रेरित-प्रोत्साहितैरितरैरपि निरीक्षकाः च परदेशीयरेतद्देशीयैश्चानेजिज्ञासुविज्ञैन नाम सर्वथा निष्फला नके प्रयत्ना व्यधीयन्त । राजस्थानेतिवृत्तलेखनेन सुप्रसिद्धः कर्नल टॉड महाशयः प्राग् इ. सन् १८२९ (?) वर्षे जैनयतिज्ञानचन्द्रादिसाहाय्येन विलोक्यतेपो मध्यात् कतिपयभाण्डागारान् , सम्प्राप्य च कतिचनैतिहासिकोपयुक्तान् ग्रन्थान् तन्महत्त्वं प्रकाश्य विचक्षणान् तदभिमुखीकृतवान् । तदनु ‘रासमाला' संज्ञक-गूर्जरत्रेतिहाससङ्कलनया प्रख्यातः एलेक्झांडर किन्लोक फॉर्बसमहाशयः पूर्णिमापक्ष-सागरगच्छीयोपाश्रयाधिकारिणः श्रीपूज्यान् प्रसन्नीकृत्य तदधीनपुस्तकसङ्ग्रहतोऽधिगतवान् इ. सन् १८५०-५१ वत्सरे इत एवोपयुक्तां ध्याश्रयमहाकाव्यादिकामैतिह्यसाधनसामग्रीम् । ३. सन् १८७३(४)-७५ वर्षद्वये ब्रिटीशसरकारप्रेरित-प्रोत्साहितः डॉ. जी. बुहरनामधेयो विचक्षणो राजकीयप्राचीनपुस्तकसंशोधनतन्त्रयोजनया व्यलोकयद् वारद्वयं भाण्डागार Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फो. भाण्डागारम् । कृतप्रयत्नोऽपि नापारयत् सङ्घवीपाटक-भाण्डागारे प्रवेष्टुम् । प्रयाणानन्तरं च प्राप्तानुमत्याऽन्यशास्त्रिद्वाराऽकारयत् तदीयं सूचिपत्रकमुपलब्धवांश्च प्राचीनां संक्षिप्तां सूचीम् । दुर्लभानां केषांचिद् ग्रन्थानां प्रतिकृति कारयामास । एतद्विषयकं रिपोर्टरूपं निजनिवेदनं प्राकाशयत् । इ. सन् १८८०-८१ वर्षे 'बोम्बे गवर्नमेन्ट'कृते डॉ. कील्हॉर्नतन्त्रेण क्रीतानि पुण्यपत्तने( पूना) डेक्कन कॉलेज( भां. रि. इ.) सञन्हे स्थापितानि पञ्चसप्ततिप्रमितानि ताडपत्रीयपुस्तकानीतः पत्तनात् मकामोदीसत्कभाण्डागारादेव तत्र गतानीति प्रसिद्धिः । इ. सन् १८८३ वर्षे मुंबईसरकारप्रेरितो डॉ. रा. गो. भांडारकरः प्रो. आ. वि. काथवटे इत्यनेन सह पत्तनमगमत् । अचिरं तत्र स्थित्वा कतिपयपुस्तकसङ्ग्रहानवलोक्य प्राप्तां शुद्धाशुद्धां ग्रन्थनामसूची च इ. सन् १८८३-८४ वर्षीये निवेदने न्यदर्शयत् । यत् १८८७ वर्षे प्रासिद्ध्यत । इ. सन् १८९२ वर्षे श्रीमन्नपवय-गायकवाडेत्युपाख्य-सयाजीत्याह्वयमहाराजानां खयंकृतनिदेशेन प्रो. मणिलाल न. द्विवेदी ददर्श तत्र दश जैनभाण्डागारान् , सङ्घहद्वयं चान्यत् । तद्विपयकं तन्निवेदनं प्रसिद्धजैनपुस्तकमन्दिरस्थहस्तलिखितग्रन्थानां क्रमप्रदर्शकपत्रमिति नाम्ना १८९६ वर्षे बडोदा-राजकीयमुद्रालये प्रसिद्धिमधिजगाम । इ. सन् १८९३ वर्षे पुनः मुंबईसरकारप्रेरितः प्रो. पी. पिटर्सनमहाशयः पत्तन प्राप । तत्र च फो. स्थानस्थां प्राग वस्त्रमञ्जूपेति परिचाय्यमानां प्राचीनताडपत्रीयपुस्तिकामञ्जुषां प्रेक्ष्य प्रामोदत । पञ्चसप्ततिपरिमितपुस्तिकासु वर्तमानानां ग्रन्थानां शतद्वयस्य प्रारम्भ-प्रान्तांशप्रदर्शनपूर्वकं परिचयस्तेनाकारि इ. सन् १८९२-९५ वर्षीये १८९६ वर्षे तन्नाम्ना प्रसिद्ध पञ्चमे 'रिपोर्ट' नामके पुस्तके । तदनन्तरं 'मुंबई' स्थानस्थया जैनश्वे. कॉ. संज्ञकसंस्थया पत्तनेऽन्यत्र स्थितानां च जैनपुस्तकभाण्डागाराणां प्रा. मं. जैनग्रन्थानां नामादिनिर्देशवती जैनग्रन्थावली प्रयत्नेन विरचय्य इ. सन् १९०९ वर्षे प्राकाशि । ___ एवं राजकीयरितरश्च स्वदेश्यः परदेशीयैरपि विहितेष्वपि विविधप्रयत्नषु अंशत उपयुक्तेष्वपि न नामापेक्षितकर्तव्यस्य परिपूर्णता साफल्यमथ च तादृगुपयुक्तत्वमित्यासीत् खल्वपेक्षा तादृशस्य सुप्रयत्नस्य । यः प्रामाणिकांशप्रोद्धरणेन विश्वसनीयतामापादयेत् सन्तोषं च जनयेत् । अप्रसिद्धग्रन्थानां प्रारम्भ-प्रान्तादिप्रदर्शनेन ग्रन्थानां ग्रन्थकर्तृणां च सविस्तरं विश्वास्यं परिचयं सम्पादयेत् । ग्रन्थकृत्प्रशस्त्या ग्रन्थलेखन-दान-सङ्ग्रहकर्तृणां प्रशस्त्युल्लेखादिनिर्देशेन च तत्कालीनस्थल-राजानुराग-राज्याधिकारि-जैन-जैनेतर-विद्ववैदुष्य-विद्याप्रेम-श्रीमत्ता-धर्मप्रियता-श्रमणगच्छ-कुलादिपरिस्थितिविषयकं विविधमैतियमपि प्रकाशयेन् । जीर्ण-शीर्ण-गत-लुप्तावशिष्टानां प्रसिद्धाप्रसिद्धानामुपयुक्तग्रन्था Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामान्तररहस्यं च सप्रमाणं प्रोद्घाटयेत् । सम्यगवधार्य तदर्थ सत्कृत्यपरायणैर्विद्यानुरागतो विश्वविख्यातैः 'श्रीमंत सरकार महोदय सयाजीराव गायकवाड'महाराजैः ता. १५-९-१४ वर्षे दलालेत्युपाख्यो जैनविद्वान् चीमनलालः समाज्ञापित आसीत् । __ यशःशेप एष महाशयो गत्वा पत्तनं चिरं स्थित्वा च तत्र प्राचीनपुस्तकसंरक्षणसंग्रह-संशोधनादावसाधारणोद्यमिनां प्रवर्तककान्तिविजयादिजैनयमिनां सुसाहाय्येन प्रायशः सर्वानपि तत्रत्यान् जैनपुस्तकभाण्डागारान् प्रैक्षिष्ट । तेन तद्विषयकमाङ्ग्लभाषागतं ता. १७-४-१९१५ वर्षे विहितं निवेदनमनन्तरप्रकाशितग्रन्थप्रदर्शनपुरस्सरमितः परमत्रोपस्थाप्यते । तदानीमेव श्रीमतः सयाजीरावमहाराजस्य शुभाज्ञया प्रादुर्भूतायां प्रतिष्ठितायां च गायकवाडप्राच्यग्रन्थमालायां तत्तदप्रसिद्धोपयोगिदुर्लभग्रन्थानां सम्पादनादौ दत्तचित्तेन स्व. दलालेन वयं सङ्कलिताया अपि विशिष्टाया अस्याः सूच्या जीवनसमाप्ति यावत् मुद्रायन्नयोग्या प्रतिकृतिः (प्रेसकॉपी) न कृता कारिता वाऽऽसीत् । अथ च जेसलमेरुदुर्गभाण्डागारीयग्रन्थसूच्या इवास्या अपि सम्पादनकर्म विधिवशादस्मासु समापतितम् । प्रस्तुतकार्यसौष्ठवाथ सन्देहाद्यपाकरणार्थं च तत्तद्भाण्डागाराणां साक्षाद् दर्शनं समुचितं विचार्य राज्यविद्याधिकारिणो निदेशेन इ. सन् १९२६ वर्षेऽहमपि पत्तनमगच्छम् , मासं यावच्च तत्र स्थित्वा स्वयमवलोक्य तत्तत्पुस्तिका दलालसङ्कलिते सूचिपत्रे यापदावश्यकं वैशचं व्यधाम् । विशेषतोऽवतारितमुपयोगि नूतनमावश्यकमवतरणादि तु द्वितीयभागे प्रसिद्धिमधिगच्छेद् यतोऽयं प्रथमो भागः षट्शतीपरिमितानां प्रायशस्ताडपत्रीयपुस्तिकानां ग्रन्थानामष्टशत्याः प्रतीनां तु सपादसहस्रद्वयस्य परिचयार्थमेव परिकल्पित इत्यत एव च तादृशानां भाण्डागाराणामेवात्र परिचयः कार्यते । पुनरपि यूरोपस्थैरपि श्रीमद्भिः सयाजीरावमहाराजैः प्रेरिता राज्यविद्याधिकारिणः प्राच्यविद्यामन्दिराध्यक्षादयश्च जैनपुस्तकभाण्डागारान् विलोकितुं इ. सन् १९३३ वर्षप्रारम्भे पत्तनं गतवन्तः । यः साकमस्माकमपि योजनमभूत् । दिनद्वयेन तदानीन्तनस्थितिपरिज्ञानं व्यधायि । भाण्डागार-परिचयः। १ सङ्घवीपाटकभाण्डागारः। 'संघवी पाडा' संज्ञकस्थानस्थितोऽयं भाण्डागारश्चिरमसूर्यम्पश्य इवासीत् । प्राचीनानामप्रसिद्धानामत्युपयोगिनां ताडपत्रमयानां पुस्तकरत्नानां प्राधान्येनापूर्वोऽयं सङ्ग्रहः । वि. सं. १९१४ वर्षेऽत्र स्थितानां ४३४ ताडपत्रीयपुस्तिकानां नामनिर्देशवती प्रायोऽशुद्धा एका सूचिका ऋद्धिसागरेण निर्मिताऽभवत् । डॉ. जी. बहरमहाशय इमं भाण्डागारमघलोकयितुं कृतप्रयत्नोऽपि न सफलता प्राप%; तथापि तां सूचीमुपलब्धवान् , सूर्यपुरीयनारायणशास्त्रिणं प्रेर्यान्यां सूची च कारितवान् । सा चाशुद्धाऽऽसीदिति डॉ. कील्हॉर्न इत्यनेन निजे रिपोर्ट पुस्तके निरदेशि । प्रो. पी. पा० २ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पिटर्सनमहाशयोऽप्यस्य भाण्डागारस्य प्रेक्षणे कृतप्रयासोऽप्यपूर्णाश एव बभूव । तथा च प्रो. मणिलाल न. द्विवेदी इत एव राज्याद् गतोऽपि निष्फलप्रयत्नोऽजनि महतोऽस्य भाण्डागारस्य निरीक्षणे । तेन निवेदितमेतद्विषये निजानुभूतं विलक्षणमनुमानं चोद्भियते तन्निवेदनात् "संघवीनो पाडो ए नामनो एक भंडार हुं जोइ शक्यो नथी; केमके ते भंडारनी कूची कोई श्रीपूज्य पासे हती ने ते श्रीपूज्य क्यां छे एनी बातमी मली शकी नहि. रावबहादुर रघुनाथरावे ते उघडाववा तजवीज करी पण संघवाळा एम कहेवा लाग्या के ए भंडारनुं तालुं ते श्रीपूज्यनुं छे; ते कांइ गया आव्यानुं कहे तो जवाबदारी कोने माथे रहेशे; एटले ए भंडार उघडाववानो विचार बंध राख्यो हतो. अद्यापि सुधी ते भंडार उघडे तो उघडाववानो प्रयास जारी छे; परंतु जे भंडारो में तपास्या ते उपरथी मारी खातरी थइ छे के, ए भंडारमा कशुं नवं होQ जोइए नहि. केमके फोफळीआवाडाना त्रण भंडार तथा वाडी पार्श्वनाथ अने भाभानो पाडो वगेरे जोतां पुस्तकोनो महोटो भाग सेंकडे ९० टका जेटलो तेनो ते ज होय छे, एम जणायुं छे. वळी संघवीना पाडामां एकलां ताडपत्रो ज छे, कागळे लखेलां पुस्तक नथी; अने मारी पूर्ण खातरी छे के जेटलां ताडपत्र छे ते सर्वनी कागळ उपर नकलो थयेली छे, एटले पण आ भंडारमा कांइ नवं होवानो संभव नथी.xx संघवीनो पाडो न जोयो तेनुं नाम मारी यादीमां नथी." ख. द्विवेदिनोपरि निदर्शितमनुमानं न सम्यगासीदिति ज्ञास्यतेऽस्या विशिष्टायाः सूच्या विलोकनेन । मुख्यभाण्डागारस्यास्य प्राक् सूचिताभ्यः ४३४ पुस्तिकाभ्यः कतिचिदन्यत्र सूर्यपुरादौ हृता गता वा श्रूयन्ते इत्यत्र ४१३ पुस्तिकानां परिचयः कारितः । अस्य भाण्डागारस्य कार्यवाहक इदानीं जैनसङ्घस्थः श्रेष्ठी ‘पन्नालाल छोटालाल पटवा' इत्यस्य वंशजः । २ खेतरवसी-एतन्नामकस्थानस्थितः ७६ ता. पुस्तिकासमृद्धोऽयं भाण्डागारः । गा. प्राच्यग्रन्थमालायां प्रसिद्ध रूपकपटकमेतद्भाण्डागारीयादर्शाधारेण । अस्य व्यवस्थापकः 'श्रेष्ठी गभरुचंद वस्ताचंद' अचिराद् दिवं गत इत्यन्ये निर्वहन्ति तदीयं कार्यभारम् । . ३ सङ्घ-भाण्डागार:--'फोफलीआ वाडा, वखतजी शेरी' संज्ञकस्थानस्थोऽयं महान् भाण्डागारः । प्रो. पी. पिटर्सनमहाशयेनात्रत्यानां ७६ ताडपत्रीयपुस्तिकानां (प्रायः शतद्वयाधिकप्रतीनां) परिचयः स्वकीये पञ्चमरिपोर्टपुस्तकेऽकारीति प्रायोऽवशिष्टानां तत्र परिचायितानामप्यत्युपयोगिनीनां च कियतीनां संमील्य ७० ता. पुस्तिकानामुल्लेखः ख. दलालेनात्र ध्यधायि । अत्र १३७ ता. पुस्तिक्लः सन्ति, ताश्च सह मेलनेन न्यून Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्ख्याकाः कृता ज्ञायन्ते । एका च पुस्तिका विशिष्टे स्थूलवस्त्र एव सं. १४१८ वर्षे लिखिताऽत्रोपलभ्यते । अस्य व्यवस्थापिका जैनसङ्घसंस्था 'शेठ धरमचंद अभेचंद (पेढी)' इति नाम्ना व्यवह्रियते । ४ तपागच्छ-भाण्डागार:-'फोफलीआ वाडा, आगली शेरी' इति स्थानस्थितेइस्मिन् २२ ता. पुस्तिकानां सङ्ग्रहः । जैनसङ्घसत्कः 'शेठ मूलचंद दोलाचंद' इत्यस्य व्यवस्थापक इदानीम् । ५ महालक्ष्मीपाटक-भाण्डागार:-महालक्ष्मीपाटके जैनोपाश्रये स्थितस्य ताडपत्रपुस्तिकाऽष्टकान्वितस्यास्य लघुसङ्ग्राहस्य व्यवस्थां जैनसङ्घीयः श्रेष्टी 'चुनीलाल घेलाचंद' इति करोति । ६ वाडीपार्श्वनाथ-भाण्डागारः-वि. सं. १६५२ वर्षे बृहत्खरतरगच्छीयजिनचन्द्रसूरिसदुपदेशेन प्राक् प्रतिष्टितस्य वाडीपार्श्वनाथ-विधिचैत्यस्यैकस्मिन् प्रदेशे स्थापितोऽयं भाण्डागारः । यस्य चैत्यस्य प्रशस्ति-शिलालेखः ‘एपिग्राफिआ इंडिका' [बॉ. १, पृ. ३२३] पुस्तकेऽत्रापि च परिशिष्ट प्रकाशितः । अत्र ताडपत्रीय पुस्तकचतुष्टयमेव प्रेक्ष्यते । गा. प्राच्यग्रन्थमालायां प्रकाशिताः तत्त्वसङ्ग्रह-हम्मीरमदमर्दनादयो ग्रन्था अस्य सङ्ग्रहस्यादर्शाधारेण । अस्य समुत्साही व्यवस्थापको जैनोणी 'वाडीलाल हीराचंद' अचिरात् परलोकं प्रयातः । __७ मोदी-भाण्डागार:--'मका मोदी' नाम्ना प्रख्यातोऽयं भाण्डागारः । इ. सन् १८८०-८१ वर्षे डॉ. कील्हॉर्नमहाशयेन 'मुंबईसरकार' कृते याः ७५ परिमिताः ताडपत्रीयपुस्तिकाः क्रीता याश्च पुण्यपत्तने( पूना) डेक्कन-कॉलेजसम्हे ( भां. रि. इन्स्टिट्वटमध्ये ) स्थापितास्ता इत एव तत्र गताः । १८९३ वर्षे चैनं दिदृक्षुर्द्विवेदी सखेदं निवेदयति स्म-'मका मोदीनुं नाम डॉ. भांडारकरे आप्युं छे पण ते माणसे भंडार बळी गयानुं कही कशुं बताव्युं नथी.' एवमवशिष्टस्य ता. पुन्तिकाद्वयस्य सूचनमत्र विहितम् । साम्प्रतमयं सङ्ग्रहः तपागच्छीयसागरशाखायाः सागरसंज्ञके उपाश्रये वर्तते । 'हेमचन्द्राचार्य जैनसभा' नामधेया संस्थाऽस्य संरक्षणादिव्यवस्थां करोति । ८ अदुवसीपाटक-भाण्डागारः-'अदुवसी पाडा' नामकस्थानस्थितेऽस्मिन् सङ्ग्रहे ता. पुस्तकद्वयमेव । उपरि सूचितेषु तदितरेषु च पत्तनीयेषु पुस्तकभाण्डागारेषु स्थितानां कागदपत्रात्मकानां लिखितानामुपयोगिनां ग्रन्थानां प्रारम्भ-प्रान्तादि-प्रशस्ति-परिचय-वक्तव्याद्युल्लेखो द्वितीये भागे विधास्यते। ग्रन्थविस्तरभयात् , जे. भां. सूच्यादावस्माभिः केपांचित् परिचायितत्वाच्चात्र सूचितेष्वपि केवलमप्रसिद्धानां ग्रन्थानां विषयविभागेन नामादि-निर्देशं कृत्वा, बृहट्टिपनिकायां नाम प्राचीनायां ग्रन्थरसूच्यां च येषामुल्लेखः समवाप्यते तेषां समन्वयं च प्रदत्यैव सन्तुष्यते । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सं. प्राकृतापभ्रंशादिभाषासु विविधविषयेऽप्रसिद्धा ग्रन्थाः। ध्याकरणे। 'कातन-वृत्ति-पञ्जिका। त्रिलोचनदासः। ---- उद्द्योतः। त्रिविक्रमः । [ले. सं. १२२१ कातन्त्रोत्तरम् । विजयानन्दः । [ले. सं. १२०८ (?) 'सिद्धहेम-शब्दानुशासन-लघुवृत्त्यवचूरिः पं. धनचन्द्रः । "प्राकृतप्रबोधः । पं. नरचन्द्रः। 'मलयगिरि--शब्दानुशासनम् । मलयगिरिः । शब्दब्रह्मोल्लासः (?) उदयप्रभः । उक्ति-व्यक्तिः । दामोदरः -- - विवृतिः । भाषायाम् । आहारविशुद्धिः (प्रा. गू.) कलानिधिः ( मराठी ) वैजनाथः। काव्ये । 'तिलकमञ्जरीकथा-टिप्पनम् । शान्तिसूरिः । "विक्रमाङ्काभ्युदयम् । सोमेश्वरः ( भूलोकमल्लः) 'शिशुपालवध-टीका (सन्देह विषौषधिः) वल्लभदेवः । नाटके। 'रघुविलासनाटकम् । रामचन्द्रसूरिः। १ अनर्घराघवनाटक-टिप्पनम् (रहस्यादर्शः) देवप्रभसूरिः । अलङ्कारे। 'सरस्वतीकण्ठाभरण-वृत्तिः (पदप्रकाशः) आजडः । काव्यप्रकाश-सङ्केतः (काव्यादर्शः) भट्टसोमेश्वरः । __ १ कातन्त्रापरनामकलापक-चतुष्काख्यात-कृवृत्तिर्दुर्गसिंहकृता । कातन्त्रचतुष्काख्यात-कृत्पञ्जिका त्रिलोचनदासकृता दौर्गसिंहवृत्तिविषमपदव्याख्यारूपा। २ 'कातन्त्रोत्तरं विद्यानन्दापरनामकं समासप्रकरणं यावत् विद्यानन्दसू. कृ. व्या. ।' वृ. ३ 'हैमचतुष्कगृत्ति-अवचूरिः २२१३ ।' दृ. ४ 'प्राकृतरूपसिद्धिः हैमप्राकृतवृत्त्यवचूरिरूपा मलधा. पं. नरचन्द्रकृता प्राकृतप्रबोधवाच्या १६०० ।' बृ. ५ 'मुष्टिव्याकरणं मलयगिरिकृतम् ।' बृ. ६ 'तिलकमञ्जरीकथा धनपालकृता चम्पूरूपा वर्णनसारा ।-टिप्पनकं शान्त्याचा:यं १२०० ।' वृ. ७ विक्रमाङ्काभ्युदयकाव्यम् ।' बृ. ८ 'माघकाव्यटीका वल्लभदेवकृता १२००० ।' बृ. ९ 'रघुविलासनाटकं पं. रामचंद्रकृतम् ।' बृ. १० 'मुरारि-नाटकम् ।-टिप्पनकं देवप्रभसूरिकृतं ७५०० ।' बृ. ११ 'श्रीभोजराजकृतालङ्कारस्य वृत्तिः पदप्रकाशनानी आजडकृता काव्यबन्धादिवाच्या।' इ. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'काव्य - शिक्षा (विनयाङ्का) काव्य- कल्पलता-विवेकः । छन्दोऽनुशासनम् । 'छन्दोवृत्तिः (अमृतसञ्जीवनी) छन्दोऽनुशासनोद्धारः । वृत्तरत्नाकर - वृत्ति: ( १ ) ( २ ) " 33 पं. श्रीकण्ठः । त्रिविक्रमः । राजनीतिशास्त्रे । कौटलीयराज सिद्धान्तटीका ( नीतिनिर्णीतिः ) | योग्घम: ( मुग्धविलासाङ्गः ) कामशास्त्रे | "शम्भली (कुट्टिनी) मतम् । उत्पातदर्शनम् । गणधरोरा (प्रा.) गर्गसंहिता (ध्वजाध्यायः ) गर्भलक्षणम् । गुर्वादिचारः । 'नाडीवि (सं)चार : ( प्रा. ) नाडीविज्ञानम् (सं.) भूमि - ज्ञानम् (अप. ) मेघमाला ( ? अप. ) वर्षालक्षणम् । “सिद्धादेशः । १३ "पिपीलिकाज्ञानम् (प्रा. ) प्रश्न - व्याकरणटीका ( चूडामणि: ) ( लीलावती ) विनयचन्द्राचार्यः । छन्दःशास्त्रे । वाग्भटः । हलायुधः । दामोदरगुप्तः । ज्योतिर्निमित्तादौ । श्वानरुतम् (प्रा.) (१) गमनागमने (२) जीवित - मरणे 'उपश्रुतिद्वारम् (प्रा.) (छायाद्वारम् (प्रा.) 'ज्योतिर्द्वारम् (प्रा. ) 'नाडीद्वारम् (प्रा.) 'निमित्तद्वारम् (प्रा.) 'रिष्टद्वारम् (प्रा. ) 'शकुनद्वारम् (प्रा.) 'खमद्वारम् (प्रा.) शकुनविचारः ( प्रा. अप. ) शनैश्वरचक्रम् ( अप. ) . १ 'कविशिक्षा बप्पभट्टशिष्य ( ? ) विनयचन्द्रकृता ।' -बृ. २ 'हायुधच्छन्दोवृत्तिर्भगृहलायुधकृता १२३३ ।' नृ. ३ ' वृत्तरत्नाकरो भट्टकेदारकृतः १५० । तद्वृत्तिः श्रीकण्ठकृता ८२० ।' बृ. ४ कुट्टिनीमतकाव्यं सं. दामोदरकृतं १२९० ।' बृ. ५ प्राकृतं पिपीलिकाज्ञानं नाडी संचारज्ञानं च | ६ ‘प्रश्नव्याकरणज्योतिर्वृत्तिः चूडामणिग्रन्थः २३०० ।' बृ. ७ 'सिद्धाज्ञापद्धतिः । वृ. ८ देवतादि ११ द्वारैः कालज्ञानम् । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चूडामणि-सारः । भट्टलक्ष्मणः । प्रणष्टलाभादिप्र. (प्रा.) योगे। योगकल्पद्रुमः । (बृ.) योगशास्त्रम् ( त्रिभुवनसारः) योगसङ्ग्रहसारः ( अध्यात्मपद्धतिः) नन्दीगुरुः । प्रा. सं. नीति-सुभाषिते । गाथाकोशः (प्रा.) सप्तशती(प्रा.)-छाया। जल्हणदेवः । विद्यापरिपाटिः (प्रा.) विवेकपादपः ( सूक्तसमुच्चयः) कविविबुधचन्द्रः । विवेककलिका। नरेन्द्रप्रभाचार्यः । सुभाषितद्वात्रिंशिका (प्रा.) सूक्तमाला (सं.) सूक्तमुक्तावली । मेघप्रभः। सूक्तरत्नाकरः (सं. १) मन्मथसिंहः । [ले. सं. १३४७ " (२) सूक्तसङ्ग्रहः (१ सं.) लक्ष्मणः । " (२ सं.) " (३ प्रा.) वेदान्ते । खण्डनखण्डखाद्यटीका ( शिष्यहितैषिणी ) अनुभवखरूपः । न्याये। न्यायकुसुमाञ्जलि-टीका। वामध्वजः। [ले. सं. १३४२ तत्त्वोपप्लवः । भट्टजयराशिः। [ले. सं. १३४९ तन्त्रटीका( अजिता)-निबन्धः उ. परितोषमिश्रः । बौद्धन्याये । मोक्षाकरगुप्तः । "हेतुबिन्दुः ( सटीकः) तर्कभाषा । १ 'चूडामणिसारग्रन्थः ४१ प्रकरणो लक्ष्मणभट्टकृतः ६७२ ।' बृ. २ शातवाहनकृतगाथासप्तशती ।-वृत्तिः जल्हणदेवकृता।' बृ. ३ 'तर्कभाषाटीका बौद्धमतवाच्या बालावबोध ३परिच्छेदा ८४० ।' बृ. ४ हेतुबिन्दुटीका तर्करूपा । Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ 'धर्मोत्तर( न्यायबिन्दुटीका )टिप्पनम् । मल्लवाद्याचार्यः। [ले. सं. १२३१ जैनन्याये । क्षणिकत्व( वाद )-निरासः। प्रमाणसङ्ग्रहः । प्रमाणमीमांसोद्धारः । बोटिक-प्रतिषेधः । हरिभद्रसूरिः। 'ब्राह्मण्यजाति-निराकरणम् । "सर्वज्ञ-व्यवस्थापकम् । प्राकृतमूला अप्रसिद्धा जैनसिद्धान्त-व्याख्याग्रन्थाः। आवश्यकलघुवृत्तिः । तिलकाचार्यः। [ले. सं. १४९२ __, खरूपम् (प्रा.) "उत्तराध्ययनचूर्णिः (प्रा.) ८ , लघुवृत्तिः ( सुखबोधा) नेमिचन्द्रसूरिः । [ले. गं. १२२८, १३१० ओघनिर्युक्त्युद्धारः (प्रा.) कायोत्सर्गोद्धारः (प्रा.) [ले. मं. १२९३ 'चन्द्रप्रज्ञप्ति--टीका । मलयगिरिः । [ले. मं. १४८०-१ "जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिचूर्णिः (प्रा.) [ले. मं. १४८१ 'जीतकल्पचूर्णिः (प्रा.) [ले. सं. १२८४ र. सं. १२७४ ] "जीतकल्प-वृत्तिः । तिलकाचार्यः । [ले. सं. १२९२, १४५६ तीर्थोद्गारिकप्रकीर्णकम् (प्रा.) [ले. सं. १४५२ १ न्यायबिन्दुःसूत्रं बौद्धमतवाच्यम् । तट्टीका च धर्मोत्तराचार्यकृता स. टी. १४७७ ।' वृ. २ प्रमाणसंग्रहप्रकरणं ९ प्रस्तावं जैनं ७१२।' बृ. ३ बोटिकनिषेधो वस्त्रव्यवस्थापनरूपः ।' बृ. ४ 'वज्रसूत्री(ची) द्विजवदनचपेटा विप्रजात्यादिनिरास(निराकरण)वाच्या ।' वृ. ५ हारिभद्रो नन्दिवृत्त्याद्यनमस्कारसंबद्ध-सर्वज्ञव्यवस्थापनावादः । योऽपि सोऽपि बहुरल्पो वा ।' वृ. ६'आव. लघुवृत्तिः श्रीतिलकीया १२९६ वर्षे कृता १२३२५।' वृ. ७ 'उत० चूर्णिगीवालियमहत्तरशिष्यकृता ५९००, ५८५० ।' वृ. ८ 'उ. -लघुवृत्तिः ११२९ वर्ष देवेन्द्रगण्यपरनामश्रीनेमिचन्द्रसूरीया ससूत्रा १४००० ।' वृ. ९ 'चन्द्र० वृत्तिर्मलयगिरीया ९५०० ।' वृ. १० 'जम्बू० चूर्णिः १८७९ । बृ. ११ 'जीतकल्प० चूर्णिः सिद्धसेनीया १०००।' बु. १२ --- वृत्तिः १२२(१७)४ वर्षे श्रीतिलकीया १८०० । श्राद्धजीतकल्पस्य सूत्र-वृत्ती श्रीतिलकीये गाथा ३० वृत्तिः ११५ ।' बृ. १३ 'तीर्थीद्गारः गाथा १२३३ ।' बृ. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दशवैकालिकवृत्तिः ( सुखबोधा) सुमतिसूरिः। [ले. सं. ११८८ तिलकाचार्यः। दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् (प्रा.) [ले. सं. १४५६ ,, नियुक्तिः ॥ [ , ,, चूर्णिः , [ , 'द्वीप-सागर-प्रज्ञप्तिः (प्रा.) [ले. सं. १३१० 'निशीथचूर्णिः (प्रा.) [ले. सं. ११५७, १३३० --- विशेषचूर्णिः (प्रा.) - भाष्यम् (प्रा.) (ले. सं. १३३० “पञ्चकल्पचूर्णिः (प्रा.) [ले. सं. १४५६ --- भाष्यम् (प्रा.) सङ्घदासक्षमाश्रमणः । [ , “पर्युषणाकल्पटिप्पनम् । पृथ्वीचन्द्रसूरिः। . [ले. सं. १३८४ र. सं. १३२५(?)] ---- निरुक्तम् । विनयचन्द्रसूरिः । प्रतिक्रमणोद्धारः (प्रा.) प्रत्याख्यानोद्धारः (प्रा.) प्रत्याख्यानविचारः (प्रा.) शालिभद्रसूरिः 'बृहत्कल्पसूत्रम् (प्रा.) कल्पनियुक्तिः (प्रा.) (ले. सं. १३७७ - भाष्यम् (प्रा.) [ले. सं. १३७७ चूर्णिः (प्रा.) ले. सं. १२९१,१३७७ र. वि. सं. १३३२ ] "बृहत्कल्पसूत्रवृत्तिः ( सुखावबोधा) क्षेमकीर्तिसूरिः । महानिशीथम् (प्रा.) [ले. सं. १४५४ १ ‘दश० वृत्तिः ‘लघु-बृहद्वृत्त्युद्धाररूपा सुमतिसूरीया २६०० ।' बृ. २ - श्रीतिलकीया नेमिचरित्रगर्भा ७००० ।' बृ. ३ 'दशाश्रुतस्कन्धसूत्रं दशाध्ययनमयम् २१०६, २२२५ ।' नियुक्तिः १५४, २२० । बूर्णिः ४३२१ ।' बृ. ४ 'द्वीपसागरप्रज्ञप्तिः गाथा २२३ श्लोकाः २८० ।' बृ. ५निशीथसूत्रं विंशोद्देशमयम् ८१२, ९५० । भाष्यम् ७००० -- चूर्णि-सूत्र-भाष्याणि २८००० ।' बृ. ६ ‘पञ्चकल्पसूत्रम् ११३३ । - - भाष्यं सङ्घदासगणिकृतम् गाथा २५७४, ३०३५ ----- चूर्णिः ३०००,३१३६।' बृ. ७ 'पर्युषणाकल्प० टिप्पनकं पृथ्वीचन्द्रीयं ।' ६४० वृ. ८ -- निरुक्तटिप्पनकं विनयचन्द्रसूरिकृतम् १५८।' बृ. ९ कल्पसूत्रं षडद्देशमयम् ४७३ । वृहदभाष्यम् १२००० । भाष्यम् ७६०० । १० 'कल्पचूर्णिः १२७०० । कल्पविशेषचूर्णिः ३१००० ।' वृ. ११ 'कल्पवृत्तिः सूत्र-भाष्यगर्भा। आद्यानि ४६०० सलयगिरीयाणि । शेषा तु १३३२ वर्षे तपाक्षेमकीतीया ४२००० ।' . १२ 'महानिशीथसूत्रं लघु-मध्यम-बृहद्वाचनम् ३५००, २००, ४५४४ ।' बृ. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनासंवत् ] [ लेखनसंवत् वि. सं. ९५६ ] 'यतिप्रतिक्रमणसूत्र-वृत्तिः । पार्श्वः । [वि. सं. १२२८, १२९८ वन्दनकचूर्णिः (प्रा.) यशोदेवसूरिः। [वि. सं. १४४४ ___ -- स्तवोद्धारः (प्रा.) [वि. सं. १२९३ 'विशेषावश्यक-लघुवृत्तिः । कोटा(ट्या)चार्यः । [वि. सं. १४९१ सं. ११८३] श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र-चूर्णिः (प्रा.बृ.) विजयसिंहाचार्यः। [वि. सं. १३१७ वि. सं. ९५६] १ . -वृत्तिः (१) पार्श्वः। [वि. सं. १२२८, १२९८ वि. सं. १२२२] ----(२ बृ.) चन्द्रसूरिः। [वि. सं. १२९९ ----(३ बृ.) तिलकाचार्यः । श्राद्धजीतकल्पः (प्रा.) पडावश्यकोद्धारः (प्रा.) [ले. सं. १२९३ सामायिकोद्धारः (प्रा.) प्राकृतभाषाप्रधाना अप्रसिद्धा जैनोपदेशग्रन्थाः। "अध्यात्मतरङ्गिणी ( टीका ) अनुशासनफलकुलकम् (प्रा.) उपदेशकन्दली-वृत्तिः । वाल चन्द्रगरिः। [वि. सं. १२९६ उपदेशकुलकानि (प्रा.) 'उपदेशमाला-विवरणम् (१) वर्धमानसूरिः। [वि. सं. १२२७,१२७९ वि. सं. १२३८] --- - (२) रत्नप्रभसूरिः । [वि. सं. १२९३,१३९४ वि. सं. १२९९] - - - (३) उदयप्रभसूरिः । - (४) सर्वाणन्दसूरिः । कथासमासः (प्रा.) जिनभद्रसूरिः उद्धारः 'उपदेशमाला (पुष्पमाला)-वृत्तिः । म. हेमचन्द्रसूरिः [वि.सं.१३१३,१४२५ १'चैत्य-साधुवन्दन-श्रावकप्रतिक्रमणमूत्रवृत्तिः ९५६ वर्षे पाधण कृता २००० प्रमाणा।' वृ. २ ई० १५०, चैल० ८४०, वन्दन० ७२७ चूर्णयः ११७४ वर्षे यशोदेवकृताः । वृ. ३ विशेषावश्यकसूत्रं श्रीजिनभद्रगणिकृतम् ४०००। ------ जीर्णा वृत्तिः १४००० पत्तनं विना नास्ति ।' बृ. ४ 'अध्यात्मतरङ्गिणीटीका दिगम्बरीयतर्करूपा।' वृ. ५ 'उपदेशकन्दली-वृत्तिबालचन्द्री ७६००।' वृ. ६ 'उपदेशमाला-वृत्तिः सिद्धषीया हे • केनापि कथाभिर्याजिता सं० १५००, ९५०० । बु. ..............-- दोघटी रात्नप्रभी सं. १२३८ वर्ष । असूत्रा १११५०, ससूत्रा ११८२९ ।' बृ. ८ .........--- कर्णिका १२९९ वर्षे औदयप्रभी ससूत्रा १२२७४, असूत्रा ११४११।' बु. ९ 'पुष्पमालावृत्तिर्मलधारिसूत्रकृतहेमचन्द्रः ११७५ वर्षे कृता १३८६८ ।' बृ.. पा० ३ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनासवत् ] [लेखनसंवत् उपदेशसारः (प्रा.) देवभद्रसूरिः । चारित्र-मनोरथमाला (प्रा.) धनेश्वरसूरिः । चित्त-समाधि-प्रकरणम् (प्रा.) चन्द्रप्रभसूरिः । जिन-पूजाद्युपदेशः (प्रा.) नेमिचन्द्रसूरिः। [वि. सं. १२०८ जीवानुशासनम् (प्रा.) देवसूरिः । --- वृत्तिः । जीवानुशास्तिकुलकम् (प्रा.) यशोघोषसूरिः । ज्ञानाङ्कुश (सं.) 'दानादिप्रकरणम् (सं.) सु(सू)राचार्यः । दुःख-सुखविपाककुलकम् (प्रा.) धर्मविधि-वृत्तिः । जयसिंहसूरिः । वि. सं. ११९१ ] धर्मोपदेशमाला-वृत्तिः। विजयसिंहसूरिः । धर्मोपदेशशतम् (प्रा.) धर्मघोषसूरिः । पश्चपर्वकुलकम् (प्रा.) सं. ११८६] परिग्रहपरि(प्र)माणम् (प्रा.) धर्मघोषसूरिशिष्यः। [सं. १९८६ "पिण्डविशुद्धिः (प्रा.) जिनवल्लभगणिः । ५ - वृत्तिः (१) यशोदेवसूरिः । सं १२९५१३ ५ -- ( दीपिका २) उदयसिंहसूरिः । प्रवचनसन्दोहः (प्रा.) "प्रवचनसारोद्धार-लघुवृत्तिः । 'प्रव्रज्याविधान-वृत्तिः। प्रद्युम्नकविः । १ 'दानादिप्रकरणं सं. सूराचार्यकृतं सप्तावसरं काव्यादिबन्धं प. ३४ ।' २ 'धर्मविधिप्रकरणवृत्तिः जयसिंहसूरिकृता १११४२ ।' बृ. ३ 'धर्मोपदेशमाला-लघुवृत्तिः ९१५ वर्षे जयसिंहीया ।' - विवरणं स्तम्भतीर्थ विना न ।' बृ. ४ 'पिण्डविशुद्धिसूत्रं जैनवल्लभम् गाथा १०३ ।' बृ. ५ ----- वृत्तिः ११७६ वर्षे यशोदेवी २८०० ।' बृ. ६ ------ दीपिका लघुवृत्तिरूपा ५५० ।' बृ. ७ 'प्रवचन० विषमपदटीका भृगु० विना न ।' वृ. ८ 'पवज्जाविहाण-वृत्तिः १३३८ वर्षे प्रद्युम्नीया ४५० ।' बृ. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९ रचनासंवत् ] सं. ११८५ ] 'प्रशमरति - वृत्तिः । हरिभद्रसूरिः । बोधकुलकम् (प्रा.) बोधप्रदीपः (सं.) भवभावना (प्रा.) म. हेमचन्द्रसूरिः । भव्यजीवमनोरथाः (प्रा.) भावनाकुलकम् (प्रा.) ( २ ) भाववर्धनम् (प्रा.) सोमदेव: । यशोघोषः । श्रुतधर्मप्रकरणम् (प्रा.) सम्यक्त्वकुलकम् (प्रा.) भाव श्रावक लक्षणानि ( प्रा. ) मनः संवरणकुलकम् ( प्रा. ) सं. १२८४] मनःस्थिरीकरणम् (सविवरणं प्रा. सं . ) महेन्द्रसूरिः । मिथ्यात्वकुलकम् (प्रा.) मिथ्यात्व - परिहार : ( प्रा. ) विवेककुलकम् (प्रा.) विषयनिन्दापञ्चाशत् (प्रा.) शीलकुलकम् ( २ प्रा. ) शील - रक्षा (प्रा.) शीलाङ्ग - रथ - विधि: ( प्रा. ) श्राद्ध दिनकृत्य - वृत्तिः । श्रावकवर्षाभिग्रहाः (प्रा. ) श्रावकत्रतग्रहणम् (प्रा.) जयसिंहसूरिशिष्यः । श्रावक - सामाचारी (प्रा.) तिलकाचार्य: । - व्याख्या ( १ ),, ( २ ) [ लेखनसंवत् [वि. सं. १२९८,१४९७ जिनप्रभः । देवेन्द्रसूरिः । [वि. सं. १९९१ संवेगमञ्जरी (प्रा.) देवभद्रसूरिः । साधर्मिक - वात्सल्यकुलकम् (प्रा.) जिनप्रभसूरिः । १ 'प्रशमरति - वृत्तिः ११८५ वर्षे हरिभदीया १८०० ।' बृ. २ ‘भवभावना–वृत्तिः सूत्रकृन्मलधारिहेमचन्द्रीया ११७० वर्षे १३००० ।' बृ. ३ 'दिनकृत्यवृत्तिः तपाश्रीदेवेन्द्रीया १२८२० ।' बृ. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनासंवत् ] [ लेखनसंवत् सामाचारी (प्रा.) सं. १२८४] सारसङ्ग्रहः (प्रा.) महेन्द्रसूरिः । सारसमुच्चयकुलकम् (प्रा.) हितोपदेशः (प्रा.) अपभ्रंशभाषायामप्रसिद्धा उपदेशग्रन्थाः । जीवानुशास्ति-सन्धिः । जिनप्रभसूरिः । ज्ञानप्रकाशकुलकम् । दंगड । दानादिकुलकम् । जिनप्रभसूरिः जिनप्रभसूरिः जिनेश्वरमूरिः धर्माधर्मविचारः । धर्मोपदेशकुलकम् । भावनाकुलकम् । भावनासारः । श्रावकविधिः । सिद्रिकुलकम् । सुभाषितकुलकम् । संवेगमातृका ( माई) जिनप्रभसूरिः जिनप्रभसूरिः MEETITImपिट-शा-चरितग: आर्द्रकुमारकथा (२ गद्य-पद्ये ) वि. सं. ११६०] 'ऋषभजिनचरितम् । वर्धमानसूरिः। [वि. सं. १२८९ एलकाक्षकथा कथानककोशः । विनयचन्द्रसूरिः। [वि. सं. ११६६ कथारनकोशः । कथावली । भद्रेश्वरसूरिः । [वि. सं. १४९७ १ 'श्रीआदिनाथचरित्रं प्राकृतं जयसिंहदेवराज्ये ११६० वर्षे वर्धमानसूरिरचितम् ११०००, १२०००।' बृ. २ 'कथारत्नकोशः सम्यक्त्वादि ५० अधिकारः ११५८ वर्षे देवभद्रसूरीयः १२३०० ।' बृ. ३ 'कथावली प्रथमपरिच्छेदः प्रा. मु. २४ जिन-१२ चक्रयादि-हरिभद्रसूरिपर्यन्तसत्पुरुषचरित्रवाच्यो भाद्रेश्वरः २३८०० ।' वृ. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनासंवत् ] २१ 'कथासङ्ग्रहः ( १८ पापस्थानके १ ) ( २ ) (३) अमरसूरिशिष्यः । [वि. सं. १३९८ ( ४ ) कलावतीकथा । कालकाचार्यकथा ( १ ) विनयचन्द्रः । गा. ७८ । ( २ ) ( ३ ) (४) (५) चन्द्रप्रभचरितम् । हरिभद्रसूरिः । जम्बूकुलकम् । वदन्तीचरितम् । देवकीसुतचरितम् । [ लेखनसंवत् द्वादशत्रतकथाः । धन्यसुन्दरीकथा । वि. सं. १२३३] 'नेमिनाथचरितम् । रत्नप्रभसूरिः । पञ्चमी - कथा ( माहात्म्यम् ) महेश्वरसूरिः । वि. सं. १२५४] 'पद्मप्रभचरितम् । देवसूरिः । पादलिप्ताचार्यकथा | पार्श्वनाथचरितम् । देवभद्राचार्यः । पुष्पवतीकथा | अभयसूरि : ( ? ) "प्रत्येक बुद्धकथा । प्रदेशिकथा | गा. ८५ । गा. १८० । [वि. सं. १३६४ गा. १५४ । गा. १३२ । [वि. सं. १२२३ [वि. सं. १४७० [ वि. सं. १३१३ [वि. सं. १४७९ [वि. सं. १२९१ [वि. सं. १९९९ [वि. सं. १९९९ १ 'कथापुस्तिका अनेकविध कथाभिरनिर्दिष्टनामिकाभिरुपेता विविधाः ' बृ. २ 'चन्द्रप्रभचरितं प्रा० श्रीकुमारपालराज्ये हारिभद्रम् ८०३२ ।' बृ. ३ 'नेमिचरितं प्रा० गद्य-पद्यमयं १२३३ वर्षे देवसूरिशिष्यरत्नप्रभीयम् १२६८० । बृ. ४ 'पञ्चमीकथा दशकथानकात्मिका प्रा. महेश्वरसूरीया २००४ । वृ. ५ 'पद्मप्रभचरित्रं प्राकृतं न ।' बृ. ६ 'पार्श्वचरितं प्रा० ११६५ वर्षे नवांग - अभयदेवप्रथम शिष्य देव भद्राचार्यैः कृतम् ९००० ।' बृ. * ‘प्रत्येकबुद्धचरितं १२६१ वर्षे श्री तिलकीयं ६०५० ।' बृ. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ रचनासंवत् [ लेखनसंवत् प्रद्युम्नचरितम् (गद्यम् ) [वि. सं. १३४५ बप्पभट्टिकथा । [वि. सं. १२९१ मल्लवादिकथा । [वि. सं. १२९१ मल्लिनाथचरितम् । [वि. सं. १३४५ वि. सं. ११९३] 'मुनिसुव्रतस्वामिचरितम् । श्रीचन्द्रसूरिः । सं. ११३९ (१)] रत्नचूडादिकथाः(जिनपूजाऽऽद्युपदेशे) नेमिचन्द्रसूरिः [ १२०८ राम-लक्ष्मणचरितम् । [वि. सं. १३४५ 'लीलावतीकथा । कुतूहलः (?) वङ्कचूलकथा ( गये) 'वासुपूज्यचरितम् । उ. चन्द्रप्रभः । विक्रमसेनचरितम् । पद्मचन्द्रसूरिशिष्यः । वीरजिनचरितम् । वि. सं. ११६०] 'शान्तिनाथचरितम् । देवचन्द्रसूरिः। [वि. सं. १२२८ शालिभद्रचरितम् । शीलवतीकथा । श्रेयांसनाथचरितम् । देवभद्रसूरिः। [वि. सं. १४७० सगरचक्रिचरितम् । [वि. सं. ११९१ सिद्धसेनकथा-चरितम् । [वि. सं. १२९१ "सीताचरितम् । भुवनतुङ्गः (?) सुकोशलकथा । [वि. सं. १२०३,१२१३ सुबाहुचरितम् । अपभ्रंशभाषायामप्रसिद्धकथा-चरितग्रन्थाः । अञ्जनासुन्दरीकथा । अन्तरङ्गसन्धिः । रत्नप्रभः । [वि. सं. १३९२ १ 'मुनिसुव्रतचरितं प्रा० ११९३ वर्षे चन्द्रसूरिरइयं (रचितं ) गाथा १०९९४ ।' बृ. २ 'बृहत्पूजाष्टक रत्नचूडकथयाऽक्षितम् । रत्नचूडकथा पूजाफलवाच्या नेमप्रभा( ? मिचन्द्रा) चाीया ३५००।' बृ. ३ 'लीलावतीकथा भूषणभट्टमुतकृताऽऽद्यरसमिश्रिता च परसमयगता गाथाः १४३९ ।' बृ. ४ 'वासुपूज्यचरितं प्रा० चान्द्रप्रभं हेमसूर्यादिशोधितम् ८००० स्तम्भतीर्थ विना न ।' वृ. ५ 'शान्ति-चरितं प्रा० गद्य-पद्यमयम् ११६० वर्षे श्रीहेमसूरिगुरुदेवचन्द्रसूरीयम् १२१००।' बृ. ६ श्रेयांसचरितं प्रा. देवभद्रीयम् ११००० स्तम्भतीर्थ विना न।' बृ. ७ 'सीताचरितं प्रा० ३१०० । धर्माधर्मशास्त्रगतं प्राकृतं ३४०० ।' बृ. Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचना संवत् ] वि.सं. १३२८] नर्मदासुन्दरीसन्धिः । नेमिनाथबोली । ऋषभजिन - चरित - स्तवनम् । रासः । पद्मश्रीचरितम् । भव्यकुटुम्ब चरितम् | भव्यचरितम् । वि. सं. १२९७] मदनरेखासन्धिः । मल्लिनाथचरितम् । महावीरचरितम् । मृगापुत्र कुलकम् । वि. सं. १३१६] वज्रस्वामिचरितम् । सीतासत्त्वम् । वि.सं. १२ (१) ६१] सुभद्राचरितम् । २ २३ ऋषिदत्ता कथा (ध. अन्तर्गता ) कथारत्नाकरः । नरचन्द्रसूरिः । सुलसाख्यानम् देवचन्द्रसूरिः । स्थूलभद्रसन्धिः । कुमारपालप्रबन्धः । कृतपुण्यकथा (ध. अन्तर्गता ) गजसुकुमालकथा (ध. अन्तर्गता ) चारुदत्तादिकथा (ध.अन्तर्गता ) त्रिषष्टिश. पु. चरितम् । दृढप्रहारिकथा (ध. अन्तर्गता ) जिनप्रभः । जिनप्रभः । विमलसूरिः । जिनप्रभः । धाहिल: । जिनप्रभसूरिः । जिनप्रभसूरिः । [ जिनप्रभसूरिः ] जिनप्रभः । जिनप्रभसूरिः । संस्कृतभाषायामप्रसिद्धकथा - चरितग्रन्थाः । इलातीपुत्रकथा ( धर्मोपदेशशतान्तर्गता ) 'उपमितिभवप्रपञ्चा–कथा - सारोद्धार : ( १ ) देवसूरिः । ( २ ) देवेन्द्रसूरिः । [ लेखनसंवत् [वि. सं. १९९१ [वि. सं. १३३९ [वि. सं. १३१९ [वि. सं. १४७५ [वि. सं. १३३९ "" "" [वि. सं. १३३९ १ उपमितभवप्रपञ्चोद्धारः सं. देवसूरिकृतः २३७० ।' बृ. २ ' उपमितसारोद्धारः सं. १२९८ वर्षे श्रीचन्द्र शिष्य देवेन्द्रसूरीयः ५७३० । ' बृ. ३ 'कथारत्नसागरः १५° तरङ्गात्मको मलधारिनरचन्द्रसूरीयः १५ कथः ' बृ. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ रचनासंवत् ] [ लेखनसंवत् द्वादशव्रतकथाः । धनश्रीकथा (ध. अन्तर्गता) [वि. सं. १३३९ धन्य-शालिभद्रकथा । 'धर्माभ्युदय( सङ्घपतिचरित )महाकाव्यम् । उदयप्रभसूरिः नर्मदासुन्दरीकथा (ध. अन्तर्गता) [वि. सं. १३३९ नागदत्तकथा (ध. अन्तर्गता) पञ्चाणुव्रतकथाः । 'पार्श्वनाथचरितम् । सर्वाणन्दसूरिः । मरुकदृष्टान्तः । वज्रकर्णकथा (ध. अन्तर्गता) [वि. सं. १३३९ वसुमित्रकथा (ध. अन्तर्गता) विक्रमकथा । विक्रमसेनकथा (ध. अन्तर्गता) वि. सं. १३३९ विलासवतीकथा (ध. अन्तर्गता ) वि. सं. १२४६ ( ? ) शान्तिनाथचरितम् (१) माणिक्यचन्द्राचार्यः । [वि. सं. १४७० वि. सं. १३२२ --- -- (२) मुनिदेवसूरिः । सनत्कुमारचरितम् । सीताचरितं महाकाव्यम् (ध. अन्तर्गतम् ) [वि. सं. १३३९ स्तेनकथा । स्थविराकथा । प्राकृतापभ्रंशादिभाषाप्रधानमप्रसिद्ध जैनस्तुति-स्तोत्रादि । अजित-शान्तिस्तवः ( अप.) वीरगणिः । "अजित-शान्ति-स्तववृत्तिः । गोविन्दाचार्यः । अनन्तनाथ-स्तोत्रम् (प्रा.) देवभद्रसूरिः । आत्मशुद्धिस्तवः । १ 'धर्माभ्युदयकाव्यं वस्तुपालचरित्रवाच्यमुदयप्रमीयम् ५२००-५०४० ।' बृ. २ 'पार्थचरितं सं. सर्वानंदसूरिकृतम् ।' बृ.. ३ 'शांतिचरितं सं. माणिक्यसूरीयम् ५५७४ ।' वृ. ४ 'शांतिचरितं सं. १३२२ वर्षे मौनिदेवम् ४८८५ ।' बृ. ५ 'अजित-शान्ति-स्तववृत्तिः श्रीगोविन्दीया ३०० देव[पत्तनं] विना न । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनासंवत् ] ऋषभजिन-जन्माभिषेकः ( अप.) पारणकम् (,) स्तवः (,) स्तवनम् (प्रा.) धर्मकीर्तिः । स्तुतिः (,) स्तुतिः ( पञ्चाशिका प्रा.)-मू. धनपालः, - वृत्तिः (१) प्रभानन्दसूरिः । - - (२) नेमिचन्द्रगणी। ऋषिमण्डलस्तव-बृहद्वृत्तिः । कल्याणकप्रकरणम् (२ प्रा., अप.) -- स्तवः । आशाराजः । - स्तुति-स्तोत्रादि (२) गणधर( युगप्रधान )सप्ततिः (प्रा.) -- स्तुतिः । -होरा (प्रा.) गम्भीरस्तवः । विमलः । गुरु( देवभद्रसूरि )स्तुतिः (सं. प्रा.) गौतमस्वामि-स्तुतिः । रत्नप्रभसूरिः । चतुर्विंशतिका (अप.) -जिन-कल्याणकम् (,) -------- नमस्कारः । (,) शान्तिभद्रः । चतुर्विशतिजिनस्तुतिः । सोमप्रभः । ----- स्थानकम् (प्रा.) चर्चरी स्तुतिः ( अप.) जिनप्रभः । -गुरुस्तुतिः (,,) चैत्यपरिपाटिः (,) जिनप्रभः । जिनकल्याणकस्तोत्रम् (प्रा.) - - (अप.) मुनिचन्द्रः । जिनगणधरममस्कारः (,) वि. सं. १२९३] जिनजन्ममह-स्तक्नम् (२ अप.) जिनप्रभः । पा. ४ - - Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ [ लेखनसंवत् जिन-जन्माभिषेकः ( अप.) जिनप्रभः । जिनप्रतिमाकोशः (,) जिनमहिमा (,,) जिनप्रभः । जिनस्तवः । नरचन्द्राचार्यः । [वि. सं. १३३४ - स्तुतिः ( अप.) -स्तोत्रम् । (अप.) जिनागमवचनम् (,,) त्रयोविंशतिस्थानम् (प्रा.) त्रिषष्टिध्यानकुलकम् (,,) द्वात्रिंशिका । देवभद्रः । धर्मघोषसूरिस्तुतिः (प्रा. अप.) -स्तोत्रम् (,) नमस्कारफलप्र. (अप.) नवफणपार्श्वनमस्कारः (,,) शान्तिसमुद्रः । नेमिनाथ-जन्माभिषेकः (,,) -स्तवनम् (,,) पञ्चकल्याणकस्तोत्रम् (सं. प्रा.) पश्चमी-स्तोत्रम् (प्रा.) पार्श्वनाथ-जन्मकलश: ( अप.) धर्मसूरिशिष्यः । - जन्माभिषेकः (,,) जिनप्रभः । --- महास्तवः ( सं. प्रा.) बिरदावली ( जिनपतिस्तुतिः) विमलसूरिः । महर्षिकुलकम् (प्रा.) - स्तवः (,) महादण्डकप्र. (,,) महासतीकुलकम् (,,) मुनिसुव्रत-स्तोत्रम् ( अप.) जिनप्रभः । मोहराज-विजयः (,) जिनप्रभः । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनासंवत् ] विज्ञप्तिका (प्रा.) जिनवल्लभगणी । विमलगिरि-स्तवनम् । वीतराग-स्तवनम् । देवभद्रः । वीरजिन-पारणकम् ( अप.) वर्धमानसूरिः । -- -विज्ञप्तिका (,,) -- -स्तवः शान्तिनाथ-स्तवः ( सं., प्रा.) - स्तुतिः (प्रा., अप.) शाश्वतचैत्य-स्तवः (प्रा.) सकलतीर्थ-स्तोत्रम् (,) सिद्धसेनसूरिः । सतीकुलकम् (,,) समवसरणस्तवः (,,) साधारणस्तवः (,,) स्तम्भनपार्श्व--स्तोत्रम् (प्रा.) देवभद्रः । स्तुतिद्वात्रिंशिका (सं., अप.) स्तोत्रसङ्ग्रहः .( अप.) स्थानकप्रकरणम् (प्रा.) -------- स्तवनम् (,) स्नात्रकुसुमाञ्जलिः । प्राकृतभाषायामप्रसिद्धाः प्रकीर्णग्रन्थाः । 'अजीवकल्पः (प्रा.) आचार्यप्रतिष्ठा-विधिः (,) वि. सं. ११९२] क्षेत्रसमास-वृत्तिः । सिद्धसूरिः । कर्मप्रकृतिसङ्ग्रहणी (प्रा.) चतुर्दशककुलकम् (,,) चार्चिकग्रन्थः (,) जम्बूद्वीपविचारः (,,) जीवविभक्तिः (,) जिनचन्द्रगणी । १ 'अजीवकल्पः गाथा ४४ ।' बृ.. Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचनासंवत् ] [ लेखनसवत् दर्शनचतुर्विंशतिका (प्रा.) दशविधप्रत्याख्यानम् (,) दशविंशतिभावना (,) 'दुःषमग(द)ण्डिका (,) [वि. सं. १२८४ दुःषमपद्धतिः (,) दुःषमोद्धारः (,) उदयप्रभसूरिः । द्वात्रिंशज्जीवपरिमाणम् (,) द्वादश भावनाः (, २) द्वादशार्थविचारः (,) प्रतिष्ठाविधानम् (,) प्रायश्चित्तविधिः । पौषधिकप्रायश्चित्तसामाचारी। तिलकाचार्यः । मूलशुद्धिः (प्रा.) योगविधिप्रकरणम् । विचारसप्ततिः (प्रा.) विभक्तिविचारः (,) अमरचन्द्रसूरिः । विमानविचारः (,) व्युच्छेद्यगण्डिका (,) [वि. सं. १२८४ वि. सं. ११९९] शतक बृहद्भाष्यम् (,) चक्रेश्वरसूरिः शतपदी । धर्मघोषसूरिः । [वि. सं. १३०० षत्रिंशत्स्थानकम् (प्रा.) षटूत्रिंशिका (,) संक्षेपाराधना (,) सवाचारटीका । देवेन्द्रसूरिः । सागारप्रत्याख्यानविधिः (प्रा.) सूक्ष्मार्थविचार-विवरणम् । मू. जिनवल्लभगणी। १ 'दूसमदण्डिका गाथा ९२, ११२ ।'-बृ. 'दूसमविच्छेयदण्डिका २०४।' वृ. २ 'व्युच्छेददण्डिका गाथा १७३ । द्वितीया तु योगसारगणिकृता।' बृ. ३ 'शतपदी ११७ पदार्थमयी आमलिकप्रणीता. १२९४ वर्षे महेन्द्रसिंहाचार्यकृता ५४५: । बृ. . Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७ सचित्रास्ताडपत्रीयाः पुस्तिकाः । १ निशीथचूर्णि पुस्तकम् । २ महावीरचरित पुस्तकम् ( त्रि.श. पर्व १०) * वि. सं. १२९४ ३ श्रावकप्रतिक्रमण सूत्रचूर्णिः । वि. सं. १३१७ ४ कथारत्नाकरः । वि. सं. १३१९ ५ कल्पसूत्रम् । * वि. सं. १३३६ ६ कालकाचार्यकथा | ८ कथासङ्ग्रहः । ९ त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरितम् | १० द्वयाश्रयकाव्यवृत्तिः । ११ पञ्चतीर्थ्यालेख्यपटः (वस्त्रे ) १२ शान्तिनाथप्रासादालेख : (वस्त्रे) १३ उत्तराध्ययन- नियुक्तिः । १४ शान्तिनाथचरितम् । १५ हैमबृहद्वृत्तिः । १६ गणः । १७ वङ्कचूलकथा । - conce लेखन संवत् वि. सं. १ 33 वि. सं. १३४४ वि. सं. १३४५ वि. सं. १४३६ वि. सं. १४८६ (?) वि. सं. १४९० वि. सं. अनिर्दिष्टसंवत्सरा "" "" ११५७ 35 " "" पत्रे २०३ २०६ ≈ ३८९ १४ ३८७ 25 ३७९ १३६ ३६४ १५१ १५४ "" ३३४ ३३५ ४०२ 55 १५३ * garai प्रतिकृतयोऽत्र प्रारम्भे प्रदर्शिताः । । ईस्वी सन् १९३२ वर्षीय 'इण्डियन आर्ट एण्ड लेटर्स' संज्ञकपुस्तके [ ७१-७८ पृष्ठषु ] श्रीयुत 'नानालाल महेता' महाशयस्य एतद्विषयक : सचित्र उल्लेखोsवलोकनीयः । इतः पुरं टिप्पणी [ १-२४ ] पृ. ४९१-४९८ पत्रेषु पठनीया । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागमादि-लेखन-संरक्षणादिप्रवृत्तिः । प्रथमस्तीर्थकृद् ऋषभोऽर्हन् प्रत्रज्याग्रहणात् प्राक् परमप्राचीने काले प्रजाहितार्थमुपदिष्टवान् 'लेखादिका द्वासप्ततिकलाः । लिपिविधानरूपा लेखकला च तेनैव जिनेन निजाङ्गजायै ब्राह्म्यै उपदिष्टेति ब्राह्मीलिपिन मैस्करणं ब्राह्मीप्रभृत्यष्टादशलिपीनां लेखादि - द्वासप्ततिकलानां च परिचय - समुल्लेखादि समुपलभ्यतेऽङ्गोपाङ्गादिसंज्ञया प्रसिद्धे जैनसि - द्धान्ते ँ। माता-पितरौ वालं महावीरं लेखाचार्यस्य पार्श्वे नीतवन्तावित्याद्यपि च सूचितम्।' 'अर्धमागधीभाषायामर्थतोऽर्हद्भापितानि सूत्रतो गणधरग्रथितानि श्रमण भगवन्महावीरगौतम - सुधर्मखामि - जम्बूप्रभृतीनां निर्देश - संवादपरायणानि जैनसिद्धान्तसूत्राणि महावीरजिननिर्वाणादनन्तरं चतुर्दशपूर्वरभद्रबाहु स्थूलभद्र दशपूर्वरार्यवज्रार्यरक्षितादि सुप्रशस्तमतिमद्भिर्मुनिपुङ्गवैश्चिरं गुरुपरम्परयाऽवधारितानि परिपाट्या परिपठ्यमानान्यासन् । विषमकालद्वादशवार्षिकदुष्काला दिदुविलसितादपचीयमानं श्रुतं परिहीयमानं मति - स्मृतिधृति - शक्त्यादि च परिभाव्य परोपकारपरायणैः समयज्ञैर्दीर्घदर्शिभिर्युगप्रधानैः सुप्रयत्नेन सङ्घटितानि समुद्धृतानि च तानि । श्रुतकेवलिनाऽऽर्यशय्यम्भवेन दशवैकालिकम्, चतुर्दशपूर्वधरेण भद्रबाहु खामिना दशा- कल्प - व्यवहारसूत्रादि, आर्यश्यामापरनामकारकेन प्रज्ञापना, आर्यरक्षितेनानुयोगपार्थक्यम्, देववाचकेन नन्दी सूत्रम्, हरिभद्रसूरिभृतिना महानिशीथसूत्रादि च जैनश्रुतात् समुद्धृतं श्रूयते । जैनागमसूत्राणां नियुक्तिनामधेयं व्याख्यानं भद्रबाहु खामिना, भाष्यं जिनभद्र - सङ्घदासगणिक्षमाश्रमणाभ्याम्, चूर्णिसंज्ञकं जिनदासगणिमहत्तरेण, वृत्ति - व्याख्या - विवरणादिखरूपं च सिद्धसेनाचार्य - हरिभद्रसूरि - गन्धहस्ति - कोट्याचार्य - शीलाङ्काचार्यशान्तिसूरि- श्रीमद्भयदेवसूरि-द्रोणाचार्य - नेमिचन्द्रसूरि - मलधारिहेमचन्द्रसूरि-चन्द्रसूरि-मलयगिरिप्रभृतिभिर्भूरिभिर्बहुश्रुतेः सूरिभिर्व्यरचि । सुविस्तृतं च तत् तत्तत्काले पुस्तकादिषु लिखितं सम्भाव्यते । श्रुतदेवतां वागीश्वरीं पुस्तकव्यग्रहस्तां वर्णयद्भिः, श्रुतज्ञानप्रकारे पत्रादि- पुस्तकादिलिखितं द्रव्यश्रुतं प्रतिपादयद्भिः, देवानां पुस्तकरत्नस्य वर्णनं विदधद्भिः,पुस्तकग्रहणे संयमासंयमौ प्रबोधयद्भिः, पुस्तकपञ्चकप्रकारं प्रपञ्चयद्भिजैनप्रवचननिर्युक्ति-भाष्य- चूर्णि विवरणकारैः प्रख्यापितमेव पुस्तकानां ततोऽपि प्राचीनत्वम् । " पुरा पाटलिपुत्र पुरे सम्मीलित सङ्घसङ्घटितो वाचनाविख्यातः, 'स्कन्दिलाचार्य-नागार्जुनवाचक - देवैधिगणिक्षमाश्रमणादिश्रमणसङ्घस्य प्रशस्यप्रयत्नेन मथुरापुरी - वलभीपुरादौ पुस्तकाधिरूढः परम्परालेखितः सम्प्राप्यते साम्प्रतमपि जैनसिद्धान्तः । अन्यच्च श्रयते विक्रमादित्य सन्मानितेन सिद्धसेन दिवाकरेण चित्रकूटनगरे पुरातनचैत्यगृहे पूर्वाचार्यैः स्थापितपरमरहस्य विद्यामयपुस्तको लेप्यमयः स्तम्भः प्रत्यौषधप्रयोगेण प्रोद्घाटित आसीत् । " Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रूयते च प्रबजितया सङ्घसन्मानितया जनन्या दुर्लभदेव्या वलभ्यां संरक्ष्यमाणे पुस्तकादिधर्मोपकरणे मल्लस्तदन्तर्गतं व्यलोकयद् देवताधिष्टितं पूर्वगतं गुरुनिषिद्धदर्शनमपि द्वादशारनयचक्रपुस्तकम् । वाचितायामेव यदीयायां प्रथमायामार्यायामविधिरिति यद् हृतं देवतया, प्रतिभादिप्रसादितायाश्च तस्याः प्रसादेन नवीनं च व्यरचयत् तत् तार्किकशिरोमणिर्मल्लवादी भृगुकच्छे राजसभायां वीरनि. सं. ८८४ ( वि. सं. ४१४ ) वर्षे बुद्धानन्दविजेता जिनानन्दसूरिभागिनेयोऽजितयशो-यक्षयोबन्धुः। ___ सुप्रसिद्धेन याकिनीमहत्तराधर्मपुत्रेण भवविरहाङ्कहरिभद्रसूरिणा, सज्जनोपाध्यायशिष्येण महेश्वरसूरिणा, गूर्जरेश्वरचौलुक्यदुर्लभराज-भीमदेव-कर्णदेव-सिद्धराजजयसिंहपरमाहतकुमारपालभूपालादीनां सौराज्ये शतशो ग्रन्थान् विरचयद्भिर्जिनेश्वरसूरि-"जिनचन्द्रसूरि-सूरींचामियदेवसूरि-नेमिचन्द्र रि-गुणचन्द्रगणि-वर्धमानसूरि-हेमचन्द्राचार्य-प्रभृतिभिर्विद्वनैश्च प्रसङ्गतो विहितो जिनप्रवचनादिपुस्तकलेखन-पूजन-दान-- व्याख्यान-श्रवणादिश्रावककर्तव्यसदुपदेशोऽपि पठ्यते । गूजरेश्वरसिद्धराजजयसिंहकुमारपालभूपाल-गूर्जरेश्वरमहामात्यवस्तुपाल-तेजःपाल-सुप्रसिद्भहेमचन्द्राचार्यादिचरित-प्रबन्धादिपु निर्दिष्टास्तत्कारिताः प्राच्यपुस्तकभाण्डागारा यद्यपि साम्प्रतं नोपलक्ष्यन्ते; तथापि तैयूँजरेश्वरैस्तन्महामात्यादिभिः पृथ्वीपाल-वस्तुपाल-तेज:पालादिभिश्च समभ्यर्थ्य कारिती लेखितास्तदधिकारसौराज्ये वि. सं. ११५४ वर्षतस्तदनन्तरमपि च वि. सं. १४९७ वर्ष यावत् चिरस्थायिन्या मण्या नागरीलिप्यां मनोहरैरक्षरैर्मलबारीयं( पृ. २०१)सुचारुताडपत्रीयपुस्तिकासु विलिखिताः प्रभूता ग्रन्था अत्र समुपलभ्यन्ते । वस्त्रे लिखिता अपि ग्रन्था अत्र वीक्ष्यन्ते [पृ. ३४४ ] मन्त्रीश्वरवस्तुपालादिसन्मानितदेवेन्द्रसूरि-विजयचन्द्रसूरिप्रभृतीन सदुपदेशेन विक्रमीयचतुर्दशशताब्द्याः प्रारम्भे मधुमत्यां(महुवा ) वाग्देवताभाण्डागारकरणाय भिन्नभिन्नस्थानीयैः सुश्रावकैः कृतः प्रशस्तः प्रयत्नोऽवसीयते [पृ. ५२] साम्प्रतं वर्तमानेषु पत्तनीयज्ञानकोशेषु सोमतिलकसूरिसंज्ञितभाण्डागारादिविधाने [पृ. २०२, २०९, २२७, २२८ ] सदुपदेशादिविशिष्टः प्रयत्नो वैक्रमपञ्चदशशताब्द्यां विद्यमानानां तपागच्छाधिपदेवसुन्दरसूरि-सोमसुन्दरसूरिप्रमुग्वानां विज्ञायते । येषां पदप्रतिष्ठादिप्रबन्धोऽत्र पत्तने वि. सं. १४२० वर्षे, १४५८ वर्षे च समहं समजनि । अत्र विशेषतो धन्यवादमर्हन्ति "षष्टिपरिमिताः श्रमण्यः श्राविकाश्च जैनमहिला देवसुन्दरसूरिगुरुबन्धुजयानन्दसूरिभ्रातृजारूपल-क्षत्रियझालाकुलविजपालराज्ञीनीतादेवीप्रभृतयः । अणहिलपाटकपत्तन-सिद्धपुर-भृगुकच्छ-स्तम्भतीर्थ-घोघा-देवपत्तन-देवगिरिप्रमुखविविधस्थानवास्तव्याभिर्विविधवंशोकेश-प्राग्वाट-श्रीमाल-पल्लीवाल-धर्कटादि -ज्ञातिविभूषणाभिरितो. वर्षाणां पञ्चशत्याः प्राक् सञ्जाताभिः सत्कुलीनाभिर्याभिर्निजभर्तृ-. Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मातृ-पितृ-खसृ-श्वश्रूप्रभृतीनां पुण्यकृते ज्ञानाराधनाथ ख-परश्रेयोऽथ च प्रभूताः सिद्धान्तादिप्रतयो लेखितास्तथा च ताः पठन-पाठन-व्याख्यान-श्रवणादिकृते सद्गुरुभ्यो वितीर्णा ज्ञानकोशेषु च संस्थापिता एवं च याभिः कृतं वजन्मनो लक्ष्म्याश्च साफल्यम् । उपसंहारः प्रस्तुतायाः सूच्याः प्रकाशेन न केवलं प्रसिद्धाप्रसिद्धोपयुक्तदुर्लभप्राचीनअन्धादिपरिज्ञानम् , प्रामाणिक समुपयुक्तमैतिह्यमपि प्रसिध्यति । यत इतः प्रतिप्रशस्ति प्रभूत इतिहासः प्रकाशतामागच्छेत् । अन्यान्यप्रशस्त्युल्लेख-प्रतिमालेख-शिलालेखादिभिरैतिहासिकैः साधनैः संमेलने सन्तोलने समन्वये चोपयुक्तो विशिष्टः प्रतिष्ठितः प्रामाणिक इतिहासः सङ्कलितो भवेत् । पृथक् पृथक् तथाविधा सङ्कलनाऽत्र दुःशका । ग्रन्थविस्तरभयतोऽपि नात्र प्रयतितम् । मन्त्रिवंशप्रशस्त्यादिविषये त्वस्माभिरन्यत्र (ओ. कॉ. रि. पृ. ११३२-४०) पृथक् प्रायति । तथा दिक्सूचनार्थ जिज्ञासुपाठकानामितिवृत्तसमुत्सुकानां समुपकृतये चास्याः परिशिष्टेऽप्रसिद्धग्रन्थाभिज्ञापकसङ्केतसङ्कलिता ग्रन्थानां वर्णानुपूर्व्या सूची क्रमानुसारिणी ग्रन्थरचना-लेखन-संवत्सरसूची तथा च स्थानविशेष-भूपाल-राज्याधिकारि-ग्रन्थकारादिज्ञापकभिन्नभिन्नाभिज्ञानसमन्विता इतिहासोपयोगिनाम्नां सूच्यपि वर्णक्रमेण विरच्यात्र पुरस्कृता । ख. साक्षरचीमनलालदलालस्य निवेदन( Report )संशोधनादावत्रत्याधिकारिभिः डॉ. विनयतोषभट्टाचार्यमहाशयैस्तथा विशेषनामसूच्यादौ 'मि. महादेव अनन्त जोशी' इत्यनेन च प्रासङ्गिक साहाय्यं व्यधायीत्येषां नामस्मरणमत्र समुचितम् । ___ एवं यावद् बुद्धि-बलोदयम्' 'यथाशक्यम्' कृतेऽस्मिन्नत्युपयोगिनि कर्तव्ये गुणैकपक्षपातिनः सज्जना हेयं परिहरन्तु, सुज्ञेयं परिजानन्तु । परिज्ञाय च समुचितं ग्राह्यं गृह्णन्तु । जीर्ण-शीर्णानामवशिष्टानां प्राचीनानामादर्शपुस्तकानामग्नि-जल-स्थल-जन्तुजातादेः परिरक्षणार्थ श्रेष्ठोपयुक्तप्राच्यपुस्तकालयविरचनाथ सम्प्रतिसम्प्राप्य फोटोस्टॅट मशिन' प्रभृतिसाधनादिनाऽऽदर्शप्रतिकृतिबाहुल्यविधानार्थमप्रसिद्धानामत्युपयोगिनां विविधविषयविभक्तानां ग्रन्यानां प्रकाशनार्थ प्रचारार्थं च प्रयतन्ताम् । सफलीकुर्वन्तु ग्रन्थरचना-लेखन-संग्रहसंरक्षण-सूचीसङ्कलन-सम्पादन-प्रकाशन-परिश्रमम् । विधाय चैवं सम्यक् प्रथयन्तु भारतीयं विविधं विज्ञानम् । साधयन्तु ख-परश्रेयः । वितरन्तु च सहस्रशो धन्यवादानस्य प्रयत्नस्य प्रेरक-प्रोत्साहकाय सुयशखिने महाराजाय श्रीमते सयाजीराव गायकवाड महोदयायेत्याशास्ते वि. सं. १९९२ अक्षयतृतीयायाम् । प्राच्यविद्यामन्दिरे ता. २४-४-३६ । वटपढ़े। गान्धीत्युपाह्वो भगवान्प्रेष्ठितनुजो . लालवन्द्रः। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A REPORT ON THE SEARCII FOR MANUSCRIPTS IN THE JAIN BIIANTARS AT PATTAN. Ever since its foundation, Pattan has been the centre of Jainism, and under the beneficient royal patronage afforded to it in the 11th, 12th and 13th centuries, its preceptors devoted themselves to writing historical, religious, ethical, philosophical, literary and other works. Although the work was continued in the 14th, 15th and 16th centuries and still later, the works composed in the 11th to 13th centuries are of greater historical interest than those composed later on. This literary activity resulted in the formation of great libraries for collecting and preserving old, contemporaneous and new compositions. The gift of books to the preceptors for the purpose of reading and reciting them to the people is considered a great incrit among the Jains, and hence they spent in former times and are still spending a large amount of money for getting MSS. written. Kumārapāla is said to have established 21 big Bhandars, while Vastupāla, the Minister of Viradhavala, had also founded three big Bhandars at the enormous cost of 18 crores. Rich and pious Jains also devoted a large sum of money after this for the merit of their deceased relatives. All this is evident from the important Prasastis (donor's colophons) given at the end of the respective MSS. This will account for the large accumulation of MSS. in the Jain Bhandars. It is a matter of regret that out of the Bhandars founded by Kumārapāla and Vastupāla and other Jain Ministers, no Bhandar is at present extant. No single MS. written at the command of Kumārapāla is to be found in the Pattan Bhandars. This is accounted for by the fact that Kumārapāla's successor Ajayapāla was a great hater of Jains and Jainism, and tried his level best to destroy the Jain literature. Minister Udayana and others at that time removed the MSS. from Pattan to Jesalmere and other unknown places. The palm-leaf MSS. at Jesalmere are mainly from Pattan. The libraries founded by Vastupāla met the same fate, perhaps at the hands of the Maliomedans. Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 34 ) The palm-leaf collection of Sheth Hälābhāi contains a MS. of Jitakalpa-bphat-cūrņi by Sri Candrasūri copied in Samvat 1284 at the end of which there are a few verses in praise of Vastupāla. This, I think, is the only remnant of the vast collection made at the command of Vastupāla. Leaving the past aside, I now come to the present collections in Pattan. 1. The first and foremost among these is the famous palm-leaf collection in the Sanghavi's Pādā. The collection belongs to the Laghupośālika branch of the Tapāgaccha. The collection, it appears, was put in order in the time of Munindra Soma and lastly by Ķddhisāgara in Samvat 1914. I have got the list of the MSS. prepared by him from a Jain. The list mentions three pețis or large boxes containing altogether 434 pothis. It is only a list of titles and very incomplete and inaccurate. Some fifteen MSS. from these were taken to Surat and one MS. (on Nyāya) was stolen away. When Dr. Bühler visited Pattan, he was not allowed access to this Bhandar; but he managed to get a list prepared of this collection by Nārāyaṇa Sāstrī of Surat. But it was not done accurately as is evident from Dr. Kielhorn's report on MSS., where he has singled out only 28 important works out of which 3 only are new. Dr. Peterson also tried his best to have access to this collection and examine for himself the MSS. before publishing the list prepared by the Sāstrī but could not. The Conference office then deputed a Šāstrī to prepare a list of the Jain Bhandars at Pattan. I got that list from the Conference Office and found it to be quite unreliable. It mentions 397 pothis. Such being the case, I decided to prepare a detailed Descriptive Catalogue of all the palm-leaf MSS., as I thought it advisable to put once for all before the learned world what this Bhandar really contained. I have not only discovered many new and important Sanskrit and Prākrta works both Jain and Brahmanical, hithertofore either unknown or known to have been lost; but also quite an enormous bulk of Apabhramsa literature which, when published, would help us in pursuing an intensive study of this language, as it is the immediate source of many Indian vernaculars. Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 35 ) The collection was in a highly deplorable condition. But when I took up the work of cataloguing, Pravartaka Kántivijayaji to whom I shall ever remain under a deep debt of gratitute for his kind offices in helping me to have a complete access to these MSS., put the collection in order and change the old covers and supply new ones. The keeper of the collection was very obstinate and would only lend us 20 or 30 MSS. at a time; others were lent only when these were all returned. I had, therefore, to spend not only most of the day but also half of the night in inspecting the MSS. that they may be returned in time. The collection, as now catalogued by me, contuins 413 pothis; most of them contain single works though there are many which consist of more than one work. The keeper of the collection has now been furnished with a list of the MSS. in his collection with particulars of author, date of composition, and age of MS. compiled from the catalogue prepared by me. II. The collection of the Sangha deposited in Vakliataji's Seri, Fofaliā Vādā is the largest collection at Pattan containing 2686 paper MSS. and 137 palm-leaf MSS. Most of the paper MSS. are on the wholo well arranged; but 81 small palm leaf MSS. were bundled up in cloth pieces without wooden boards and cloth covers when I first saw them. Pravartaka Kāntivijayaji has now got them arranged, placed them between wooden boards and they are well taken care of. Dr. Peterson has described 76 palm-leaf MSS. of this collection in his 5th report. The following three collections are also deposited here: (1) The collection originally belonging to Limli's Pādā. It contains at present 425 paper MSS., some of which are rare and old. It contains the oldest paper MS. at Pattan written in Samvat. 1356–57. (2) New copies of some of the rare MSS. in Pattan and elsewhere. The number of MSS. is.366. (3) Some of the MSS. belonging to Vastā-Māņek. III. The collection belonging to Vāļi Pārsvanātha's Temple contains only 4 palm-leaf MSS.; but the importance of the collection lies in the fact that, it contains a large number of paper MSS. copied from old palm-leaf MSS. about Samvat 1480-1490 under the orders of the then existing pontiff of the Kharatara Gaccha. Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 36 ) Therein we see not only rare and reliable MSS. of Jain literature, but also good MSS. of literary and philosophical works of the Brahmins and the Buddhists. Most of these MSS, in spite of their age, are in a good condition; while some of them written at the same time are worn out to such a degree that the leaves fall into pieces even at the touch. This is because the place where they were formerly stored was damp. The collection at present is in a good state of preservation. The number of paper MSS. is 744. IV. The collection in the Āgaliśeri consists of 3035 paper MSS., 22 palm-leaf MSS. and 1 cloth MS. The collection is especially rich in the MSS. of the sacred books of the Jains and the commentaries thereon, some of which were copied at the expense of a Jain millionaire Chhaddushah of Pattan in the beginning of the sixteenth century of the Vikrama Era. There are also many MSS. of Jain Rāsās in old Gujarāti. The collection is in a very good state of preservation. V. The Bhandar at Bhabha's Pādā is the collection of the Vimala branch of the Tapāgaccha. It is made of two collections one containing 522 and the other containing 1814 paper MSS. The lists of both the sections are incorrect, marginal notes on the last leaves being taken as the names of the MSS. Most of the MSS. are ordinary and not very old. I have however found a few rare MSS, in this collection. It is in a fairly good state of preservation. VI. The collection in the Sāgar's Upāśraya contains 1309 paper MSS., most of which are of ordinary interest and consist of only a few leaves. Besides these, there are 108 MSS. belonging to Bhāva Sāgar. All these are in a good state of preservation. VII. The collection belonging to Makā Modi consists of 230 paper and 2 palm-leaf MSS. The paper MSS. are mostly old. The 75 palm-leaf MSS. purchased by Dr. Kielhorn for the Bombay Government in the year 1880-81 at Pattan once belonged to this collection. The present collection is at present deposited in the Sāgar's Upāśraya. VIII. The collection belonging to Vastā Mānek was handed over to the late Vakil Lebrubhāi Dūhyābhāi ahd is, for the time Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 37 ) being, deposited in the Sāgar's Upāśraya. It contains 521 MSS. most of which are 300 to 400 years old. IX. The importance of the collection of the Khetarvasi is solely due to its 76 palm-leaf MSS. It is here that, I found the six 'dramas of Vatsarāja, the minister of Paramardideva of Kaliñjar. Besides some rare works of the Jains, it contains old palm-leaf MSS. of 'Gaudavaho, RRāvanavaho and Pulinda's *supplement to the Kādambarī. The MSS. in spite of their age, are in a good state of preservation; but owing to the carelessness of the keeper, they were lying bundled up in cloth pieces without wooden boards to pretect them. I impressed upon the keeper the importance of the collection under his charge, and I was assured, they would lienceforth be properly preserved. X. The collection in the Mahālakṣmi's Pādā contains 8 palm-leaf MSS. and a few complete paper MSS. Among the palm-leaf MSS., there is a copy of an anthology® by Lakşmaņa who calls himself possessed of a hundred thousand Suktas. XI. The collection in the Advasi's Pādā contains 2 palmleaf MSS. one of which was copied not very long ago on blank palmyra leaves gathered from old manuscripts and some paper MSS. of no importance. XII. Himmatvijayaji's collection is a private collection and mainly consists of works on architecture of which the owner has made a special study. XIII. Lāvangavijayaji's collection contains paper manuscripts of an ordinary interest most of which are now at Palanpur. This finishes the list of the Bhandars existing at present in Pattan. 1 Published in the Gaekwad's Oriental Series (GOS), No. 8. 2 Printed in the Bombay Sanskrit Series as No. 31. 3 Printed in the Kävyamāla Series N. S. No. 47 as 2474. 4 Printed in N. S. etc. 5 By name Sūktāvali described in loterson's Third Report (1884-86) on p. 54 ct. seq. 6 It is reported that a Jain collection of MSS. was burnt by some Hindu fanatic out of sheer hatred. It is probable that these Mss. did not escape the wrath of the fan&tic, Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 38 ) The well known collection in the Dhandhera Vādā belonging to the Śrīpūjya of the Punamiya Gaccha is now scattered. It was the subject of a law-suit between the present Srīpūjya and the Jain community of Pattan. No one knows where the MSS. have been removed but there is still a lingering hope that the MSS. may again see the light of the day. The collection, it is said, originally contained 400 dābởās or wooden boxes. The late Svarupcand Yati, the keeper of the collection, would allow no one to see his MSS. After his death a quarrel arose about the post of the Srīpūjya, and during the time some of the important MSS. were sold away to the agents of the British Officer in charge of the Operations for the Search of MSS. Mr. Dwivedi was allowed to see the collection and he suspected that some MSS. were kept back from him. I came across a list of the collection (containing about 50 dābdās) as it existed some 15 years back and found a fow titles like Yadusundara, Lalitavilāsa, Sura(?rā)gacandrodaya, not mentioned in his list. European scholars believed and still seemed to believe that this was the collection of the great lemacandra; but this is really a misconception. Hemacandra belonged to the Pūrņatalla Gaccha, while the keeper of the collection was of the Pūrņimā Gaccha. Mahimaprabha, a Srīpūjya of the Pūrņimā Gaccha in the Dhandhera Vādā, has written Ambada Rīsa wherein he traces his spiritual descent from Vinayasundara and not from Hemacandra. There were two other branches of this Gaccha, one at Chāṇasmā and the other at Lādol. The collection seems to have been very comprehensive in its scope and to have contained a large number of Sanskrit, Prūkita and Gujarāti MSS. most of them being written by the Yatis of the Gaccha; and hence correct. There were no palm-leaf MSS. and the paper MSS. too, I have reasons to believe, were not older than three centuries. Pattan has, from the time of Col. Tod., attracted the attention of the MSS. workers; it has consequently been the working field of the agents of the MSS. searchers. The Bhandars in Pattan were formerly in the hands of the Yatis, who had also many MSS. with them as their private property. These MSS. they were enticed to part with by offers of large sums. The Brahmin munim? of the Sangha, also, I am told, sold away some MSS.; I Clerk in the employ of the Sangha. Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 39 ) some were moreover stolen away by interested persons. Many paper MSS. and also a few palm-leaf MSS. have thus gone to Bombay, Poona and to foreign countries. The Bhandars are at present all under the care of the Jain laymen and there is very little possibility of any MS. being removed by sale. The Bhandars are housed either in Upasrayas or in ordinary houses. The Bhandars of the Vadi Parsvanatha will be deposited in the new magnificient temple of Vādi Pārśvanatha when ready. The MSS. are stored in small wooden or paper boxes called dabdas (occasionally in leather boxes also) which are again put in cupboards or large boxes. When the new building which is to be erected at a cost of Rs. 41,000, is ready, all the Bhandars will be transferred there.1 Want of care and change of hands have their effect on the palm-leaf MSS; but generally they are, in spite of their old age, preserved well. Although there are palm-leaf MSS. on which ink has faded, there is none which is eaten by moths. The smell of ghoda vacā (lcorous calamus) of which bundles are put with the MSS. make them secure against the attacks of worms. Some of the palm-leaf MSS., if properly preserved, would endure for 500 years more. The Pattan palm-leaf MSS. are distinguished from those in Southern India by their size, quality of the leaves and by the manner of writing. The palmyra leaves employed in writing Southern MSS. are usually thick with a certain degree of stiffness, while those at Pattan are thin, soft and graceful. Thick palmleaves were, however, imported from Malabar, as is evident from a remark on a blank palm-leaf in the Sanghavi's Pādā. The letters of the MSS. in the South are scratched with a stylus and blackened with soot, while the writing on the MSS. in Gujarat has been executed with a reed pen. The MSS. in the South are not so old as those at Pattan. The oldest MS. found in the South dates according to Dr. Burnell from A. D. 1428. The script of the MSS. is old Devanagari and resembles the writings in the inscriptions of the time. 1 The pious hope of Mr. Dalal is likely to be fulfilled in the near future. A central MSS. Library at Pattan with up-to-date methods of preservation is now being organised in right earnest. 2 See p. 201. Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 40 ) The MSS. were written cither by Yatis or professional scribes who were mostly Brahmins, Kāyasthas and Banias. The cost of the MSS. including the price of the leaves and the copying charges was comparatively higher. MSS. often changed hands both by gift and sale, All palm-leaf MSS. are pierced either with one hole in the middle or with two holes on the left and the right in the case of long MSS., through which strings are passed in order to keep the leaves together. The MSS. arc generally place between wooden boards and occasionally in leather covers held together by means of strings of cotton or silk. The MSS. are then wrapped over with pieces of cloth or silk and then arranged in gañas and placed in large wooden boxes. The largest MS. measures 36"x2)", in size while the smallest (pustikā) measures 42"x1.}" in size. Although the oldest dlated MS. at Pattan was copied in 1062 A. D. there are about half a dozen undated MSS. which were written carlier. The script of the MSS. of Damayanti, Candra-Mahattara's Prākrta commentary on Sittari, and other MSS. tell us that they were written in the 10th century A. D. Of the dated MSS. there are about a dozen written in the 12th century and about one hundred in the 13th century. Most of the MSS. copied in the 15th century were written at the command of Devasundara and his pupil Somasundara, pontiffs of the Tapāgaccha, both of whom seem to have done much for the resuscitation of the old works. The latest palm-leaf MS. at Pattan is dated Samvat 1497. Among the names of the kings in whose reigns the MSS. were written, those of Siddharāja, Kumārapāla, Višaladeva and Sārangadeva are often found. Among the places where the MSS. were written, we find the names of Pattan, Cambay, Dholakā, Karṇāvatī, Dungarapura, Vijāpura, Candrāvati and Prahlādanapura. There is a peculiar system of numbering the pages of these MSS. On the left side there are the usual numerical signs but on the right the pages are indicated by distinct letters or syllables. Thus 1 is indicated by "Sva", 2 by "Sti", 3 loy "Śri”, 100 by "Sı”, 200 by "Sú", and so on. Old paper MSS. are generally marked with numbers, but many MSS. in che Vāļi Pārsvanātha are Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 41 ) numbered like palm-leaf MSS. This is due to the fact that they were copied directly from palm-leaf MSS. Palm-leaf MSS. are sometimes illuminated. The Bhandars however contain only one palm-leaf MS. with pictures in colour which represent the Tirthankaras. Illustrated palm-leaf MSS. are not very rare. I have seen more than a dozen such MSS. at Pattan. MSS. of Kalpasūtra and Kalakācārya Katha are some of those that are generally illustrated. One illustrated MS. copied in Samvat 1294 has the pictures of Hemācārya and Kumarapala of which I have obtained a photo for the detailed Report. There is another MS. picturing the details of the composition and promulgation of Hemācārya's grammar. The Pattan Bhandars contain 2 MSS. on cloth one of which, written in Samvat 1418, consists of 92 leaves measuring 25"x5". The MS. is well preserved and the letters are very clear. The leaves are made by pasting together two thick pieces of ordinary khadi cloth. Even at present cloth is preferred for rare works. The transcript of Jayaprabhṛta in the Jain Bhandar at Baroda is on tracing cloth. There are more than 12,000 paper MSS. in the Bhandars. The paper MSS. in the Sanghavi's Pada are cut in the fashion of the palm-leaves. They say that the paper was first introduced in Gujarat in the time of Kumarapala; but the Bhandars contain no paper MSS. written in the 13th century of Vikrama. I came across one or two paper MSS. bearing this date, but from the script it was clear that they were spurious. Although there is a paper leaf dated Samvat 1329 in a palm-leaf MS., the oldest and most extensive paper MS. in the Bhandars was copied in Samvat 1356-57. Paper MSS. were in many instances written in golden characters. The Bhandars contain about half a dozen such MSS. During my twelve weeks' stay at Pattan, I examined all the 658 palm-leaf MSS. and about 1,000 select paper MSS. Besides the Jain collections, I examined four collections in the possession of Brahmins, but nothing of importance could be found therein. 1 This photo has been reproduced in the Mohaparajaya GOS No. 9 as the frontispiece. 6 Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 42 ) I now proceed to describe briefly the rare and important MSS. in the Bhandars. Sanskrit. LOGIC AND Philosophy Hetubindu-tīkā-_a commentary on Hetubindu of the author of Nyāyabindu. The MS. contains both the text and the commentary. As some portion of the concluding folio of the MS. has been efaced, the name of the commentator cannot be read; but from the Tibetan translation of the work, it is known that Vinītadova (700 A. D.) is the author of 1setubindu-tīkā. This palm-leaf MS. restores to us the Sanskrit original of this important Buddhistic work which was supposed to be lost. The MS. which is copied in Samvat (10 or 11 )-75 is written in such a script that even a skilful scribe having practice in writing palm-leaf MSS. would not be able to make out the letters correctly. Tattrasangraha---an examination of the various philosophica schools of India. The author is Sāntarakṣita, a Buddhist professor at the famous Buddhist University of Nālandā. The work was known only through its Tibetan translation, until Dr. Brihler discovered a copy of the original work in Jesalmere palm-leaf collection. The Pattan Bhandar of Vāļi Pārsvanātha contains, also a commentary on the same work, entitled, Tattvasangrahapañjikā—a commentary on this by Kamalasīla which was known to us only from its Tibetan translation. The present MS. is written about the same time as the former. Kamalaśīla was a professor of Tantras at the University of Nālandā about 750 A. D. Tarkabhāsū3-by Mahāyati Mokşākaragupta (Buddhist) of the famous monastery of Rājajagaddala. The work is divided into 3 chapters treating of perception and two kinds of inference. This is most probably the same as Tarkabhāşă of Jūānaśrī of the Vikramasila University (about 983 A. D.) which was known to us through its Tibetan translation. Of the two palm-leaf MSS. one has the first two folia damaged while the other is wanting in the first four folia. 1 This work is now being taken up for publication in the GOS. 2 Published in the GOS with the commentary of Kamalas'ila as Nos. 30–31. 3 Taken up for publication in GOS. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 43 ) Laghudharmottarc-tippanama gloss on the first three chapters of Nyāyabindu-tikā of Dharmottara by the royal sayo Malla who flourished in the time of Silāilitya. The palm-leaf is much damaged (folia 4-83). Tattvopaplara-a work on logic and dialectics by Jayarāśi. The only MS. (palm-leaf) known of the work, is dated 1346. The first leaf is damaged. Nyāyabhisana—the author's own commentary on Nyāyasāra by Bhāsarvajia (before 900 A. D.). The work was known from references by the Buddhist Ratnakirti (about 983 A. D.) in his Apohasiddhi, by Jayasimha Sūri in his Nyāyatātparya. dipikā and by Gunaratna in his Tarkarahasyadipikā. The present MS. contains the first and the second chapters complete, the third incomplete; the last one containing Agamapranāņa, is somewhat incomplete. Mahāvidyūvid ambana-a work in paricchedas hy Bhatta Vādīndra on the permanence of the sound. Mahavidyāvidambance-vrtti-is a commentary on the above work by Bhuvanasundara. There is also a ţippaņil on the commentary by the same author. Pramānāntarbhāva: by Devabhadra and Yaśodeva-an examination of the logical conceptions of the Buddhists and Mimāṁsakas. Pramānasamgraha-a work on Jain logic; exists only in palm-leaves. Nyāyakalikā—by Jayanta, a treatise on the 16 padārthas of Gautama. It is mentioned by Gunaratna and was supposed to have been lost in original. Nyāyakandali—tippaņa by Naracandra, granthāgra 2500. Kusumodgamu—a commentary on Nyāyakandali by S'iļila Vommideva Bhūpati. 1 Taken up for publication in GOS. 2 l'ublished in the GOS, No. 12. 31 MS, of this work written in Samvat 1194 exists also in the Jesalmere Bhāņtāra. Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 44 ) Nyāyakusumāñjali-parimala-by Divākara, first stabaka only. Vārtika-vrtli?—otherwise called Pramāņa-kalikā-vịtti by Säntisūri. Nyāyīvatiūra-yrtiüo—a conmentary on Siddhasena's Nyāyāvatāra by Siddhavyākhyünika. Nyāyapraves'a-93añjiki-a commentary on Haribhadra's Nyāya-praveśa by Srīcandrasūri; first folio missing. Pramūnamañjari-țīku-a commentary on Sarvadeva's Pramānamañjarī by Balabhadra. Nyāyakusumuñjali-vibaruthrinda commentary on Kusumāñjali by Paramapāśupatācārya Vāmadhvajācārya. Palm-leaf MSS. Nyāyaratna by Maạikaộthama short treatise on logic; consists of 4 leaves. Saptapadārthi-tiki-a commentary on Saptapadārthi by Bhāvasena Traividya. Nyāyasildhūnta-mañjari-kutūhala-tippanika—a gloss on Nyciyasiddhantamañjari by Yāslava. Tārkikarakṣū-prukās'i ly Balabhadra—a commentary on Varadarāja's Tārkika-rakṣā. Padārtharatna-mañjari-composed by Krşņa in the time of Arjuna for Sārngadhara. Tarkabhāştı-tükü—a commentary on Tarkabhāṣā by Govardhana. Palm-leaf and paper MSS. of Laghudharmottara. Vedānta. Khana anakhūdycv-tikā—"Siśuhitaişiņi” 4—a commentary on the 4th Khanıla of Sri Harsa's well-known work on Vedānta old 1 Printed in Benares. 2 Printed in Jain S'vetāmbara conferenco Hemacandrācārya Granthāvali, Pattana, No. 21. 3 Published in the GOS No. 88. 4 The real name seems to be S'isyahitaisiņi, vido p. 373. Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 45 ) and good MSS. of Khandana-vibhaktika-vibhanjana, otherwise called Vidyasagari-a commentary by Udayapurna on Khandanakhadya. Tattrapradipika-tika-Bhāvadyotanika, a commentary on Citsukhi by Sukhaprakāśa. Padarthatattva-tatparya-dipika-by Anandanubhava, pupil of Nārāyaṇajyoti with the commentary 'Mitäkṣara', otherwise called Gangapuri. Nyayaḍīpamālā-prapañca-mithya-by Anandabodha. Anandalahari-ṭīkā-a commentary on Sankara's Ānandalaharī by Narasimha. Tarkasamgraha-by Anandajana, pupil of Paramahamsa Siddhananda. Yoga, Adhyatma, etc. Yogasamgrahasara-by Nandiguru. Adhyatmatarangini-tika-a commentary of Somadevā's (author of Nitiväkyämṛta) Adhyatmatarangini by a pupil of Svarnanandi for the awakening of Somasena. Ganakarika of Bhusarvajna-treats of the five-fold knowledge with the Ratna commentary. Yamaprakarana3-21 verses by Viśuddhamuni, pupil of Śadgocara. Historical. Vikramankabhyudaya a historical Mahäkävya ( prose and poetry) by King Bhulokamalla Someśvara III (1127-1138 A. D.) of the Calukya Dynasty of the Deccan, son of Vikramā. ditya II and author of Abhilaṣitärthacintamani. The work is a life of Vikramaditya, the son of Ahavamalla, the grandfather of the author. Dr. Bühler had discovered a historical poem Vikramankabhyudaya (otherwise called Vikramankadeva-carita by a 1 Printed in the GOS No. 3. 2 Printed in the GOS No. 15. 3 Printed in the.GOS as Paris'ista of Gaṇakārikā, GOS No. 15. Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 46 ) Kashmirian poet Bilhaņa who was the court poet of King Vikramāditya. This work is printed in the Bombay Sanskrt Series from the single palm-leaf MS. at Jesalmere. The Pattan Bhandars contain two paper MSS. of this work of Bilhaņa copied about Samvat 1480 which will be useful in correcting the mistakes and readings of the printed text. The present poem is an important discovery, but unfortu. nately the palm-leaf MS. is incomplete (2-80 folia) ending with the Yauvarājya of Vikramäditya. Kumārapūlacaritra-_by Jayasimha Sūri, the author of Hammiramadamardana?. Kumārapālacaritra8 by Cāritra Sundara. Kumārapālacaritra by Somavimala. Kumārapăla-prabandhamanonymous MS. dated Samvat 1475. Anekaprabandha Only those Prabandhas which are Prabrindhasaṁgraha snew deserve to be published. Vasanta-vilāsat-a Mahākāvya on Vastupāla by Bālacandra, it contemporary of Vastupāla. There is only one MS. of the poem. Sukrta-kirti-kallolini'-180 verses by Udayaprabha, a panegyric on Vastupāla, contains about 80 verses on the history of Gujarāt. Kirtikallolini-an culogy of Vijayasenasūri (in the 17th century of Vikrama ) by Hemavijaya. Vijayadeva-māhātmydo by Vallabhagaņi-life of Vijayadevasūri, a pontiff of the Tapāgaccha (about Samvat 1675). 1 Printed by Pandit Hiralal Hamsaraj of Jamnagar. 2 The author of Hammiramadamardana is quite different. The older Jayasimha is senior by 250 years. 3 Published by the Atmananda Sabha of Bhavanagar. 4 Printed in GOS No. 7. 5 Printed in GOS as परिशिष्ट of हम्मीरमदमर्दन. No. 10. 6 Printed in the Jain Sahitya Samsodhak Granthamulā No. 9, Ahmedabad 1928. Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 47 ) Gurjarades'abhūpāvali—(about 200 verses) by Rangavijaya: chronology of the kings of Gujarāt from the rulers of Valabhi to Aurangzeb. Kāvyamanohara---a poem by Malieśvara on Mandana Mantri. Mantrikarmacandravans'āvali by Jayasoma about Mantri Karmacandra and his ancestors. Poetics. Kavyamimārisū of Riījus'ckharvo (8th century )-There is one incomplete palm-leaf MS. and another complete paper MS. at Pattan. The paper MS. is written about Samvat 1.480 and is generally correct. There exists one palm-leaf MS. at Jesalınere. The work is stated to have been in 18 chapters. Only the first chapter is to be found and that too only in the Bhandars. Kavil? līvyce s'ils of Acīrya Vinay coulrrVinayacandra calls himself the author of 20 works. About five works are to be met with in the Bhandars. Neminithacatuspadi a Gujrati poem is supposed to have been written by this Vinayacandra. The author says that, he writes the present work in the words of Bappabhatti, who converted king Ama of Kanoja (8th century). Bappabhatti was called Krīvyas'iksī; he may have, therefore, composed a Kavis'iksa and our author might have made use of it in the present work. The work is not only very good in its own domain but also supplies much topographical information of Gujarat in his time. Unfortunately, the only extant palm-leaf MS. of the work in the Sanghavi's pādā is incomplete. It breaks off in the midst of the 4th pariccheda. Some 10 leaves are wanting to make the work complete. Alamkāramahodadhit---by Narendraprabha, a pupil of Nara. candra composed at the request of Vastupāla. Only one MS. is known to exist. The MS. comes upto Arthālańkāra (8th chapter incomplete) a few of the concluding folia being lost. The present 1 Printed in the Hemacandrācārya Grantbūvali. Pattan No. 7. 2. Published in the GOS No. 1. 3 Printed in Gos in प्राचीन गुर्जर काव्यसंग्रह. No. 13. 4 Taken up for publication in the GOS. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 48 ) MS. contains the text of the work with the author's own commentary. A MS. of the text of the work is known to exist at Ahmedabad. Udbhatūlarrkara-vrtti-a commentary on Uạbhata's work on poetics by Pratikārendurāja. There exists a palm-leaf MS. at Jesalmere. The Pattan MS. is on paper written about Samvat 1480. Paulakaprakis' is a valuable commentary on King Bhoja's Sarasvati-kunthūbharomna by Ajarla, son of Pārsvacandra. The Pattan palm-leaf MS. is the only copy of the commentary yet known, though it is incomplete. Krīvyokalpalatīviveka-is a commentary on Balacanıra's? Kāvyakalpalatā. Kavikal palata (Kaviśikṣā) is a work on the various topics of interest to poets by Devasena, son of Vāgbhata, the minister of the King of Malwa. Alankūrasīra (in karikās) by Bhāvadeva in 8 chapters. Kivyādars'a—a commentary on the Kāvyaprakāśa by Someśvara, son of Bhatta Devaka of the Bhāradvāja gotra. This Someśvara is different from the author of Kirtikaumudi. The two palm-leaf MSS. combined give us only the 5th, 6th, 7th, 8th, and gth chapters. Vümanīyālarinkīra-vrtti—a palm leaf MS. dated Samvat 1178. Vimanīyālamkārai-tikū—a commentary on Vámana's Kāryālankūrasūtru by Sahadeva of the Tomara clan. Daņdin's Kūvyādar s'a—a palm-leaf MS. of the 13th century. Kavyaprakūs'a-dipikima commentary on Kivyaprakūs'a by Bhāskara. 1 Printed in Bombay, 1915. 2 The name should be Amaracandra. 3 Printod in Bibliotheca Indica, 4 Printed often. Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 49 ) Poems. Abhinanda-kavya-(Ramacaritra) composed by poet Abhinanda at the instance of Yuvaraja Ilāravarṣa (a king of the Pala dynasty of Bengal) who is called the ornament of the dynasty of Dharmapala (765-829 A. D.) and born of Vikramasila. The last four cantos (37-10) of the poem are composed by Bhima, a Kayastha. Sukta-ratnākara-mahākāvya-by Manmathasimha, son of Vidyasimha and Vejalladevi-a collection of Suktas on various religi ous and ethical topics culled from various works; the first dvāra treats of religion; granthagra 4340. Udayasundari-katha is a prose romance written by Soddhala a Valmika Kayastha of Laṭadeśa (Broach) in emulation of Bāņa's Harṣacarita. The hero of the story is Malayavahana, a king of Pratisthana. The work, like Harṣacarita is divided into eight Ucchväsas. In the first Ucchväsa, the poet gives an account of the origin of his own community (Valmika Kayastha) from Kālāditya, a brother of King Siladitya of Valabhi, his on lineage and the circumstances which led to the composition of the work. The author was patronized by Mummuṇirāja, king of the Konkan. Kalidasa, Bāṇa, Bhavabhuti, Abhinanda, Vakpati and other poets are praised for their literary compositions. The present work being a fine piece of literary composition is an important addition to the Sanskrit works by the Brahmanical writers of Gujarat. It seems to have been composed either in the 9th or the 10th century A. D. The Pattan MS is the only MS of the work known at present. It seems to have been copied from a palm-leaf MS about Samvat 1480. Naranārāyaṇānanda3—a Mahākārya by Vastupala on the abduction of Subhadra by Arjuna. This poem deserves special attention, as it is the only Mahakavya by the famous Jain minister and that too on a Brahmanical topic. Dharmabhyudaya-sanghapaticarita-a poem written to commemorate the pilgrimage of Vastupala to Girnar. The first and 1 Pablished in the GOS No. 46. 2 Published in the GOS No. 11. 3 Published in the GOS No. 2, 7 Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 50 ) the last sargas contain historical information about Vastapāla and the Jain Ācāryas. Damayantikathā-vrtti by Guņavinaya-& commentary on Trivikrama's Damayanticampū. Nābheyanemidrisandhāna by Hemacandra,' pupil of Ajitadeva. The only MS of the poem contains the text of the poem with the author's own commentary on the first two cantos. Tilakamañjari-säroddhārai_Tilakamañjari epitomized in verse by Dhanapāla (Junior). Candraprabhacaritra by Sarvānanda. Rasās'raya by Sivabhadra, son of Prabhañjanācārya, with the commentary by Säntisūri. Satyavān describes the love-lorn condition of Rāma when separated from his beloved. Ghataka( ? kha)rparaţikā by Sāntisūri. Meghābhyudayama poem in 36 verses with a commentary by śāntisūri. Vindāvana kāvyaţikā by Säntisūri. Kirātalaghuţikā by Prakāśavarşa. Ābhānas'ataka, a collection of humorous stanzas. Maņdana's works:--- Kūvyamandana, a poem on Pāņdavas. Upasargamandana, on prepositions. Alankāramandana, on poetics. Sangitamandana, on Music. Srngāramandana, a collection of erotic verses. Champümandana' a Champū of Nala. Kūdambarimandanao, an epitome of Kādambari. 1 Ho is different from the famous Homacandra, Guru of Kumārapāla al also from Maladhari Hemacandra. 2 Printed in the Hemacandrācārya Granthavali. 3 Printed in the Agamodaya Samiti, Surat. 4 Printed in the Hemacandräcärya Granthävali, Pattana No. 11, 5 Printed in the Hemaoandrācārya Granthāvali, Pattana No. 9. 6 Printed in the Hommonndräcarya Granthāvali, Pattaya No. 8. Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 51 ) Candravijaya-prabandha'. Vādi Púrs'vanātha Bhandāra contains two MSS of these works all copied in Samvat 1502 by a Kāyastha seribe, Vināyakadāsa and these are the only MSS of the works Puet Malesvara has written a life of the author of these works. Manilana was a Srimali Jaina aud a minister of Alimshah of Mandapadurg:2 (Mind), Milwa. Pratijn-gangeya by Múla, a Drycīsraya Mahakurye on Bhīşma, illustrating the grammatical rules of külmutre as explained by Durgasimha. I came across an incomplete paluu-leat MS of the pocm at Ahmedabad. Erotics. S'umbhalimatra by Dāmodaragupta-a work on the art of prostitution composed in the eight century. Dr. Peterson had found one incomplete palm-leaf MS it C:mbay containing about 300 verses. The work as published in the 3rd Gucchaka of Kūvyamālā comes upto the 927th verse. The present MS is also incomplete; but it contains about 100 versos more than the print, d copy. From a fragment of the last folio we know that the granthāgra of the work is 1290. The MS corrects the mistakes of the printed text. Folk-tales. Pañcadanda-prabantha—by Pürņucandra. Granthāgr: 4000. Brlatpañcākhyāna-sūroddhūra by Dhanmatna. Pañcadanda-caritra.prabandhered by Rāmicandra, the author of Vikramacaritra, composed in Samvat 1490. Dramas. gamadambara, a drama in 4 acts, composed by Prttikūra Jayanta, father of Abhinandir, the author of Kalamburi-kathsūra who flourished in the reign of Lalitāditya of Kitshmir in the eighth century A. D. It is an examivation of the doctrines of the six schools of Indian philosophy. 1 Printed in the Hemacandrácārya Granthāvali, Pattana No. 10. 2 Printed in the Hemaoandrācảrya Granthāvali, Pattana No. 7. 3 The complete work has been takon up for publication by the Asiatio Society of Bengal. 4 Published by Ajralal Hamsaraja of Jamnager. Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 52 ) (i) Karpūra-caritra Bhāna (a monologue ) adventures of Karpūra, a gambler. (ii) Rukminipariņaya (īhāmrga) on the marriage of Rukmiņi and Kışņi. (iii) IIūsyacīdāmaņi (a farce). (iv) Tripuradāha ( Dima) on the burning of Tripura by Siva. (v) Kirātīrjuniya (Vyayova) on Arjuna's practice of penance as a kirāta on the llimalayas. The last few folia are damaged. (ri) Samudramuthani (Simavakāra) on the churning of the ocean by gods. These six Iramas' of Vatsarāja, the minister of Paramardideva of Kulinjar (1165-1203) are found in the palm-leaf collection in the Khetarvasi. The dramas of Vatsarāja were regarded as classics, as the Sihityadarpanama well known work on rhetorics, refers to Tripuradāla ani Samucira uathana. There is a paper MS of the IIāsymrudūmuni in the Deccan Collection; but all the other five works, as far as my knowledge goes, are new discoveries, Anarglarūghararahrasyāılarsı—a commentary on Anargharūghava by Devaprabha; the first five acts in the collection of the Singhia are on poper, while the list. 5 acts are in the palm-leaf coll.ction m Kbetalesi; granthungra 7500. There is a ?"ppana on this drama by Mladla: i Naracuda containing 2-50 verses. Anarglu uglava Tila ly Jinaharşa, pupil of Jayacandra," pupil of Munisundara, pupil of Somasundara. Candraleklāvijayaa drama composed by Devacandra, the guru of Hemacauira in the time of Kumārapāla. kanmulimitrūncouat--by Rāmacandra, pupil of Hemācārya. 1 All these six drawas lave boon published in tho Rupuka Satham iu GOS No. 8. 2 This Jayacandra was not the pupil of Munisundara but he was the water ITFT of Munisundara. Both of them were the fellow-students of Somasundara. (soo yaiad of Munisundarasūri.) 3 Devacandra, the author of this Prakaranarūpaka, was the pupil of Hemacandra. (soo GOS No. 2., Intro. p. 64.) 4 Printed in the Jain Atmānanda Grantharsta mälä, Bhavnagur No.59. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2471 ( 53 ) Nalavilāsa'-a drama in 10 acts on Nala by Ramacandra. Raghuvilāsa by Rāmacandra. The only palm-leaf MS of the work is incomplete and the folia have stuck together. Johaparājayadrama in 5 acts, shows how Kumārapāla overcame passions through Vinaya; by Mantri Yaśaḥpāla, a Mocha by caste. The drama was acted in Tharād at the festival of the Temple of Malāvīra crected by Kumāra;ūla. Ilammiramarlamariaan -hy Jayasiinha is a historical drama on the humbling of Hammīra, a Muhammadan chief by Vastupāla. It was acted at Cambay by the order of Jayantasimha, the son of Vastupāla. There are only two MSS of the work--one in palm-leaf dated 1286 at Jesalmere, and the other a paper MS in the Vādi Pārs'vanātha at Pattan. The Pattan MS is written about Samvat 1480 and contains like the Jesalmere MS Vastupāla Pras'asti by the same author. Rūjimati prabodha by Yaśascandra. The theme is too wellknown among the Jains. Karunārajrīyudha Nūakat hy Bālacandra, pupil of Haribhadra, and the author of Vasanta-viliisa. The subject is the protection of a pigeon by Vajrayudha ( who afterwards became tho 16th Tirthankara) even at the cost of his own life. The play was first acted by the order of Vastupāla. Prabuddha-Rauhinryce' a drama in 6 acts on the awakening of Raubiņeya, a highly skilful burglar, to the path of salvation ; by Rāw.abhadra, pupil of Jayaprabha. Dharmabhyudayca (Chāyā Prabandha) on the life events of the Royal sage Daśārņabhadra by Meghaprabha. Grammar. Sobramahārncıvanyāsa--Hemacandra's great commentary on his own Sabdānušāsana. 1 Published in the GOS No. 29. 2 Published in the COS No. 9. 3 Publishod in tho GOS No. 10. 4 Published by the Jain Atmānanda Grantbarstnamālā, Bhavanagar No 56. 5 Published by the Jain Atmānanda Grantharatnamālā, Bhavanager No. 60. 6 Printed in the Jain Atminunde Graatbaratonmäli, Bhavanager No. 61. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 54 ) Dhātupārāyana' with commentary by Hemacandra. Lirgānus'āsana-vrtti-Durgapadaprabodha by Vallabhagani, pupil of Dhanavimala of the Kharatara Gaccha. Buddhisagarama grammar by Buddhisāgara composed at Jabalpura (Jāvālipura ) in Samvat 1080. S'abdūnus'āsana by Malayagiri, the well known commentator, on a Jain canonical work composed about the time of Hemacandra's grammar. Golhana-vrtti-a commentary on Durgasimha by Golhaņa. Kātantrapañjikodyota (incomplete). Kaviguhya—a commentary on Bopadeva's Kavirahasya by Ravidharma. Dhūturatnākara by Sādhusundara with the author's own commentary Kriyūkalpalatū composed in Samvat 1687. Metrics. Palm-leaf MS of Haläyudha's Amrtasañjīvani, a commentary on Chandahsūtra. Chandonns'āsana by Vāgbhata. Vytlaratnākara Țikiū by Somadeva composed in Samvat 1329. Vrttaratnākara Tikū by Trivikrama, son of Raghusūri. A critical edition of IIemīcīrya's Chandonus'āsana may be undertaken. There are reliable MSS of the work at Pattan. It will throw great light on Gujarati metrics. Polity. Kautilya-Arthas'āstra (on palm-leaf )-only a fragment con. taining the first Adhikarana and the second incomplete with some portion of Yoghama's commentary Niti-Nirnaya. Lives of the Tirtharkaras, etc. Trisasti-purusa-caritra in prose by Maladhāri Vimalasūri (incomplete, upto the life of Mallinātha). Sridhara-caritra in nine cantos on the worship of the Jinas by Māņikyasundara, pupil of Merutunga of the Añcala Gaccha. 1 Printod by Joh. Kirste Vionna, Bombay 1901. Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 55 ) Kathās. Laghu-Upamitibhava-prapanci by Devendra, pupil of Sricandra; Granthigra 5700; composed in Samvat 1298. Upamitibhava-prapanicodilhūra by Devasūri. Kathūratnasāgara by Naracandra in 15 Tarangas, contains moral and religious stories. Architecture. Rūpamand ana by Sūtradhāra Mandana. Laksaņa-samuccaya—a work on building the temple ef Siva and the installation of the phallus, etc. The work is called Vairo caniya. The palm-leaf MS though incomplete (from 12-28 vidhis) is the only MS known of the work. Vāstutilaka by Keśava. Arts. Sangitasāroddhāra—by Sudhākalasa, pupil of Rājasokhara, Samvat 1360. Abhilasitūrtha-cintāmani--a voluminous work on various arts in 100 Adhyāyas by the Calukya king Bhulokamalla Sumeśvara. The Madras Oriental MSS Library contains one incomplete MS of this work (about 1600 verses). The Pattan MS is also inconiplete, but contains some more portion of the work. The MS was entered in Mr. Dvivedi's list as Vividha-varna-vicāra and it was explained that it may contain information about castes in the time of Kumārapāla. Divination. Candronmilana—a work on telling the future by mcans of questions; based on Praśnavyākaraṇa. Cūdāmanisāramoby Bhatta Lakşmaņa. Hastakānda-by Pārsvacandra. Astronomy and Astrology. There is no work of importance. There is, however, a palmleaf MS of Vārāhisaṁhitū dated Samvat 1313. Meteorology. Varsaprabodha--by Meghavijaya. 1 Printed in GOS No. 28. Vol. I. Vol. II. will be publiskod shortly. 2 Printed by Bhagavendosji Jain, Jaipore. Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 56 ) Science of Omens. S'akunasároddhåra'-by Māņikyasūri in 11 chapters, 507 Verder. Prākrt. I. HISTORICAL. Kathāvali is a Prākṣta work in prose by Bhadreśvara Sûri who flourished in the time of Karņa. It contains lives of the 24 Tīrthankaras and Jain Pontiffs. The work is not only prior to Hemācārya's Paris'ista Parva published by the Asiatic Society of Bengal but also goes further than it. Paris'ista Parva ends with tha life of Vajrasvāmin, while the present work goes as far as Haribhadra (6th century). The work is very extensive containing about 24000 granthas, but we should only publish the really historical portion (from the life of Mahāvīra to the end). The Pattan palm-leaf MS is the only MS known of this work. Being written in Samvat 1497, it is the latest of all the palm-leaf MSS at Pattan. Siddhaserādi Caritra contains the lives of the Jain Ācāryas Siddhasena, Pādalipta, Mallavādi and Bappabhatti. The life of Bappabhatti given here confirnis the account of the conversion of Vākpati, the author of Gaudaraho. The lives are all anonymous, but as they are written in Prakrta, they are supposed to be old and reliable. The age of the MS is Samvat 1291. Kumārapula-Pratibodha,' a Prākrta poem in 5 Prastāvas on the conversion of Kamārapāla to Jainism by Hemācārya. The first 400 verses contain the history of Kumārapāla and Hemācārya. The rest of the poem consists of ethical and religious stories told by Hemācārya to Kumārapāla. The poem was composed in Samvat 1241 or, 12 years after Kumārapāla’s death. It was recited by the author to Mahendrasūri, the pupil of Hemācārya and possesses the stamp of authenticity. The MSS of the poem are not to be found elsewhere. The Pattan Bhandars contain only two palm-leaf MSS one complete and the other incomplete. Gaudavaho. There are 3 palm-leaf MSS of this famous historical work. 2 MSS of the text and 1 of the text with commentary and 1 paper MS ( written about Samvat 1480) with text | Printed by Hiralal Hamsaraj, Jamnagur. Printed in GOS No. 14. Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 57 ) and commentary. It is printed in the Bombay Sanskrit Scries, but the text of the commentary is made out from one MS. These Pattan MSS will be very useful in case a new edition is undertaken. Rşimandala-Brhartti is the only MS known of this important Prāk’ta commentary. This contains historical parti. culars of the Jaina Ācāryas, but unfortunately the MS is incomplete and folia have stuck together. II. LITERARY. Kuvalayamuli-an old work in Prākrta composed about Saka 700 by Imrestri.' It is a fine piece of prose in Präkrta, which evinced the highest praise from the Jaina authors in the 12th and 13th centuries. Lilārati--a romance in which Sūlivāhana figures as the hero. The story is recited by Priyatamā and done into verse by her husband, a son of Bhūşana Bhatte. It consists of 1800 yüthris and is in Mahārāştri, what the author calls Mabăratta Desi Bhāşā (Marahattha Desi Bhäsão). This is most probably whe same Lilārati Kathū which is cited as an example of poetic romance in Prākıta by Hemācārya in his Kūvyānuśāsana. The only palmleaf MS of the poem is in the Sanghavi's Pādā. It is complete but the ends of the first four leaves having stuck together, some verses cannot be read completely. Damayanti Katha in 20 Uddesis. The writing of the last few verses of the MS being obliterated, the author's name and age remain unknown. From the script of the palm-leaf MS, it appears to be earlier than the beginning of the 11th century. Jñana-pañcami Katha by Maheśvara, a pupil of Sajjana Upādhyāya, 2000 jūthūs, composed about the end of the 10th century of Vikrama. Kaliūvati Caritra—anonymous life of Sati Kalāvati. The MS seems to have been written in 11th century. Pusprovati Caritra--by a pupil of Abhayadeva(?). I The roal name is Dakhinna-indha-Dāksinya-cihna--Sūri, 2 For further information see Introduction to Apabhrans'a Kávyatrayi published in GoS. 3 Its real name is Pañoami Māhatmya. Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 58 ) Surasundari Kuthāby Dhaneśvara, pupil of [Jineśvara and] Buddhisāgara ; composed in Samvat 1095. Granthügra 3800. Siti Caritra-A Prākrta poem on the life of Sītā by Mahasūri, composed probably in the 11th century. Granthūgra 3200. Vijayacandra Kevuli Caritra” by Candraprabha Mahattara, pupil of Amayadeva = Amstadeva. Sandes'arāsaka—a message of a lady separated from her husband in Prākıta and Apabhraṁs'a. The metrus employed are Dohās, Gāthās, Pajjhatikäs, etc. Mahipala Kruthamby Viradeva, pupil of Municandra. Vasudeva lIindi3-on the exploits of Vasudeva, the father of Krşņa is a Brhatkathā divided into Lamba bha )kas. The writers of the 12th and 13th centuries praise Bhadrabāhu (3rd century B.C.) for writing this fine and voluininous work containing 125,000 Granthas: “I salute Bhadrabāhu who composed the life of Vasudeva full of very interesting stories, in 125,000 Granthas”4. (Säntināthacaritra by Devacandra, guru of Hemācārya, composed in Samvat 1160.) The MS of the work in the Bhandars mentions Sanghadāsa as the author of the first khaṇda and Dharmasena as that of the second. The granthāgra of both is 28000. I, however, obtained information that a MS of the whole work consisting of about 2000 folia and containing 125000 granthas was sold away by a Yati, to a jeweller of Calcutta for a sum of Rs. 1000/-. This may be the original work of Bhadrabāhu, while the MSS in the Bhandars may be epitomes of the larger work. Tarangaloli—is a prose romance possessed of high literary qualities, by Padaliptācārya who is said to have flourished in the time of Sālivāhana. 1 Printed in the Jain Vividha Sahitya Sastramāla, Benaras. No. 1, 2 Printed in the Jain Dharma Prasāraka Sabhā, Bhavnagar. 3 Printed in the Jain Ātmānanda Grantharatnamāla, Bhavnagar, 4 Vide p. 335 of the edition. 5 This is only an epitomo of the original work of Padaliptasūri. Published in Roman type-as Tarangavati-by Ernst Leumann, Munchen 1921. Gujarati Translation by Keshavlal P. Modi, Ahmedabad. Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 59 ) "सीसं कह व न फुटुं जमस्स पालित्तयं हरंतस्स । जस्स मुहनिज्झराओ तरंगलोला नई बूढा ॥" “How is it that the head of the God of Death is not broken while taking away the life of Pīdalipt: from whose mouth has flown the river in the form of Tarangalolā”. The scene of the story is laid at Srāvasti in the time of Udayana. Lives of the Tirtharkaras. Mahupurusa Curitru-or the lives of 5.1 great men-Tirthankaras, etc., like Hemācārya's Trisasti-xviluksi. Jani Pons Curitan by Silācārya, pupil of Mānadeva; menthee 10,000; composed in Samvat 925. Rsabloco Coritia. by Vardhamāna, Samvat 1160. S'intimcilu Carilne by Devacandra, the guru of the great Hemacandra, date of composition 1160. Pīrs'rrinūtu. Cerita by Devabhadra, Samvat 1165. Supurs'rrother. Curitev? - by Lakşmaņagaņi, u pur ! of Maladhārī Hemacandra, date of composition 1199. Simutinha Crire—by Somaprabha, author of Kumārapālapratibodlia. Neminatlı Caoritm--by Ratnaprabha, pupil of Devasūri, in Samvat 1233. Satinatha Cheritona--by Māņikyacandra of Rājagaccha. Srcycīnisa Curitn. Ancontanthes Ceritive Pūcīstaka--hy Nemicandra, pupil of Amaradeva“, pupil of Jinacandra's younger pupil of Vijayasena and elder co-pupil of Jasadeva (grcentlyre 1870). Pulmapralık Curilon.—by Devasüri, pupil of Dharmaghoşa, in Samvat 1254. Condroprabha Cruritayı-by Devendra, pupil of Rūmasüri, of the Nagendra Gaccha, composed in Samvat 1264. Candraprabha Ceritra-by Haribhadra, pupil of S'rī Candrasüri. I Printed in the Jain Vividha Sahitya S'āstra Mālā, Benares. 2 Amradeva or Amradeva (. 3 a ). Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 60 ) Mahrīvīra Caritra' by Guņacandra. These lives not only impart to us many religious and ethical lessons but they also represent poetic merit of a high order. Grammar and Lexicography. Dodhrokūrtha-- meanings of the Apabhraṁśa Dobās in the Prākṣta Grammar of Hemācārya. Desinīmanilodellürce by Vimala (an epitome of Hemacandra's Deśīnāmamālā). Prakrta Prabulha-by Naracandra. Declensions of the roots in the eighth Adhyāya of Hemācārya's Grammar. Metrics. Gathalaksana: (Nandiaddha). Chandorretnuvali-by Amaracandra. Pinyalodahiru. Anthology. Gūthūkosr-a collection of Prākṣta Gātbās (original). Vajjaluguru with commentary. An anthology of Prākrta Gūthū by Jayavallabha. The text is being printed in Europe. Saptas'uti-chuya-Sīlawikaia commentary on Gāt hā Saptasati by Jalhaņadeva, son of Mhāindeva, son of Rudrapāla, son of Vikramapāla, son of Vijayapāla, (palm-leaf MS). There is besides one Jain commentary on Saptaśatī. Divination. Pras'na-Tyūkarnına or Jayaprūblista is an old and well-known but very rare work on Nimitta, telling the future by means of computing the letters of the questions. Three commentaries are found in the Bhandars. The palm-leaf MS in the Sanghavi's Pādā contains the Cūdāmaņi commentary. Hansavijayaji's collection at Baroda contains a transcript of another commentary on palm-leaf at Jesalmere. The Limdi Pādā collection contains an incomplete paper MS of another commentary Dars'una Jyotih. 1 Printed in the D. L. Fund, Surat. No, 75, 2 Printed in the Hemacandrācārya Granthāvali, Pattan. No. 1. 3 Printed in the Annals of the B. O, R. Institute, Poona, vol. XIV, pts. 1-2. 1933. 4 FT. EET = TETEH. This seems to be the name of the work. 6 Published in the Bibliotheca Ipdica., Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 61 ) Pranastalüībha tells when a lost thing will be found. Folk-tales. Dhürtüklyduro by Haribhadra. Architecture. Tiistusīrue" by Thakkara Feru. Samvat 1372. Apa bhrams'a Literature. Uptil now we had to rest content with the Dohās contained in the eighth Adhyāya of Hemacandra's Grammar and the 8th canto of his Prūkyta Kumarapāla Caritra. Dr. Jacobi, when he visited India last year, came across a MS of Punerumi kicheza of Dhanapāla which lie considered in important discovery. He wanted to bring out an edition of this work; and for this, the MS of this work from the Pattan Bhandlar was lent to him. His further desire was to get as much Apabhranía literature is possible so that one may be able to write a grammar of this important but neglected language. The Pattan Bhandars have yielded to my searches works containing about 10,000 verses. The Apabhramba works, says, Hemīcarya in luis hiryus'sante, are divided into Sochis, just as Sanskrit works are divided into Sims (cantos). The same author in his Cheunessuna sily's that a Sieuthi is nothing but a collection of Kudarris. The lattan Dilandars contain two extensive works divided into Sudhis (1) Prenerace Kahii, 26 Sellis (2) Ārālhanā about 100 Sorlhis, and also several works called Suwilis. These Sewis iso subdivided into krdurvis. For example Pajiririmi Sevdi is divided into ? Stendhis, the first containing 10 Kadavas. The Apablıramsa works were also in the form of Räsits, the forerunners of our Gujarati Rāsī. There are references in a work of the 12th century to two Apabhramsa Rāsās. The Puttan Bhandars also contain such Rāsas as Anturonga Rrīsli, Newi Rrīsu, lammasini Rīsu. All these works require to be published so that scholars may have ample material for researches in the origin of Gujarati philology. I. SANDIIS. Ārūdhani by Nayanandi. Antarrenga Sarudhi by Ratnaprabha, pupil of Dhanaprabha. 1 Published by Bhagvandasji Jaini, Jaipore. 2 Printed in Germany and also printed in GOS. No. 20, as fa T . Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 62 ) Upacles'amülü Vrtti Doglaruti by Ratnaprabha contains some Sandhis. Aruthi Sanilhi-2 Kaờavās by Jinaprabha. Pañeumi kahul by Dhanapāla. Kesi-qoyumu Sanelli. Jivīnusedhi Sandhi by Jinaprabha. Tupru) Sondhi by a pupil of Viśālarāja. Narmulīsundori Sconelli by Jinaprabha: Samvat 1328. Upadesı Sundhi by Henasūra. Bheñvrenc Sandhi---Apablıramsa with Gujarati translation. MS dated Samvat 1553. Mayanarchi Scelli, 5 Kadrorīs composed in Samvat 1297. Vajrasvāni Caritra in 2 Sandhis; groenthägre 300. There are 3 palm-leaf MSS in Pattan and one more in the palm-leaf collection at Cambay. S'ila Sandhi by Jayasekhara. Sthūlabhadrastuti, 2 kadarīs. II. OTHERS. Antarringa Rīsu by Jinasūri. Anathi Kulaka. Carcarie-praise of Jinavallabha with a Sanskrit commentary, Jambrucuriti(--Samvat 1299. Nenti Risul. Dharmasüribūrmāsi-panegyric on Dharmasūri. Dharmresūri.Gunalo Parmasiri Curitro by poet Dhāhila, son of Pārs'vacandra. Prarrmītma, Prrukcīs'si3 by Yogindradeva composed at the request of Bhatta Prabhākara. Bhavickuitumba Caritrre by Jinaprabha. Bhuvaanāsūrai. Mulli Caritrı-Samyat 1319. Mahavira Caritraa. Mryāputra kulako. 1 Published in GOS. No. 20. 2 Printed in GOS, No. 37 in 39774764 . 3 Printed in the Raicandra Jain S'ästramālā, Bombay. Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 63 ) Joharījn vijayohli. Yugāli Caritro by Jinaprabha. Samyuma Lonjuri' by Mahesvara. Sukosilio Chritis.Samvat 1302. Sulasio Caritrae by Devacandra, guru of Hemācārya. Silibhadrakukka? by Pauma; 6-4 [71] Gāthīs. Vaircisvāni Curitra hy Jinaprabha; Samvat 1313. Youcesārc by Yogacandra. Marāthī. kalūnidhi-the only Marathi palm-leaf MS4 in the Pattan Bhandars. It treats of the various Kaläs or arts such as those of the sacrificer, singer, etc. The MS is incomplete but on one of the leaves appears the name of the Vaijanātha who may be the author of the work. It is in prose and the language is the specimen of old Marāthi. The MS though on palm-leaf does not seem to have been written earlier than the 16th century of Vikrama. Dhūhpryou-a paper MS on alchemy. Yoyarājatilahn-I came across a paper MS of the work written in old Marathi and preserving the peculiaritic of the old form of the language. These will be, I think, useful to the student of Marāthi philology Gujarāti Poems. 1. HISTORICAL. Jambnesväni Rusar-by Dharma, pupil of Mahendra Guru. This is the oldest Rasa in Gujarati discovered till now. The MS, being on paper, is not so old as the palm-leaf MS of Revantagiri Rāsa composed about 10 years later; yet the MS preserves to some extent the peculiarities of the old language. Reruuntajiri Riisa--the oldest poem in old Gujarati on palmleaf hitherto known. The subject natter being the erection and renovation of some temples on Girnār by Sajjan, Vastupāla and others is historical. The poem was composed by Vijayasenasūri, 1 Printed in the Introduction of 74 74.8T, GOS. No. 20. 2 Printed in the Jain Yuga, Bombay. 3 Printed in graf TF POTRIJE GOS. No. 13, 4 Tlus seems to be a paper MS. 5 Printed in the GOS. No. 13. 6 Printed in gladiator TOUTE GOS. No. 13. Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ the preceptor of Vastupāla about Samvat 1270-1280. It consists of 3 kindarīs. This is the only MS of the poem yet known. Sthalabhadraphāgu by Jinapadma of the Kharatara Gaccha about Samvat 1400 Viestipāl«-Tejapāla Rās,—collection of anonymous 76 ślokas. Pethod Rās«?-old Gujarati. Sumhurti-Somarusimha Rūsrea by Ambadevasūri, pupil of Pāsadasūri. Jāvneda Caritura (182 verses) life of the Jain millionaire Jāvada by Depāla composed at the end of the 15th century of Vikrama. Bilhanı Pancas'ika is a poetical translation of Bilhana's Caura Pañcāśikā by Nyāna (Jñāna) Sāgara. The date of the composition is not given but as the author wrote another poem in Samvat 1531, the translation must have also been made about the same time. The MS is dated Samvat 1655. Jembusvānii Rūsa by Depāla, Samvat 152. Sreņiko Rūsa ( anonymous ) Samvat 1526. Gunurutucīkrora Chandu is a lyrical poem on Sthūlabhadra by Sahaja Sundara; Samvat 1572. Somacima sūri Rāsu-is a life of the Jain pontiff Somavimala by Anandasoma ; Sanivat 1619. kaormuncadrarums-prabunikeret by Gunavinaya. Life of Mantrī Kurmacandra, formerly a minister of Kalyāṇamalla and Rājasimha and afterwards an officer in the service of Akbar. There is also a Sanskrit poem on the same subject by the preceptor of the author of the Gujarati pocm. Vijayadevosūri Rāsca life of Vijayadevasūri, a Jain pontiff who flourished in the latter part of the 17th century of Vikrama containing many points of historical and topographical interest; composed in Samvat 1664 by Kanakakusala. 1 Printed in grofa 216TÁTE GOS. No. 13. 2 Printed in TOTO T E GOS. No. 13. 3 Printed in the Aitihasik Jain Gurjara Kävya Sasicaya; Atmananda Sabhā, Bhavnagar. 4 Printed in tho Aitihāsik Jain Gurjara Kävyu Sarcaya ; Atmānanda Sabha, Bhavnagar. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 65 ) Jayacandra Rasa-life of King Jayacandra of Kasi, grandson of Govindacandra; also contains the history of the poet Śri Harṣa. Kocaravyavahari Rāsa1-life of Kocara, the officer in charge of Samlakṣapura (Salakhaṇapura)—the modern Samkhalpura and 12 other villages. He stopped the slaughter of animals at Bahucarāji; composed by Gunavijaya in Samvat 1687 at Deesā. Padmini Caritra-a poem on the sack of Chitor by Allauddin; composed in Samvat 1712. Mr. Dwivedi's list mentions Rupasundari Rūsa. This was supposed to be a poem on Rūpasundari, the wife of Jayasikhara, king of Gujarat; but it is really a mistake for Surasundari Rasa by Nayasundara, MSS of which are very common. The story of Surasundari is a story on chastity, well-known among the Jainas. Kumudacandra Devasuri Rasa composed by Jinasadhu, a pupil of Jinaratna about the beginning of the 16th century of Vikrama. This, as the author says, is a historical ballad (pavāḍā) on the subject of the defeat of Kumudacandra, a Digambari dialectician by Devasuri in the court of Siddharāja. The poet describes the old city of Pattan and its residents. Kacchuli Rasa composed in Samvat 13033 about the Jain Acaryas at Kacchuli, a village near mount Abu; from a cloth MS copied in Samvat 1418. Besides the above historical Rāsās, there are lives of Kumarapala and Vastupala. The historical Rāsās, like other Jain historical works, even if they pertain to Jain historical personages, contain many things of social, historical and geographical interest and hence deserve publication. II. FOLK-TALES. Vidyavilasa Pavaḍo-by Hirananda of Pippala Gaccha composed in Samvat 1485. Sadayavatsaprabandha-an old version of the popular story of Sadevant Savalingā. Printed in the Aitihasik Rasa Sangraha, pt. I. Yas'ovijaya Jain Grantha Mōlä, Bhavnagar. 2 Printed in free. GOS. No. 13. 3 The date of composition is Samvat 1363. Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 66 ) Pañcadanda_a story of Vikrama and Pancadaņda. Samvat 1553. Nandabatrisi by Nyānasila in the 16th century of Vikrama. Vikrama Rāsa by Udayabhāņa Vācaka, a pupil of Vinayatilaka of Pūrņimā Gaccha. Anbanda (Ambada) Kathū by Jayasoma, pupil of Jayaśikhara in Gujarati. MS dated Samvat 1571, Ambanda (Ambadm) Caritra by Vinayasamudra. Samvat 1579. Dholānuīru Caupaiby Kuśalalābha. Samvat 1617. Vetrālapacisi Rāsa" by Devaśīla. Samvat 1619. Karpūramañjari Carpai by Matisāra. Samvat 1605 or 1675. Karpūramañjari Caupai by Kanakasundara. Samvat 1663. Vikrama Caritra by Abhayasoma. Samvat 1724. Vikramasena Catuspadiki by Parama[sāgara] Jain. Samvat 1724. MS 172 [6 ?). Ambada Rūsa by Mahimaprabhu, pupil of Bhāvaprabha of Pūrņimā Gaccha who traces his spiritual descent from Vinayaprabha. Auktikas. Auktikas are not, as the late Dr. Dhruva supposed, grammars of old Gujarati, but short grammatical treatises on the elements of Sanskrit syntax meant for beginners; they contain explanations and examples in the Gujarati language of their time. These Auktikas are, therefore, of much importance to the students of old Gujarati. The late Dr. Dhruva has published one such Auktika, Mugdhāvabodha by Kulamaņdana, dated Samvat 14603 But as the work was published from a single MS and the knowledge of old Gujarati was at that time in a very primary stage, the edition had been far from satisfactory and was much criticized. Now we can collect more than half a dozen reliable MSS of this work, and re-edit the work in the light of new researches. The Pattan Bhandars contain five other Auktikas. Auktika by Somaprabha. There have been many authors of this name, but there being no particulars of the writer of this work, it is not possible to say which of them is the author of the 1 Printed in Anandakāvyamahodadhi Mauktika 7.(D. L. Fund, Sprat No. 66). 2 Edited by Jagajivandas D. Modi; Baroda. 3 It should be Samvat 1450. Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 67 ) present Auktika. The work, however, seems to have been com. posed not later than Samvat 1400. Uktisamgraha of Tilaku. It is not certain whether the author of the Auktika is the same as Tilakācārya who flourished about Samvat 1296. Kārakavicīra MS dated 1543. Satkāraka—the author is not known and the MS is dated Samvat 1485. Vākyaprakūs'a' by Udayadhurma at Siddhapur. Samvat 1507. There are three commentaries on this Auktika; the one by Harșa deserves immediate publication. The Auktikas are very short works and as thoy were composed at different times, they give us an idea of the nature of the contemporaneous language. All Auktikas, therefore, deserve publication. It is interesting to note in this connection that the pulm-leuf collection in the Sanghavi's Pādā contains a MS of Uktivyakti in 50 Āryās initiating a beginner in the study of the Sanskrit syntax with a commentary (incomplete). The commentator explains the word Uktivyakti as the elucidation of Sanskrit which is dominated over by the Apabhrumśa dialects. The coinmentary explains some Sanskrit phruses in a dialect, probably the Hindi of its time. Religious, ethical, etc. Neminūthacatuspadia by Vinayacandra. This Vinayacundra most probably the same us the author of Kaviśikṣā. If so, this must have been composed about Samvat 1280. The poem forms a part of the oldest dated paper MS at Pattan written in Samvat 1357. Duhūmūtrkā by Bhala. [It begins from #2] Mātrkā Caupai'. Samvegamãi. Namaskārārthas prose rendering of the Namaskāræs. The MS is dated 1357. 1 Printed in the Stotra Ratnākara pt. I. Yas'ovijaya Jain Päthas'āla, Mehasana. 2 Printed in retard TOTHIE GOS. No. 13. 3 The author's name is Padma. Printed in gretasi ATHIE GOS. No. 13. 4 Printed in satarish GOS. No. 13. 5 Printed in richting GOS. No. 13. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 68 ) Aloyana' rendered into Gujarati prose from a palm-leaf MS written in Samvat 1330. Gautamaprcchā with prose rendering by Nemicandra Bhān. dāgārika. The MS is dated Samvat 1401. Jñānapañcami Caupai composed in the Magadha country by Viddhaņu, son of Thakkar Mālhe, pupil of Jina-Udaya in Samvat 1423. Cihunuyatini vela-age of MS Samvat 1462. Tribhuvanadīpaka Praibandha* by Jayasekhara about Samvat 1460. There are three MSS at Pattan; one fully retains the old language, while the other two show some changes. Nemincīthafága is a lyrical poem by Dhanadeva in Sanskrit, Prākrta and Gujarati. Sāgarudattu Rūsu by Sāntisūri, a pupil of Amaradeva probably in the beginning of the 15th century A. D. The poem is in Prāksta and Gujarati. Lalitāngu Caritra by Iśvarasūri, pupil of śāntisūri of Sandera Gacchu and author of Sāgaradatta Rūsa in the reign of Mulikamafar of Malwa. Rohineya Prabandha by Depāla composed about the end of the 15th century of Vikrama. Candanubālā Caupai by Depāla about the end of the 15th century of Vikrama. Sudars'anu Rāsu by a pupil of Munisundara, about the beginning of the 16th century. Nala-Damayanti Rūsa by Ķşi Vardhana, pupil of Jayakirti of Añcala Gaccha. Samvat 1512. Dhannā Rīsa by Matisekhara. Samvat 1514. Ratnacūda Rūsa. Samvat 1514. Siddhāntahundi. Samvat 1523. 1 Printed in graftarlet along GOS. No. 13. 2 Published by the Editor. Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 69 ) Sripäla Räsa by Jñānasāgari, a pupil of Guñadevasūri of Nāgendra Gaccha, Samvat 1531. Navakāru Riīsce by Jñānasāgara; Samvat 1531. Gajisukumuru Rüss about the beginning of the 16th century. Sūrus'ikhuīmana Rasie by Samvegusundara, Samvat 1548. Mahinuīyirūkya contains prophetical verses of events from Samvat 1285 upto 217. Rşidutti Caupai by Devakalasa. Mangala halas'o Cargui by Sarvānandasūri. Mrgūñkalekha Ruisro by Vaccha. Munipaticetuspuulikia by Samgharatna ; Samvat 1550. Sanctkununue Coupui by Kirtiharşa; Samvat 1551. Versudeve Rrīsro by Harşakalaśa composed in Samvat 1557. MS dated 1617. Matsyodara Rūsa by Lāvaṇyaratna; Samvat 1573. MS dated 1591. Kulallvaja Rūsu by a pupil of Kakkasuri of Ūkeša Gaccha (about the end of the 16th century). MS dated Samvat 1605. Dhammilla Rūsu by Somavimala ; Sanivat 1591. Lilāvati Caupai by a pupil of Kakkasuri in Samvat 1596. Ātmarāja Rāsca by Sahajasundara ; Samvat 1588. Neminātha Rūsa by Punyaratna, before Samvat 1596-the date of the MS. S'ilavati Rāsa composed by Nema vijaya in the 18th century is published in Prūcīna Kūryanvilã. [Baroda] Srngūra Mañjari is on the same topic and is composed in Samvat 1614 by Jayavanta, pupil of Vinayamanda{nal of the Vğddha Tapā Gaccha. Besides these, there are a few Rāsas composed in the 16th century and a lot of those composed later on. The importance of the Pattan Gujarati MSS is immense. The palm-leaf MS of the Reventugiri Rūsa, though undated, seems to have been written in the beginning of the 13th century of Vikrama. Besides this, there are three palm-leaf MSS written 1 In the last quarter. Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 70 ) between 1330 and 1360' containing some prose passages. The oldest paper MS in Gujarati is dated Samvat 1357. To the student of the Gujarati philology, the Bhandars now supply ample and reliable materials which he can never expect to find elsewhere. The growth of our language can now be traced without any break from the 11th century upto to the present time. I do not think any vernacular in India possesses such a treasure of valuable and trustworthy records of such a high antiquity. Uşāharuna and Madhavūnala-of the two old Gujarati poems, Uşāharana and Mādhavānaladogdhaka Prabandha, which I have been ordered to edit, the first is published in the Library Miscellany. But since its publication, I understood that, the two MSS of the poem were acquired for the Gujarat Vernacular Society. I examined the MSS and found them not so reliable; yet they would be useful for collation. The second poem-Madhavānala Prabandha-has attracted the notice of Mr. (now Diwan Bahadur) K. M. Jhaveri in his ‘Milestones in Gujarati Literature'. Although the MS with me is old and reliable, I am trying to find out, if there exists, another MS of the poem for collation. * * * * * * * It would not, I think, be regarded out of place, if I give some idea as to how the work was done at Pattan. The work as undertaken and done by me would have under ordinary circumstances, taken one full year for any other man. But in the present case the circumstances were favourable:-(1) My familiarity with Jain literature and the considerable help I received from Pravartaka Kāntivijayaji and his pupil Pannyasa Caturvijayaji. (2) Easy and free access obtained without the least delay. I had not to waste even a single day for want of work. (3) Work done on an average for 14 hours, in order to do in such a thorough way that Government may not have again to spend anything on the 1 Printed in GOS. as gitaros atorna. 2 The Bengali Verdacular has, as a matter of fact, greater antiquity. The earlier Bengali songs published as Bauddha Gāna 0 Dohā contains vorses of authors who flourished as early as the 9th century. After this work there is a continuous chain of books written in subsequent centuries discovered and published by the Vangiya Sahitya Parişad. Hindi and Udiyā can also claim similar antiquity. (B. B.) 3 The work has been taken up for publication in GOS. Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 71 ) work entrusted to me. (4) The long practice of reading the old script of the MSS with remarkable speed. The script of the old palm-leaf and paper MSS differs much from that of the recent ones, and the quantity and quality (if one does not know the old script he would make a lot of mistakes in taking extracts) of the work done depends much upon the correctness and speed with which one can read the old MSS. Most of my work was done in Sagar's Upāśraya and at my place. Had it not been for the kindness of Pravartaka Kāntivijayaji, I would have been obliged to go to work in the damp places of the Bhandars, and there, I would not have been able to work for more than five hours at the most; for the keepers of the Bhandars who are mostly traders cannot possibly spare much time for this work without their business being affected. The work of examining and taking necessary extracts from the MSS was done in a posture similar to that described by the old scribes at the end of MSS (Bhagnaprstha-kațigriva-adhomukha ) 'with the back, waist and neck bent and with the head leaning downwards. The District officers were ready to help me, but fortunately I had not to trouble them for any of the Jain collections. Easy and free access to the Bhandars was obtained mainly tlırongh the exertions of Pravartaka Kántivijayaji and his pupil Pannyasu Chaturvijayaji, who not only sympathised but also took great interest in the work and helped me in many other ways. The keepers of the Bhandars were all very courteous. Sheth Vadilal Hirachand, the keeper of the Vāļi Pārsvanātha collection placed at my disposal his whole collection during the full time of my stay at Pattan. This collection, as it contained many important works, served me as a Reference collection. Moreover, he also helped me considerably in getting access to the palm-leaf collection in Sanghavi's Pādā. Sheth Bhogilal Halabbai, the keeper of the large collection in the Āgali Sheri lent out all his paper and palmleaf MSS to my place without any restriction whatever. Dr. A. D. Kothari, L. M. & S., a young and energetic private practitioner, also helped me in many ways. This is only the summary report of my work at Pattan. The datailed report which would cover about 800 pages royal octavo, will include a catalogue raisonne of all the 658 palm-leaf MSS and an equal number of select, rare and important paper MSS'....... Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 72 ) It will, I am confident, be of greater interest than any of Dr. Peterson's reports, as it will contain detailed notices of the largest palm-leaf collection in Gujarat. The research worker will find many things of interest as the authors' and the donors' long Prasastis with the writers' colophons contain many historical things. To the student of the Apabhramsa and old Gujarati it will supply a store of materials for his study. The literary world will thank the Government of His Highness the Maharaja Saheb for laying before it a complete and correct view of the far-famed Bhandars so jealously guarded. BARODA, 17th April 1915. C. D. DALAL. 1. The late Mr. Dalal left hurried notes, which have been developed after verification into a descriptive catalogue in two volumes, by Pandit Lalasandra Bhagavandas Gandhi. (B. B.) Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Descriptive Catalogue of Manuscripts in the Jain Bhandars at Pattan. Vol, I. Palm-leaf Mss. No. I. Sanghvaī Pādā ( संघवीपाडा ) Bhāndāra. १. मनः स्थिरीकरणप्रकरण (सविवरण ) by महेन्द्रसूरि. पत्रसङ्ख्या १६+१७८; १५ " ×१ ३ ३ "1 Beginning of the text: नमिऊण वद्धमाणं चलस्स चित्तस्स किंचि थिरकरणं । सपरोवयारहेडं गुरूवएसेण वोच्छामि ॥ End of the text: सिरिधम्मसूरिसुगुरूव एसओ सिरिम हिंदसूरीहिं । मणथिरकरणपगरणं संकलिओ (अं) वारचुलसीए ॥ कवि वो विससु धावए तस्स नियमणं परमं । थिरकरणं एयं तो पढ गुण चिंतय सकालं || मथिरकरणं समाप्तं ॥ Beginning of the commentary:नमः श्रीमद्देव - गुरुपदपंकजेभ्यः । प्रणिपत्य जिनं वीरं मनःस्थिरीकरणदुर्गमपदानाम् । पर्याय मात्र लिखनं विदधे स्वपरोपकाराय || मनःस्थिरीकरण प्रकरणप्रारंभे शिष्टसमयपरिपालनार्थं मंगलाभिधेय - प्रयोजन-संबंधप्रतिपादिकां तावदादाविमां गाथामाह । End of the commentary:— इति मनःस्थिरीकरणस्य विषम-विषमतरगाथानां भावार्थमात्र प्रदर्शकं संक्षिप्ततरं विवरणमपि तैरेव श्रीमहेन्द्रसूरिभिर्विहितमस्ति || १ || मंगलमस्तु एतद्ध्येतृ अध्यापयितृ-श्रोतृ-व्याख्यातृभ्यः । विजयतां चतुर्विधोऽपि श्रीसंघभट्टारक इति । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE or MANUSCRIPTS यावन्नंदति संघो यावच्छ्रीवर्धमानजिनतीर्थं । तावत् प्रकरणमिदमपि बुधजनमनसि स्थिरं भवतु ॥ पं. २३०० इति मनःस्थिरीकरणविवरणं समाप्तं । छ । मंगलं महाश्रीः ॥ २. (१) नवपदटीका by देवगुप्तसूरि. प. १-२०८; १३०४२" Beginning:ओं नमो भगवते पार्श्वनाथाय । नत्वेच्छायोगतोऽयोगं योगिगम्यं जिनेश्वरं । नवभेदव्रतव्याख्यां ध(ख्याम)न्यात्मस्मृतये यते ॥ नमिऊण वद्धमाणं मिच्छं सम्मं वयाइं संलेहा । नवभेयाई वोच्छं सडाणमणुग्गहट्टाए ॥ नत्वा प्रणम्य वर्द्धमानं वर्द्धमानस्वामिनं वर्तमानतीर्था[धिपतिं वीरनाथमित्यर्थः । मिच्छं ति मिथ्यात्वं अदेवादौ देवत्वादि[बुद्धिरूपं विपरीतदर्शनं सम्मं ति सम्यग्दर्शनं । End: यद्यपि पूर्वाचार्यैः श्रावकधर्मोऽ(घ)नेकधाभिहितः । नवपदभेदैस्तु तथाप्यपूर्वस्तेनैष तु प्रयासः॥ दृष्टांताश्चाप्यपूर्वाः [ज्ञप्त्यै] केषांचिदल्पश्रुतीनां तु । तेनैषा टीका पुनः सुखावबोधाय भव्यानां ॥ यस्मात् तु जडमतीनामुपराग(कार)परा विरागयुक्तानां । श्रावकधर्मपराणामानंदं कारयत्येषा ॥ ये पुनर्मात्सर्ययुता ज्ञानस्य लवेन गर्विताः प्रायः । तेषां दोषायैषा गुणमत्सरिणां खलानां च ॥ अतः सद्भिर्गुण-दोषर्दोषानुत्सृज्य गुणलषा माह्याः । त(य)स्मान्मतिविशेषः षट् (?मद)स्थानं भवति सर्वेषां ॥ स्तुतोऽपि दुर्जनः काव्ये दोषमेव प्रकाशते । निंदितस्तु विशेषेण श्रु(त)तो युक्ताऽवधीरणा। यथासमंजसमिह च्छंदः-शब्द-समयार्थतो मयाऽभिहितं । पुत्रापराधवत् तन्मर्षयितव्यं बुधैः सर्व ॥ Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAVĪ PĀDĀ नवपदीका प्रोक्ता श्रावकानंदकारिणी नाम्ना । श्रीदेव गुप्तसूरिभिर्भावयितव्या प्रयत्नेन ॥ साधूपयोगाय मया प्रयासः कृतः स्वपुण्याय च एष धर्मः । अतोत्र मात्सर्यमभिप्रपद्य मा कोपि कार्षीन्मम पुण्यविघ्नं ॥ त्रिसप्तत्यधिकसहस्रे मासे कार्तिकसंज्ञिते । श्री पार्श्वनाथचैये तु दुर्गमये च पत्तने ॥ श्रावकानंदटीकेयं नवपदस्य प्रकीर्तिता । जिनचंद्रगणिनाम्ना तु गच्छे ऊकेशसंज्ञिते || काचार्यस्य शिष्येण कुलचंद्रसंज्ञितेन [वै] । तेनैषा रचिता टीका निर्जरार्थं तु कर्मणां ॥ शिष्य - प्रशिष्य वंशस्योपकाराय जायते । टीकेयं नवपदस्यास्तु यथार्थेयं प्रवर्त्तिता ।। नवपदस्य टीका समाप्ता । Post - Colophon: संवत् १३२६ वर्षे अश्वयुक्सुदिप्रतिपदायां बुधे । ग्रंथानं २३०० (२) कर्मग्रन्थचतुष्टय (प्रा० ) प. १-३९ Beginning:— Colophon: नमिऊण जिणवरिंदे etc. [ २१ तमे पत्रे - कम्मविवागं सम्मत्तं । ] सत्तरिका समत्ता | हेमकीर्त्तिना लेखि कर्मग्रंथचतुष्टयं । ३. (१) स्त्रीनिर्वाण - केवलिभुक्ति by शाकटायन. प. ११-१५ Beginning: प्रणिपत्य भुक्तिमुक्तिप्रद्ममलं धर्ममर्हतो दिशतः । वक्ष्ये स्त्रीनिर्वाण - केवलिभुक्तिं च संक्षेपात् ॥ co Colophon: इति स्त्रीनिर्वाण - केवलीयभुक्तिप्रकरणं भगवदाचार्यशाकटायनकृदंवपादानां ॥ (२) मोक्षोपदेशपंचाशत् by मुनिचंद्रसूरि प. १५-१८ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Beginning: शुद्धध्यानलवित्रेण समूल[:] क्लेशपादपः । विलूनो येन स सदा जिनो जीयाजगत्पतिः ॥ End: मोक्षोपदेशपंचाशदेषा भाव्या मुमुक्षुभिः । स्यान्मुनींदुमुनीशेष्टं मुक्तौ यस्य स्थिरं मनः ॥ Colophon: इति श्रीमुनिचंद्रसूरिविरचिता मोक्षोपदेशपंचाशत् । मंगलमस्तु । (३) प्रमाणसंग्रह. प. ६०-९२ Beginning: ___ नमः श्रीवर्धमानाय । श्रीमत्परमगंभीर-स्याद्वादामोघलांछनं । जीयात् त्रैलोक्यनाथस्य शासनं जिनशासनं ॥ प्रत्यक्षं विशदज्ञानं तत्त्वज्ञानं विशदमिंद्रियप्रत्यक्षमनिंद्रियप्रत्यक्षमतींद्रियप्रत्यक्षं त्रिधा । प्रत्यक्षानुमानमनिमित्तं परोक्षं प्रत्यभिज्ञादिस्मरणपूर्वकं हिताहितप्राप्ति-परिहारसमर्थ । द्वे एव प्रमाणे इति शास्त्रार्थसंग्रहः प्रतिभासभेदेन सामग्रीविशेषोपपत्तेः । End: प्रामाण्यं यदि शास्त्रगम्यमयत्न(थ न)प्रागर्थसंवादनात् संख्यालक्षणगोचरार्थकथनं किं चेतसां कारणं । आ ज्ञातं सकलार्थविषयज्ञानाविरोधं बुधाः प्रेक्षंते तदुदीरितार्थगहने सम्मोहविच्छित्तये ॥ इति प्रमाणसंग्रहं नाम प्रकरणं समाप्तं । ... (४) ईश्वरकर्तृत्वप्रकरण by चन्द्रप्रभ. प. ९३-९८ .. End: अत्यल्पकज्ञानसमर्थनेयं चंद्रप्रभेण स्मृतये समासात् । ग्रंथात् समुद्धृत्य समाहितेन पृथक् कृताऽध्वरियरत्नयष्टिः ॥ (५) ब्राह्मणजातिनिराकरण. प. ९८-१०४ Colophon:. . . . . . इति ब्राह्मणजातिनिराकरणं समाप्तं . . . . . Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAVI PĀDĀ (६) बोटिकप्रतिषेध by हरिभद्रसूरि. प. १०४-१०८ . Colophon: बोटिकप्रतिषेधः समाप्तः । कृतिरियं हरिभद्रसूरेः ॥ (७) सर्वज्ञव्यवस्थापक. प. १०८-१२१ Colophon: ____ इति सर्वज्ञव्यवस्थापकं नाम प्रकरणं समाप्त । (८) क्षणिकत्वनिरासप्रकरण. प. १२२-१२७ (९) गणकारिका (रनटीकासमेत) मू० भासर्वज्ञ. १२८-१५५ (१०) यमप्रकरण by विशुद्धमुनि. १५५-१५६ (११) लकुलीशप्रार्थना by विशुद्धमुनि. १५६-१५७ (१२) कारणपदार्थ ग्रं० २६) १५७-१५९ (१३) स्कन्दनाम (स्कन्दपुराणोक्त) ग्रं० ७ ४. (१) नंदीमत्र (प्रा०) प. ८२; १४०x१३" । (२) आचार्यप्रतिष्ठाविधि (प्रा०) प. ८२-८९ . . (३) प्रवचनसंदोह (प्रा०) प. १-१६ .. Beginning: ॐ नमो वीतरागाय । नमिऊण वद्धमाणं घघगयमाणं सुरेहिं कयमाणं । चउगइनिव्वुढा(बुड्डा)णं ताणं सत्ताण भवियाणं ॥ १ ॥ पवयणभा(ल)वा उ केइ उवलहिऊणं गुरुपसाया(सयासा)ओ। कहयामि संगमेज(हे) भवियाणं अणुग्गहट्ठाए ॥ २ ॥ Colophon: पवयणसंदोहस्स. छठें पयं सम्मत्तं । पवयणसंदोहो सम्मत्तो । प्र० ३३४ । नमो सुयदेवयाए ! वंदामि सवण्णुजिणिंदवाणिं पसनगंभीरपसत्थसत्यां । । (४) पंचाशक (प्रा०) प. १-११७ Colophon: प्रथानं ११८४ । पंचाशकानि समाप्तानि । मंगलं महाश्रीः । ५.: दर्शनशुद्धिविवरण by देवभद्रसरि.प. २८२, २९३"४१३ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Beginning: नमः सर्वज्ञाय । नत्वा(मः) श्रीवर्धमानाय निःसीमज्ञानचक्षुषे । जितांतरारिवर्गाय [सम्यक्तत्त्वार्थदेशिने ॥ १॥] [दर्शनशुद्धेर्वृत्ति] वक्ष्ये संक्षेपतः समयनीत्या । मंदमतिबोधविध्यै स्मरणार्थमथात्मनः ॥ २ ॥ जिनवदननलिन[सदना विबुधासुरमनुज]वृंदवंद्यपादा । सर्वांगसुंदरतनुर्वाग्देवी वसतु मे हृदये ॥ श्रीमञ्चंद्रप्रभगणभृतः सारगंभीरवाचा गुंफः कायं निबिडजडिमोस्निग्धबंधुः(धः) क चाहं । किं त्वेतस्मिन् निजगुरुपरिक्षुण्णमार्गे पुरस्ता दस्तक्लेशं प्रसरतु ममाप्येष वाचां प्रचारः ॥ Colophon: इति श्रीदेवभद्राचार्यविरचिते दर्शनशुद्धिप्रकरणविवरणे पंचमं जीवादितत्त्वं समाप्तं ।। Pras'asti:-- इह प्रायः शास्त्रांतरविवरणादात्ममतिगुणा बुधासत्तेः किंचित् किमपि पुनराम्नायवशतः । इयं दृष्ट्वा(ब्धा) वृत्तिस्तदिह यदसत् किंचिदुदितं विशोध्यं तत् प्राज्ञैरविशदमतिर्मुह्यति न कः ॥ आस्ते तुंगोधनाभोगः सुप्रतिष्ठो भुवस्तले । आस्थानं द्विजसार्थानां श्रीकोटिकगणद्रुमः ॥ १॥ तत्रायता घनच्छाया सुमनःस्तोमसन्नता। वैरशाखास्ति विख्याता फलावंध्या महोन्नतिः ॥ २॥ गोभिः सुधावयस्याभिः त(स्त)र्पिताशेषभूतलं । तस्यां कुवलयोल्लासि चांद्रं विजयते कुलं ॥ ३ ॥ अर्हच्छासनकाननैकवसतिर्व्याख्यानगुंजारवैः श्रोतृवांतनिकुंजकल्मषमृगानुप्रासयन् सर्वतः । प्रोन्मादिप्रतिवाविधारणघटावित्रासदक्षोभवत् ..तत्र श्रीजयसिंह इत्पवितथख्यातिं दधानः प्रभुः ॥ ४ ॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAVI PADA तच्छिष्यः समजायताद्भुतमतिः चा(श्रा)रित्रिणामप्रणीः शास्त्रस्यास्य विधायकः कुशलधीनिःशेषशास्त्राध्वनि । लुप्तस्येह चिराचिरंतनविधेरुद्धारकर्ता कलौ श्रीचंद्रप्रभसूरिरित्यभिधया ख्यातः क्षितौ सद्गुरुः ॥५॥ एतत्पट्टधुरंधरः स(श)मनिधि[:] श्रेष्ठस्तपश्चारिणां श्रीचौलुक्यमहीभुजा भुजबलप्रोत्सारितारातिना[?] । अर्हच्छासनवार्धिवर्धनविधौ ताराधिनाथोभवत् भव्यांभोजवनप्रकाशनरविः श्रीधर्मघोषः प्रभुः ॥ ६ ॥ आचारेण कुलीनता सुभगता रूपेण शांत्या तपः स्वामित्वेन गुणज्ञता विदुरता शीलेन दाक्ष्यं श्रिया । इत्थं यस्य पुरं कुटुंबिन इवाध्यूपुर्गुणाः सुस्थिताः शिष्यस्तस्य समंतभद्रगणधीः सोभूज्जगद्दीपकः ॥ ७ ॥ शिष्यश्चान्योपि चंद्रप्रभपरमगुरोरद्वितीयो द्वितीयो बंधुः श्रीधर्मघोपाभिधमुनि....त(वृषभ)स्यानुजातोभिजातः । प्रज्ञाप्राग्भारपश्चात्कृतविबुधगुरुर्वाचनासूरिरुच्चै रप्रमन्यो मुनीनां विमलगणिरिति श्लाघ्यनामा बभूव ॥ ८॥ सरसा विचारबहुला सञ्चक्रानंदहेतुरस्ताघा । गंगेव यतस्तुंगा दर्शनशुद्धेरजनि वृत्तिः ॥ ९ ॥ सूरिः श्रीदेवभद्राख्यस्तस्य शिष्योस्ति मंदधीः । प्रतिष्ठितः स्वहस्तेन श्रीधर्मघोषसूरिभिः ॥ १० ॥ गुरोस्तेन बृहद्वृत्तेः उ(रु)द्धृत्य कतिचिल्लवा । नि(वि)वृत्ता(ता) वृत्तिरूपेण भव्यानां हितकाम्यया ॥ ११ ॥ सूरेः श्रीशांतिभद्राख्यस्वशिष्यस्य महामतेः । साहाय्यादयमारंभो निष्ठाकोटिमटीकत ॥ १२ ॥ मुनिप्रभाभिधानेन विदुषैपा स्फुटाक्षरा । अलेखि प्रथमादर्शे कर्म........विश्वकर्मणा ॥ १३ ॥ अनुष्टुपां(भा) सहस्राणि त्रीणि सहाष्टभिः शतैः । वृत्तावस्यां तु सर्वा(प्रथा) गणितजैरुदाहृतं ॥ १४ ॥ Post-Colophon: सं० १२२४ वर्षे.......शुदि २ गुरौ । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF ManuscripTS ___६. (१) प्रश्नव्याकरणटीका (चूडामणि). प. १५९ Beginning: - शास्त्रस्यारंभेऽशेषदुःखप्रक्षालनार्थं मंगलार्थ च मंगलं चाभिप्रेतार्थमिष्टदेवता Colophon: एवं स्वभेदेन विभजेद् यावत् परिज्ञानमिति । चूडामणिटीका समाप्ता । ग्रंथानं २३०० श्लोकानां । (२) लीलावती. प. १५९-१६३ Colophon: प्रश्नव्याकरणटीकायां लीलावत्यां मयूरवाहिनी । (३) चूडामणिसार by भट्टलक्ष्मण. ७. चैत्यवन्दनवृत्ति (योगशास्त्रान्तर्गता). प. १२९; १४०x१३" Beginning: ___ओं नमो जैनागमाय। ब्राह्म मुहूर्ते उत्तिष्ठेत् परमेष्ठिस्तुतिं पठन् । किंधर्मा किंकुलश्चा[स्मि किंव्रतोऽ]स्मीति च स्मरन् । पंचदशमुहूर्ता रजनी । तस्यां चतुर्दशो ब्राह्मस्तस्मिन्नुत्तिष्ठेत् । End: इति चैत्यवंदनवृत्तिः समाप्ता । ८. (१) श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति by श्रीचन्द्रसूरि, प. १५४; १४४२४" Beginning: श्रीवर्धमानमानम्य स्पष्टा वृत्तिर्विधीयते । सच्छ्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रस्यार्थप्रकाशिनी ॥ १॥ यद्यप्यनेकशः संति चिरंतन्योत्र वृत्तयः । तथापि कष्टगम्यास्ता इति मे सफलश्रमः ॥ २॥ Colophon: समाप्ता चेयं श्रीचंद्रसूरिदृब्धा सुखावहा श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिः ॥ ७ ॥ Pras'asti: कुवलयसंघविकासप्रदस्तमःप्रहतिपटुरमलबोधः । प्रस्तुततीर्थाधिपतिः श्रीवीरजिनेंदुरिह जयति ॥ १॥ विजयंते हतमोहाः श्रीगौतममुख्यगणधरादित्याः । सन्मार्गदीपकाः कृतसुमानसा जंतुजाड्यभिदः ॥२॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. Sanghavi PĀNĀ नित्यं प्राप्तमहोदयं त्रिभुवनक्षीराब्धी(ब्धि)रत्नोत्तमं । स्वयॊतिस्ततिमात्रकांतकिरणैरन्तस्तमोभेदकं । स्वच्छातुच्छसितांबरैकतिलकं विभ्रत् सदा कौमुदं श्रीमचंद्रकुलं समस्ति विमलं जाइयक्षितिप्रत्यलं ॥ ३ ॥ तस्मिन् सूरिपरंपराक्रमसमायाता बृहत्याभवाः सम्यग्ज्ञानसुदर्शनातिविमलश्रीपद्मखंडोपमाः । सञ्चारित्रविभूपिताः शमधनाः सद्वर्ण्यकल्पांत्रिपा विख्याता भुवि सूरयः समभवन् श्रीशीलभद्राभिधाः ॥ ४ ॥ ततश्च तेषां पदपनहंसः समप्रगच्छाभरणावतंसः । धनेश्वरः सूरिरभूत् प्रशस्यः शिष्यः प्रभावप्रथितो यदीयः ॥५॥ निःशेषागम-तर्कशास्त्र-सकलालंकारसंविन्निधे यस्येंदोरिव दीधितीवितमसो वाचोमृतस्यंदिनीः । आस्वाद्यामितभक्तिसद्मभविकाः स्वात्मानमस्ताशुभं मन्यते स्म सुरापवर्गरुचिरश्रीपात्रमत्युत्तमं ॥ ६ ॥ श्रीचंद्रसूरिनामा शिष्यस्तेषां बभूव गुरुभक्तः । तेन कृता स्पष्टार्था श्राद्धप्रतिक्रमणवृत्तिरियं ।। ७ ।। कर-नयन-सूर्यवर्षे प्रातः पुण्यार्कमधुसितदशम्यां । धृतियोगनवमकक्षे समर्थिता प्रकृतवृत्तिरियं ॥ ८ ॥ उत्सूत्रं यद् रचितं मतिदौर्बल्यात् कथंचनापि मया । तच्छोधयंतु कृतिनोनुग्रहबुद्धिं मयि विधाय ॥ ९ ॥ यावत् सुमेरुशिखरी शिखरीकृतोत्र नित्यं विभाति जिनबिंबगृहैमनोज्ञैः । श्रीचंद्रसूरिरचिता भुवि तावदेपा नंद्यात् प्रतिक्रमणवृत्तिरधीयमाना ॥ १० ॥ प्रत्यक्षरं निरूप्यास्यां ग्रंथमानं विनिश्चितं । श्लोकपंचाशदुत्तरशतान्येकोनविंशतिः ॥ ११ ॥ ग्रंथानं १९५० ॥७॥ End: सं० १२९९ भाद्रपदशुदि १५ बुधे ॥ ७ ॥ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 PATTAN CATALOGUE OR MANUSCRIPTS ९. दवदंतीचरिय. प. १२६, १२४२ Beginning नमो वीतरागाय । पणमह संतिजिणिंदं संतिकरं जञ्चकणयच्छायं । चत्तालीसधणुच्चं सोलसमं तित्थमाहाणं ॥ १ ॥ कंदप्पकंदसेणं भवसरमज्झट्ठियं सि[य] कमलं व । मणयं पि जंण लित्तं तं णमह निरंजणं वीरं ॥२॥ ससियरगोखीरनिभा सिद्धोहनिसेविया विमलचित्ता । मोक्खपुहइ व पणमह सुयदेवी दुल्लहा भुवणे ॥ ३ ॥ सिरिजंबुणामपमुहे साहू नमिऊण सुयव(ध)रे सधे । वोच्छामि भत्तिपुवं दवदंतीसंतियं चरियं ॥ ४ ॥ दवदंती गुणवंती महासइ विस्सुआ जए सयले । सीलाहरणविभूसिय जिणिंदवाणी व जसधवला ॥५॥ निम्मलसम्मत्तजुआ मिच्छत्तुद्दामकद्दममलित्ता । जिणवयणभावियमइ संविग्गदु(रु)ई सुसमणि व ॥ बारसभेओ धम्मो जहट्ठियो(ओ) तहट्ठियो(ओ) वि अणुवि(चि)हो । साहूण संतियो(ओ) दसविहो वि अणुपालिओ विहिणा ॥ खम-दम-तव-चरणरया उवसंतुवउत्तदन्तगुत्तिंदी । संजमभारोणामिया इरियाउत्ता सुयसमिद्धा ॥ एक्कारसअंगसुयनाणकंठिया पट्ठमणहरग्गीवा । भवियजणनयणआणंदयारिणी चंदलेह व ॥ वीसयप(ए)हिं इमेहिं एकेकयम्मि आणुपुबीए । एकेको उद्देसो जहासंखेण महा(ए) भणिउ(ओ) ॥ पढमे जम्मुप्पत्ती बीए लेसालमंगलं कहियं । तइए सयंवरकरणं अद्धाणकहा चउत्थंमि ।। पंचमए अभिसेउ(ओ) छट्ठहेसम्मि जूयकहा कहिया अडवीहो(ए) वि पवेसो ससम उद्देसए एस्थ ॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAvi PipA अट्ठमयंमि पलावो सइत्तणगुणा उ नवमए कहिया । तावसपुच्छा दसमे सिट्ठा मे आणुपुबीए । एकारसमुहेसे धम्मकहा सीहकेसरीतणया । बारमे उण मिलिया सस्थस्स अडवीए तेरसमे ॥ अचलपुरे संपत्ता मिलिय जणणि चोद्दसमे । वणदवकहाउ पन्नरसंमंमि सुंसुमार सोलसमे ।। अलियसयंवरकरणं सत्तरसुद्देसए मया सिटुं। कोसलरजं पत्तं अट्ठारसमंमि उद्देसे ॥ एगोणवीसमंमि य सिट्ठा पवज बहुगुणप्पविया । विमलतित्थयरपुच्छा वीसमए होइ देवस्स ॥ पंचोत्तरपणगाहासएण एकेको होइ उद्देसो । उद्देसाण उ वीसं वीसेकसयाई गाहाणं ॥ एसो पढमुद्देसो जम्मणगुणकित्तणो त्ति नामेणं । दवदंतीए कहिउ(ओ) पत्तो वीयं पवक्खामि ॥ End: वसुदेवेणं ताणं वेसमणेणं जहा समक्खायं । तं ते वं (ताव) चिय कहियं उप्पन्नं केवलं जाव ॥ ......अइसयचरियं सोऊणं जायवा सपरितुट्ठा । बेंति तुम चिय वस्से सा पिययमा आसि ॥ एयं दवदंतीए चरियं आयट्टियं पंजु (? खुज) मारेहिं (?) । सव्वपुहइए पयडं पयासियं मुणिजणा लोए । १०. (१) दशवैकालिकटीका by सुमतिसूरि. ११५; १३"३४२' Colophon: समाप्ता दशवैकालिकटीका। Pras'asti: महत्तरा[या] जा(या)किन्या धर्मपुत्रेण चिंतिता । आचार्यहरिभद्रेण टीकेयं शिष्यबोध(धि)नी ।। दशकालिकटीकां विधाय यत् पुण्यमर्जितं । तेन मात्सर्यविरहाद् गुणानुरागी भवतु लोकः ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANÇBCRIPTS दशकालिकानुयोगात् सूत्रव्याख्या पृथक् कृता। .. हरिभद्राचार्यकृतान्मोहाद् भक्त्याथवा मया ॥ श्रीमद्वाचकशिष्येण श्रीमत्सुमतिसूरिणा । विद्वद्भिस्तत्र नो द्वेषो मयि कार्यों मनागपि ॥ यस्माद् व्याख्याक्रमः प्रोक्तः सूरिणा भद्रवाहुना । आवश्यकस्य नियुक्तौ व्याख्याक्रमविपश्चिता ।। सूत्रार्थः प्रथमो ज्ञेयो नियुक्त्या मिश्रितस्ततः । सर्वे(वों) व्याख्याक्रमैयुक्तो भणितव्यस्तृतीयकः ॥ प्रमाद-कार्यविक्षेपचेतसां तदयं मया । कृपाया अवबोधार्थ साधूनां तु पृथक् कृतः ॥ लब्ध्वा म(मा)नुष्यकं जन्म ज्ञात्वा सर्वविदो मतं । प्रमाद-मोहसम्मूढा वैफल्यं ये नयंति हि ॥ जन्म-मृत्यु-ज्व(ज)राद्या(ढ्या) रोग-शोकायुपद्रुते । संसारसागरे रौद्रे ते भ्रमंति विडंबिताः ॥ ये पुनर्ज्ञान-सम्यक्त्व-चारित्रविहितादराः । भवांबुधिं समुल्लंघ्य ते यांति पदमव्ययं ॥ End: संवत् ११८८ मागसिरवदि ६ शुक्रे दशवैकालिक[टीका] (२) उत्तराध्ययन. प. १०६ Post-Colophon: सं. १९७९ वर्षे भाद्रपद श्रीमदणहिलपाटकाभिधानराजधान्यां स्थितसमस्तनिजराजावलीसमलंकृतमहाराजाधिराज-परमेश्वर-त्रिभुवनगंड-श्रीसिद्धचक्रवर्तिश्रीमजयसिंहदेवकल्याणविजयराज्ये प्रवर्धमाने एतस्मात् परमस्वामिनः पूज्यपादद्वयप्रसादात् श्रीश्रीक[]णे महामात्यश्रीआशुकः समस्तव्यापारान् करोतीत्येतस्मिन् काले इह कर्णावत्यां श्रीकर्णेश्वरदेवभुज्यमानसुपांतीजग्रामनिवासी परमश्रावकप्रद्युम्न तथैतदीयभार्या वेल्लिका च अपरं च नेमिप्रभृतिसमस्तगोष्ठिकैः परत्र हेतवे निर्जरार्थ च आर्जिका मरुदेविगणिनी तथैतदीयचेल्लिका बालमतिगणिन्योः पठनाय उत्तराध्ययनश्रुतस्कंधो यक्षदेवपार्शल्लिखाप्य प्रदत्त इति । यादृशं etc. मंगलं महाश्रीः । शिवमस्तु जिनशासनाय । ___ (३) प्रतिष्ठाविधान. प, १५ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. Sanguavi Pāņā 13 ११. (१) आचाराङ्गनियुक्ति. प. २५ . (२) दशवैकालिकनियुक्ति. प. २६-५५ (३) उत्तराध्ययननियुक्ति. प. ५६-९७ (४) सूत्रकृताङ्गनियुक्ति. प. ९७-११२ (५) श्रावकदिनकृत्य. प. ११२-१५३ An incompletc tract. गा. ४९७ Beginning: वीरं णमिऊण तिलोगभाणुं विसुद्धणाणं सुमहानिहाणं । वोच्छामि सड्डाण दिणस्स किचं जिणिंदचंदाण य आगमाउ ।। १२. प्रकरणसंग्रह. २३८; १३"४२" (१) वंदारुवृत्ति by देवेन्द्रसरि प. १-८४ ग्रं.२७२० (२) धर्मकुलक (प्रा.) प. ८४-८५ गा. २२ (३) चउसरण (प्रा.) प. ८५-८६ गा. ३० (४) आउरपचक्रवाण प. ८६-८, गा. ४० (५) आराधनाकुलक by सोमसूरि प. ८७-९० गा. ६९ (६) चउसरण by वीरभद्र प. ९०-९१ गा. ६३ (७) आउरपचक्खाण by वीरभद्र प. ९१-९४ गा. ७१ (८) भक्तपरिज्ञा by वीरभद्र प. ९४-१०० गा. १७३ (९) संस्तारकप्रकरण प. १००-१०३ गा. १०० (१०) श्राद्धदिनकृत्य प. १०३-११५ गा. ३४२ (११) स्थविराकथा ( देवत्वे ) प. ११६-११८ ग्रं. ८२ (१२) स्तनकथा प. ११८-११९ (१३) दिवाकरकथा (प्रा. उत्तमसेवायाम् ) प. ११९-५२४ ग्रं. १३९ (१४) धन्य-शालिभद्रकथा (सं.) प. १२४-१३० ग्रं. २१८ (१५) एलकाक्षकथा (प्रा. रात्रिभोजने ) प. १३१-१३२ प्र. ५० (१६) मरकदृष्टान्त (सं.) प. १३२-१३४ ग्रं. ५५ (१७) कालिकाचार्यकथा (प्रा.) प. १३४-१३७ गा. १८० (२८) आराधनाष्टक (प्रा.) प. १३७(२) गा. ८ (१९) उत्तराध्ययन प. १३७-१९५ (२०) उपदेशंमालाबृहद्वृत्त्युद्धार प. १९६-२३८ (अपूर्ण) Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS १३. प्रकीर्णग्रन्थसङ्ग्रह. प. १८८+२६; १६३”×२” Containing among others small prakaraņas and religious tracts. स्तवन ९, विमलस्तव ३०, योगशास्त्र ४७०, थिरावली ५०, उपदेशमाला १००, दर्शनसप्तति २८२, आत्मानुशासन ७७, जीवानुशासन. 14 १४. धर्माभ्युदय (संघपतिचरित ) by उदयप्रभसूरि. प. ४१६; १७"×२” incomplete and damaged. १५. कथारत्नाकर by नरचन्द्रसूरि. प. १६४; १४”×२” First 11 leaves are replaced by paper leaves. These also are torn. The work is divided into 15 Tararigas ( १६३ - ४ पत्रयोश्चित्राणि) Pras'asti: गच्छे हर्षपुरीयनामनि मुनिप्रष्ठः प्रतिष्ठास्पदं प्रख्यातो मलधारिरित्यमलधीर्निःसंगचूडामणिः । संजज्ञे भयदेवसूरिरवनीपालार्घ्यपादांबुजो येनामारिरकारि जंतुविततेः सिद्धेशदेशावधिः ॥ ५०३ ॥ स्वर्णाडार्चितजैन वेश्म शिखरः श्रीहेमसूरिस्ततः सिंहोस्मात् विजयादिमो मुनिपतिः श्रीचंद्रसूरिस्ततः । सूरिः श्रीमुनिचंद्र इत्यभिधया चारित्रपात्रं ततो देवानंदमुनीश्वरोप्यथ यशोभद्राख्यसूरिस्ततः ॥ ५०४ ॥ श्रीदेवप्रभसूरिरित्यथ गुरुनैवे (वि) घरत्नाकरः सूरि : श्रीनरचंद्र इत्यभिधया तस्यापि शिष्याग्रणीः । एतैर्नूतनगुम्फमात्रघटनासंबंधबंधूकृतै दैवीं वाचमलंचकार सुकथारत्नैश्चिरत्नैरयं ॥ ५०५ ॥ Colophon: इति श्रीमलधारिशिष्यनरचंद्राचार्यविरचिते कथारत्नसागरे अगडदत्तकुमारचरितं नाम पंचदशस्तरंगः ॥ ६ ॥ Post-Colophon:--- संवत् १३१९ वर्षे भाद्र. शुदि ५ शुक्रे अद्येह श्रीमत्पत्तने महाराजाधिराज श्रीमदर्जुन देवविजयराज्ये तन्नियुक्तमहामात्यमालदेवप्रतिपत्तौ महं वीजाशालायां ठ० धनपालेन तरंगकथापुस्तिका लिखिता || ६ || मंगलं महाश्रीः ॥ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGBAvi Pānā १६. कुमारपालप्रबंध. Beginning:~~~ अर्ह नमः | स्वयं कृतार्थः पुरुषार्थभावैर्जगाद यस्तान् जगतां हिताय । नाथः प्रजानां प्रथमः पृथिव्यां जीयाद् युगादौ पुरुषः स कोपि ॥ १ ॥ प्रणम्य श्रीमहावीरं सर्वज्ञं पुरुषोत्तमम् । सुरासुरनराधीशैः सेव्यमानपदांबुजम् । || २ || परा मनसि पश्यंती हृदि कंठे च मध्यमा । मुखे च वैखरीत्याहुर्भारतीं तामुपास्महे || ३ || अज्ञानतिमिरान्धानाम्० सकलसुरासुरनरनिक रशिरः शेखरायमाणपादारविंद श्रीसर्वज्ञोपज्ञपांथप्रष्ठस्य कलिकालसर्वज्ञश्री हेमसूरिगुरूपदेश प्रवेकविवेकविशेपभूवलयप्रतिष्ठस्य सकलजंतुजातजीवातुजीवदयाधर्मनिरतस्य निजभुजबल कलितसकलभूपाल कुलविलसद्यशः [ति]ष्ठागरिष्ठस्य श्रीकुमारपालस्य प्रारभ्यतेयं प्रबोधप्रबंधः । प. ३५ चारणो रामचंद्रः पपाठ - प. ८९ कां हउं मनि विभंतडी अजी मणीअडा गुणेइ । अषय निरंजन परमपय अज य जइ न लहेइ || प. ७५ अत्रांतरे चारणः प्राह प. ४६ भीमदेवस्य द्वे राज्ञ्यौ । एका बकु[ल] देवीनाम्नी पण्यांगना । पत्तनप्रसिद्धं रूपपात्रं गुणपात्रं च । तस्याः कुलयोपितोपि अतिशायिनीं प्राज्यमर्यादां नृपनिर्निशम्य तद्वृत्तपरीक्षानिमित्तं सपादलक्षमूल्यां क्षुरिकां निजानुचरैस्तस्यै ग्रहणके दापयामास । औत्सुक्यात् तस्यामेव निशि वहिरावासे प्रस्थानलप्रमसाधयत् । नृपतिर्वर्पद्वयं मालवमंडले विग्रहाग्रहात् तस्थौ । सा तु बकुलदेवी तद्दत्तग्रहणकप्रमाणेन वर्षद्वयं परिहतसर्वसंगा चंगशीललीलयैव तस्थौ । निःसीमपराक्रमो भीमस्तृतीयवर्षे स्वस्थानमागतो जनपरंपरया तस्यास्तां प्रवृत्तिमवगम्य तामंतःपुरे न्यधात् । तदंगजः क्षेमराजः । द्वितीया राज्ञी उद्यमती । तस्याः सुतः कर्णदेवः । क्षेमराजकर्णदेव तत्पुत्रौ भिन्नमातृकौ परस्परं प्रीतिभाजौ । अन्यस्तु | अम्हे थोडा रिउ घणा मुद्ध निहाल गयणयल 15 कुमारपाल मन (त) चिंत करि जिणि तुहु रज्जु समो (म) पीयउ चिंतिउ किंपि न होइ । चिंत करस्यइ सोइ ॥ १ ॥ इय कायर चिंतंति । के उज्जोउ करंति ॥ १ ॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 16 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS अन्यश्च । साहसि जूतउं हल वहइ दइवह तणइ कपालि । पेडि म पूंटा टालि पूंटा विणु षीषइ नही । प. ८१ अन्यदा कोपि मत्सरी श्रीहेमसूरितेजोऽसहिष्णुरेकाते राजानमिदमवादीत् । देव ! प्रायः प्राकृतमेते पठंति । सिद्धांतोप्येतेषां प्राकृतमयः तत् प्रभाते [न] श्रोतव्यमिदम् । संस्कृतं स्वर्गिणां भाषा सैव महतां प्रत्यूषे श्रोतव्या श्रेयस्करी चेति । किमर्थं प्रथमं तच्छ्रवणं विधीयते । एतदाकर्ण्य राजा विज्ञातभाषाभेदतत्त्वः किंचित् प्राकृते कृतादरस्तत्स्वरूपं श्रीगुरूणामकथयत् । श्रीगुरवः प्राहुरनुपासितसद्गुरुकुलस्य अज्ञातवाङ्मयतत्त्वस्य कस्यापीदं वचः। राजन् ! अनेकधा भाषाभेदवैचित्र्येपि परं युगादौ प्रथमपुरुषेण ज्ञातत्रैलोक्यस्वरूपेण प्रथमं चतुर्दशस्वराष्टत्रिंशद्व्यंजनरूपा द्विपंचाशदक्षरप्रमाणा मातृकैवोपदिष्टा, सा च प्राकृतस्वरूपा सर्वप्रकृतिलोकानामुपकारिणीति । ततो बाह्या येष्टत्रिंशद् वर्णास्तैः संस्कारे कृते संस्कृतं जातम् । ततश्च अनेकभाषाभेदा अभूवन । तेन सकलशास्त्रमूलं मातृकारूपं प्राकृतमेव प्रथमं युगादौ सर्वज्ञैरिति लोकोपचाराय प्रथमं प्राकृतमुपदिष्टम् । सर्वाक्षरसंनिपातलब्धीनां श्रीद्वादशांगीनिर्माणसूत्रधाराणां श्रीगणधराणां सिद्धांतप्राकृतकरणे कारणमिदम् । बाल-खी-मूढ-मूर्खाणां नृणां चारित्रकांक्षिणाम् । अनुग्रहार्थं तत्त्वज्ञैः सिद्धांतः प्राकृतः कृतः ॥ १ ॥ राजन् ! भाषा भवतु यापि सापि, परंतु परमार्थ एव विलोक्यते । यत् पठंति लोकाः अत्थनिवेसो तच्चिय सदा तच्चेव परिणमंता वि । उत्तिविसेसो कवं भासा जा होउ सा होउ । परं कस्यापि ज्ञानलवदुर्विदग्धस्य खंडखंडपांडित्यतुंडकंडुकरालितस्येयं प्राकृतनिन्दा । यदुक्तम् सोहेइ सुहावेइ उवभुंजतो लवो वि लच्छीए । एसा सरस्सइ पुण असमग्गा कं न विनडेइ ॥ इति श्रुत्वा राजादयः सर्वेपि प्राकृतप्रशंसां कुर्वन्तो विशिष्य तदर्थश्रवणप्रवणा बभूवुः । प. ८२ श्रीभद्रबाहुस्वामिना प्रणीते श्रीवत्रस्वामिनोद्धृते ततः श्रीपादलिप्ताचार्येण संक्षिप्तीकृते श्रीश@जयकल्पेप्युक्तम् । प. ८३ अस्य (रैवतकस्य ) महिमा श्रीविद्याप्राभृते तीर्थमाहात्म्ये गणधरैरुक्तः । इदं तीर्थं सर्वदा सुरासुराय॑ तथा श्रीभद्रबाहुप्रणीतं(ते) वनखामिनोद्धृतम्(ते)। Some verses in Magadhi are thon quoted from the work. Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAvi PĀDĀ प. ८६ महापूजावसरे चारणः इक्क फुल्लह माटि देइ जु नर - सुए (र) - सिवसुहइ | एही करइकु साटि ट ( ( प ) भोलिम जिणवर तणी ॥ आरात्रिकावसरे चारणः लच्छ वाणि-मुहकाणिए तई भागी मुह मरउं । हेमसूर मच्छा (अत्था) णि जे ईसर ते पंडिआ ॥ १ ॥ वंदनकसमये नृपस्य पृष्ठौ हस्तप्रदाने हे ! तुहाला कर म जाहं अ[]] भु[अ] रिद्धि | जे चंपह हिट्टामुहा ताहं उपहरी सिद्धि || २ | प. ११ इतश्च क्षेमराजस्य पुत्रो देवप्रसादक: । तस्य पुत्रास्त्रयः त्रिभुवनपालादयोभूवन् । त्रिभुवनपालस्यैकाभूत् सुता, तनयास्त्रयः । आद्यः कुमारपालाख्यो राजलक्षणलक्षितः । End:— नाभूद् भविता चात्र हेमसूरिसमो गुरुः । श्रीमान् कुमारपालश्च जिनभक्तो महीपतिः ॥ २ ॥ आज्ञावर्तिषु मंडलेषु विपुलेप्वष्टादशस्वादरा दब्दान्येव चतुर्दश प्रसृमरी मारिं निवार्यौजसा । कीर्तिस्तंभनिभान् चतुर्दशशतीसंख्यान् विहारांस्तथा 17 11 कृत्वा निर्मितवान् कुमारनृपतिर्जेनो निजैनोव्ययम् ॥ ३ ॥ off [ गूर्जरे लाटे ] सौराष्ट्रे कच्छ - सैंधवे । उच्चायां चैव भंभेर्या मारवे मालवे तथा ॥ कोंकणे तु महाराष्ट्रे कीरे जालंधरे पुनः । सपादलक्षे मेवाडे योगिन्यां काशिदेशके ॥ ५ ॥ जंतूनामभयं सप्तव्यसनानां निषेधवान् ( नात् ) । वादनं न्यायघंटाया रुदतीधनवर्जनम् ॥ ६ ॥ किंचिद् गुरुमुखाच्छ्रुत्वा किंचिदक्षरदर्शनात् । प्रबंधोयं कुमारस्य भूपतेर्लिखितो मया ॥ Colophon: इति श्रीकुमारपालप्रबंधः समाप्तः । संवत् १४७५ मार्गशिरमासे कृष्णपक्षे सप्तम्यां तिथौ सोमदिने लिखितम् ॥ Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS १७. (१) विजयचंदकेवलिचरिय by चन्द्रप्रभ. १०५; १४°४१३" (२) कालिकाचार्यकथानक. १०६-११३ Beginning: अस्थि जंबुदीवे भारहवासंमि olc. (३) प्रायश्चित्तविधि. १८. (१) यतिप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति. प. ७७; १३°४२३" Leave 29th missing. Beginning:वीतरागाय नमः । अथ प्रतिक्रमणमिति कः शब्दार्थ इत्युच्यते । (२) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति by पार्श्व. ७८-१४४ Beginning:नमोऽहते । देवेंद्रवंद्यचरणान् प्रणम्य भक्त्या जिनेंद्रमुनीन् । किंचिन्मानं वक्ष्ये प्रतिचरणाया गृहस्थानां ।। गुरुभक्त्या यदवाप्तं तावन्मानमपि पुष्टिकरं भवति । End: उक्तोनुगमः । नयास्त्वावश्यकवन्नैगमादयो द्रष्टव्याः। तेषां च समुदायात्मकं जैनशासनमित्युक्तं च । Pras'asti: जयति जगति क्लेशावेशप्रपंचहिमांशुमान । विहितविषमैकांतध्वांतप्रमाणनयांशुमान् ॥ यतिपतिरसौ यस्याधृष्यात्मजांबुनिधि(धे)लवान् । खमतमतयस्ती• नाना परे समुपासते ॥ अब्दानां शकनृपतेः शतानि चाष्टौ गतानि विंशत्या। अधिकान्येकया मासे चैत्रे तु पंचम्यां ॥ नीतं समाप्तिमेतत् सिद्धांतिकयक्षदेवशिष्येण । प्रतिचरणायाः किंचिद् व्याख्यानं पार्श्वनाम्ना तु॥ श्रावको जंबुनामाख्यः शीलवान सुबहुश्रुतः । साहाय्यात्(द्) रचितं तस्य *गंभूतायां जिनालये ॥ * mi is 24 miles or 12 gãos from Pattan. Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 18 No. I. SANGHAVI PADA श्रुतदेव्या यद[व]प्तिं ग्रंथांतरतश्च स्वल्पमिह लिखितं । हीनाक्षरमधिकं वा क्षेतव्यं श्रुतधरैरखिलं ॥ प्रतिक्रमणवृत्तिः समाप्तेति । Post-Colophon: संवत् १२२८ अश्विनि शुदि १५ बुधे श्रीमदणहिलपाटकाधिष्ठितेन लेखकसुमतिना लिखितेयं पुस्तिका । अं. ५९२ । १९. (१) कर्मस्तवटीका by गोविन्दगणि. १-६८ Beginning: ॐ नमः सर्वज्ञाय । कर्मबंधोदयोदीर्यासत्तावैचित्र्यवेदिनं । कर्मस्तवस्य टीकेयं नत्वा वीरं विरच्यते ॥ नमिऊण इत्यादि । End: स्मृत्यनुसारेण मया यद् गदितमिहोनमधिकमागमतः । तत् क्षंतव्यं श्रुतशुद्धबुद्धिभिः शोधनीयं च ॥ इति श्वेतपटाचार्यगोविंदगणिना कृता । कर्मस्तवस्य टीकेयं देवनागगुरोगिरा ॥ Colophon: समाप्ता चेयं कर्मस्तवटीका । Post-Cclophon: अनुष्टुप्छंदसां प्रायः संकलय्यानुवर्णितं । सहस्रमेकं श्लोकानां नवत्युत्तरमेव तु ॥ ग्रं. १०९० संवत् १२८८ वर्षे पोषसुदि गुरौ पुनर्वसुनक्षत्रे । लिखिता शीलचंद्रेण टीका कर्मस्तवस्य [वै] । गणिन्या जिनसुन्दर्या हेतवे विशदाक्षरैः ॥ (२) कर्मविपाकटीका by परमानन्द. ६९-११७ Beginning: ॐ नमः सर्वविदे। निःशेषकर्मोदयमेघजालमुक्तो दिनाधीश इवोप्रतेजाः । प्रदर्शिताशेषपदार्थसार्थो मुदेस्तु नः श्रीजिनवर्धमानः ।। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 20 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS इह हि सन्तः संसारसागरतरणतरणिकल्पं जिनशासनमवाप्य सकलजन्मजीवितसारं परोपकारं मन्यते । स च संसारिणां सकलामङ्गलनिलयकर्मस्वरूपनिरूपणात् तदुन्मूलनप्रवृत्तानां सिद्धो भवतीत्यतस्तत्स्वरूपनिरूपणप्रवणं प्रकरणं चिकीर्षुर्गर्गमहर्षिर्मंगलाभिधानबंधुरां गाथामाह ववगयकम्मकलंक वीरं नमिऊण कम्मगइकुसलं । वोच्छं कम्मविवागं गुरूपय(इ)हुँ समासेणं ॥ तत्र वीरमिति विशेष्यं तं नत्वा कर्मविपाकं वक्ष्य इति संबंधः ॥ End:संप्रत्यंतरायनिगमनपूर्वकं प्रकरणकारः प्रकरणपरिसमाप्तिं स्वनाम चाह एवं पंचवियप्पं अट्ठमयं अंतराइयं होइ । भणिओ कम्मविवागो समासओ गग्गरिसिणा उ॥ एवं उक्तयुक्त्या पंचविकल्पं पंचप्रकार[मष्टमक]मंतरायकं भवति । उक्तमंतरायकं तदुक्तौ भणितः कर्मविपाकः समासतः संक्षेपतो गर्गऋषिणा यतिमतल्लिकावृंदवंद्य[पाद]पल्लवेन गर्गाभिधानमुनिनायकेनेति गाथार्थः ॥ ६७ ॥ अधुना ग्रंथप्रमाणप्रतिपादनपुरस्सरं तत्परिज्ञानोपायप्रतिपादनद्वारेण पर्यंतमंगलमाह एवं गाहाण सयं अहियं छावट्ठिए उ पढिऊण । . जो गुरु पुच्छइ नाही कम्मविवागं च सो अइरा ॥ श्रीभद्रेश्वरसूरिशिष्यतिलकश्रीशांतिसूरिप्रभोः श्रीमंतोभयदेवसूरिगुरवः सिंहासनोत्तंसकाः। तत्पादांबुजषट्पदेन परमानंदेन सत्प्रीतये चक्रे कर्मविपाकवृत्तिमिषतः श्रोत्रैकलेद्यं मधु ॥ यन्नागमानुगामि स्यान्न वा संगतिमंगति । इह तत् साधुभिः शोध्यमनभ्यर्थितवत्सलैः ॥ प्रत्यक्षरं निरूप्यास्या ग्रंथानं परिनिश्चितं । अनुष्टुभां नवशती द्वाविंशत्यधिकाभवत् । Colophon: कर्मविपाकवृत्तिः समाप्तेति । संवत् १२८८ वर्षे रखौ सुकर्मा च योगे Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGITAvi Pipi 21 (३) आगमिकवस्तुविचारसारवृत्ति by हरिभद्रसूरि. प. १६१ Beginning: ॐ नमो जिनाय । नत्वा जिनं विधारये विवृतिं जिनवल्लभप्रणीतस्य । आगमिकवस्तुविस्तरविचारसारप्रकरणस्य ॥ इह जिनवल्लभगणिनामा सूत्रकारो गणधरदेवादिनिबद्धातिगंभीरशास्त्रार्थविगाहभासमर्थानां विशिष्ट संहननायुर्मेधादिविकलानां कलिकालोत्पन्नमानवानामनुप्रहाय सू मार्थसार्थप्रकाशनार्थं प्रस्तुत[प्रकरणं चिकीर्षुमंगलादिप्रतिपादकमिदमादौ गाथाद्वितयमाह निच्छ(च्छि)नमोहपासं पसरियविमलोरुकेवलपयासं । पणयजणपूरियासं पयउ(ओ) पणमित्तु जिणपासं ॥ End: जिणवल्लहोवणीयं जिणवयणामयसमुद्दविंदुमिमं । हियकंखिणो बहु(बुह)जणा निसुणंतु गुणंतु जाणंतु ॥ व्याख्या-जिनो वल्लभो यस्य etc. Colophon: इत्यागमिकवस्तुविचारसारप्रकरणवृत्तिः समाप्ता ॥ ७ ॥ Pras'asti: प्रायोग्यशास्त्रदृष्टः सर्वोप्यर्थो मयात्र संरचितः । न पुनः स्वमनीषिकया तथापि यत् किंचिदिह वितथं ॥१॥ सूत्रमतिलंघ्य लिखितं तच्छोध्यं म[य्य]नुग्रहं कृत्वा । परकीयदोष-गुणयोस्त्यागोपादानविधिकुशलैः ॥ २ ॥ छद्मस्थस्य हि बुद्धिः स्खलति न कस्येह कर्मवशगस्य । सद्बुद्धिविरहितानां विशेषतो मद्विधासुमतां ॥ ३ ॥ कृत्वा यद् वृत्तिमिमां पुण्यं समुपार्जितं मयानेन । मुक्तिमचिरेण लभतां क्षपितरु(र)जाः सर्वभव्यजनः ॥ ४ ॥ मध्यस्थभावादचलप्रतिष्ठः सुवर्णरूपः सुमनोनिवासः । अस्मिन् महामेरुरियास्ति लोके श्रीमान् बृहद्गच्छ इति प्रसिद्धः ॥ ५ ॥ तस्मिन्नभूदायतबाहुशाखः कल्पद्रुमाभः प्रभुमानदेवः । यदीयवाचो विबुधैः सुबोधाः कर्णे कृता नूतनमंजरीवत् ॥ ६॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 22 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS तस्मादुपाध्याय इहाजनिष्ट श्रीमान् मनस्वी जिनदेवनामा । गुरुक्रमाराधयिताल्पबुद्धिस्तस्यास्ति शिष्यो हरिभद्रसूरिः॥ ७ ॥ अणहिल्लपाटकपुरे श्रीमजयसिंहदेवनृपराज्ये । आशापुरवसत्यां वृत्तिस्तेनेयमारचिता ॥ ८ ॥ एकैकाक्षरगणनादस्या वृत्तेरनुष्टुभां मानं । अष्टौ शतानि जातं पंचाशत् समधिकानीह ॥ ९ ॥ वर्षे शतैकादशके द्वासप्तत्यधिके नभोमासे । सितपंचम्यां सूर्ये समर्थिता वृत्तिकेयमिति ॥ १० ॥ Last Colophon: संवत् १२८८ वर्षे...शुभं । संवत् १३४३ वर्षे वैशाषसुदि [३] बुधे वडपद्राग्रामे शांतिनाथगौष्ठिकश्रे० वाहडीसुतखीमाकेन निजभार्याजासलश्रेयसे कर्मस्तववृत्तिपुस्तिका श्रीललितप्रभ. सूरीणां प्रदत्ता। २०. (१) कर्मविपाकटीका. प. ७०* Beginning: ॐ नमो जिनभानवे । रागादिवर्गहंतारं प्रणेतारं सदागमं । प्रणौमि शिरसा देवं श्रीवीरं जिनसत्तमं ॥ Colophon: कर्मविपाकटीका समाप्ता । Post-Colophon:संवत् १२७५ वर्षे श्रावणशुदि १५ भौमे । मंगलं महाश्रीः । (२) षडशीति (सटीक) मू. जिनवल्लभ, टी. मलयगिरि, प. १-१२० ले. सं. १३३२ (३) बन्धस्वामित्वटीका by हरिभद्रसूरि. प. १२१-१५१ २१. प्रकरणपुस्तिका. प. ३५-१९५; १३°४१३" (१) उपदेशमाला (प्रा०) धर्मदासगणि. प. ३५-४२१ (२) धर्मोपदेशमाला (प्रा०) प. ४२-५० गा. १०१ * ४, ११, १६, ५५, ६९ तमपत्रहीना । । त्रुटिता ४५३ गाथातः पूर्णा । Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGITAvi Pipa 23 (३) त्रयोविंशतिस्थानक (मूलशुद्धि प्रा०) प. ५०-६५ (जिणचेइयाण तेवीसय ठाण । ५२तमपत्रहीना गा. २६५) (४) क्षेत्रसमास. प. ६५-७० (५) दर्शनशुद्धि. (६) पिंडविशुद्धि by जिनवल्लभ. प. ९०-९८ गा.१०४ (७) चार्चिकग्रंथ (प्रा०) प. ९९-११५ (८) एगवीसठाण by सिद्धसेनसूरि. प. ११५-१२१ गा. ८१ (९) प्रवचनसंदोह (प्रा०) प. १२१-१३९ (१०) गौतमपृच्छा (प्रा०) प. १३९-१४४ गा. ५४ (११) चउसरण प. १४४-१४६ गा. २८ (१२) आउरपञ्चक्वाण प. १४६-१४९ गा. ४० (१३) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र (प्रा०) प. १४९-१५३ गा. ५० (१४) भावनाप्रकरण (प्रा०) प. १५३-१६७ (१५) आत्मानुशासन (सं०) प. १६७-१७२ (१६) नवपदप्रकरण (प्रा०) by जिनचन्द्रगणि. १८८-१९१ (१७) नमस्कारफल (प्रा०) प. १९२-१९३ गा. २५ (१८) कुलक (प्रा०) प. १९३-१९५ गा. ३० Colophon: समाप्तेयं प्रकरणपुस्तिका । सर्वसंख्यया पं० ३२४०, अक्षर १९। संवत् १२७९ वर्षे चैप्रवदि ३ रवौ अद्येह श्रीचंद्रावत्यां............विजयराज्ये पुस्तिकेयं समर्थिता लिखिता मलयचंद्रेण । पत्रसंख्या लिखितमत्र १९५ । २२, प्रकीर्णग्रन्थसङ्ग्रह (सचित्र). प. २२८+९; १४°४२" ले. सं. १३२६ (१) योगशास्त्र प. १-१५ (२) वीतरागस्तोत्र प. १५-२० (३) प्रशमरति प. २१-३० (४) उपदेशमाला (प्रा०) प. ३१-४६ (५) धर्मोपदेशमाला (प्रा०) प. ४६-५१ (६) मूलशुद्धि (प्रा०) प. ५१-५७ (७) दर्शनशुद्धि (प्रा०) प. ५७-६८ (त्रु.) (८) संग्रहणी (प्रा०) by श्रीचन्द्रसूरि. प. ६८-७९ (बु.) (९) पिंडविंशुद्धि (प्रा०) प. ७९-८२ (बु.) Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (१०) विवेकमंजरी (प्रा०) प. ८२-८७ (बु.) (११) तपसमास (? प्रा०) प. ८७-९० (त्रु.) (१२) छत्तीसठाण (प्रा०) प. ९०-९३ (त्रु.) (१३) जंबूद्वीपप्रकरण (प्रा०) प. ९३-९५ (१४) गौतमपृच्छा (प्रा०) प. ९५-९७ (बु.) (१५) दशवैकालिक (प्रा० छजीवअन्त)प. ९७-१०८ (१६) पाक्षिकसूत्र (प्रा०) प. १०८-११० (१७) आत्मानुशासन प. ११०-११२ (१८) जीवानुशासन (प्रा०) प. ११२-११३ (१९) भावश्रावकलक्षण (प्रा०) । (२०) प्रश्नोत्तररत्नमाला by विमल. (२१) धमलक्षण प. ११३-११५ (२२) उपदेशकुलक (प्रा०) (२३) विधवाकुलक (प्रा० गा० ९) । (२४) जंबूस्खामिकुलक (प्रा०) प. ११५-११६ (२५) भावनाकुलक by जिनेश्वरसूरि. प. ११६-११७ Beginning: धणु जुवणु जीविउ सयलु चंचल जिम करिकन्नु । खणि खणि करयलि नीरु जिम गलइ रूव लाइन्नु ॥ १ ॥ तडलइ भंग(गु)र देश(ह) पर तरु गिरि भवण निवाण । संज्झाराय-सरिच्छ सुह संगम सुमिण-समाण ॥ २ ॥ कणु कंचणु परियणु सयणु छ(ध)णु सयणासणु जाणु । जोइ नग्गइ करकंडु जिम मुणइ अणिचु सुजाणु ॥ ३ ॥ इति अनित्यभावना। End: हियडा जिणवर-विरही तिहुयणि रज्जु न रम्मु । वरि दालिद्दु वि मग्गियइ जहिं मुणियइ जिणधम्मु ॥ २९ ॥ दुल्लहु भणिउ रि जीवडा ! लद्धी बोहि म हारि । इण विणु दिक्खिसि दुक्ख सई भमडंतउ संसारि ॥ ३०॥ जयउ जिणेसरसूरि-किउ भावणकुलं पढंति । निरवग्गहवेरग्गरसि ते नर रंगिज्जति ॥ ३१ ।। Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAvi Pipa 25. एरिसबारसभावण-रहस्सपीयूसपाणरसीयाण । भवहाइं(?)णव अजरामरत्तणं होउ मणुयाण ॥ ३२ ॥ द्वादशभावनाकुलकं समाप्तं । (२६) दंगड (अपभ्रंश). प. ११७-११८ Beginning: जहिं जिणधम्मु न जाणियइ नवि देवह गुरु-भत्ति । तहिं तउं जीवा! दंगडइ वससि म इक्कइ रत्ति ॥ १ ॥ जहिं सम्मत्तु न आलवणु संजमु नवि चारित्तु । तहिं तउं जीव! म रइ करिसि सिज्झइ जेण परत्तु ॥ २ ॥ (२७) प्रव्रज्याविधान (प्रा०). । प. ११८-११९ (२८) धर्मकुलक (प्रा०). S (२९) सालिभद्रमाइ (अपभ्रंश).* प. ११९-१२४ End: सहसपत्तु जिम विगयमलु नहु जिम निस्सा(रा)धारु । अम्मो ! मुणिवर वाउ जिम निप्पडिबद्धविहाय(रु) ।। ५२ ।। खणमवि मा संजमगहणि पुत्त ! पमाइ रमिज । तं विसु विसहरु नहु वयरु जमिह पमाउ करिज ॥ ५३ ॥ संजमरज-विघायकर पत्तु पमायह भेउ । माइ मोहु मच्छरु मयणु कूड कुडंबउं एहु ॥ ५४ ।। हरिचंदण सीयल वयण मलयचंद जस वाय । विहरसु संजमरजधर धर सायरमज्जाय ॥ ५५ ॥ सालिभद्रमाई समाप्ता । (३०) स्तुतिद्वात्रिंशिका (सं०). प. १२४-१२६ (३१) स्तुतिद्वात्रिंशिका (अपभ्रंश). प. १२७-१२८ Beginning: विणयनयरी नाभि मरुदेवि तसु नंदणु पढमजिणु पहु वसहलंछणु सयपंचधणुमाणतणु विमलगिरिहि सिरिहि तित्थमंडणु। चुलसीयपुवाउ इहु लक्ख तिजयआणंदु सव्वट्ठह इक्खागकुलि पणमउ रिसहजिणंदु ॥१॥ * First 25 verses are obliterated. Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 End: पासु अंकुसु धरइ वि (बि) हु हत्थु अनु हत्थिहिं आरुहइ वीयपुरण घणधम्मवासणु वामेण दाहिण करिण लेइ संघविग्घहं पणासणु । सामि विमलजिणेसरह विमलगिरि - पडिहारु कवडिजक्खु रक्खउ दुरिय जसु जगि निम्मलु हारु ॥ ३२ ॥ स्तुतिद्वात्रिंशिका समाप्ता । PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (३२) भक्तामर. (३३) पार्श्वाष्टक by बिल्हण (जैन). (३४) पार्श्वस्तोत्र. (३५) पार्श्वाष्टक. (३६) सिद्धचक्रस्तुति (प्रा० ). (३७) भयहरस्तोत्र (प्रा० ). (३८) पार्श्वनाथाष्टक. (३९) धरणोरगेन्द्रस्तोत्र. (४०) सर्वसामान्यस्तोत्र. (४१) परमेष्ठिस्तोत्र. (४२) शांतिस्तव. (४३) विरदावली (जिनपतिस्तुति ) by विमलसूरि. १३९ - १४० Beginning:— End: प. १२९-१३९ जय श्रीनेमिजिनवर ! नवरसोद्गारसुभग ! बहुविधामिनयभावनासरस सुरविलासिनीला स्यलीला कुतूहलानाकुलितमानस ! ॥ श्रावण रविणा बहुधावधार्य स्तोत्राणि तानि बहुभिर्विहितानि तानि । अभ्यर्थितो जिनपतिस्तुतिचक्रवालं सूरिकार विमलं विमलाभिधानः ॥ ४५ ॥ विमलाचार्यविरचिता विरदावली समाप्ता । (४४) नेमिनाथबोली. ५. १४१-१४२ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGIHAVI PIpA Beginning: जयतु जयतु शश्वन्नेमिनाथो विवश्व(स्व) च्छ्रितसमधिककांतिसृष्टमोहोपशांतिः । उदितविदितचित्रस्फूर्य(ज)दुच्चैश्चरित्रः त्रिभुवनजनबंधुः पुण्यलावण्यसिंधुः ।। त सु(स)मुद(द)विजयनिवअंगरुहं त पुन्निमसोमसमाणमुहं । त जंमतराणी हियइ(?)वरं धरिउ सुदुद्धरु सीलभरं ॥ १ ॥ End: गुहिरु तूरु वायंति केवि केवि जय जय रखु भासहिं अक्खवत्तु आणंति केवि केवि दहि दोहु पयासई । गंधोदग वरसहिं केवि [केवि] फल्ल-फुल्लिहिं वरसंति लूणु सलिलु उत्तरहि केवि केवि आरत्तिउ दरसहिं(०संति)। इय अमंद आणंदभरि केवि केवि नचंति जणि नेमिकुमरि सो मयणभडु लीलइ जित्तइ जेणि खणि ॥ २४ ॥ श्रीनेमिनाथबोली समाप्ता । A. Beginning: णटिहिटि नटहिटि etc. वीरनाह आरत्तियह ॥ १ ॥ तिम न रयणि ससिहर(रि)ण तिम न सूरिण गय[f]गणु तिम न विंझ करिवरिण तिम न वीरिण समरंगणु । तिम न पइविण भवणु तिम न नरनयर नि(न)रिंदिण हंसिण तिम न तलाउ तिम न मुरसंघु सुरिंदिण । वणु तिम किंपि न कंठीरविण सच्चवयणु जणु जणु कहइ जिम सामिय नेमिजिणंद! पई उजयंतु गिरिवरु सहह ॥ End: अविचल लक्खण जाणु नाणु सञ्चउं परियाणइ छंदमग्गु तह मुणइ निचु आगमु वखाणइ । बहुपयार कविसिक्ख तक जंपइ बहुसग्गह सुललिय गिय भारहह ताल वुझइ तह रंगह । विजानिहाणु भुवणत्तयह भ(च)दप्पह न हु कोइ समउ कसमीरि मुड ! तुम्हि मत गमहु जंगमवाईसरि नमहु ॥ १३ ॥ Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 28 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS B. Beginning:— End: नंद महि विहिपक्खो चंदप्पहसूरिधवलक्खो सिरिधम्मसूरिपक्खो पहाणसाखाइ पणसक्खो ॥ १॥ ते धम्मघोष ( स ) सूरि पहुसूरिपहाणु ते आगम सायर दुत्तर पायर (ड) रयण निहाणु । ते तिणि पहु थप्पड गणहर वीस ते निजपटि पसर कोडि वरिस ॥ २ ॥ कपडवाणिजि धम्मठाणि जि पुर अवयंसि सावड मुह तइ लच्छिहिं सय तई ( ? ) ॥ Incomplete. This also seems to be about Chandraprabha. (४५) चैत्यवन्दनविवरण (सं०) (४६) विवेकविलासादि (30) (४७) नीतिवाक्यामृत (30) २३. (१) वृत्तरत्नाकरवृत्ति * by पं. श्रीकंठ. (२) धातुपाठ by हेमचंद्र . ) (३) लिंगानुशासन. अपूर्ण (४) वृत्तरत्नाकर. (५) सुकोशलकथा (प्रा. त्रुटित). (,, ). (६) प्रत्येकबुद्धकथा (७) प्रदेशिकथा (",). (८) धन्यसुंदरीकथा (,, ). (९) सिद्धसेनकथा. २४. प्रबोधचंद्रोदयनाटक. २५. (१) क्षेत्रसमासवृत्ति by सिद्धसूरि End: प. ९ प. ४८ * • Paper Ms. Incomplete. ३७-७४ ७५-८६ प. ४६ प. २९-५५ प. ८०-११५ प. १-२९ प. १५६; ९”×२" १–६४; १३××१३” जंबूद्वीपो नाम क्षेत्रसमासस्य प्रथमेऽधिकार उद्देशकः । पठने येषां समाप्तस्तेषां समाप्तानि दुःखानि ॥ इति प्रथमाधिकारः समाप्त इति । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAVI PADA प्रसिद्ध ऊकेशपुरीयगच्छे श्रीककसूरिर्विदुषां वरिष्ठः । साहित्य-तर्कागमपारदृश्वा बभूव सल्लक्षणलक्षितांगः ॥ १॥ तदीयशिष्योजनि सिद्धसूरिः सद्देशनाबोधितभव्यलोकः । निर्लोभतालंकृतचित्तवृत्तिः सज्ज्ञान-चारित्र-दयान्वितश्च ।। २ ॥ श्रीदेवगुप्तसूरिस्तच्छिष्योभूद् विशुद्धचारित्रः । वादिरा(ग)जकुंभभेदनपटुतरनखरायुधसमानः ॥ ३ ॥ तच्छिष्यसिद्धसूरिः क्षेत्रसमासस्य वृत्तिमिय(मा)मकरोत् । गुरुभ्रात्यशोदेवोपाध्यायज्ञातशास्त्रार्थः ॥ ४ ॥ उत्सूत्रमत्र किंचिन्मतिमांद्याज्ञानतो मयालेखि । निर्व्याजं विद्वद्भिस्तच्छोध्यं मयि विधाय दयां ॥५॥ अब्दशतेष्वेकादशसु द्विनवत्याधिकेषु विक्रमतः । वैशाखशुक्लपक्षे समर्थिता शुक्लपंचम्यां ॥ ६॥ यावज्जैनेश्वरो धर्मः समेझर्वर्तते भुवि । भव्यैः पापठ्यमानोयं तावन्नंदतु पुस्तकः ॥ ७ ॥ श्रीबृहत्क्षेत्रसमासवृत्तिः प्रथमाधिकारांतर्गतधिवरणे लघुक्षेत्रसमाससूत्रव्याख्यानं सविशेष समुद्धृतमिति ॥ (२) जंबूद्वीपसंग्रहणी(सवृत्ति) by हरिभद्राचार्य. प. ६४-८६ End: जंबूद्वीपसंग्रहणीवृत्तिः समाप्ता । विरचितेयं सूत्रनो वृत्तितश्च श्रीमबृहद्गच्छीयश्रीहरिभद्राचार्याणामिति । ग्रंथाग्रं १५० ॥ ५ ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ (३) भावनासार(अपभ्रंश). प. ८७-१११ Beginning: चलु तारुन्नु असारु जिउ सयणो वि निरत्थणु लच्छि पहुत्तु अरोगु अंगु भोगिट्टि(ड्डि) पियत्तणु । सव्वु असासउ मणि मुणेउ जिणसासणि लग्गहु माया मोहु विमूढचित्तु दुहसंगु म मग्गुहु ॥ १ ॥ अत्थु जोयइ हसइ जणु अन्नु परिकम्मइ । केस नह न्हाणि रयणि मंडणि पयठ्ठ()इ सोहग्गिण गम्वियउ गिय-नट्टि कंदप्पि वट्टइ ॥ २॥ १०से चकार वृत्तिमिमां क्र. ४४ । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 30 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS जेण विमोहिउ वहइ जणु गरूयउ भूसण-भारु तं जोयणु सुरवा(चा)उ जिह खणि चंचलु सुवियारु । वियसिउ कमलु सुसोहि उ लोयणु चंदसमाणु जणमणमोहणु भवियहु भावहु निरु तारुन्नं संज्झ जेंव खणमिन्तरवन्नं ॥ ३ ॥ जे सत्ता जिण-साहुकिच्चकरणे [भव्वे] पहाणे तवे भव्वे सुव्वयसेवियंमि घरिए सज्झाय-ज्झाणज्जणे । तेसिं निच्चपरोवयारकिरियं सारं सुलद्धं परं मन्ने दुन्नयसुन्नपुनचरियं तारुन्नयं धन्नयं ॥ ४ ॥ End: संसारु अणिचउ दुहनिम्भिव्य(ण)उ परियाणेविणु भवियजणु । जिणधम्मु चउविहु सुहसिरिकुलगिहु सेवहु अणुदिणु सुद्धमणु ॥८५।। जिणसासणि लीणा घउगइरीणा भावणसारु जि संभरहिं । सुहसंतिपहाणा मुनिवरराणा ताह गुणथुइ फुड करहिं । इति भावनासारप्रकरणं समाप्तं । (४) थेरावली(प्रा०). प. १११-१२० (५) ऋषभपंचाशिका(प्रा. गा. ५०) by धनपाल. १२०-१२८ २६. सिद्धहेमलघुवृत्ति(अवचूरि त्रुटित जीर्ण). प. १२० (?); ११०x१३" २७. सिद्धहेमलघुवृत्ति by हेमचन्द्राचार्य. (अ. ३३-५). २-२०१; १४०x११" End:-- इत्याचार्यश्रीहेमचंद्रविरचितायां सिद्धहेमचंद्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनलघुवृत्ती पंचमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः । Colophon: संवत् १२२१ वर्षे माधवदि बुधे अद्येह आशा श्रीविद्यामठे लघुवृत्तिपुस्तिका पंडितवयरसीकेनालेषि(खि) । शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः । २८. योगशास्त्रविवरण(स्वोपज्ञ) by हेमचन्द्राचार्य. १८३; १५"४२" (४-१२ प्रकाश) अं. १३०० २९. ज्ञानपंचमीकथा(प्रा.) by महेश्वरसूरि. २०७; १३३"४२" Incomplete at the end, Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAVI Pāpā 31 ३०. नवपदलघुवृत्ति (श्रावकानंदी). प. १२५; १४°४२" ३१. योगशास्त्रान्तरश्लोकसंग्रह. प. ८५; १३°४२ ३२. उत्तराध्ययन. प. १३९; १४३०४२ Colophon:- संवत् १२३२ फाल्गुनिशुद्धि ५ सोमे। ३३. सिद्धहेमलघुवृत्ति (अ०३३-५) by हेमाचार्य.प.१४०; १९०४२" ३४. (१) नीतिवाक्यामृत by सोमदेव. ९५; १४०x१३" End: इति सकलतार्किकचूडामणिचुवितचरणस्य पंचपंचाशन्महावादिविजयोपार्जितोर्जितकीर्तिमंदाकिनीपवित्रितभुवनस्य परमतपश्चरणरत्नोदन्वतः श्रीमन्नेमिदेवभगवतः प्रियशिष्येण वादीद्रकालानलश्रीमन्महेंद्रदेवभट्टारकानुजेन स्याद्वादाचलसिंह-तार्किकचक्रचक्रवर्तिवादीमपंचाननेन वाकलोलपयोनिधि-कविकुलराजकुंजरप्रभृतिप्रशस्तिप्रशस्तालंकारेण पण्णवतिप्रकरणयुक्ता(क्ति)चिंतामणिस्तव-महेंद्र-मातलिसंजल्पयशोधरमहाराजचरितप्रमुखमहाशास्त्रवेधसा श्रीमत्सोमदेवसूरिणा विरचितं नीतिवाक्यामृतं नाम सारस्वतं समाप्तमिति । Colophon: संवत् १२९० वर्षे प्रथमश्रावणवदि १० शनावोह श्रीमद्देवपत्तने गंडश्रीत्रिनेत्रप्रभृतिपंचकुलप्रतिपत्तौ महं सीहाकेन नीतिवाक्यामृतसत्कपुस्तिका लिखापिता । मंगलं महाश्रीः । शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः । भग्नपृष्टि-कटि etc. यादृशं etc. . (२) श्राद्धप्रतिक्रमणवृत्ति. प. ८० (अपूर्ण-त्रुटित) Beginning: श्रीवर्धमानमानम्य स्पष्टा वृत्तिर्विधीयते । सच्छ्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रस्य ct.c.. ३५. (१) उपदेशमालाप्रकरण(प्रा०). प. ५४; १४°४२ गा. ५४१ (२) बृहत्संग्रहणी (प्रा०). ५४-१०७ गा. ५३४ ..(३) दर्शनशुद्धिप्रकरण (सन्देहविपौषधि). १०७–१३४ गा. २८० Colophon: संवत् १२३७ माधवदि ९ सोमे पं० महादेवेन प्रकरणपुस्तिका लिखितेति । पं० १०१२। (४) गणधर(युगप्रधान)सत्तरी, १३५-१३८ गा. ७१ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 32 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS End:सिरिअ(म)जयसिंहसूरी गणहरसयरी इमेहिं किल लिहिया । संताणजाणणत्थं सिरिमंतसुहम्मसामिस्स ॥ गणहरसत्तरी जुगपहाणसत्तरी संताणसत्तरी च सम्मत्ता । (५) कर्मविपाक (प्रा०). १३८-१५६ गा. १६७ (६) शतकप्रकरण(कम्मपयडी). १५६-१७१ गा. १०९ (७) सत्तरी. १७१-१८० End: गाहगं सयरीए चंदमहत्तरमयाणुसारीए । टीकाए णियमियाणं एगूणा होइ नउईओ(उ) ॥ ८९॥ सत्तरी समाप्ता। (८) उवएसमाला. १८०-१९१ Beginning:-सिज्झउ otc. (९) नवपदप्रकरण (प्रा.). १९१-२०७ (१०) पिंडविशुद्धि by जिनवल्लभ. २०७-२२० गा. १०४ (११) मूलविशुद्धि(प्रा. अपूर्ण). २२०-२५६ । (१२) सामाचारी (प्रा०) जिनचंद्रगण्युद्धृत. २६५-२८१ (१३) भक्तामर. (१४) पावपडिघाय-गुणबीजाहाणसुत्त(पंचसूत्रप्रथमसूत्र). प. ४ (१५) अजितशांति (त्रुटित). प. ९ ३६. धर्मशाभ्युदय by हरिचन्द्र, प. १९५; १२३४१३' Colophon: संवत् १२८७ वर्षे हरिचंद्रकविविरचितधर्मशाभ्युदयकाव्यपुस्तिका श्रीरत्नाकरसूरि(रे) आदेशेन कीर्तिचंद्रगणिना लिखितमिति भद्रं । ३७. षविधावश्यकविवरण. प. १३५; ९४२१. End: इति परमार्हतश्रीकुमारपालभूपालशुश्रूषिते आचार्यश्रीहेमचंद्रविरचिते अध्यात्मोपनिषन्नाम्नि संजातपट्टबंधे श्रीयोगशास्त्रे द्वादशप्रकाशविवरणे तृतीयप्रकाशमध्यात् चैत्यवंदना-सामायिकादिषड्विधावश्यकविवरणं समाप्तं ॥ ' Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVĪ Pāpi संवत् १२९५ वर्षे भाद्रपदशुदि ११ वौ स्तंभतीर्थे महामंडलेश्वरराणकश्रीबिसलदेवविजयराज्ये तन्नियुक्तदंडाधिपति श्री विजयसीप्रतिपत्तौ श्रीसंडेरगच्छीयगणिआसचंद्रशिष्यपंडितगुणाकर सौवर्णिक पल्लीवालज्ञाती ठ० विजयसीह ठ० सलषणदेव्योस्तनुजसो ० ठ० तेजः पालेन लेखयित्वा आत्मश्रेयसे पुस्तिका प्रदत्ता । ५ । लिखिता रतनसीहेन । मंगलमस्तु | ग्रंथाम १३०० । ३८. प्रकरणसंग्रह. (१) उपदेशमालाप्रकरण ( प्रा० ). (२) धर्मोपदेशमाला ( प्रा० ). (३) ठाणप्रकरण ( प्रा० ). (४) जंबूद्वीपप्रकरण. (५) पाक्षिकसूत्र ( प्रा० ). (६) पडिक्कमणसूत्र ( प्रा० ). (७) पवज्जाविहाण (प्रा० ). (८) गौतमपृच्छा ( प्रा० ). (९) शीलरक्षा (प्रा० ). (१०) योगशास्त्र. ३९. (१) उपदेशमाला (प्रा० ). (२) धर्मोपदेशमाला ( प्रा० ). (३) मूलशुद्धि (प्रा० ). प. १५६; १२३×२” गा. ५४४ प. ५६ गा. १०४ ग्रं. १८४ 5 ग्रं. ५० ग्रं. २५ ग्रं. ५४ गा. ५० ग्रं. ४५६ ५६-६८ ६८- ९० ९०-९९ ९९-१०३ १०३ - १०९ १०९-१११ १११-११७ ११७-११९ ११९ - १५५ ७१; १२३" ×१३" ७१-८३ ८३-१०७ (४) क्षेत्रसमास (जंबूद्वीपसमास ग्रा० ) . १०७ - ११८ (५) विवेकमंजरी (प्रा० ). ११८-१३६ (६) पक्किमणसूत्र ( प्रा० ). (७) संग्रहणी ( प्रा० ) by श्रीचन्द्रसूरि. ४०. ज्ञानपंचमीकथा [by महेश्वरसूरि ]. प. २१४; Colophon: संवत् १३१३ वर्षे चैत्रशुदि ८ खौ महाराजाधिराजश्रीश्रीवीसलदेवकल्याणविजयिराज्ये तन्नियुक्तश्रीनागडमहामात्ये समस्तव्यापारान् परिपंथयतीत्येवं काले प्रवर्तमाने............ ज्ञानपंचमीपुस्तिका लिखापिता । १३६-१५६ 383 १- ३८ (त्रुटित ) १३" ×१३” ४१. सिद्धहेमशब्दानुशासन ( अष्टमाध्यायवृत्तिः प्रकाशिका ) by हेमचन्द्र. प. १९०; १३" ×१३” Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 34 Pattan CATALOSUE OF MANUSCRIPTS ४२. योगशास्त्र (स्वोपज्ञविवरण प्रथमप्रकाश विशीर्ण). १४३०x१३" ४३. वंदारवृत्ति by देवेन्द्रसरि. ग्रं. २७२० प. २४३; १७°४२" ४४. क्षेत्रसमास (सटीक) मू. जिनभद्रगणि वृ. सिद्धसूरि. __प. २४६; १३०x१३" Beginning: नत्वा वीरं वक्ष्ये जिनभद्रगणिक्षमाश्रमणपूज्यैः । रचिते क्षेत्रसमासे वृत्तिमहं स्वपरबोधार्थं ॥ End:श्रीक्षेत्रसमासप्रकरणवृत्तिः श्रीमत्ऊकेशीयश्रीसिद्धाचार्यकृता समाप्तेति । . खैः पण्णवत्यांकैश्चतुःषष्ट्या द्वात्रिंशताक्षरैः श्लोकः । श्लोकमानेन चैवं त्रिसहस्री ग्रंथसंख्यात्र ॥ ६ ॥ ग्रंथाग्रं ३००० । छ । मंगलं महाश्रीः । Colophon:संवत् १२७४ ज्येष्ठवदि ७ गुरौ पुस्तिका लिखिता। ४५. कल्पसूत्र(मूल). पं. २०४; १५१४१३" ४६. तिलकमंजरी(प्रथमखंड). पं. २३७; १४३४१३." ४७. (१) विजयचंदकेवलिचरित by चन्द्रप्रभमहत्तर. प. ८७; १३३°४१३" (२) चैत्यवन्दनटीका (ललितविस्तरा). प. १२ End: पुनः प्रणिपातदंडकश्चरम इति । छ । चैत्यवंदनटीका समाप्ता ॥ कृतिः चतुर्दशशतप्रबंधकर्तुविरहांकस्य चित्रकूटाचलनिवासिनः कलिकालांधकारावलुप्यमानागमरत्नप्रकाशप्रदीपस्य सुगृहीतनामधेयस्य जिनेंद्रगदितसिद्धांतयथार्थवादिनः श्रीहरिभद्रसुरेः। Colophon: ग्रंथाग्रं अक्षरसंख्यया अनुष्टुपां तु ४८२ । विक्रमसंवत् ११८५ प्रथमाश्विनवदि ७ सोमे पारि०लुणदेवेन स्वपरोपकाराय लिखितेति । १ क्र. २५ (१) दर्शिताः सप्त श्लोका अत्रापि । २ प्रथमपत्रं नास्ति, प्रान्ते च त्रुटितम् । ३ समीचीना प्रतिः । २३६ संख्याकं पत्रं नास्ति । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 86 No I. SANGHAvi Pārā (३) इकवीसठाण (प्रा०). गा. ६६ प.८ (४) आवश्यकविधि by जिनवल्लभगणि. गा. १४० प. ८-२४ (५) नानाचित्तप्रकरण. गा. ८० प. २४-३३ (६) क्षपकशिक्षाप्रकरण. गा. १२३ प. ३३-४६ End: इय सुगुरुजिणेस[र] सूरिसीसजिणचंदसूरिणा रइयं । कवयं समुव्वहतं न भावरिउणो खलेंति मुणी ॥ १२३ ॥ (७) आत्मानुशासन by पार्श्वनाग. ४६-५५ (८) दशवैकालिकनियुक्ति (प्रा०). १-५४ ४८. (१) द्वादशकथा. प. १४१ (१) धनदेव-धनदत्तकथा ( दानविषये) प्रा० प. १-१३ गाथा १४१ (२) धनश्रेष्ठिकथा (सम्यक्त्वप्रभावे) , १४-२३ गा. ८० (३) चंडगोपालकथा (दाने) , २३-३४ गा. १०२ (४) कृपणश्रेष्ठिकथा (,) ,, ३४-४३ गा. ८९ (५) जयलक्ष्मीदेवीकथा (शीले) , ४३-५७ गा. १२६ (६) सुंदरीदेवीकथा (,) ५७-६९ गा. १०२ (७) मृगांकलेखाकथा (तपसि) ,, ६९-८२ गा. १३७ (८) अघटकथा (,) " ८३-९६ गा. १२२ (९) धनदत्तकथा (भावनायाम) ,, ९६-१०६ गा. ११२ (१०) बहुबुद्धिकथा (,,) ,, १०६-११८ गा. ११८ (११) सौभाग्यसुंदरीकथा (नवकारफले) ,, ११८-१३० गा. १२० (१२) समुद्रदत्तकथा (अनित्यतायाम) ,, १३१--१४१ गा. ११८ __इति कथा द्वादश । (२) विभक्ति(विचारमुख)प्रकरण by अमरचंद्र. १४१-१५४ गा. १४१ Beginning: निम्मलनाणपयासियवत्थुविभत्तुं (त्ति) नमित्तु वीरजिणं । किंचि विभत्तिवियारं वुच्छं बालावबोहत्थं ॥ १॥ End: तेसिं चिय अवगाहो आगासतले जलाण कलसे व्व । कालेण नवतत्ताई अभावउ अन्नभावे वि ॥ ४० ॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS इय छन्भेयविभत्ति पवंचियं अमरचंदसूरीहिं । निसुणंताणं जायइ उम्मेसो नाणलेसस्स ॥ ४१ ॥ ___ इति विचारमुखप्रकरणं समाप्तं । ४९. (१) कल्पसूत्र. प. १२०-१६९ (१६८ तमं पत्रं न) End: इति श्रीकालिकाचार्यकथानकं समाप्तं । शतानि त्रीणि चैतानि पट्यधिकानि वै । कथानकस्य कथिता संख्या संख्यावतां मते ॥ १ ॥ Colophon: सं. १३३५ वर्षे आपाढशुदि गुरौ प्रह्लादनपुरे लिखितः । Beginning of the donor's Pras'asti ऊकेशान्वयशाखिनि स्फुरदुरुच्छायानपायश्रिया शौराणीति फलाभिलापिभिरलं............माश्रिता विश्रुता । एतस्यामभवद् भवस्थितिहृति श्रीजैनपादांबुजे भुंग........Illegible........ सुतो महणसिंहोस्ति तयोः सुगुरुभक्तिमान । स्थिरदेवामिधानेन पष्ठो गुणधरांगभूः । देपालप्रमुखाः पुत्रास्तस्य थेहीसमुद्भवाः ॥ १२ ॥ सप्तमो हर्पदेवोस्ति हर्षदेवी ह] हर्पदा । तस्य पत्नी ततः पुत्रा नरसिंहादयो यथा ॥ १३ ॥ धांधूनामाभवद् भ्राता कनीयान् गुणधरस्य च । षेढाभिधानस्तत्पुत्रः पवित्रो धर्मकर्मणा ॥ १४ ॥ इमा दुहितरस्तिस्रो जाता गुणधरस्य च । कर्मिणिः प्रथमा तत्र लष्मिणि हरिसिणिस्तथा ॥ १५ ॥ अथ गुरुक्रमः॥ वादिचंद्रगुणचंद्रविजेता विग्रहक्षितिपबोधविधाता। धर्मसूरिरिति नाम पुरासीत् विश्वविश्वविदितो मुनिराजः ॥ १६ ॥ आनंदसूरिशिष्यश्रीअमरप्रभसूरिदेशनां श्रुत्वा । हरिपालाभिधपुत्रः कुलचंद्रस्येति चिंतितवान् ॥ १७ ॥ चपलाचपला लक्ष्मीः स्थिरस्थाननियोगतः । मतिमंतः प्रकुर्वति गुर्वतिकमुपागताः ॥ १८ ॥ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ End: No I. SANGHAVI PADA इयं पर्युषणाकल्पपुस्तिका स्वस्तिकारिणी । लिखिता हरिपालेन स्वमातृश्रेयसे ततः ॥ १९ ॥ प्रतिवर्षं गुरुहर्षं संघेन श्रूयमाणशब्दार्था । मुनिवृंदवाच्यमाना नंदतु वरपुस्तिकांतर्गता ॥ २० ॥ (२) पर्युषणाकल्पटिप्पन. प. १-१८१; १३३x२३” चंद्रकुलांवरशशिनश्चारित्र श्रीसहस्रपत्रस्य । श्री शीलभद्र सूरेर्गुणरत्नमहोदधि ( : ) शिष्यः || अभवद् वादिमदहरः पट्तकांभोज बोधनदिनेशः । श्रीधर्मघोषसूरिर्वोधित शाकंभरीभूपः ॥ चारित्रांभोधिशशी त्रिवर्गपरिहारजनितबुधहर्षः । दर्शितविधिः शमनिधिः सिद्धांत महोदधिप्रवरः ॥ ३ ॥ बभूव श्रीयशोभद्रसूरिस्तच्छिष्यशेखरः । तत्पादपद्ममधुपोभूत् श्रीदेवसेनगणिः ॥ ४ ॥ टिप्पनकं पर्युपणाकल्पस्यालिखदवेक्ष्य शास्त्राणि । तच्छिष्य ((पद्म)कमलमधुपः श्रीपृथ्वी चंद्रसूरिरिदं ॥ ५ ॥ st द्यपि न स्वधया विहितं किंचित् तथापि बुधवर्गैः । संशोध्यमधिकमूनं यद् भणितं स्वपरबोधाय || ६ ॥ श्रीपर्युपणाकल्पटिप्पनकं । 37 Colophon: संवत् १३८४ वर्षे भाद्रवा शुदि १ शनौ अग्रेह स्तंभतीर्थे वेलाकूले श्रीमंचलगच्छे श्रीकल्पपुस्तिका तिलकप्रभागणिनीयोग्या महं. अजयसिंहेन लिखिता । मंगलं महाश्रीः । देहि विद्यां परमेश्वरि ! | शिवमस्तु सर्वजगतः । ५०. सरखतीकंठाभरणवृत्ति ( पदप्रकाश ) by आजड. २ - ३०५ * Beginning:— इति (ह हि ) शिष्टशिरोमणि - निखिलनिरवद्यविद्यानिर्मले (म)ण पूर्व प्रजापतिप्रचंडभुजदंडपराक्रमार्जितचतुरशीति बिरुदप्रकाशित स्वकृतग्रंथसमाजः श्री भोजराजः शास्त्रारंभे 1 'मध्ये कियन्ति पत्राणि न सन्ति । Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Fol. 37a - इति भांडशालिपार्श्वचंद्रसूनोः श्रीआजडस्य कृतौ पदकप्रकाशनानि सरस्वतीकंठाभरणालंकारटीका विषमपदोपनिबंधे प्रथमः परिच्छेदः । ग्रं. ५२०६ 38 प्रपन्नस्य प्रोच्चैर्विरतिरमया यस्य विबुधैर्श्वभुर्न्यस्तान्युद्यन्नवकनकपद्मान्यनुदिनं । पुनर्भुक्तोन्मुक्ता निधय इव रागादनुगताः स शांतिं श्रीशांतिः प्रदिशतु जिनेशस्तनुमतां ॥ १॥ श्रेयांसि प्रतनोतु नः शुचियशोमुक्ताफलालंकृतः श्रीमान् दुर्मदवादिकुंजरह्निर्भद्रेश्वराख्यो गुरुः । दिङ्नागप्रतिमोपि यस्य चरणेनालंकृतं सर्वतः प्रेक्ष्याक्रामति जैनदर्शनवनं नाद्यापि कोपि क्षितौ ॥ २ ॥ Fol. 38. Prakrit languages and their peculiarities are explain - ed with examples and references to grammatical rules. Fol. 52 is lost herein; the commentator must have given some account of the origin of Apabhrams'a just as he has done with other languages. I shall cull here only some Apabhrams'a verses. Apabhrams'a has the longest treatment in the work on fol.-52-73 अंगिहिं अंगु न मिलिउ हलि अहरिं अहरु न पत्तु । प्रिय जोयंतिहि मुहकमल एम्वइ सुरउ समत्तु ॥ जे महु दिण्णा दिअहडा दइए पवसंतेण । ताण गणंतिए अंगुलिउ जज्जरिआउ नहेण || सायरु उपरि तणु धरइ तल घल्लइ रयणाई | सामि सुभिचु परिहरइ सम्माणेइ खलाई || गुणेहिं न संपइ कित्ति पर फल लिहिया भुंजंति । केसरि न लहइ वोड्डिअ वि गल (अ) लक्खेहिं घेप्पंति ॥ विच्छ गृहइ फलई जणु कडु पल्लव वज्जेइ | तो वि महद्दुमु सुयणु जिम ते उच्छंगि धरेइ ॥ ङसः सु-हो-स्सु इति त्रय आदेशा यथा । जो गुण गा (गो) वइ अप्पडा (णा) पयडा करइ परस्सु । ते मु (सु) हउं कलिजुग दुल्लहहो व (ब) लि किज्जइ (उं) सुयणस्सु || आमो हं यथा । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHvi Pānā तणहं तइज्जी भंगि नवि तें अवडयडि वसंति । अह जणु लग्गवि उत्तरइ अह सह सई मज्जंति ॥ इदुद्भ्यां परस्यामो मः हुं- हमिति द्वयं । ङसेसस्तथा ङेः स्युर्हे-हुं-हय इति क्रमात् । इकारोकाराभ्यां परस्यामो हुं- हंवा (चा) देशौ भवतः यथा । दइ घडावर वणि तरुहुं सउहिं पक्कफलाई | सो वरि सुक्खु पट्टण वि कण्णइ खलवयणाई || Fol. 201 - इति श्रीपार्श्वचन्द्रसूनोर्भा० श्रीआजडस्य कृतौ पदप्रकाशनान्नि सरस्वतीकंठाभरणालंकारविषमपदोपनिबंधे तृतीयः परिच्छेदः । ग्रं. २८० अपि च End: पुनातु श्रीपार्थो जिनपरिवृढः सप्तसु महाफणारत्नेष्वंतः प्रतिफलितमूर्तिः पणिपतिः । समं यत्कर्माणि क्षपयितुमिवेष्टावसुमतां यदाधीनः सप्तापररचितरूपो विजयते || Fol. 237 तवंतः । End: वृत्ताधारतया सदुज्वलतया संपूर्णताधारणात् ध्वांतध्वंसविधानतः कुवलयोल्लासप्रदानैरपि । अत्रापदुरुचेर्यदीययशसो मध्यस्थ मेणायते Fol. 245b इति काव्यप्रकाशकारौ मम्मटालको । ५१. (१) सत्तरिया (in complete ) प. ९२ - १२८; 39 श्यामत्वेन नभः शुभं स दिशतु श्रीसर्व्वदेवः प्रभुः ॥ ६ ॥ विद्यात्रयीनिर्माण नदीष्णबुद्धयः श्रीहेमसूरयः किंचिदन्यथा सम १० " ×१३” (२) आगमिकवस्तुविचारसारप्रकरण (प्रा० ). १२८ - १५९ कृतिरियं जिनवल्लभगणेरिति । (३) सूक्ष्मार्थविचारसारप्रकरण (प्रा० ). १५९-१९२ इय जिणवल्लहगणिणा लिहियं सुहमत्थवियारलवमिणं सुयणा । निसुणंतु मुणंतु सयं परे वि बोहिंतु सोहंतु ॥ १५४ ॥ (४) नवपदप्रकरण. १९२-२१९ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 40 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Beginning: नमिऊण वद्धमाणं मिच्छं सम्मं वयाई संलेहो । नव भेयाइ वोच्छं सडाणमणुग्गहढाए ॥ १ ॥ End: इइ नवपयं नु एयं लिहियं सीसेण ककसूरिस्स । गणिना(णा) जिणचंदेणं सरणट्ठमणुग्गहढे च ॥ ___ नवपदं समाप्तं ॥ ५२. (१) ओघनियुक्ति(अपूर्ण). प. १-१०६; १३०x१३" (२) [उत्तराध्ययन] *१५५-१९६ Colophon:- प. १७६ अष्टमं कापालियाध्ययनं समाप्तं । १३०९ आषाढवदि सोमे श्रीभद्रेश्वरे वीरतिलकेन भुवनसुंदरियोग्या पुस्तिका लिखिता। प. १८५ उरव्भीयज्झयणं सत्तमं ॥ प. १९६ केसि(?)गोयमीयं इइ अज्झयणं । End: लहू(द्भू)ण य सम्मत्तं पमायसहियस्स निप्फलं होइ । हत्थट्ठियं पि अमयं गलइ पमाएण जीवस्स ॥ २८८ ॥ (३) दसवीसीभावना (प्रा०). १९६-२२१ (४) श्रावकवर्षाभिग्रह (प्रा०). २२१-२२४ (५) शीलांगरथविधि (९ गाथा अपूर्ण). २२४-२२७ Beginning: गोयमसामि नमिउं जईण सीलांगरहविहिं वोच्छं । करणेहिं जोग-सन्ना-इंदिय-जीवेहिं धम्मेहिं ॥ १॥ (६) दूसमदंडिका (प्रा०). २२७-२४१ Beginning: नमिऊण जिणवराणं णिज्जियमय-माण-निम्ममत्ताणं । वोच्छं दूसमगंठि(दंडिं) सुओवएसाणुसारेणं ॥ १॥ * १०४-१५४ पत्राणि म सन्ति । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PADA End:भणिया संखेवेणं गणणा अणुओगसारेणं ॥ १०४ ॥ दूसमदंडिका। ५३. (१) प्रमाणवार्तिक. प. १-४; १३३०x१३" Beginning: नमो वीतरागाय । हिताहितार्थयोः प्राप्ति-त्यागयोर्यन्निबंधनं । तत् प्रमाणं प्रवक्ष्यामि सिद्धसेनाकसूत्रितं ।। १ ॥ प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं बाधविवर्जितं । प्रत्यक्षं च परोक्षं च द्विधा मेयविनिश्चयात् ।। २ ।। इति शास्त्रार्थसंग्रहः ॥ End of प्रत्यक्ष(अनुमान)परिच्छेद असिद्धः सिद्धसेनस्य विरुद्धो मलवादिनः । द्वेधा समंतभद्रस्य हेतुरेकांतभाव(साध)ने ॥ ९ ॥ End:-आगमपरिच्छेद [:] सूत्रं सूत्रकृता कृतं मुकुलितं सद्भरिबीजैर्घनं तबोधे किल वार्तिकं मृदु मया प्रोक्तं शिशूनां कृते । भानोर्यत् किरणैर्विकासि कमलं नेंदोः करैस्तत् तथा यद्वेदूदयतो विकासि जलजं भानोर्न तस्मिन् गतिः ॥ १ ॥ (२) वार्तिकवृत्ति by शान्त्याचार्य. प. ५-१८४ Beginning: नमः स्वतःप्रमाणाय वचःप्रामाण्यहेतवे । जिनाय पंचन(रू)पेण प्रत्यक्षात्यक्षदेशिने ॥ १ ॥ अन्यार्थवत्तेति न वाच्यमेतत् सामान्यमन्येन ततोन्यथा तु । उत्पादितं तत्र वदंतु संतो निर्मत्सरा एव भवंतु यद्वा ॥२॥ End of प्रत्यक्षपरिच्छेद इत्यन्यलक्षणतमःपटलं निरस्य प्रत्यक्षमक्षिसममुज्ज्वलदर्शनाय । श्रीसिद्धसेनघटितस्फुटगीःशलाकां शुद्धामवाप्य विमलं विहितं मयैतत्॥ श्रीशान्त्याचार्यविरचितायां वार्तिकवृत्तौ प्रत्यक्षपरिच्छेदः । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 113 42 End: PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS [ एवं जिन ]वरकथितं स्त्रीष्वपि मोक्षं [ न साधु मन्यन्ते ] विध्यादिवादिनोपि हि तथापि मिथ्यादृशो अ ( ( ) हीकाः । एवं सप्तनय.. भवन् स्थित्युत्पादविनाश वस्तुविरहात् तान् सत्यतायाः क्षिपन् । बौद्धोद्वाधविबुद्धतीर्थिकमतप्रादुर्भवद्विक्रमो मल्लो मल्लमिवान्यवादद्मजयन्छ्रीम[ वादी विभुः ॥ ] [ प्रामाण्यल ]क्षणमवाप्यमनन्यनेयं सूत्राभिधानिगदितं विशदं यदर्थं । मोक्षार्थसाधनपदार्थविधौ पटीयः प्रोक्तं प्रमाणमिह शाब्दमिदं गरीयः ॥ [ इति श्रीशान्त्याचार्यविरचिता ]यां वार्त्तिकवृत्तावागमपरिच्छेदः ॥ ६ ॥ ५ ॥ अवज्ञानं हीने समधिकगुणे द्वेषमधिकं समाने स्पर्द्धा गुणवति गुणी यत्र कुरु [ ते । तदस्मिन् संसारे विरलसुजने ]पास्तविषया प्रतिष्ठाशा शास्त्रे तदपि न भवेत् कृत्यकरणं ॥ ५ ॥ ५४. (१) कथानककोश by विनयचन्द्र. प. १९३ ॐ नमो जिनाय । Beginning: वंदित्तु भुवना असुरामरमणुयवंदिए विहिणा । उसभाई तित्थयरे सासयसिव सोक्खसंपत्ते ॥ सुयदेवयं च सुयरयणभूसियं भवसत्तसुहजणणिं । संसारचारगविमोक्खण..... . णं चैव ॥ वोच्छामि लोगसमयाविरोहओ चरिय - कप्पियसमेयं । धम्मक्खाणयको मुद्धजणविबोहणट्ठाए || आसां व्याख्या-वंदित्वा भुवननाथान् भुवननाथश्च तद्धितकर्तृत्वेन असुरामरमनुज.. End: एतदेव समर्थयति । आसने ख[लु] मोक्खे भवठिइसमयंमि खिज्जमाणंमि । स वि बिगारा मंदा भवे ण (णु) जीवाणं । १४० ॥ Colophon: संवत् ११६६ अश्वयुज् कृष्णपक्षे... विनयचंद्रस्य कथानककोशः । (२) शब्दानुशासन by मलयगिरि (अपूर्ण, प्रकीर्णपत्राणि ) " Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGITAVI PADA ५५. षडशीतिवृत्ति by मलयगिरि. Beginning: प्रणम्य सिद्धिशास्तारं कर्मवैचित्र्यवेदिनं । जिनेशं विदधे वृत्ति षडशीतेर्यथागमं ॥१॥ End: बह्वर्थमल्पशब्द प्रकरणमेतत् विवृण्वता कुशलं । यदवापि मलयगिरिणा [ सिद्धिं तेनाभुतां लोकः ॥] Colophon: संवत् १२५८वर्षे पौपवदि ५ रवावोह श्रीअणहिलपाट[काभिधानराजधान्यां] राजश्रीभीमदेवराज्ये पडशीत(ति)कवृत्तिर्मलयचंद्रविरचिता ग्रं. २००० ॥७॥ ५६. (१) उपदेशमाला (प्रा०). १-४१ गा. ५४२ (२) धर्मोपदेशमाला (प्रा०). ४१-४८ गा. १०० (३) मूलशुद्धि (प्रा०). by प्रद्युम्नसूरि. ४८-६५ (४) दश वीशी भावना (प्रा०). ६५-८३ गा. २०५ (५) जीवदयाप्रकरण. ८३-९३ गा. ११६ (६) एकवीशठाणप्रकरण by सिद्धसेन. ९४-१०० गा. ६६ (७) चचार (अपभ्रंश) by सोलण. १००-१०३ गा. ३८ Beginning: जिण चउवीस नमेविणु सरसइ-पय पणमेवि । आराहउं गुरु अप्पणउ अविचलु भावु धरेइ(वि) ॥१॥ कर जोडिउ सोलणु भणइ जीविउ सफलु करेसु । तुम्हि अवधारह धंमियउ चच्चरि हउं गाएसु ॥२॥ End: डुंगरा अधो करि लग्गउ सीयलु वाउ । हूय पुण नव देहडी अंमुलि कियउ पसाउ ॥ ३८॥ (८) प्रतिक्रमणादि (प्रा०). १०३-११० (९) चतुर्विशतिजिनकल्याणक (अपभ्रंश). प. १-९ गा. १३ (१०) वइरसामिचरित्र (अपभ्रंश). . प. ९-३० (११) वीरजिनपारणक (अपभ्रंश). प. ३०-३५ गा. ४७ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Beginning: कन्नु धरेविणु एक्कमणि समभावे निसुणह रंगेण । वीरजिणिंदह पारणउं कासं विहिचिन्तउं सहजणं ॥ End: सुहु वारु म कावि तिन्निं वा सुंपियधीयधुरेण । धुरुहहु समु समाणिउ मुणिण मुणि ॥ ४७ ॥ (१२) ऋषभजिनस्तुति (अपभ्रंश-गद्य-सिद्धस्वरूपगर्भिता). ३५-३७ Beginning: पणमवि परमेसरु रिसहजिणेसरु वेयसिप्पाउप्पयगरु । चलणे निवडेविणु कर जोडेविणु मग्गं सासयसिद्धिवरु ॥ १॥ End: रिसहजिणेसरभवगहणि महु हिंडंती काणि । जेत्थु न जमणु नवि मरणु तहिं देसडइ पराणि ॥ जहिं तुहु अच्छइ रिसहजिण अप्पणु सुच्चरिएहि । उम्माहडा न फिट्टहिं जाव न तित्थु गएहि ।। (१३) नवकारकुलक (प्रा). प. ३७-३९ गा. २० Beginning: घणघायकम्ममुक्का अरहंता तह य सव्वसिद्धा य । End: इय एसो नवकारो भणिओ खयरिंदनमियचलणेहिं । जो पढइ भत्तिजुत्तो सो पावइ परमनिव्वाणं ॥ २० ॥ (१४) नवकारफलकुलक (अपभ्रंश). प. ३९-४२ गा. ३० Beginning: पणमेवि पाय परमेसराण उसभाइसयलतित्थेसराण । पणमउ पक्खालियपावमलु जण निसुणहु जिणनवकारफलु ॥ End: जो नरु निरु नवकारह रत्तउ पंचहिं समिइ[हिं] तिगुत्तिहिं गुत्तउ । पढइ गुणइ नवकारहं भत्तउ सो निव्वाणहं जाइ निरुत्तउ ॥ ३०॥ नवकारफलं समाप्तमिति । (१५) श्रावकविधि (प्रा०). [by धनपाल]. प. ४२-४४ गा. २० Beginning: जत्थ पुरे जिणभवणं etc, Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAvi PkpA (१६) ऋषभजिनस्तुति (अपभ्रंश). प. ४४-४७ गा. २६ Beginning: निसुणहु लोयवा(ध)वलहरु रिसहेसर घरवारि । रूपम जेथु अ टालीयउ सोवनु जेथुवगारु ॥ १ ॥ End:-- तं निपाइउ धंमविहि मेलाविउ संसारु । इंदु जोएवा आइयउ रिसहेसर घरवारि ।। २६ ॥ (१७) सीतासत (अपभ्रंश). प. ४७-४९ गा. २० Beginning: पूरवि दसरथु जाणिय ए केगइ वरु मागेइ । रज्जु भरह दियाविय ए. राव(म) लक्खण संजुत्त ।। End: पागि लागी मनाविय ए खमि महु एकु अवराहु । []मु राहवु एउ भणए ए लइले संजम भाउ । दिवि दुंदुहि वाजियए ए चलइ स सीतासत ॥ २० ॥ (१८) प्रवचनसंदोह (प्रा०). प. २७* (१९) कर्मस्तव (प्रा०). प. २७-३१ गा. ५२ (२०) कर्मविपाक by गर्गर्षि. प. ३१-४४ गा. १६६ (२१) अनुशासनफलादि ( ९ प्रा. कुलक). प. ८ गा. ७९ ५७. प्रव्रज्याविधानवृत्ति by प्रद्युम्नकवि. प. २१९, १९४२" End: इत्यस्यां विवृतौ श्रीमत्प्रद्युम्नस्य कवेः कृतौ । अपूरि दशमं द्वारं धर्मसर्वस्वदेशना ॥ २० ॥ श्रीदेवानंदशिष्यश्रीकनकप्रभशिष्यकः । समरादित्यसंक्षेपकर्ता वृत्तिमिमां व्यधात् ॥ २१ ॥ वादींद्रदेवसूरेवंशे श्रीमदनचंद्रगुरुशिष्यः । प्रथमादर्शदर्शयदेतां मुनिदेवमुनिदेवः ॥ २२ ॥ श्रीप्रव्रज्याभिधानस्य प्रकरणतिलकस्यास्य वृत्तिं विधाय प्राप्तं किंचिन्मया यत् सुकृतमकृत किं योगशुद्ध्या विशुद्धं । तेनायं भव्यलोको भवतु भवभयभ्रांतिशीतोपशांती धर्मे जैनेंद्रधर्मे विशदलविशदवांतवृत्तिप्रवृत्तिः ।। २३ ।। * प्रारम्भपत्राणि विशीर्णानि । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS किंच। आकिंचन्यवतापि याचकजनो येन स्वतुल्यः कृतः कारुण्यं विविधोपसर्गजनकेप्युच्चैर्दधे दुर्जने । एकेनाप्यखिला परीषहचमूः सोपद्रवा द्राविता श्रीसिद्धार्थनरेंद्रनंदनजिनोव्याद् वः स वीरनिधा ॥ २४ ॥ ५८. (१) सूक्ष्मार्थविचारसारविवरण (प्रा०). मू. जिनवल्लभगणि. . *प. ११९; १३°४२१" Beginning: जिणवल्लभगणिना(णा) संदब्भियस्स सुहुमवियारसारसंतियस्स दिवड्डसयगाहापमाणत्तेण य गू(क)ढदिवसयनामगस्स पगरणस्स विवरणं वन्नइस्सामि । (२) कथासंग्रह (अष्टादशपापस्थानके प्रा०). प. ८३ अपूर्ण Beginning: ___पाणिवहालियअदत्तगहणमेहुणपरिग्गहो etc. ५९. काव्यशिक्षा by विनयचंद्र. पि. १७७; १३३°४१३" Beginning: नत्वा श्रीभारती देवीं बप्पभट्टिगुरोगिरा। काव्यशिक्षा प्रवक्ष्यामि नानाशास्त्रनिरीक्षणात् ।। विद्वन्मानितया नैव नैव कीर्ति............ । किंतु बालावबोधाय शास्त्रादेनां लिखाम्यहम् ॥ २ ॥ भलेशब्दव्याख्या । आद्या शक्तिरसौ परा भगवती कुब्जाकृतिं बिभ्रती रेषा(खा)व्याज......द्वदतीनपदा व्योमान्तविद्योतिनी । प्रेक्ष्या पुस्तकमातृकादिलिखिता कार्येषु च श्रूयते . देवी ब्रह्ममयी पुनातु [ ] सिद्धिः भले विश्रुता ॥ सिद्धचक्रस्य प्रथमं, अकारादि हपर्यन्तम् । ओं नम इत्यादि । ओंकारश्चाथशब्दश्च द्वावेतौ ब्रह्मणः पुरा ॥ अरिहंता असरीरा आयरिया चेव उवज्झाया मुणिणो । * अन्तिमपत्रहीना। अन्त्यद्वादशपत्रहीना । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पढर . No I. Sanghavi Pada पढमक्खरनिप्पन्ना... ........................तं ध्यायन्ति योगिनः । कामदं मोक्षदं चैव ओंकाराय नमो नमः ॥ देवता हि त्रिधा...समुचिता नीतिशास्त्रे नृपस्य समुचितेष्टा सरस्वती। शब्दार्थों सगुणौ काव्यं तन्मुदे यशसेऽथवा । तञ्च [वृद्धोपदेशेभ्यः शिक्षाणां वशतो भवेत् ।। ताश्चेमाः-सहवासः कविवरैर्महाकाव्यस्य चर्चणम् । आर्यत्वं मुजने मैत्री सौमनस्यं सुवेषता ॥ १ ॥ नाटकाभिनयप्रेक्षाशृंगारालिंगता मतिः । कवीनां संगमे दानं गीतेनात्माधिवासनम् ॥ २॥ लोकाचारपरिज्ञानं विचित्राख्यायिकारसः । इतिहासानुसरणं चारुचित्रनिरीक्षणं ॥ ३ ॥ शिल्पिनां कौशलप्रेक्षा वीरयुद्धावलोकनं । शोक-प्रतापश्रवणं स्मशानारण्यदर्शनं ॥ ४ ॥ अतिनां पर्युपासा च नीडायतनिसेवनं । मधुरस्निग्धमशनं धातुसाम्यमशोकता ॥ ५ ॥ निशाशेषप्रबोधश्च प्रतिभा स्मृतिरादरः । सुखासनं दिवाशय्या शिशिरोष्णप्रतिक्रिया ॥६॥ स्वालोकः पत्रलेख्यादौ गोष्ठी-प्रहसनज्ञता । प्रेक्षा प्राणिस्वरूपाणां समुद्रादिस्थितीक्षणम् ॥ ७ ॥ रवींदुभारकलनं सर्वर्तुपरिभावनम् । जनसंघाभिगमनं देशभापोपजीवनम् ॥ ८ ॥ आधानोद्धरणप्रज्ञाकृतसंशो........... अट्ट(?)पूजा निजोत्कर्षे परोत्कर्षविमर्शनम् ॥ आत्मश्लाघा-स्तुतौ लज्जा परश्लाघा...... । परोन्मेषजिगीषा च व्युत्पत्त्यै सर्वशिष्यता ॥ ११ ॥ पाठस्यावसरज्ञता श्रोतृ......चित्ता... ...पदेशविशेषोक्तिरदीर्घरससंगतिः । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 48 PATTAN CATALOQUE OF MANUSCRIPTS वसूक्तप्रेषणं दिक्षु परसूक्तपरिग्रहः ॥ ...परित्यागः संतोषः सत्त्वशीलता ॥ १४ ॥ अयाचकत्वमप्राम्यं पदालापः कथास्वपि । ............त्पादने यत्नः साम्यं सर्वसुरस्तुतौ । पराक्षेपसहिष्णुत्वं गांभीर्य निर्विकारता ॥ १६ ॥ अविकत्थनता दैन्यं परेषां नष्टयोजनं । पराभिप्रायकथनं परसादृश्यभाषणं ॥ १७ ॥ सप्रसादपदन्यासः ससंवादार्थसंगतिः । निर्विरोधरसव्यक्तियुक्तिप्ससमासयोः ॥ १८ ॥ प्रारब्धकाव्यनिर्वाहप्रवाहचतुरो गिरां । शिक्षाणां शतमित्युक्तं रविप्रभगणेश्वरैः ॥ १९ ॥ कस्यापि जाति-द्रव्य-गुण-क्रियादेविद्यमानस्यार्थस्य गुंफः । तत्र जातियथा मालत्या वसन्ते, पुष्प-फलस्य चंदनद्रुमे । प. ५ षष्ठं गुरु विजानीयादेतदपि यथा श्रीपार्श्वचरित्रे 'इतश्च गुणधवलः' इति । प.६० चतुरशीतिर्देशाः। गौड-कन्यकुब्ज-कौलाक-कलिंग-अंग-वंग-कुरंगआचाल्य(?)-कामाक्ष-ओडू-पुंड्र-उडीश-मालव-लोहित-पश्चिम-काछ-वालभसौराष्ट्र-कुंकण-लाट-श्रीमाल–अर्बुद-मेदपाट-मरुवरेंद्र-यमुना-गंगातीर-अंतर्वेदि -मागध-मध्यकुरु-डाहल-कामरूप-कांची-अवंती-पापांतक-किरात-सौवीरऔसीर-वाकाण-उत्तरापथ-गूर्जर-सिंधु-केकाण-नेपाल-टक्क-तुरष्क-ताइकारबर्बर-जर्जर-कीर-काश्मीर-हिमालय-लोहपुरुष-श्रीराष्ट्र-दक्षिणापथ-सिंघलचौड-कौशल-पांडु-अंध्र-विंध्य-कर्णाट-द्रविड-श्रीपर्वत-विदर्भ-धाराउर-लाजी -तापी-महाराष्ट्र-आभीर-नर्मदातट-दी(द्वी)पदेशाश्चेति । ___ प. ६१ हीरुयाणी इत्यादि षटुं । पत्तनादि द्वादशकं । मातरादि चतुर्विंशतिः। वडू इत्यादि षट्त्रिंशत् । भालिज्जादि चत्वारिंशत् । हर्षपुरादि द्विपञ्चाशत् । श्रीनारप्रभृति षट्पंचाशत् । जंबूसरप्रभृति षष्टिः । प(व?)डवाणप्रभृति षट्सप्ततिः । दर्भावतीप्रभृति चतुरशीतिः । पेटलापद्रप्रभृति चतुरुत्तरं शतं । ष(ख)दिरालुकाप्रभृति दशोत्तरं शतं । भोगपुरप्रभृति षोडशोत्तरं शतं । धवलक्ककप्रभृति पंचशतानि । माहडवासाचं अर्धाष्टमशतं । कौंकण[प्रभृति ] चतुर्दशाधिकानि चतुर्दशशतानि । चंद्रावतीप्रभृति अष्टादश शतानि । द्वाविंशतिशतानि महीतदं। नव सहस्राणि Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. Sanghvi PĀDĀ सुराष्ट्रासु । एकविंशतिः सहस्राणि लाटदेशः । सप्ततिः सहस्राणि गूर्जरो देशः । परितश्च । अहट्ट लक्षाणि ब्राह्मणपाटकं । नव लक्षाणि डाहलाः । अष्टादश लक्षाणि द्विनवत्यधिकानि मालवो देशः । षट्त्रिंशल्लक्षाणि कन्यकुब्जः । अनंतं उत्तरापथ दक्षिणापथं चेति । प. ७१ उद्दामद्र विडद्रुमैकपरशु टाटवीपावको ___ वल्लवंगभुजंगराजगरुडो गौडाब्धिकुंभोद्भवः । श्रीमद्गुर्जरराजकुंजरहरिः कीरांधकारार्यमा कांबोजांबुजचंद्रमा विजयते भोजो दिशां जित्वरः । वौ (चौ)डः क्रोडं पयोधेर्विशति निविशते रंध्रमंध्रो गिरीणां कर्णाटः पट्टबंधं न भजति भजते गूर्जरो निर्झराणि । चेदिलेलीयते स्म क्षितितलतिलकः कन्यकुब्जोऽथ कुजः भोजस्त्व(ज! त्व)त्तंत्रमात्रप्रसरभरभयव्याकुलो राजलोकः ॥ कोणे कोंकणकः कपाटनिकटे लाटः कलिंगोंगणे द्वारे गूर्जरनूतनो मम पिताप्यत्रोपितः स्थंडिले । इत्थं नाथ ! विवर्धते निशि मिथः प्रत्यर्थिनां प्रस्त(स्व)रः ॥ ५. १०५ कविप्रौढोक्तिमात्रनिःपन्नोपमा यथा । यथा घंटामाघः, छत्रभारविः, दीपिकाकालिदासः, यमुना त्रिविक्रमः, धनपालारघट्ट इत्यादि । प. १०६ इति लोकव्यवहारं गुरुपदविनयादवाप्य कवि[:] सारं । नवनवभणितिश्रव्यं करोति सुतरां क्षणात् काव्यम् ॥ इत्याचार्यश्रीविनयचंद्रविरचितायां काव्यशिक्षायां विनयांकायां लोककौशल्यो नाम तृतीयः परिच्छेदः। प. १२९ मंत्रे सारस्वतं सारमुपमा स्यादलंकृतौ । भोज्ये दध्योदनं सारं सर्वर्तुषु च माधव ! ॥ सद्ग्रंथनिर्मिती व्यास-वाल्मीकि-श्रीत्रिविक्रमाः । धनंजयः कालिदासो माघो भारविरित्यपि ॥ बाणो गुणाढ्योभिनंदिः(दः) श्रीहर्षो भोजभूपतिः । सुबंधुर्धनपालश्च वील्हणो राजशेष(ख)रः ॥ अथ जैनाः । भगवान् गौतमस्वामी श्रीशय्यंभवसूरिराद । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 50 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS भद्रबाहुर्हरिभद्रः शीलांकः शाकटायनः ॥ उमास्वातिः प्र........... Fol. 130 missing. ६०. उपमितिभवप्रपंचाकथासारोद्धार (श्लोकबद्ध) by देवेंद्र. in good state of preservation. प. २९३; १५३४२४" Donor's prasasti:- शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः । श्रीमंतस्ते सतां संतु तीर्थेशाः स्वस्तिकारिणः । अपारभवकांतारतारित.........तवः ॥ १ ॥ पल्लीवाल इति ख्यातो वंशः पर्वोदितोदितः। सोस्ति स्वस्तिकरो धाग्यां यत्र कीर्तिय॑जायते ॥ २ ॥ पु............वित्रोभूद् वंशे मुक्तोप(क्ताफ)लोज्वलः । वीकलाख्य इति श्रेष्ठी सतां हृदि गुणैः स्थितः ॥ ३ ॥ तत्पनी रत्नदेवीति पवित्रा पुण्यशालिनी । गुणमाणिक्यमंजूषा तुषारातिशीतला ॥ ४ ॥ पुत्री तयोः सूल्हणिनामधेया सुश्राविका शीलवती बभूव । या देवपूजानिरता गुरूणां पादांबुजासेवनराजहंसी ॥ ५ ॥ पुरा पवित्रस्तत्रासीद् वंशे मुक्ताफलोज्वलः । योगदेव इति श्रेष्ठी सतां हृदि गुणैः स्थितः ॥ ६ ॥ आमदेवश्च वीरश्च तनयौ सनयौ ततः । कर्पद्या(पा)माक-साढाका वीरपुत्रास्त्रयोभवन् ॥ ७ ॥ सा[ढाक]स्य ततो जज्ञे पुत्रश्वांत्रकुमारकः । परोपकार-दाक्षिण्य-गांभीर्यविधिसेवधिः ॥ ८ ॥ जयंतीत्याख्यया जज्ञे गेहिनी तस्य सत्यवाक् । तत्सुतः पासडो जज्ञे धांइ रूपी सुते तथा ॥ ९॥ ततः सत्पुण्यपात्रस्य पवित्रस्य महात्मनः । सुधियः पासडस्याभूत् पत्नी पत्तेरिति... ॥ १०॥ तस्याः पुत्रास्त्रयो जाताः पुमर्था इव जंगमाः । जगत्सिंहो वासिंहः तथा मदनसिंहकः ॥ ११ ॥ माणिर्जगत्सिंह ......द्वर्गधारिणी । सुहणिर्वजसिंहस्य बभूव प्रेयसी ततः ॥ १२ ॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAVI PADA श्रीपूज्योदयचंद्राख्यपट्टस्योद्योतकारिणां । श्रीदेवसूरिणा............मुशेन भक्तिभाक् ॥ १३ ॥ सहूणिश्राविका सेयं कुर्वाणा धर्मसंग्रह। श्रीजयदेवसूरीणां विशेषाद् भक्तिशालिनी ॥ १४ ॥ उपमितिभवप्रपंचस्योद्धारस्यात्र पुस्तिकामेतां । सा पातूस्वश्वश्रूश्रेयोर्थ लेखयामास ॥ १५ ॥ यावदुदयाद्रिवेद्यां दिवसकरो भानुपावकसमक्षं । । परिणयति दिकुमारीनंदतु सत्पुस्तकस्तावत् ॥ १६ ॥ शुभमन्तु श्रीश्रमणसंघस्य मंगलं महाश्रीरिति । ६१. विवेकविलास by जिनदत्तसूरि. प. १६३'; ९x१३" ६२. (१) आवश्यकनियुक्ति hy भद्रबाहु. प. ३-१७५ Post-Colophon:संवत् नृपविक्रम १२९७ वर्षे श्रावणशुदि ७ भौमे अ...... (२) पश्चाशक (प्रा०). by हरिभद्रसूरि.' प. २६-७९ (अ) जिनभवन गा. ५० २६-२८ (आ) पइट्टाविही २९-३२ (इ) जत्ताविहीपगरण ३२-३८ (ई) समणोवासगपडिमा ३८-४२ (उ) साधुधर्म ४२-४६ (ऊ) सामाचारी ४६-५० (अ) पिंडविधान ५०-५४ (a) शीलाङ्गविधि ५४-५९ (ल) आलोचनाविधि ५९-६३ (ल) प्रायश्चित्त (ए) स्थितास्थितविधिकल्प ६७-७१ (ऐ) साधुप्रतिमाप्रकरण ७१-७५ (ओ) तपोविधान ७५-७९ ६३-६७४ . २ प्राक् पञ्चविंशतिः पत्राणां न। ३ ४॥ तमं पत्रं नास्ति । १ अन्तिमपत्रहीना। ४ ६४-६६ तमपत्रन्यूना। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (३) उपदेशपद [ by हरिभद्रसूरि]. प. ७९-१६४ ६३. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति (तृतीयखंड ). प. २९३, १४०x१३" Post-Colophon: संवत् १३०६वर्षे माहसु. १ गुरौ श्रीमधुमत्यां श्रीदेवेंद्रसूरिप्रभुश्रीविजयचंद्रसूरीणां सद्देशनाश्रवणतः संजातशुद्धसंवेगः श्रीश्रमणसंघस्य वाचनार्थ श्रीवाग्देवताभांडागारकरणाय धवल्लककवास्तव्य ठ० साहर द्वीपवास्तव्य ठ० मदन ठ० आल्हणसीह ठ० जयतसीह ठ० जयता ठ० राजा ठ० पदमसीह श्रीमधुमतीवास्तव्य महं जिणदेव भां० सूमा व्यव० नारायण व्य० नागपाल सौ० वयरसीह सौ० रतन ठ० रतन भां० जसहड वसा धीणा ठ० लेख० अरिसीह भां० आजड टिवाणकवास्तव्य श्रे० दो० सिरिकुमार ठ० आंवड ठ० पाल्हण तथा श्रीदेवपत्तनवास्तव्य सौ० आल्हण ठ० आणंदप्रभृतिसमस्तश्रावकैर्मिलित्वा मोक्षफलावाप्तये स्वपरोपकाराय श्रीसर्वज्ञागमसूत्र तथा चूर्णि तथा नियुक्ति तथा भाष्य टिप्पनक तथा चरित्र प्रकरण......थ सूत्रवृत्ति वसुदेवहिंडिप्रभृतिसमस्तकथा-लक्षण-साहित्य-तर्कादिसमस्तग्रंथलेखनाय प्रारब्धपुस्तकानां मध्ये प्रव. चनसारोद्धारवृत्तितृतीयखंडपुस्तकं लिखितं ठ० अरिसिंहेन । ज्ञानदानेन जानाति जंतुः स्वस्य हिताहितं । वेत्ति जीवादितत्त्वानि विरतिं च समनुते ॥ १ ॥ ज्ञानदानात् त्ववाप्नोति केवलज्ञानमुज्वलम् ।। अनुगृह्याखिलं लोकं लोकाग्रमधिगच्छति ॥ २॥ न ज्ञानदानाधिकमत्र किंचिद् दानं भवेद् विश्वकृतोपकारं । ततो विध्याद् विबुधः स्वशक्त्या विज्ञानदाने सततप्रवृत्तिं ॥ ३ ॥ ६४. उपदेशमालाविवरण by सिद्धर्षि. ३६०; १४०४२" Beginning: हेयोपादेयार्थोपदेशभाभिः प्रबोधितजनाब्जं । जिनवरदिनकरमवदलितकुमततिमिरं नमस्कृत्य ॥ १ ॥ गीर्देवताप्रसादितधाट्यान्मंदतरजंतुबोधाय । जडबुद्धिरपि विधाये विवरणमुपदेशमालायाः ॥ २ ॥ End: उपदेशमालाविवरणं समाप्तमिति । कृतिरियं परमार्थतो भगवद्गीर्देवतायाः [अभिहित]मात्रतया तु दुर्गस्वामिगुरुशिष्यसद्ध(इ)र्षिचरणरेणोः सिद्धसाधोरिति । एकैकाक्षरगणनया व्यवस्थापितं सर्वग्रंथानं ४१६० । संवत् १२३६...... १ गा. १०२० पर्यन्तम् । अन्तिम पत्रं नास्ति । २ अतिशयजीर्णा प्रतिः । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAvi PĀDĀ ६५. (१) योगशास्त्र ( ४ प्रकाश ). (२) उपदेशमाला by मलधारिहेमसूरि. Beginning: End:--- ५०५ । श्रीमलधारिहेमसूरिविरचितोपदेशमाला समाप्ता । Colophon:-- प. ७२ ६६. (१) संग्रहणी ( प्रा० ) . ४०२ गा. (२) कर्मस्तव (३) कर्मविपाक ५७ गा. १६६ गा. १ ॥ सिद्धमकम्ममविग्गहमकलंकमसंगमक्खयं धीरं । पणमाइ (? मिय) सुगइपश्ञ्चल परमत्थपयासगं वीरं ॥ जिणवयणकाणणार चिणिऊण सुवण्णमसरिसगुणहूं । उवसमालमेयं रएमि वरकुसुममालं व ॥ २ ॥ ( ४ ) बंधवामित्व ( शितक) 52 gathas only in the beginning. Beginning:— 1 सं. १३२९ वर्षे अश्विनशुदि १२ बुधे अह युवराजवाट के लिखिता । शिवमस्तु सकलजगतः etc. प. ५२: ५२-६० ६० - ९० ९०-९१ संकेतः अरहंते भगवंते अणुत्तरपरकमे पणमिऊणं । बंधसयगे निबद्धं संग मिणमो पवक्खामि ॥ १ ॥ ९३४१३ The left portion of the first 1-3 folia is gone. Beginning: [ वर्णना ]विषयीचक्रे यत्र वाणीगतध्वनिः ॥ End: १ - १०३ ६७. काव्यप्रकाशसंकेत (उ. ६-१० ) 1.y माणिक्यचंद्र. प. १९४; १३”×१३” गुणान [पेक्षणी] यस्मिन्नर्थालंकारतत्परा । प्रौढापि (वि) जायते बुद्धि: संकेत: सोयमद्भुतः ॥ नानाग्रंथसमुद्धृतैरसकलैरप्येष संसूचितः संकेतो वैर्भविष्यति नृणां शंके विशंकं तमः । १०×११" 53 इत्याचार्यश्री माणिक्यचंद्रविरचिते काव्यप्रकाशसंकेते काव्य प्रकाशदशमोल्लास ः समाप्तः । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 54 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS निष्पन्ना ननु जीर्णशीर्णवसनै रंध्रविच्छित्तिभिः प्रालेयप्रथितां न मंथति कथं कथा व्यथां सर्वथा ॥ २ ॥ श्रीशीलभद्रसूरीणां पट्टे माणिक्यसंनिभाः । परमज्योतिपो जाता भरतेश्वरसूरयः ॥ ३ ॥ भरतेन परित्यक्तोस्मीति कोपं वह निव ।। शांतो रसस्तदधिकं भेजे श्रीभरतेश्वरं ॥ ४ ॥ पट्टं तदन्वलंचक्रे वैरस्वामी मुनीश्वरः । अनुप्रद्योतनोद्योतं दिवमिंदुमरीचिवत् ॥ ५ ॥ वांछन् सिद्धिवर्धू हसन सितरुचिं कीर्त्या रतिं रोदयन् पंचेपोर्मथनाद् दहन भववनं क्रामन् कषायद्विषः । त्रस्यन नागमलंघनाद् घनशकृत्()भस्त्रास्त्यजन् योषितो बिभ्राणः शममद्भुतं नवरसी यस्तुल्य[मा]स्फोरयत् ॥ ६ ॥ पटतर्कीललनाविलासवसतिः स्फूर्जत्तपोहर्पति___ स्तत्पट्टोदयचंद्रमाः समजनि श्रीनेमिचंद्रः प्रभुः । निःसामान्यगुणैर्भुवि प्रसृमरैः प्रालेयशैलोज्वलै र्यश्चके कणभोजिनो मुनिपतेर्व्यर्थ मतं सर्वतः ॥ ७ ॥ यत्र प्रातिभशालिनामपि नृणां संचारमातन्वतां संदोहैः प्रतिभाकिरीटपटली सद्यः समुत्तार्यते । नीरंधं विषमप्रमेयविटपिवातावकीर्णे सदा तस्मिंस्तर्कपथे यथेष्टगमना जज्ञे यदीया मतिः ॥ ८ ॥ यस्मात् प्राप्य पृथुप्रसादविशद विद्योपदेशात्मिकां पत्रं(त्रीं) मुक्तिकरीमतीव जडतावस्त्वन्विता मन्मतिः । विक्षिप्य भ्रमशौक्तिकान् ज्वलयतो लब्धा(ब्ध्वा)श्रयं मानसे मध्येवाङ्मयपत्तनं प्रविशति द्वारि स्थिता तत्क्षणात् ॥ ९॥ मदमदनतुषारक्षेपपूषा विभूषा जिनवदनसरोजावासिवागीश्वरायाः । द्युमुखमखिलतर्कग्रंथपंकेरुहाणां तदनु समजनि श्रीसागरेंदुर्मुनींद्रः ॥ १० ॥ माणिक्यचंद्राचार्येण तदंघ्रिकमलालिना।। काव्यप्रकाशे संकेतः स्वान्योपकृतये कृतः ॥ ११ ॥ रस-वक्त्र-ग्रहाधीशवत्सरे मासि माधवे । काव्ये काव्यप्रकाशस्य संकेतोयं समर्थितः ॥ १२ ॥ सर्वप्रथ ३२४४ काव्यप्रकाशसंकेतः श्रीमाणिक्यचंद्रसूरिकृतः ॥ ७ ॥ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PADA ६८. आवश्यकनिर्युक्ति by भद्रबाहु. End: गाथा २५०० आवश्यकं समानं । प. १-५९ Colophon: संवत् १९९१ फाल्गुनशुदि १ शनावोह श्रीमद्णहिलपाटके समस्तराजावली.महाराजाधिराजपरमेश्वरसिद्धचक्रवर्ति - श्रीमज्जयसिंह देव कल्याणविजयराज्ये तस्मिन् काले प्रवर्त्तमाने पुस्तिका लिखितमिति । मंगलं महाश्री : ..... राज.......... 1 श्रीप्राग्वाटज्ञातीयठ० पूनड तद्भार्या तेजू तत्पुत्र मंडलि... र्थं नयार्जितधनेन श्री आवश्यक पुस्तिका गृहीत्वा ज्ञानभांडागारे स्थापितेति ॥ ६९. पिंडविशुद्धिवृत्ति by यशोदेव. प. २१९ ७०. (१) तर्कभाषा by मोक्षाकरगुप्त ५-५६; (The fifth leaf is damaged). Beginning:— तर्कभाषामिमां कृत्वा पुण्यमासादि यन्मया । तेन पुण्येन लोकोयं बुद्धत्वमधिगच्छतु ॥ 55 Colophon: इति श्रीमद्राजजगद्दलविहारीय महायति भिक्षुमोक्षाकरगुप्तविरचितायां [तर्कभाषायां परार्था]नुमानपरिच्छेदः समाप्तः । १२३ " ×१३ १३३"×२" प्रत्यक्षपरिच्छेद ends at fol. 15. अनुमानपरिच्छेद continues to the end. ग्रंथाप्र ८४०. अलंकारकार and न्यायवादि are among the authorities quoted in this work. (२) न्यायकलिका by जयन्त. प. ५७-८८ इत्येतदप्रतानितनिज दश (र्श) नमकृत परमताक्षेप । पोsपदार्थतत्त्वं बालव्युत्पत्तये कथिनं ॥ नमः स्वमायामाहात्म्यदर्शिता ने कमूर्तये । अज्ञात परमार्थैकस्वरूपाय पिनाकिने ।! प्रमाण - प्रमेय - संशय-प्रयोजन - दृष्टांत - सिद्धांतावयव - तर्क निर्णय-वाद- जल्पवितंडा - हेत्वाभास-छल - जाति - निग्रहस्थानानां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसाधिगमः । तत्र प्रमीयतेऽनेनेति प्रमाणं । प्रमीयत इति प्रमा प्रमितिरुपलब्धिर्विज्ञानं जन्यत इत्यर्थः । End: Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS अज्ञा (जा) तरसानला (सनिष्यं) दमनभिव्यक्तसौ चत (रभं) । न्यायकस्य कलिकामात्रं जयंतः पय [र्य ] दीदि (दृ) शत् ॥ न्यायकलिका समाप्ता । End:-- (३) योग संग्रह सार. Beginning: प. ८९-१०१ श्रीनंदिनं गुरुं नत्वा नित्यानंदैककारणं । योगसंग्रहसारस्य प्रक्रिया रच्यते मया ॥ १ ॥ भद्रं भूरिभवांभोधिशोषिणे दोषमोषिणे । जिनेशशासनायालं कुशासनविशासिने ॥ २ ॥ संयमोद्दाममाराम श्रीगुरोः पादपंकजं । वंदे देवेंद्र वृंदोद्यन्मौलिमालाकरार्चितं ॥ ३ ॥ योगींद्रो रुद्रयोगान्निर्दग्धकर्मेधनों गिनां । विश्वज्ञो विश्वदृश्वास्तु मंगलं मंगलार्थिनां ॥ ४ ॥ सद्वाग्वृत्तपदन्यासवर्णालंकारहारिणी । सन्मार्गांगी सदैवास्तु प्रसन्ना नः सरस्वती ॥ ५ ॥ यस्माद् ध्यानं बुधैरिष्टं साक्षान्मोक्षस्य साधनं । तो मोक्षार्थी भवेद् यस्तदेवास्माभिरुद्यते ॥ ६ ॥ विपुलवाङायवारिधितत्त्व सन्मणिमयूख लवांशकलाकृते । स्मरणमात्रमिदं गदितं मया किमिह दृष्टमहो ! न महात्मभिः ||५७|| नानोपदेशकः सोयं सरस्वत्या मदर्पितः । भव्यैरादीयमानपि सर्वदास्त्वक्षयस्थितिः ॥ ५८ ॥ श्रीनं दिवत्सः श्रीनंदीगुरुपादाब्जपट्चरणः । श्रीगुरुदासो नंद्यान्मुग्धमतिः श्रीसरस्वतीसूनुः ॥ ५९ ॥ सिद्धाधिष्ठितनिर्वाणपुरगोपुरवेस (श) नी । भव्यानामम (मारु) रुक्षूणां लीलया प्रगुणाप्यणुः ॥ ६० ॥ योगसंग्रहसा हसूत्रपातानुसारतः । सच्छ्रीगुरूपदेशेन निबद्धाध्यात्मपद्धतिः ॥ ६१ ॥ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAvi PinA 57 अध्यात्मपद्धतिरियं विविधं निबद्धा __श्रीनंधनंदिगुरुगा विशदा विशाला । आसन्नभव्यवृषभैरुषिता स्थिरास्थै. राचंद्र-तारमभिनंदतु वंद्यमाना ।। इति श्रीनंदिगुरुविरचितं योगसंग्रहसूत्रं समाप्तमिति । (४) नवतत्त्वभाष्य by अभयदेवसरि. प. १०१-११४ End: इय पुत्वसूरिविरइयसम्मत्तपरूवणत्थगाहाणं । विवरणमेयं विहियं मंदमईणं विबोहत्थं ॥ १५२ ॥ नवतत्त्वप्ररूपणाप्रकरणं समाप्तमिति । (५) प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार by देवाचार्य. प. ११५-१३३ (६) न्यायावतारसूत्र by सिद्धसेन. प. १३३-१३४ (७) ज्ञानार्णव by शुभचंद्र. प. १३५-१४८ (८) न्यायकन्दलीटीका. प. १४९-१६९ (श्रुटित) End: भट्टश्रीश्रीधरकृतौ पदार्थप्रवेश-न्यायकंदलीटीकायां गुणपदार्थः समाप्त इति । मंगलं महाश्रीः । मं. वीरप्रभस्य । (९) न्यायावतारवृत्तिटिप्पन [ by देवभद्र ]. Beginning: नत्वा श्रीवीरमेकांतध्वांतविध्वंसभास्करं । वृत्तौ न्यायावतारस्य स्मृत्यै किमपि टिप्यते ।। ७१. (१) सुरसुंदरीकथा (प्रा०). प. २०० । त्रुटित १४३"४२ (२) सामाचारी (३) प्रतिष्ठाप्रभृति प. १११ ७२. धातुपारायण (प्रथमखंड ) by हेमचन्द्र. प. १७९; १५०x१३" ७३. सिद्धहेमबृहद्वृत्ति( अध्याय ६-७). प. ३४८; १५३०४२१ ७४. कातंत्रवृत्तिपञ्जिका (पा. ६-८) by त्रिलोचनदास. १८८ End:--- इति त्रिलोचनदासकृतायां कातंत्रवृत्तिपत्रिकायां आख्याते अष्टमः पादः । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pattan CATALOGUE OF Manuscripts ७५. शिशुपालवध(माघ)टीका (संदेहविषौपधि) by वल्लभदेव. प. ३५-७९+४९-१७९; १७३"४१३" ७६. (१) भवभावना by हेमचन्द्र [मलधारी ]. प. ६९ Colophon:संवत् ११९१ वैशापसुदि ४ शुक्रे । मंगलं महाश्रीः ।। (२) पंचाशक (१९). प. ६९-१५८ Colophon:संवत् ११९१ वैशाप ............ (३) पाक्षिकसूत्र (त्रुटित). (४) धर्मोत्तरसूत्र by धर्मकीर्ति. (५) लघुधर्मोत्तरटीका. प. ११४ End:-. कतिपयपदवस्तुव्याख्यया यन्मयाप्तं कुशलममलमिंदोरंशुवन्यायबिंदोः। पदमजरमवाप्य ज्ञानधर्मोत्तरं यज् जगदुपकृतिमात्रव्याक(पृ)तः स्यामतोहं । सहस्रमेकं श्लोकानां तथा शतचतुष्टयं । सप्तसप्ततिसंयुक्तं निपुणं परिपिंडितं ॥ लघुधर्मोत्तरटीका समाप्ता । शुभं भवतु । भुवनकीर्तिना धर्मोत्तरटीका लिखिता । सं० १२७४ लिखितं ॥ ७७. (१) साधुप्रतिक्रमणसूत्र. (२) कर्मस्तव. (३) कर्मविपाक by गर्ग. जीर्ण, त्रुटित (४) शतक. प. ६१-९०; १४३"४१३" (५) सित्तरी. (६) सूक्ष्मविचारसारप्रकरण. प. ९०-१०१ गा. १५३ (७) आगमिकवस्तुप्रकरण. प. १०१-१०७ गा. ८६ (८) जीवदयाप्रकरण. प. १०७-११४ गा. १११ (९) विवेकमंजरी. प. ११४-१२५ गा. १४४ (१०) पवयणसंदोह. प. १२५-१४६ (११) योगशास्त्र (प्रकाश १-४). प. १४६-१७५ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८. No I. SANaHvī Pāyā प. १७६ - १८९ प. १५२; १०×११" प. १-६ प. ६-११ (१२) सम्यक्त्वप्रकरण (प्रा० ). प्रकरण संग्रह (त्रुटि). (१) चैत्यवन्दनाभाष्य. (२) प्रत्याख्यानभाष्य. (३) श्रावकदिनकृत्य. (४) आराधना (बृहती प्रा० गु० ). Colophon: संवत् १३६९ वर्षे श्रीपत्तने लिखितमस्ति । (५) प्रकीर्णस्तोत्र. (६) संग्रहणी by श्रीचन्द्रसूरि . (७) वंदनाभाष्य ( प्रा० ). (८) मालाआदिनाम (2) (९) शत्रुंजयकल्प. (१०) सुगिरिह (?) (११) गिरनारकल्प. प. ११-४६ प. ४६-६६ गा. २४ गा. ३९ गा. १६ गा. ३२ (१२) शाश्वतचैत्य. (१३) नवकारस्तोत्र. (१४) कालसत्तरी. गा. ५० (१५) पंचाशिका. (१६) अजितशांति. गा. ४२ (१७) सुयधम्म. गा. १० (१८) समवसरण. गा. २४ गा. २० (१९) कल्याणक (अपभ्रंश). ७९. काव्यप्रकाशसंकेत ( १-६ उल्लास ) by माणिक्यचन्द्रसूरि. प. १६०; १५३ × ११ ग्रं० १५६३ ८०. सिद्धमलघुवृत्ति. (आख्यात and कृदन्त) प. २०४; १२ ×१३" ८९. संग्रहणीवृत्ति by मलयगिरि, प. ३०५; १५३”×१३” End: गा. ३२ गा. ३४ गा. ७४ 59. संग्रहणेर्विवृतिमिमां कृत्वा यदवापि मलयगिरिणेह । कुशलं तेन लभतां सत्त्वाः सर्वेपि जिनवचनं ॥ इति मलयगिरिविरचिता संग्रहणीटीका । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 60 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS ८२. (१) कुशलानुबंधि अध्ययन. (२) आउरपच्चक्खाण (प्रा० ). (३) भक्तपरिज्ञा ( प्रा० ). (४) संस्तारकप्रकीर्ण ( प्रा० ). (९) महापच्चक्खाण (प्रा). (१०) वीरस्तव ( प्रा० ). (११) अजीवकल्प (प्रा० ). ६२ । गा. गा. ९४ गा. १७१ (५) तंडुलवेयालिय (प्रा० ). (६) चंदाविज्झय (प्रा० ). (७) देवेंद्रस्तव (प्रा० ). (८) गणिविद्याप्रकीर्ण (प्रा० ). गा. (१२) गच्छाचार (प्रा० ). (१३) मरणसमाधि ( प्रा० ). गा. १२२ गा. ३४५ गा. १७४ गा. ३०० ८५ गा. १४३ गा. ४३ गा. ४४ गा. १३८ गा. ६५२/ अतिजीर्ण त्रुटित प. १३०, १२”×२" Colophon: एवं गाथा २३६२ | श्लोक २९५२ लिखामणी सहस्रं प्रति ६४ एवं द्र. ११॥ १६० १ पाना गृहीः । ८३. उत्तराध्ययन (प्रा० ). प. १०१* Colophon: संवत् १ [१] ५९ अश्विनशुदि ५ शुक्रे लिखितं । ८४. देसीनाममाला by हेमाचार्य. Colophon: संवत् १२९८ वर्षे अश्विनशुदि १० खौ अह भृगुकच्छे महाराणकीवीसलदेव ...... महं. श्रीतेजपालसुत महंश्री लूसीहप्रभृति पंचकुलप्रतिपत्तौ आचार्यश्रीजिणदेवसूरिकृते देसीनाममाला लिखापिता । कायस्थज्ञातीयमहं . जयंतसीह... मु... प. ११९; १०×१३” प. २१०; १०”×२” प. १-४४ ८५. प्रकरणसग्रह. (१) उपदेशमाला (प्रा० ). (२) धर्मोपदेशमाला ( प्रा० ). (३) पंचकल्याणक (४) धर्म [कुलक] (अपभ्रंश). (५) गौतमपृच्छा. * मध्ये कतिचित् पत्राणि न सन्ति । ४५ तमं पत्रं नास्ति । ७९, ८० पत्रे न स्तः । ४४-६८ गा. १०० ६८-८१÷ ८१-८५ गा. ५५ ८५-८९ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGIHAVI PADA (६) मूलशुद्धि (ठाणगपयरण ). प. ९०-१५६ . (७) शालिभद्रचरित्र (प्रा०). *प. १५७-१७३ End: इय परमपवित्तं सालिभदस्स एवं(य) चरियमयविसिढे जे पढंती मण(णु)स्सा । तह य अणुगुणंती जे य वक्खाणयंति ___नर-सुरवरसोक्खं भुंजिउं जंति मोक्खं ॥ (८) सुबाहुचरिय (प्रा०). प. १७४-१९८ Beginning: अत्थेत्थ भरहवासंमि नयरं नयराण उत्तमं । हत्थिसीसं तु नामेणं धण-व(ध)नसमाउलं ॥ १ ॥ End: एयं सुबाहुचरियं गुणसुट्टिएण वीरेण सिहं सुणेवि तुज्झ । पत्तेसु दाणं विहिणा विवेह लहेह जि(ज) मोक्खमणंतसोक्त्रं ॥ २१५ ॥ (९) दूसमगंडिया. प. १९८-२०७ (१०) जंबूद्वीपसंग्रहणी (प्रा.) by हरिभद्रसूरि. प. २०७-२१० ८६. (१) कथासंग्रह. ___प. २-१५८ (त्रुटित अपूर्ण) (अ) दृढप्रहारिकथा (प्रा०). (आ) खंधककथा (). (इ) आर्यमंगुकथा (,). (ई) सागरचंद्रकथा (,). (उ) दत्तकथानक (सं०). (ऊ) वसुतेजःकथा (,). (a) अमृताष्टमीकथा (,). (a) नागकेतुकथा (,). (२) मूलशुद्ध्यादि (त्रुटित प्रकीर्ण ). (३) अलंकारग्रंथ. प. १८-१२९ incomplete. विषयापह्नवेऽपहुतिः वस्त्वन्तरप्रतीतिरित्येव प्रक्रान्तानपह्नवे वैधम्र्येणेदमुच्यते । आरोपप्रस्तावादारोपविषयापहृतौ आरोप्यप्रतीतावपळुताख्योयमलंकारः । तस्य च त्रयी बंधछाया etc. * प्रारम्भः प्रायः पञ्चविंशश्लोकतः । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS ८७. (१) ज्योतिष्करंडकटीका by मलयगिरि प. ९०९ - २९३ * (२) श्रावक सामाचारीव्याख्यान. प. १ - ९७ अपूर्ण Beginning: 62 येन ध्यानसमन्वितेन तपसा निर्धूय कर्माशुभं मूर्तीमूर्त पदार्थ राशिविषयं संप्राप्य सत्केवलं । भव्यानां करुणापरेण गदितो निर्वाणमार्गः परः तं वीरं मुनिसत्तमं गतमलं मूर्ध्ना नमस्याम्यहं ॥ १ ॥ (३) कथानककोश ( प्रा. सव्याख्य ). प. २४६ . अपूर्ण ८८. सामाचारी. प. २ - ९० ( शिष्टा ) ८९. (१) ऋषभचरित्र ( धर्मोपदेशशत ) by धर्मघोष. प. २८; Incomplete. १५ " ×१३ " 3 End:--~ इरिसहनाहचरियं वमित्तं कित्तियं सबहुमागं । सिरिभुवणतुंगठाणं भवाणं देउ निवाणं ॥ ३२२ ॥ चत्तारियद्वयरा सिलोगमाणेण णि (इ) मंमि चरियंमि । सतरस सवित्तातिसई गाहामाणेण निद्दिहं ॥ ३२३ ॥ श्रीऋभचरितं समाप्तं । 1 उक्तं ऋषभचरितं । शेपजिनचरितानि तु स्वस्वस्थानतः समवसेयानि । वीरचरितं तु स्वयमेव पूज्यश्रीधर्मघोषसूरि : सल्लिग ( ख ) ति । (२) वीरचरित्र. End: गा. ३७७ बत्तीसं अज्झयणे अप्पुट्ठपसिणे उपत्त (न) वेमाणो । सिरिबद्धमाणसामी विहुयमलो सिवसुहं पत्तो ॥ ३३८ ॥ (३) गणधरस्तुति. (४) सनत्कुमारचरित्र ote. ९०. योगप्रकाशविवरण (प्रकाश ३). प. २०६६ १४३x२" मं. ३८०० ९१. (१) उत्तराध्ययन. 1 प. १५९; ८"x३" Colophon: सं० १३८१ वर्षे अद्येह श्री अणहिलपुरपट्टने श्रीदेवसूरिगच्छे श्रीरामभद्रसूरिशिष्येण पं० महिचंद्रेण आत्मार्थं उत्तराध्ययन सूत्र पुस्तिका लिखिता । * त्रुटित अपूर्णा । † Paper MS. Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGILANT PADA (२) सामुद्रिक (३) गणधरवाद ।.... १५९-१९० (४) उत्तराध्ययन (५) सुभाषितादि । (६) शान्तिनाथचरित्र (प्रा० बुटित). ९२. गौडवध by वाक्पतिराज. प. १४५; १२"४१४" . " End: कइरायलंछणस्स वापयरायस्स । गउड...ण कहावीढं रइयं चिय तह समत्तं च ।। ६८ ॥ कहावीढं सम्मत्तं । गाथातः ११६८ । लोकतः १४९० । ' Colophon: मंगलं भवतु सर्वजगतः तथा च लेखक-पाठकयोः । संवत् १२८६ वर्ष रखी गौडवधं नाम महाकाव्यं समाप्तं ॥ ९३. (१) उपदेशमाला. गा. ५४३ प. १-४८ (२) उपदेशमाला (पुप्पमाला) by मलधारि हेमचन्द्रसरि. गा. ५०५ प. ४९-१०२ (३) धर्मापदेशमाला. गा. १०० १०२-११२ (४) योगशास्त्र (प्रकाश १-४). ५१२-१५५ (५) कल्याणकप्रकरण (प्रा०) गा. १३४ १५६-१७० (६) मूलशुद्धि. १७१-१९० (७) वीतरागस्तव. १९१-२०९ (८) वंदित्तासूत्र. गा. ५० २०९-२१४ (९) पापप्रतिघात-गुणबीजाधान. २१५-२१८ (१०) अजितशांति. २१८-२२४ (११) भक्तामर. प. २२५-२३१ (१२) गौतमपृच्छा (प्रा०). गा. ५४ प. ५ . (१३) धर्मलक्षण (सं०). प. ६ Beginning: धर्मार्थं क्लिश्यते लोको न च धर्म परीक्षते । कृष्णं नीलं सितं रक्तं कीदृशं धर्मलक्षणं ।। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (१४) प्रश्नोत्तररत्नमाला. प. ४ ९४. नैषधीय ( स० ११-२२) by श्रीहर्ष. प. १६६; १४३"४२" Beginning: प्रिया ह्रियालंध्यविलंवमाविलं etc. Colophon:-शशांकसंकीर्तनं नाम । संवत् १३०४ श्रा० शु० ३ शुक्रे ठ० मूंघेन नैषधमलेखि ॥ ९५. (१) दशवैकालिक. प. १-५३; १३"४२" (२) साधुप्रतिक्रमणसूत्र. प. ५३-५९ (३) अतिचार. गा. १२ प. ५९-६० (४) पाक्षिकसूत्र. प. ६०-८२ (५) पाक्षिकखामणा. प. ८२-८३ (६) अजितशांति. प. ८३-८९ (७) द्वात्रिंशिका (सं०) by देवभद्र. प. ८९-९४ श्लो० ३२ End: संसारार्णवयानपात्र ! भवतः स्तोत्रोत्सवप्रक्रमे स्वैरं विस्फुरता निरस्तदुरितं यत्पुण्यमाप्तं मया । तेनाशेषसमीहितोदयकृता श्रीदेवभद्रकभू___ रेकैवास्तु भवांतरेपि सुलभा त्वय्येव भक्तिः पुनः ॥ ३१ ॥ इत्थं नाथ ! पुरस्तव स्तुतिमिमामाबद्ध्य मूयंजलिं भक्त्या यः पठति प्रमोदसलिलैरापूर्यमाणेक्षणः । कामास्तस्य फलंति पुष्यति धृतिर्लक्ष्मीर्मुखं वीक्षते बुद्धिर्वल्गति ज़ुभते सुभगता नश्यति च व्याधयः ॥ ३२ ॥ (८) उपदेशमाला. गा. ५४१ *प. ९५-१४३ (९) धर्मोपदेशमाला. गा. १०० प. १४३-१५२ (१०) चउसरण (कुशलानुबंधि अध्ययन ). प. ७३-७६ ' (११) आउरपञ्चक्खाण. गा ६० प. ७६-८० * प्राग द्वासप्ततिपत्राणि न दृश्यन्ते । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAvi PAPA 65 (१२) भक्तपरिज्ञा. गा. १७१ प. ८०-९२ (१३) संथारापयन्न. गा. १२१ प. ९२-९९ (१४) सागारप्रत्याख्यान विधि. गा.९ प. ९९-१००. (१५) आराधनाप्रकरण by यशोघोष. प. १०१-१२४ End: इय आराहणपगरणमेयं जसघोससूरिनिम्मवियं । जो पढइ सुणइ भावइ सो सुगई जाइ नियमेण ॥ (१६) आराधनाप्रकरण by सोमसूरि. गा. ६१ प. १२४-१२८ (१७) बृहचतुःशरणप्रकरण. गा. १९ प. १२८-१३३ (१८) क्षामणाकुलक. गा. ४६ प. १३३-१३७ (१९) आराहणाकुलक. गा. १६ प. १३७-१३९ (२०) शोकपरिहारकुलक (प्रा०). गा. २४ प. १३९-१४१ (२१) द्वादशभावना (प्रा०). गा. १३२ अं. १५७ प. १४१-१५० (२२) महाऋषिस्तव by धर्मघोष. गा. १६१ प. १५१-१६१ (२३) बोधकुलक (प्रा०). गा. २९ प. १६१-१६५ (२४) भाववर्धनकुलक (प्रा०). गा. २६ प. १६३-१६५ (२५) आत्मबोधकुलक. प. १६५-१६० Beginning: जम्म-अरा-मरणजल-नाणाविहवाहिजलयराइन्ने। भवसायरे अपारे दुल्लहं खलु माणुसं जम्म ॥ १ ॥ End: ता मा कुणसु कसाए इंदियवसगो य मा तुम होसु । देविंदसाहुमहियं सिवसोक्खं जेण पाविहिसि ॥ २२ ॥ (२६) आत्मसंबोधकुलक (प्रा०). गा. २१ प. १६७-१६८ (२७) वैराग्यकुलक? () गा. २१ प. १६८-१७१ (२८) योगशास्त्र (४ प्रकाश). प. १७१-२०० (२९) आत्मानुशासन(सं०) byपार्श्वनाग. श्लो.३५ २००-२०६ (३०) धरणोरगेंद्रस्तव (सं०). श्लो० ३५ प. २०६-२०९ (३१) भक्तामर. प. २०९-२१३ (३२) गंभीरस्तव (सं०). श्लो० ४० प. २१३-२१६ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS 66 Beginning: अथ गंभीरनिर्घोषस्फुटकंटकभूषणः । आनंदोदकपूर्णाक्षः क्षिप्तदृष्टिर्जिनानने ॥ १॥ End: इति संस्तुतो जिनेश्वर! संसारारण्यभीतिभीतेन । कृत्वा मयि कारुण्यं मोक्षसुखं देहि मे स्वामिन् ! ॥ ४० ॥ गंभीरस्तवः समाप्तः ॥ - (३३) धर्मलक्षण. प. २१६-२२७ (३४) सिंदूरप्रकर. प. २२७-२२९ ९६. सिद्धहेमबृहद्वृत्ति (२-३ पाद त्रुटित जीर्ण) ताडपत्र १३५ कागद ७८; १५०x१३" ९७. सिद्धहेमलघुवृत्ति (आख्यातवृत्ति अपूर्ण). प. २३०; १२३४१३" ९८. सिद्धहेमबृहद्वृत्ति (,). प. २७५; १६३"४२३ ९९. अभिधानचिंतामणि. प. १६१ End: इति आचार्यश्रीहेमचन्द्रविरचितायां अभिधानचिंतामणिनाममालायां सामान्यकांडः षष्ठः॥ Colophon:___ संवत् १३१४ संयमसिरियोग्या पुस्तिका लिखिता। पूज्यश्रीसुमेरुसुंदरीमहत्तरामिश्रि(श्रा ?)णामुपदेशतः श्रीचित्रकूटमहादुर्गगं...माणिक्य महं० श्रीतीडागृहिण्या महं श्रीगंगादेवीसुश्राविकया श्रीनाममालापुस्तिका पार्श्वस्थवतिनां सकाशात् गृहीत्वा तिलकप्रभागणिन्याः पठनकृते समर्पिता । शुभमस्तु । १००. (१) कल्पसूत्र (मूल). प. १-८९; १३"४२३" (२) कल्पसूत्रटिप्पन by विनयचन्द्र. प. १-३२ Beginning: सौवर्णः सूत्रभृद्भिर्व्यरचि शुचिफलैः श्रीगुरोराज्ञया यः संपूर्णामृतोद्यैः सुविशदसुमनःश्रेणिपूज्यः सुवृत्तः । पात्राधारोधुनो शिवफलकलितः सक्रियाश्रीशिरस्थः श्रीकल्पः पूर्णकुंभः स भवतु भविनां भावकल्याणसिद्ध्यै ॥ १॥ प्रणम्य श्रीमहावीरं द्वादशांगी गुरूनपि । कल्पाध्ययनशब्दानां पर्यायाम् कांचन हुवे ॥२॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI Pxpi 67 End: समाप्तं श्रीपर्युषणाकल्पस्य कतिचित्पददुर्गनिरक्तमिति । सैद्धांतिकश्रीमुनिचंद्रसूरिशिष्या अनूचानगुणा जयंति ॥ श्रीरत्नसिंहाह्वयसूरिमुख्या यच्छिष्यलेशो विनयेंदुसूरिः । श्रीविक्रमाद् बाण...खेंदुवर्षे चूादि वीक्ष्य स्वगुरोर्मुखाच्च । ज्ञात्वानघं पर्युषणाभिधान कल्पस्य किंचिद् विदधे निरुक्तं ।। यदत्रोत्सूत्रमासूत्रि तत्र मिथ्या[स्तु] दुष्कृतं । ग्रंथाग्रमष्टदशाग्रं श्लोकशतचतुष्टयं ॥ ग्रंथानं श्लोक ४१८ ॥ . १०१. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (दशमपर्व). ५-३३३; १७"४२" १०२. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति. प. ३१७ १०३. (१) उपदेशमाला(प्रा०). गा. ५४४ प. १-३८ (२) , (पुष्पमाला) by मल० हेमचन्द्र. गा. ५०५ प. ३८-८३ (३) धर्मोपदेशमाला(प्रा०). गा. ८९ प. ८४-९५ (४) क्षेत्रसमास. गा. ८९ प. ९५-१०४ (५) विवेकमंजरी. गा. १४४ प. १०४-११८ (६) मूलशुद्धिप्रकरण by प्रद्युम्नसूरि. प. ११९-१४१ End: सिद्धांतसारहमिणं मुद्धाण भव्वाणमणुग्गहत्थं । महामईणं वसहंतसत्थं पज्जुण्णसूरीवयणं पसत्थं ।। (७) पंचकल्याणक (प्रा०). प. १४१-१५५ Beginning: तित्थं पवयणसुयदेवयं च नमिऊण सव्वभावेणं । कल्लाणपंचएणं आदिजिणंदं नमसामि ।। १ । । End: पवयणदेवीए नमो जीए पसाएण पंचकल्लाणं । मंदमइणा वि रइयं कल्लाणपरंपरा होउ ॥ धार]णिंदनमियदेवाहिदेवनामेण पंचकल्लाणं । रइयं भवमहणत्थं भवियाणं हरउ दुरियाई ॥ १३४ ।। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 68 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS चवणं गम्भाहरणं निकमणं केवलं च नेव्वाणं । कल्लाणपंचएणं जिणिंद इंदेहि निम्मवियं ॥ १३५ ॥ (८) संग्रहणी by श्रीचन्द्र. प. १५५-१८४ (९) नवपद by जिनचन्द्र pupil of कक्कसूरि. प. १८४-१९९ (१०) भावनाकुलक. . प. १९९-२०२ End: संसारे हयविहिणा महिलारूवेण मंडिय पासं । बजं(झं)ति जाणमाणा अयाणमाणा य बझंति ॥ ३० ॥ इगुणतीस भावना सम्मत्ता। - (११) जीवोपालंभ (प्रा०) by नेमिकुमार. प. २०२-२०५ Beginning: धम्मोवएसजुत्तं उवलंभं जीव! तुज्झ दाहामि । थेवं पि तए न हु रुसियव्वं भावउ(ओ) सुणसु ॥ १॥ End: इय सोउं जीव! तुम नेमिकुमारस्स भासियं कुणसु । जेण(णु)वलंभं न लहसि गच्छसि अयरामरं ठाणं ॥ २५ ॥ जीवोपलंभः समाप्तः । (१२) गुरुवेयणकुलक (प्रा०). by धनेश्वर. प. २०५-२०६ End: इय भावणाइ इ(अ)टं वज्जिय तं होसु धम्मज्झाणरउ(ओ)। जेण ह्यसयलकम्मो सिवसुक्खधणेसरो होइ(सि) ॥ १५ ॥ इति गुरुवेयणाकुलकं समाप्तं । (१३) प्रव्रज्याविधान (प्रा०). प. २०६-२०७ End: जइ सि कयव्यवसाउ धम्मज्झय उसियस्स । त वदर गिन्ह लहु रयहरणं कम्ममजणं धीरा ! ॥ २५ ॥ पवजाविहाणं पगरणं समत्तं ॥ (१४) संजममंजरी (अपभ्रंश) by महेश्वरसूरि. प. २०७-२१३ Beginning: नमिऊण नमियतियसिंदविंदसिरमउडलीढपयवीढं । पासजिणेसं संजमसरूवसंकित्तणं काहं ॥१॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ End:--- No I. SANGHAVI PADA संजमु सुरसत्थिहिं थुयउ संजमु मुक्खदुवारु । जहि न संजमु मणि धरिउ तहुं दुत्तरु संसारु ॥ २ ॥ संजमभारधुरंधरहं सहुच्छलिउ न जाहं । नियजणणिहिं जुवणहरहं जम्मु निरत्थउ ताहं ॥ ३ ॥ समहं भूसण गवसण संजममंजरि एह । कहइ महेसरसूरिगुरु कन्नि कुणंत सुणेह ॥ ३५ ॥ संजममंजरी संमत्ता ॥ गा. ५० (१५) ऋषभपंचाशिका. प. २१३-२२१ प. २२१-२२८ (१६) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र. (१७) स्थविरावली part of नंदीसूत्र Ends in प. २२८-२३४ (१८) नाणाचित्तप्रकरण. गा. ८१ प. २३४ - २४२ Beginning: नऊ जिणं जगजीवबंधवं धम्मकणयकसवट्टं । वुच्छं धम्ममईणं धम्मविसेसं समासेणं ॥ चित्ते लोए etc. १०४. (१) चतुर्विंशतिस्थान (प्रा० ). Colophon: (२) आवश्यक नियुक्ति प. ५० ( त्रुटित ) (३) आरात्रिक- न्हवणविधि ( अपभ्रंश). (४) धर्मरत्नप्रकरणं. (५) संग्रहणी. Stary leaves. १०५. (१) पवयणसंदोह (अपूर्ण). प. ९५ - २०६; १५३x२” End: प. १ - ३६; ११x२” · 69 सारस्यमाइच्चा विण्हवरणा य गद्दतोया य । तुसिया अव्वावाहा अग्गिच्चा दे... रिट्ठाया || पत्रयणसंदोहस्स छहं पयं सम्मत्तं । (२) संग्रहणीरत्न by श्रीचन्द्रसूरि गा. २७३ प १०६ - १२३ इति मलधारिश्रीश्री चंद्रसूरिकृतं संग्रहणीरत्नं समाप्तं । (३) खेत्तसमास (नमिऊण सजलजलहर - ). (४) गौतमपृच्छा. प. १२३-१२९ प. १२९ - १३२ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '70 End: End: (५) स्थविरावली ( नन्दीसूत्रान्तर्गता ). (६) श्रावकप्रतिक्रमण etc. (७) धर्मलक्षण. श्र० १९ (८) प्रश्नोत्तररत्नमाला. प. १३२-१३५ प. १३५-१३८ प. १३८-- १३९ प. १३९-१४० (९) पंच नवकार ( प्रा० ). प. १४०-१४१ (१०) पवज्जाविहाण. गा. ३३ प. १४१-१४२ (११) जीवाणुसकिलय by यशोघोष. गा. २५५. १४२ - १४५ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS इय तत्तभावणाए नियजीयं जोणुसासइ सया वि । जसघोस भरियभुवणस्स तस्स नस्सइ लहुं मोहो ॥ (१२) आतुरप्रत्याख्यान. (१३) विवेकमंजरी. (१४) योगशास्त्र ( ४ प्रकाश ) - (१५) वीतरागस्तोत्र. (१६) आत्मानुशासन. Beginning:— (१७) भक्तामर. (१८) गंभीरस्तव. End: Beginning: इत्येवं विमलो यावत् तद्भावार्पितमानसः । भूतनाथमभिष्टुत्य पंचांगप्रणतिं गतः ॥ ३९ ॥ (१९) पार्श्वजिनस्तव. अथ गंभीरनिर्घोषः स्फुटरोमांचभूषणः । आनंदोदकपूर्णाक्षः क्षिप्तदृष्टिर्जनानने ॥ १ ॥ सोपालभं सविश्रभं सस्नेहं प्रणयान्वितं । ततः स स्तोतुमारब्धो विमलोमलमानसः ॥ २ ॥ धरणोरगेंद्रसुरपति विद्याधरपूजितं जिनं नत्वा । क्षुद्रोपद्रवशमनं तस्यैव महास्तवं वक्ष्ये ॥ २५ ॥ प. १४५ - १४९ भक्तिर्जिनेश्वरे यस्य गंधमाल्यानुलेपने । संपूजयति यश्चैनं तस्यैतत् सफलं भवेत् ॥ ३६ ॥ प. १४९ - १५६ प. १५६-१८५ प. १८५ - १९७ प. १९७-२०२ प. २०२ - २०६ प. २०६ - २०८ प. २०८-२११ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 7 No I. SASGITAvi PAPA (२०) पार्श्वनाथाष्टक (मंत्रगर्भित). श्लो० ९ प. २११-२१२ Beginning: श्रीमन्नागेंद्ररुद्रस्फुरितफणमणिद्योतिताशामुखश्री रोहीलाहापलक्ष्मीपवनगगनसन्मंत्रातापरांगः । क्ष्मावायुग्रिप्रतीतत्रिपुरविजितदष्टात्मवक्षःस्थलं सा ग्रीवास्पंददादिसंदर्शितवियदुदयः पातु मां पार्श्वनाथः ।। (२१) आदि-वीरस्तुति (प्रा०) by पालित्तसरि. प. २१२-२१३ Beginning: सयलमुरासुरनमि(य) सेत्तुजगिरिस्स मंडणं वीरं उसहं । ववगयकम्मकलंक आइजिणिंदं नमसामि ॥ १ ॥ End: एवं वीरजिणिंदो अच्छरगणसंघ[सं]थुउ(ओ) भयवं । पालित्तयमय[महिओ दिसउ खयं सणंव्वदुरिया ॥ ४ ॥ (२२) जिनपंचकल्याणकस्तोत्र (अपभ्रंश). श्लो० ३६ प. २१४-२१६ Beginning: नमिवि सिरिवीरजिणपाया सवत्तयं भवियजणदुरियदारुणकरवत्तयं । चवीसजिणपंचकल्लाणए चवण-जम्मण-चरण-नाण-निव्वाणए ॥ १ ॥ End: तित्थंकरकल्लाणई सुक्खनिहाणइं भत्तिमंतु जो नरु वहइ । मुणिचंदु बलगुणसिद्धिठाणु सासु(सु ल)हु लहइ ।। ३६ ।। चतुर्विशतिजिनानां पंचकल्याणि(ण)कस्तवनं समाप्तं ॥ भद्रं भवतु ।। (२३) एकवीसठाण. प. २१६-२२१ (२४) जीव विचार. गा. ५१ प. २२१-२२४ (२५) अजितशांति. गा. ३९ प, २२४-२२९ (२६) साधुप्रतिक्रमण. प. २२९-२३२ (२७) श्रावकप्रतिक्रमण. प. २३२-२३६ १०६. क्रियारत्नसमुच्चय by गुणरत्न. *प. ५-४२७; १९x१४" Colophon: ग्रंथानं सबीजकं ५७७८ त्रि० वैकुंठेन लिखितं । संघाय क्षेमं भूयात् । * १८५-३१९ पत्राणि न सन्ति । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS १०७. उत्तराध्ययन. प. १४८; १४”×२" १०८. पार्श्वनाथचरित्र ( o ) by सर्वानंद. प. १५६-३४५; १८३”×२* End: 72 इत्याचार्यश्री सर्वानंदरचिते श्रीपार्श्वनाथचरिते महाकाव्ये श्रीपार्श्वनाथविहारवर्णनो नाम पंचमः सर्गः । बभूव भूवल्लभवंयपादः प्रधानधर्मा गणभृत्सुधर्मा । स्वं सान्वयं वीरजिनेश्वरोऽपि शिष्यैर्यदीयैः प्रतिपद्यते स्म ॥ १ ॥ विद्याद्याः (याः) सदनं तदन्वयपयोराशी पुरासीदथ बीजं श्रीजयसिंहसूरिरतुलक्ष्माचक्रशक्रस्तुतः । किं चित्रं ममतुर्यदीयहृदयोत्संगे कुरंगेक्षणा स्तन्वंग्योपि गुणालिमालिनि ममौ नास्मिन्ननंगेपि यत् ॥ २ ॥ कदाचिदिदौ नलिने कदाचिल्लोलस्वभावे सति ध्रुवं । रुह स्पर्धितुमध्युवास स्थिरस्वभावैव यदाननं गा ( ने गौः) ॥ ३ ॥ श्रीचंद्रप्रभसूरिरद्भुतभवाकूपारपारंगमो रंगन्मोह महाकरिव्ययहरिस्तत्पट्टभूषाभवत् । आस्यं ... यस्य विभावरीविभुविभापीयूषपेयैर्गवां सूरिर्दूरयति स्म भस्मित ( वचः ? ) स्तोमे न कस्य क्कुमं ? ॥ ४ ॥ स्फीतानां नवकल्प संकलितयद्व्याख्यानजल्पाश्रयविश्रामालय वैभवं नवमित (तैः ) पीयूपकुंडैर्दधे । रंगन मंगलदीपविभ्रमभरं यत्र श्रयन्ते वरा रक्षापन्नगमौलिरत्नरुचयस्त्रस्यत्तमः संचयाः ॥ ५ ॥ शिष्यस्तस्याथ पाथोनिधिपरिधिधरारत्नसद्धर्मघोषः सूरिः श्रीधर्मघोषः समजनि जनितदृष्टिपीयूषवृष्टिः । संकीर्ण शर्कराभिः प्रवचनवचनैः स्वादयंतो यदीय व्याहारैर्हारहूराम... धुरमधुकेन (मधुरमधुमधुकोन ?) तापव्यपोहं ॥ तत्पट्टप्राच्यपृथ्वीधरशिषरहरि शीलकल्लोललीला मीलत्कामाभिकीलः समभवद्भवशीलभद्रो मुनींद्रः । तद्विजातयातव्यतिकरमकरोत् तत्क्षणक्षिप्तमोह प्रत्याकारेण कामं विलसदसि सह तीव्रतेन तेन ॥ ७ ॥ अधिदैवतं सुधाया जगति चकासांचकार यद्वचनं । यात्रावाद्यमिवामृतभासं प्रास्त्रं (अं) ति मरुतोपि ॥ ८ ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 247) 73 No I. SANCHIAVI PADA अंगोद्वर्तनवर्तिकशशिकला स्नानोदकं चामृतं कृत्वा यन्मुखधानि लोलरसनादोलाविलासे रतः । वाचं स्वां तांडवितस्मितां चलतया पुंसां हरते मनः स श्रीमान् गुणरत्न सूरिरभवत् तत्पट्टलक्ष्मीगृहं ॥ ९॥ अस्त्रं (अं)ति सस्पृहं यासां पिन्याकनाकिनो विधुं । तासां यस्य गिरास्वादविदक्केच्छतु नाकिनां ॥ १० ॥ श्वेतांशुना त्रिजगदंगणजागरूक___ भासो यदीययशसः प्रतिवेशिनेव । धिग(क) क्षीयते कलयता कलुपत्वमंत >पाकरः क सहतेभ्युदयं परेपां ? ॥ ११ ॥ सिंहासनी(ने?) यदीयशेप्रबु... णश्वरं कुमुदिनीकुमुदेक्षणाय । पार्थेषु यस्य विलसंति समस्तशुभ्रसाम्राज्यमंगलसिताक्षतभानि भानि ॥१२॥ येषामुदात्तवृत्तानां पादांतेवासितां श्रिताः । लभंते लघवोप्युच्चैगौरवं गौरकीर्तयः ॥ तेषां प्रसादसंरंभा[ज जीर्यजाइयेन सोजसा । एतद् व्यधायि शिष्येण श्रीसर्वाणंदमुरिणा ।। राजा यावदसावुदारचरितः संलक्ष.........च्छलद् यावद्या(ध्या?)मलकालचित्रकमहौषध्याः प्रभावादिव । अक्षय्यैयर्वस्तुभिः कीर्तिवसुधामासागरामादरात् तावद् नंदतु नंदसुप्रदमदः श्रीमच्चरित्रं विभोः ॥ ............दितपोधनानां वीरस्य वीरस्य च ठक्कुरस्य । साहाय्यकादिंदुनिधीनव...चरित्रं धवलककेदः ॥ १६ ॥ Colophon:-- संवत् त्रयोदशपट्...त्तरवर्षे श्रा० शुदि द्वितीया शुक्रवारे सम्बीग्रामे ध्रुव नागार्जुनसुतलूणाकेन श्रीपार्श्वनाथचरित्रं परिपूर्णपुस्तकं सावधानेन लिखितं । भन etc. यादृशं etc. १०९. सिद्धहेमलघुवृत्ति (पंचम अध्याय). प. १४९; १५३०४२" ११०. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति. प. ३१८; १५"४२” This codex contains a large Prasasti of 21 verses but as the last folios are wormeaten it is not possible to reproduce the verses completely. Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS सद्वृत्तपर्वपरिपूरिततुंगगात्रः पात्रं श्रियां विमलमूलकलाविलासः । यो धर्मसद्गुणविधिः स चिरं तनोतु श्रीमालवंशः...... The wife of Sāwantasiinha of Srimālavams'a donated the MS. १११. अभिधानचिंतामणिनाममालाटीका by हेमचन्द्र. End: इत्याचार्यश्रीहेमचंद्रविरचितायां स्वो......चिंतामणिनाममालाटीकायां सामान्यकांडः षष्ठः......यमभिधानचिंतामणेर्नाममालायाष्टीका । छ । ११२० । एवं सर्वसंख्या १०००० यादृशं etc. Colophon: संवत् १३३७ वर्षे वैशाखशुदि ५ गुरौ अद्येह अणहिलपाटके महाराजाधिराजश्रीमत्अर्जुनदेवकल्याणविजयराज्ये तत्पादपद्मोपजीविनि महामात्यश्री...दवे प्रवर्तमाने महाराजकुमरश्रीसारंगदेवेन भुज्यमानमुद्गवद्यां महंश्रीमहिपालप्रभृतिपंचकुलप्रतिपत्तौ पूज्यपरोत्तमपरमपूजार्चनीयप्रभुश्रीनरचंद्रसूरिप्रतिष्ठितप्रभुश्रीमद[न]चंद्रसूरितत्पट्टप्रतिष्ठितप्रभुश्रीमलय......चरणचंचरीकेन पं. सहजकीर्त्तिना आत्मपठनार्थ अभिधानचिंतामणिनाम...लिखापिता । ११२. (१) कल्पसूत्र (मूल). प. ११४ End: ___ एकाक्षरगणनया ग्रंथाग्रमानमिदंएकः सहस्रो द्विशतीसमेतः श्लिष्टस्तथा पोडशभिर्विदंतु । कल्पस्य संख्या कथिता विशिष्टा विशारदैः पर्युषणाभिधस्य ॥ ग्रं. १२१६ । छ । मंगलं महाश्रीः । (२) कालकाचार्यकथानक (प्रा०). प. ११५-१३६ Beginning: पडिसिद्धं पि कुणतो आणाए देस-खित्त-कालस्स । सुज्झइ विसुद्धभावो कालयसूरि व जं भणियं ॥ तथाहि- नामेण धरावासं अत्थि पुरं जत्थ सवभयमुक्के । वेसमणेणं नासीकय व दीसंति धणनिवहा ॥ End:इति श्रीकालि(ल)काचार्यकथानकं समाप्तं । ग्रंथानं गाथा १५० ७......... (३) वैजनाथकलानिधि (मराठी) Paper Manuscript प. ११५; ११०४२" कालस्स। ".. . " Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 75 No. I. SANGHAI PĀŅĀ [प. ४९-५१-आतां नगरवर्णन। आटालिया। ऊपरीया। मालीया । गजद्वारें । राजद्वारें । खडकीद्वारें । बाइलवाडे । चौकिया । मनोरम विलासमुरें। प्रसिद्ध सिद्धांचे निवेश । बौद्धांचे विहारा । जिनांची जिनालयां। कनकशाला । टंकशाला । होमशाला । अध्ययनशाला । गीतनृत्य-वाद्यशाला । जेणशाला । चित्रशाला । धर्मशाला । मद्यशाला । हस्तिशाला। ब्रह्मशाला । अनेक मठ मढिया । करुआडे नडे चौकीया धवलहारें वसुआरे मालवधे कोचनिबढे कोठारें । कोटिआ। कडी । घोडौ डी । [क]लहंस । दुआले आवासणियां । सिंपणहारी । उधूतपताकासहश्र(स)प्रकटिते । उत्तंगगिरिशिखरसंकासें देवतायतनें । चतुष्पथे २ विचित्रचित्रित सभामंडप। स्वर्णकलशालंकृतप्रासादसहश्रु(स) । जैसें गगनसरोघर कनककमलमुकुली अलंकृत । मयूर पारावत चकोर राजहंस । तेयां चित्रां प्रासादांवरि इतश्चेतश्च संचरतेति आकाशसरोवरी जलविहंगमां ब्राह्मणभवनीं वरचा यज्ञं सामाचे उद्घोप साये प्रातरनिहोत्र हवनें मंगलप्रकासक होमधूम । सुरभिपरिमलालंकृत श्रीमंतभवनी बहकते अगरुधूम । क्रय-विक्रयव्यवहारी ससंभ्रम हट्टशालाप्रदेश । ठाई ठाई सप्तीसा दंडायुधां वे सरांवाचे या गरुडी । तांडवलाम्यभेदें । भावका नटांसि पात्र परिपाठ वाची अभ्यासस्थाने । गोववते आंगसरादी विअशाला । घटप्रसादमापकां देसी मार्गसाधनें । तत वितत घन सुखिर वाद्य वादकां सरावांची एकांतस्थाने परमप्रयोधानंदनिर्भरां मुनी वेद्याख्यान मठ राउलि वांसिह बारी डाविये ऊजिवीये भुजे ती ती भूमींची भूविलासिणिची धवलहारें। प. ५८ आतां सभावर्णन । तेथ गादिया । मूडे मसौरे । वा(चा)कले । लोहासनं । वलासनं । वेतासनं । रुक्मासनं । स्वस्तिकासनं । सेजवटा बाचने । या पाटया तते। तेथ प्राच्योदीच्य दाक्षिणात्य अंग चं(व)ग पिंग कलिंग सौराष्ट्र महाराष्ट्र कर्णाट लाट भट मत्स्य पांचाल किरात हूण नेपाल मालवी वेस बर्बग सिंडे सुलुकी मोरी यादव राठोड कदंव कलिपुरा चौहाण प्रार्थतीय नाहल पुलिंद भील प्रांतवासिए कोंकण चोल नरपति सेल्हार गौड गाजणे कानौजिए उक्कल मागध डहलिए पातवणिचे वावर रानीए कटक संधव वालुका साधार तजर हमीर तुरुक हौ राजे बैठले । तेथ खेआंचे यां सरला वे झणत्कारझणित । नेतवटांचे सरंग परिहारित । तेथ धर्मपात्रे अर्थपात्रे विश्रामपात्रे कार्यपात्रे विनोदपाने प्रसादपात्रे कीर्तिपात्रे स्मार्त राजगुरु धर्माधिकारी आकरणी संधिविग्रही साहासी आंतौरवाया कुमाराध्यक्ष वैद्य जोइसी मलवटे मलासुदाइत । आंगां जांवाचे पढियार दीवटे डोलीकार सावेरिगते पारधी । महवंत मोडुरी साहिए । पडवल बारिआइत । प. १०२-१०३-आरण्यक हुहु ऊजू च्छंदसी उत्तर आरणी च्छंदसी उत्तिरआ. Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 76. Pattan Catalogue of MANUSCRIPTS रणी च्छंदसीपद उत्तरापद आरणीयापद स्तोचु इत्यादि ५२ ग्रंथ । प्रथम ४ ग्रंथ । गानेसणि एथि वृहद्रथंतर । महावैराज । महादिवाकीर्त्य । ज्येष्ठसामें तीनि । देवधृतं तीनि ३ । पुरुषधृतें ५ । आद्यवृते २१ इत्यादि सामें आठ सहस्र चौदासा । सांमी आगले ॥ ७ ॥ सैरंध्री कृष्णागरु प्रघोषु जाणे । मयूरवंटका संनिमें मुकुलितें चक्रे विडसिकारें भ्रमरसंन्निभे । एसे आंकुरुलांवाउणसिरां जाणे । द्विमालिका वं(च)चे पाणी भांगु । अभिनौ जाणे । थेरवणीया चिरिमिटा फेडी सोलां वर्षाची मवाई करीं । वर्षा वय देश जातिभेदें शृंगारुचे तैलें विपादी प्रबोधु जाणे फणी दोरी दाभण । सुहाकोवी । अलता लेखणी । गाहुआ । इयें उपरि करि करणे। या प्रथम ऋतु । गर्भाधान । पुंसवन । सीमंतोन्नयन । जातकर्म । नामकरण । निष्क्रमण । अन्नप्राशन । कर्णवेधु । चूडाकरण । व्रतचर्या । गोदानिका । अध्ययन । समावर्तन । केशांत । दारापरिग्रहण ॥ ७ ॥ ईश्वरीचां ललाटीं त्रिपुरदहनावसरी वारीचंडेस्यर खेदातो उपनले । तेयां तेया च्यारि खडिया म्हणि पथि स्यारिवर्णः । ब्राह्मणु दीक्षा येतो चंडुनग्रावार्य । क्षत्री वाणी नक्र वेफे विलासु धता तिक्त सडु विडिंगु । त्याग चेटकु । अघोरमुखां चंडसद्यमुखीं । वाणवाममुखीं। विलाससत्पुरुषीं । विडंगवदनादात वचडग्व(चंडेश्व)रु । जटामुकुटशोभितु । आहुठ सादासी आश्रम । ४ गोत्रे । अठेतातीस सेको राशि वहमु । चंडपूजा । शिवदीक्षा । ३६ तत्त्व ८ कल ] ११३. भावनासंग्रह. प. ३-१९५; १२°४११" Digambaras also deal in Bhāvanā Beginning:Fol. 17 ओं नमो वीतरागाय । अरिहनन-रजोहनन-रहस्यहरं पूजनार्थमहंतं । सिद्धान् सिद्धाष्टगुणान् रत्नत्रयसाधकान् स्तुवे साधून ॥ श्रीमजिनेंद्रकथिताय सुमंगलाय लोकोत्तमाय शरणाय विनेयजन्तोः । धर्माय काय-वचनाशयशुद्धितोहं स्वर्गापवर्गफलदाय नमस्करोमि ॥ धर्मः सर्वसुखाकरो हितकरो धर्म बुधाश्चिन्वते ___ धर्मेणैव समाप्यते शिवसुखं धर्माय तस्मै नमः । धर्मान्नास्त्यपरः सुहृद् भवभृतां धर्मस्य मूलं दया धर्मे चित्तमहं दधे प्रतिदिनं हे धर्म ! मां पालय ॥ सम्यग्दृष्टीनां चतस्रो वन्दनाः प्रधानभूताः । अर्हत्सिद्धाः साधवो धर्मश्चेति । End:Fol. 58. इति भावनासंग्रहे चारित्रसारे सागारधर्मः समाप्तः । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. 1. Sanghavi Papa 77 ११४. हैमबृहद्वृत्ति(त्रुटित). प. १६०-५८१ ११५. (१) आराधनापताका. प. १-५१ (२) आउरपञ्चक्रवाण. प. ५१-६० (३) संथारापगरण. प. ६०-७३ (४) द्वादश भावना (प्रा०). गा. १३३ प, ७४-८४ End: बोह(हि)दुल्लभयाए भिगु जमपुत्ता य अदृगकुमारो । मूलगभाया य तहा आराहणा होति एमाई ॥ १३३ ॥ (५) आराहणाकुलक. गा. १५ प. ८४-८५ (६) आराधनासार. गा. ४८ प. ८५-९० (७) विषयनिंदापंचाशत्. प. ९०-९३ End: एवं जे गुणभूरिसूरिवयणं कामग्गिउल्हावणं धम्मझाणवणस्स वुड्डीकरणे मेहंबुतुलं घणं । चित्ति हंत धरति कम्मनियले वेरग्गदंडेण ते भंजेऊण निरंतरं वरतरं भुंजंति मुक्खे सुहं ॥ विपयनिंदापंचाशत् । (८) शीलगुण. गा. ४४ प. ९३-९५ End: संसारे उवएसदायगगुरू पुन्नेहि पाविजए संपन्ने वि सुणंति तस्स वयणं सद्धाए पुन्नाहिआ। सोऊणं पि कुणंति निच्चलमणा जे तंगि सवायरं त(भ)बा सग्गुणसूरिदेसिपहं पावंति ते निव्वुइं ॥ ४४ ॥ (९) आराधनाकुलक. गा. ३६ प. ९५-९७ (१०) जीवानुशासनकुलक. गा. २९ प. ९७-९८ Beginning: संसारंमि असारे नत्थि सुहं वाहि-वेयणापउरे । End:इय जाणिऊण एयं धम्मायत्ताई सबकजाई ॥ (११) आत्मसंबोधकुलक. गा. २२ प. ९९-१०० (१२) कुलक. गा. २१ प. १००-१०१ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 78 Beginning:— PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS निसाविरामे परिभावयामि गेहे पलिते किमहं सुयामि ? | (१३) दान - शील- तप - भावनाकुलक. गा. ४४ प. १०१-१०२ (१४) गौतमपृच्छा. गा. ६४ प. १०२-१०६ ६० प. १०६ - १०८ प. १०९ - ११० १२). प. ११० - ११३ प. ११३ - ११५ प. ११५-११७ (१५) णमिपवज्जा (उत्तराध्ययन अ० ९). गा. (१६) दुमपत्त (उत्तरा० अ० १० ). (१७) हरिकेशीय अध्ययन (उत्तरा० अ० (१८) चित्तसंभूइज (उत्तरा० अ० १३ ). (१९) महानियंठिज (उत्तरा० अ० २० ). (२०) संजय (उत्तरा० अ० १८ ) . (२१) सामाचारी (उत्तरा० अ० २६ ) . (२२) संग्रहणी. (२३) जंबूद्वीपप्रकरणादि. (२४) विचारसत्तरि. प. ११७-११८ प. ११८ - १३७ प. १३७ - १५० गा. ११९ प. १५०-१७० प. १७० - १७१ गा. ५४१ प. १७१-१९५ (२५) उपदेशमाला. प. १९५-२०० प. २०१ - २०४ प. २०४ - २०८ प. २०८ - २११ प. २११-२१५ प. २१५-२२० प. १८ (२६) धर्मोपदेशमाला. (२७) तपविधि (सं० प्रा० ) (२८) अजितशांति. (२९) जीवविचार. (३०) पिंडविशुद्धि. (३१) विवेकमंजरी. ११६. (१) योगशास्त्र ( त्रिभुवनसार ). Beginning: ओं नमः सर्वज्ञाय | पुनर्जन्म न जायेत यत्स्वरूपनिरूपणात् । तज्योतिः प्रलयोत्पत्तिस्थितिमुक्तमुपास्महे ॥ १ ॥ परं ज्योतिरूपाश्रित्य क्रमात् तन्मयतां गताः । ये प्रापुः परमानंदं तान् सिद्धान् सिद्धये स्तुमः ॥ २ ॥ विश्वव्यापारपारीणान् निरीहान् ब्रह्मचारिणः । सम्यक्त्व (सम्यग्?) ज्ञान-क्रियाधारान् सद्गुरून् नौमि तात्त्विकान् ॥ End of the first Prakūsa— निर्लेपगार्हस्थ्यो नाम प्रथमः प्रकाशः श्लोक ५० Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. Sunghari PĀVĀ End of the second Prakās'aइति श्रीत्रिभुनसारनाम्नि योगशास्त्रे गार्हस्पत्यवर्जनो नाम द्वितीयः प्रकाशः। End of the third परमात्मलयानंतसुखेच्छोर्यस्य न स्पृहा । शरीरेपि स्पृहाबंधमुष्टेभ्यष्टं(?)स निस्पृहः ॥ ४९ ॥ . (२) गुर्वादिवार ? ( भडलीसदृश ). प. ३५-४२ (३) नाडीविचार. (प्रा०). प. ४२ Beginning: ववसायवडुकम्मे विग्गहववहारमजणारंभे । भोयण-सुरयपसंगे दाहिणनाडी सुहा भणिया ॥१॥ End: जा पवहइ नियनाडी तं चिय पायं पुरंगि काऊण । नीसत(र)ह नियघराओ जइ इच्छह सव्वसंपत्ती ॥ ४ ॥ (४) श्वानरुत. प. ४२-४५ (क) गमनागमनप्रकरण. Beginning: नाग-नरामरनमियं नमिऊण जिणेसरं महावीरं । घोच्छामि सउणसारं साणरुयं सयललोयहियं ॥ थोवंतरमि गंतुं वामदिसाए पुणो नियत्तंतो । साणो सुहसयजणणो असुंदरो दाहिणनियत्तंतो ॥ २ ॥ End: धणलाह-दव्वठवणे संगामे तह य दुग्गमपवेसे । वाहिल्लयस्स कब्जे वच्चंतो दाहिणो सहलो ॥ २० ॥ गमनागमनप्रकरणं । (ख) जीवित-मरणप्रकरण. Beginning: जइ वाहियस्स कजे निमित्तमालोइयं पइट्ठाण । सुणहो दाहिणचेट्ठो अइरेणं दुत्तरं कुणइ ॥ १ ॥ जइ पिडुंतं वट्टइ सुगहो वलिऊण दाहिणदिसाए । तो मरइ बाहिघत्थो एक(ग)विणभंतरे. मुणह ।। Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 80 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS End: किं जंपिएण बहुणा दाहिणावद्धाहिं मरइ वाहिल्लो । तह वामियाहिं जीवइ जह भणियं नाहधम्मेण ॥ १० ॥ जीवित-मरणप्रकरणं ॥ (५) शकुनविचार. प. ४५-४७ Beginning: वाम सियाली होइ सुह दाहिण दुक्ख करेइ । पिट्ठट्ठिय बीहामणी अग्गट्ठिय मारेइ ॥ १ ॥ जंबू-रासह-सणोइं जइ निग्गमि वामाई । पइसंतह जइ दाहिणइं फुडु साहई कजाइं ॥ २ ॥ वामी होविणु दाहिणी जइ सूयरि गच्छेइ । तो आभरणविभूसिया ककवितिय दावेइ ॥ ३ ॥ Leaves 48-57 are lost. (३) शनी(नै)श्वर चक्र ( Apabhramsa) प. ५८ Contains 4 verses on fol. 58. (७) ध्वजाध्याय. प. ५८-५९ Beginning: शृणु शक ! यथातथ्यं ध्वजाध्यायं शुभाशुभं । येन विज्ञातमात्रेण ज्ञाततंत्र शुभाशुभं ॥ १ ॥ End: धान्यं महर्च भवते (विता) अग्निदाहो भविष्यति । विक(प)द्यते महीपालाः संग्राम दारुणं भवेत् ॥ इति गर्गोक्तसंहितायां ध्वजाध्यायो नाम सप्तचत्वारिंशत(त्त)मः ।। (८) गर्भलक्षण. (९) वर्षालक्षण, प. ६०-६७ (१०) उत्पातदर्शन. ) (११) सिद्धादेश. प. ६७-७२ Beginning: सिद्धादेशं प्रवक्ष्यामि भाषितं च चतुर्मुखैः। गर्भ वृष्टिं तथा वातं गर्ज-विद्युत्प्रदर्शनं ॥ १ ॥ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PADA End: एवं(तत्) तु परमं गुह्यं ब्रह्मणा कथितं पुरा । यस्य ज्ञानमिदं तस्य वाणी भवति अस्खला ॥ (१२) गणहरहोरा. गा. २९ Beginning: जीवाजीवयपयत्थवत्थुवित्थारमुणियपरमत्थं । नमिऊण इंदभूई होरं चंदाइयं वोच्छं ॥ (१३) सामुद्रिक (नारदीय ). प. ७५-८२ (पुरुपलक्षण श्लो० ३८, स्त्रीलक्षण श्लो० ३८) Beginning: आदिदेवं प्रणम्यादौ सर्वशं सर्वदर्शिनं । सामुद्रिक प्रवक्ष्यामि सुभगं पुरुष-स्त्रियौ(योः) ॥ १ ॥ End: सा कन्या वर्जनीया सुतमु(सु)खरहिता भ्रष्टशीला विभ्रष्टा ॥ ३८ ॥ ___ इति नारदीये सामुद्रिके स्त्रीलक्षणं समाप्तं । (१४) (क) folio 83 missing. (ख) सउणदार(शकुनद्वार). Incompletc. प. ८४-८५ Begins with जालय-भमरी-गिहधन्न-कीडियालीणं । लेवफोडविवन्नं कारणरहियं भवे अहियं ।। उज्वेय-कलह-जंझा-झ(ध)णनासो वाहि-मरण-बसणाइ । उच्चाडए(ण)-विएसो सुन्नघरं होइ अचिरेण ॥ End: जस्स सयणीयगेहे महाणसे वा ठवंति किरि कागा । चम्मं रजु वालं हई वा सो वि लहु मरिही ।। सउणदारं । (ग) उवस्स(स्सु)इदार(उपश्रुतिद्वार). प. ८५-८७ Beginning: अह एत्तो कित्तिजइ अवभिचरियं उवस्सइदारं । तस्स पसत्थंमि दिणे जाए जइण सुयणसमयंमि ॥ End: कश्रुग्घाडणसमणंतरं खु जं सुणइ नन्नो ति । । । आसन्माणासन्नं कलिंति कालं कलाकुसला ॥ ७ ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 82 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS उवस्सइदारं । (घ) छायादा(द्वा)र. प. ८७-८८ Beginning: भणियमुवस्सइदारं दारं छायाए संपयं तत्थ । छायं बहुभेयं पि हु वोच्छं सामनओ चेव ।। End: एवं छायाहिंतो विस्सम्ममुवगम्म सारयारंभो । पायेण मञ्चविसयं कलेइ कालं कलाकुसला ॥ १२३ ॥ छायादारं । (ङ) नाडिदा(द्वा)र. प. ८८-९१ Beginning: एत्तो य नाडिदारं नाडिं च तिहा भणंति तन्निउणा । पढमा इडा परा पिंगला तह य सुसुमणा य ।। End: चंदोदये पयईए विवजयाणुभवणेण होइ धुवं । उद्देग-रोग-सेटुंगहाणि-भय-माणमलिणाई ॥ नाडीदारं । (च) निमित्तदा(द्वा)र. प. ९१-९४ Beginning: भणियं नाडीदारं एत्तो भोमाइ अट्ठभेयं तु । सामन्नेणेव परं निमित्तदारं पयंपेमि । चंकमण-ठाण-निसियण-सोवणभूमी निमित्तविरहे वि । दुग्गंधत्तं जालाउ जस्स दावेइ वि दलईया । End: लेसुद्देसेण इमं निमित्तदारं मये(ए) समक्खायं । एत्तो भणामि किंचि वि सत्तमयं जोइसद्दारं ॥ छ ॥ निमित्तदारं ॥ छ । (छ) जोइसदार (ज्योतिषद्वार). प. ९४-९५ Beginning: जंमि सिणी नक्खत्ते तं नक्खत्तं सुहंमि दायर्छ । चत्तारि वाहिणकरे पाएसु य तिन्नि तिनि भवे ॥ Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ End: (ज) सुविणगदार (स्वप्नद्वार ). Beginning: End: धणमिहुणे जा मित्ते असुहगहा जइ हषंति तो वाहिं । साहिंति मरणमवावियाणसव्वनुणा भणियं ॥ जो सदारं । No I. SANGHAVI PADA इय सुद्देसेणं जोइसदारं पिवन्नियं किंतु । सुविणगविसयं दारं दरिसेमो संपयं किंपि ॥ वानर - विगरालित्थि आलिंगइ सुविणयम्मि जइ कह वि । तह मंसु - केस - हकपणं च ता मरणमचिरेण ॥ २ ॥ (झ) रिदार (रिद्वार). Beginning:— Beginning: . एवं इट्ठे व (च) दव्वं जिणबिंबपूयणा पंचनमोक्कारमंतसरणाओ । तव -1 - नियम - दाणओ तह सुविणे पावे वि मंदफलो ॥ सुवियदारं || प. १०० - १०६ प. ९५-१०० At the end of fol. 106 b. एवं सुविणगदारं दसिय दंसेमि रिट्ठमिह जम्म | न विणा रिट्ठ मरणं न जीवियं दिट्ठरिट्ठमि || ता सव्वपयते (ते)णं रिट्ठ आराहणत्थिणा सम्मं । सययं निरूवणीयं सुगुरुवएसाणुसारेण ॥ Some leaves at the end are missing. (१५) पिपीलिकाज्ञान (प्रा० ). जस्स ध ( प ) भंतालोयं च लहुं मरइ सो वि । नासा वि जस्स सहसा कुडिला पिडगाउला ददं फुडिया || संच्छिदाय भवे भवंतरं सो वि अभिलसइ । अनि .. प. ११०-१११ घय घ- नेह - तिल्ल - कुकुसविवज्जिए जइ पिवीलिया हुति । गेहस्स पुव्वभाए तो तस्स विणासणं मुणह || 83 Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS सयणागमणं जाणह जलणाए दाहिणाए निवपूयं । नेरईए जलवरिसं वरुणाए धणरिद्धी ॥ २ ॥ वायव्वाए महिलाविणासणं उत्तराए धणलाभो । संभवइ देसभंगो एसाणाए वियाणाहि ॥ ३ ॥ बंभट्ठाणे पुण उद्वियाहिं घरसामिअस्स आरोग्गं । दिढ पिवीलियाहिं सत्तदिणभितरे जाण ॥ ४ ॥ जइ रत्तमुइंगाओ हवंति अहवा उ दीव(स)इ जलंमि । ता होइ दव्वहाणी अह मरणभयं गिहत्थस्स ॥ ५ ॥ चुल्ली जइ देहलीए मूले बहुया उ पिवीलिया हुंति । ता होइ समुचलणं सत्तदिणे घरकुडुंबस्स ॥ ६ ॥ धन्नंमि य धणलाहो अंविलिठाणंमि तह य धणलाहो । घरउवरिं रोगभयं अत्थविणासं पयासंति ॥ ७ ॥ चुल्लीए उट्ठियाओ अग्गिभयं कीडियाउ साहिति । देवउल-चञ्चरेसु देसं गामं विणासंति ॥ ८ ॥ पिपीलिकालक्षणं । (१६) भूमिज्ञान (?) Beginning: खत्तु खणेविणु पूरियइ जइ मट्टी बड़ेइ । निद्धा भूमि सलक्खणी फलु निवसंतह देइ ॥ १ ॥ दर-उद्देही-कोलिय-किमि-कीडा-अलि सप्प । रक्खसभूमि भयावणी घरि न वसिज्जइ व(ब)प्प ।। (१७) नाडीविज्ञान (?). प. ११२-११९ Beginning: नत्वा वीरं प्रवक्ष्यामि देहस्थं ज्ञानमुत्तमं । देहमध्यस्थिता नाड्यो बहुरूपाः सविस्तराः ॥ १॥ ज्ञातव्यास्ता बुधैर्नित्यं त्रिकालज्ञानहेतवे । तासां मध्ये वरास्तिस्रो वाम-दक्षिण-मध्यमाः ॥२॥ Endi तिर्यगूर्वगरेखाभिरष्टाभिरिह निर्मितं । यंत्रमेकोनपंचाशत्कोष्टकं स्थापयेद् बुधः ॥ ७४ ।। ततः सृष्टिक्रमेणैव विन्यसेत् तत्र मात्रि(१)कां । खरचक्रमेकं पूर्वमंते हः स्यादजामिधः ॥ ५ ॥ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI Pipa न (स) ध्यायमानौ(नो) विधिना स्याद् विश्वज्ञानकारणं । यतः स एव दैवज्ञः सर्वज्ञः सर्वसिद्धिकृत् ॥ ७६ ॥ विनीताय सुशीलाय गंभीराय महात्मने । शिष्याय गुरुणा देयमास्पदं संपदामिदं ॥ ७७ ॥ प्राणचाराद् विनिश्चित्य स्वस्य भाविशुभाशुभे । अशुभप्रतिघाताय कुर्याद् धर्मोद्यमं सुधीः ॥ ७८ ॥ (१८) विवेकविलास (उ. १-२). प. ११९-१३८ Beginning: धर्मार्थकाममोक्षाणां सिद्ध्यै ध्यात्वेष्टदेवतां । भागेष्टमे त्रियामाया उत्तिष्ठेदुद्यतः पुमान् ॥ १॥ सुस्वप्नं प्रेक्ष्य न स्वप्यं कथ्यमहि च सद्गुरोः । दुःस्वप्नं पुनरालोक्य कार्यः प्रोक्तविपर्ययः ॥ २॥ End: इत्थं किल द्वितीय-तृतीयप्रहरार्धकृत्यमखिलमपि । हृदि कुर्वन्तः सन्तः कृत्यविधौ नात्र मुह्यन्ति ॥ १९१ ॥ सर्वव्यवसायविधिप्रक्रमः समाप्तः । विवेकविलास (उ. ३-५). Incompletc. प. १३८-१७० Beginning: बहिस्तोभ्यागतो गेहमुपविश्य क्षणं सुधीः । कुर्याद् वस्त्रपरावर्त देहशौचादिकं न च ॥ End: पापाः षट्व्यायगाः सौम्यास्तनुत्रिकोणकेंद्रगाः । स्त्रीसेवासमये सौम्ययुक्तंदु [: पुत्रजन्मदः ॥] ११७. श्रावक-द्वादशव्रतकथा (प्रा).* प. १५९ गा. ३५०० ११८. (१) चैत्यवंदनचूर्णि (अपूर्ण). प. ७९; १२३०x१३" (२) प्रत्याख्यानचूर्णि. प. ११० . ११९, त्रुटितग्रन्थपत्रसंग्रह. १२०, विक्रमांकाभ्युदय by सोमेश्वरदेव. प. ८० End:-- * भपूर्णा श्रुटिता। लिटा चीर्णा च । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS इति महाराजाधिराजश्रीपरमेश्वरसत्याश्रयकुलतिलकश्री मद् भूलोकमलसोमेश्वरदेवविरचिते महाकाव्ये विक्रमांकाभ्युदयाख्ये जनपदवर्णनं नाम प्रथम उल्लासः । The end is in the margins. १२१. दशवैकालिकलघुटीका by हरिभद्रसूरि. प. २०४; १५ x १३ " १२२. (१) न्यायप्रवेशकव्याख्या by हरिभद्रसूरि. प. १ - २३१३ ४२” Beginning:— 86 End: सम्यग् न्यायस्य वक्तारं प्रणिपत्य जिनेश्वरं । न्यायप्रवेशकव्याख्यां स्फुटार्थां रचयाम्यहं || रचितामपि सत्प्रज्ञैर्विस्तरेण समासतः । असत्प्रज्ञोपि संक्षिप्तरुचिसत्त्वानुकंपया || २ | न्यायप्रवेशक व्याख्ययावाप्तं मया च यत् पुण्यं । न्यायाधिगमसुखरसं लभतां भव्यो जनस्तेन ॥ समाप्ता न्यायप्रवेशटीका । कृतिराचार्य हरिभद्रस्य । ग्रंथप्रमाणमल ( ? नुष्टुप्) च्छं दसां श्लोकशतानि पंचांकतोपि ५०० मंगलं महाश्रीः । (२) न्यायावतारवृत्ति (अपूर्ण). Beginning: (३) वार्तिक. अवियुक्तसामान्य- विशेषदर्शिनं वर्धमानमानम्य | न्यायावतारविवृतिः स्मृतिबीज विवृद्धये क्रियते ॥ १ ॥ प. ३-४ Beginning: End: प. १-२९ हिताहितार्थ संप्राप्ति - त्यागयोर्यन्निबंधनं । (४) वार्तिकवृत्ति ( विचारकलिका) by शांत्याचार्य. प. ४ - १०१ Beginning: नमः स्वतः प्रमाणाय वचः प्रामाण्यहेतवे । जिनाय पंचरूपेण प्रत्यक्षात्यक्ष देशिने ॥ एवं जिनवरकथितं स्त्रीष्वपि मोक्षं न साधु मन्यते । विध्यादिवादिनोपि हि तथापि मिध्यादृशोहीका || एवं सप्तनयां [ बुधेर्जि]नमताद् बाह्यागमा येभवन् स्थित्युत्पादविनाश वस्तुविरहात् तान् सत्यतायाः क्षिपन् । यो बौद्धाव (द) धबुद्धि (द्ध) तीर्थी (र्थि) कमतप्रादुर्भवद्विक्रमो मलो मलमिवान्यवादमजयत् श्रीमल्लवादी विभुः ॥ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. Sanghavi PĀŅĀ 87 प्रामाण्यलक्षणमबाध(ध्य)मनन्य[ मेय]ने(सूत्राभिधानिगलि(दि)तं विशदं यदर्य । मोक्षार्थसाधनपदार्थविधौ पटीयः प्रोक्तं प्रमाणमिह शाब्दमिदं गरीयः ॥ इति श्रीशांत्याचार्यविरचितायां वार्तिकवृत्तौ आगमपरिच्छेदः । सूरिश्चंद्रकुलामलैकतिलकश्चारित्ररत्नांबुधिः सारं लाघवमादधाति च गिरेयों वर्धमानाभिधः । तच्छिष्यावयवः स सूरिरभवत् श्रीशांतिनामाकृत येनेयं विवृतिर्विचारकलिकानामा स्मृतावा[त्मनः] ॥ अवज्ञानं हीने समधिकगुणे द्वेषमधिकं समाने संस्पर्धा गुणवति गुणी यत्र कुरुते । तदस्मिन् संसारे विरलसुजनेपास्तविपया प्रतिश्वा(ठा)शा शास्त्रे तदपि न(च) भवेत् कृत्यकरणं ।। ग्रंथान २८७३ । १२३. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (नवम पर्व). प. १९६; ११३"-१३ १२४. (१) उपासकदशांग. प. ६-४५ (२) अंतगडदशांग. प. ४६-८४ (३) अणुत्तरोववाइ. प. ८४-९१ (४) प्रश्नव्याकरण. प. ९२-१५२ (५) विपाकश्रुत(अपूर्ण). १२५. तिलकमंजरीटिप्पन by शांत्याचार्य. प. ८३, १४०x२" Beginning: सम्यक् नत्वा महावीरं रागादिक्षयकारणं । उत्पन्नानंतविज्ञानं देवपूज्यं गिरीश्वरं ।। १ ।। तिलकमंजरीनाम्याः कथायाः पदपद्धतिं । श्लेषभंगादिवेपम्यं विवृणोमि यथामति ॥ २ ॥ End: श्रीशांतिसूरिरिह श्रीमति पूर्णतले (ल्ले) गच्छे वरो मतिमतां बहुशास्त्रवेत्ता । तेनामलं विरचितं बहुधा विमृश्य संक्षेपतो वरमिदं बुध! टिप्पितं भोः ! ॥ इदं विधाय यत् पुण्यं निर्मलं समुपार्जितं । तेन भव्या दिवं लब्ध्वा पश्चात् निर्वातु मानवाः ॥ ग्रंथा० पंचाशदधिकं सहस्रं ॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS १२६ (१) द्वयाश्रयकाव्य (प्रा० ) by हेमाचार्य. प. १-७६; १५ ×११" End:-- इति आचार्यश्री हेमचंद्र विरचिते प्राकृते महाकाव्ये अष्टमः सर्गः । समाप्तं च श्रीपृथ्वीचंद्रसूरिशिष्येण हरिचंद्रेण प्रह्लादनपुरे श्रीकुमारपालचरितं नाम प्राकृतद्र्याश्रयमहाकाव्यं । कार्तिकशुदि एकादश्यां खौ समर्थितं । सं० ॥ प्रथमं श्लोकमानं ९५० ।। यादृशं etc. I (२) प्राकृतप्रबोध by नरचन्द्र. प. १-१२७ 88 End:-- इति श्रीमलधारिशिष्य पं० नरचंद्रविरचिते प्राकृतप्रबोधे चतुर्थः पादः समाप्तः । नानाविधैर्विधुरितां विद्युधैः स ( ख ) बुद्ध्या तां रूपसिद्धिमखिलामवलोक्य शिष्यैः । अभ्यर्थितो मुनिरनुज्झितसंप्रदायमारंभमेनमकरोन्नर चंद्रनामा ॥ १२७. (१) चैत्यवंदनचूर्णि (२) वंदनकचूर्णि. (३) प्रत्याख्यानचूर्णि End: - by यशोदेव. १७८; १४३"×११" आवस्सय- पंचासय- पणवत्थूयविवरणानु (शु) सारेण । पञ्चक्खाणसरूवं भणियं जसएवसूरिहिं ॥ Donor's Prasa'sti: प्राग्वाटवंशे प्रवरे पृथिव्यां देदा वरः श्रेष्ठिवरो बभूव । वसाभिधानश्च तद्गजन्मा तस्यापि पोषेत्यभिधस्तनूजः ॥ १ ॥ तस्य च तेजलदेवी जाया पुत्रश्च मलसिंहाख्यः । यो देव - गुरुषु भक्तो झेरंडकनगर मुख्यतमः ॥ २ ॥ तस्य च भार्या साउ धर्मासक्ता सुशीलसंयुक्ता । यस्याश्च मलयसिंहो मोहणदेवी च खलु पितरौ ॥ ३ ॥ तस्याश्च पंच तनया जूठिल - सारंग - जयतसिंहाख्याः । सहिताश्च वेतसिंहाभिधमेघाभ्यां वसुगुणाभ्यां ॥ ४ ॥ पुत्रयस्तथा देउ सारुर्धरणूष्टश्च पांचून । रूडी मातू नाम्नी सप्तैते सुशीलगुणयुक्ताः ॥ ५ ॥ श्रीमतपा गणाधिपसूरि श्रीदेवसुन्दरगुरूणां । उपदेशतोथ सम्यग् धर्माधर्मौ परिज्ञाय ॥ ६ ॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ End: "1 १२८. (१) कर्मस्तव (सवृत्ति) 1) देवेंद्र सूरि. ग्रं. ८३२ प. १ – ९३; ९३ ४२ (२) संग्रहणी | श्रीचंद्रसूरि गा. २७३ प. १-२७ (३) क्षेत्रसमास. गा. ८५ प. १-८ (४) धर्मलक्षण and बेतालीस दोरा प. १-४ गा. ५० प. १-४ (५) संसक्तनियुक्ति. (६) कल्याणि (ण) कस्तव by आसराज श्रो० ३२ ५. १-३ End: End:— No 1. SANGHAVI PADA साऊ सुश्राविका सौ पुत्रपुत्री परीवृता । पत्युर्मल सिंहस्य श्रेयसे शुद्धवासना ॥ ७ ॥ ज्योतिः करंडविवृति तीर्थकल्पांश्च भूरिशः । चैत्यवंदनचूर्ण्यादि श्रीताडपुस्तकत्रये ॥ ८ ॥ पचनेऽहिलाहाने वाद्धिवार्ध्यब्धिभूमिते वत्सरे लेखयामास नागशर्म्माद्विजन्मना ॥ ९॥ एषां संबंधिना मोपाभिवश्राद्धेन धीमता । पाता - देदीतनृजेन लेखितेयं सुपुस्तिका ।। १० ।। नमेर्ज्ञानममावस्याया [मा] विने पौर्णिमा नमच्युतये | आशा राजनुता वः कल्याणैः परयंतु जिनाः || ३२ ॥ १-१६ गा. ३० (७) भावनाकुलक ( प्रा० ). (८) जीवाणुसद्विकुलक ( प्रा० ). (९) भावनाकुलक by सोमदेव. गा. २४ गा. २५ 12 एयं भावणकुलयं वलहजण मरण सोग दुहिये (ए) ण । नियजीववोहणत्थं रइयं ता सोमदेवेण || 89 (१०) भव्यजीवमनोरथ (प्रा० ). गा. १२ (११) चारित्रमनोरथमाला by धनेश्वर. गा. ३० (असम्बद्धपत्राणि ) इय भावणासमेया भवा संपाविउमचिरेण । चरण धणेसरमुणिवइ भबा पार्वति परमपयं ॥ ३० ॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 90 90 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS १२९. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र by हेमचन्द्र. (षष्ठं सप्तमं च पर्व) प. ४०+१-२०७; १७ "४२३ १३०. हैमबृहद्वृत्ति (अ. ६) Damaged. प. ६१-१७५; १४३"४२" १३१. उपदेशमालाकथासमास (प्रा०). by जिनभद्र. ____. १७१; १४०x१४ The right side of the first few leaves is damaged. Beginning: अरहंतमरिहमरुहं पणमिय सिरिवद्धमाणजिणं । संखेवेणं वोच्छं कहाउ उवएसमालाए ।। End:२४ जमालिकथा। नीसेसभुवणपंडियसिरोमणी जयउ धम्मदासगणी । उवएसमालकारी सिस्सो सिरिवीरनाहस्स ॥ १ ॥ उवमियभवप्पवंचकहा कया जेण निरुवमा लोए । विवरणकारस्स सया तस्स नमो सिद्धसूरिस्स ॥ २ ॥ सुगुरु[गु]णरयणसायरसिरिमं अस्सोगसूरिसिस्साणं । सुयचरणपवरसिरिसालिभद्दसूरिसिस्सेहिं ॥ ३ ॥ सिरिजिणभइमुणिंदेहिं सुहयरो विवरणाणुसारेणं । उवएसमालपगरणकहासमासो कओ एस ॥ ४ ॥ एयं पढंति अभिओगजुया गुणति जाणंति जे उवइसंति परेमि(सि) सम्म । जे वा सुणंति हिययंमि विभावयंति तेसि हविज अभिवंछियधम्मसिद्धी ॥ ५ ॥ मंगलं महाश्रीः। १३२. (१) भवभावना by हेमचंद्रसूरि. गा. ५३१ १-६०; १४४११" (२) एगवीसठाणपगरण by सिद्धसेनसूरि. प. ६०-६७ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ End:--- End: Beginning:— इय इकवीसठाणा उद्धरिया सिद्धसेणसूरिहिं । चवीस जणवरा [णमसेस ] साहारणा भणिया ॥ ६६ ॥ एकवीसठाणपगरणं समत्तं । No I. SANGHAvi PĀDĀ (३) प्रशमरति by उमाखाति. (४) जीवविचार by शांतिसूरि. (५) पंचकल्लाण. End: गा. १३७ Beginning:— प. १-४१ प. २-८ प. ८-२९ तित्थं पवयणसुयदेवयं च नमिऊण सबभावेण । कलापंचपणं आइजिणंदं नम॑सामि ॥ १ ॥ पवयणदेवीए नमो जीए पसाएण पंचकलाणं । मंदमणा विरइयं कलाणपरंपराउ || १३७ ॥ पंचकलाणं संमत्तं ॥ पार्श्वनाग. ग्रं. ७६ प. २९-४० (६) आत्मानुशासन by (७) सूक्ष्मार्थविचारसार | जिनवल्लभ. ग्रं. १५५ प. ४०-६३ १३३. (१) उपदेशमाला. गा. ५४२ प. १-३९; १३३×२” by (२) मूलशुद्धि by प्रनसूरि. गा. २१४ प. ३९-५५ (३) बारभावना. प. ५५-७० पढममनि (णि)श्चमसरणय संसारो एगया य अन्नतं । असुइत्तं आसघ संवरो य तह निज्जरा नवमा (मी) | 91 संमत्तंमि उ लद्धे विमाणवज्जं न बंधए आउं । जइ वि न समत्तजढो अहवा बद्धाउओ पुषिं ।। २१० ॥ भावना समत्ता । (४) खेत्तसमास (नमिऊण सजलजलहर ). गा. ८४ प. ७०-७६ (५) सुबाहुचरित्र. प. ७६-९१ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 92 PATTAN CATALOGUE Or Manuscrits End: एयं सुबाहुचरियं गुणसु ट्ठिएणं वीरेण सिढे तु सुणेवि तुम्हे । पत्तेसु दाणं विहिणा विहेह लहेह जिं मोक्खमणंतसोक्खं ॥२१८॥ सुबाहुचरितं संमत्तं । (६) सालिभद्दचरित्त (प्रा०). गा. १७५ प. ९१-१०४ Beginning: सुरवरकयमाणं नट्ठनिसेसजाणं भवजलहिसुजाणं सत्तहत्थयमाणं । वियरियवरदाणं छिन्नकम्मारि ताणं पयडियवरनाणं वंदिउं वद्धमाणं ॥ १ ॥ End: इय परमपवित्तं सालिभहस्स एयं चरियमय(इ)विसिढे जे पढंती मणुस्सा । तह य अणुगुणंती जे उ वक्खाणयंति नर-सुरवरसोक्खं भुंजिय जंति मोक्खं ॥ १७५ ॥ (७) गोयमभासिय. प. १०४-१०९ Beginning: नरिंद-देविंदनमंसियस्स जिणस्स वीरस्स महामुणिस्स । सीसो महप्पा खलु गोयमो त्ति सुणेह न(भे) तस्स सुभासियाई ॥ लोए य वेए समहे तहेव तव्वत्थजत्ताई सुभासियाई । धम्मत्थकामेसु पवेइयाई सुणेहि मे(भे) गोयमभासियाई ॥ २ ॥ End: सम्म पउत्ताई सुहासियाई धम्मत्थकामेसु पवेइयाई । सोऊण मे गोयमभासियाई पसन्नचित्ता निहु[य] य होह ।। वीरस्स पाए विणओणयंगा विलीणमोहे जर-जम्ममुक्के । तिविहेण णिञ्चं चरिया विसुद्धे भावेण तुब्भे सरणं उवेह ॥ ४०॥ उभयमनुष्ट(टुप् )च्छंदसा ५५ ॥ गोयमभासिया समत्ता ॥ (८) जीवदयाप्रकरण (प्रा०). गा. ११६ प. १०९-११८ (९) दर्शनसप्ततिका by हरिभद्र. गा. १२० प. ११८-१२८ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHIAVI PĀDĀ 98 Beginning: नमिऊण वद्धमाणं सावगधम्म समासओ वोच्छं । सम्मत्ताइभावत्थसंगयं सुत्तनीइए ।। End: गोसभणिओ य ति(वि)ही इय अणवरयं तु चिट्ठनाणस्स । भवविरहबीयभूओ जायइ चारित्तपरिणामो ॥ १२० ॥ दर्शनसप्ततिकाप्रकरणं समाप्तं । (१०) वीरविज्ञप्तिका (अपभ्रंश). प. १२८ (१) Beginning: सिरिवीरजिणेसर ! तिजयनाह ! दुहसयदावानलनीरवाह ! । भवजलहिजंतुनिवडंतया (था)ह दय देहि बाय ॥ १ ॥ End: जा चंद दिवायरु नंदउ जिणहरु पाम्बउ सिवसुहु सयलजणु । जगडिजंतउ भवि मोहमहानिवि रक्खि २ जिण! तुह सरणु ॥१३॥ वीरविज्ञप्तिका। (११) पचाशक by हारभद्र. प. ३१ (क) सावयविहिधम्मपगरण. १-४ Beginning and end us in दर्शनसप्ततिका । (ख) दीक्षाविधान. गा. ४४ प.४-६ (ग) वंदनविधान. गा. ५० प.६-९ (घ) पूयाविहिपगरण. ९-१२ (ङ) पञ्चक्खाणविधि. १२-१५ (च) स्तवविधि. १५-१८ (छ) जिनभवनकारणविधान. १८-२१ (ज) प्रतिष्ठाविधि. २१-२५ (झ) यात्राविधान. २५-२८ (ब) समणोवासगपडिमा. २८-३१ (ट) साधुधर्म (त्रुटित). ३१(१२) कर्मस्तवभाष्य. गा. २५ प. १-४ Beginning: अहिणवगहणं बंधो उदओ सविवागवेयणं तस्स । अविवागे यणुभवणा अणुदयपत्तस्सुदीरणया ॥ १ ॥ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS 94 End: सुहुमे दुरुत्तरसयपणयालमिगुत्तरं च पंचासी । पंचासी य अजोगी पयडीणं संतवोच्छेवो ॥ २४ ॥ कर्मस्तवभाष्यं समाप्तं । १३४. हैमलघुवृत्ति (आख्यात). प. २-१४५; १४३"४११" १३५. (१) कल्पसूत्र (मध्ये त्रुटित). प. १२१, १२३४२३" (२) कालकाचार्यकथा (त्रुटित). १३६. (१) उपदेशमाला. प. १-७९, १०३"४२३" (२) धर्मोपदेशमाला. प. ८०-९४ (३) मूलशुद्धिप्रकरण. प. ९४–१२७ (४) कल्याणकप्रकरण. प. १२८-(अपूर्ण त्रुटित). same as १३२ (५). १३७. संग्रहणीवृत्ति by मलयगिरि. प. २९८ End: इति श्रीमलयगिरिविरचिता संग्रहणीटीका समाप्ता । संवत् १२९० वर्षे माघवदि १ रवौ पुस्तकमिदं लिखितं । १३८. संघाचारटीका by देवेन्द्रमरि. प. २५६, १८३"४२३" End: इति श्रीसंघस्य प्रतिदिनमवश्यं कृतविधौ सुधर्मानुष्ठाने प्रकटमधिकारः प्रथमकः । सदार्हचैत्यानां विहितविधिवद् वंदनवरः श्रुतादाम्नायाञ्च प्रकृतविवृतिः पारमगमत् ।। श्रीदेवेंद्रसूरिविरचितायां श्रीसंघाचारटीकायां चैत्यवंदनाधिकारः प्रथमः समाप्तः।। १३९. अनेकार्थसंग्रह by हेमचंद्र. प. १२४; १८१४२" १४०. (१) पुष्पमाला by हेमचंद्र (मलधारी). प. १-३२ (२) संग्रहणी. प. १-३७ Beginning: निट्ठवियअट्ठकम्मं वीरं नमिऊग तिगरणविसुद्धं । नाणमहंतमहत्थं ता संगहणि त्ति नामेणं ॥ १ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ End: No. I. SANGHAVĪ Pāpā जं उट्ठयं सुयाओ पुत्राय रियक्कममह य समईए । खमियवं सुधरेहिं तद्देव सुयदेवयाए उ || ३६६ ॥ संचयणी सम्मत्ता || १४१. प्रकरणसंग्रह. प. २५२; (१) आवश्यक निर्युक्ति. (२) दशवैकालिक. १३३" ×२३" प. १-११७ ११८-१३९ (३) ओघनिर्मुक्ति. १४०-१८० (४) पिंडविशुद्धि | जिनवल्लभ. १८१ - १८५ (५) उपदेशमाला. १८५ - २०६ (६) धर्मोपदेशमाला. २०७ - २१० २१०--२१८ (७) मूलशुद्धि प्रद्युम्नमरि. (८) विवेकमंजरी. २१८-२२३ (५) योगशास्त्र ( ४ प्रकाश ) . २२३-२४० (१०) वीतरागस्तव. २४१-२४९ (११) आत्मानुशासन. २४९-२५१ (१२) लघु अजितशांति (अपभ्रंश) by वीरगणि. २५१-२५२ Beginning:— गभ अवयारि सोहम्मसुरसामिओ जणणि जैसिंधु भत्तिभरनामिओ ति जिण इक्खाग - कुरुवंसभूमणपरा अजिय-संती नंदंतु मंगलकरा | End: एहु संच्छरे पक्खि-चउमासए अजय-संतित्थओ भणइ जो निर्माणए । कहइ गणवीरगणि भवियजण अग्गए अस (सु)हुत जाइ सुहु सयलु संपजए ॥ ८ ॥ लघु अजित - शांतिस्तवः समाप्तः । Prs'asti of the donor. नि[ : ] श्रेयसश्रीसदनः श्रीवीरः श्रेयसेस्तु वः । त्रिलोकी विस्मितानंद रस्ते यद्वचः सुधां ॥ १ ॥ 9 Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 96 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS औदार्यादिगुणग्रामरने रत्नाकरोपमः । श्रीमान् श्रीमालवंशयं विद्यते भूमिभूषणं ॥ २ ॥ तत्रासीद् गुणसंपूर्णः पूर्णसिंहाभिधः सुधीः । तस्य पत्नी यशोदेवी सतीवर्गशिरोमणिः || ३ || उदयं नीतो दिनकृत् शशीव तेनेह दीपितो दीपः । नयनं च कृतं जगतां जिनवचनं लेखितं येन ॥ ४ ॥ इत्थमाकर्ण्य कर्णाभ्यां सुधारससरस्वतीं । श्रीमत्कीर्तिसमुद्र.. .. रूणां सरस्वतीं ॥ ५ ॥ धनपालाभिधानेन तयोर्ज्येष्ठेन सूनुना । अनुजस्याथ पुण्याय महीपालस्य धर्मिणः ॥ ६ ॥ आशाप्रभाभिधा.. I . आवश्यकं बंधोलेखितं धर्मशासनं ॥ ७ ॥ मंगलं भवतु सर्वसज्जने मंगलं भवतु धर्मकर्म्मणि । मंगलं भवतु पाठकजने [मंगलं ] भवतु लेखके सदा ॥ छ । छ । प्रशस्तिः कृतिरियमाशाप्रभस्य । मंगलं महाश्रीः । ......... ........ १४२. (१) एगवीसठाणप्रकरण. (२) पंचाशक. (३) कर्मस्तव. (४) कर्मविपाक by गर्ग. (५) शतकप्रकरण. (६) सत्तरिप्रकरण. (७) आराधनाप्रकरण. (८) संग्रहणी. (९) ऋषिमंडल (अपूर्ण). १४३. पचाशक. End: प. १-८ ? प. १-६८ ६९-७४ ७४-८६ ८६-९५ ९६ - १०१ १०२ - १२३ १२४ - १५१ १५२ - १८६ प. १५४ १२”×२१” संवत् १२८८ वर्षे शाके ११५४ वैशाषशुदि ९ शुऋदिने चंद्रावत्यां लिखितं । शुभं भवतु लेखक - पाठकयोः । यादृशं etc. १४४. प्रशमरतिवृत्ति by हरिभद्रसूरि. प. १९२ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAvi PADA Beginning: ओं नमो वीतरागाय । उदयस्थितमरुणकरं दिनकरमिव विमलकेवलालोकं । विनिहतजडतादोषं सद्वृत्तं वीरमानम्य ॥ १ ॥ वक्ष्यामि प्रशमरतेविवरणमिह वृद्धवृत्तितः किंचित् । जडमतिरप्यकठोरं स्वस्मृत्यर्थं यथाबोधं ॥ २ ॥ यद्यपि मदीयवृत्तेः साफल्यं नास्ति तादृशं किमपि । सुगमत्व-लघुत्वाभ्यां तथापि तत् संभवत्येव ।। इहाचार्यः श्रीमानुमास्वातिपुत्रस्त्रासितकुतर्कजनितवितर्कप्रपंचः पंचशतप्रकरणप्रबंधप्रणेता वाचकमुख्यः समस्तश्वेतांबरकुलतिलकः etc. End: यत्यालये मंदगुरूपशोभे सन्मंगले सबुधराजहंसे । तारापथे वा सु(चाशु)कविप्रचारे श्रीमानदेवाभिधमूरिगच्छे ॥ १॥ भव्या बभूवुः शुभशस्यशिष्या अध्यापकाः श्रीजिनदेवसंज्ञाः । तेषां विनेयैर्गुरुभक्तियुक्तैः प्रज्ञाविहीनैरपि शास्त्ररागात् ॥ २॥ श्रीहरिभद्राचार्य रचितं प्रशमरतिविवरणं किंचित् । परिभाव्य वृद्धटीकाः सुखबोधार्थं समासेन ॥ ३ ॥ अणहिलपाटकनगरे श्रीमजयसिंहदेवनृपराज्ये । बाण-वसु-रुद्रसंख्ये विक्रमतो वत्सरे व्रजति ॥ ४ ॥ श्रीधवलभांडशालिकपुत्रयशोनागनायकवितीर्णे । सदुपाश्रयस्थितैस्तैः समर्थितं शोधितं चेति ॥ ५ ॥ यदिहाशुद्धं किंचित् छद्मस्थत्वेन लिखितमस्माभिः । तच्छोध्यं धीमद्भिः सम्यक् संचिंत्य समयज्ञैः ॥ ६ ॥ शास्त्रस्य पीठबंधः १ कपाय २ रागादि ३ कर्म ४ करणा ५ ः ६। अष्टौ च मदस्थानाः ७ आचारो ८ भावना ९ धर्मः १० ॥७॥ तदनु कथा ११ जीवाद्या १२ उपयोगा १३ भाव १४ वदिव द्रव्यं १५। चरणं १६ शीलांगानि १७ च ध्यान १८ श्रेणी १९ समुद्घाताः २० ॥८॥ योगनिरोधः क्रमशः २१ शिवगमनविधानमंत्यफलमस्य । २२ द्वाविंशत्यधिकारा मुख्या इह धर्मकथिकायां ॥ ९ ॥ व्याख्यामेतस्य शास्त्रस्य कृत्वा पुण्यं यदर्जितं । तेन भव्यो जनः सर्वो लभतां शर्ममुत्तमं ॥ १०॥ 13 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 98 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS धात्री धात्रीधरा यावद् यावचंद्र-दिवाकरौ । तावदज्ञानविध्वंसा नंद्यादेषा सुपुस्तिका ॥ ११ ॥ ग्रंथानमत्र जातं प्रत्यक्षरगणनतः ससूत्रायाः। सद्वृत्तेरष्टादश शतानि श्लोकमानेन ॥ १२ ॥ अंकतो ग्रंथ० १८०० । इति श्रीबृहद्गच्छीयश्रीहरिभद्रसूरिविरचिता प्रशमरतिवृत्तिः समाप्ता। Colophon: सं० १२९८ कार्तिकसुदि १० बुधवारे प्रशमरतिपुस्तिका लिखितेति । मंगलं महाश्रीः । शिवमस्तु लेखक-पाठकयोः । १४५. सप्ततिकाटीका by मलयगिरि. प. १२२ End: निरुपममनंतमनघं शिवपदमधिरूढमपगतपारु(?पांसु)लकं । दर्शितशिवपुरमार्ग वीरजिनमतं परमशिवं ।। यस्योपान्तेपि संप्राप्ते प्राप्यंते संपदोनधाः । नमस्तस्मै जिनेशश्रीवीरसिद्धांतसिंधवे ॥ २ ॥ यैरेषा विषमार्था सप्ततिका सुस्फुटा कृता सम्यक् । अनुपकृतपरोपकृतश्चूर्णिकृतस्तान् नमस्कुर्वे ॥ ३ ॥ प्रकरणमेतद् विषमं सप्तति (त्या)ख्यं विवृण्वता कुशलं । यदवापि मलयगिरिणा सिद्धिं तेनाश्नुतां लोकः ॥४॥ अर्हतो मंगलं सिद्धान मंगलं संयतानहं । अशिश्रियं जिनाख्यातं धर्म परममंगलं ॥ ५ ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचिता सप्ततिकाटीका समाप्ता। Colophon: संवत् १२२१ वर्षे चैत्रशुदि ४ बुधे । ग्रंथाग्रं ३७८० ॥ १४६. (१) ओघनियुक्ति. प्र. ११९० प.१-११२ (१) पिंडनियुक्ति. पं. ७०३ प. ११३-१९३ १४७. शिशुपालवध. Damaged. प. २२३ १४८. (१) आराधनाकुलक by सोमसूरि. प. ७२-८४ (२) जीवाणुसट्ठिसंधि (अपभ्रंश ). प. ८५-९२ (३) अनाथिसंधि प. ९२-१०१ (४) अवंतिसुकुमालसंधि (). प. १०१-१२१ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 99 ___No I. SANGHAVI PADA १४९. (१) संग्रहणीरत्न by मलधारि श्रीचंद्रसरि. प. १-२० (२) क्षेत्रसमास (नमिऊण सजलजलहर०) प. २०-२८ (३) लघुसंग्रहणी by हरिभद्र. प. २८-३० (४) कर्मस्तव. गा. ५४ प. ३०.-३३ (५) कर्मविपाक. गा. १६८ प. ३३-४४ (६) गौतमपृच्छा. गा. ६४ प. ४४-४९ (७) जीवविचार by शांतिसरि. गा. ५१ प. ४९-५२ (८) पिंडविशुद्धि. गा. १०४ प. ५२-६१ (९) अजितशांति. गा. ४० प. ६१-६५ (१०) लघु अजितशांति ( अपभ्रंश ). गा. ८ प. ६५-६६ (११) मिथ्यात्वपरिहारकुलक (प्रा०). गा. ३० प. ६६-६८ (१२) सप्तषष्टि सम्यक्त्व भेद (प्रा०). गा. १६ प. ६८-६९ (१३) उपदेशगाथा (सम्यक्त्वविषये ). गा. २६ प. ६९-७१ (१४) नवतत्त्व. गा. १६ प. ७१-७२ १५०. (१) वसंतराज (शाकुनग्रन्थ अपूर्ण निरुपयोगि) (२) योगसार ? ( सविवरण ? ) १५१. (१) कल्पसूत्र.. (२) कालिकाचार्यकथा (प्रा०). गा. १५४ S १५२. हैमलघुवृत्त्यवचूरिका (आख्यात and कृत) by धनचंद्र. ८०+६२, ९४२ End: पंडितधनचंद्रेण व्याकरणलघुवृत्त्यवचूरिका श्रुतोद्धृता च सुगुरोः श्रीमद्देवेंद्रसूरितः श्रीसिद्धहेमव्या० कृतस्य...... १५३. हैमलघुवृत्ति ( आख्यात). प. १६२; १३"४१;" १५४. शंभलीमत ]y दामोदरगुप्त. *प. १८३+२-१५; १५०४२" गाथा १०३९, ग्रंथान १२९० Beginning: ओं नमः शिवाय । स जयति संकल्पभवो रतिमुखशतपत्रचुंबनभ्रमरः । यस्यानुरक्तललनानयनांतविलोकितं वसतिः ॥ १ ॥ * अन्तिमपत्रत्रय शकलरूपम् , २-१२ पत्राणि शीर्णानि । . प. ९७ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS अवधीर्य दोषनिचयं गुणलेशे सन्निवेश्य मतिमार्याः ! शंभल्या मतमेतद् दामोदरविरचितं शृणुत ॥ २ ॥ अस्ति खलु निखिलभूतलभूषणभूता विभूतिगुणयुक्ता । युक्ताभियुक्त जनता नगरी वाराणसी नाम ॥ ३ ॥ अनुभवतामति यस्यामुपभोगान् [कामतः ] शरीरवतां । शशधरखंड विभूषणदेहलयः किल न दुःप्रापः ॥ ४॥ चंद्रविभूषितदेहा भूतिरताः सभुजंग [ परि]वारा: 1 वारस्त्रियोपि यस्यां पशुपतितनुतुल्यतां याताः ॥ ५ ॥ विकराला advises मालती 100 Fol. 25:- वात्स्यायन - मदनोदय - दत्तक - विटपुत्र - राज [पुत्रा ] द्यैः । उच्छुसितं यत् किंचित् तत् तस्या हृदयदेशमध्यास्ते ॥ १२२ ॥ भरत - विशाखिल- दत्तिल - वृक्षायुर्वेद - चित्र-सूत्रेषु । पत्रच्छेदविधाने भ्रमकर्मणि पुस्तशास्त्रेषु ॥ १२३ ॥ The हारलतोपाख्यान begins on fol. 35, with verse 173 and ends in fol. 96, verse 495. The names कुसुमपुर, पाटलिपुत्र, आवु, सुन्दरसेन etc. occur in this उपाख्यान. Fol. 108 :- रणशिरसि हते व वत्रोपमयंत्र निर्गतग्राव्णा । प्राणान् मुमोच गणिका न मंत्रविधिना हृता नाम ॥ ५३१ ॥ कालवशेनायासीत् पंचत्वं दाक्षिणात्यमणिकंठः । प्रेमोपगता वेश्या तेनैव समं जगाम भस्मत्वं ॥ ५३२ ॥ भास्करवर्मणि याते सुरवसतिं भूभुजा निवार्यमाणापि । तद्दुःखमसहमाना प्रविवेश विलासिनी दहनं ॥ ५३३ ॥ ज्वालाकराल हुतभुजि नन्नाचार्यः पपात नरसिंहः । तस्मिन्नेव शरीरं निजमजुहोच्छोक पीडिता [दा ]सी ॥ ५३४ ॥ प्रीतिभराक्रांतमतिस्त्रिदशालयजीविकां क्रमोपनतां । अंगीचकार मुक्त्वा कबका भट्टविष्णुमामृत्योः ॥ ५३५ ॥ देशांतरादुपेते प्रसादमात्रेण वीक्षिते विनते । पादयुगं त्यजति न वामदेवस्य समिति हतस्य ।। ५३६ ॥ भट्टकदंबकतनये याते वसतिं परेतनाथस्य । चक्रे देहत्यागं रणदेवी वारयोषितां मुख्या ।। ५३७ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PADA अस्यामेव नगर्यां द्रविणमदात् कालसंचितमशेषं । प्रेमाकृष्टा गणिका भट्टात्मजनीलकंठाय ।। ५३८ ।। 589 Aryãs up to निःसारण Dismissal of the lover. इदानीं निःसारणोपायं व्याख्यास्यामः । Fol. 120: Fol. 129 :- भिन्नसन्धान inducing the man who was dismissed before as he had no wealth but who has now become rich. 47 verses in all. Fol. 144:- शृणु सुश्रोणि ! यथास्मिन् कलशेश्वरपादमूलमंजर्या । प्रवराचार्य दुहित्रा राजसुतश्चर्वितश्च मुक्तश्च ॥ salt मंजय्र्याख्यानमाह 119 verses in all. here. New numbering of verses for this far has been given मंजरीकथा does not end at the end of the second century of Aryas. End (i. e. verse 318. ): अयि सुभ्रतत् क्रियते .. End:— ..... . आततान रतिकर्म ॥ ३१८ ॥ प्रथा १२९० द्वादशशतानि नवत्यधिकानि ॥ Some portion of the work, seven folia in all are damaged. The folia containing the stanzas 200-300 are lost, and amongst the stanzas 300-319 only portions remain. १५५. (१) उपदेशमाला by धर्मदासगणि. गा. ५४३ प. ६०; १२३४२" Beginning:— नमिऊण जिणवरिंदे इंद-नरिंदचिए तिलोयगुरू । 101 अक्खरमत्ताहीणं जं जं गुणियं अयाणमाणेणं । तं खमउ मज्झ सव्वं जिणवयणविणिग्गया वाणी ॥ ५४३ ॥ Beginning: (२) उपदेशमाला by हेमचंद्रसूरि गा. ५०५ प ६० - १२० (३) आवश्यकस्वरूप. गा. ३१७ प. १२१-१५५ जह गणहरेहिं भणियं सुत्तंमि तहा परंपराणुगयं । आवस्सस्सरूवं साहेमि तहा समासेणं ॥ १ ॥ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 102 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS End: पञ्चक्खाणमिणं सेविऊण भावेण जिणवरुढेिं । पत्ता अनंतसत्ता सासे(सय)सुक्खं लहु मुक्खं ॥ ३१७ ॥ (४) संग्रहणीरत्न by श्रीचंद्रसूरि. प. १५५-१८० (५) जंबूद्वीपसमास. गा. ११२ प. १८०-१८८ (६) विवेकमंजरी. गा. १४५ प. १८९-२०१ (७) उपदेशकंदली. प. २०१-२१५ (८) पिंडविशुद्धि. प. २१६-२२४ (९) धर्मोपदेशमाला. प. २२५-२३४ (१०) ज्ञानप्रकाशकुलक (अपभ्रंश). गा. ११४ प. २३४-२४५ Beginning: देवहं देवु सु जगी जयउ तिहुयणगुरु जिणराउ । अज वि नाणपसाउ जसु पसरइ पयडपहावु ॥ १॥ End: जहठियगुणलक्खा जे हवंतीह दक्खा विसयसुहविरत्ता अप्पनाणप्पसत्ता । सिरिजिणपहलग्गा भववग्गा समग्गा परमपयसुहाणं जायई ते निहाणं ॥११४॥ ज्ञानप्रकाशकुलकं रचितमिदं श्रीजिनप्रभाचार्यैः । श्रीशचुंजयसत्तीर्थसेविभिर्मोहनाशाय ॥ ११५ ॥ (११) आत्मानुशासन. प. २४७-२५६ (१२) मूलशुद्धि. प. २५६-२७४ (१३) योगशास्त्र (४ प्रकाश). प. १-३४ (१४) वीतरागस्तव. प. ३४-४८ (१५) भक्तामर. प. ४८-५३ (१६) नवतत्त्व. प. ५४-५८ (१७) एगवीसठाणपगरण, प. ५८-६२ (१८) लघुरत्नत्रय. (१९) परमसुखद्वात्रिंशिका by जिनप्रभ (आगमिक).प.६५-६७ (२०) धर्मलक्षण. प. ६७-६८ (२१) प्रश्नोत्तररत्नमाला. प. ६८-७० (२२) दशवकालिक (४ अध्ययन). Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PĀṇā (२३) चउसरण. (२४) साधारणस्तव ( प्रा० ). १५६. पंचाशके ( २० ). Beginning: End:— प. ९-१२ प. १२ - १३ प. १२९ नमिऊण वीरनाहं वोच्छं नवकार माइउवहाणं । किंपि पट्टामहं विमूढसंमोह महणत्थं ॥ इय भूरिउजुत्त जयंमि बहुकुस लहिए मग्गे । कुग्गहविरहेण उज्जमह महह जइ मुक्खसुहमणहं ॥ इति विंशतितमं प्रकरणं समाप्तं । १५७. न्यायकुसुमांजलिटीका by वामध्वज. प. १५५; १२ ×१३ Beginning:— यद्योगि मुख्यैरपि नैव गम्यं यत् कारणं सर्ग -लय-स्थितीनां । दर्धदेह स्थित सुंदरी कमीशस्य तद्रूपमहं नमामि ॥ १ ॥ भुवनत्रये यस्य कर्त्या पल्लवितं विभोः 1 तं नमामि विरूपाक्षं गुरुं वाक्- काय मानसैः ॥ २ ॥ विषमग्रंथ दुर्गंथि विपाटनपुरःसरं । वामध्वजेन संकेतः क्रियते कुसुमांजली || ३ || भ्रातस्तर्क ! तवातिकर्कशतया मातर्मृदुत्वात् तघ ब्रा ! कापि न दृश्यतेत्र युवयोर्योगो ने यद्यपि । कारुण्येन तथापि मामकमुखाख्याब्जे मुहुः श्रीयतां येनाहं कुसुमांजलेर्विवरणं कुर्यामहाद्युति ॥ ४ ॥ यद्यप्यस्य विवेचितानि बहुशस्तत्त्वानि तज्ज्ञैर्जनैः थे ननु पिष्टपेषणमतिः कार्या तथाप्यत्र न । रत्नानि त्रिदशैर्यदप्यवहितैर्निर्मध्य पाथोनिधे राकृष्टानि तथापि जातु किमसौ रत्नैर्भवत्युज्झितः ? ॥ ५ ॥ 103 First Colophon:— श्रीबामेश्वरध्वजविरचिते कुसुमांजलि निबंधे प्रथमः परिच्छेदः समाप्तः । १ एकोनविंशपंचाशकोपरि विंशतितममुपधानपंचाशकमत्र विद्यते । Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 104 PATTAN ÇATALOGUE OF MANUSCRIPTS मिथ्याज्ञानतमिस्रमुद्रितदृशः संसारदुःखाकुलान् लोकान् दर्शयितुं सुमार्गममिता न्यायागमैव्यंजिता । श्रीवामध्वजनामधेयमुनिना विद्यावतामर्जिता टीका(के)यं कुसुमांजलेविरचिता चेतश्चमत्कारिणी ॥ १ ॥ वामध्वजेन रचिता जगतां हिताय न्यायप्रबंधकुसुमांजलिसंज्ञकस्य । श्रीशैलराशिगुरुमन्युहिताय चारु टीका लिलेख परमाङ्गमनाः सुमैत्र्या ॥ End: इति परमपाशुपताचार्यपंडितश्रीवामेश्वरध्वजविरचिते न्यायकुसुमांजलिनिबंधने पंचमः परिच्छेदः। दोषेष्वेव गुणान् स्वयं विरचिते ग्रंथे गुणेष्वेव च दोषानन्यकृते यदाप्यवहिताः शंकाः समारोपितुः । तन्मुक्त्वैव तथापि धूर्यरचितः माहात्म्यमालंब्य च ग्रंथोयं गुण....यैव सततं सद्भिः समावर्ण्यतां ॥ १॥ पारंपर्यवशाद् गुरोर्गुरुगुणग्रामैः सहस्रादिभिः __ वादात् स्वीयविचारतश्च सुधियां शश्वञ्च स वदि(संवाद)तः । निर्णीतं कुसुमांजलेः किमपि यत् तत्त्वं मया सांप्रतं कार्यस्तत्र विपर्ययो न चतुरै वटि(चां) विचारोद्यतैः ॥ २ ॥ यस्मिन् जल्पति वाद्यवक्रिमवशाद् वक्रत्वमत्यद्भुतं बिभ्राणास्तदुपाधि षडपि ते तर्काः पुरो वादिनां । तस्मात् तत्त्वमवेत्य तात्त्विकगुरोः श्रीमद्विरूपाक्षत श्चक्रे वृत्तिमिमां समाहितमतिर्वामध्वजो धीरधीः ॥३॥ शुभमस्तु सर्वजगतः etc. सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ।। Colophon: स्वस्ति परमभट्टारकपरमेश्वरपरमशैवसप्रक्रियोपेतमहाराजाधिराजमहासामंताधिपतिः राज्ञा श्रीयुवराजदेवसभुज्यमानचौसानगरावस्थिते महामहोपाध्यायमिश्रस्तलेमाणेसुतउपाध्यायश्रीमहादेवस्य पाठा) तीरभुक्तिसं०कर्णकुलालंकारठकुरश्रीमाधवेन लिखितमिदं यथा दृष्टं तथा लि............ १५८. कर्मविपाकवृत्ति (स्वोपज्ञ) by देवेन्द्र. प. *१८९; ९३"४१३" * अत्र त्रुटितपत्राण्येतानि २८, २९, ४९, ५०, ८६, ८७, १०७, १२७, १६५, १६८, १५० Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. SANGHAVI PADA १५९. (१) योगशास्त्र ( १२ प्रकाश ). प. १ - १००; १३३”×२" (२) वीतरागस्तव. ग्रं. १०४५ प १०१-११९* Colophon: संवत् १२२८ वर्षे श्रावणसुदि १ सोमे अग्रेह श्रीमदणहिलपाटके समस्तराजावलीसमलंकृतमहाराजाधिराजपरमाह्त श्री कुमारपालदेवकल्याणविजयराज्ये तत्पादपद्मोपजीविनि सामंतमंत्रिणि वलापद्रपथकं परिपंथ [य]तीत्येवं काले प्रवर्तमाने श्रीप्राग्वाटवंशोद्भवठ० 50 कटुकराजतत्सुतठ० सोलाक तत्पत्नी राजुका ताभ्यां पुत्रेण जगत्सिंहनाम्ना संताणुद्रमायातेन पं० थूलभद्रयोग्या पुस्तिका || १६०. अनेकार्थसङ्ग्रह by हेमचन्द्र. ग्रं. १८२७ प. ४९ १६१. (१) योगशास्त्र ( ४ प्रकाश) प. १ - ३१; १४”×२” (२) वीतरागस्तोत्र. प. ३२-४५ (३) बोधप्रदीप (त्रुटित). प. ४५-५२ Beginning: End:— चूडोत्तंसितचारुचंद्रकलिकाचंचच्छिखाभास्वरौ लीलादग्धविलोलका मशलभः श्रेयोदशाग्रे स्फुरत् । .तिमिरप्राग्भारमुच्छेदयेत् चेतः सद्मनि योगिनां विजयते बोधप्रदीपो हरः ॥ १ ॥ किं करिष्यत्यहो तेषां माया.. येषां बोधप्रदीपेन मुक्तिमार्गः प्रदर्शितः ॥ ५० ॥ बोधप्रदीपः समाप्तः । (४) आत्मानुशासन. (५) मोक्षोपदेशपञ्चाशिका by मुनिचन्द्रसूरि. प. ५७-६१ (६) प्रशमरति. (७) ज्ञानाङ्कुश. Beginning:-~ प. ५२-५७ प. ६१-८३ प. ८४-८६+ 105 महात्मनां सत्त्ववशाद्यवस्थितिर्हढा परिज्ञानसमाहितात्मनां । परोपचारेषु तु माहात्मनः समानयेत् कल्पनया नयांकुशं ॥ १ ॥ यथा ममात्मा प्रियसंपदुद्यतस्तथा परेषामथवा विशेषतः । अवामुयुश्चेन्मदभिलवात् प्रियं न ते चरेयुः कथमात्मनः प्रियं ॥ २ ॥ * अन्तिममर्थं पत्रं नास्ति । + पञ्चाशीतितमं पत्रं न दृश्यते । 14 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 106 End: सर्वतः परिधावतं मनोमत्तमतंगजं । ज्ञानांकुशवशं कृत्वा पुनः पंथानमानयेत् ॥ २८ ॥ ज्ञानांकुशप्रकरणं समाप्तमिति । PATTAN CATALOGUE OE MANUSCRIPTS (८) कर्मग्रन्थ (९) प्रवचनसन्दोह 7 (१०) पश्चाशक. (११) उपदेशमाला (१२) दशवैकालिक १६२. पिण्डविशुद्धिवृत्ति by यशोदेव. १६३. (१) आवश्यकनिर्युक्ति (अपूर्ण). (२) परिग्रहप्रमाण (प्राकृत ). गा. ३३ (३) गा. ४१ (8) गा. ४२ Beginning:— End: १६४. हैमशब्दानुशासनवृत्ति. "" "" १६५. (१) चैत्यवन्दन (२) प्राभातिकाष्टक. Beginning: प. ८६- १५५ प. १५५-२२१ प. १-२५३ प. १५८; १३”×१३” प. १ - २०९ ( द्वितीयाध्यायस्य प्रथमपादपर्यन्तम् ) प १४४; १५ ×१३” प. १-५ · प. १-१० त्रुटित सर्वज्ञ सर्वहित सर्वद सर्वदर्शिन् सर्वार्थवाग्विभवबोधितसर्वसत्त्व ! नित्यं चतुः सुरनिकाय कृतांघ्रिसेव ! दृष्टोसि देव । मम संप्रति सुप्रभातं ॥ प्रातर्जिनं प्रतिदिनं मनसि स्मरंतो ये सुप्रभातमिदमस्खलितं स्मरं ( प ) ति । ते सर्वदैव दिवसान् परमप्रमोदकल्याणकल्पितगुणान् गुणिनो नयंति ॥ ९ ॥ इति प्रभाताष्टकमिदं समाप्तं ॥ (३) शाश्वतजिनचैत्यस्तवन by धर्मसूरि. नित्ये श्रीभवनाधिवासभवनत्राते मणिद्योतिते कोव्यः सप्त जिनौकसां समधिका लक्षास्तथा सप्ततिः । प्रत्येकं भवनादिषु प्रतिसभं स्तूपत्रयं शाश्वतं तत्र श्री ऋषभादयो जिनवराः कुर्वतु वो मंगलं ॥ १ ॥ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ End: No 1. SANGHAVI PADA शाश्वताशाश्वतान्यैश्च (० न्ये च ) चैत्यानि पुरुषोत्तमाः । भव्येभ्यो मंगलं दद्युः स्तुताः श्रीधर्मसूरिभिः ॥ १४॥ इति शाश्वतजिनचै त्यस्तवनं । (४) जम्बूद्वीपसमास. (५) यतिप्रतिक्रमणसूत्र. (६) दशवैकालिक. (७) पाक्षिकसूत्र. (८) अजितशान्ति. (९) पिण्डविशुद्धि. (१०) आवश्यकनियुक्ति. (११) ओघनिर्युक्ति. (१२) पिण्डनिर्युक्ति. (१३) उत्तराध्ययन. १६६. (१) पुष्पमाला by हेमचन्द्र. (२) धर्मोपदेशमाला. Beginning: ग्रं. ११४० ग्रं. ७१६ ग्रं. ३५०० (३) पापप्रतिघात - गुणबीजाधान. (४) मूलशुद्धि by प्रद्युम्नरु (५) पञ्चकल्याणक. प. गा. २१२ प. प. तित्थं पवयणसुयदेवयं च नमिऊण भावेणं । कल्ला पंचपणं आइजिणिदं नम॑सामि ॥ १ ॥ (६) जीव विचार. (७) शीलोपदेशमाला. (८) धर्मरत्न by शान्तिसरि गा. १४५ (९) सङ्ग्रहणी by श्रीचन्द्र. (१०) अतिचार. प. ६-८ प. १--३ प. ३-१८ प. १८- २५ प. २५-२७ प. २७-३० प. ३०-९९ प. ९९-१२९ प. १२९-१४७ प. १४७-१९४ प. प. शाखासंततिसंनिरुद्धभुवनः सद्वृत्ततासंगतः प्रोद्यत्पर्व परंपरापरिगतः प्राप्तप्रतिष्ठो भुवि । 107 प. ९२-९७ प. ९८ - १०९ प. १०९ - १२४ प. १२४-१४७ प. १४७ - १५५ प. १५५ - १६९ (११) नवपदप्रकरण. १६७. (१) शान्तिनाथचरित्र (त्रिषष्टिश. ५ पर्व ). प. १-१४६ Prasasti of the Donor: १-४७ ४७-५६ ५६-६१ ६१-७९ ७९-९२ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 PATTAN CATALOGUE or Manuscripts रत्नानां खनिरुन्नतो मुनिमतः श्रीमानृजुः प्रायशो __ वंशो वंशसमः समस्तविदितः श्रीमालसंज्ञः परः ॥ १॥ तस्मिंश्वारुभटश्रेष्टिकुलाब्धिसोमसंनिभः । शीलकुक्षिसरोहंसः श्रेष्ठी सोमाभिधोभवत् ॥ २ ॥ स्वच्छश्चेतसि सस्पृहश्च यशसि प्रद्वेषवानागसि मंदो नर्मणि पापकर्मणि जडः सक्तः शुभे कर्मणि । साधुः साधुजने विधुः परिजने बंधुः परस्त्रीजने यो लिप्सुश्चरणे पटुर्वितरणे दक्षः क्षमाधारणे ॥ ३ ॥ सलक्षणाभिधा पत्नी लक्ष्मीर्विष्णोरिवाभवत् । तस्य लक्षणसंपूर्णा मधुरालापसारणिः ॥ ४ ॥ स्फुरितनयविवेको नागपालो विनीतो जिनमतगतशंको विद्यते तस्य पुत्रः । जिनपतिपदभक्तः शुद्धधर्मानुरक्तः कुमतगमविरक्तो दान-दाक्षिण्ययुक्तः ॥५॥ चिंतामणिः प्रणयिनां वसतिर्गुणानां लीलागृहं मधुवचोरचनांगनायाः। पुत्री ततः समजनिष्ट सुशीलरम्या मोपल्लदेव्यभिधया मतिगेहमेकं ॥ ६ ॥ दानधर्म त्रिधाश्रौषीदुपष्टंभालयश्रुतात् । भत्त्या मोषल्लदेवीह स्वगुरोर्मुखतोन्यदा ॥ ७ ॥ तत्रापि श्रुतदानस्य शुश्राव फलमुत्तमं । तन्निदाना हि वस्तूनां हेयादेयव्यवस्थितिः ॥ ८ ॥ ततश्च । यस्य ध्याननिलीनस्य हाव-भावप्रकाशनैः । न चेतश्चालयंति स्म देव्यो रूपश्रियोद्धराः ॥ ९॥ तस्य श्री............सोमस्य श्रेयसे पितुः । चरित्रं लेखयित्वादात् श्रीधनेश्वरसूरये ॥ १० ॥ यस्याः क्षीरपयोनिधिर्निवसनं हारस्रजस्तारका स्ताडंके शशि-भास्करौ सुरधुनी श्रीखंडपुंड्रस्थितिः । सा कीर्तिनरिनर्ति यावदमला वीरस्य विश्वत्रयी. रंगे तावदमंददुंदुभितुलां धत्तामसौ पुस्तकः ॥ ११ ॥ (२) योगशास्त्र (द्वादशमः प्रकाशः) by हेमाचार्य. प. १-२३ १६८. (१) आचाराङ्ग. प.१-१२७ End: समाप्तं श्रीआचार[:] प्रथममंगसूत्रमिति । अंकतोपि ग्रंथानं २६४४ । । । Prasasti of the Donor: Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 109 No I. SANGHAVI PĀŅĀ 109 उत्तुंगः सरलः सुवर्णरुचिरः शाखाविशालच्छविः सच्छायो गुरुशैललब्धनिलयः पर्वश्रियालंकृतः । सद्वृत्तत्वयुतः सुपनगरिमा मुक्ताभिरामः शुचिः पल्लीपाल इति प्रसिद्धिमगमद् वंशः सुवंशोपमः ॥ १ ॥ निस्तोमः परिपूर्णवृत्तमहिमा मुक्तामणिः प्रोज्वल स्तत्राभूद् विमलोल्लसद्वसुरसौ श्रीचंद्रनामा गृही । श्रीमत्पार्श्वजिनेश्वरस्य सदनव्याजेन येनाहितो मेदिन्यां स्वयशःप्रकाशधवलः स्फूर्य(ज)किरीटः स्फुटं ॥ २ ॥ तस्यासीद् गृहमेधिनी जिनवचःपीयूपपूर्णश्रुति आई इत्यभिधा बुधैर्मुररिपोर्लक्ष्मीरिव प्रोच्यते । सा प्राचीव विवेकिसाभडसुधीसामंतसंज्ञौ सुतौ सूर्याचंद्रमसाविव स्फुटकरौ धत्ते म्म पुत्राशयौ ॥ ३ ॥ आसीत् तद्भगिनी स्ववंशनभसः सञ्चंद्रिका निर्मला नाम्ना श्रीमतिराश्रितागममतिः सद्दर्शनालंकृतिः । श्रुत्वा जैनवचो विवेच्य विविधं संसारनिःसारतां __ सद्यः श्रीजयसिंहसूरिसविधे दीक्षामसावग्रहीत् ॥ ४ ॥ तस्या एव भगिन्या शांतूनाम्ना विशालमभिलेख्य । आचारसूत्रपुस्तकमिह दत्तं श्रीमतिगणिन्यै ।। ५ ॥ इंदुर्यावदमंदमंदरगिरिर्यावत् सुराणां सरिद् यावद् यावदिलातलं जलनिधिर्यावन्नभोमंडलं । यावत् सांद्रमनिंद्यनंदनवनं यावद् यशोस्त्यहतां यावत् ताव दिह प्रबोधतरणिनद्यादसौ पुस्तकः ॥ ६ ॥ एतत् पुस्तकममलं सकलं श्रीधर्मघोषसूरीणां । व्याख्याहेतोरर्पितमिह सद्यः श्रीमतिगणिन्या ॥ ७ ॥ (२) आचारनियुक्ति. प.१-३२ . प्रशस्ति Same as alhove. १६९. उपदेशमालावृत्ति by मुनिदेवसूरि. प. ६२८; १६३०x१" Beginning: अर्हतमाद्यमुदितामलकेवलं तं नौमि प्रभु विगतराग-रुपस्य यस्य । धर्मोपदेशवचनामृतमाप्य भव्यश्रद्धालतामृतफलं विपुलं प्रसूते ॥ १॥ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 110 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS निर्वाणरमणीगणे सममहो दिग्वाससस्तेजसा कीर्त्या भासितमंबरं सह सितेनैवांबरेण प्रभुः । भुक्तिः केवलिनां स्वशासनरुचा सार्द्ध च योस्थापयत् तं वादीश्वरमात्मपूर्वजगुरुं श्रीदेवसूरिं स्तुमः ॥६॥ जयति सुगृहीतनामा कृष्णऋषि विकलोकशोकहरः । यस्य तपःकल्पतरुर्लब्धिफलैर विरलैः फलितः ॥ ७ ॥ सस्यांतरारिविजयी जयसिंहसूरिः शिष्यो बभूव भववारिधियानपात्रं । तत्प्रेरणानुगुणनित्यगतिप्रवृत्तिं वृत्तिं तनोम्यहमिमामनुकूललब्ध्यै ॥ ८॥ शास्त्रद्रुमस्यास्य स सूरिवर्यो यान्यर्थपुष्पाणि पुरा चिकाय । तान्येव संगृह्य तनोमि वृत्तिं मालामिवैतां प्रतिभागुणेन ॥ ९॥ श्रीशांतिवृत्तचैत्यस्थपतिधर्मोपदेशमालायाः । एतां रचयति विवृतिं श्रीमान मुनिदेवमुनिदेवः ॥ १० ॥ श्रीदेवानंदशिष्यश्रीकनकप्रभशिष्यराट् । श्रीप्रद्युम्नश्चिरं नंद्याद् ग्रंथस्यास्य विशुद्धिकृत् ॥ ११ ॥ धर्मादिचतुर्विध-मिथ्यात्वस्वरूप ९३ प्रभृतित्रिनवत्युपदेशसंग्रहः । End: इति श्रीधर्मोपदेशमालावृत्तौ अंत्यगाथाया व्याख्या। श्रीचंद्रगच्छत्रिदशद्रुमस्य शाखा बृहद्गच्छ इति प्रतीतः। । गणो गुणौघप्रवणैर्मुनींद्ररत्नैः समंतादपि राजमानः ॥ १॥ भव्यचिंतामणिस्तत्र देवसूरिः प्रभुर्बभौ । यस्य शक्यः परिच्छेत्तुं महिमा म(न)हि मादृशैः ॥ २ ॥ जाता विद्यानवद्याः कति न गणभृतः किं तु तैस्तैर्गुणौघैः प्रौढानामद्य यावत् प्रगुणयति मुदं देवसूरिप्रभोर्गीः । वृक्षाः के नाम नात्र प्रतिवनमवनौ संति माकंदमुख्या दत्ते रंगं जनानां पुनरसमतमं नागवहयेव पत्रे ॥ ३ ॥ आद्योस्य भद्रेश्वरसूरिनामा शिष्योन्यशिष्योदयहेतुरासीत् । चित्रं तु etc. The Fol. Containing the remaining portion of the Prasasti is lost. १७०. प. १९८; १५४४१३ (१) योगशास्त्र (४ प्रकाश ). प. ५० (२) पवजाविहाण. गां. २७ प. ५१-५३ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ End: No I. SANGHAVI PĀDĀ (८) चउसरण. (९) दिनकृत्य. (१०) जीवद्याप्रकरण. (११) गौतमपृच्छा. (१२) मणसंवरणकुलय. Beginning:— End:-- (३) नवतत्त्व. (४) चैत्यवन्दन. (५) वन्दनक. (६) प्रत्याख्यान. (७) संगहणी. गा. २१ गा. ८४ गा. ३७५ गा. २७ गा. ३३९ गा. ११५ गा. ५० प. प. ५३-५६ प. प. प. ५६-६९ ६९-११९ ११९ - १२३ १२३ - १६० प. १६०-१७४ प. १७४ - १८० प. १८० - १८९ हियय ! तुमे एस कओ भववासणवागुराए महाबंध | ता तह पसिय इयाणि जह तच्छि (बि) गमो लहुं होइ ॥ १ ॥ किं चित्त ! चिंतिएहिं विहवेहिं अथिरेहिं अह न तु । तत्तण्हावगमो ता संतोसरसायणं पियसु || २ | 111 उच्छहसि विन मण ! तुमं पमायमयधुम्मिरं मणागं पि । एवं च लद्धपोयं पिमुद्ध ! बुडसि भवोहं तो ॥ ७६ ॥ मणसंवरणकुलयं समत्तं ॥ शुभं भवतु ॥ (१३) आराधना ( गूर्जर भाषामिश्रा ). गा. ७२ प. १८९-१९८ यदक्षरपरिभ्रष्टं मात्राहीनं च यद् भवेत् । तव्यं तद्बुधैः सर्वं कस्य न स्खलते मनः ? ॥ १ ॥ संवत् १३३० वर्षे अश्विनशुदि ५ गुरौ अद्येह आशापहयां । १७९. ललितविस्तरापञ्जिका. प. २७१; १४ " ×१ ३ " ॥ End: इति श्रीमुनिचंद्रसूरिविरचितायां ललितविस्तरापंजिकायां सिद्धमहावीरस्तवः समाप्तः । तत्समाप्तौ च समाप्तेयं ललितविस्तरापंजिका ॥ ६ ॥ कष्टो ग्रंथो मतिरनिपुणा संप्रदायो न ता शास्त्रं तंत्रांतरमतमतं संनिधौ नो तथापि । अस्य स्मृयै परहितकृते चात्मबोधानुरूपमागाभागः पदमहमिह व्यापृतश्चित्तशुद्ध्या ॥ संवत् १२९४ वर्षे ज्येष्ठ.. Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७१॥ २१॥ 112 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS १७२. स्याद्वादमञ्जरी, प. २०९, १५°४२" Colophon: संवत् १३५७ वर्षे आखाढशुदि १ गुरावधेह स्तंभतीर्थे इयं पुस्तिका लिखिता शुभं भवतु श्रीश्रमणसंघस्य । मंगलं महाशुभं । १७३. सिद्धहैमलघुवृत्ति (६-७ अध्याय). १३३"४१३ १७४. (१) आवश्यकनियुक्ति. प. १-१६७ ) (२) ओघनियुक्ति. गा. ११६२ प. १६७-२७९ (३) पिण्डनियुक्ति. गा. ७०० प. २८०-३३४ (४) दशवैकालिक. प. ३३५-३८५) १७५. अनुयोगद्वारचूर्णि. प. १२८; १५३०४२" End: इति श्रीश्वेतांबराचार्यश्रीजिनदासगणिमहत्तरपूज्यपादानामनुयोगद्वाराणां चूर्णिः । संमत्ता अनुयोगद्वारचूर्णिः । छ । छ । अक्षर-मात्रा-पद-स्वरहीनं व्यंजन-संधि-विवर्जितरेफं । साधुभिरेव मम क्षमितव्यं कोत्र न मुह्यति शास्त्रसमुद्रे ? ॥ मंगलं महाश्रीः । शिवमस्तु श्रीचतुर्विधश्रव(म)णसंघस्य । श्रीतीर्थकर-गणहारीणां प्रसादनं । शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः । १७६. धर्मशर्माभ्युदय. प. १४८; २००४२१" End:___ इति महाकविश्रीहरिचंद्रविरचिते श्रीधर्मशाभ्युदयमहाकाव्ये श्रीधर्मनाथनिर्वा। णगमनो नाम एकविंशतितमः सर्गः । ७ । छ । मंगलं महाश्रीः । शुभं भवतु । अथास्ति गूर्जरो देशो विख्यातो भुवनत्रये । धर्मचक्रभृतां तीर्थैर्धनाढ्यैर्मानवैरपि ॥ १ ॥ विद्यापुरं पुरं तत्र विद्याविभवसंभवं । पद्मः शर्करया ख्यातः कुले हुंबडसंज्ञके ॥ २ ॥ तस्मिन् वंशे दादनामा प्रसिद्धो भ्राता जातो निर्मलाख्यस्तदीयः। सर्वज्ञेभ्यो यो ददौ सुप्रतिष्ठां तं दातारं को भवेत् स्तोतुमीशः ? ॥ ३ ॥ दादस्य पत्नी भुवि मोषलाख्या शीलांबुराशेः शुचिचंद्ररेखा । तन्नंदनश्चाहणिदेविभा देपालनामा महिमैकधाम ॥ ४ ॥ ताभ्यां प्रसूतो नयनाभिरामो रंडाकनामा तनयो विनीतः । श्रीजैनधर्मेण पवित्रदेहो दानेन लक्ष्मी सफलां करोति ॥५॥ " Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAVI Pīnā 113 हानू-जासलसंज्ञकेस्य सुभगे भार्ये भवेता द्वये मिथ्यात्वद्रुमदाहपावकशिखे सद्धर्ममार्गे रते । सागारव्रतरक्षणैकनिपुणे रत्नत्रयोद्भासके रुद्रस्येव नभोनदी-गिरिसुते लावण्यलीलायुते ॥ ६ ॥ श्रीकुंदकुंदस्य बभूव वंशे श्रीरामचंद:(द्रः) प्रथितप्रभावः । शिष्यस्तदीयः शुभकीर्तिनामा तपोंगनावक्षसि हारभूतः ॥ ७ ॥ प्रद्योतते संप्रति तस्य पढें विद्याप्रभावेन विशालकीर्तिः । शिष्यैरनेकैरुपसेव्यमान एकांतवादाद्रिविनाशवनं ॥ ८ ॥ जयति विजयसिंहः श्रीविशालस्य शिष्यो जिनगुणमणिमाला यस्य कंठे सदैव । अमितमहिमराशेधर्मनाथस्य काव्य निजसुकृतनिमित्तं तेन तस्मै वितीर्णं ॥ ९ ॥ तैलाद्० and भग्नपृष्ठि० anl यदि शुद्ध० १२ ॥ ७१ छ । १७७. सङ्ग्रहणीवृत्ति. प. २५५; १८x२ : १७८. नैषध (१-१४ सर्ग). प. १९८; १३°४२१" Colophon: संवत् १३९५ वर्षे कार्तिकशुदि १० शुक्रे श्रीभारतीप्रसादेन जंघरालवास्तव्य उदीच्यज्ञातीय रा. दूदासुत रा० केसव महाकाव्यनैपधपुस्तिका प्राप्ता । मंगलं भवतु ॥ १७९. प्रशमरतिवृत्ति. more than 300 leaves. १४०x१३" Beginning: प्रशमस्थितेन येनेयं कृता वैराग्यपद्धतिः । तस्मै वाचकमुख्याय नमो भूतार्थदर्शिने ॥ १॥ Colophon: संवत् . १४९७ वर्षे कार्तिकशुदि १० गुरौ श्रीदेवलवाटकनगरे श्रीचंद्रगच्छे श्रीपूर्णचंद्रसूरिपट्टकमलहंसैः श्रीहेमहंससूरिभिः स्वयं पुण्यमेरुगणिना च मुद्गलभंगे पं. हेमसारगणिमिलित पर्णसूर...पुस्तकस्यास्य हेममेरुगणिदर्शितादर्शकेन त्रुटितपूर्तिः कृता । चिरं नंदतु । साधुसाध्वीभिर्वाच्यमाना कल्याणमालां करोतु ॥ ससूत्रस्यास्य ग्रंथस्य ग्रंथानं श्लोक २५०० । अत्र तु पुस्तकेऽसूत्रा वृत्तिरस्ति । एतदूग्रंथानं सूत्रप्रमाणरहितं विचार्य कार्य बुद्धिमद्भिः । यादृशं etc, शुभं भवतु । श्रेयो भवतु । 15 Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Paper folios are inserted to fill in the gaps as stated in the Prasasti. १८०. (१) सामाचारी. (२) चउसरण. (३) महासती कुलक. 114 Beginning:— End:--- End: तिहुयणनमं सियाणं निम्मलकित्तीण धम्ममुत्तीणं । असरिस महासईणं कित्तेमि गुणगणरुईणं ॥ Beginning:— End:--- जे सुमरंति तिसज्यं महासईणं पवित्तचरियाई । ते सदुहविमुक्का सासय सुहभायणं हुंति ॥ ३० ॥ महासती कुलकं । प. ५९-६० (४) क्षमाकुलक. प. १-५६ प. ५६-५७ - ११३ "×१ " प. ५७-५९. नमिऊण पुव्वपुरिसाण पसमरससुट्ठियाण पयकमलं । निजजीवरसणुसट्ठि कसायवसगस्स वुच्छामि ॥ १ ॥ एयं खंतीकुलयं दुद्दमजीवाणुसासयं अहवा । जो परिभावइ सम्मं सो पावइ पसमवररयणं ॥ २५ ॥ क्षमाकुलकं । Beginning:— (५) जीवोपालम्भ. गा. २५ Same as aforesaid. (६) धर्मोपदेश (आत्मबोध) कुलक. गा. २२ जंम-जरा-मरणजल - नाणाविहवाहिजलयराइभे । देविंद साहुमहियं सिवसुक्खं जेण पाविहिसि ॥ २२ ॥ (७) कुलक. गा. २१ प. ६३-६४ Beginning:— (८) कर्मविपाककुलक. प. ६०-६२ निसाविरामे परिभावयामि गेहे पलित्ते किमहं सुयामि । Same as aforesaid. प. ६२-६३ गा. २२ प. ६४-६५ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 No I. SANGHAvi PADA Beginning: तियलुकिकमल्लस्स महावीरस्स दारुणा। उवसग्गा कहं हुंता न हुंतं जइ कंमयं ॥ १॥ End: अणुत्तरसुरा सारा सुक्ख-सोहग्गलालिया । कहं हंति ते चवणं न हुतं जइ कम्मयं ॥ २२ ॥ इति कर्मविपाककुलकं समाप्तं ॥ (९) महरिसिकुलक. गा. ३२ प. ६५-६७ Beginning: निजियवंमहमहरिसिसहस्ससेवियपयारविंदस्स । वंदामि परमरिसिणो चरणे सिरिवीरनाहस्स ॥ १ ॥ End: धण-सयण-ममत्तपरिवजियाण जियराग-दोस-मोहाणं । भववासविरत्ताणं सव्वेसिं नमो महारिसीणं ।। ३२ ॥ महरिसिकुलं समत्तं । (१०) जीवाणुसढिकुलक. गा. ३२ प. ६७-६९ End: विदेयं जिणसूरिसंसियपयं पावेइ सो मंगलं ॥ ३२॥ (११) कुशलानुबन्धि (चउसरण) अध्ययन. प. ७०-७४ (१२) ठाणाङ्ग ( अल्पभाग). प. ७४-९६ (१३) साधुजीतकल्प. गा. १०३ प. ९६-१०१ Beginning: कयपवयणप्पणामो वुच्छं पच्छित्तदाणसंखेवं । जीयव्ववहारगयं जीवस्स विसोहणं परमं ॥ १ ॥ (१४) श्रावकजीतकल्प. गा. ९५ प. १०१-१०६ Beginning: कयपवयणप्पणामो जीअगयं सदाणपच्छित्तं । वुच्छं सुयाणुसारा सपरहियट्ठा समासेणं ॥ १॥ (१५) पुण्यपाल-खमफल. प. १०६-११० End: इति श्रुत्वा स्वप्नफलं पुण्यपालो महामनाः । प्रबुद्धः प्राबजत् तत्र क्रमान्मोक्षमियाय च ॥ ५० ॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 116 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (१६) (१) सिद्धपूजापक्रम (२) नैवेद्यप्रक्रम (३) प्रदीपारात्रिकप्रक्रम (४) पूजाप्रक्रम (५) मातर (?) पूजाप्रक्रम (६) स्थापनाचार्य प्रक्रम (७) पड्विधावश्यक प्रक्रम (८) आर्यिकाप्रक्रम > प. ११० - १४२ (१७) काव्यानुशासन. (१८) छन्दोऽनुशासनोद्धार. Beginning:-मस्त्रिगुरुस्त्रिलघुश्च नकारो etc. प. १४३-१४७ प. १४७ - १५० प. १५० - १५४ (१९) प्रमाणमीमांसोद्धार. (२०) न्यायग्रन्थ ( ? अपूर्ण ) (२१) चतुर्थीपाङ्गतृतीयपदसङ्ग्रहणी by अभयदेव. प. १५५ - १५९ प. १६०-१६२ प. १६५ - १६६ प. १८० - १८३ प. १८४ - १८९ प. १८९ - १९५ गा. २४७ प. २०१-२१६ This contains on the back of the first folio the horoscope of Chandrasekhara Suri, also diagrams of the horoscope. (२२) न्यायप्रवेशक ( सूत्र ). (२३) सङ्ग्रहणी by हरिभद्र. (२४) काव्यप्रकाश ( सूत्र कारिका ) . (२५) संसक्तनिर्युक्ति. (२६) विशेषणवती. गा. ५५ पंचेषु - त्रि - शशांकसंख्य १३५५ शरदि श्यामाद्यमाचे चतुर्दश्यां श्रावणभे वरीयसि निशायामे शनौ जन्मनः । संजज्ञे मकरेण झषगुरुसित स्वर्भाणवोर्को घटे भूसूनुर्मिथुनेथ कर्क इन तु लग्ने तुलाभूत् तदा ॥ जन्मपत्रिका | स्वस्ति १३७३ वर्षे शाके १२०९ भाद्रशुदि दशम्यां मूले घटिका ५४ प्रीतियोगे धनुःस्थे चंद्रे सिंहे रवौ बुधदशायां... म रात्रौ घटिका ७ समये मेपलभे शुभग्रहदृष्टवेलायां... . भीमसीहजन्मेति भद्रं । श्री चंद्रशेखरसूरिजन्मपत्रिका | श्री चंद्रशेखरगुरोः सुखगः क्षमाजः श्रीदोऽरिगः शशिसुतः स्थितिमादधाति । सूतस्तु नृपपूजनमाशु शुक्रे... धीस्थोन्तिस ( प ) ज्जनामिनो ...... र्थं ॥ ४ ॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No 1. SANGHAVI PĀDĀ 117 १८१. (१) मलयगिरिव्याकरण (त्रुटित ). Incomplete. १४३ " x २” (२) योगशास्त्रविवरण ( त्रुटित ). १८२. पञ्चसूत्रकटीका by हरिभद्र. प. ४९ प. १६१; १२ ×२” End: पंचसूत्रकटीका समाप्ता । कृतिः सितांबराचार्यहरिभद्रस्य धर्मतः जा (या) किनीमहत्तरासूनोः । ग्रंथाप्रमनुष्टुपछंदोद्देशतः शतान्यष्टावशीत्यधिकानि ॥ ८८० ॥ अल्पग्रंथं महार्थं स्फुटललितपदं सूक्तमन्यैरनुक्तं ग्रंथं कुर्मः कवींद्रा वयमपि हि मदान्वेषणश्चित्तदर्पः । किंतु प्रथार्थतत्त्वग्रह विशदधियां कोमलस्पष्टवाचा - मभ्यस्तो गुरूणां वचनकुशलतां कालमेवं नयामः ॥ रंगद्रागादिभो (रो)गे विषयविषधरे मज्जतां यो जनानां रोगोग्राहरौद्रे भवसलिलनिधावक्षयं यानपात्रं प्रार्थते यस्य चाया भ्रमदलिकरटा दंतिनः स्वस्त्रियश्च प्रोत्फुलेंदीवराक्ष्यः शशधरवदनाः सोस्तु वो धर्मलाभः || The leaves 1–32 contain the text of पंचसूत्र and the remaining portion contains the commentary. It belongs to the end of the 15th century. १८३. (१) वामनीयालङ्कार. End: प. ३६ काव्यालंकारवृत्तौ प्रायोगिकपंचमेधिकरणे द्वितीयोध्यायः । समाप्तं च प्रायोगिकं पंचममधिकरणमिति ॥ Colophon: संवत् १९७८ चैत्रवदि ९ गुरौ । उदकानल - चौरेभ्यो मूपकेभ्यस्तथैव च । रक्षणीया प्रयत्नेन etc. (२) छन्दोऽनुशासन by वाग्भट. प. ४२ Beginning: ओं नमो वीतरागाय । प्रणिपत्य प्रभुं नाभिसंभवं भक्तिनिर्भरः । विवृणोमि स्वयमहं निजं छंदोनुशासनं ॥ १ ॥ ग्रंथारंभे शिष्टसमयप्रतिपालनाय अभिधेय-संबंध - प्रयोजन प्रतिपादनाय च ग्रंथ कार इष्टाधिकृतदेवतानमस्कारपूर्वकमुपक्रमते । तद्यथा । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 118 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS विभुं नाभेयमानम्य छंदसामनुशासनं । श्रीमन्नेमिकुमारस्यात्मजोहं वच्मि वाग्भटः॥१॥ (१) संज्ञाध्याय (२) समवृत्ताख्य पुरुषोत्तम राहडप्रभो! कस्य नहि प्रमदं ददाति सद्यः । वितता तव चैत्यपद्धतिर्वातचलध्वजमालभारिणी ॥ १३ ॥ (३) अर्धसमवृत्ताख्य (४) मात्रासमक प. ४० परिभमिरभमरकंपिरसररुहमयरंदपुंजपुंजरिआ। वावी सहइ अगाहा नेमिकुमारस्स भरुअच्छे । कलिकालकलितजिनवरधर्मसु(धु)रोद्धारचतुरभुजपरिधः । श्रीराहडः स जयतात् कालपकुलकमलदिननाथः ॥ (५) मात्राच्छंदः End: इति महाकविश्रीवाग्भटविरचितायां वाग्भटाभिधानछंदोवृत्तौ मात्राच्छंदो, ध्यायः पंचमः। नव्यानेकमहाप्रबन्धरचनाचातुर्यविस्फूर्जित स्फारोदारयशःप्रचारसततव्याकीर्णविश्वत्रयः । श्रीमन्नेमिकुमारसूनुरखिलप्रज्ञालचूडामणि __श्छंदःशास्त्रमिदं चकार सुधियामानंदकृद् वाग्भटः॥ संपूर्ण चेदं श्रीवाग्भटकृतं छंदोनुशासनमिति । ग्रंथप्रमाणश्लोक ५४० ॥ठ० नेमिकुमारसुतठ वाग्भटकृतौ पंडितसाजणशुभ( सुत )सीहडेन छंदःपुस्तिका लिखितमे( ते )ति ॥ १८४. उपदेशपद (प्रा.) by हरिभद्र. अं. १०४० प. १६९, ९४०x१३" ९८५. ऋषिमण्डलस्तवबृहद्वृत्ति. प. २५३; ११३०४१३" First five leaves are jammed together. Incomplete at the end. Text and commentary both in Prakrit. See बृहट्टिपनिका. Codex contains another anonymous work. १८६. व्याश्रय (सं.) by हेमचन्द्र. प. ३६०; १०३"x१३" End: इत्याचार्यश्रीहेमचंद्रकृतौ चौलुक्यवंशद्याश्रयमहाकाव्ये विंशः सर्गः । क्षेमं भूगात् श्रमणसंघस्य । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 119 " No I. SANGIAVI PĀDĀ Colophon: संवत् १३३५ वर्षे श्रावणशुदि १५ सोमेऽयेह श्रीपत्तने श्रीसारंगदेवराजे(ज्ये) व्याश्रयमहाकाव्यं ठ० लाषणेन लिखितं । १८७. (१) ओघनियुक्ति. प. १-७५] .. __ (२) पिण्डनियुक्ति. प. ७५-१३०१ Colophon: संवत् १२१९ वर्षे श्रावणवदि ५ बुधे ठ० सुंधीगसुतपासदेवेन पुस्तिकेयं लिखितेति ॥ १८८. (१) सङ्ग्रहणी. गा. ३५६ प. १-३६; १३"x१४" Beginning: निट्ठवियअट्ठकम्मं वीरं नमिऊण तिगरणविसुद्धं । (२) श्रावकप्रज्ञप्ति. गा. ४०१ प. १-४६ End: जं उद्धि(ट्ठि)यं सुयाओ पुवायरिकयमहव समईए । खमियव्वं सुयव(ध)रेहिं तहेव सुयदेवयाए व ॥ ४५ ॥ सावयपण्णत्ती सम्मत्ता । (३) सूक्ष्मार्थविचारसार by जिनवल्लभ. प. ४६-६४ End: इति सूक्ष्मार्थविचारप्रकरणं कृतिर्जिनवल्लभगणेः । (४) उपदेशसार by देवभद्र. प. ६४-७४ Beginning: नमिऊण विजियदुज्जयमोहमहारायमरुहमरिहतं । वीरं सुमेरुधीरं वोच्छं उवएससारमहं ॥ १ ॥ End: संदेहपवणसंभमनिद्दयमज्झक्खराभिहाणेहिं । सूरीहिं विरइयमिमं पगरणमपुणभवनिमित्तं ॥ इति उपदेशसारप्रकरणं समाप्तमिति । शिवमस्तु ।। (५) श्रावकवक्तव्यता (सव्याख्या). गा. १०१ प. ७४-८५ Beginning: कयवयकम्मयभावो सीलत्तं चेव कहय गुणवत्तं । रिचमइववहरणं चिय गुरुसुस्सूसा य बोधव्वा ।। Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 120 • PATTAN CATALOQUE OE MANUSCRIPTS End: अब्भ(न)स्स वि परिकुवियं रायाणं विनवेइ नो तत्थ । संतुट्ठसुप्पसन्नं भणइ सयं भाणइ परेणं ॥ श्रावकवक्तव्यता समाप्ता । (६) षविधप्रवचनकौशल. गा. ९ प. ८५-८६ Beginning:-कयवयकम्मयभावो etc. १८९. प्रवचनसारोद्धार (मूल). अपूर्ण प. १९७; १३३०x१३" १९०. (१) यतिप्रतिक्रमणवृत्ति by पार्श्व. प. १-१०८ Beginning: श्रीवीरजिनवरेंद्रं वंदित्वा चैत्यवंदनादीनि । अल्परुचिसत्त्वहेतोर्विवरिष्ये गमनिकामात्रं ॥ १ ॥ (२) श्रावकप्रतिक्रमणवृत्ति. प. १०९-१६१ End: अब्दानां शक[]पतेः शतानि चाप्टौ गतानि विंशत्या । अधिकान्येकाधिकया मासे चैत्रस्य(०त्रे तु) पंचम्यां ॥ १ ॥ नीतं समाप्तिमेतत् सैद्धांतिकयक्षदेवशिष्येण । प्रतिचरणायाः किंचित्(द्) व्याख्यानं पार्श्वनाम्ना तु ॥ २ ॥ श्रावको जंतु(बु)नामाख्यः शीलवान सुबहुश्रुतः । साहाय्याद् रचितं तस्य गंभूकायां जिनालये ॥ ३ ॥ श्रावकप्रतिक्रमणटीका समाप्तेति । Colophon:संवत् १२९८ वर्षे चैत्रवदि ३ गुरौ पुस्तिका लिषि(खि)ता । प. ३५२; ११३४१३" (१) कुसुममाला. गा. ५०५ प. १-५० (२) भवभावना. , ५३१ प. ५१-१०७ (३) सङ्ग्रहणी. , २७३ प. १०८-१३८ (४) श्राद्धदिनकृत्य. , ३३९ प. १३८-१७५ (५) धर्मरत्न. प. १७५-१९३ (६) मृगापुत्रकुलक (अपभ्रंश). गो. ४२ प. १९३-२०१ (७) स्तुति. प. २०१-२०७ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 121 No. I. SANGHAvi PipA Beginning: जयपयडपहावं मेघगंभीररावं भवजलनिहिनावं नायनीसेसभावं । हणियकुसुमचावं दोसकंतारदावं पढमजिणमपावं वंदिमो विनदावं (?) । End: जिणपयपणअंगी निम्मला बारसंगीवणरमणकुरंगी संघरुक्खे विहंगी। ससहरसरिसंगी चंगसुंदेरभंगी भवभयवयरंगी देइ उ सुक्खं सुअंगी ॥ इति स्तुतिः समाप्ता । (८) संस्तारक. प. २०८-२२० (९) ऋषिमण्डल (भत्तिभरनमिर ctc.) प. २२०-२४४ (१०) चैत्यवन्दनाभाष्य. प. २४४-२५३ (११) प्रत्याख्यानभाष्य. ५. २५३-२५८ (१२) वन्दनाभाष्य. प. २५८-२६४ (१३) नमस्कार. प. २६४-२७३ (१४) जीवविचार. प. २७३-२८१ (१५) विवेकमञ्जरी. प. २८१-३०१ (१६) बृहदाराधना. प. ३०१-३०८ (१७) भक्तपरिज्ञा. प. ३०८-३२५ (१८) चउसरण. प. ३२५-३३३ (१९) आउरपच्चखाण. .प. ३३३-३४१ (२०) पिण्डविशुद्धि. प. ३४१-३५२ १९२. तीर्थोद्गालिकप्रकीर्णक. प. १११ Beginning: जयइ ससिपायनिम्मलतिहुयणवित्थिन्नपुण्णजसकुसुमो । उसभो केवलदसण दिवायरो दिट्ठदहव्यो । End: जं उद्वितं सुयाओ अहव मतीए य थोवदोसेण । तं च विरुद्धं नाउं सोहेयव्यं सुयधरेहिं ॥ १२५४ ॥ तेतीसं गाहाओ दोनि(नि) सता उ सहस्समेगं च । तित्थोगालिए संखा एसा भणिआ उ अंकेणं ॥ गाथा १२३३ ॥ श्लोकाः १५६५ ॥ तिथोगालि संमता ॥ 16 Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 122 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Colophon: योगिनी पुरवासिभिर्महर्द्धिकै राज्यमान्यैः सकलनागरिकमुख्यैः ठ० ददा ठ० कुरा ठ० पदमसीहैः स्वपितुः सा० राजदे श्रेयसे अनुयोगद्वारचूर्णि १ षोडशकसूत्रवृत्ति २ तित्थोगालि ३ श्रीताडपत्रे । तथा श्रीऋषभदेवचरित्रं बारसहस्रं कागदे । एवं पुस्तिका ४ तपागच्छनायक श्रीदेवसुंदरसूरि (रीणामुपदेशेन सं० १४५२ श्रीपत्तने लेखितेति भद्रं ॥ १९३. सिद्धहेमलघुवृत्ति ( सावचूरि १ वृत्ति ). प. १५२; १३ ×२” १९४ (१) निरयावली. (२) Eud :-- " लोकसंख्या ३३०० वृत्ति. प. १-१०२ । १०×१ ) प. १-७०१ श्री चंद्रसूरिविरचितं निर्यावलिकाश्रुतस्कंधविवरणं समाप्तं । वसु-लोचन - रविवर्षे श्रीमच्छ्रीचंद्रसूरिभिर्दब्धा । Cesareandt निर्यावलिशास्त्रवृत्तिरियं ॥ Colophon: गा. ५० संवत् १३१० वर्षे गंभूकायामुपांगपंचकस्य वृत्तिर्लिखिता ॥ (३) संसक्तनिर्युक्ति. (४) द्वीपसागरप्रज्ञप्ति. गा. २८० १९५. सिद्धप्राभृतटीका. Beginning:— प. ७१-७७ प. ७८-१०५ प. १-६८; १५३”×१३” सकलभुवनेशभूतान् निखिलातिशयान् जिनान् गुरून् नत्वा । सिद्धप्राभृतटीका तदर्थं हितकाम्यया क्रियते ॥ १ ॥ End: नवरं पूर्वस्याणीयस्याख्यस्य । निष्पन्नमिदं सिद्धप्राभृतमिति ॥ गाथा संयोजनार्थीयं प्रयासः केवलो मम । अर्थस्तूतः स्फुटो ह्येष टीकाकृद्भिश्चिरंतनैः ॥ सिद्धप्राभृतं समाप्तं । सव्वसमूहवती वामकरगहियपोत्थया देवी । जक्खम हुँरिव्य सहिया देउ अविग्धं लिहंतस्स | ग्रंथा लोकमानतः ८१५ ससूत्रस्य ९५० ॥ ६ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ End: No I. SANGHAVĪ PĀDĀ 123 Colophon: संवत् १४४४ वर्षे फागुणशुदि ५ बुधे अद्येह श्रीपत्तने मंगलं महाश्रीः शिवमस्तु । त्रिपाठिनागशर्मेण लिखितं ॥ ७ ॥ (२) सिद्धपाहुड (मूल). प. ६९-८१ End: सिद्धपाहुडं संमत्तं । छ । अग्गेणियपुव्वणिस्संदं । छ । Colophon:___ मंगलं महाश्रीः। संवत् १४४४ वर्षे फागुणशुदि ५ गुरौ त्रिपाटिनागशर्मेण लिखितं ॥ ___ (३) जीवाभिगमटीका by हरिभद्र. प. ८२-१७६ समाप्ता जीवाभिगमाध्ययनशास्त्रप्रदेशटीका कृतिहरिभद्राचार्यस्येति ॥ ५ ॥ ग्रंथानं १२०० ॥ ॥ Colophon: संवत् १४४४ वर्षे फागुणशुदि १५ शनौ अद्येह श्रीपत्तने । Prasasti of the Donor:-- ऊकेशो भद्रेश्वरगोत्रे नारायणीयशाखायां । । वृद्धो वणिगिति विदितो नरसिंहः साधुवर आसीत् ॥ १ ॥ तस्य च भार्या मोती तनूद्भवाः सप्त सांगणः प्रथमः । छीता-लापा-देदा-तिहुणा-रामाक-धानाख्याः ॥ २ ॥ सांगणवधूर्धनश्रीः पुत्रौ द्वावेव तयोश्च नरदेवः । जगसिंहश्चलणुवधूर्जयतसिरीरंगजा त्रयश्वामी ॥ ३ ॥ आद्यौ हिगोना-वइजाभिधानौ तृतीयबंधुः किल देवसिंहः । यो देवगुर्वादिकधर्मकार्ये कृताभियोगः शुभभाग्ययोगः ॥ ४ ॥ वइजाकस्य तु भार्या जयश्रीरंगजाश्चतुःसंख्याः । साधुवरनागसिंह-त्थाजल-नरवर्म-ददाख्याः॥ ५ ॥ साधोश्च देवसिंहभार्या कर्मसिरीतिरीति । त्रयाणां पुरुषार्थानां पात्रमास्ते कुलं ह्यदः ॥ ६ ॥ श्रीमत्तपागणनभोंगणभास्कराणां श्रीदेवसुंदरगुरुत्तमसूरिराजां । धर्मोपदेशवशतोऽवगताप्तवाक्य-खोपार्जितार्थनिवहस्य फलं जिघृक्षुः ॥ ७॥ सुधीः सहस्रानिह देवसिंहो ग्रंथाग्रतः पंचदशप्रमाणान् । श्रीवाडपत्रेषु जिनागमस्यालेखयत् संप्रति पुस्तकेत्र ॥ ८ ॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 124 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS सिद्धप्राभृत-जीवाजीवाभिगमवृत्तकेऽलेखयत् । अणहिल्लपाटकनगरे त्रि-वार्द्धि-वाद्धौंदुमितवर्षे ॥ ९॥ शिवमस्तु etc. १९६. शान्तिनाथचरित्र (सं.) by मुनिदेवसूरि. Paper Ms. Beginning: __ओं नमः शांतिनाथाय । वेश्मरत्न-निशारत्न-नभोरत्नपरं परं । परं तज्जयति ज्योतिर्महामोहतमोपहं ॥१॥ एकामपि त्रिरूपां यो जगत्रितयगोचरे । चारयामास जैनी गां गौतमः स तमःछिदे ॥८॥ श्री[सु]धर्मा सुधर्मा श्रीवीरवंशसमुद्भवः । तरोर्महांतरारातिपातने तनुतां मम ॥ ९ ॥ चतुर्दशमितापूर्वपूर्वरत्नकुलाश्रयः । विश्वरूपं दधन्मध्ये श्रुतवाधिः प्रवर्धताम् ॥ १० ॥ चतुर्दशशतग्रंथग्रथनायासलालसं । हारिभद्रं वचो हारि भद्रं भद्रं करोतु नः ॥ ११ ॥ वादविद्यावतोद्यापि लेखशालामनुज्झता । देवसूरिप्रभोः साम्यं कथं स्याद् देवसूरिणा ? ॥ १२ ॥ वंदे श्रीदेवचंद्रं तं यत्कृतं प्राकृतं बृहत् । श्रीशांतिवृत्तं संक्षिप्य संस्कृतं क्रियते मया ॥ १३ ॥ अमानं महिमानं कस्तस्य स्तौतु गणेशितुः । शिष्यो यस्योदितो हेमचंद्रसूरिर्जगद्गुरुः ॥ १४ ॥ नृपतिप्रतिबोधिन्या यद्राि सुधयामराः । जज्ञिरे पशवोपि श्रीहेमसूरिं महेम तत् ॥ १५ ॥ श्रीदेवानंदसूरिभ्यो नमस्तेभ्यः प्रकाशितं । सिद्धसारखताख्यं यैर्निजं शब्दानुशासनम् ॥ १६ ॥ श्रीदेवानंदशिष्यश्रीकनकप्रभसूरिराट् । श्रीप्रद्युम्नश्चिरं नंद्याद् नवग्रंथविशुद्धिकृत् ॥ १७ ॥ End:श्रीजैनशासनसरोजविकाशभानुः श्रीदेवसूरिरिति तस्य बभूव शिष्यः । दुर्वादिकौशिकव(च)यप्रतिभाहगांध्यं यो वाग्मरीचिनिचयै रचयांचकार ॥४॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PADA येषां दूरीकृतया कीर्त्याचलयापि कुमुदचंद्रस्य । विदधे विजयस्तज्जय महिमा को नाम तेषां च ? ॥ ५ ॥ तद्भद्रासन विन्ध्यभूभृतयशः श्री पूर्व गंगाभृति श्रीभद्रेश्वरसूरयः समभवन् भद्रेभशोभाभृतः । यैः प्रज्ञाप्रसरेण शास्त्रगहनं संशोध्य दुरसंचरं शिष्याणां मतयः करेणव इव प्रौढप्रचाराः कृताः ॥ ६ ॥ तत्पदेऽभयदेवस्य प्रभोः कल्पद्रुकल्पतां । कथैव कथयत्येषा प्ररूढा रत्नमंजरी ॥ ७ ॥ सूरिर्मदनचंद्राख्यो मुख्यो मार्दवशालिनां । तत्पट्टमुकुटो रेजे शिष्यरत्नैः समुज्ज्वलः ।। ८ ।। मत्वा च्छिन्ने येन नाम्नी स्वकीये लज्जासज्जौ पुष्पचाप - द्विजेशौ । शौ मन्ये मुख्यकर्तुं विरुद्धान्ये कोनंगः कृश्यदंगः परोऽभूत् ॥ ९ ॥ तत्पद्वैकविशेषको गणभृतः प्रद्युम्नतः शिक्षित । स्तद्वंधोर्जयसिंह सूरि सुगुरोर्योगादिनिष्णातधीः । शास्त्रेषु प्रथितो मनीपिभुवना (?) पद्माकरेणेधितः काव्यं श्रीमुनिदेवसूरिरतत श्रीशांतिवृत्तं नवं ॥ १० ॥ द्वि-द्विसमासु मासि सहसि श्वेतद्वितीयाबुधे द्वेधाप्यत्र यदाश्रयं श्रितवता काव्यं मयेदं कृतं । श्रीप्रद्युम्नमुनीश्वरः स विशदं सद्यः प्रसद्य व्यधात् ज्ञैरन्यैरपि शोधनीयम समं धृत्वा ममत्वं मयि ॥ ११ ॥ प्राग्वाटान्वयमंडनं समजनि श्रीशालितः शालि.. 126 रित्याख्यातियुतः पुमाननुपमाद्भक्तियुक्तोऽस्य नु । वंशे शक्तिकुमारतः समभवत् सोहीरिति स्फातिमान् तत्पुत्राः शिवदेविकुक्षिसरसीहंसा इमे जज्ञिरे ॥ १२ ॥ वोसिरि-साढल - संगणनामान: पुण्यसिंहनामा च । स्वपितुः पुण्यायाष्टापदचैत्यं ये विरचयांचक्रुः ॥ १३ ॥. श्रीदेवसूरिप्रभवः प्रतिष्ठां चक्रेऽत्र च श्रीमुनिदेवमूरिः । तदीयसाहाय्यवशेन नव्यं श्रीशांतिनाथस्य तथा चरित्रं ॥ १४ ॥ प्रत्यक्षरं च संख्य[ [] नात् पंचपंचाशताऽधिका । अस्मिन्ननुष्टुभामष्टचत्वारिंशच्छती ध्रुवं ॥ १५ ॥ प्रथा ४८५५ ॥ ६ ॥ शुभं भवतु ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 126 १९७ (१) ललितविस्तरा (वृत्ति). Ead: (२) Colophon :— अह स्तंभतीर्थे पं० ज्ञानकीर्तिगणिना ललितविस्तरासूत्रवृत्तिपुस्तिका लिखा - पिता ॥ ५ ॥ महं० मेघाकेन निजोद्यमेन लिखिता । यावचंद्रार्क पुस्तिका विजयिनी भवतु | १९८. (१) चैत्यवन्दना - वन्दनक- प्रत्याख्यानवृत्ति प. १-५० Beginning: PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Beginning: End: प. १–८८; १२३”×२” पञ्जिका by मुनिचन्द्रसूरि. प. ८९ - २२९ 35 श्रीचक्रेश्वरसूरिपट्टकमलालंकारचूडामणिः श्रीमानत्र शिवप्रभाभिधगुरुः सिद्धांतधौताशयः । सूरिः श्रीतिलकाभिधः समदृभत् तस्यैव शिष्याणुक - चैत्यप्रापदचंदनादिविवृतिं तत्त्वार्थसारामिमां । थामिह पंचाशदधिकं शतपंचकं । प्रत्यक्षरेण संख्याया निश्विकाय कविः स्वयं ॥ इति चैत्यवंदना - चंदनक - प्रत्याख्यानलघुवृत्तिः समर्थयांचक्रे ॥ नमः पंचपरमेष्ठिभ्यः । श्रीवीरजिनवरेंद्र वंदित्वा चैत्यवंदनादीनि । अल्परुचिसत्वहेतोर्विरचि ( वरि ) ध्ये गमनिकामात्रं ॥ १ ॥ (२) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति by तिलकाचार्य. प. ५१-७० Beginning:— प्रणिधाय श्रीवीरं स्वल्परुचीनां कृते समासेन । विवरणमिदं करिष्ये गृहिप्रतिक्रमणसूत्रस्य ॥ श्रीचक्रसूरिगुरुपट्टमहोदयाद्रिप्रद्योतनोपमशिवप्रभसूरिशिष्यः । श्री प्राक्पदस्तिलकसूरिरधीधनोपि श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रमिदं विवत्रे ॥ इति श्रीतिलकाचार्यविरचिता श्लोकशतद्वयप्रमाणा श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रलघुवृत्तिः समर्थयांचक्रे । मंगलमस्तु ॥ (३) कल्याणकस्तोत्र (सं.). ग्रं. ३२ प. १-३ तिथिमाज्जिनेंद्राणां कुर्वे कल्याणकस्तवं । (४) श्वानशकुनाध्याय. प. ११ - १५ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Attat .. ... JITUTE. lui H hws 34 ORAS No I. SANGAAVI PADA 127 Beginning: प्रस्थितस्य यदा श्वानो विवृतास्यो विजभते । क्षणेनागमनं विद्यादारोग्यं तस्य (तु) विनिर्दिशेत् ॥ १ ॥ प्रस्थितस्य यदा श्वानो धुनोत्यंगानि पार्श्वतः । तस्य हस्तगतं चोरैरचिरादेव लुट्यते ॥ २ ॥ End: - प्रदक्षिणं प्रगच्छंत एते सर्वे सुखावहाः । मृगास्तु वामतः शस्ता ज्ञातव्याः सुनरैः सदा ॥ २२ ॥ श्वानशकुनाध्यायः समाप्तः । (५) मेघमाला (?) Beginning: दो अहिहिं न दीसइ दीसइ च्छक-चउक्केहिं । सत्तमत्तईए वत्ता पंचम-पढमे फुडं एइ ।। End: ससि-बुह-सुकि (कि)हि नारि निरुत्ती इंव गणंता । जइ सनि आवइ गजह हाणि करंतउ भावइ ।। ३१॥ हाथिं मूलि मृगसिरिहिं तिहिं उत्तराई महाहिं । साई-रेवइ-रोहिणिहिं अन्नु अणुराहाहिं ।। १९९. (१) देशीनाममालावृत्ति (रत्नावली). प. २१२; १३३"४१३" (मुनींद्रसोमसूरिराज्ये जीर्णोद्धार ) (२) उक्तिव्यक्ति by दामोदर. प. १-४ Beginning: ___ओं नमो वाग्देव्यै । नानाप्रपंचरचनाबहिःकृतं सारभूतमेकं यत् ।। नत्वा तत्त्वं वाचामुक्तिव्यक्तिं विधास्यामः ॥ १ ॥ स्यादि-त्यादीन् धृ(?)त्वा श्रुत्वा लिंगानुशासनं किंचित् ।। उक्तिव्यक्तिं बुद्धा बालैरपि संस्कृतं क्रियते ॥ २ ॥ या वक्तुं किमपि भवेदिच्छा या कीर्तिता विवक्षेति । तदनु च तदनुगतं यद् भापितमिह तावदत्युक्तिः ॥ ३ ॥ सा चेत् परिविवक्षयानुगताकांक्षानिवृत्तिमुत्पाद्य । लोकानां व्यवहारे हेतुः स्यादिन्द्रियाणीव ॥ ४ ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 128 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS १८-इति क्रियोक्तिः। २४-इति कारकोक्तिः। २९-इति उक्तिभेदव्यक्तिः। ४०-इत्युक्तिविधौ लेखलेखनविधिः । प्रोंछितलिखितो म्लिष्टो बहुभिलिखितोन्यजातिवञ्चनकः । हस्तेर्पितश्च दुष्टा गौडानां व्यधिकपंक्तिश्च ॥ ४० ॥ End: लेखपत्रलिखनक्रमानुगाः पंजिकोपगतपटूचीरिकाः । शासनं च किल मुं(हुं)डिकान्यथा सत्रु(?) तत्र तदुदाहरिष्यते ॥ ५० ॥ ___इति दामोदरोदीरितोक्तिव्यक्तिकारिकाः समाप्ताः । (३) उक्तिव्यक्तिविवृति. प. ४-६१ (अपूर्ण) Beginning: ___ नमः सर्वविदे। गणानां नायकं नत्वा हेरम्बममितद्युतिं । · उक्तिव्यक्तौ विधास्यामो विवृतिं बाललालिकां ॥ १ ॥ उक्तेर्भाषितस्य व्यक्तिं प्रकटीकरणं विधास्यामः । अपभ्रंशभाषाछन्नां संस्कृतभाषां प्रकाशयिष्याम इत्यर्थः। अपभ्रंस(श)भाषया लोको वदति यथा । धर्मु आथि । धर्म कीज[इ] । दुह गावि दुधु गुआल । यजमान कापडिआ। गंगाए धर्मु हो पापु जा। पृथ्वी वरति । मेहं वरिस । आंखि देख । नेहाल । आंखि देखत आछ । जीभे चाख । काने सुण । बोलं बोल । वाचा वदति । प. १०॥ बोलं बोलती । पायं जा पादेन याति । मूतत आछ मूत्रयन्नास्ते ११ । भोजन कर । देवदत्त कट करिह देवदत्तः कटं करिष्यति १३ । हउँ पर्वतउ टाललं अहं पर्वतमपि टालयामि सवहि उपकारिआ होउ सर्वेषामुपकारी भूयात् १४ । धर्मु करत आछ धर्म' कुर्वनास्ते १५ । देवता-दर्शन कर देउ देख १६ । वेद पढव वेदः पठितव्यः १७ । दुहाव गाइ दुधु गुआलं गोसांवि दोहयति गां दुग्धं गोपालेन गोस्वामी १८ । सिंहासण आछ राजा सिंहासने तिष्ठति राजा १९ । मेहलि सोअ मेहला स्वपिति २० । छाने गाउं जाइआ छात्रेण ग्रामे गम्यते २१ । कारुप दुग् वस्तु के एते द्वे वस्तुनी २५ । को ताहा जेंवत आछ कस्तत्र भुंजान आसीत् २७ । काह इहा पढिय का किह केनात्र पठ्यते कस्मै ३३ । छात्र इहां काह पढ काहे का किहका पास काहां ककरें घर छात्रोत्र किं पठति केन कस्मै कुतः कुत्र कस्य गृहे ३६ । लौंडी लागि टेक लकुडिकायां लगित्वा टेकते ४०॥ हलुअ वधु पाणि तरंत Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. Sanghavi PĀDĀ 129 लघुकं वस्तु पानीये प्लवते ४१ । आंखी हुँच अक्षिणी लुंचयति ४५ । विडरा घोड उलाल विद्रुतो घोड(ट)क उल्लालयति ४५ । हिंडोल आंदोलयति अहेडें जांत वखोड आखेटके गच्छंतं व्याखोटयति ४६। मुअ जीव मृतो जीवति ५१ । गां दोग्धि पयो गो गोपालकः राजानं गां याचते द्विज इत्यादि ५५ । सेवको अवलगति ओलगं लाग अवलगते लगति ५६ । अपाण उवट उवटाव आत्मानमुद्वर्तते उद्वर्तयति ५६ । भुखें सुखा बुभुक्षया शुष्यति । तेउं देउ पितरु तर्प तया देवान् पितृस्तर्पयति ५८ । हाथि गुड हस्तिनं गुडति ६१ । गाउं चल ग्रामं चलति ६१ ॥ २००. (१) योगशास्त्र. प. १-७६, ८४२" (२) प्रश्नोत्तररत्नमाला. प. ७७--८१ (३) धर्मलक्षण (सितं चित्तं (tr.). प. ८२-८४ (४) पुराणश्लोक ( वर्णोत्पत्ति, वर्णाश्रम ). प. ८४-९७ (५) स्थविरावली. प. ९७-१०५ (६) वीतरागस्तव. प. १०५-१३७ (७) ऋषभपञ्चाशिका. प. १३४-१४६ (८) सिन्दरप्रकर (अपूर्ण). प. १५-३१ २०१. (१) जीवसमास (अपूर्ण त्रुटित ). प. १-३५: १२०x११" Beginning: दस चोदस च जिणवरे चोहसगुणजाणाप नमंसित्ता । चोदस जीवसमासे समासओ अणुकमिम्सामि ॥ १ ॥ निक्खेव-निरुत्तीहि य छहिं अट्टहिं अणुओगदारेहिं । गइयाइमग्गणाहिं य जीवसमासा उ णुगंतव्या ॥ २ ॥ End: केवलियनाणदंसणखइयं सम्मं च चरणदाणाई । नवखइया लद्धीउ उवसमियं सम्मचरणं च ॥ २६८ ।। नाणचउक्कं अन्नाणं ति...... The codex breaks off at this point with the following folik missing. (२) आवश्यकनियुक्ति. ___प. १-१३१ End: पञ्चक्खाणनिजुत्ती समत्ता । समत्तं छविहावस्सयमिति । मंगलं महाश्रीः । Colophon: संवत् ११९८ आषाढसुदि २ गुरुदिने अयेह श्रीसमस्तराजावलीसमलंकृत परम ___17 Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 130 PATTAN CATALOGUE OF MANUSORIPTS भट्टारकमहाराजाधिराजश्रीमदर्णोराजदेवविजयकल्याणराज्ये श्रीमदजयमेरु-अधःस्थितश्रीपृथ्वीपुरे प्रतिवसति स्म आणि (यि)का वाधुमतिस्यार्थ नैगमान्वयकायस्थ । पं ॥ माढलेन आवश्यकपुस्तको(स्तिके )यं लिखितेति । शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः । यादृशं etc. and उदकानल etc. २०२. (१) मोक्षोपदेशपञ्चाशत् by मुनिचन्द्र. प. १-८; ९०x१३" (२) जीवोपदेशपश्चाशिका. प. ८-१३ Beginning: जिणिंदचंदाण कमारविंदे वंदित्तु संकंदणवंदणिज्जे । भणामि संखेवमहं गुणाणं धम्मारिहाणं किल जे जियाणं ॥ १॥ End: तुम्हाणं भणियं मए जिणमउद्देसेण संखेवओ एयं निम्मलधम्मकम्मविसए जोग्गत्तसूयापरं । ता तुम्भं भणियाणुसारविहिणा वटेजहा सवहा संसारा सयसंखदुक्खणिहणो मोक्खो जओ नन्नहा ॥ ५० ॥ (३) उपदेशकुलक. प. १४-१६ Beginning: निसुणंतु ग्वणं परिरंभिऊण भवा ! मणं समाहिम्मि । उवएसलेसमणवजकजमेयं भणिजंतं ॥ १॥ End: धन्ना भवदुक्खाणं तिक्खाण असंखलक्ख[संखा]णं । एयं विरेयणोसहमुवएसं केइ पावंति ॥ २५ ॥ (४) हितोपदेश. प. १६-१९ Beginning: सुणेह भो भवजणा ! भवित्ता सम्मं समाहाणपहाणचित्ता । असारसंसारविरागहेउं धम्मोवएसं सहलं विहेउं । End: एसो मए तुम्हमणुग्गहत्थो हि[ओव] एसो भणिओ महत्थो। एयाणुसारेण तउ(ओ) अ णिच्चं कायवमेत्तो सयलं पि किञ्चं ॥ २५ ॥ (५) उपदेशामृत. प. २२-२५ Beginning: भो भवा! सवणंजलीहिं दुहदाहपसमणसमत्थं । उवएसामयमेयं पिबह खणं मोक्खसोक्खकए ॥ १॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGIHAvi Pipi End: धन्ना हिओवएस(साण) भायणं पाणिणो परं होति । ता एयं अन्नं पि य ज जुत्तं तं विहेयवं ॥ २५ ॥ (६) अनुशासनाङ्कुश. प. २६--२९ Beginning: विसमो विसयविसदुमो वेरग्गकरेण जेण मूलाओ। उम्मूलिओ सुहत्थी सो जयइ जिणो महावीरो ॥ १ ॥ End: विस उम्मग्गविलग्गो वि एयमणुसासणंकुसं सिरसा । धरमाणो नियमेणं करीव मग्गं जिओ जाइ ॥ २५ ॥ (७) उपदेशरसायन. प. २९-३३ Beginning: निहालियविसमसरं वीरं वंदित्तु दित्तरुइपसरं । दिन्नजियदिक्खसिक्खं भणामि सामन्नगुणसिक्खं ॥ १ ॥ End: इय उवएसरसायणमुवणीयं आयरेण भवजणा ! । पिब णिच्चमजचरियं जइ काउमणा मणागं पि ॥ २५ ॥ (८) धर्मोपदेश by मुनिचन्द्राचार्य. प. ३३-३६ Beginning: भुषणजणवंदणिज्ज वंदिय दियमाणमच्छरं वीर । धम्मोवएसलेसं समासओ कि पि जंपेमि ॥ १ ॥ End: मुणिचंदायरियाणं उवरसाणं इमाण कयपुन्ना । भविया हवंति भायणमकलंकगुणा परं कह ॥ २५ ॥ (९) सम्यक्त्वोत्पादविधि lly मुनिचन्द्राचार्य. प. ३६-४० Beginning: भुवणजणवंदणिज्ज वंदिय दियमाणमच्छरं वीरं । सम्मत्तुप्पायविहिं भणामि समयाणुसारेणं ॥ १॥ End: सम्मत्तुप्पायविहिं भवा भावंतगा इमं सव्वं (म्म) । निम्महियमोहजोहा हवंति संसुद्धसंमत्ता ॥ २९ ॥ (१०) उपदेशामृत (शोकपरिहारे) by मुनिचन्द्राचार्य. प. ४०-४५ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 132 Beginning:— End:— End:-- Beginning:— End:— सुभावणावसाओ सोयपिसाओ सुहेण जस्स तथा । समुवगओ स वीरो सुरगिरिधीरो चिरं जयउ ॥ १ ॥ मुणिचंदा यरियाणं उवएसाणं सुहासरिच्छाणं । रिसाण विरला केइ परं भायणं होंति ॥ ३३ ॥ (११) उपदेशामृत by मुनिचन्द्र. End: PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Beginning:— वरहेमसमसरीरो वीरो संपत्तमोहमलतीरो । साहियसिवनयर हो सुरविहियमहामहो जयइ ॥ १ ॥ प. ४६-५० तुभे उवएसामयमेयं पाऊण सयलमुणिचंदा | हो मजरामरपयं जह लहह तहा जपज्जाह ॥ ३२ ॥ (१२) धर्मोपदेश by मुनिचन्द्रसूरि. Beginning:— प. ५०-५२ लद्भूणुत्तममाणुसत्तणमिणं कत्तो वि पुन्नोदया धम्मं तित्थयराण तत्थ वि तहा पावेहिं ( वित्तु ) तुझे हि भो ! | नीहारेंदुसमुज्जलेण मणसा देवो जएक्कल्पहू पूयापुव्वगमादरेण महया सम्माणणिजो जिणो ॥ १ ॥ एस धम्मो सो निविडतमतमुत्तारतार पईवो एस धम्मो सो ममयणमहावाहिणासोसही य । एस धम्मो एसोसिवसुहभवणारोह सो पाणसेणी एस धम्मो एसो भवियजण ! तए णावणिज्जो मणाओ ॥ १० ॥ (१३) रत्नत्रयकुलक by मुनिचन्द्रसूरि. प. ५३-५७ चंदद्धसमणिडालं झंपियनिस्से सकुगइपायालं । मंगलकमलमरालं वंदे वीरं गुणविसालं ॥ १ ॥ रयणत्तयकुलयमिणं रइयं मुणिचंद्रसूरिणा सम्मं । भव्वा भावेंता पुण कम्मर सम्म (संप) त्ता ॥ ३१ ॥ रत्नत्रयकुलकं समाप्तं ॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAvi PADA (१४) पञ्चपर्वकुलक. Beginning: सुयनाणपंचमी अट्ठमी य तह चउदसी य चउमासं । संवच्छरियं पव्वा साहूण सया इमे पंच ॥ १ ॥ End: तइय-चउ-पंचमेसुं पुवकमेण व पूरई लोगं । एवं किल भासाए लोगस्सापूरणं [पू परेंथि(ति?) ॥ ११ ।। (१५) कुलक by मुनिचन्द्रसरि. प. ६०-६२ Beginning:-- एत्तं परंपरोवणिहियाए ठाणाणमप्प-बहुभावे । वनिजइ तत्थप्पा अणंतभागाहिया टाणा ॥ १ ॥ End: तेण असंखगुणेहिं असंखगुणिया अणंतगुणठाणा । एसो परंपरोवणिहिया एइ भावणालेसो ॥ १२ ॥ इत्याचार्यश्रीमुनिचंद्रसूरिविरचिता गाथाः समाप्ताः ।। (१६) चउसरण. प. ६२-६५ (१७) उपदेशकुलक(जीवोपालम्भ) hy नेमिकुमार. प. ६५-७० Beginning:- . वंदे सव्वन्नुनाहस्स सव्वकल्याणकारणं । कल्लाणं भवसत्ताणं देविंदाइनमंसियं ॥ १ ॥ Erd: इय सोउं जीव ! तुम नेमिकुमारस्स भासियं कुणसु । जेणुवलंभं न लहसि गच्छसि पुण सासयं ठाणं ॥ २५ ॥ (१८) प्रश्नोत्तररत्नमाला by विमल. प. ७०-७४ (१९) जीवाणुसहिकुलक. गा. २५ प. ७४-७७ (नमिऊण पुवपुरिसाण etc ) (२०) पश्चात्तापकुलक (?) प. ७७-८१ Beginning: हा हा ! दुछु कयं दुट्ट जेणं पावकम्मुणा । जं भे अकारणे दिन्नो विउ(ओ)गो सहपंतुणा(?) । खंतव्वं ...... कायव्वं पुण तुम्ह भो ! । End: ढकंतु ढक्कियं देजा न पारकं तु सो जिणो ॥२॥ Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 134 Beginning:— End: End: (२१) स्थानकस्तवन. Beginning:— End:-- Beginning:— PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS पत्थियसमत्थवत्थूण वित्थरं थुइपराण भावेणं । संपाes जमिह सीडत्ति संथुणे द्वाणयं तमहं ॥ १ ॥ End: इय ठाणयस्स त्थवणं थिरचित्तो जो तिसंझमवि ज्झाइ । सो दुरियदारुदोलिदह दहणो धुवं होइ ॥ १३ ॥ (२२) संक्षेपाराधना. गा. २१ प. ८४-८७ प. ८१-८३ परमपयं पत्ताणं जिणाण चलणुप ( ( प ) ले पणमिऊणं । जत्थ जीवमोहमहणी संग्खेवाराहणं वोच्छं ॥ १ ॥ (२३) जीवानुशासन ( प्राभातिक ) by देवसृरि. प. ८७-९१ Beginning:— तिहुयणपणमियचलणं पणमित्तु जिणेसरं महावीरं । वोच्छं पभायसमए जीवस्स अणुसासणं इणमो ॥ १ ॥ मुणिचंद सूरिगणहरविणेयसिरिदेव सूरिवयणाई | मोहंयाण जंतूण होंति विमलाई नयणाई ॥ २३ ॥ (२४) मुनिचन्द्रस्तुति ( अपभ्रंश ). प. ९१-९४ नाणु चरणु संमत्तु जसु रयणत्तउ सुपहाणु । जय सु मुणिसूरि इत्थु जगि मोडियमहबाणु ॥ १ ॥ समरयणिहिं सूर जिम्व तुह उट्ठीउ मुणिनाहु | सिरिमुणिचंद मुणिंद ! पर महु फेडइ कुग्गाह ॥ २५ ॥ (२५) मुनिचन्द्रसूरिविरह by देवसूरि. Beginning:--- प. ९४ - १०२ निव्वाणगम कल्लाणवासरे जस्स मुक्कपोक्कारं । सुरसामिणो वि कंदंति वंदिमो तं जिणं वीरं ॥ १ ॥ आनंदनिवार्य इय वयणपुरस्स[२] विहेऊन । गुरुभणियकज्ज सज्जो संजाओ देवसूरि ति ॥ ५५ ॥ इति कृतिर्देवसूरीणां । Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHari Pānā (२६) प्राभातिस्तुति hy मुनिचन्द्रसूरि प. १०२ - १०४ Beginning: येऽर्हन् ! प्रभातसमये तव पादपद्ममापन्महार्णवसमुत्तरणैक सेतुं । पश्यन्ति नश्यति ततस्ततमाशु सर्वमेनोऽतितीव्रभवदाहमाम्बुवाह ! ॥ १॥ End:— एषा प्रभातसमयस्तुतिरादरेण पापश्यते भगवति प्रहितैर्मनोभिः | यैस्तेत्र कुंदकलिकोज्वललाभभाजो जायंत एव मुनिचन्द्रपदप्रपन्नाः ॥ ९ ॥ प. १०४ - ११० प. ११०-११४ Beginning: (२७) आतुरप्रत्याख्यान. (२८) शान्ति जिन स्तुति ( अपभ्रंश ). देव ! दस विधम्मधुरधवल ! जसधवलियभुवणयल ! | संति जिणेसर ! एत्तिरं पइ पत्थेगि अाहु | तिहुणगुरु महु तुहि जि पर भवि भवि होज नाहु ॥ १० ॥ (२९) श्रावकव्रत by देवमृरिशिष्य. प. ९१४ - २३ Beginning: End: End: नमः श्रीमद्देवसूरिगुरुपादुकाभ्यः । तिहुयणकयवहुमाणे सन्नाणे विमलगुणगणनिहाणे | नमिउं जिणे गिबिए सम्मत्त जुए पवजामि || देसेणुद्धरियाई सम्म एयाई सावयवयाई | सिरिमंमुणिचंद मुणीसरेण परकज्जसजणं ॥ ५६ ॥ जुगपवरसुराणं सिरिमुणिचंद्रसूरिगुरुगं । [ सीमाण ] देवसूरीणमंतिए वीरजिणभवणे ॥ ५७ ॥ २०३. सिद्धमवृहद्वृत्ति (सप्तमाध्याय). प. २९१-५८२; १५ ×१३” २०४. दशवैकालिकटीका | y हरिभद्र. प. ३३९: १९३×१;” Colophon: संवत् १३२६ वर्षे मार्ग. शु. ४ गुरौ प्रभातेचेह श्रीमद हिलपाटके समस्तरा जावली समलंकृत महाराजाधिराजश्री मद्र्जुनदेवराज्ये महामात्यश्री मालदेवप्रतिपत्तौ श्राव ० .... धर्मार्थ सलपुरेयले ० श्रीवीतरागम[सा]दात् श्रा. धणपाल - सुश्रा. मुंजाकाभ्यां मनःशुद्ध्या लिखितमिदं । " Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .036 136 Partan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS २०५. (१) कथासङ्ग्रह (प्रा. गद्य सचित्र). प. १-५३; १६०४२ (२) सीताचरित्र by भुवनतुङ्ग. प. ५४-८४ Beginning: जस्स पयपउमनहचंदजुहूजलजालियखालियमलोहं । तिजगं पि सुई जायं तं मुणिसुव्वयजिणं नमिउं । Endi सीलगुणसवणसंभूयवरपरमाणंदकारणा रइयं । चरियं सिरिभुवणतुंगपयसाहगं होउ ॥ ४४१ ॥ (३) राम-लक्ष्मणचरित्र. गा. २०८ प. ८४-९९ Beginning: - भणियं सीयाचरियं पुत्वभव विवागसूयगं किंचि । अह राम-लक्खणाणं तं लवमित्तं पकित्तेमि ॥ End: रामो वि केवली विहरिऊण महिमंडलंमि सयलंमि । पडिबोहियभव्वजणो पत्तो सिवसंपयं विउलं ॥ २०८ ॥ रामचरित्रं समाप्तं । (४) मल्लिनाथचरित्र. ahout १०५ गाथा प. ९९-१०७ Beginning:-- इक्खागरायवसभो पडिबुद्धी नाम कोसलासामी । तह नेया अंगाए चंदच्छाए निरुवमाए ॥ १॥ सयलतियलोयनाहं गयपाहं सिवपुरस्स सत्थाहं । नमिय सिरिमल्लिनाहं चरियं वन्नेमि तस्साहं ॥१॥ (५) प्रद्युम्नचरित्र (प्रा. गद्य). प. १०७-१३४ (६) कल्पसूत्र (मूल). प, १३५-२०० (७) कल्पचूर्णि. प. २००-२४० (८) आर्द्रकुमारकथानक (प्रा. गद्य). ग्रं. १३० प. २४०-२५१ (९) खुडुगकुमारकथानक. प. २५१-२६७ Beginning: नवगुत्तीहिं विसुद्धं धरेज बंभं विसुद्धपरिणामो । सव्ववयाण वि पवरं स(सु)दुद्धरं विसयलुद्धाणं ॥१॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGIATI PADA End: किंतु सुहभावणाए काउं सव्वाणि सुहमायारं । सुहकम्मवसेण गयाणि सुहगई खुड्डगाईणे ॥ भावनायां खुड्डगकुमारकथानक । प्रथाग्रं १३५३ । शिवमस्तु सर्वजगतः । Colophon: सं. १३४५ श्रावणशुदि १० गुरौ मं० रत्नेन । २०६. शतपदी by धर्मघोष. *प. २३२; १४३०४२" २०७. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति ( द्वार १) by सिद्धसेन. प. २३१; १७"४२" २०८. सूक्तरत्नाकर by मन्मथसिंह. प. २६८; १३३"४२" Beginning: ॐ नमः सर्वज्ञाय । जीयाजगन्मंगलदीपकस्य कल्याणकुंभः शिवसौधमूर्धनि । श्रीशारदा पनवनीप्रभावा न तुल्यकैवल्यमहःसमूहः ॥ १ ॥ धर्मार्थकामक्रममोक्षमुख्यद्वारानिवारामलवृत्तरनं । श्रीसूक्तरत्नाकरनाम काव्यं विस्तारयेग्रेसरसूरिसूक्तैः ॥ २ ॥ महत्तमश्रीमथनावियोगाजगाम सा कामदुघानघा गौः । प्रकाश्यतां यत्र पवित्रवर्णाः स सूक्तरत्नाकर एव सेव्यः ॥ ३ ॥ आदौ जिनाशीर्वचनानि धर्मो नृणां भवो बार्ल-युर्व-प्रवृद्धाः । कुलीन-रूपान्वित-सज्जनाः स्युः स्वच्छोपायुत्तमवृत्त-धीरीः॥४॥ गुंणी सुसंगांगतसत्किया त्रितत्त्वागम-ज्ञान-सुदर्शनानि । मिथ्यात्व चारित्र-सुनंदयः स्युः परीपई-क्षांति"-मनो-वचोंगं ॥५॥ जितेंद्रिय-निःस्पृहता विवेको' विनीतती स्याद् विजयः कपाये। साधुप्रैमादो गृहिधर्म-पंचती निशाभोजन-साम्य...... ॥ End: यस्मिन् पुष्प(प्य)ति विश्वविस्मयकरे स्वःश्रेणिनिःश्रेणिका द्रागंगप्रतिमां पदस्थिति सती द्वारा चतुःसप्ततिः । सोय नव्यजनप्रबोधजनको धर्माधिकारः पुरः काव्ये सर्वरहस्यवीचिनिचिते श्रीसूक्तरत्नाकरे ।। इति श्रीसूक्तरत्नाकरनामनि महाकाव्ये धर्माधिकारोऽयं प्रथमः संपूर्णः । ग्रंथानं ४३४० ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ ७ ॥ ७ ॥ शुभं भवतु ॥ * अन्यं पत्रत्रयं शीर्णम् । २,४८,११० इत्येतानि पत्राणि न सन्ति । 18 Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '138 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS विद्यासिंहतनूद्भवः सुचरितो वेजल्लदेव्यंगजः श्रीमन्मन्मथसिंह एष विदधे श्रीसूक्तरत्नाकरं । नानाशास्त्रगृहीतसूक्तलहरीलीलालयं तत्र सद् धर्माख्यं प्रथमं समाप्तमखिलं द्वारं निदानं श्रियः ॥॥५॥ Prasasti of the Donor: सुपर्वसरलोत्तुंगः शाखाशतसमावृतः। श्रीमान् श्रीमालवंशोस्ति सर्वत्रापि प्रमाणकृत् ॥ २ ॥ श्रेष्ठी जयंत इत्यासीत् तत्र मुक्तामणेः समः । पात्त(तू)नानी च तत्पनी गेहलक्ष्मीरिवांगिनी ॥३॥ श्रीसंघकृत्यधौरेयाः सम्यक्सम्यक्त्वशालिनः । तत्पुत्राः क्रमशोऽभूवन गुरुभक्तिभृतो ह्यमी ॥ ४ ॥ विद्वान् महणनामाद्यो मदनाख्यो महत्तमः । सामंतो झांझणाख्यश्च लाडणोनल्पवासनः ।। ५ ॥ वयज तेज च सुते सुदुस्तपतपोंचिते । लाडणस्य तु ललनादेवीति दयिताभवत् ॥ ६॥ तत्सुता अरिसिंहाद्या एवं वंशे विवर्धति । श्रीरत्नसिंहसुगुरोर्लाडणो धर्ममशृणोत् ॥ ७ ॥ ततः स्वस्यै[व] पुण्यार्थी सूक्तरत्नाकरस्य तु । चतस्रः पुस्तिकाः पुण्या लेखयामास लाडणः ॥८॥ ज्योतिर्मुक्तावतंसा रविरजनिकरस्फारताडंकपत्रा ज्योत्स्नाकुप्तांगरागा जलनिधिवसना स्वर्नदीहारयष्टिः । यावन्ननति कीर्तिश्चरमजिनपतेर्विश्वरंगेत्र तावत् मंद्रव्याख्याननादैः कलयतु तुलनां दुंदुभेः पुस्तकोयं ॥१॥ Colophon: सं. १३४७ वर्षे आपाढवदि ९ गुरौ आशापल्यां महं वीरमेन श्रीरमाकरपुस्तिका लिखिता ॥॥ २०९. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र(पर्व २-३). प. २९५; १८३०x२" Prasasti of the Donor: तन्वानं स्वकलाकलापमधिकं वर्जिवालंकृतं लक्ष्मीशनटीव यं श्रितवती प्रेष(ख)द्गुणाध्यासितं । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. Sanguiavi PĀŅĀ रंगानोत्तरणाभिलापमकरोद् या वर्ण्यतामागता पल्लीपाल इति प्रसिद्धमहिमा वंशोस्ति सोयं भुवि ॥ १ ॥ शेभवत् तत्र सोही मुक्तात्मा श्रावकाग्रणीः । स्त्रिान् महामहतेजा अजाड्योपि मुशीतलः ॥ २॥ तस्योढा सुगुणैः प्रौढा शुभधीः सूहवाभिधा । पासणागस्तयोः पुत्र एक एव गुणैरपि ॥ ३ ॥ पउसिरिनाम्नी भार्या तस्याभूद् धर्मकार्यकृत् । तयोः पुत्रत्रयं पुत्रीद्वयं चाद्वंद्वमानसं ॥ ४ ॥ तदादिमः साजणनामधेयः समुल्लसन निर्मलभागधेयः । सत्यं च शौचं कलिराजभीतं दृदुर्गमाशिश्रियदाशु यस्य ॥ ५ ॥ धौर्येणाद्भुतराणकप्रतिकृतिर्जज्ञे ततो राणको दिकचक्रं परिपूरयन् शुचि यशो निश्वासदानोदयात् । योसाध्यत् परलोकमागु हृदये श्रीवीरनाम स्मरन् सद्धर्मेण गुणान्वितेन विशिपा(ग्वा)गेपेण सत्त्वोन्कटः ॥ ६ ॥ मोहादित्रयसंहर्ता तृतीय आहडोभवत् । जिनधर्मरक्तचेता जेता दुःकर्मजालस्य ॥ ७ ॥ आया तयोरद्भुतधर्मधाम पद्मी द्वितीया जसलंवनानी । दानादिधर्माबुनिपेकयोगैरात्मा यकाभ्यां विमलोभ्य(व्य)धायि ॥८॥ सहजमतिः सजनस्याभून पत्नी पतिव्रता ।। तत्पुत्री रतधीनामा मुतो मोहण-साल्हणी ॥ ९ ॥ चाहडस्याथ भार्याभूत् चांदृश्चंद्रकलोज्वला । पंचापत्यानि तयोः क्रमादिमानीह जातानि ॥ १० ॥ तेषामाशाभिधो ज्येष्ठ आशादेवीति तत्प्रिया । तयोर्वभूव सगुणा जैत्रसिंहादिसंततिः ॥ ११ ॥ अद्वितीयो द्वितीयोपि श्रीपाल इति विश्रुतः । तत्पत्नी वील्हुका नाम्ना पुत्रो वील्हाभिधः सुधीः ॥ १२ ॥ तृतीयो धांधको नाम कलत्रं तस्य रुक्मिणी । लक्ष्मीप्रियः पद्मसिंहस्तुर्यो रत्नाद्यपत्यकः ॥ १३ ॥ पुत्रश्च जज्ञे ललतू लालसो धर्मकर्मणि । वासूश्वास्यांगना जाता व्रतान्मदनसुंदरी ॥ १४ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "140 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS कर्पूरी च तथा पद्मसिंहजा भावसुंदरी । कीर्तिश्रीगणिनीपादौ द्वाभ्यामाराधितौ मुदा ॥ १५ ॥ न्यायोपात्तस्य वित्तस्य फलं धर्मे नियोजनं । अनय॑स्येव रत्नस्य किरीट-कटकादिषु ॥ १६ ॥ परोपकारात् त्वपरो न कश्चिदत्रास्ति धर्मो भुवनत्रयेपि । श्रुता ... स्थं ... व्याख्यायमानं दुरितावसानं ॥ १७ ॥ श्रीमत्कुलप्रभगुरोराकण्येवं विशुद्धमुपदेशं । मोहारिकदनकालः श्रीपालो धर्मसुविशालः ॥ १८ ॥ दुःप्रतिकारौ पितराविति च ज्ञात्वा पितुः सुकृतहेतोः । अजितादिशीतलांतं सुपुस्तकं लेखयामास ॥ १९ ॥ चतुर्भिः कलापकं । त्र्यग्रत्रयोदशशते शरत्सु राज्ञः श्रीविक्रमाद् विधियुतं सुधिया च तेन । व्याख्यापितं च सुकुलप्रभसूरिपट्टलक्ष्मीविशेपकनरेश्वरसूरिपार्थात् ॥ २० ॥ यावत् तारकचक्रघर्घरीधरो दिक्कुंभिशेलूपवान् मेरुश्चारुनटः प्रताडयति तत् ज्योत्स्नालतातंतुभिः । वध्वा व्योममृदंगकं रवि-शशिप्रोद्यत्पुटद्वंद्वकं - तावन्नंदतु पुस्तकोयमसकृद् व्याख्यायमानो बुधैः ।। २१ ॥ Colophon: संवत् १३०३ वर्षे कार्तिकशुदि १० रवावयेह श्रीभृगुकच्छे ठ० सउधरेण पुस्तकं लिखितमिति ॥ २१०, वासुपूज्यचरित्र by चन्द्रप्रभोपाध्याय. प. ३१२; अपूर्ण १६३४२" Beginning:- नमः श्रीवासुपूज्याय ।। सुहसिद्धिवहुवसीकरणपञ्चला जस्स नामवन्ना वि । भवियाण सिद्धमंतक्खर व सो जयउ पढमजिणो ॥१॥ कलिकालवियंभिरमोहि(ह)तमच्छाइए जए जस्स । रविबिम्ब पिव विप्फुरइ तित्थमिह नमह तं वीरं ॥२॥ पणयजणकप्परुक्खंकुर वि(ब) सिवपहपयासदीव व्व। . कमनहकिरणा रेहंति जस्स तं नमह जिणनिवहं ॥ ३ ॥ दिसिवहुमुहसीमंते सुतणुपहा जस्स जहथाम । कुंकुम-सिंदूर-पसाहणाइं सो जयउ वसुपुज्जो ॥ ४ ॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAVI PADA तं पणमह सुयदेवि मुहससिजुह्नापसंगओ जीसे । पायडियमु(सु)त्तिरयणो पसरइ वयणामयसमुद्दो ।। ५ ।। मंदस्स वि मह बुह-कवि-गुरु त्ति पयवीपरंपरा जाया । जाण पसाया ताणं गुरूण पयकमलमहिवंदे ॥ ६ ॥ पणमह गोयमसामि अणिंदभूई वि इंदभूयि त्ति । जो पवरकयपबंधो वि अप्पबंधु त्ति विक्खाओ ॥ गयणं व पवयणं तमतिरोहियं पयडियं बहुपएहिं । जेण रविण व्व तमहं वंदे हरिभद्दसूरिअ(गु)रुं ॥ गंग व्व तरंगवई जेहिं कहा निम्मिया पवित्तपया। ते सिद्धसेवियपए पालित्तयसूरिणो वंदे ॥ सिरिजीवदेवसूरिं वंदे जस्स पबंधकुसुमरसं । आसाईऊण सुचिरं अज्ज वि मजंति कविभसला ॥ किं दुजणनिंदाए किं वा इह पत्थणाए सुयणाण ? । पढमा पढमं चिय पावकारिणी निप्फला इयरा ।। कइपत्थणाइ किच्चिरमग्घइ कव्वं सदूसणं लोए । पिउ-माइपत्थणाए ससुरकुले दूहववहु व्व ॥ अह किं इमाए चिंताए पत्थुअत्थस्स विग्घभूयाए । सगुणेहिं चिय कव्वं अग्घेइ सुसीलसुन्ह व्य । ता थोत्तारिहथुणणो वहि(ड्डि)य[क]ल्लाणनिहयपञ्चूहो । सिरिवासुपुजचरियं रएमि इणमो जहासत्तिं ॥ अइदुक्करं खु एयं बाहाहिं रुहा(द)समुद्दतरणं व । ता हसणिज्जो होहामि नूण(ण) विबुहाण अहमहवा ॥ कठिणो वि चंदकंतो ससिसाहिजेण जह जलं मुयइ । अहमिय देवयासन्निहाणओ तह मिमं काहं ॥ प. २७ अपभ्रंश केंव वहेसउं अज्जु लगि निययभुयाबलगर्छ । मिलियए मज्झि विगुत्ताह अहह ! निष्फलु सबु ॥ अहह जामिणि कि भणि न सखीण जहि जम्मु अम्ह हुयउ अहव दिवहिं तहिं रवि किं वुग्गिउ किह मंगल दिति यहिं [अ]च्छहि निसिहि महिलहि वि जग्गि तु । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS गब्भि वि किह न विलीण अह जीवेण वि किन्न चत्त ? इह सयंवरमंडवि वि जं उवविट्ठ विगुत्त ।।। प. २९६- इति श्रीवासुपूज्यचरित्रे चंद्रप्रभोपाध्यायविरचिते द्वितीयः सुरभवः समाप्तः॥ २११. (१) पश्चाशक. प. १-९९, ९०x१३" (२) सङ्ग्रहणी. गा. ३६६ प. १-४६ (३) बत्तीसजीवपरिमाण. गा. २८ प. ४६-४९ Beginning: सिरिवीरजिणं नमिउं वोच्छं बत्तीसजीवपरिमाणं । भव्वजणजाणणढं रक्खलु अत्तसरणहूँ ॥ (४) दूसमगंडिया. गा. ११२ प. १-१९ (५) वोच्छेयगंडिया. गा. १७३ प. १९-४६ Beginning: अह पुण सुरत्थुवंतो देसे देसे समोसरंतो। सो सञ्चा(भव्वा)रविंदभाणू रायगिहं पुरवरं पत्तो ॥१॥ End: एत्थं संसारपहे कम्मारद्धो जिओ परिभमइ । पाठे (वे)ण जाइ निरयं तिरि-मणुयत्तं सकम्मेहिं ॥ १७३ ॥ वोच्छेयगंडिया समत्ता । Colophon:संवत् १२८४ वर्षे माघ वदि ५ शुक्रे समर्थिता लिखिता पद्मचंद्रेण । ___ (६) जंबूद्वीपसमास. प. ४७-६१ (अपूर्ण) २१२. (१) उपदेशमाला. प. १-६५ (२) कर्मस्तव. गा. ५७ प.६६-७२ (३) कर्मविपाक by गर्गर्षि. गा. १६८ प. ७३-९१ (४) सङ्ग्रहणी (श्रीचंद्रीया ). गा. २७३ प. ९२-१२६ (५) एकविंशतिस्थानक by सिद्धसेन. ___ गा. ६४ प. १२६-१३३ (६) नवपदप्रकरण. गा. १३७ प. १३३-१५० End: पणमामि अहं निचं अणसणविहिणा य निरति(इ)यारेहिं । जेहं कयं चिय मरणं दिटुंतो खंदएणेत्थ ॥ १३७ ॥ . Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ End: No I. SANGIHAVI PKp (७) पोषधविधिप्रकरण by देवभद्र. गा. ११८ प. १५०-१६५ End: पोसहविहिपगरणं रइयं सिरिदेवभद्दसूरीहिं । धम्मं जस्सवद्धणकरं मुणंतु.........धम्मरया ॥ पोसह विहिप्पगरणं समत्तं । (८) सुबाहुचरिय. गा. २१९ प. १६६-१९२ Beginning: नमिऊण वद्धमाणं असुर-सुर-मणुयवंदियं सिरसा । वोच्छं सुबाहुचरियं गुरुवइह समासेणं ।। २१३. (१) उणादिगणविवरण by हेमचन्द्र. प. १-१६६; १४३०४२" (२) उणादिसूत्र (४ पाद). 'inning: नमस्कृत्य गिरं भूरिशब्दसंतानकारणं । उणादयो विधास्यन्ते वालव्युत्पत्तिहेतवे ॥ १ ॥ तिजेर्दीर्घश्च । इत्युणादौ सूत्रतः चतुर्थः पादः समवसितः । (३) उणादिवृत्ति, a commentary on (२) प. १-७६ End:-- इत्युणादिवृत्तौ चतुर्थः पादः समवसितः । Colophon: संवत् १२३१ वर्षे मार्ग. सुदि ८ रवी ले. मुंजालेन उणादिवृत्तिपुस्तिका लिखितेति। (४) वीतरागस्तव (२० प्रकाश ). प. १-२२ २१४. प्रवचनसारोद्धार (त्रुटित ). प. १७२; १४"२४ २१५. (१) दशवैकालिक. प. १-७२ (२) पाक्षिकसूत्र. प. १-३१ २१६. (१) निशीथ. प. १-६८; ११"२?" (२) व्यवहारसूत्र (अपूर्ण). प. ६९-११० २१७. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र (नेमिचरित्र). प. ३३८+३;१४४"४२" Prasasti of the Donor: श्रीमालवंशे प्रागासीद् देहडिदेहिनां वरः । पुण्यपाल-देवपालौ सुतौ तस्य बभूवतुः ॥ १॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 144 Patrax CATALOGUE OF MANUSCRIPTS यशोनामा पुण्यपालतनयस्तस्य सूनवः । सांताकः सिंधुलश्चैव ऊदलः सांग एव च ॥ २॥ त्रयः सांताकतनया आंबडः शूर एव च । स लब्धो लब्धलक्षोभूत् सर्वभूतदयापरः ॥ ३ ॥ सिंधुल्लधर्मपत्न्यासीत् सूहवदेविनामतः । सुतः सामंतनामाभूत् यस्तत्त्वज्ञशिरोमणिः ॥४॥ अंगजी ऊदलस्यापि आभड आसकस्तथा । त्रयः सांगाकसुता वीसलो वयज-देदकौ ॥ ५ ॥ चाहडो देपालसुतः सीहडश्चाहडांगजः । अयः सीहडतनयाः सांगणः सुकृतांगणः ॥ ६ ॥ सहजपालः सजनः सांगणांगरुहाः क्रमात् । शुराकः साहादश्चैव श्यामलः सालिगस्तथा ॥ ७ ॥ श्रीमान् विवेकसिंहाख्यः पूर्णिमापक्षमंडनं । तत्प? श्रीरामचंद्रप्रभुः सप्रतिभोऽभवत् ॥ ८ ॥ तत्पट्टमंडनं श्रीमान् धीरसिंहाभिधः प्रभुः। तच्छिष्योऽभयसिंहाख्यगुरुभविकसंमतः॥९॥ तस्मै स्वगुरवेदत्त पित्रोः श्रेयःकृते सुधीः । सामंतो नेमिचरितं पुस्तकं स्वस्तिकारणम् ॥ १० ॥ काले विक्रमतो बाण-मुनि-यक्षमिते सति । रोहेलायां स्थित इदं सामंतः सुकृतं व्यधात् ॥ ११ ॥ २१८. (१) उपदेशमणिमाला. गा. २५ प. १-२ Beg:-जीवदयाइ रमिज्जइ etc. (२) मिथ्यात्वकुलक. गा. ९ प. २ Beg:-वि(चि)त्तद्धमि मह न वसी etc. (३) नवफणश्रीपार्श्वनाथनमस्कार( अपभ्रंश). गा. ५ Beginning: जय चिंतामणि जयनाहु जय नवफणमंडिय जय वाणारसिजाय कायजियनीलसिखंडिय जय वामाइ(ए)वि-आससेणकुलनहयलभूषण जय देवासुर-श्रमणसंघसंथुय धुयदूषण । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PADA ता देवदेव ! धरणिंदथुय कमठदप्प चूरंतु पउमावइपणमियचलण मणवंछिय पूरंतु ।। १ ।। End: चेडय-सयडालघरे नवफणपास जिणिंदु । नमि सरवण अहिछत्रपुरे खरतर संतिसमुहु ॥ ५ ॥ (४) उपदेशमाला. गा. ५४२ प. १-४६ (५) गौतमपृच्छा . गा. ५३ प. ४६-५१ (६) चउसरण. गा. २७ प. ५१-५३ (७) आराधना कुलक. गा. ६९ प. ५६-६२ (८) अणसणपच्चक्खाण. प. ६२ ( double ) (५) विवेकमञ्जरी. प. ६३-७५ Leaves 76-142 containing विवेकमंजरी १४४ गाथा, अर्हतस्त्रिजगस्तोत्र श्लो० ८, योगशास्त्र श्लो० १६४, वीतरागस्तव नो० २००, शृणु देवि महा० स्तोत्र श्लो० ३३, भक्तामरस्तव नो० ४४, आत्मानुशासन ७८ are missing. (१०) पुष्पमाला (प्रा०). गा. ५०५ प. १४२-१८७ (११) जम्बूद्वीपप्रकरण. गा. ११२ प. १८८-१९६ (१२) गुरु( देवभद्र )स्तुति. प. १९६-१९७ Beginning: श्रीमत्तीर्थपतिप्रणीतसमयक्षीरोदचंद्रद्युतिः सञ्चारित्रपवित्रितासुरनदीनीहारभूमिधरः । ज्ञानश्रीकुलसद्म संयमरमाशंगारदीक्षागुरुः सूरीणां प्रमुखश्चिरं विजयतां श्रीदेवभद्रो गुरुः ।। End: - जत्थ गिहवास-पास छोडेउं मुहगुरु ! तुम्ह समीवे । चरणभरधुरं धरिस्समहं कइया पुण सो दिवसो ॥ १७ ॥ इति गुरुस्तुतिः । (१३) चैत्यवन्दन-प्रतिक्रमणसूत्र. प. १९७-२२५ Contain two stotras (अ) जिनस्तोत्र (अपभ्रंश ). गा. ९ . .. 19 Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Beginning: हेव सूसमु हूअ मह देव ! हिव दूसमु दूरट्ठि उ सयल रिद्धि । End: जइ वि निग्घिणु हउं निरासंकु निल्लिज्ज उ लक्खणरहिट जइ वि नाह ! तुह आण-चुकउ । निक्किट्ठ निहरु अह हु जइ वि सयलगुणविमुक्कर तह वि हु जिणवर ! कर किजउ एक्कउ पसाउ अप्पण पायहं हिट्टि पहु दिजउ मज्झ वि ठाउ ॥ ९ ॥ (आ) नयगमस्तव by जिनप्रभसूरि. Beginning: नयगमभंगपहाणा विराहिआ गहिआ व सुपमाणा । भव-सिवदाणसमाणा जिणवरआणा चिरं जयइ ॥ End: इय विनत्तो जिण ए(प)हु जिणपहसूरीहिं जगगुरु पढमो । विश्नत्तीइ पसायं निवित्तिं कुणउ अम्हाणं । (१४) लघुअजितशांति (चवण-जम्मण). गा. ८ प. २२६(१) (१५) गौतमपृच्छा . गा. ५२ प. २२६-२३० (१६) शीलकुलक. गा. ३५ प. २३०-२३३ Beginning: समग्गसोहग्गमहानिहाणं नमित्तु नेमि जियपंचबाणं । End: इच्चाइ सीलस्स महागुणाओ जाणित्तु etc. (१७) लघुरत्नत्रय( नवकारेण विबोहो etc ). गा. १३ (१८) प्रश्नोत्तररत्नमाला. प. २३३-२३७ (१९) धर्मलक्षण. प. २३७-२३९ Colophon:--- संवत् १३८८ वर्षे हारीजनगरवासं विमुच्य व्याघ्रपल्या वासः कृतः । ततो व्यव० जसभद्र तत्सुतव्यव० अरिसिंह तदंगजो व्यव० सोहडस्तस्यांगजा व्यव० सलषणसीह व्यव० कूरपाल व्यव० देपाल व्यव० षोषल । सर्वेषां भ्रातॄणां कुटुंबेन पुण्यकर्मणा ओसवालवीशाविशेषेण विभूषितः । ततो व्यव० पोपलेन सुतधरणी-संग्रामप्रमुखकुटुंबयुतेन पितृष्वसुर्वा० शोषीश्रेयसे तस्या Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 142 No. I. SAŃGBAVI PĀŅĀ एव द्रव्येण स्वाध्यायपुस्तिका स्वीयसुतसुतादिकुटुंबस्य पठन-गुणनार्थ पुस्तिका लिखापिता । नंदताश्चिरं पुस्तिकेयं ॥ २१९. धातुपारायण. प. १-२६७; १५:"४२" End: ___ इति आचार्यश्रीहेमचंद्रविरचिते खोपज्ञधातुपारायणे स्वार्थणिजन्तो णिपु. रादिगणः संपूर्णः । समर्थितं चेदं धातुपारायणमिति । २२०. शतकचूर्णि. प. १२५; १५३"४२" Beginning: ओं नमः सिद्धेभ्यः । सिद्धो गिद्धयकम्मो सद्धम्मपणायगो तिजगणाहो । सवजगुज्जोयकरो अमोहवयणो जयइ वीरो ॥ १ ॥ End:शतकचूर्णिः समाप्ता । ग्रंथान २३२२ मंगलं महाश्रीः । श्रीमालकुले विपुले जज्ञे श्रेष्ठी यशोधनो विपुलः । समभूत् तदीयदयिता जीवहिता नागदेवीति ॥ १ ॥ सा चतुरोऽसूत सुतांश्चतुरः श्रीवच्छ इति ततोप्यन्ये । सालिग-सोहिक-पासुकसंज्ञाश्च यशोमतिश्च सुता ॥ २ ॥ इतश्च । अस्मिन्नेव सुपर्वणि वंशेभूदुसभ इति शुभः श्रेष्ठी । तस्य श्रीरिति जाया तयोः सुता वेलुकेल्यस्ति ॥ ३ ॥ तां सालिगोनुम्पां परिणिन्ये नयवतीं तयोस्तनयः । शोभनदेवो गुरुदेवचरणयुगकमलहंसः ॥ ४ ॥ . स जनन्याः श्रेयोर्थ श्रेष्ठमतिः शतकचूर्णिटिप्पनकं । लेखयति स्म ततोदान्महिमागणिनीपठनहेतोः ॥ ५ ॥ भूमिर्नभः सुमेरुः सवितृ-शशिनौ चराचरा सु(भूभृतः । यावदिह संति लोके तावदियं पुस्तिका नंद्यात् ॥ ६ ॥ २२१. (१) कल्पसूत्र. प. १-१३८ Beginning: (२) कालि(लकाचार्यकथा. गा. १३२ प. १३८-१५२ अणुसरि आगमवयणं सिरिकालयसूरिजुगप्पहाणेहिं । पजोसवणचउत्थी जह आयरिया तह सुणेह ॥ १॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5:48 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS End: सूरि वि य कालेणं जाणित्ता णिययआउपरिमाणं । संलेहण विहेउं अणसणविहिणा दिवं पत्तो ॥ १३२ ॥ कालयसूरिकथा श्लोक १६९ ॥ २२२. द्वादशव्रतकथा (प्रा. सं.). प. २०५; १४१४१३ २२३. (१) न्यायकन्दली by श्रीधर. प. १५५; १४३°४२३" End: भट्टश्रीश्रीधरकृतायां पदार्थप्रवेशके न्यायकंदली समाप्ता । Colophon:सं. १२४२ फाल्गुनसुदि १ शुक्रे । ग्रं. ६००० (२) पदार्थधर्मसङ्ग्रह (न्यायकन्दलीसूत्र ). प. १५६-२०० Beginning: प्रणम्य हेतुमीश्वरं मुनि कणादमन्वतः । पदार्थधर्मसंग्रहः प्रवक्ष्यते महोदयः ॥ १ ॥ End: योगाचारविभूत्या यस्तोपयित्वा महेश्वरं । चक्रे वैशेषिकी विद्यां तस्मै कणभुजे नमः ॥ समाप्तं(ता) पदार्थप्रवेशकाख्या कृतिराचार्यपादानां ग्रंथानं ७७७ । Colophon: संवत् १२४२ फाल्गुनवदि ६ गुरौ पं० परमचंद्रगणिनादेशमासाद्य पं० महादेवेन न्यायकंदलीवृत्तिसूत्रं समाप्तमिति ॥ २२४. योगशास्त्रविवरण (प्रथमप्रकाश ). प. १२८; १४१४२३ Colophon: संवत् १२५५ वर्षे मार्गशुदि १ रवौ अद्येह श्रीपत्तने श्रीदेवाचार्यवसत्यां श्रीधनेश्वरसूरीणां हेतोादशसहस्रयोगशास्त्रवृत्तिः परमश्रावकठक्कुरवर्धमानेन सुदनिवास्तव्यपारि० वीशलपार्थात् लिखापिता । प्रथमप्रकाशवृत्तिग्रंथ १८०० अष्टादश शतानि ग्रंथसंख्या शिवमस्तु ॥ २२५. हैमीनाममालावृत्ति. प. २४०; १५"४२" २२६. शिशुपालवध by माघ. प. १८५; १५३०४२३" End:दत्तकसूनोर्माघस्य कृतौ शिशुपालवधे महाकाव्ये श्यंके विंशतितमः सर्गः । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAvi PADA 149 २२७. (१) योगशास्त्र ( १२ प्रकाश ). प. १२९; १३०४२" (२) वीतरागस्तव. प. १३०-१५५ (३) साम्यशतक by अभयसिंहमूरिशिष्य (?) प. १५७-१७१ (४) सुभाषितसमुच्चय (योगशास्त्रवृत्त्यन्तर्गत ). प. ७३-१६२ Beginning: आचार्यश्रीहेमचंद्रविरचिते द्वादशप्रकाशप्रमाणश्रीयोगशास्त्रसूत्रस्य आद्यचतुःप्रकाशानां वृत्तिमध्यात् साधु-श्रावकादिजनस्योपयोगीनि भणित्वा पठनाय वाचनाय च । यथाश्रुतधरैराकृष्ट आंतरसुभापितानि यथा । End: इति योगशास्त्रवृत्तिमध्यात सुभापितसमुच्चयः ।। एवं समस्त ग्रंथ ८०० अत्रांतरश्लोकाः ४३० । शिवमस्तु । (५) अभिधानचिन्तामणि ( १ काण्ड). प. १६३-१६८ Beginning:__ अभिधानचिंतामणिनाममालायां देवाधिदेव-प्रथमकांडात् प्रथमतस्त्रयोविंशतिश्लोकान् विमुच्य अप्रेतनश्लोका विलिख्यते यथा । End: इति आचार्यश्रीहेमचंद्रविरचितायामभिधानचिंतामणिनाममालायां देवाधिदेवः प्रथमः कांडः ॥ __ (६) हस्ति(पुण्य)पालखप्न by हेमचन्द्र. प. १६९-१७३ Beginning: श्रीहेम० त्रि० चरितानां मध्यात् श्रीमहावीरचरिते ( पर्व १०, स. १३) अष्टस्वप्नानां श्रीमहावीरस्यैव मुखेन कथितविचारो यथा । End: इति स्वप्नफलं । (७) प्रश्नोत्तररत्नमाला. प. १७४-१७७ (८) धर्मलक्षण. प. १७७-१७९ (९) प्रशमरति. प. १८०-२२१ Colophon: संवत् १३०३ वर्षे भाद्रवावदि १० (१०) तत्त्वार्थाधिगम. प. २२२-२४९ (११) अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका. प. २५०-२५८ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS .1.50 २२८. (१) उपदेशमाला. प. १-६७; १४०४२" (२) मूलशुद्धिप्रकरण by प्रद्युम्नसूरि. गा. २१२ प. ६८-९३ २२९. अनुयोगद्वारचूर्णि by जिनदासगणि. प. १५८; १२३४२" End: कृतिः श्रीश्वेतांबराचार्यश्रीजिनदासगणिमहत्तरपूज्यपादानां अनुयोगद्वाराणां चूर्णिः । २३०. (१) पाक्षिकसूत्र. प. ३२ (२) दशवैकालिक. प. १-६७ (३) पिण्डविशुद्धि by जिनवल्लभ. प. ६८-८० २३१. आवश्यकनियुक्ति (प्रा०). गा. २५०० प. २०२; १४०x२" Colophon: संवत् १२१२ मागसिरसुदौ १० रवौ लिखितेयं उमता व्यास (? वास्तव्येन)। Donor's Prasasti: आसीत् प्राग्वाटवंशे विमलतरमतिर्विश्वविख्यातकीर्तिः __ सद्बुद्धिर्वाहलाख्यो जिनपति चरणाराधने न्यस्तचित्तः । तस्याभूत् साधुशीला जिनमतिगृहिणी धर्ममार्ग[ प्रवृत्ता] ___ या शक्ता जानकीव प्रवरगुणगणे रामदेवस्य मान्या ॥ १ ॥ जातौ तस्याश्च पुत्रौ विनय-नयपरौ ग्रामणीः श्रावकाणां ___ एकः सद्यक्षदेवः प्रकटगुणगणः......द्वितीयः । ज्येष्ठस्याभूत् सुपत्नी जिनवृपकलिता भोयणीये (?)... दीनानाथादिदाने वितरणचतुरा क्षान्ति-दान्तिप्रसन्ना ॥ २ ॥ सुता जातास्तस्यास्त्रय नरगुण............ यशोदेवश्चाद्यः प्रथितगुणदेवाख्य इतरः। [तृती]यो जिका (ह्वा)ख्यो जिनपतिमतभावितमतिः सुता जासीत्याख्या विनयकलिता कर्मनिरता ॥ ३ ॥ कु......प्रयापेमतुलं मात्रा निजश्रेयसे __ संशुद्धं भणितेन पुस्तकं सदा जिह्वाभिधेन स्फुटं । श्रेष्ठ लेखितमागमस्य विबुधैर्द्वधा सुमान्यं सदा नानावर्णसुपत्रप...............रत्नाकरं ॥४॥ यावत् तारकनायकौ दिनकरौ देवाचलस्तोयधि र्यावज्जैनमतं वरं सुरनदी स्वर्गों दिशां मंडलं । Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PĀDĀ 15 यावच्छेषफणावलिषु जगती.......... स्तावन्नंदतु पुस्तकं प्रतिदिनं पापठ्यमानं बुधैः ॥ ५ ॥ २३२. याश्रयकाव्यवृत्ति (८ सर्ग) by अभयतिलक. प. २८४-?; १८३"४२३" Contains paintings one of Hemachandra and another of Kum. arapala. २३३. पश्चवस्तुक by हरिभद्र. गा. १९०० प. १८२; १४०x१३" End: इय पंचवत्थुगमिणं उद्धरियं रुदसुयसमुद्दाओ। आयाणुस्सर[णत्थं भवविरहं इच्छमाणेणं ॥ गाहग्गं पुण एत्थं गणिऊण ठावियं एयं । सीसाण हियट्ठाए सतरस सयाणिं पाएण ॥ १७०० ॥ पंचवस्तुकं समाप्तं । २३४. (१) कल्पसूत्र. गा. १२१६ प. १४५ (२) कालिकाचार्यकथा (सं.). प. १४६-१५५ Beginning: पर्वेदं भाद्रपंचम्याश्चतुर्थ्यामभवद् यतः । श्रीमत्कालिकसूरीणां तेपां वक्ष्ये कथामहं ॥१॥ End: नत्वा नुत्वा च सौधर्म गते शके गणेश्वरः । तत्भमाश्रवणेनैवानशनी त्रिदिवं ययौ ।। ७३ ॥ पृथक्त्व ५ पक्ष २ यक्षादि १३ श्रेष्ठी प्रद्युम्नः कथां व्यधात् । प्रार्थितो मोढगुरुणा श्रीहरिप्रभसूरिणा ।। ७४ ।। ॥ श्रीकालिकसूरिकथा समाप्ता ॥ श्रियो गृहे घोषपुरीयगच्छे सूरिः प्रमाणंद इति प्रकृष्टः । बभूव पूर्व गुणरत्नखानिः सुचारुचारित्रपवित्रगात्रः ॥ १ ॥ विजयचंद्रगुरुः प्रवरो गुणी श्रुतमहोदधिरस्य पदेभवत् । अखिलधर्म सुकर्मविधायको गुरुरिव प्रतिभाति विचक्षणः ॥ २ ॥ तत्पट्टपूर्वाचलमौलिभानुर्दुर्वारमाररिपुशातनपंडितो यः । श्रीभावदेवः प्रबभूव सूरिः पदे तदीये श्रुत-शीलयुक्तः ॥ ३ ॥ Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 152 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS ततो जराभीरुजयी समस्ति जयप्रभः सूरिवरोऽस्य पट्टे । अर्कः प्रतापेन च चंद्रमासौ कलाकलापेन बुधस्तु बुद्ध्या ॥ ४ ॥ हुडापाद्रपुरेऽप्यस्ति श्रीमान् पार्श्वजिनेश्वरः । तस्य गोष्ठिपदे ख्यातो वंश एपः प्रकीर्त्यते ॥ १ ॥ प्राग्वाटवंशे भुवनावतंसे विख्यातनामाऽजनि चासपा सः । तद्गहिनी जासलदेवीनाम्नी तत्कुक्षिजातास्तनयास्त्रयोऽमी ॥ २ ॥ सर्वलक्षणसंपूर्णाः सर्वधर्मसमन्विताः। सहदेवश्च पे(ख)ताको लखमाकः सहोदराः ॥ ३ ॥ सहदेवस्य च पत्या नागलदेव्याः सुतौ शुभौ जाती । आमाह्रौ विख्यातौ धर्मधुराभारवाहने दक्षौ ॥ ४ ॥ आमाकपत्नी जिनधर्मतत्परा रंभा सुशीला सुगुणा सुवंशजा । तत्कुक्षिजातास्तनयास्त्रयो वरा धर्मार्थकामा इव जंगमा भुवि ॥ ५ ॥ मुहुणा पूनाकेन च हरदेवसमन्वितेन पुण्यवती । मातुः पितुः श्रियोऽर्थ प्रददौ कल्पस्य पुस्तिका गुरवे ॥ ६ ॥ २३५. (१) उपदेशमाला. गा. ५४२ प. ४९ (२) धर्मोपदेशमाला. गा. १०० प. ४९-५५ (३) पञ्चकल्याण (प्रा०). प. ५५-७० End: चवणं जम्मण निकमण तह य नाण निव्वाणं । कल्लागपंचएणं जिणिंदईदेहिं निम्मवियं ॥ ५१ ॥ पंचकल्लाणं समाप्तं । (४) मूलशुद्धिप्रकरण by प्रद्युम्न. गा. २१२ प. ७०-८६ (५) जम्बूद्वीपप्रकरण (प्रा. नमिऊण सजल०). प. ८६-९४ (६) जीवदयाप्रकरण (प्रा०). प. ९४-१०५ (७) नवपदप्रकरण (प्रा०) by जिनचन्द्र. प. १०५-११९ (८) वन्दित्तु (प्रा०). गा. ५० प. ११९-१२४ (५) विवेकमञ्जरी (प्रा०) by आसड. प. १२४-१३७ (१०) योगशास्त्र ( . प्रकाश ) by हेमचन्द्र. प. १-३८ (११) वीतरागस्तव (२० प्रकाश). प. ३९-५४ (१२) प्रशमरति. प. ५५-८१ २३६. प्रवचनसारोद्धार (जीर्ण श्लिष्ट श्रुटित ). प. २०७ Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 151 No I. SANGRAVI PADA २३७. विजयचन्द्रकेवलिचरित्र (प्रा. अपूर्ण). प. ६-७९ २३८. (१) दशवैकालिकलघुवृत्ति (अपूर्ण). प. १८० (२) पन्नवणा (प्रथमखण्ड त्रुटित ). प. १५५-२३२ २३९. (१) आर्द्रकुमारकथानक (प्रा० पथ). प. १-८; १५०४२ Beginning: अप्पं पि भावसल्लं अणुद्धियं राय-वणियतणएहिं । जायं कडुयविवागं किं पुण बहुयाहिं पावाई ? ॥ १॥ Endi उग्गं काऊण तवं उप्पाडिऊण केवलं नाणं । ता अदयमुणिसीहो पत्तो मोक्खं परमसोक्खं ॥ १५९ ॥ (२) वङ्कचूलकथा(प्रा. गद्य सचित्र). प. ९-१६ Beginning:-- थोवो वि कओ नियमो कल्लाणपरंपराए सुहहेउ । संपजइ अन्नभवे दिटुंतो रायहंसाई ॥ तेणं कालेणं etc. End:साहुणा दिण्णो पडिच्छेओ ताहिँ भत्तिए ॥ वंकचूलकथा समत्ता । (३) मनःस्थिरीकरण. प. १६-२५ (४) सारसङ्ग्रह (प्रा०). प. २५-३२ Beginning: सट्ठी(सिद्धी) कम्माभावे सो तवसा तस्थ वी(वि) बरं माणं । तं पि य संपि(चि)यधम्मं तत्तवियारो तहिं सारो ॥ End: इय धम्मसूरिसुगुरूवएसओ सिरिमहिंदसूरीहिं । कइवयथूलपयाऊ संकलियं बारचुलसीए । आउ(?)संग्रहो समत्तो ॥ . (५) शाश्वतचैत्य (प्रा० अपूर्ण). प. ३२-३६ Beginning: उसभाईजिणपडिमं एकं पि ण्हवंत-पूययंतेहिं । चिंतेयवं एयं भवेहिं विवेगमंतेहिं ॥ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 154 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (६) आहारविशुद्धि (प्रा० मध्ये त्रुटित ). प० १२८ - १५७ Beginning: जीवा सुसिणो तं सिमि तं संजमेण सो देहे । सो पिंडेण सदोसो सो पडिकुट्ठो इमो नेय || आहाकम् मुद्देसिय-पूइयकम्मे य मीसजाए अ । ठवणा - पाहुडियाए पाओयर-कीय - पामि ॥ २ ॥ Contains Gujarati translations rendered from Prakrit. प. १३५ - सीका हेठइ दोर बांधिव । हिट्ठिलउ दोरउ ऊपलउ वेउ हाथि धरेवा । जउ पाणिउ प्रत्यासन्नु खरउ खरडं सीकं गियउ होइ त हेट्ठिलउ दोरउ तावउ । जिम्व पाणिडं पाणिय मिलइ किम्वइ तहिं ठाविं घातणं न लाभई त क्षीरवृक्षtos नेउ पात्रु मेल्हइ अथवा पात्रु दुर्लभु त खापरउं नवरं पाणीइ अचेतनि भीजविउ जिव सचित्तु पाणिउ तहिं आवट्टइ नहिं इं ति नववटवृक्षादिकहेठइ तहिं घाति उपरि ठवइ । अथवा जइ खापरउ न संपजई त चीखलमाज्झि खावउ खणिउ वटादिपत्र नालु करि उपरि ठवइ ऊपरि पत्रादि छाया करइ पावती म्लांखरेवा विकरइ । प. १३७ - अम्हि जाणाउं वइद तउ पइलउ वइद् पासि पूछइ अथवा भणइ अह अमुक औषधि एउ रोगु उपसांत । × × वलियउ विहरेवा गियउ भणइ जइ हउं तई देखउं तउ मुज्झु आपणी माता आपणउ पिता भाइ वेटउ वहिन वेटी सांभलइ इत्यादि । पश्चात् संबंधे संस्तवो यथा - जड हउं तुम्हि देखं तउ मुझ आपणा सासू सुसरादिक सांभलइ । माय पीय पुवसंथव सासू सुसराइयाण पच्छाउ । × × × (७) आराधना ( प्रा० त्रुटित ). २४०. पञ्चतीर्थि आलेखपट. प. १५८-१६७ Colophon: (१) संवत् १४९० वर्षे फा० व० ३ चंपकनेरवासिप्राग्वाटसा० खेताभा० लाडी सा० गुणेयकेन लेखकारिता । Colophon:— (२) संवत् १४९० वर्षे का० व० ३ चंपकनेरवासि मं. तेजाभा० भावदेसुतको० वाघाकेन प्राग्वाटज्ञातीयेंन श्रीशांतिनाथप्रासादालेखः कारितः । १३x२” २४१. (१) न्यायावतारसूत्र. (२) न्यायप्रवेशक सूत्र. प. १-२; प. २-६ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAVI PADA 158 (३) न्यायावतारवृत्ति (त्रुटित). ३०-६८ (४) अन्ययोगव्य द्वात्रिंशिका (अपूर्ण) by हेमचन्द्र. प. १-५ २४२. (१) श्रावकव्रतग्रहण (प्रा० अपूर्ण ) by जयसिंहसूरि. प. १-६; १५०४२ Beginning:-- नमः श्रीवर्धमानाय । नमिऊण वद्धमाणं सुरअसुरनरिंदविंदकयमाणं । गिण्हामि सावयाणं वयाणि संमत्तमूलाणि ॥ १ ॥ End: सिरिजयसिंहमुणीसर Following Folio missing (२) त्रिषष्टिध्यानकुलक(प्रा०). गा. ३७ प. १-२ Beginning: नमिऊण जिणं वीरं वोच्छं ते व(च)डिअसुहज्झाणाणं । आहरणसंगहमिणं सुमरणहेउं गुरुवएसा ॥ १॥ End: सवत्थ बिंदुजोगो पाविय भावाउ इत्थ विन्नेउं । अन्नाण ज्झाणंमी पाई पाढो वि कत्थेवं ॥ ३७ ॥ त्रिषष्टिध्यानकुलकं समाप्तं ॥ (३) चउद्दसगकुलग (प्रा०). गा. ४० प. २-३ Beginning: जीवगुणठाण-मग्गण अजीव उवगरणरयणसुयसिद्ध । कप्पाइयसुरेसरसंपत्ति समत्तकामगई ॥ १५ ॥ End: चउद्दसगकुलगमेयं जो जाणेइ सद्दहेइ ज्झायइ य । सो लोयग्गपइट्ठियसिरिसिद्धसमंनिओ होइ ॥ ४० ॥ (४) प्रकीर्णक (पञ्चमहाव्रतादिविषये प्रा० सं०). २४३. (१) उपदेशमाला (प्रा०). गा. ५४१ प. १-७७; ८x१३" (२) सङ्ग्रहणी (प्रा०) by चन्द्रसूरि. गा. २७३ प. १-४५ (३) सकलतीर्थस्तोत्र (प्रा०) by सिद्धसेनसूरि. प.१००-१०४ Beginning: संसारतारयाणं तियसासुरमणुयवंदि[य]कमाणं । तित्थयराणं तिहुयणचेइयभवणे नमसामि ॥ १ ॥ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS सम्मेयसेल-सेत्तुज-उजिले अब्बुयंमि चित्तउडे । जालउरे रणथंभे गोपालगिरिमि वंदामि ॥ १९॥ सिरिपासनाहसहियं रम्मं सिरिनिम्मियं महाथूभं । कलिकाले वि सुतित्थं महुरानयरीउ(ए) वंदामि ॥ २० ॥ रायगिह-चंप-पावा-अउज्झ-कंपिल्लटणपुरेसु । भदिलपुरि-सोरीयपुरि-अंगइया-कन्नउज्जेसु ॥ २१ ॥ सावत्थि-दुग्गमाइसु वाणारसीपमुहपुश्वदेसंमि । कम्मग-सिरोहमाइसु भयाणदेसंमि वंदामि ॥ २२ ॥ राजउर-कुंडणीसु य वंदे गजउर पंच य सयाई । तलवाड देवराउ रुउत्तदेसंमि वंदामि ॥ २३ ॥ खंडिल-डिंडूआणय नराण-हरसउर खट्टऊदेसे । नागउरमुविदंतिसु संभरिदेसंमि बंदेमि ॥ २४ ॥ पल्ली-संडेरय-नाणएसु कोरिंद-भिन्नमाले(ले)सु । वंदे गुजरदेसे आहाडाईसु मेवाडे ॥ २५ ॥ उवएस-किराडउए वि जयपुराईसु मरुमि वंदामि । सबउर-गुड्डरायसु पच्छिमदेसंमि वंदामि ॥ २६ ॥ थाराउद्दय-वायड-जालीहर-नगर-खेड-मोढेरे । अणहिल्लवाडनयरे व(च)डावल्लीय बंभाणे ॥ २७ ॥ नियकलिकालमहियं सायसयं सयलवाइथंभणए । धंभणपुरे कयवासं पासं वदामि भत्तीए ॥ २८ ॥ कच्छे भरुयच्छंमि य सोरट्ठ-मरह[8]-कुंकण-थलीसु। कलिकुंड-माणखेडे दक्षि(क्खि)णदेसंमि वंदामि ॥ २९ ।। धारा-उज्जेणीसु य मालवदेसंमि वंदामि । वंदामि मणुयविहिए जिणभवणे सबदेसेसु ॥ ३० ॥ भरहयि(म्मि) मणुयविहिया महिया मोहारिमहियमाहप्पा । सिरिसिद्धसेणसूरीहिं संथुया सिवसुहं देतु ॥ ३२ ॥ सकलतीर्थस्तोत्रं समाप्तं । (४) श्रावकविधि (प्रा०) by धनपाल. गा. २३ प, १०५-१०८ Beginning:-जत्थ पुरे जिणभवणं etc. (५) धर्मोपदेश (अपभ्रंश). गा. ७ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAVI PADA 158 End: जेण न चिंतिउ गुरुवयणु अ[भ]सिउ न जिणधम्म । काइ किजइ तिणि......हि बंध बहुविहु कम्मु ॥ ७ ॥ (६) आत्मशुद्धिस्तव. ग्रं. ९ End: श्रयेहं सुकृतं पारभविकं दुष्कृतं त्यजन् ॥ आत्मशुद्धिस्तवः समाप्तः । (७) स्तव by हरिभद्र. श्लो० २० Beginning: वत्सेवानिरतांस्त्वदर्पितदृशस्त्वत्संकथासंस्थितान् । त्वद्भक्तांस्त्वदनन्यसक्तमनसस्त्वत्तो न चान्यार्थिनः ॥ Endi न स्वप्नेपि जिन! त्वदंघ्रिकमलद्वंद्वाहतेन्वेमि वा नाथैतन्मम कुर्वतः प्रतिदिनं यत् किंचिदप्यस्ति तद् यन्नास्त्येव हि नास्ति तत् तदपि च त्यक्ष्यामि नैतद्रुतं ॥ २० ॥ हरिभद्रविरचितः स्तवः । (८) कायस्थितिस्तवन. गा. १३ Beginning: यदर्शनमप्राप्ता भ्रमंति भवसागरे यथा जीवाः । कायस्थितिक्रमेण श्रीवीरमहं तथा स्तोष्ये ॥ End एवं कालमनंतं भ्रांतोहं शासने तवादृष्टे । शासनदाने भवता प्रसीद मम वीरजिनराज! ॥ १३ ॥ _इति कायस्थितिस्तवनं समाप्तं ॥ (९) साधुगुण (?). २४४. (१) सङ्ग्रहणी by श्रीचन्द्र. Colophon: सं० ७१ द्वि० श्रा० शु० ३ गुरौ ठ० राजडेन लिखितं । (२) यमकस्तुतिवृत्तिका on the original text of सोमसूरि. गा. ५६ (अपूर्ण). Beginning: ॐ नमो वीतरागाय। जाड्यध्वंसकृते नत्वा नाभेयप्रमुखान द्विजा(जिना)न् । मात्मनः स्मृतो वक्ष्ये यमफस्तुतिवृत्तिकां ॥१॥ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 158 Partan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS क सोमसूरिस्तुतयो गभीराः क मादृशः स्वल्पधियस्तथापि । : तदर्थ जिज्ञासनकौतुकेन समुत्सुका मे क्रियते मनीषा ॥ २॥ इह हि जन्म-जरा-मरणजलकल्लोलमालाकुलापारसंसारपारावारमध्यवर्तिजंतुना etc. The orginial seems to be by Somaprabha. The commentator is not known as the MS is incomplete. End: कैरवबोधसोमप्रभासमा न अच्छा अनच्छा अनच्छा स्निग्धा......चासौ विभा दीप्तिश्च अनच्छविभा अनच्छविभा अलकानां केशानां The last folio is torn. २४५, (१) कल्पसूत्र(प्रा०). पं. १२१६; प. १-१३८; ११३०४१३ (२) कालकाचार्यकथा (प्रा० पद्य). प. १३९-१७९ Beginning:___ नमो सुयदेवयाण । अस्थि इहेव जंबुदीवे भारहे वासे धरावासं नामं नयरं । End:-- कालिकाचार्यकथानकं समाप्तं । ग्रंथाग्रं कथानिकाया ३६० एवं ग्रंथ १५७६. २४६. (१) योगशास्त्र (४ प्रकाश) by हेमचन्द्र. प. १-६७ (२) वीतरागस्तव (२० प्रकाश). प. ६७-९५ (३) प्रशमरति by उमास्वाति. प. १-३७ (४) वन्दित्तुसूत्र. प. ३७-४३ (५) प्रकीर्ण (अतिचार, लघुशान्ति ). (६) धरणोरगेन्द्रस्तोत्र by वादिदेवसूरि. गा. ३५ प. ४३-४८ (७) भयहरस्तोत्र by मानतुङ्ग. प. ४८-५१ (८) संसारदावानलस्तुति. प. ५१-५२ २४७. (१) हैमलघुवृत्ति (चतुष्कावचूरि सं.). प. १५८ (२) , (आख्यातावचूरि सं.). प. ८१ २४८. (१) दशवकालिक. प. १-५९ (२) पाक्षिकसूत्र. प. ६०-८५ (३) यतिप्रतिक्रमणसूत्र. प. ८५-९३ (४) अजितशान्ति. प. ९४-१०० (५) सुभद्राचरित्र (अपभ्रंश) by अभयगणी. प. १०१-१०९ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Beginning: No I. SANGHAVI PADA पण मे विणु जिणु संति जगसंतिहिकारु । भवियहं सिवसुहकारु भ................ ॥ १ ॥ सिरिसुभद्राचरिउ कहेवी गरुआ सिहिं सुणि संखेवी | अस्थि पुरी पोराणा नामिहि चंपाउरी धण-कण - रयणसमिद्धा नोपइ अमराउर । जीयसत्त तहिं नरगणइंदु अरिगण - मयकुलमलणमइंदू || सहिं पुरि निवसइ सेट्ठी जिणसासणि भत्तू जीवाईण विहत्तू नामिहि जिणदत्तू ॥ ३ ॥ 159 धूया तस्स सुभद्दा नामं सव्वगुणाणं जं किर थाणं । किं बहुणा भणिएणं जो सीलु धरेइ तेण वि तीसनरिंदा पय-भत्ती करेइ ॥ ४ ॥ End: अंनु वि सीलु विसिद्धि (ड) उ पालउ जो किर इच्छइ सिवपुरि आलउ । जोउं सुभद्दह चरिउं पढउ मण - भाविहिं सो सीलं पालंतर सलहउं ॥ ५ ॥ सीलं पालिवि सिद्धिहि गच्छइ अभयगणी वि ठाउं तं इच्छइ । संवच्छर इगसट्टे आसोओ मासे कि ....... (६) ऋषभपञ्चाशिका. (७) अजितशान्ति. 11 २४९. उपदेशकन्दलीवृत्ति by बालचन्द्र. २५०. ऋषभपञ्चाशिकावृत्ति (मध्ये त्रुटिता) by प्रभानन्द. Beginning:— प. २८९; १९ "×२३” प. १६६; १२ ”×१३” नमः परमात्मने । जयति विजितांतरा रिप्रोन्मीलद्विमल केवलालोकः । प्रकटिततत्त्वः स्तुतिमुखरसुरपतिर्जिन पतिः प्रथमः ॥ १ ॥ क्क गभीरेयं भणितिर्धनपालक वेर्युगादिजिन विनुतौ । विवरणकरणकृतमतिस्तस्यां क जडमतिर्मादृक् ! | स्वगुरूपदेशलेशाद् वक्ष्येहं तदपि किमपि लेशेन । आख्यातुमिह विशेषं विदुषामन्तर्मुखमतीनाम् ॥ End:-- समाप्तेयं ऋषभपंचाशत् नाम श्रीधनपालकविविरचिता युगादिजिनस्तुतिलहितोक्तिनाम्नी श्रीप्रभानंदाचार्यविरचिता तद्वृत्तिश्चेति । Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1160 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS चांद्रे कुलेस्मिन्नमलश्चरित्रैः प्रभुर्बभूवाभयदेवसूरिः । नवांगवृत्तिच्छलतो यदीयमद्यापि जागर्ति यशःशरीरं ॥ १॥ तस्मान्मुनींदुर्जिनवल्लभोथ तथा प्रथामाप निजैर्गुणौधैः । विपश्चितां संयमिनां गणे च धुरीणता तस्य यथाधुनापि ॥ तेषामन्वयमंडनं समभवन संजीवनं दूषमा मूर्छालस्य मुनिव्रतस्य भवनं निःसीमपुण्यश्रियः । श्रीमंतोभयदेवसूरिगुरवस्ते यद्वियुक्तैर्गुणै द्रष्टुं तादृशमाश्रयांतरमहो! दिक्चक्रमाक्रम्यते ॥ यतिपतिरिह देवमद्रनामा जयति तदीयपदावतंस एषः । विषमविषयरोगसंनिपाते दधति रसायनतां वांसि यस्य ॥ शिष्यस्तदीयः प्रतिभाभिरामः श्रीमान् प्रभानंदमुनीश्वरोस्ति । स निर्ममे वृत्तिमिमां युगादिभर्तुः स्तुतावत्र सुखावबोधी । इति श्वेतांबरश्रीमद्देवभद्राचार्यशिष्यश्रीप्रभानंदाचार्यविरचिता ललितोक्तिनानी ऋषभपंचाशवृत्तिः परिसमाप्तेति ॥ सुललितमतिविनीतः प्रारंभात् प्रभृति विवरणेमुष्मिन् । लिखनादौ साहाय्यं विदधे सोमप्रभमनीषी ॥ २५१. (१) उपदेशमाला. गा. ५४० प. १-५०; १३"x१३" (२) धर्मोपदेशमाला (सिज्झउ०). गा. १०१ प. ५१-६० (३) मूलशुद्धि by प्रद्युम्नसूरि. गा. २१२ प. ६१-७९ (४) क्षेत्रसमास (नमिऊण सजलजलहर८). गा. ९० प. ८०-८७ (५) नवपदप्रकरण by जिनचन्द्र. गा. १४० ५.८८-१०० (६) भावना. गा. २०८ प. १०१-१२१ Beginning: . पढममणिञ्चमसरणय संसारो एगया य अण्णतं । असुइत्तं आसंवरो य तह निजरा नवमी ॥ End: संमत्तमि उ लद्धे विमाणवजं न बंधए आउं । जइ वि न संमत्तजढो अहवा बद्धाउओ पुर्वि ॥ २०८ ॥ भावणा समत्ता ॥ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. Sanghavi PapĀ IGA (७) सुबाहुचरिय. प. १२२-१४२ Beginning: नमिऊण महावीरं ससुरासुर-मणुयवंदियं सिरसा। वोच्छं सुबाहुचरियं ctc. (८) जीवदयाप्रकरण(प्रा० अपूर्ण). २५२. उत्तराध्ययन. प. १६१; १४३४२३ २५३. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति (अपूर्ण) by सिद्धसेन. प. २२१-२७२; १६३"४३" २५४. सिद्धहैमलघुवृत्त्यवचूरि(अ. १-३३). प. २०६; १४"४२" २५५. (१) उपदेशमाला. गा. ५४४ प. ४८; १३१"-१३" (२) पिण्डविशुद्धि by जिनवल्लभ. गा. १०४ प. ४९-५७ (३) विवेकमञ्जरी by आसड. प. ५७-६९ (४) क्षेत्रसमास (जम्बूद्वीपप्रकरण सजलजलहर०). प. ७०-७६ (५) स्थविरावली. गा. ५१ .७६-८१ (६) प्रव्रज्याविधान. गा. ३१ प. ८१-८४ (७) आराधनाकुलक. गा. ६९ प. ८४-८९ (८) शीलोपदेशमाला. गा. ११५ प. ८९-९९ (९) श्राद्धदिनकृत्य. गा. ३४४ प. ९९-१२५ (१०) गौतमपृच्छा ( नमिऊण० ). गा. ५४ प. १२५-१२९ (११) बृहचतुःशरण (प्रा०). गा. ६३ प. १२९-१३४ (१२) धर्मोपदेशमाला. गा. १०३ प. १३४-१४२ (१३) महावीरस्तोत्र (प्रा०). गा. २० प. १४२-१४४ Beginning: जइज्जा समणे भयवं महावीरे जिणुत्तमे । लोगनाहे सयंबुद्धे लोगंतिअविवाहिए ॥ (१४) कुसुममाला (प्रा०) by मलधारिहेमचन्द्र. प. १४३-१८७ (१५) भवभावना (प्रा० अपूर्ण) by मलधारिहेमचन्द्र.गा.४३-८५ २५६. (१) ओघनियुक्ति. प. ८०; १३ "४२३" (२) पिण्डनियुक्ति.J (३) तत्त्वार्थसूत्र, प. २-२१ . 21 Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (४) प्रशमरति. प. २२-५० (५) काव्यादर्श by दण्डी. प. १-४९ End: इत्याचार्यदंडिनः कृतौ काव्यादर्श तृतीयः परिच्छेदः समाप्त इति । मंगलं महाश्रीः। Colophon: संवत् १[ ]९० द्वितीये ज्येष्ठे ९ लिखितेति माणिकक्षुल्लकेन । २५७. (१) दमयन्तीचम्पू (त्रुटित). प. १७१; १३३"४२" (२) , विवरण by चण्डपाल. प. १६२ २५८, हैमबृहद्वृत्ति (पाद ९-१०). प. २८२-४३०; १६०४२" २५९. धातुपारायणवृत्ति by हेमचन्द्र. प. २६३, १३३"४२" Colophon: संवत् १३०७ वर्षे चैत्रवदि १३ भौमे श्रीवीसलदेवकल्याणविजयराज्ये वाम......धा......प्रभृतिपंचकुलप्रतिपत्तौ श्रीचंद्रगच्छीयश्रीचंद्रप्रभसूरिशिष्यैः आचार्यश्रीनेमिप्रभसूरि......श्रीहेमचंद्रधातुपारायणवृत्तिपुस्तिका लेखिता । लिखिता च ठ० देवशर्मिणा] २६०. वसन्तराजशाकुन (३-१८ वर्ग). प. १३०; १४३"४२" २६१. (१) उपदेशमाला. प. १-५७; १३३"४२" (२) पुष्पमाला. प. ५७-११४ (३) श्राद्धदिनकृत्य. प. ११४-१५३ (४) विवेकमञ्जरी. प. १५३-१६९ (५) गौतमपृच्छा. गा. ५४ प. १७०-१८२ (६) चैत्यवन्दनादिभाष्यत्रय. प. १८२-१९९ (५) क्षेत्रसमास (नमिऊण सजल०). प. १९९-२१२ (८) भयहरस्तोत्र. प. २१२-२१५ (९) संयममञ्जरी (अपभ्रंश) by महेश्वरसूरि. प. २१५-२१८ (१०) प्रकीर्ण (अजितशान्ति, पापप्रतिघातादि त्रुटित). प. २१९-२४९ २६२. (१) श्राद्धदिनकृत्यवृत्ति by देवेन्द्रसूरि. प. ३५७; १४३"४२३" ग्रंथान १२८२० । सं. १४०९ (२) कातनवृत्तिपञ्जिका by त्रिलोचनदास. प. १६५:१४०४२" प. २२-इति त्रिलोचनदासकृतायां दुर्गसिंहोक्तविवरणपंजिकायां प्रकृतिसन्धिः समाप्तः ॥ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 No I. Sanghavi PĀDĀ २६३. योगशास्त्रान्तरश्लोकाः (त्रुटित ). २६४. (१) परिशिष्टपर्व by हेमचन्द्र. प. १६२; १४३"४२" (२) सार्धशतकवृत्ति (त्रुटित ). प. १६०-२७३ Pras'asti of the Donor: नम्रनाकिसुरशत्रुनरेन्द्रः स्थैर्यनिर्जितसुमेरुनगेंद्रः । विश्वविश्वनयनो गततंद्रो विष्टपे जयति वीरजिनेंद्रः । भूभामिनीहारललाटपट्टललामकल्पं नगरं समस्ति । ख्यातं जने वीरपुराभिधानं धनाढ्यलोकाभिनिवासरम्यं ॥ पुण्यागण्यगुणान्वितोतिविततस्तुंगः सदा मंजुल___ च्छाया-श्लेषयुतः सुवर्णकलितः शाखा-प्रशाखाकुलः । पल्लीपाल इति प्रभूतमहिमा ख्यातः क्षितौ विद्यते वंशो वंश इवोच्चकैः क्षितिभृतो मू परिष्टात् स्थितः ॥ तस्मिन्नभूत् ठकुरधंधनामा श्राद्धः सुधीः सर्वजनाभिमान्यः । तस्याभवद् रासलदेविकाहा जनी च दाक्षिण्य-दयानिवासा ॥ कामकाम्यवपुपो जिनेश्वर........ २६५. (१) प्रवचनसारोद्धार. प्र. २८०० प. १५६; १५०४२" Colophon: संवत् १२९५ वर्षे भाद्रपदशुद्ध ५ पंचम्यां सोमे समर्थिता । आदर्शदोषात् मतिविभ्रमाद् वा यत् किंचिदूनं लिखितं मयात्र । तत् सर्वमार्यैः परिशोधनीयं प्रायेण मुह्यंति हि ये लिखति ।। (२) दशवैकालिक. प. १-६६ २६६. लक्षणसमुच्चय (वैरोचनीय). प. ११५-२४४; १४"४२" "प. ११७-धवस्रग्वर्जनो (?) द्वादश विधि प. १३५-त्रिधा लिंगस्नान प. १४४-अधिवासन प. १६५-इति वैरोचनीये ल० त्रिकलिंगारोपण प. १६९-ल. तोरण-स्तंभ-गुरुपूजादिभूतानि स्थापने प. १७५-बाण (?) लिंगादियातद्वारहत्संस्थापन प. १८०-ईशानादिध्वजनिवेशनाख्यो प. १९४-मंडप-यत्यादिगृहस्थापने प. २०१-देवस्थापन-वेधत्यागनिर्णयः Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ FG4 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS २५ प. २०६-शल्योद्धार २४ प. २१५-वास्तुपूजास्थापन प. २२४-ल० च्छंदवास्तुभूषणाख्यकसामान्यपंचचरकप्रासादवर्जनीयद्वि(षड्)विंशतितमो विधिः। प. २३३-साचारनवप्रासादवर्जनी......... प. २३६-लिंगमानप्रासादलक्षणः २६७. (१) शृङ्गार(? अमरु) शतक. श्लो० १०१ प. २८; १२"४१३" (२) न्यायावतारसूत्र. प. १८-२१ (३) काव्यप्रकाशसूत्र. प. १३ (४-५) त्रुटितग्रन्थद्वय ( अव्यवस्थित ). २६८. (१) पश्चाशक. प. १-८३; १३३"४२ (२) कर्मस्तव. प. ८४-९१ (३) कर्मविपाक. प. ९१-१०७ (४) शतकप्रकरण. प. १०७-११९ (५) सत्तरिया. गा. ९१ प. ११९-१२९ । (६) मूलशुद्धि (त्रुटित ). गा. १०४ जिणसासणचेइयाणं तइयं ठाणं । संजईणं ति पंचमं ठाणं । (७) जीवदयाप्रकरण (त्रुटित ). २६९. सार्धशतकवृत्ति. प. १८६; १३३४२" २७०. परिशिष्टपर्व. प. २४४; १७°४२" Contains a long Pras'as'ti ( incomplete hence not reproduced ). २७१. (१) दशवैकालिक ( अनुपयोगि). प. २५४; १०३"४१३" (२) उत्तराध्ययन (?). Beginning: अरहते वंदित्ता चउद्दसपुत्री तहेव दसपुत्री । एक्कारसंगसुत्तउत्थ)धारए सबसाहू य ॥ वंदे.........वोच्छं चरणकरणाणुओगा उ । अप्पक्खरं महत्थं अणुग्गहत्थं सुविहियाणं ॥ ओहे पिंड समासे चेय होंति एगट्ठा। निजुत्तति य अत्था जं बद्धा तेण निजुत्ती ॥ (३) भक्तपरिज्ञा (प्रा०). Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAvi Pāpā (४) संस्तारकप्रकीर्णक ( प्रा० ). (५) पिण्डविशुद्धि. २७२. तत्त्वोपप्लव by जयराशि. Beginning:— 165 प. १७६; १४”×१३” 1 तोपवासहपथविषमो नूनं मया नृप ! ( ? हतः) नास्ति तत्फलं वा स्वर्गादि । सत्यं नावदातस्य कर्मणः भागा (?) उक्तं च परमार्थविद्भिराप ( : पार) लौकिको मार्गोनुसर्तव्यः । आ......... .. लोकव्यवहारं प्रति सदृशौ बाल - पंडितावित्यादि । ननु यद्युपलवस्तत्त्वानां किं माया । अथातस्तत्त्वं व्याख्यास्यामः । पृथिव्यापस्तेजो वायुरिति तत्त्वानि । तत्समुदाये शरीरेंद्रिय-विपयसंज्ञेत्यादि । नानार्थत्वात् । किमर्थ प्रतिबिंबनार्थं । किं पुनरत्र प्रतिविन्य (विव्य ) ते ? । पृथिव्यादीनि तत्त्वानि लोके प्रसिद्धानि । तान्यपि विचार्यमाणानि न व्यवतिष्टंते, किं पुनरन्यानि ? । अथ कथं तानि न संति तदुच्यते । सल्लक्षणनिबंधनं मानव्यवस्थानं । माननिबंधना च मेयस्थितिस्तदभावे तयोः सद्व्यवहारविषयत्वं कथं । स्वया...... ताम... व्यवहारः क्रियते । तदात्मनि रूपास्तित्वव्यवहारो घटादौ च सुखास्तित्वव्यवहारः वर्तयितव्यः । अ[थ] [[ ]द्रियार्थसंनिकर्षोत्पन्नज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारिव्यवसायात्मकं प्रत्यक्षमिति । ...... नव.. End:-- ये याता न हि गोचरं सुरगुरोर्बुद्धेर्विकल्पा दृढाः प्राप्यते ननु तेपि यत्र विमले पाखंडदर्पच्छिदि । भट्टश्रीजयराशिदेवगुरुभिः सृष्टो महार्थोदय तत्त्वोपसिंह एप इति यः ख्यातिं परां यास्यति ॥ पाखंड खंडनाभिज्ञा ज्ञानोदधिविवर्धिताः । जयराशेर्जयंतीह विकल्पा वादिजिष्णवः || ....... अन्यत्र पंडितानामपि व्यवहारो दय (म ) - दानदर्शनात् । तदेवमुपप्लुतेष्वेव तत्त्वेष्वविचारितरमणीयाः सर्वे व्यवहारा घटत इति । Colophon: सं. १३४९ वर्षे मार्ग, वदि ११ शनौ धवलक्कके महं० नरपालेन तत्त्वोपप्लव ग्रंथपुस्तिकाखीति ॥ भद्रं २७३ अष्टकटीका by जिनेश्वराचार्य. प. २००; १५x२" २७४. उपमितिभवप्रपञ्चा (उत्तरखण्ड) by सिद्धर्षि. प. २४८; १६४२ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 166 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Beginning: अथास्ति जगदाह्लाद साहादं नामतः पुरं । निःशेषभुवनाश्चर्यकारणं दुःखदारणं ॥ १॥ २७५. व्याश्रयवृत्ति (पाद ९-२८) by अभयतिलक. In Continuation of No. 232. प. ३६०; २०४२३" २७६. आवश्यकटिप्पन by मलधारिहेमचन्द्र. प. १८९; १५०४२" Colophon: संवत् १२५८ वर्षे मार्ग. वदि ५ शुक्र २७७. पञ्चवस्तुक. प. १२७; १२"४२" Colophon: संवत्सरशतेष्वेकादशैकवर्षे षष्ट्या फाल्गुनशुक्ल द्वितीयायां शनिश्चरदिने कर्मापनयनिमित्त लिखितमिदं पंचवस्तुनः सूत्रं । श्रीवीरचंद्रसूरिभिलिखापितं । श्रीधीरचंद्रसूरिभ्यो दत्तेयं ज्ञानवृद्धये । पंचवस्तुकसूत्रस्य पुस्तिका गुणमच्छ्रिया (?) ॥ १ ॥ संवत् १२६२ श्रावणवदि ६ २७८. आवश्यकचूर्णि (अपूर्ण). प. १-२७७; १७°४२३" २७९. पिण्डविशुद्धिवृत्ति by यशोदेव. अं. २८०० प. २७३* २८०. (१) पार्श्वनाथचरित्र by भावदेवसूरि. प. २७४; १३३"४३" Pras'asti of the Donor: जयति विजितान्यतेजाः सुरासुराधीशसेवितः श्रीमान् । विमललासविरहितत्रिलोकचिंतामणिवीरः ॥ १॥ सद्धर्महेतुः सरलस्वभावः सुपर्वरम्यः कलशब्दशाली । मुक्ताफलारंभ इह प्रसिद्धः श्रियान्वितो गूर्जरवंश एषः ॥ २॥ सौम्योजनि प्रवरधीविपुलेत्र वंशे यः सोमकांत इव सज्जनदर्शनीयः । श्रीमजिनप्रभविभोर्भवभित्प्रसादमासाद्य सद्गुणनिधिर्विदधे सुधर्म ॥३॥ तस्य मुक्ताफलप्रायौ द्वौ सुतौ सुकृतोजवलौ । • आद्यो वर्णकनाना तु द्वितीयोऽभून्मदनाभिधः ॥ ४ ॥ वर्णकस्य प्रिया जज्ञे बील्हणदेवीति नाम्नी । तत्कुक्षिसरसिहंसा जाताः षट् सहोदराः ॥ ५ ॥ आयः कामाभिधानस्तु द्वितीयः शोभनधीरधीः । पेथडस्तृतीयोभूश्च चतुर्थः कृष्णनामतः ॥ ६ ॥ * १५४-१७१ पत्राणि न सन्ति । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAVĪ Pānā अर्जुनः पंचमो जातः षष्ठोऽभयसिंहाभिधः । पुत्री हांसीति विख्याता सतीत्वगुणशालिनी ॥ ७ ॥ शोभनदेवस्य प्रेयस्यासीत् सुशीलसंयुता । नामतः सुहडादेवी भूरिगुणविभूषणा ॥ ८ ॥ तस्यां च गुणशालिन्यां जाताः सप्त सहोदराः । निर्मलेन चरित्रेण राजते ऋपिवत् सदा ॥ ९॥ तेषु मुख्यपदवीसमाश्रितो विश्रुतोऽस्ति विनयादिसद्गुणैः । धर्मकर्मणि तथाभिधानतो यः सलक्ष इह सज्जनाप्रणीः ॥ १० ॥ तस्यास्ति दयिता साध्वी देवी भावलनामतः । तस्याः कुक्षिमलंचक्रे पुत्ररत्नचतुष्टयी ॥ ११ ॥ सोमः सौम्यगुणोपेतस्ततो जज्ञे नरोत्तमः । दानादिक चतुर्भेदधर्माराधनतत्परः ॥ १२ ॥ श्रीदेवी तस्य दयिता भाति सर्वगुणोत्तमा । देवताराधने रक्ता शीला लंकारधारिणी ॥ १३ ॥ दानशौंडो रतो धर्मविवेकीति विशारदः । सोढलाख्यस्तृतीयस्तु देवी संसारवल्लभा ॥ १४ ॥ तस्याः कुक्षिसरस्यां च राजहंस इवामलः । अवतीर्णो वसिंहः कर्माद्रौ वज्रसन्निभः ॥ १५ ॥ तस्यानुजो विजयते जगति प्रतीतः सौभाग्य भाग्य सुविवेकविराजमानः । यस्याख्यया नरपतिर्नृपमाननीयः सत्त्वोपकारकरणैकरसात्मकस्य ॥ १६ ॥ नरपते: प्रिया चास्ति नलदेवीति शुद्धधीः । प्रसूता सा सुतं भव्यं नरसिंहाभिधोऽस्ति यः ॥ १७ ॥ नरपतेरनुजोऽस्ति धरणः साधुधीरधीः । अभिधानादेवी प्रिया प्रियगुणान्विता ॥ १८ ॥ श्रद्धाजलेन विमलेन सुशीतलेन संपूरिते सुकृतनीरजराजमाने । सन्मानसे लसति यस्य विवेकहंसः सोयं जयी महणसिंह इति प्रतीतः ॥ १९ ॥ मीणाख्या प्रिया तस्य प्रभूतगुणशालिनी । मान्या स्वजनवर्गेषु सदौचित्यपरायणा ॥ २० ॥ अन्यश्च - 'नित्यां प्रपां ज्ञानसुधारसाढ्यां तत्त्वोपदेशासम सत्रगेहं । 167 मोहांधकारेषु समीपदीपं सत्पुस्तकं लेखयतीह धन्यः ॥ २१ ॥' Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 168 इत्यादि देशनां श्रुत्वा सुपुत्रः कुलदीपकः । साधुमहणसिंहाख्यो गुणग्रामपवित्रितः || २२ || श्री वामेयजिनेशस्य स्वपितुः श्रेयसे मुदा । पवित्रस्य चरित्रस्य पुस्तकोयमलीलिखत् ॥ २३ ॥ नंद-शैल-शिखि चंद्रवत्सरे रत्नपूर्व तिलकाख्यसद्गुरोः । ज्ञान कीर्त्यभिधशिष्यसन्मुनेः पुस्तकं च विधिना प्रदत्तवान् ॥ २४ ॥ संवत् १३७९ वर्षे आश्विनसुदि १४ बुधे गूर्जरज्ञातीय साधुशोभनदेवसुत - महणसिंहेन श्रीपार्श्वनाथचरित्रं पुस्तकं लेखयित्वा पं० ज्ञानकीर्तेः प्रदत्तं ॥ (२) नल-दमयन्तीकथा. लो० ९६३ प. २७५-३२७ Beginning:— End:--- PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS sta भरते भूमिभामिनीभालसन्निभे । देश : कोशलनामास्ति दधानस्तिलकश्रियं ॥ १ ॥ ततो भवतोपि भवंतु सज्जाः सदैव तीर्थेश्वरपूजनेषु । यन्मुष्टिमध्ये भवतामपीह स्यादैहिकामुष्मिक सौख्ययोगः ॥ ९६३ ॥ चतुर्थव्रते नल-दमयंतीकथा समाप्ता ॥ (३) ब्रह्मदत्तचक्रवर्तिचरित्र ( त्रि. श. पु. च. पर्व ९, सर्ग १ ) . by हेमचन्द्र. (४) ऋषिदत्ता कथा लो० ० ६०० प. ३२७-३५९ श्लो० ४५१ प. २३८-२६१ Beginning:— End:— अस्तीह भरत [ क्षेत्रे] देशो नाभिनिवेशभूः । मध्यदेश इति ख्यातो मध्यदेश इवावनेः ॥ १ ॥ गतवति विततायुः कर्मणि शांतमंतःकरणशरणवैरिध्वंसनादात्तकीर्ति । अथ... मुमद्वितापत् केवलिद्वंद्वमेतत् परमपदमुदारानंद संदोहमूहे ॥ ४५१ ॥ ऋषिदत्ताकथा समाप्ता । (५) चारुदत्तादिकथा ( त्रुटितपत्र ). गा. ५२७ २८१. (१) सङ्ग्रहणी. प. ४६-८१ (२) भक्तपरिज्ञा ( अपूर्ण ). (३) आगमिकवस्तुविचारसार by जिनवल्लभ. प. ११७ प. १२०-१२४ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : No I. SANGHAVI PĀŅĀ 169 (४) महादण्डकप्रकरणादि (त्रुटित). प. १२५-१४८ (५) उपदेशमाला (त्रुटित अपूर्ण). प. १५०-१८१ (६) ऋषिमण्डल-चतुःशरण (त्रुटित). प. १८८-२०३ (७) आतुरप्रत्याख्यान (श्रुटित). प. २०३-२१९ (८) पिण्डविशुद्धि (त्रुटित ) by जिनवल्लभ. प. १९१-१९६ (९) आगमिकवस्तुविचारसार by जिनवल्लभ. प. १८२-१८८ (१०) कर्मस्तव. गा. ५७ प. १८८-१९१ (११) कर्मस्तवभाष्य by महेन्द्रसूरि. गा. ७० प. १९१-१९६ (१२) गा. ३३ प. १९६-१९७ (१३) कर्मविपाकादि-भक्तपरिज्ञापर्यन्त (त्रुटित अपूर्ण ). प. १९७-२२७ (१४) भावनाप्रकरण (अपूर्ण). प.१-१२ (१५) स्थविरावली (अपूर्ण). प. २ २८२. वराहमिहिरसंहिता (अ. ७५ अपूर्ण). प.२-३००, १३३"४२४" End: इति वराहमिहिरकृतायां संहितायां कांदर्पिकनामाध्यायश्चतुःसप्ततितमः ॥ Colophon: संवत् १३१३ वर्षे भाद्रपद व. १५ रवौ । २८३. (१) षडावश्यकवृत्ति (वन्दारु० ) by देवेन्द्रसूरि. गं. २७७० प. १८४; १४°४२ (२) प्रवचनसारोद्धार by नेमिचन्द्रसूरि. पं. १६०६ प. १८४-२६६ २८४. कल्पसूत्रादि (त्रुटितप्रन्थ ). २८५. ऋषभदेवचरित्र (प्रा.) by वर्धमानसूरि. प. २२५; १५०x२३" केवलज्ञानादनन्तरम् भरहो वि भगवंतं पूइऊण कयचक्कपूयापणिहाणो । विणीयनयरी पइट्ठो भगवं पि अन्नत्थ विहरिओ। End: श्रीवर्धमानाचार्यविरचिते श्रीऋषभदेवचरित्रे पंचमोवसरः समासः ॥ 22 . Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 70 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS वंककलंकविमुक्का जडत्तणदोससंग-खयरहिया । जत्थुप्पन्ना पुरिसा तमपुवं चंदकुलमत्थि ॥ अनिययविहाररहिओ गुरुतरसंवेगभावियमईओ । सीलंगभरुवहणे गुरुथिरधुरधोरिओ धवलो ॥ होतो तत्थ मुणिंदो जिणिंदसिद्धंतलद्धपरमत्थो । तवतेयनियपावो सूरी भइसरो नाम ॥ निच्च परिपुन्नकलो निचं गच्छोयहिस्स बुड्किरो। तस्स विणेओ सूरी अपुवचंदो व मुणिचंदो ॥ कुंदेंदुसच्छहेणं नियजसपसरेण भरियभुवणयलो । सूरी तस्स महत्थो महत्थसत्थत्थनिम्माओ ॥ तस्स य सी........................। पुव............ ...........॥ ............हो त्ति सूरी वि सीयतेयट्टो । अप्पडिरूवी जाओ अवमे...नसूरि विक्खाओ ॥ लीलाए जेण दलिओ दप्पो समरस्स...गप्पयडं । विबुहाण वंन(द)णिज्जो दक्खिन्नमहोयही...दसेण चंदो ॥ संसारनीरनाहस्स ओव...रयणोवमो जाओ...कवी । अमलो विमलसहावो सिद्धिवहूदुल्ललि...भदवचतानिति (?) ॥ दुर्लेखं लेखके शास्त्रं........ २८६. रामचरित (सर्ग १९-३६) by अभिनन्द. प. २३८; १४०x२" २८७. हैमलघुवृत्ति (चतुष्क). प. १३७; १४°४२" Colophon: हैमचतुष्कवृत्तिपुस्तिका चरणसुंदरगणिना श्रीज्ञानदानधर्मोपदेशादिना संप्राप्य श्रीज्ञानकोशे ज्ञानाराधनाथं विमुक्ता भट्टारकश्रीदेवसुंदरसूरिशिष्येण । २८८. नैषध(सर्ग १-११,१२-२२ त्रुटित) by श्रीहर्ष.प. १-९५+१-९० २८९. हैमलघुवृत्त्यवचूरि (अ. १-२३). प. २००; १२९४२३" Prasasti of the Donor:श्रीवीतरागं प्रणिपत्य भक्त्या हैमावचूरेः शुभपुस्तिकायाः । .......................प्रशस्तिं ॥१॥ प्राग्वाटवंशोज्वलमौक्तिकाभः सुश्रावकः पूनडनामधेयः । निशम्य शास्त्राणि भुवि द्विधापि......प परीक्षकत्वं ॥२॥ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAVI PĀDĀ क्षेत्रेषु सप्तस्वथ दुःस्थितेषु न्यायात्तवित्तं वितरन्नजस्रं । अचिंत्यदा.. . यशांसि लोके ॥ ३ ॥ तद्गेहिनी श्रीरिव देहिनीह तेजीति नामास्ति जिनेंद्रभक्ता । विनीत.... • गुणावदाता ॥ ४ ॥ तत्सूनुरन्यूनगुणः प्रधानो जिनेश्वरध्यानकृतावधानः । दोर्मंडले मांडलिक..... . लिषाभिधानः ॥ ५ ॥ यदी बंधुर्व रसिंहसंज्ञः श्रीसार्व - गुर्वर्चन कृत्यविज्ञः । हेमावचूरिर्दशपद. End: २९०. (१) आगमाद्यालापक ( मासकल्पादि ). Beginning:— . अत्र तेन ॥ ६ ॥ प. १२५; १०३"×२” (२) प्रणष्टलाभादि ( प्रा. निमित्तज्ञान ). प. १२५-१२९ सिद्धे सत्ताण हिए सुपइट्ठियसासणे जिणे नमिउं । विन्नायसबभावे देवासुरपणमिए सिद्धे ॥ १ ॥ वोच्छं पणट्ठलाभं बंधण - मोक्खं च रोगविनिवित्तिं । दिणमाणेण सुहं चिय पभासियं कित्तियाईसु ॥ २ ॥ रिक्खमि कित्तियाए नटुं लभइ विमुञ्चये बद्धो । दिवसेसु नवसु रोगी पंतव्यइ (?) सत्तरत्तेण ॥ ३ ॥ Beginning:— भरणीए जं पणट्टं न लब्भए नेय बंधणविमोक्खो । पडियस्स होइ मरणं नरस्स रोगेण गहियस्स ॥ २९ ॥ (३) सामुद्रिक (? अपूर्ण). लो०१-१८ प. १२९ - १३० अस्थिष्वर्थाः सुखं मांसे त्वचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिषु । गतौ यानं वरे चाज्ञा सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥ १ ॥ २९१. अध्यात्मतरङ्गिणीटीका. Beginning: ॐ नमो वीतरागाय । गुरुं प्रणम्य लोकेशं शिशूनामल.... पुरुषार्थसिद्धिनिमित्तं प्रमाणमनुसरत... प. ११७; १४”×२” . कारिण्योर्थिजना सर्व . ॥ १ ॥ 171 ......... 0000039 Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS End:श्रीसोमदेवमुनिनोदितयोगमार्गो व्याख्यात एव हि मयाऽऽत्ममतेर्बलेन । संशोध्य शुद्धधिषणैहृदये निधेयो योगीश्वरत्वमचिराय समाप्तुकामैः ॥ १॥ श्रीसोमसेनप्रतिबोधनार्था धर्माभिधानोरुयशःस्थिरात्मा । गूढार्थसंदेहहरा प्रशस्ता टीका कृताध्यात्मतरंगिणीयं ॥२॥ जिनेश-सिद्धाः शिवभावभावाः सुसूरयो देशक-साधुनाथाः। अनाथनाथा मथितोरुदोषा भवंतु ते शाश्वतशर्मदा नः ॥ ३॥ चंचचंद्रमरीचिवीचिरुचिरे यच्चारुरोचिश्चये मनांगैः सुरनायकैः सुररुचेर्देवाधिमध्यैरिव । . शुक्लध्यानसितासिशातितमहाकर्मारिकक्षक्षयो देयान्नो भवसंभवां शुभतमां चंद्रप्रभः संपदां ॥१॥ त्रिदशवसतितुल्यो गूर्जरात्राभिधानो धन-कनकसमृद्धो देशनाथोस्ति देशः । असुर-सुर-सुरामाशोभिभामाभिरामोऽपरदिगवनिनारीवक्त्रभाले ललाम ॥२॥ शश्वच्छ्रीशुभतुंगदेववसतिः संपूर्णपण्यापणा शौंडीर्योद्भटवीरधीरवितता श्रीमान्यखेटोपमा । चंचत्कांचनकुंभकर्णविसरैजैनालयैर्भाजिता लंकेवास्ति विशालसालनिलया मंदोदरीशोभिता ॥ ३ ॥ वरवटवटपल्ली तत्र विख्यातनामा परविबुधसुधामा देववासोरुधामा । शुभसुरमितरंभारामशोभाभिरामा सुरवसतिरिवोच्चैरप्सराभ्यासभामा ॥४॥ सूरस्थोद्य गणेभवद् यतिपतिर्वाचंयमः संयमी ___ जो जन्मवतां सुपोतममलं योजन्मया बोधितः । जन्ये यो विजयी मनोजनृपतेर्जिष्णोर्जगजन्मिनां श्रीमत्सागरनंदिनामविदितः सिद्धांतवार्धिविधुः ॥ ५ ॥ ............तपो यतिः ललामो भव्या निशम्य... परिवर्धननीरधौ । माक्ष्य सल्ल......कः विकर्तनसत्कुठार स्तस्माद्धिलोभवनतोजनि वर्णनंदिः ॥ ६ ॥ २९२. (१) कौटलीय अर्थशास्त्र (अधि. १-२ अपूर्ण) प. ६४; १३"४२३" ____ *damaged. * ५५-६३ पत्राणि विनष्टानि । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ End: No I. SANGHAVI PĀDĀ शिरीषपुष्पकं गोमूत्रकं गोमेदकं शुद्धस्फटिकं etc. (२) कौटलीयटीका ( अधि. २ अपूर्ण) by योग्धम. प. १८ End: इति मुग्धविलासांकोग्धमविरचितनीतिनिर्णीत्यभिधानायां कौटलीय राजसिद्धांतटीकायामध्यक्ष प्रचारे प्रथमोध्यायः २९३. प्रकीर्णत्रुटितपत्र. २९४. काव्यकल्पलताविवेक. Beginning:— प. ३२५ (?); १६”×२” ( त्रुटितपत्र ५५ ; शब्दालङ्कार, अर्थालङ्कार, परिमल ? ) २९५. (१) विक्रमसेनचरित (उपदेशकथा ) by पद्मचन्द्रशिष्य. प. ७८; ११३"×१३” 176 तिस लाकुच्छि सरोवर कलहंसं वीर जिणवरं नमिउं । दुज्जयअंतर रिउविजयपत्तं सिव - रमणी - सोक्खभरं ॥ १ ॥ निश्च्वं चिय एगमणो नवजुहं पिव णामि सुदेवं । जा चिंतियमित्ताउ वि णराण हिययाउ हरइ तमं ॥ २ ॥ भारइदेवी वयणे निवसइ हिययंमि जाण सिव-रमणी । उवसमसिरी य देहे संजमव (घ) न्नाण तह वि नमो ॥ ३ ॥ गुण-रण-रोहणाणं मुणिउं को तरइ ताण माहपं ? | अमरगुरु विहु खीरोय [हि ]ट्ठियस्स किं मुणइ पयमाणं ? ॥ ४ ॥ रयणत्तयजुत्ताणं गुरूणं पउमचंदसूरीण | मंदमई व पसाएण किं पि जंपेमि उवएसं ॥ ५ ॥ गवेण नेय नो मच्छरेण लोहेण नेय न जसत्यं । अप्प - परबोहणत्थं तु एस किज्जइ कहाबंध || ६ | ते सहा ते अत्था छंदा ते चेय ते अलंकारा । अनुलोम-विलोमेहिं एएहिं कई कुणइ कबं ॥ ७ ॥ कुणिऊण कवबंधं हरिसपरो होइ नियमेण । सो संजणइ चमुक्कारं विरल श्चिय को वि परहियए ॥ ८ ॥ मणहरपयविन्नासं महुरं छंदाणुयं पसत्तिजुयं । नवरसकलियं केसि पि होइ कबं कलत्तं च ॥ ९ ॥ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 174 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS अह विकमसेणनराहिवस्स पभणेमि चरियमिणं । सम्मत्तलाहपुर्व सबविमाणगमणंतं ॥ २० ॥ इह पुवं सम्मत्ते चरियं धणसिट्ठिणो समक्खायं । अह दाणे धणदेवो धणदत्तो भाउणो दोन्नि ॥ २१ ॥ नामेण मयणसेणो वेसामयणो त्ति कुंभयारो य । चंडो गोयालो चिय किविणो दाणंमि चत्तारि ॥ २२ ॥ सीलंमि य जयलच्छी देवी तह सुंदरी दुवे इत्थ । खयरी मयंकरेहा अपडनिवो दोन्नि तवम्मि ॥ २३ ॥ सिट्ठी य धम्मदत्तो बहुबुद्धी णाम मंतिणो पुत्तो । एए दुन्नि वि कहिया दिढता भावणाविसए ॥ २४ ॥ नवकारफले भणिओ निवई सोहग्गसुंदरो नाम । कहिओ अणिश्चयाए समुहदत्तो वणियपुत्तो ॥ २५ ॥ नियमस्स फले भणिओ कमलो नामेण सिट्ठिणो पुत्तो। चउदस कहाणयाइं नेयाइं समासओ कमसो ॥ २६ ॥ Here the Stories are upto अघटकथा प. ५-उक्तं च निजगाथाकोशे । (२) अष्टक. (३) षोडशक. (४) प्रशमरति. (५) धर्मलक्षण. (६) प्रश्नोत्तररत्नमालिका. (७) पश्चाणुव्रतकथा. श्लो० २४+२+२+३६१३८ Beginning: सिद्धिमार्गोपदेष्टारं तीर्ण संसार-सागरं । प्रणम्य शिरसा वीरं सुर-दैत्यनृपार्चितं ॥ १॥ वक्ष्ये धर्मकथां पुण्यां गृहाश्रमनिवासिनां । सर्वज्ञोक्तां समासेन पंचाणुव्रतसंज्ञितां ॥२॥ End: दुंदुभिध्वनिते रम्ये विमाने भाखरे शुभे। स्वर्गे सुखं चिरं प्राप्य क्रमात् सिद्धिं गमिष्यथ ॥ ३८ ॥ इति ।। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. Sanghavi PĀDĀ 171 (८) पात्रपरीक्षा. पं. ३१ Beginning: जीवादिपदार्थो यः समभावेन सर्वसत्त्वानां । रक्षार्थमुद्यतमतिः स यतिः पात्रं भवति दातुः ॥ १ ॥ (९) ज्ञानाङ्कुश. . २८ Beginning: महात्मनां सत्त्ववप्तां ह्यवस्थितिढा परिज्ञा etc. End: सर्वतः परिधावंतं मनोमत्तमतंगजं । ज्ञानांकुशवशं कृत्वा पुनः पंथानमानयेत् ॥ २८ ॥ ज्ञानांकुशः समाप्तः । २९६. (१) सामाचारी (उपधान, मालारोपण, योगादिविधि). त्रुटित, श्लिष्टपत्र १४०४२ (२) वीतरागस्तोत्र (त्रुटित, अपूर्ण ). २९७. (१) ओघनियुक्ति (?). प. ४५-१७८; १५°४२३" (२) पिण्डनियुक्ति. प. १७९-१८८ (३) भगवती (आलापक). २९८. धर्मकथा (? सटीक, कथासहित प्रा. सं.). प. २३४ Beginning: तिहुयणमंगलतिलयं कयदुज्जयभाववेरिभवविलयं । केवलसिरिकुलनिलयं रिसहं पणमामि मुणिवसभं ।। व्याख्या-ऋषि गतावित्यनेन ऋषति गच्छति परमपदमिति ऋषभः । कथानक (१) विक्रमसेनकथा (सम्यक्त्वे ). श्लो० २३३ (२) वनकर्णकथा (सम्यक्त्वे ). (३) दामन्ननककथा (जीवदया-करुणायाम् ). ,, १०४ (४) धनश्रीकथा (सत्यव्रते). ,, ९९ (५) ऋषिदत्ताकथा (अलीके ). (६) नागदत्तकथा (परद्रव्यापहारे). (७) गजसुकुमालकथा (ब्रह्मचर्ये). (८) चारुदत्तकथा (परिप्रहप्रमाणे ). , ४८५ १२० " २१ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 176 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (९) वसुमित्रकथा (रात्रिभोजने ). (१०) कृतपुण्यकथा (दाने). , १४५ - (११) नर्मदासुन्दरीकथा ( शीले). , २०५ (१२) विलासवतीकथा (शीले). ५२२ (१३) सीताचरित्रमहाकाव्य (सर्ग ४). पं. ९५+९९+१५३+२०९ (१४) दृढप्रहारिकथा (तपसि). , ५१ (१५) इलातीपुत्रकथा (भावनायाम् ). , ६८ Colophon:-- संवत् १३३९ वर्षे द्वितीयकार्तिक व. भौ० २९९. प्रकरणपुस्तिका. प. २३९, १३०x१३ (१) बृहत्सङ्ग्रहणी. (२) शतक. (३) क्षेत्रसमास. (४) प्रवचनसन्दोह. (५) आगमिकवस्तुविचार. (६) कर्मस्तवभाष्य. Colophon: संवत् १२७२ वर्षे चैत्रवदि ८ शनौ पुस्तिकेयं लिखितेति । श्रीनाणकीयगच्छे हरीराह(हृतरोह)वास्तव्य गोसा भग्नी पवइणि श्रीजयदेवोपाध्यायपठनार्थ प्रकरणपुस्तिका दत्ता। ३००. (१) दानादिप्रकरण by सुराचार्य. प. ३८-६७ (सप्तमोऽवसरः त्रुटित अव्यवस्थित ) Beginning of 7th: जिनागमं येन विगम्य सम्यक् etc. (२) सुकोशलकथा. (३) विपाकसूत्र. Colophon: संवत् १२०३ पोस सुदि ३ दिने मोहिणीलिखिता पुस्तिका दूलीश्राविकानिर्जरार्थ । मंगलं महाश्रीः । सुकोशलं समाप्तं । ३०१. प्रकरणपुस्तिका. प. २१२ (अव्यवस्थित ); १२"४२३" Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PĀDĀ (१) उपदेशमाला. (२) प्रतिक्रमण. (३) दशवैकालिक. (४) पिण्ड विशुद्धि. (५) अजितशान्ति. (६) चैत्यवन्दनाभाष्य. (७) जम्बूद्वीपसमास. (८) योगशास्त्र ( ४ प्रकाश ) - (९) भयहर स्तोत्र. (१०) शीलकुलक. (११) शाश्वताशाश्वतचैत्यस्तवन by सिद्धसेन. (१२) वीतरागस्तोत्र ( त्रुटित ). (१३) बृहच्चतुःशरण. (१४) भक्तपरिज्ञा. (१५) संस्तारकप्रकीर्णक. (१६) ऋषिमण्डल (भत्तिभर० ). (१७) ओघनिर्युक्ति. (१८) दिनकृत्य. (१९) समवसरणस्तव ( प्रा. ). (२०) ऋषभपञ्चाशिका. (२१) पार्श्वजिनस्तवन ( प्रा. दशभवसम्बद्ध ). धर्मकीर्ति. गा. २४ ३०२ हेतुबिन्दु ( सटीक ). 23 गा. १५ गा. ९ गा. ३९ 177 (२२) ऋषभस्तवन ( प्रा. ) hy (२३) शत्रुञ्जयकल्प ( प्रा. ). (२४) शाश्वतचैत्यस्तवन ( प्रा. ) . (२५) विज्ञसिका by जिनवल्लभ. (२६) शान्तिनाथस्तुति ( लोयालोय ० ). गा. २४ गा. ३७ गा. ४ (२७) चतुर्विंशतितीर्थङ्करस्तुति (प्रा.) by सोमप्रभ. गा. २७ (२८) संसारदाबा० गा. ४ (२९) नेमि - स्तवन ( प्रा. राजीमतीनवभवसम्बद्ध ). गा. ७ प. २१५; १२”×१३" Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 178 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Beginning: ओं नमः सर्वज्ञाय । यः संजातमहाकृपो व्यसनिनं त्रातुं समग्रं जनं पुण्यज्ञानमयं प्रचित्य विपुलं हेतुं विपूतस्तमः । कृत्स्नज्ञेयविसर्पि...............याद्रिं श्रितो लोके हार्दतमोपहो जिनरविर्भूम नमस्यामि तं ॥ १ ॥ वरं हि धर्मकार्येषु चर्वितस्यापि चर्वणं । निष्पीडितापि मृद्वीका............ति किं । न्यायमार्गतुलारूढं जगदेकत्र यन्मतिः । जये[यं] तस्य गंभीरा गिरोहं जडधीः क च ॥ तथापि मंदमतयः संति मत्तोपि... मयाप्येष हेतुबिंदुर्विरच्यते ॥ परोक्षेत्यादिना प्रकरणारंभे प्रयोजनमाह । तच्च श्रोतृजनप्रवृत्त्यर्थमिति केचित् । तदृढी............स्तस्य कर्मणो वापि कस्यचित् । यावत् प्रयोजनं नोक्तं तावत् केन गृह्यतामिति । तद्युक्तम् । यतोस्य प्रकरणस्येदं प्रयोजनमिति प्रयोजनविशेष प्रत्युपाद(दे)यतां । प्रकरणस्य निश्चित्यानुपाये प्रवृत्त्यसंभवात् प्रेक्षावतां तदर्थितया........ [हेतु]बिंदुटीका समाप्ता। Colophon: [११ ?] ७५ वर्षे मार्गसिर... ब्रह्माणगच्छे पंडितअभयकुमारस्य हेतुबिंदुतर्कः । ३०३. छन्दोवृत्ति (अमृतसञ्जीवनी) by हलायुध. प. १९१; ९०x११" ३०४. पर्युषणाकल्पचूर्णिटिप्पन (त्रुटित; अव्यवस्थित ). ३०५. सप्तशतीछाया by जल्हणदेव. प. ३०४; १२०x२" First folio is missing Beginning: ......री हरिदश्ववंशे । अशेषभूमीवलयं सुखेन भुजे निजे यः कलयांबभूव ॥ ४ ॥ कल्पद्रुमस्येव फलानि यानि शाखामशेषस्य समाश्रितानि । जातानि भूपालकुलानि तानि .......... तस्यात्मजो धंधटनामधेयः.................... राज्यं चिरं लोहपुरे चकार पुरे नु तस्मिन् किल देधनाख्ये ॥ ६॥ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGIHAVI PADA 19 ततोभवद् गोह(ल्ह)णभूमिपालः प्रत्यर्थिभूपालकुलैककालः । तष द्वय.........सत्यतापः स्वरूपशोभाजितपुष्पचापः ॥ ७ ॥ तस्मादभूजगति विस्तृतसान्वयाख्यः __संख्योत्सवो विजितवैरिगुणो गुणाब्धिः । धीमान् परं विजयपाल इति प्रसिद्धिं यः सूरवंशमनयन्नयनाभिरामः ॥ ८ ॥ तस्माद् विक्रमपालभूपतिरभूद् यस्य प्रतापानलः प्रत्यर्थिक्षितिपाललालविगलद्रक्तोर्मिजालच्छलात् । चक्रे ते क्रमणं यशश्च गगने यः खगघाताच्छलाद् वैरिक्षोणिपकुंभिकुंभविगलन्मुक्ताफलच्छद्मना ॥ ९॥ खगाभिघातोद्गतपुष्करा दलत्कपोला वलयाचलायिता । कर्णाटराजश्व(स्य) रणस्तु(णे तु) दंतिपटीयसा येन घटा विघट्टिताः ॥ शको विक्रमपालभूपतिरयं प्रत्यर्थिनां भूभृतां __ पक्षा येन निपातिता निपततां संख्ये निजेनीजसा । संत्यक्तानकदुंदुभिः परिहितस्फूर्जकपींद्रध्वज श्चक्रे संगरभंगुरोवनिपतिर्वज्रोपि पि(प)क्षोज्झितः ॥ चकार केषां विदुषां न गेहे द्विपां च केषां न जहार गेहान् । ससंपदो विक्रमपालभूपचंडांशुवंशस्य लसत्प्रदीपः ॥ तं स्तोतुं प्रभवो भवंति कवयो यद्विक्रमप्रक्रमात् भीतानामभवत् रणेषु शरणं तद्भूभृतां भूभृतः । यभीतेरभियो बभूव शतधा वनस्य तन्मानसं व्यालालीकरमंडलैककदलीकांडेपु यखेलनं ॥ गुणो गणानां गणनादरिद्रस्त्यक्तो जयो यस्य पराजयेन । न दुर्यशःसंगमभंगशंकि यशो दिशां लंघनजांघिकं च ॥ त्यागं भोगं विवेकं कुल-बल-विनयान् शील-कीर्ति-प्रतापान् । गांभीर्य-स्थैर्य-धैर्याण्यवितथवचनं भाग्य-सौभाग्य-मानान् । भक्तिं संभा(शंभो)रन(ग)म्यां गुणगणनिलयस्यास्य भूपस्य वक्तुं शक्तो नक्तंचराणामपि भवति गुरु! किमन्यो वराकः ? ॥ बभूव तस्मादथ रुद्रपालः प्रत्यर्थिभूपालदवाग्निलीलः । यस्मात् पतद्धेतिकुलाकुलानां रणे रिपूणां तृणता बतासीत् ।। Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 180 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS न कामधेनोन सुरद्रुमस्य चिंतामणे! च न रोहणस्य । सस्मार तस्मिन् सति भूमिपाले श्रीरुद्रपाले सकलोथिसार्थः ॥ जज्वाल यस्याकलितप्रतापः प्रत्यर्थिभूभृत्कुल[बालिकानां । मनस्सु वेषाद् विरहानलस्य न निर्ववौ नियनांबुनापि ॥ नृपेण तेनाजनि म्हाइंदेवः सदाहताहि (दिंद्र ?)सुते ससेवः । अनेकसंग्राम जितारिभूपः............प्रवर्धितप्रौढप्रतापः ॥ न स लोको न[गो वा]स्ते न स देशो न तत् पुरं । म्हाइंदेवयशो यत्र जायते न श्रवोतिथिः ॥ दक्षोपि मार्गणत्यागे स न त्यजति मार्गणं । रतोपि भवपूजायां स निंदति भवं विभुः ।। आज्ञा प्रज्ञापि तस्यास्ते लंघनीयावनीपते । न जा(या) रिपुसिंहस्य विद्विषां विदुषामपि ॥ कुर्वता वि[दु]षां गेहे संपदो विपदोज्झिताः । अन्योन्यं श्री-सरस्वत्योर्येन वैरं निराकृतं । दृष्टपि(पृ)ष्टं न तस्यास्ति जातु प्रत्यर्थिनार्थिना । न श्रुतं कापि वचनं सरुषः परुपं मुखात् ॥ कवि-चारण-बंदिभ्यो येन मानपुरस्कृताः । स्वयशोबीजपुंजाभाः कर्पूरांजलयोर्पिताः ॥ कलधौतं दुकूलानि मौक्तिकालंकृतीस्कृती । स भूपो याचते कस्मै न दत्ते हेलया हयान् ॥ स जल्हणः क्षोणितले चकास्ति क्षोणींद्रभालैकतमालपत्रं । पुत्रेण येनाभवदत्र पुत्री श्रीम्हाइंदेवः प्रियभूमिदेवः ॥ यस्य प्रतापज्वलकीयकीलाकुलो हिमाद्रि त्रि(द्रिस्त्रि)दशाचलत्वं उद्ययशोराशिभिरेव देवशैलोपि धत्ते तुहिनाचलत्वं । बालप्रबोधार्थमिहार्थिसार्थकल्पद्रुमोलंकृतिमादधानां छायामिमां दिव्यगिरा स सप्तशत्याः स्वमत्याः सदृशीं करोति ॥ पसुवइणो० पशुपते० मुखचंद्रमिति रूपकं गृहीतार्घपंकजमिवेत्युत्प्रेक्षा । रूपको. त्प्रेक्षयोः संकरो नामालंकारः ॥ अमियं पाउअकवं पढिउं सोउं च जे ण याणंति । कामस्स तत्ततत्तिं कुणंति ते कह ण लज्जति ? ॥२॥ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAVĪ PAPA अमृतं प्राकृतकाव्यं पठितुं श्रोतुं च ये न जानंति । कामस्य तत्त्वचिंतां कुर्वति ते कथं न लज्जते ? 11 अनेन ग्रंथस्य प्रयोजनमुक्तं । आक्षेपोलंकारः || 181 ससत्तसयाई कईवच्छलेण कोडीय मज्झयाराओ । हालेण विरइआई सालंकाराण गाहाण || सप्तशतानि विवच्छ ( स ) लेन कोट्या मध्यात् । मज्झार इति देशीयं । हालेन शालिवाहनेन । संस्कृतेत्येवं यथा - हा हा हाल ! नितांतकांत कवितालंकारेति विरचितानि सालंकाराणां गाथानां । प्रतिज्ञागाथेयं ॥ End: इति श्रीजल्हणदेव विरचितायां सालंकारायां सप्तशतीच्छायायां सप्तमशतं समाप्तं ॥ ३०६. (१) याश्रयमहाकाव्य ( १ - २० सर्ग ) by आचार्य हेमचन्द्र . १४”×२?” " प. २७८; End: इत्याचार्य श्री हेमचंद्रकृतौ चौलुक्यवंशे याश्रयमहाकाव्ये वंशः सर्गः । मंगलतु मे ते च । ग्रंथसंख्यायां श्लोकशत २८२८ । मंगलं महाश्रीः । Colophon:— श्रीश्रीमालवंशीयव्यव० कपर्दिश्रावण श्रीजयसिंहसूरिभ्यः पुस्तिकेयं प्रदत्ता | (२) प्रश्नपद्धति by हरिचन्द्रगणि. प. ४९; १८ ×१३” This contains about 125. End: इति हरिचंद्रगणिप्रथितप्र पद्धतिथे गीतार्थचूडामण्यभयदेवसूरिगुरुमुखादवधारितानि प्रश्नानि लिखितानि । Second Palmuleaf Ius of अदुवशीपाडा hus: इति हरिचंद्रगणिग्रथितप्रश्नपद्धत्यामुत्तरार्थः । समाप्ता प्रपद्धतिः श्रीमद्भयदेवगुरुप्रसादात् लिखितमात्मार्थं स्वहस्तेन आचारकल्पाध्ययन-उपासक प्रतिमावत्सरेSणहिलपत्तने अन्नपाटके चातुर्मास्यां । यदाप्तवचनविपर्यस्तं लिखितं विमोहात् तत् संशोध्यं बुधैर्मय्यनुग्रहं कृत्वेति ॥ Written with a very bold hand in a recent Script contains 2 lines per side and 36 letters per line. ३०७ (१) पुष्पवतीकथा (प्रा.). प. १-४३ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 182 Beginning:— मुत्तममुत्तं सुद्धं संतमसंतं च सुगमगइयं च । कंतमकंतं च कहा पढमजिणं वंदिमो पढमं ॥ सुहव ण सुपयपूरं अत्थो........... भत्तीए वंदिमो पच्छा । मऊण अभयसूरी भत्तीए सुयगुरुं जुगपहाणं । सेयंवरकुलतिलयं तवलच्छी- सरस्सई निलयं ॥ सजणगुरुस्स सीसे...... पुष्प (एक) वईयं कहं कहइ । End: Beginning:--- End: PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS End: अरहंता मंगलं तु ॥ ६४३ ॥ (२) सुलसाचरित्र ( अपभ्रंश ). पुष्प (फ) वई नाम कहा समत्ता | Folio. 12 a—13 1, एक्कक्खरस्तुति. Beginning:— गा. १७ नमः सर्वज्ञाय | पणमवि तित्थेसरु वीरजिणेसरु भ्रणमि सुलससावि- चरिउ । समत्तसमन्नि विबुहहि वन्निउ दंसण-नाणगुणावरिउ ॥ Beginning: एह संतिपुरिसत्थपसत्थिय देवचंद्रसूरिहिं समत्थिय । इय बहुगुणभूसिउ जिणसुपसंसिड सुलसचरि धम्मत्थियहं । निसुणत पढ़तह भत्तीए सत्त नंदउ मोक्खु मोक्खत्थियहं ।। १७ ।। सुलसाख्यानकं सम्मत्तं । जय अमरनय चरणमय धरणकयचरण गयमरण गयकलह देवचंदपयकमल । एक्कक्खरस्तुति ॥ (३) सगरचक्रवर्तिचरित्र (प्रा.). प. ४३ (२) सुरवरकयमाणं नट्टनीसेसमाणं भव- जल हि सुजाणं सत्तहत्यमाणं । वियरियवरदाणं छिन्नकम्मारिताणं प[य]डियवरनाणं वंदि वद्धमाणं ॥ १ ॥ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PĀNA 18 सग[र]रायचक्कवइ चउसट्ठिसहस्सजय(जुव)इकयविहयो । भुंजई य एकछत्तं सयलसमत्थं इमं भरहं ॥ End: तं तय विणा न होही तेण कुवियं पसाएमि । सुहवतु भुयंतरिहि महु नियवल्लह पाण तेण न तविउं होसु कयडा थुति करिसि अ पीति ।। Colophon: संवत् ११९१ वर्षे भाद्रपदशुदि ८ भौमे अद्येह धवल्लक (लक्क)के समस्तराजावलीविराजित-महाराजाधिराज-परमेश्वर-श्रीत्रिभुवनगण्डसिद्धचक्रवर्तिश्रीजयसिंहदेवकल्याणविजयराज्ये एवं काले वर्तमाने तत्पादप्रसादात् महं श्रीगांगिल श्रीकरणादौ व्यापारान् करोति । अयेह श्रीग्वेटकाधारमंडले राज० सोभनदेवप्रतिप[त्तौ] श्रीखेटकास्थानात् विनिर्गतवास्तव्यपंडितवामुकेन गणिणिदेवसिरियोग्यपुष्पबतीकथा लिखितमिति । शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः । यादृशं ctc. यदक्षरपरिभ्रष्टं etc. (४) पउमसिरिचरिय (अपभ्रंश) by धाहिल. प. १-५३ Beginning: नमः सु(श्रु)तदेवताया(य)। . वा(धा)हिल दिवदिहि कवि जंपई अदु(हु) जण ! रोलु मुएविणु संपई । निसुणह सामि कंनरसायणु धम्मकहाणउं प (? जं) सुगुण-भायणु ॥ कवडतणुभाविं विसमसहाविं थेवेण वि तारु न हवि धणसिरि गुणसारहु नियभत्तारहु हुय अणि जिह अन्नभवि । तिह कह वि विसेसी सुणहु धंमु पउमसिरि-चरिउ निसेणु(सुण)हु रंमु ललियक्खरपयडियअत्थसारु तरुणीयणु नावइ बहुवियारु पणमेपु(वि)णु चंदप्पहजिणिंदु निम्मूलुमूलियदुक्खकंदु महासेणरायकरकमलसिरि-लक्खणदुन्नयरयसमीरु सारयमियंककरधवलदित्ति हर-हारविमलच्छि(वि)त्थरियकित्ति । कंदप्पदंतिकेसरिकिसोरि पंचेंदियदुट्ठभुयंगमोरि उप्पाडियदारुणमायसयलु मसि(मुसु)मोरियमोहमहारिमलु । उल्लंघियदुत्तरु भव-समुदु तियसिंदनमीयचलणारविंदु तियलोकहु निदलियमाणु परमेसरु सासयसुहनिहाणु चउतीसमहाअइसयसमग्गु गुणसायरु पयडियमोक्खमग्गु पणमिवि जयसामिणि नयसुरकामिणि वागेसरिसियकमलकर पणयहंस भावि जीए य भाविं कविहिं पयहइ वाणि वर Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 184 Pattan CATALOQUE OF MANUSCRIPTS End: सुयदेवय व जासु पसत्थ पंकयकरपोत्थयकमलहत्थ । करकयकहं जसु पसन्न सुलक्खण-सुनय-विणय-वन्न हिमगिरिसुय व जा भव-विरत्त न(त)व-चरणसमुज्जय-नियम्ममत्त अभत्थिएण दलजियाए विणएण साहुजणरजियाइ पउमसिरिचरिउ मई रइउ एउ जो पढइ सुणइ तसु होइ सेउ सुयदेव[या] मणि ताण बुद्धि देउ अवाइ दुक्खइ अवहरेउ अणुगय पंकयदलच्छी घरणी व तासु घरि वसइ लच्छि सो जाणइ धम्माहम्म-भेउ अचिरेण होइ तसु दुक्ख-च्छेउ ससिपालकवुकय आसि नाहु जसु विमलु कित्ति जगु भमइ साहु । सुनिम्मलि वंसि समुन्भवेण पउमसिरिचरिउ किउ धाहिलेण । कविपासह नंदणु दोसविमद्दणु सूराईहिं महासई हिं जिण-चलणहं भत्तउ तायह पोत्तउ दिवदिहि निम्मलमइहिं ॥ १६ ॥ जावइयं सज्झाए काले[1] वट्टइ सुहेण भावेण । ताव खवेइ पुराणं नवयं पावं न बंधेइ ॥ मंगलं महाश्रीः। (५) अञ्जनासुन्दरीकथा ( अपभ्रंश ). प. ५४-५५ (अपूर्ण) Beginning: कुल-भय-विहवंसंपुंनिमहि अन्नुहि जंमि उ यत्ताई। जण ! निसुणहु अंजणसुंदरिहि जगे सुह-दुक्खाई पत्ताई ॥ पणमवि मुणिसुब्वयसामियहु नेव्वाणसिद्धिसुहगामियहो जिणसासणभत्तिय एकमण कह पुनपवित्त सुणेहु जण ! उत्तुंग विउल विसस्थि वसिय विय दाहिण दिसिहिं महिंदपुरे धण-कणग-समिद्धजि(ज)णालएहिं जिणभवणेहिं रयणविसालएहिं सोहंति जिण-चित्तालये........ (६) जन्माभिषेक (अपभ्रंश). प. १-८ Beginning: कंपिउ रयणासणु तवनिन्नासणु मिलियछप्पन्नदिसाकुमारीए । तिसलाए सुइकम्मं विहियं जम्ममि जस्स सो जयउ ॥ १ ॥ सो जयउ जस्स समकालचलियसिंहासणेहिं सक्केहिं । विहिओ जम्मणमहो सुमेरुसिहरम्मि मिलिएहिं ॥ २ ॥ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGRATI PAPA End: चूडामणिचूंबी (बि)उ महि नमेइ अहुत्तरसई चि(वि)त्तिहिं थुणेइ जय जय रयणायर ! भुवणदिवायर ! चलणकोडिचाली(लि)यचलण ! जय जय परमेसर ! परममुणीसर! भवीयविहियसिवसुक्खफल ! जन्माभिषेकः समाप्तः । शुभं भवतात् । (७) दानादिप्रकरण by सुराचार्य. (१ प्रथम अवसर श्लो० ४६) End: जरा-मरणवर्जितं शिवपदं यदत्य॒र्जितं निरंतरसुखांचितं निरुपम रुजा वंचितं । अनंतमतिदुर्लभं गुरुविवेकिनां वल्लभं समस्तहतकर्मतस्तदधिगम्यते धर्मतः ॥ ४६ ॥ प्रथमोवसरोवसितः । (२ अवसर, श्लो० ५४) Beginning:धर्मस्य निर्मलधिया etc. (३ अवसर, श्लो० ५३) Beginning:दानं द्वितीयमभयस्य etc. (४ अवसर, श्लो० ५३) Beginning: अन्नादिदानमिदमस्तनिदानबंधं etc. (५ अवसर, श्लो० ९७) Beginning:- आगमो वीतरागस्य वचनं स्यादवंचनं । (६ अवसर, श्लो० १०९) Beginning:संघोनघः स्फुरदनर्घगुणोघरत्नरत्नाकरो हितकरश्च शरीरभाजां । (७ अवसर, श्लो० ११४) Beginning: जिनागमं येन विगम्य etc. End: - 24 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 186 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS जिनपतिमतस्यावदातस्य गुर्वी सुराचारिति वितरणं साधितं सानुयुक्त्या । सप्तमोवसरोवसितः । ३०८. उपमितिभवप्रपञ्चोद्धार(गद्य) by देवमूरि. प. १८४; १३३°४२. Beginning: ओं नमो वीतरागाय । नत्वा श्रीमन्महावीरं मोह-कंदर्पदर्पहं । केवलालोकभास्वंतं सद्भतार्थप्रवेदकं ॥ १ ॥ स्वस्य स्मरणनिमित्तं सुश्रावकवीरधवलभणनाच्च । उपमितिभवप्रपंचां संक्षेपेणोद्धरिष्यामि ॥ २ ॥ पंच हिंसादयो दोषा इंद्रियाणां च पंचकं । चतुष्टयं कपायाणां महामोहसमन्वितं ॥ ३ ॥ एतावानेव पिंडार्थः शास्त्रस्यास्य निगद्यते । प्रस्तावाष्टक विस्तीर्णः स चैवमिह वर्ण्यते ॥ ४ ॥ तत्र प्रथमप्रस्तावे येन हेतुना ग्रंथकारेण कथेयं कृता स हेतुः प्रतिपाद्यते । End: इत्युपमितभवप्रपंचोद्धारेऽष्टमः प्रस्तावः समाप्तः । श्रीदेवसूरिभिरियं संक्षेपाद् विमलचंद्रगणियुक्तैः । उपमितिभवप्रपंचा समुद्धृता स्व-परबोधार्थ ।। यावच्छशधर-तरणी बोधयतः कुमुद-पंकजवनानि । तावनंद्यादियमपि विचार्यमाणा सदा विबुधैः ॥ ग्रंथागं २३२८ ३०९. (१) सूक्त[रत्नाकर?]. प. १-२०; १४°४२३ Beginning: - नमस्कारपद्धतिः ध्यानानेधूमवल्लिः प्रशमरससरःशैवलं केवलश्री-etc. (२) योगकल्पद्रुम. श्लो० ६४ प. २०-२६* Beginning: अर्हन्मुनींदुर्लोकेशः केशवः शिव इत्यमी । पर्यायाः पर्यवस्यंति यत्र तद् भ(?)वनं स्तुमः ॥ १॥ * पञ्चविंशतितमं पत्रं न दृश्यते । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. Sanghavi PĀŅĀ जीयासुर्योगिनां योगरहस्यस्तानचेतसां । परानंदामृतस्यंदसुंदराः सुखसंपदः ॥ २ ॥ End: यस्मिन् मूलममी यमाः सनियमा ध्यानं प्रकांडस्थितिः __स्कंधः श्रीसमताणिमस(?)प्रभृतयः संपल्लवाः पल्लवाः । ज्योत्स्नाभांसि यशांसि पुष्पपटलान्यानंदलक्ष्मीः फल-- स्फातिः सैष निषेव्यतामविरतं श्रीयोगकल्पद्रुमः ।। ६४ ॥ योगकल्पद्रुमः समाप्तः ॥ (३) सूक्त[सङ्ग्रह ?]. प. १-९७ (त्रुटित). (४) सूक्तसमुच्चय by विवुधचन्द्र. प. ९८-१३७ __(त्रुटित ) श्लो० ४२१ Beginning: ओं नमः सर्वज्ञाय । छायाविश्रांतसंसारसंतप्तानंतजंतवे । श्रेयःफलश्रिये स्वस्ति विवेकजगतीरुहे ॥ १ ॥ End: श्रीदेवप्रभसूरिनैगममणेरादाय सारस्वतं बीजं किंचन निःसपत्नमहिमप्राग्भारगांकुरं । मेधावी विबुधः कविर्नवनवामुन्मीलयंतं मुदं विश्वस्यापि विवेकपादपममुं सच्छायमारोपयत ॥ ४२० ॥ यस्मै प्रसादविवशो दिशति स्म शास्त्र तत्त्वामृतं स भगवान् नरचंद्रसूरिः । सोयं कृती विवुधचंद्रकविः स्वहेतोः सूक्तानि कानिचिदमूनि समुज्जगार ॥ ४२१ ॥ समाप्तोयं मलधारिश्रीनरेंद्रप्रभसूरीणां विवेकपादपो नाम सूक्तसमुच्चयः ॥ __ (५) विवेककलिका by नरेन्द्रप्रभ. प. १३८-१६०* End: श्रीदेवप्रभसूरिपादकमलद्वंद्वद्विरेफोपमा धन्यः श्रीनरचंद्रसूरिजलदोपास्तिक्रियाचातकः । आचार्यो मलधारिगच्छसरसीराजीवमूर्तिय॑धा देतामात्मकृते विवेककलिकां श्रीमन्नरेंद्रप्रभः॥ ११०॥ * १३८-१३९ एतत् पत्रद्वयं नास्ति । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प. १-२८ 188 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (६) सूक्तमाला. प. १६१-१६२ Beginning: - प्रणिपत्य परं ज्योतिर्मनाभणितिचं(भ)गिभिः । श्लोकैरेव यथाशक्ति सूक्तमालां वितन्महे ॥१॥ (७) सामाचारी (त्रुटित ). ३१०. (१) पञ्चसङ्ग्रह by चन्द्रर्षि. प. १-४९; १४३"४२" (२) पञ्चसङ्ग्रहवृत्ति [by मलयगिरि ]. प. १-३५०* End: चंद्रऋषिणा चंद्रऋष्यभिधानेन साधुना ३११. (१) आवश्यकनियुक्ति (त्रुटित ). पि. १६५; १३३४१३" (२) योगशास्त्र. (३) बृहत्संग्रहणी (निहवियअट्टकम्म). गा. ५३० प. २९-६१ (४) कुशलानुबन्धि(चउसरण) by वीरभद्र.गा. ६२ प. ६१-६४ (५) पर्यन्ताराधना by सोमसूरि. गा. ६८ प. ६४-६८ (६) वीतरागस्तोत्र. प. ६८-८१ (७) आत्मानुशासन. प. ८१-८७ (८) भक्तामर. प. ८७-९१ (९) जम्बूद्वीपक्षेत्रसमास(नमिऊण सजल०).गा.११९५.९१-९९ (१०) नर्मदासुन्दरीसन्धि (अपभ्रंश) by जिनप्रभ. प. ९९-१०६ Beginning: अन्ज वि जस्स पहावो वियलियपावो य अखलियपयायो । तं वद्धमाणतित्थं नंदउ भव-जलहि-बोहित्थं ॥ १ ॥ पणमवि पणइंदह वीरजिणिदह चरणकमलु सिवलच्छिकुलु । सिरिनमयासुंदरिगुणजलसुरसरि किं पि थुणिवि लिउं जंमफलु ॥ २॥ सिरिवद्धमाणु पुरु अस्थि नयरु तहिं संपइ नरवइ धम्मपवरु । तहिं वसइ सुसावगु उसहसेणु अणुदिणु जसु मणि जिणनाहवयणु ॥३॥ तब्भजवीरमइकुक्खि जाय दो पवर पुत्त तह इक धूअ । सहदेव-वीरदासाभिहाण रिसिदत्त पुत्ति गुणगणपहाण ॥४॥ End:-- * षोडश पत्राणि विनष्टानि । + १, १२, १५३ इत्येतानि पत्राणि गतानि । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 189 No I. SANGRAVT PāpA 189 तेरस सय अडवीसे वरिसे सिरिजिणपहुप्पसाएण । एसा संधी विहिया जिणिंदवयणाणुसारेणं ॥ ७१ ॥ श्रीनर्मदासुंदरीमहासतीसंधि समाप्ता । (११) जिनागमवचन by जिनप्रभ. प. १०६--१०८ Beginning: बपु रि ! कंदप्प-सप्पिहिं जगु डसियउ ___ हा हा ! विसय-पिसायहिं गसियउ । जइ जिण-आगममंत न हु हुंतू ___ ता जिउ गयजिउ भवि भमडंतू ॥ जइ जिण अरि रि ! मिच्छत्त-महाविसिं घारिउ हा हा ! मोह-रक्खसि तिजगु संहारिउ । जइ जिण ॥ २॥ मंत तहिं बाहिरु गहु विसु नासइ __ अंतरु पुण जिण विणु कोइ न विणासइ । जइ जिण ॥ ३ ॥ End: आगमिकसूरि जिणइंदपह-बयणू जो सुणइ एहु सो लहइ सुहरयणू ॥ ४ ॥ वयणानि समाप्तानि । (१२) जिनमहिमा by जिनप्रभ. . प, ९९-१०६ Beginning: जावह जिणवर नाणु ऊपन्नं तक्खणि समवसरणु नीपन्नं । चउविहदेव-निकाय सुरम्मा कारइं जिणवर-केवलिमहिमा ॥ १ ॥ End: जो सुरु-कोडिहिं सेवियचलणू भवि भवि तसु जिण-पायह सरणू । जिणवर-रिद्धि कु वन्निउ सकू जइ वि पञ्चक्खउ होइ य सकू ॥ ११ ॥ बपु रि ! अतिस्सउ अरि रि ! झाणू . कटरि ! रिद्धि वपु निरुवमु नाणू । जिणप्रभु जग-गुरु देवहि देवू चउवीह संघह मंगल देउ ॥ १२ ॥ (१३) भावनाकुलक(जम्म-जरा०). गा. २२ प. १०८-११० (१४) दूहामाई. प. १११-११४ . . Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 190 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Beginning: अहं भले भणेविणु पणमियइ जग-गुरु जगह पया(हा)णु । जासु पसाई मुद्ध जिय पावई निम्मलु नाणु ॥ १ ॥ ॐकारिहिं उच्चरओ परमिट्ठिहि नवकारु । सिव मंगलु कल्लाणकरु जाणसु नामुच्चारु ॥२॥ End: मंगल महासिरि-सरिसु सिवफल-दायगु रम्मु । दूद्दामाई अक्खियइ पुहवीहिं जिणवर-धम्मु ॥ ५८ ॥ दूहामात्रिका समाप्ता । (१५) सालिभद्दकक by पउम. प. ११४-११९ Beginning: भलि भंजण कम्मारिकुल वीरनाहु पणमेवि । पउमु कहइ कक्कक्खरह सालिभद्द-गुण के वि ॥ १॥ कस्थ वच्छ ! कुवलयनयण ! सालिभद्द ! सुकमाल!। भद्दा पभणइ देव ! तउं थकउ इत्तीय वार? ॥२॥ End: क्षामेविगु जिण-मुणिसहिउ अणसणु गहिउ रवन्नु । सबट्टह सिद्धिहि गयउ सालिभद्दु तहिं धन्नु ॥ ६९ ॥ सालिभदकाक समाप्त । (१६) संवेगमाई. प. ११९+१२४ Beginning: भले भणउ जाणउ परमत्थु, दुलहउ चउविहसंघह सत्थु । एउ जाणेविणु लाहउ लिअउ, निय विढत्थु धणु धम्मि दिउ ॥१॥ मीडउं भणीउ किम कवि कहइ, मीडा विणु संसारु जु भमइ । मीडा तणीअ ज एवड सक्ति, मीडउं ध्यातां हुअइ ज मुक्ति ॥२॥ End: मंगलु महासिरि सउं संघ, जासु आण देवहं अलंघ । उवसमि सउं संवेगिहि रची, बडूयाली सावय मुणि रसी ॥ ६१ ॥ शुभं भवतु श्रीसंघस्य । (१७) वयरसामिचरिअ (अपभ्रंश) by जिनप्रभ. प. १२४-१२९ Beginning: Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 191 191 No I. Sanghavi PĀŅĀ नम(मि)वि जिणवर निजियाणंग छत्तीस गुणगणपवर सुगुरु पणमवि सुभाविहिं । धम्मु जु जीवह दयसहिउ सयलसुक्खदायगु सहाविहि चउविह संघ वि सुरमहिउ मुत्ति-निविणि-हारु वयरसामि-सुचरिउ भणिसु भवियण-मंगलकारु End: झाअउ अणुदिणु चंदगच्छि देवभद्दसूरि दक्ख फुरइ जिणप्रभसूरि समण-गुण लक्ख । नाणि चरणि गुणि कित्ति समहू देउ वयरसामि-चरिउ आणंदु ॥ ५८ ॥ झाअउ अणुदिणु सोहग्गमहानिहिणो गुरुणो सिरिवयरसामिणो चरियं । तेरह सोलुत्तरए रइयं सुहकारणं जयउ ॥ ५९ ॥ जिम जिणेसरि थुणिइं म(ज)ह पु(बु)त्तु सुअकेवलि गणहरि पवरि नाणलिद्ध(लद्धि)संपुन्नगुणहरि जह समत्ति चरित्ति थिरि दाणि सी लि तवि पुन्नु मटाहरि तह भवियण तं वि(थि)रु हवउ वयरसामि-सुचरित्त ___ पढंत गुणंत सुणंतह संवेगु धरंत ॥ ६० ॥ (१८) उपदेशकन्दली. प. १३०-१३७ (१९) ज्ञानप्रकाशकुलक by जिनप्रभ. प. १३७-१४३ End: ज्ञानप्रकाशकुलकं रचितमिदं श्रीजिनप्रभाचार्यः । श्रीशजयसत्तीर्थसेविभिर्मोहनाशाय ॥ ११४ ।। (२०) विचारगाथा (?). ___ प. १४३-१५३+१ Beginning: जयइ जयह जिणधम्मो विवेयरम्मो पणासीयकुहम्मो। उवसमपुरपायारो पयडियनाणाइपायारो ॥ १ ॥ त जयइ जगि सिरिजिणवरविंद जसु पय पणमइ सयलमुरिंद । परिवजिय सावजारंभ नर[य]कूव निवडतह खंभ ॥ २॥ त दुल्लहु लहिउ सुमाणुसजम्मु कहवि कहवि सिरिजिणवरधम्मु । तत्थ वि बोहिवीउ पुण रम्मु जं निहणइ दुढ दृ वि कम्मु ॥ ३ ॥ End: Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 192 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS सिरिजिणपहणीयसयलवसग्ग, ते लहु लहिसइ सग्ग पवग्ग ॥ २४ ॥ मंगलं महाश्रीः । शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः। (२१) माईचउपई. प. १-१० Beginning:त्रिभुवन-सरणु सुमरि जगनाहु, जिम फिट्टइ भव-दव-दुह-दाहु । जिणि अरि आठ करम निद्दलिय, नमो जिन जिम भवि नावउ वलि ॥ आंचली। सवि अरिहंत नमिवि सिद्धे उवज्झाय साहू गुण भूरि । माईय बावन अक्षर सार चउपईबंधि पढउं सुविचार ॥ भले भणेविणु भणीयइ भलउं, तिहूयणमाहि सारु एतलउं । जिनु जिनवचनु जगह आधारु, इतीउ मूकिउ अवरु अस्सार ।। End: जा ससि सूरु भूयणु व्याप्पंति, जा गगह नक्षत्र तारा हुंति । जा वरतइ बसहु व्यापारु, ता सिवलच्छि करउ मंगलचारु ॥ ६३ ॥ (२२) जिनगणधरनमस्कार (अपभ्रंश). गा. ९ प. ११-१२ Beginning: चुलसीय गणहर पढमजिणिंदह पंचनउई सिरिअजियजिण । दुरुतरु सिउरि संभवदेवह सोलसउ जिण अभिनंदहो । नमउं सु(सू)रोगमणि । मुणिचूडामणि गुणगणगामिणि भवियकमलवण-दिणमणिहो । नमउं नमउं सूरोगमणि ॥ १॥ End: पन्नरस कम्मभूमिगय मुणिवर अन्ने वि हु चरित्तधर । भाविहिं वंदउ बहु आणंदउं आणंदियतियलोय जिणहो । ___ नमउं नमउं सूरोगमणि ॥ ९॥ (२३) न्यायप्रवेश. प. ७ ३१२. (१) कल्पसूत्र. प. १-१४३, १४०x१३" (२) कालकाचार्यकथा (अपूर्ण). प. १४३-१६९ Beginning: __अस्थि इहेव जंबुद्दीवे भारहे धारावासं नाम नयरं etc. ३१३. रघुविलास (अपूर्ण; श्लिष्टपत्र) by रामचन्द्र. प. १८३; १३"x१३" ३१४. तर्कभाषा by मोक्षाकरगुप्त. *प. ७५; १४°४२" । * आद्यानि त्रीणि पत्राणि लुप्तानि । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PADA ३१५. (१) अवंतिसुकुमालसंधि ( अपभ्रंश ). प. १६-२४ (२) गिरनाररास. प. १-१२ (३) संयममञ्जरी (अपभ्रंश). (४) उपदेशरसायन by जिनदत्त. (५) योगशास्त्र ( अन्तिमप्रकाश ). ३१६. लीलावतीकथा (प्रा.). प. १२-१६ अपूर्ण १- १७ त्रुटित प. प. १८-३८ त्रुटित (६) वयर (वज्र) स्वामिचरित्र (अपभ्रंश प्रथमसन्धि ). प. १६ प. १३१; १४”×२” End:-- First 5 leaves damaged on one side with occasional marginal notes. |६०। ॐ नमो विघ्नराजाय । Beginning:— मह सरोससुअरिसणसव (च) वियं कर महावली जुयलं । हरिणकसवियडोरत्थलछिदो [] हरिणो ॥ १ ॥ तं नमह जस्स तइया तइयवयं तिहुयणं तुलंतस्स । सायारमणायारे अप्पणमपच्छि ( चि) य निसन्नं ॥ २ ॥ तस्स [... पुणो पणम ]ह निहुयं हलिणा हसिजमाणस्स । अपहुत्त देहली लंघणद्धवह संठियं चलणं ॥ ३ ॥ सो जयउ जस्स पत्तो कंठे रिट्ठासुर [स्स घणकस ] एण (णो ) । उप्पापवडियकालवासकरणी भुयफलिहो ॥ ४ ॥ रक्खंतु वो महोयहिसयाण (यणे ) सेसस्स फणिमणिमउहा । आसि तिवेय - तिहोमग्गिसंगसंजणियतिय सपरिओसो । संपत्ततिव[ग्गफलो बहुला ] इच्चो त्ति नामेण ॥ १८ ॥ अज्ज वि महग्गिपसरियधूम सिहा कवलि (लुसि ) यं व वच्छयलं । उवव (व्व) हइ मयकलंकच्छले [ण मयलंछणो जस्स ] ॥ १९ ॥ तरस य गुणरयणमहोयहीए एको सुओ समुप्पन्नो । भूसणभट्टो नामेण निययकुलम (ण) हयलमयंको ॥ २० ॥ [ जस्स पियबंध] वेह व चउवयणविसंघ ( णिग्ग) एहिं वेएहिं । एकवणारविंदट्ठिएहिं बहु मन्निओ अप्पा ॥ २१ ॥ तरस तएण एवं असारमइणा विरइयं सुणह । कोकण लीलावइ त्ति नामं कहारयणं ॥ २२ ॥ 193 एत्थ समप्पइ एयं संखेवुफालियं कहावत्युं । अवित्रेण कहियं मयच्छि ! को भाविडं तरइ ? ॥ 25 Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 194 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS भणियं च पिययमाए रइयं मरहहदेसिभासाए । अंगाई इमी कहाए सज्जणासंगजोगाई ॥ एयं जं अम्हं पिययमाए हियएण किं पि पडिवनं । तं न तहा जं संतं सुयणा! गेण्हह पयत्तेण ॥ सुयण-खलेहि अलं चिय गुणदोसे जे नियंति किं तेहिं ? । गुण-दोसरया जाणंति मज्झिमा कवपरमत्थं ॥ १३३०॥ अट्ठारहसयसंखा अण(णु)ट्ठसंखाए विरइयपमाणा । एस समप्पइ इण्हि कह त्ति लीलावई नाम ॥ १३३१ ॥ दीहच्छि ! कहा एसा अणुदियहं जे पढंति निसुणंति । ताय(ण) पियविरहदुक्खं न होइ कइया वि तणुयं पि (अंगि!) ॥१३३२॥ लीलावतीकथानकं समाप्तं । मंगलं महाश्रीः ॥ ३१७. (१) सिद्धसेनचरित (प्रा.). *प. १-११ Beginning: सिरिसिद्धसेण-पालित्त-मल्ल-सिरिबप्पहट्टिसारिच्छा । नीहार-हारधवलो जाण ज वि फुरइ जसपसरो । प्रथमं सिद्धसेनचरितं भण्यते । उज्जेणी नाम पुरी अवंतीदेसस्स मंडणुब्भूया । अच्छेरयाइं जीए द₹णं विबुहलोयाणं ।। अन्ना न का वि नयरी रंजइ मणयं पि माणसं तीए । आसि जहट्ठियनामा सूरी सिरिवुड्ढवाइ त्ति ॥ तस्स पसिद्धी(द्धिं) सोउं एगो धिज्जाइओ अहम्माणी । नामेण सिद्धसेणो वायत्थमुवागओ देसा ॥ सो वि य तंमि दिणंमि केणइ कजेण नाइदूरमि । गाममेगमि गओ पुच्छिय विप्पो वि जा जाइ । गामंमि तंमि सूरी ताव पंथस्स मज्झयारंमि । आगच्छंतो दिट्ठो कयकज्जो तेण इमं पुट्ठो ॥ End: सिद्धसेनदिवाकरकथानकं कथितं । (२) पादलिसाचार्यकथा (प्रा.). पि. ११-४३ * ४, ६, १० इत्येतानि पत्राण्यत्र न सन्ति । १२, १३, १५, १६, ३५, ३९ इत्येतानि पत्राण्यत्र गतानि। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 195 No I. Sanghavi PĀDĀ Beginning: अस्थि इह भरहवासे नामेणं कोसला पुरी रम्मा । जीए पडिरूवमन्ना वि न पावई का वि नयरी त्ति ॥ तीए समिद्धो लोयाण माणणिजो य सावओ सेट्ठी । फुलो नामेणं तस्स समगुणा भारिया पडिमा ॥ (३) मल्लवादिकथा(प्रा.). प. ४४-४९ (४) बप्पभट्टिकथा(प्रा.). *प. ४९-१०५ गा. ६८५ ले. सं. १२९१ (५) कलावतीचरित्र(प्रा.). प. ८४; १२"४१३" Beginning: ___ॐ नमो वीतरागाय । अस्थि कलाविकुलट्ठ कइविसरविरायमाणघणसालं । साएयपुरं गिरिकाणणं व सच्छंदरायसुयं ॥ तत्थ य हय-गयणाहो उन्नामियकेसरो अइकरालो । विप्फुरियपोरुसो केसरि व नरकेसरी राया ॥ कमला इव कमलकरा तस्स पिया कमलसुंदरी देवी । रइसुंदरी य दुहिया रइ व रूवेण सुपसिद्धा । अह बुद्धि-रिद्धि-सुयसंपयाहिं निचोवलद्धमाहप्पा । मंति-महिन्भ-पुरोहा संति पसिद्धा तई नयरे ॥ End: एवं कलावई वि य समणी तकालजोगमणुचरइ । साम[ण्णंमि अणण्ण ]मणा पसमाइसयं परिवहंतीति ॥ Colophon: सुविहितशिरोमणिश्रीमुनिचंद्रसूरिप्रभ(भु)देवसूरि-तच्छिष्यचारित्रचूडामणिश्रीविजयचंद्रसूरिशिष्यमाणिक्यचंद्रसूरिसाधु......जोग्या पुस्तिका श्रीविमलचंद्रोपा. ध्यायानां विमलसूरिपादान ३१८. स्तोत्रसङ्ग्रह ( अपभ्रंश अस्तव्यस्त श्लिष्ट त्रुटित). ___ प. प्रायः २००; ५१४१३ । ३१९. (१) शीलवतीकथा(प्रा. भोगोपभोगे ). Paper MS. प. १-४६ Beginning: अस्थि इह जंबुदीवे भारह खित्तस्स मज्झखंडंमि। नामेण पसंतपुरं सुपसिद्धं पुरवरं पवर ॥ १॥ ___ * ५१, ७०, ७५-७८ इत्येतानि पत्राण्यत्र नावलोक्यन्ते । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 196 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (२) दामनककथा (जीवदयायाम् ). प. ४७-९९ (त्रुटित) (३) तत्रटीकानिबन्ध ( अजिता) by परितोषमिश्र. प. २४२ Three Adhyāyas complete; damaged. End: अजिताख्ये तंत्रटीकानिबंधे कृसावजितायां प्रथमस्य द्वितीयः पादः । महोपाध्यायश्रीपरितोष मिश्रविरचिते तंत्रटीकानिबंधनेऽजिताख्यायां द्वितीयस्य प्रथमः पादः। अ. ३, पा. ६सर्वार्थमप्रकरणात् । यत्प्रसंगेनायं विरच्यते.......विचारं दर्शयति । इदानी अनारभ्याधीतानामिति । This seems to be a Commentary on alatiga. (४) चतुर्विंशतिजिनस्तुतिवृत्ति [मू. बप्पभटि]. प. ३५ Beginning: [ननेन्द्रमौलिगलितोत्तम]पारिजातमालार्चितक्रम! भवंतमपारिजात!। नाभेय! नौमि भुवनत्रिकपापवर्गदायिन् ! जिनास्तमदनादिकपापवर्ग !॥१॥ Colophon: २४ चतुर्विंशतिकावृत्तिः समाप्ता। श्वेतांबरमहागच्छमहावीरप्रणीतदेवानंदितगच्छद्योतकरवाचनाचार्यपंडितगुणा. करगणिना चतुर्विंशतिजिनानां स्तुतिवृत्तिलिखापिता ॥ ७ ॥ ७ ॥ श्रीवैद्यनाथेन जिनेश्वरैश्च तपोधनैर्दर्भवादी(?)पदिशत (?) स्वयं पंडितराणकेन हेमंतकाले लिखिता समग्र्या(प्रा) ॥ १॥ ७ ॥ विक्रमसंवत् १२११ पोषवदि ८ बुधे ॥ १ ॥ शिवमस्तु । मंगलमस्तु । (६) स्तुतिचतुर्विशतिकावृत्ति [ मू. शोभन]. End: - चतुर्विशतिका समाप्ता । जैनसिद्धांततत्त्वशतपत्रमकरंदास्वादमधुपेन देवानंदितगच्छस्वच्छहृदयमुनिमुखमंडनेन श्वेतांबरप्रतिव्रातताराश्वेतरुचिना वाचनाचार्यपंडितगुणाकरेण इयं संसारार्णवनिमज्जमानजनपारनयनमंगिनी साहित्यविचारवैदग्धहृदयोलासपंकजप्रबोधचंद्रिका चतुर्विंशतिजिनानां स्तुतिवृत्तिलिखापितेति ॥ ७ ॥ श्रीवैद्यनाथामकृतांतकस्य मानेन कस्मी(श्मी)रजकर्दमेन । स्वर्गायते दर्भवती सदा या तस्यां लिलेख स्थितरा[ण]केन । शुभं भवतु । मंगलमस्तु । लेखक-पाठकयोश्च ॥ ७ ॥ Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 197 No I. Sanghavi PĀDA 197 (६) शत्रुञ्जयमाहात्म्य by धनेश्वरसूरि. त्रुटित (७) भक्तामर. ३२०. प्रकीर्णत्रुटितपत्र. ३२१. योगशास्त्र(सविवरण). त्रुटित प. ३६५ Colophon: संवत् १२७१ वर्षे मार्ग. वदि ८ गुरावयेह श्रीप्रह्लादनपुरे मंगलं महाश्रीः । शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः । शिवमस्तु । ३२२. प्रकीर्णत्रुटितपत्र (आवश्यकनियुक्ति, तत्त्वार्थ, प्रशमरति, अलं. कार, अवचूरि). ३२३. प्रकीर्णत्रुटितपत्र (प्रा. सं. विक्रमकथा, सामाचारी इत्यादि ). ३२४. सूक्तसङ्ग्रह (?) प. ७६; १३०४२" Beginning: जयति सरोरुहवसतिनिगमगिरां प्रथमनिर्गमो द्रुहिणः । प्रभवो न तस्य दुस्तरभवजलधिविलंघनारहितः ॥ १ ॥ घरछ सवनः (वरदो भवतु) स शाम रक्षा भुजद्रभीपणा यस्य । भांति भुजाश्चत्वारः पातारो भुवनकोशस्य ॥ २ ॥ तं नमत नीललोहितमिंधनतां याति यस्य युगनिधने । प्रकटितललाटलोचनचपलार्चिषि शिखिनि भुवनानि ॥ ३ ॥ स जयति सहस्ररश्मिविगलितकलधौतशैलरसधौताः । भांति सततसमुदये यस्य दिशो लोहितच्छायाः ॥ ४ ॥ त्वां पालयतु भवान्याः कुपिताशनिपातभीषणारंभः । महिषासुर-नीलगिरेः शृंगांतरगोव...च ॥ ५ ॥ सुरगिरिपरिणतशीलो भवतामशुभानि हरतु हेरंवः । यस्य दशनोपशोभा रक्तोज्वलकनकशकलानि ॥ ६ ॥* * * अनवहितः किमशक्तो विबुधैरभ्यर्थितः किमप्यरसिकः । सर्वकषोपि कालस्तिरयति सूक्तानि न कवीनां ॥ १० ॥ ३२५. सुपार्श्वनाथचरित्र (प्रा.) by लक्ष्मणगणि. प. ३४१; ३१°४२" ३२६. (१) नन्दीसूत्र.. प. १-२३; ३१"४२३" (२) नन्दीसूत्रटीका by मलयगिरि, प. १-२४९ ३२७. कल्पभाष्य (अपूर्ण). प. १३९-२२२; ३०३०४२३" Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 198 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Pras'asti of the donor: • श्रीसर्वज्ञाय नमः । पुरंदरपुरस्फाति भाति श्रीपत्तनं पुरं । धर्म - न्यायमये यत्र नित्यं लोकः सुखायते ॥ १॥ विभाति गांभीर्यगुणेन नानाराजप्रवृद्धिर्जडभावमुक्तः । राजन्ननेकैः पुरुषोत्तमैः श्रीश्रीमालवंशांबु निधिर्नवीनः ॥ २ ॥ तस्मिन् समप्रव्यवहारिरत्नमप्रत्रधामानुपमानकीर्तिः । निर्दूषणः सद्गुणधाम धर्ममयैककर्माऽजनि कर्मसिंहः ॥ ३ ॥ श्रियाऽस्य गोईत्यभिधा सुधासदृग्वचः प्रपंचा समजायताद्भुता । विशुद्धशीला दिगुणैरनुत्तरैर्या सीतया स्वं तुलयांबभूवुषी ॥ ४ ॥ तदंग भूर्भूरिसमृद्धिधाम महेभ्यसीमाऽजनि मालदेवः । बुधा अबुध्यंत भवबुधौ यं धनेश्वरस्य प्रतिबिंबमेव ॥ ५ ॥ श्रीगुर्जरेश्वरनियोगिनि रत्नपाले तद् ग्राहयत्यपि बलेन जनं समयं । नैकादशी व्रतमधा (त्यजद्) बहुधा प्रकारैस्तद्भापितोपि दृढदर्शनधी सुधीर्यः ॥ ६॥ अहो ! अनेकैः सुकृतोत्सवैर्जनं सदैकधर्मात्मकतां नयन्नपि । अनंतधर्मात्मक वस्तुदेशिनो जिनेशितुः शासनमत्यजन्न यः ॥ ७ ॥ जगदंगतो विमुक्तवत् ध्रुवमानंत्यजुषोऽपि यद्गुणाः । ग्रहचक्रमिवास्थिरा अपि क्रममाणाश्च जगत्सु कौतुकं ॥ ८ ॥ श्रीदेव सुंदरयुगोत्तमसेवयाप्तश्रीमज्जिनागम विचार महारहस्यः । नंदीश्वरस्तवन- मुग्धतरान्नवातीचारांश्च यो निरुपमानमतिञ्चकार ॥ ९ ॥ विधान्यहरहः कुरुते स्मावश्यकानि कलिकालविजेता । यो यथोचितमथो धनदानैर्दोनलोक मुददीधरदेव ॥ १० ॥ श्री तीर्थयात्रा - जिनत्रिंब - साधुपूजा - प्रतिष्ठादिविधानधीरः । सदापि साधर्मिकवत्सलत्व - दानादिधर्मे रजयत् कलिं यः ॥ ११ ॥ अथ च । संघभारधरणैकधुरीणा धर्मकर्मसु सदापि न रीणाः । नित्यदेव - गुरुभक्तिकचित्ताः क्षेत्रसप्तक नियोजित वित्ताः ॥ १२ ॥ भूतलप्रथितकीर्तिसमूहाः पूरितार्थिजन सर्व समीहाः । भूरिभूतिपरिभूतधनेशास्तेजसाऽवजितबालदिनेशाः ॥ १३ ॥ मत्यलोकहितहेतुकमिंद्र प्रेषिता इव दिवः सुरवृक्षाः । पंच तस्य तनया विनयाढ्या भूरिभाग्यविभवा विजयंते ॥ १४ ॥ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PADA १६ ॥ आसीजनाहादकमूर्तिराद्यः केल्हाभिधस्तेषु धियां निधानं । प्रभावकालंकरणस्य यस्य दशाप्यशोभंत दिशो यशोभिः || १५ ॥ आस्ते जगत्ख्यातयशा द्वितीयो हीराभिधानो व्यवहारिहीरः । रमांबुधेर्यस्य गुणास्तरंगा इवास्तसंख्या जगतीं स्पृशंति ॥ निखिलव्यवहारिवर्गमौलिवराकः सुकृती सुतस्तृतीयः । कलयत्यधुना प्रपन्नशीलः श्रेष्ठींदोरुपमां सुदर्शनस्य ॥ १७ ॥ भक्तः श्रीगुरुपदयोः सदापि धर्माधारः श्री जिनपतिशासनप्रभाकृत् । त्रैलोक्यप्रथितयशा विशां प्रधानं पाताकः समजनि तत्सुतश्चतुर्थः ॥ १८ ॥ सन्नंदकः स्फुटविराजिसुदर्शनश्रीः । लक्ष्मीविलासवसतिः पुरुषोत्तमोऽत्र । तस्यांगभूर्जयति पंचमकः क्षमायां गोविंद इत्यभिधया विदितो गुणैश्च ॥ १९॥ यौवनेऽपि दधता किल शीलं येन धीरपुरुषाचरितेन । स्मारितः स्मररिपुः परिभूय स्थूलभद्रमुनिवृत्तमिदानीं ॥ २० ॥ केहाभिधानस्य जनी विनीता ख्याताऽस्ति हर्पूरिति यद्दुर्व्या । धर्मद्रुमः श्रीगुरु - देवभक्तिरसैः प्रसिद्धः फलती प्सितः ॥ २१ ॥ चतुरंबुधिचारिकीर्तयश्चतुराशाजनतामनोमताः । तनुजा मनुजालिमंडनं चतुराः संति चतुर्मितास्तयोः ॥ २२ ॥ व्यवहारिवर्गमंडनमखंडदानादिधर्म विधिनिरताः । डाहा भोला मंडन माणिक्येति क्रमाद् विदिताः ॥ २३ ॥ जगदद्भुत सौंदर्ये भार्य हीराभिधस्य जयतो द्वे । 199 आद्या शाणीनाम्नी हीरादेवी द्वितीया च ॥ २४ ॥ क्रमेण तनयावसुवातां । आदिमा विजयकर्ण सकर्णं भूरिभूतिमपरा च गजाह्वं ॥ २५ ॥ मायादिदोषरहिता दयिता विभाति वीराभिधस्य फदकूरनुकूलचित्ता । या यौवनेपि विमलं प्रतिपद्य शीलं योषासुधैर्यविरहायशः प्रमार्ष्टि ।। २६ ।। सुतौ तयोर्भाग्यभृतौ विनीतौ प्रभूतभूती गुणभूरभूतां । आद्यः कृती नंदति देवदत्त • ॥ २७ ॥ .. धानव्यवहारिमौलेरुभे अभूतां दयिते विनीते । तत्रादिमा सच्चरितैः पवित्रा पत्रापदेवी रतितुल्यरूपा ।। २८ ।। अपरा पदमलदेवी नित्यं श्रीवीतरागभक्तिपरा । तनुजौ मनुजौघवराविमे क्रमेणासुवातां द्वौ ॥ २९ ॥ • Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... .. 200 Partan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS श्रीजिनेंद्रपदपंकजभक्तः सर्वदा सुकृतकर्मसु रक्तः । आदिमो.............................. ॥ ३०॥ .....परस्सकलपौरविभूषणमंगजः । जयति देव-गुरुत्तमभक्तिभृनरमणी रमणीयगुणालयः ॥ ३१ ॥ गोविंदनानो दयितास्ति गंगादेवी सदा श्रीगुरु-देवभक्ता । न जातु धर्मामृतशीतलं यन्मनः कलिस्तापयितुं समर्थः ॥ ३२ ॥ तयोर्जयंत्यब्धिमिताः सुताः श्रीपदं महाभाग्यभृता विनीताः । भृताश्चतस्रोपि दिशो यशोभिर्येषामशेषा हिमरुग्महोभिः ॥ ३३ ॥ आद्यो हरिश्चंद्र इति प्रतीतः सूनुर्द्वितीयः किल देवचंद्रः। ततस्तृतीयो जिनदासनामा.....................॥ ३४ ॥ अथ च । श्रीजैनशासनसमुद्धरणेकधीराः श्रीदेवसुंदरयुगप्रवरा विरेजुः । तेषां पदे जनमुदे विहितावताराः श्रीसोमसुंदरगुरुप्रवरा जयंति ॥ ३५ ॥ निःशेषलब्धिभवनं भुवनातिशायि माहात्म्यधामभरतोत्तमसंयमाढ्याः । किं चात्र सर्वगुणसुंदरशिल्पसीमभूता जयंत्यधिजिनेश्वरशासने ये ॥ ३६॥ चत्वारः श्रीमदाचार्यास्तेषां शिष्या जयंयमी। एकपादपि यैर्धर्मश्चतुष्पादभवत् कलौ ॥ ३७॥ शांतिस्तवेन जनमारिहृतः सहस्रनामावधानिबिरुदा महिमैकधाम । तेष्वादिमा विविधशास्त्रविधानधातुल्या जयंति मुनिसुंदरसूरिराजाः ॥ ३८॥ पत्रिंशता सूरिगुणैरलंकृतास्तथा द्वितीया विजयं वितन्वते । जगञ्चु(स्तु)ता कृष्णसरस्वतीति सद्यशःश्रियः श्रीजयचंद्रसूरयः ॥३९॥ व्यजयंत महाविद्याविडंबनप्रभृतिशास्त्रविवृतिकृतः । श्रीभुवनसुंदरगुरूत्तमास्तृतीया यशोनिधयः ॥ ४० ॥ तुर्या जयंति जगति विदिता निखिलांगपाठपारगताः।। श्रीजिनसुंदरगुरवः प्रज्ञावज्ञातसुरगुरवः ॥ ४१ ॥ अ(इ)तश्च । गणाधिपश्रीगुरुसोमसुंदरप्रभूपदेशं विनिशम्य सुंदरं । श्रुतस्य भक्तेरधुना जिनाधिपप्रवर्तमानागमलेखनेच्छया ॥ ४२ ॥ गोविंद-नगराजाभ्यां नंदेभ-मनुवत्सरे । लेखितः पुस्तको जीयादाचंद्रार्क प्रमोददः ॥ ४३ ॥ इति प्रशस्तिः। Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. I. SANGHAvi Pink 201 Colophon written on a blank folio: सं० १४८९ ज्ये० ५० ४ दिने कृतः ॥ वर्य पृथुल मलबारीय ३३४ पत्राणां संचयः ॥ श्रीः । श्रीः । श्रीः । श्रीः ।। ३२८. (१) चन्द्रप्रज्ञप्ति. प्र. २०५४ प. १-५४; ३२°४२ Colophon:संवत् १४७९ वर्षे ज्येष्ट वदि दशम्यां गुरौ चंद्रप्रज्ञप्तिटीका (?) । (२) चन्द्रप्रज्ञप्तिटीका by मलयगिरि. प. २६५ Colophon: ग्रंथानं ९५०० श्लोकमानेन यथा । संवत् १४८० वर्षे पौष शुदि १३ बुधे लिखितं । ___३२९. स्थानाङ्गटीका by अभयदेवसूरि. प. ४५२; ३१°४२३" End: ___ ग्रंथानं श्लोक १७१४ ॥ ५ ॥५॥ अणहिल्लपाटकनगरे वसतावच्छुप्रधनपतेर्गणिना । जिनदेवाख्येनादौ लिखिता स्थानांगटीकेयं ।। प्रत्यक्षरं निरूप्यास्य ग्रंथमानं विनिश्चितं । अनुष्टुभां सपादानि सहस्राणि चतुर्दश ।। ग्रंथानं श्लोकाः १४२५० ।। ७ ।। ५ ।। ७ ।। Colophon:___ संवत् १३४६ वर्षे ॥ ज्येष्ठसुदि १५ गुरौ । अोह वीजापुरे महाराजाधिराजश्रीसारंगदेवप्रतिबद्धमहंश्रीमूंजालदेवनियुक्तमहंश्रीसांगाप्रतिपत्तौ पुस्तकमिदं लिखितं ॥ ॥ ७ ॥ यादृशमित्यादि । मंगलं महाश्रीः ॥ ५ ॥ ......वास्तव्य सो(मो)ढज्ञातीयव्य० जसराज......नाल्हा तत्सुतश्रे० ऊदाश्रेयोर्थ ठाणांगवृत्तिपुस्तकं लिखापितं श्रे० छाडउ भ्रातृ देपाल जयतल वील्हण... ३३०. जिनधर्मप्रतिबोध (अपूर्ण) by सोमप्रभाचार्य. *प. ५१--३०५ ३३१. स्याद्वादरत्नाकर (प्रथमखण्ड). प. ३११, ३३"४२" End: एवं च स्खलक्षणगोचरांगीकारे चेत्यादि प्रत्यादिष्टं । किं चान्यदेवेंद्रियग्राह्य..... Colophon: * ५३, ५४, ५९, १६१, १६२ पत्राणि न सन्ति । 26 Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 202 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS स्वस्ति संवत् ॥ १४७६ वर्षे वैशापशुदि ५ गुरौ लिखितं श्रीमदणहिल्लंपत्तने । शुभं भूयात् शुभं भूयात् । देवगिरिवास्तव्यप्राग्वाटज्ञातीयसा० सलपणभार्याधनूपुत्रीभाऊनाम्न्या तपागच्छनायकश्रीसोमसुंदरसूरीणामुपदेशेन स्याद्वादरत्नाकरप्र. थमखंडं लेखितं शिवमस्तु श्रीश्रमणसंघस्य ।। ३३२. (१) कर्मग्रन्थपञ्चक by देवेन्द्रसरि .. ___ (२) सित्तरि(सप्तति)वृत्ति by मलयगिरि (प. ३५१,३४ ४२ Colophon:संवत् १४६२ वर्षे माघशुदि ६ भौमे अद्येह श्रीपत्तने लिग्वित शुभमस्तु । Pras'asti of the donor:ऊकेशवंशसंभूतः प्रभूतसुकृतादरः । वासी सांडउसीग्रामे सुश्रेष्ठी महुणाभिधः ॥१॥ मोघीकृताघसंघाता मेघीरप्रतिघोदया। नानापुण्यक्रियानिष्ठा जाता तस्य सधर्मिणी ॥२ तयोः पुत्री पवित्राशा प्रशस्या गुणसंपदा । हादर्दरीकृता दोषैर्धर्मकभैंककर्मठा ॥३॥ शुद्धसम्यक्त्वमाणिक्यालंकृतः सुकृतोद्यतः । एतस्या भागिनेयोभूदोकाकः श्रावकोत्तमः ॥ ४ ॥ श्रीजैनशासननभोंगणभास्कराणां श्रीमत्तपागणपयोधिसुभास्कराणां । विश्वाद्भुतातिशयराशियुगोत्तमानां श्रीदेवसुंदरगुरुप्रथिताभिधानां ॥ ५ ॥ पुण् योपदेशमथ पेशलसंनिवेशं तत्त्वप्रकाशविशदं विनिशम्य सम्यक् । एतं सुपुस्तकमलेखयदुत्तमाशा सा श्राविका विपुलबोधसमृद्धिहेतोः ॥६॥ बाणांग-वेदेंदुमिते १४६५ प्रवृत्ते संवत्सरे विक्रमभूपतीये । श्रीपत्तनाह्वानपुरे वरेण्ये श्रीज्ञानकोशे निहितं तयेदं ॥ ७ ॥ यावद् व्योमारविंदे कनकगिरिमहाकर्णिकाकीर्णमध्ये विस्तीर्णोदीर्णकाष्ठातुलदलकलिते सर्वदा जुंभमाणे । पनद्वंद्वावदातौ वरतरगतितः खेलतो राजहंसौ __ तावज्जीयादजलं कृतियतिभिरिदं पुस्तकं वाच्यमानं ॥ ८ ॥ श्रीः । शुभं भवतु । On the board: ___ श्रीकर्मग्रंथषवृत्तिः सिद्धपुरीयश्रा० हादूसत्का । ३३३. (१) उत्तराध्ययननियुक्ति. गा. ६०७ प. १-१७; ३३३"४२" (२) उत्तराध्ययनवृत्ति by शान्तिसूरि. प. १-४६२ Colophon:मंथानं १८००० शुभं भवतु । सर्वकल्याणमस्तु । यादृशं elc भग्न etc तैलाद् etc Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGITAYI PAPA 203 स्वस्ति संवत् १४८९ वर्षे श्रावणमासे शुक्लपक्षे द्वितीयायां तिथौ रवि दिने अोह श्रीडूंगरपुरनगरे राउलश्रीगइपालदेवराज्ये लिखितं श्रीपार्श्वजिनालये पचाकेन । ३३४. निशीथचूर्णि (द्वितीयखंड उ. ११-२०). प. ३१८, २७°४२" Colophon: निसीहचुण्णी समत्ता । मंगलं महाश्रीः । सं. ११५७ आखाढवदि पष्टयां शुक्रदिने श्रीजयसिंहदेवविजयराज्ये श्रीभृगुकच्छनिवासिना जिनचरणाराधनतत्परेण देवप्रसादेन निशीथचूर्णिपुस्तकं लिखित मिति ॥ ३३५. प्रज्ञापनाटीका by मलयगिरि (त्रुटित, खण्डित ). ३३६. दशवकालिकवृत्ति by हरिभद्र. प. २८६; २७°४२" Colophon: ग्रंथानं भाष्यसहित ७५५० शुभं भवतु । सर्वकल्याणमस्तु । संवत् १४८९ वर्षे ज्येष्टमासे शुक्लपक्षे द्वितीयायां तिथौ गुरुदिने लिखितं डुंगरपुरे पचाकेन ॥ ३३७. उपदेशमालाविवरण. प. २९६; २६°४२" End: उपदेशमालाविवरणं समाप्तं । कृतिरियं जिन-जैमिनि-कणभुक-सौगतादि. दर्शनवेदिनः सकलग्रंथार्थविन्निपुगस्य श्रीसिद्धर्महावर्धमानाचार्यस्येति । सिद्धर्पिकृता वृत्तिः कथानकैोजिता स्वबोधार्थं । प्राक्तनमुनींद्ररचितैश्चारुभिरुपदेशमालाभिः(याः) ॥ विधिना सूत्रोक्तं यथाप्रोक्तं न सम्यगिह लिखितं । जैनेंद्रमताभि स्तच्छोध्यं मर्षणीयं च ॥ एकैकाक्षरगणनया ग्रंथमानं विनिश्चितं । ९५०० ३३८. शान्तिनाथचरित्र by माणिक्यचन्द्र. प. ३१६; २४°४१३ Beginning: तेपि ब्रह्मादयो यस्यानुग्रहा[त् ] ज्ञानविग्रहाः । तस्मै कस्मैचन मः(मे) परमब्रह्मणे नमः ॥ परमेष्ठी जिनः शंभुः स्वामी भास्वासु(न्) कलानिधिः । शुचिर्विश्वत्रयीशास्ता परमात्मा पुनातु वः ॥ श्रेयः प्रथयतु श्रेयः पुरुषोत्तमनाभिभूः । परमेष्ठी त्रिलोकीष्टसृष्टिकर्मणि कर्मठः ॥ ३ ॥ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 204 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS कांचनद्यतिमान तत्वसुमनोमार्गमंडनः । द्वादशात्मावतारश्रीः श्रीशांतिः पातु वो जिनः ॥ ४ ॥ * * योभूत् क्षमाभृतां प्रष्ठः पुष्पः(? ष्णः) पूर्वगिरिश्रियं । स शश्वदुदयं देयाद् गौतमो पि] तमोपहः ॥ ९ ॥ यः पदत्रितयेनापि व्यानशे वाङ्मयं महत् । पश्य व्यापि त्रिपद्यापि विष्णुना विष्टपत्रयी ॥ १० ॥ रसोर्मिरम्यं बहुसत्कथं यः सपादलक्षं वसुदेववृत्तं । चकार संसारविकारभेदि स भद्रबाहुर्भवतु श्रिये वः ॥ ११ ॥ सारस्वताह्वयकलामयमंत्रमित्रं यन्नामवर्णवलयं कलयंति संतः । तस्मै नमः प्रवचनप्रवराय वेदविद्यावराय हरिभद्रमुनीश्वराय ॥ १२ ॥ याः पेठिरे गृहस्थत्वे पूर्व विद्याश्चतुर्दश । प्रत्येकं श[त]संख्याता येन प्रकरणैः कृताः ॥ १३ ॥ किं न सामानसश्रीकास्ते दाक्षिण्यांध(क)सूरयः । कुवलयमाला येभ्यः कथाभूदद्भुतस्थितिः ॥ १४ ॥ श्रियेस्तु सिद्धव्याख्याता विख्यातासिद्धसाध[कः] । बहिःस्थामपि देहांतर्दर्शयंती भवस्थितिं ॥ १५ ॥ निर्दूषणपदन्यासध्वनिन्या(व्या)सविराजिनः । काव्याध्वनि कविहंसाः संत्वन्येप्यमृतश्रिये ॥ १६ ॥ स रामः कविरुद्दामः प्रबंधाब्धि प्रबध्य यः । प्रियां चमत्कृतिं प्रत्याहरति प्रीणि(णा ? णय)ति क्षमां ॥ १७ ॥ कलाकलापसदनं विश्वेश्वरशिरोमणिः । मुनींद्रश्रीनेमिचंद्रस्तमस्तमायत (?) क्षितेः ॥ १८ ॥ यस्य प्रशस्यवचनामृतसंगमेपि दुर्वादिनामिह यदुच्छलति स्म तापः । .. यत् कालिमाजनि यदश्वि(स्वि)ददंगयष्टि रोष्ठद्वयी यदशुषञ्च तदद्भुतं नः ॥ १९ ॥ श्रीराजगच्छमंडनवादिखंडननामना । ज्योति[रात्मजये यस्य कुमारनृपतिर्ददौ ॥ २० ॥ श्रीजगद्देवसंज्ञेन प्रतीहारेण यः प्रत्यलप्रतिवादी obliterated. See also Sangh's Bhandar. Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. Sagnavi PĀVĀ 205 205 End: इत्याचार्यश्रीमाणिक्यचंद्रविरचिते शांतिनाथचरिते महाकाव्ये तपो-भावनाकथा-श्रीशांतिनाथ-चक्रायुध-गणभृन्निर्वाणवर्णनो नाम अष्टमः सर्गः समाप्तः । पापक्षयपुरस्कृत्या वर्धिष्णुमहिमोदये । अतिसोमकले राजगच्छे स्वच्छे दिवानिशं ।। तृष्णाभिदः सुमनसां मिथ्यात्वविपविच्छिदः । सुधामय(या) इवाभूवन श्रीभरतेश्वरसूरयः ।। तत्पट्टपूर्णकल्पाः श्रीवरस्वामिसूरयो गुरवः । विकिरंतु दुरितनिकरं वितरंतु समीहितां सिद्धिं ।। येषां हस्तप्रभावादि(ति)शयमभिदधुर्ग[देव]हाणि नृत्यत् पण्यस्त्रीपाणिचंचन्मणिवलयझणत्कारवाचालितानि । सूरीणां वक्त्रपनान्युदधिकलकलस्पर्द्धिगद्योद्भुराणि श्र[]द्धानां धामधात्री तुरगखरखुरोद्भूतवात्कारसारा ॥ ये निःसंगविहार[चारु चरिता ये शुद्धसद्देशना मुक्तास्वातिघना मनोभवतरोयें भंजने कुंजराः । ये विद्याललनाविलासमुकुराः किं वा बहु ब्रूमहे ? सर्वेषामपि संप्रति व्रतभृतां दृष्टांततां ये ययुः ॥ श्रीवर्धमान............ome folio torn and obliterateel. सुधीभिः शोधनीयं यत् प्रांजलिः प्रार्थये स्मि तान । दीपोत्सवे शशिदिने श्रीमन्माणिक्यसूरिभिः । कर्णावत्यां महापुर्या श्रीग्रंथोयं विनिर्मितः ॥ १८ ॥ नितांतसंशयध्वांतरक्षा[दक्षा] गिरां पतिः । श्रीशांतिनाथचरिते देवी साहाय्यकं व्यधात् ॥ १९ ॥ श्रीमाणिक्यचंद्रसूरीणां कृतिः। संपूर्णमिदं श्रीशांतिनाथचरितमिति ॥ ७ ॥ चतुःसप्ततिसंयुक्तैः पंचपंचाशता शतैः । प्रत्यक्षरं गणनया ग्रंथमानं [ विनिश्चितम् ] । Colophon: संवत् १४७० वर्ष मार्गसिरवदि १२ बुधे श्रीशांतिनाथचरित्र(त्र) लषि. (लिखि)तं संपूर्ण श्रीतपागच्छे लघुपौ[पध]शालायां पुस्तकं लषि(लिखि)तं । सहजसमुद्रगणिना लिखापितमस्ति । शुभमस्तु । Full of mistakes, ३३९. महावीरचरित्र (त्रि. श. पर्व १०) by हेमाचार्य. प. २२० । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 206 Prrax CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Colophon: संवत् १२९४ वर्ष चैत्रवदि ६ सोमे लिखितमिदं श्रीमहावीरचरितपुस्तक लेख. महिलणेनेति भद्रं । मंगलं महाश्रीः । परमगरिमसारः प्रोल्लसत्पत्रपात्रं स्फुरितधनसुपर्वा श्रेष्ठमूलप्रतिष्ठः । लसितविशदवर्णो वर्यशाखाभिरामः समभवदिह दीशापा(वा)लवंशः प्रसिद्धः ॥ आम्रदत्तोभवत् तत्र मुक्तामणिरिवामलः ।। तच्चित्रमेव यदसावच्छिद्रः ............... । श्रीदेवीनामतः ख्याता शील-सत्यादिसद्गुणैः । प्रेमपात्रं प्रिया जज्ञे तस्येंदोरिव रोहिणी ।। The remaining portion lost in folio 221 which is missing from the Ms. Illustrateil. Contains pictures of Hentā-chārya and Kumārpāla. ३४०. उपदेशमालावृत्ति by रत्नप्रभ. Illustrated. __प. ३४६; ३०४२३ Beginning: ए ६० ॐ नमः श्रीदेवसूरिगुरुपादुकाभ्यः । यस्यारघट्टस्य धनोपदेशमालार्पितध्यानघटाघटीभिः । संसारकूपाद् भवभृजलानामूज़ गतिः स्यात् स जिनोवताद् वः ॥ रागादिक्षपणपटुः सकेवलश्रीजभारिव्रजमहितो यथार्थवाक्यः । नाभेयः स भवतु भूतये सदानतार्थस्याधिपतिरयं च वर्द्धमानः ॥ पायं पायं प्रवचनसुधां प्रीयते या प्रकामं स्वैरं स्वैरं चरति कृतिनां कीर्तिवल्लीवनेषु । दोग्ध्री कामान् नवनवरसैः सा भृशं प्रीणयंती मादृग्वत्सान जयति जगति श्रीगवी देवसूरेः ।। विशुद्धसिद्धांतधुरां दधानां संसारनिःसारकृतावधानां । श्राद्धः सुधासिंधुमिमां विशालां प्राप्नोति पुण्यैरुपदेशमालां ॥ · सत्यामपि सद्वृत्तौ वृत्तिममुष्याः करोम्यहृदयेपि । त्वरयति यस्मान्मामिह सविशेषकथार्थिनां यत्नः ।। End:इति श्रीरत्नप्रभसूरिविरचितायामुपदेशमालाया विशेषवृत्तौ चतुर्थो विश्रामः ।। नानारूपनरोत्तमैकवसतिर्नीरागतासंगतः पातालं परितः स्फुरनिह बृहद्गच्छोस्ति रत्नाकरः । Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 207 No I. SANGITAVI PAPA स श्रीमन्मुनिचंद्रसूरिसुगुरुस्तत्राभवद् भूरिभिः ___ शाखाभिर्भुवि यः प्रयागवटवद् विस्तारमुद्रामगात् ॥ साहित्य-तांगम-लक्षणेषु यद्ग्रंथवीथी कविकामधेनुः । कस्योपकारं न चकार सम्यक निःशेपदेशेषु च यद्विहारः ॥ शिष्यः श्रीमुनिचंद्रसूरिगुरुभिर्गीतार्थचूडामणिः ___पट्टे खे विनिवेशितस्तदनु स श्रीदेवसू रिप्रभुः । आस्थाने जयसिंहदेवनृपतेर्यनास्तदिग्वाससा स्त्रीनिर्वाणसमर्थनेन विजयस्तंभः समुत्तंभितः ॥ तत्पट्टप्रभवोभवन्नथ गुणग्रामाभिरामोदयाः __ श्रीभद्रेश्वरसूरयः शुचिधियस्तन्मानसप्रीतये । श्रीरत्नप्रभसूरिभिः शुभकृते श्रीदेवसृरिप्रभोः शिष्यैः सेयमकारि संमदकृते वृत्तिर्विशेषार्थिनां ।। श्रीदेवसूरिशिष्यभ्रातॄणां विजयसेनसूरीणां । आदेशस्यानृणभावमगममेतावताहमिह ।। यदि यमुपदेशमाला श्रावकलोकस्य मूलसिद्धांतः । प्रायेण पठति चायं तदिहास्माभिः कृतो यत्नः ।। व्याख्यातृचूडामणिसिद्धनाम्नः प्रायेण गाथार्थ इहाभ्यधायि । कचित् क्वचिद् या तु विशेपरेखा सद्भिः स्वयं सा परिभावनीया । यदिह किंचिदनागमिकं कचिद् विरचितं मतिमन्दतया [ मया ] । तदखिलं सुधियः ! क्षमयामि वः कृतकृपाः परिशोधयतादरात ।। स्वस्य परस्य च सूक्तैर्वृत्तिविस्तारिता चकास्तीयं । मणिखंडमंडलैरिव सुवर्णपूजा जिनंद्राणां ॥ प्रकृता समर्थिता च श्रीवीरजिनाग्रतो भृगुपुरेसी । अश्वावबोधतीर्थे श्रीसुव्रतपर्युपास्तिवशात् ॥ संशोधिता च सन्निहितकतिपयैः सहृदयैरियं प्रायः । पुनरपि कंटकशुद्धिः कार्या वः प्रार्थये सर्वान् ।। भास्वभास्वरकांतिकांततिलकं प्रक्षिप्तवज्राक्षतं निर्यन्नीलशिलातलांशुपटलैर्दुर्वारदूर्वाकुरं । यावन्मेरुमहीभृतं प्रति करोत्यारात्रिकोत्तारणं ताराभिर्युविलासिनी विजयतां तावत् तवै(3)षा कृतिः ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 208 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS विक्रमाद् वसु-लोकार्कवर्षे माघे समर्थिता । एकादश सहस्राणि मानं सार्द्धशतं तथा ॥ अंकतोपि ग्रंथाग्रं १९१५० तथा सूत्रसमं ग्रंथानं ११७६४ ॥ Colophon: संवत् १२९३ वर्षे पोषसु (व) दि ५ गुरावद्येह चंद्रावत्यां लिखितं पं० मलयचंद्रेण || ६ || शुभं भवतु ॥ ३४१. सुदर्शनाचरित्र (प्रा. त्रुटित) by देवेन्द्रसूरि. प. २०४; २६ ४१३" Ono additional page contains Pras'asti. Beginning:-- नमः श्रीसुव्रत जिनेंद्राय । वंदित्तु सुव्वयजिणं सुदरिसणाए पुरंमि भरुन्छे । जह सवलियाविहारो कराविओ किं पि तह.... ॥ End:--- चित्तावालयगच्छिक मंडणं जयइ भुवणचंदगुरू । तस्स विओ जाओ गुणभवणं देवभणी || तपयभत्ता जगचंद सूरिणो तेसिं दुन्नि वरसीसा । सिरिदेविंदमुणींदो तहा विजयचंदसूरिवरो ॥ ४०५० ॥ इय सुदरिसणार कहा नाण - तवच्चरणकारणं परमं । मूल हाउ फुडत्थाभिहिया देविंदसूरीहिं ॥ ४०५१ ।। परमत्था बहुरयणा दोगच्चहरा सुवन्नलंकारा | सुनिहि कहा एसानंद विबुहस्सिया मुइरं ॥ ४०५२ ॥ Colophon: अक्षर - मात्रा - पद - स्वरहीनं व्यंजन - संधि - विवर्जितरेकं । साधुभिरेव मम क्षमितव्यं को न वि [मु] ह्यति शास्त्र - समुद्रे ? ॥ संवत् १४५१ वर्षे श्रावणशुदि ५ गुरौ अयेह श्रीस्तंभतीर्थे श्री सुदरिसणाचरित्रं लिखापितमस्ति || प्राग्वाटान्वयभूः प्रशस्त विभवो भूद् वज्रसिंहाभिधः श्राद्धः श्रीजिननाथपूजनपरः पुण्यक्रियातत्परः । भार्या तस्य कर्दयैकरसिका सद्धर्मबद्धादरा गंगावारिविशुद्धशीलसुभगा संवेगचंगाशया ॥ १ ॥ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PADA चत्वारस्तनयास्तयोः समभवन्नेते युताः सद्गुणैः धांगाख्यः प्रथमः पृथूज्वलयशा बांबामिधानोपरः । पुण्योपार्जनलालसो लषमसीत्याख्याप्रतीतस्तत स्तुर्यो रावणनामधेयविदितः सुश्राद्धवीग्रणीः ॥ २ ॥ ग्रामे फीलणिनामके निवसतामेपां सवित्री कडू- रेषालीलिखदात्मनिर्मलचितवित्तेन बंहीयसा । विष्वग्व्यापिविशुद्धकीर्तिविततश्रीमत्तपागच्छपा चार्यश्रीगुरुदेवसुंदरमहापुण्योपदेशादिदं ॥ क्षोणी-बाण-पयोनिधि-क्षितिमिते संवत्सरे वैक्रमे रम्ये श्रीअणहिल्लनामनगरे श्रीज्ञानकोशेनघे । अस्थाप्यत्र सुदर्शनाभिधमहासत्याश्चरित्रं त[या] नित्यं नंदतु वाच्यमानमनिशं मेधाविभिः साधुभिः ॥ मंगलं भवतु श्रीसंघभट्टारकस्य ।। ३४२. उपदेशमालावृत्ति सिद्धर्षि. प. १८७; २७."२" Pages torn. Seems to be written in the beginning of the 13th century of Vikram. ३४३. (१) दशवकालिक. प. १-१६; ३३°४२४ (२) , नियुक्ति. प. १७-२८ (३) , टीका by हरिभद्र. प. २९--१९० Prasasti same as No 367 अनुयोगद्वार ३४४. (१) महानिशीथ. प. १-१११ Colophon: संवत् १४५४ वर्षे आसाढ वदि १० शनौ महानिशीथपुस्तकं लिखितं । (२) दशाश्रुतस्कन्धनियुक्ति(?). प. ११२-११५; ३३०x१३" Beginning: वंदामि भद्दबाहं पाईणं चरिमसयलसुयनाणिं । सुत्तस्स कारगमिसिं दसासु कप्पे अ ववहारे ॥ १॥ आउविवागज्झयणाणि भावओ दवओ उवत्थदसा । दस आउविवागदसा वाससयाउं दसह भत्ता ॥ २ ॥ (३) दशाश्रुतस्कन्धचूर्णि. पं. २२२५ प. ११६-१६१ (४) दशाश्रुतस्कन्ध. प. १६१-२०४ 27 Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 210 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (५) पञ्चकल्पभाष्य. प. २०५-२५८ End: महत् पंचकल्पभाष्यं संघदासक्षमाश्रमणविरचितं समाप्तमिति । गाहग्गेणं पंचवीससयाई चउत्तराई २५७४ । सिलोगमाणं एगतीससयाई ३१३५ । (६) पञ्चकल्पचूर्णि प. २५९ - ३१५ (७) बृहत्कल्प. प. ३१६-३२३ (८) जीतकल्पसूत्र-वृत्ति by तिलकाचार्य. प. ३२४-३६१ Colophon:-- · एवं जीतकल्पवृत्ति-सूत्रं समाप्तं ॥ १ ॥ संवत् १४५६ वर्षे कार्तिक वदि १२ सोमवारे श्रीस्तंभतीर्थे पंचकल्पपुस्तकं लिखापितमस्ति । ३४५. कर्मग्रन्थ ( सटीक ) liy देवेन्द्रसूरि *प. २ - ३०६; २२x२ ३४६. पद्मप्रभचरित्र by देवसूरि. प. १८०; ३२”×११” Beginning:— मंगलमाइजिणे सरभु अदंडलुलंतकुंतला दिंतु । जिणमोहहरिय सामलमिलंतभमरु व विलसंता ॥ १ ॥ निम्बं निश्चलचित्ता जं पत्ता सह निवासपरमेणं । लंछणछलेण पडमा पउमंकं नमह तं देवं ॥ २ ॥ सो जय संतिनाहो अप्पडिचकेहिं दोहिं चक्केहिं । जस्स नवकुंडले हि वि महिमहिला गवरी भुवणे || ३ ॥ जय नवमे सामलतगुणो नेमिस्स दित्तिपब्भारो । आज मदद्द (ड्ढ) वम्महधूमसमूहु व विलसंतो ॥ ४ ॥ * * जेण विहिया उ दसदिसि कलिमलसंहरण सरसरिच्छाओ । दस वरनिज्जुतीओ तस्स नमो भदबाहुस्स ॥ १२ ॥ जणमणवणमंकुरियं झत्ति सुहासारणीइ वाणीए । ज़ेसिं निश्चं तेसिं भद्दं सिरिहरिभद्दसूरीणं ॥ १३ ॥ जस्स गभीरिमजु (जि)त्तो न ज्ज वि जलही चएइ खारतं । तं विविहगंथकारयमहिवंदे हेमचंदपहुं ॥ १४ ॥ रयणायर व कइणो अन्ने वि जयंति जे ते रयणोहं । गिहिय सुवन्नायारा घडंति नवनवमलंकारं ॥ १५ ॥ * अपूर्ण २४४ तमं पत्रं नास्ति । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 211 No I. SANGHAVI Pipi End:सिरिवद्धमाणतित्थे जंबू-पभवाइमुणिगणिंदेसु । सुठिय-सुप्पडिबद्धा गएसु सूरी समुप्पन्ना ॥ ३० ॥ तत्तो कोडियगच्छो गुच्छो विव विविहदी हसाहालो । आबालपयडमहिमा खमाइ सुपरिट्ठिओ जाओ ॥ ३१ ।। गच्छंमि तंमि चउरो दीहरवित्थारफुरियसाहाओ । साहाउ अगाहाओ चउदिसिपसरंतमहिमाओ ॥ ३२ ॥ उच्चानागरि-विजाहरा य वइरा य मज्झिमल्ला य । एयासिए(प)साहाणं को जाणइ सवनामाणि ? ॥ ३३ ॥ विजाहरसाहाए गुच्छा गुच्छ व सुमणमणहरणा । जालिहर-कासहरया मुणिमहुअरपरि[गया] दुन्नि ॥ ३४ ॥ सिरिजालिहरो गच्छो विजयओ(उ) गयणं व जत्थ मुणिनाहो । अहमहमगाइ बहवे पियंति सिद्धंतसरिनाहं ।। ३५ ॥ जाओ तारयराइरेहिरतले गच्छंमि वोमंगणे धम्मज्झाणमणीनिहाणकलसो सो बालचंदो मुणी । अप्पं कम्ममलीमसं पडिदिणं सोहंतओ जो सया उद्धटेहि उवासएहिं अमले तेवे तवं दुत्तवं ।। ३६ ॥ सीसा तस्स जयंतु सकसरिसा मोहं महापवयं तिक्खेणं चरणेण घोरपविणा चुन्नं कुणंता सया । लोयाणं गुणभद्दसूरि गुरुणो सारस्सयं सव्वया जच्छंता अमयं सुहम्मनिरया चित्तं खमाए विया ॥ ३७॥ तेसिं पट्टपओनिहिम्मि कमलाबंधू मणी निम्मलो सव्वाणंदगुरू असेसजुगई जंघालकित्तीभरो। जं काउं हियइकबद्धवसहिं संतो समंता सिरी पव्भारं पुरिसुत्तमत्तमहुणा के के न पत्ता मया ? ॥ ३८ ॥ वयणाउ जस्स निग्गयमणेयविबुहाण विहियमणहरिसं । . अमयं व सायराओ चरियं सिरिपाससामिस्स ॥ ३९ ॥ सिरिधम्मघोसपहुणो अकलंकससंकसरिसमाहप्पा । सीसा तस्स अदोसा कोसा नाणे(गा)इरयणाणं ॥ ४० ॥ रेणुकरेणुन्हाया जलिं(लं)जलिं जत्थ दिति दुक्खाणं । तं ताण चरणकमलं अउव्वतित्थं सया सरिमो ॥ ४१ ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 212 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS तप्पयपइटिएहिं कई हिं स(सि)रिदेवसूरिनामेहिं । पउमप्पहस्स पहुणो चरियं रइयं कयच्छरियं ॥ ४२ ॥ वेय-सर-सूर-पर((रि)मिय १२५४ वरिसे निवविक्कमस्स वरिसाओ। मग्गसिरसुद्धदसमी तिही य वारंमि तह रविणो ॥ ४३ ॥ रेवइनक्खत्तगए हिमकिरणोवरि भीमभीमस्स । चालुकवंसमणिणो नवरजे रजसमयंमि ॥ ४४ ॥ सिरिवद्धमाणनयरे ठिएण पज्जुन्नसिद्विवसहीए । सिरिपउमप्पहचरियं पडिपुन्नमिमं मए विहियं ॥ ४५ ॥ समणोवासग[विद्धय(?)लक्खणअज्झ(ब्भ)त्थणा इहं पढमं । जाया मज्झ पवित्ती पउमप्पहचरियनिम्माणे ॥ ४६ ॥ जं सिद्धंतविरुद्धं लक्खणहीणं च जंपियं इत्थ । तं खमउ मज्झ सव्वं सुयं च सुयधारिणो चेव ॥ ४७ ॥ जइ वि नवकव्य विसया सत्ती मह नेव समयजलनिहिणो । परमं पारीणत्तं छेव(य)तं नेव उत्तीसु ।। ४८ ।। तह वि मए असमाए पउमप्पहतित्थनाहमहिमाए । पारद्धमियं चरियं निविग्धं तह य सम्मत्तं ॥४९॥ कर्तुं न प्रकटा स्फुरन्नवनवप्रौढार्थदृष्टिं मया __नो तत्त्वानि निवेष्टमं(ष्टुम)त्र भगवन् सि(त्सि)द्धांतसिद्धानिव(च)। नैव ख्यापयितुं विधाय चरितं रीतिं विदर्भोद्भवां __ भक्तिं किंतु पुनः पुनर्निगदितुं श्रीपद्मलक्ष्मप्रभोः ॥ ५० ॥ उम्मीलंति निरंतरा स(अ)त्था सहा य जं नवा मञ्झ । तं देविंदगुरूणं पसायमहिमाइ महमहियं ।। ५१ ॥ तनिधीत्य देवेंद्रगुरोः सिद्धांतमादितः। श्रीहरिभद्रसूरिभ्यश्चरित्रं निर्ममे मया ॥ ५२ ॥ अंचइ सासयतित्थे नहलच्छी जाव रिक्ख-कुसुमेहिं । 'ससि-रविवरताडंका नंदउ चरियं इमं ताव ॥ ५३ ॥ जालिहरगच्छनहयलमयंकसिरिदेवसूरिरइयंमि । सिरिपउमप्पहचरिए संमत्तो तुरियपत्थावो ॥ ५४ ॥ इति श्रीपद्मप्रभस्वामिचरित्रं संपूर्ण जातमिति ॥ ७ ॥ Pras'asti of the Donor: संवत् १४७९ वर्षे वैशाषवदि ४ गुरौ । इष्टदेवताभ्यो नमः । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 No I. SANGUAVĪ PĀDĀ ॥ ६० ओं नमः । श्रीमजिनेश्वरविहारविराजमानं सद्धर्मकर्मठजनबजलब्धमानं । सौवश्रिया प्रतिहतान्यपुराभिमानं __ ख्यातं हडाग्रनगरं जयति प्रधानं ॥ तत्रौन्नत्यविशेषशालिनि गिरिप्राप्तप्रतिष्ठे शुभ___ च्छायापर्वशतप्रशस्तविभवे प्राग्वाटवंशे ध्रुवं । लाषाहः प्रबभूव मौक्तिकमणिः सद्वृत्तभावं श्रितः श्रीमान् सज्जनमंडनं शुचिरुचिश्वासादिदोषोज्झितः ॥ तमोविजेतुः पुरुषोत्तमस्य सुदर्शनश्रीकलितस्य तस्य । पद्मासना भोगविलासदक्षा प्रिया गुणादयाऽजनि लक्ष्मीदेवी ॥ तत्तन्निर्मलधर्मकर्मनिरतो धर्माभिधानस्तयोः संजातस्तनयः प्रशस्यविनयः श्रीमान निरस्तानयः । आश्चर्य प्रतिपद्य विप्रतिकलं साकल्यनैर्मल्यभाग् यस्य स्पष्टमदीप्यतामृतरुचिनिःशेषनश्यत्तमाः ॥ ४ ॥ षष्ठाष्टमादिकविचित्रतपोविधानव्यावर्णनास्य ननु गुप्यति कामभिख्यां ? । संसारसागरतरंडमखंडभावः संसारतारणकृतं कृतवान् तृतीयः ॥ श्रीमान् वयस्थो दयितान्वितोपि ब्रह्मव्रतं वत्सरपंचविंशति । स एष यावन्व(?)धिकं प्रपालयन न विस्मयं कस्य मनस्यवीविशत ? ॥ श्रीशक्रस्तवपंचकादिविधिना वारां चतुर्विंशति नत्वा नो जिनवंदनं प्रतिदिनं यावद्भवाभिग्रहात् । सम्यक् तस्य सुधीः शतत्रयमिति यो राजतैष्टंककै रंतर्मोदकमाहितैर्विहितवानुद्यापनं पुण्यवान् ।। ७ ।। इमं सतीचक्रशतक्रतू रतरतृतुपन्निस्तुपशीलभृत्प्रिया। गुणा यदीया हृदयंगमाः सतां श्रयंत्यजस्रं श्रवणावतंसतां ॥ ८ ॥ इतश्च । श्रीमत्तपोगणनभांगणभास्कराणां सिद्धांतवारिधिविगाहनभास्कराणां । श्रीदेवसुंदरगुरूत्तमपट्टभाजां श्रीसोमसुंदरसूरीश्वरसूरिराजा ॥ ९ ॥ पीयूषदेश्यामुपदेशभारती निशम्य सम्यक्श्रुतभक्तिभावितः । ग्रंथं स लक्षद्वयमानमात्मनः पुण्याय धन्यः स्वधनेन लेखयन् ॥ १० ॥ सोम-वसु-मनु १४८१ मितेब्दे श्रीचित्कोशे व्यली लिखन्मोदात् ॥ ११ ॥ त्रिभिर्विशेषकं । . Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 214 Pattan CATALOGUE OF Manuscripts यावद् व्योमातपत्रे ग्रहमणिखचिते मेरुसौवर्णदंडे श्रीधर्मस्याधिभर्तुमति वरनभोरत्ननीराजनेयं । तावत् तत्त्वार्थसार्थामृतरसजलधि दतात् स्वस्तिशाली ग्रंथोयं वाच्यमानः सहृदयहृदयानंदकंदांबुदश्रीः ॥ १२ ॥ __ श्रीः शुभं भवतु । ३४७. क्रियारत्नसमुच्चय by गुणरत्नसूरि. प. २१२ ग्रंथाग्रं ५७७८ Colophon: संवत् १४९२ वर्षे श्रीपत्तननगरवास्तव्य सं० साडाभार्याकामलदेसुत सं० कर्मणेन भार्यामांईयुतेन स्वश्रेयसे स्वधनव्ययेन तपाश्रीसोमसुंदरसूरिगुरूणामुपदेशेन श्रीताडे क्रियारत्नसमुच्चयो लेखितो विबुधैर्वाच्यमानं चिरं नंद्यात् ॥ जयानंदसूरीणां सत्कं । ३४८. (१) औपपातिक (सूत्र). प. १-३०, ३२३०४२३" ___ (२) औपपातिकवृत्ति by अभयदेव. प. ३१-११७ End: चंद्रकुलविपुलभूतलमुनिपुंगववर्धमानकल्पतरोः । कुसुमोपमस्य सूरेगुणसौरभभरितभुवनस्य । निःसंबंधविहारम्य सर्वदा श्रीजिनेश्वराहस्य । शिष्येणाभयदेवाख्यसूरिणेयं कृता वृत्तिः ॥ अणहिलपाटकनगरे श्रीमद्रोणाख्यसूरिमुख्येन । पंडितगणेन गुणवत्प्रियेण संशोधिता चेयमिति ॥ ग्रंथानं ३१२५ । शुभं भवतु । Colophon: संवत् १४७३ वर्ष फागणवदि ४ बुधे अद्येह श्रीपत्तने लिखितं । प्राग्वाटज्ञातीयश्रेष्ठिलापाभार्या झबक तयोः । तनुजः श्रेष्ठिधर्माको धर्मकर्मपरायणः ॥ तभार्या रतू धर्मकर्मनिरता। स्वद्रव्यं सप्तक्षेत्र्यां वपन् तपागच्छनायकश्रीदेवसुंदरसूरिशिष्यश्रीसोमसुंदरसूरीणामुपदेशेन श्रीजैनागमं लक्षमप्यलीलिखत् ॥ (३) रायपसेणी. प. १-५४ (४) रायपसेणीटीका by मलयगिरि. प. १-९८ ग्रंथानं ३६५० Pras'asti is left, some portion is gone and hence incomplete, Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PADA ३४९. उपदेशकन्दलीवृत्ति by बालचन्द्र. प. २३६; ३२३४२ ३ ३५०. पार्श्वनाथचरित्र by भावदेवसूरि. प. २ - २५१ २२ ४२ " Colophon: १/ संवत् १४३६ वर्षे पौषशुदि ६ गुरौ श्रीपार्श्वनाथचरितं लिखापितमस्ति । Pras'asti of the donor: श्री अर्बुदाभिधमहीधरपार्श्ववर्ती ग्रामोस्ति नांदियवराभिधया प्रसिद्धः । श्री वर्धमान जिननायक तुंगशृंगप्रासादराजपरिपावितभूमिभागः ॥ तत्रास्ते रणसिंहः सुश्राद्धः श्राद्धधर्मधौरेयः । धार्मिकमतल्लिका सोन्यदैव मशृणोत् सुगुरुवाक्यं ॥ न ते नरा दुर्गतिमाप्नुवंति न मूकतां नैव जडस्वभावं । नवतां बुद्धिविहीनतां च ये लेखयंतीह जिनस्य वाक्यं ॥ निजवित्तस्य साफल्यकृते ज्ञानावृतेभिदे | स ततो लेखयामास श्रीपार्श्वचरितं गुदा ॥ ५ ॥ ६ ॥ 215 The following is further added: - ० वीरा - आन्हसुतेन धार्मिकरणसिंहेन श्रीतपागच्छगगनभास्कर श्री देवेंद्रसूरि तत्पट्टालंकरण श्री विद्यानंदसूरि-तत्पट्टश्रीधर्मघोष- तत्पदृश्री सोमप्रभसूरि तत्प० श्री विमलप्रभसूरि-श्रीपरमाणंद सूरि-श्रीपद्मतिलकसूरि- ३ जगद्विख्यातश्री सो मतिलक सूरि-तत्प० श्री चंद्रशेखरसूरि श्रीजयानंदसूरिचरणकमलचंचरीकाणां सांप्रतं गच्छनायक - भट्टारकप्रभुश्री देव सुंदर सूरिवराणां श्रीज्ञानसागरसूरि - श्रीकुलमंडन सूरि-श्रीगुणरत्नसूरि-महोपाध्यायश्री देव शेखर गणि पं० देवप्रभगणि पं० देवमंगलगणिप्रमुख परिवारसहितानां श्रीसंघ सभासमक्षं व्याख्यानार्थ श्रीपत्तनीयसं० सोमसिंह - सं० प्रथमादिश्रीसंघस्य लेखयित्वा समर्पितम् ॥ 3" ३५१. त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित्र ( प्रथमपर्व सर्ग ६ अपूर्ण ). प. २२१; ३०”×१३” ३५२. निशीथ विशेषचूर्णि ( उदेश १ – १० अपूर्ण). प. ३६०; २७ ४२ " ३५३. पिण्डनिर्युक्तिवृत्ति by मलयगिरि प. १८७६ ३४x२३" ३५४ (१) सूत्रकृताङ्गवृत्ति by शीलाङ्काचार्य प. २८० ३३ ×२ " (२) सूत्रकृताङ्गनिर्युक्ति. प. २८१-३०४ (३) सूत्रकृताङ्ग (मूल ). अपूर्ण ३५५. ओघनियुक्तिवृत्ति by द्रोणाचार्य. प. ३०४-३३२ प. २१३; ३४”×२” Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 216 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS ३५६. (१) आचाराङ्गनियुक्ति. प. १-१४; ३२३"४१३ __ (२) , (मूल). प. १-७५ , टीका by शीलाङ्काचार्य. प. ३६७ Colophon: १४६७ वर्षे आश्विनशुदि १० रवौ पूर्व लिखितं । संवत् १४८५ वर्षे मार्ग वदि २ बुधे त्रुटितं समारचितं । शुभं भवतु । ३५७. (१) व्याश्रयवृत्ति (सं. सर्ग १२-२०) by अभयतिलक. प. १९९; ३४"४२" (२) प्राकृतद्व्याश्रयवृत्ति(सर्ग ८ ) त्रुटितपत्र २००-३२० Colophon: द्वितीयखंडग्रंथानं ८८५८ । सकलग्रंथ १७५७४ । संवत् १४८६ वर्षे श्रीडूंगरपुरे लिखितं लींबाकेन । ३५८. व्याश्रयवृत्ति (प्रथमखण्ड सर्ग १-११). प. २८४; ३३०४२" Colophon:-- __ संवत् १४८५ वर्षे श्रीडूंगरपुरे राउलगइयाण(?)विजयराज्ये श्रावणवदि १५ शुक्रदिने व्याश्रयवृत्तिलिखिता लिंबाकेन । शुभं भवतु । ३५९. (१) स्थानावृत्ति by अभयदेव. प. ३६८; ३२३"४२" (२) स्थानाङ्ग (मूल). प. ३६९-४६८ ३६०. सम्मतिटीका(तत्त्वबोधविधायिनी ). अपूर्ण ३-१८७; २१३०४२" प. ६१-इति तत्त्वबोधविधायिन्यां संमतिटीकायां प्रथम कांडं । ३६१. (१) परिशिष्टपर्व by हेमाचार्य. प. ११९ ग्रंथाग्रं ३५०० Colophon: संवत् १३९६ वर्षे आसोजसुदि १५ शुक्रे अश्विनिनक्षत्रेऽयेह श्रीअणहिल्लपुरपत्तने श्रीपरिशिष्टपर्वपुस्तकं संपूर्णं लिखितं । शुभं । (२) शान्तिनाथचरित्र. ग्रंथा; ४९११ Colophon:-- त्रयोदशे अब्दशतेष्वतिक्रांतेषु विक्रमात । वर्षे सप्तोत्तरे वैशाषस्य...... ३६२. (१) प्रश्नव्याकरण. प. १-७६; ३३"४२३" (२) विपाकसूत्र. प. ७७-१०९ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PADA 217 (३) अन्तकृद्दशावृत्ति. पं. १३५६ प. ११०-१४६ (४) अनुत्तरोपपातिकदशावृत्ति. (५) प्रश्नव्याकरणटीका. पं. ५१०० प. २७२ (६) विपाकव्याख्या. त्रुटित प. २७३-२९६ ३६३. उत्तराध्ययनवृत्ति (सुखबोधा) by नेमिचन्द्रसूरि. प. ३४५; ३३"४२३ Beginning: आत्मस्मृतये वक्ष्ये जडमति-संक्षेपकवि(रुचि)हितार्थं च । एकैकार्थनिबद्धां वृत्तिं सूत्रस्य सुखबोधां ॥ १ ॥ बह्वर्था द्] वृद्धकृताद् गंभीराद् विवरणात् समुद्धृत्य । अध्ययनानामुत्तरपूर्वाणामेकपाठगतां ॥ २ ॥ Epdi इति उत्तराध्ययनटीकायां सुखबोधायां षट्त्रिंशमध्ययनं समाप्तं ॥ अस्ति विस्तारवानुयां गुरुशाखासमन्वितः । आसेव्यो भव्यसार्थानां श्रीकोटिकगणद्रुमः ॥ १ ॥ तदुत्थवैरशाखायामभूदायतिशालिनी । विशाला प्रतिशाखेव श्रीचंद्रकुलसंततिः ॥ २ ॥ तस्याश्चोत्पद्यमानच्छदनिचयसदृक्ताव(?)कर्णान्वयोत्थ श्रीथारापद्रगच्छप्रसवभरलसद्धर्म किंजल्कपानात् । श्रीशांत्याचार्यश्रृंगः प्रवरमधुसमामुत्तराध्यायवृत्तिं विद्वल्लोकस्य दत्तप्र[मद] मुदगिरद् यां गभीरार्थसारां ॥३॥ तस्याः समुद्धृता चैपा सूत्रमात्रस्य वृत्तिका । एकपाठगता मंदबुद्धीनां हितकाम्यया ॥ ४ ॥ आत्मसंस्मरणार्थाय यथा मंदधिया मया । अतोऽपराधमेनं मे क्षमंतु श्रुतशालिनः ॥ १॥ आसीच्चंद्रकुलोद्भूतो विख्यातो जगतीतले । अक्षमारो जितोप्युञ्चैर्यः क्षमारोपितः सदा ॥२॥ धर्मोथ मूर्तिमानेव सौम्यमूर्तिः शशांकवत् । - वर्जितश्चाशुभैर्भावै राग-द्वेष-मदादिभिः ॥ ३ ॥ Further portion is found in the next folio which is not apart. of the MS. 28 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 218 Partan Catalogue or MANUSCRIPTS सुनिर्मलगुणैर्नित्यं प्रशांतैः श्रुतशालिभिः । प्रद्युम्न-मानदेवादिसूरिभिः प्रविराजितः ॥ ४ ॥ विश्रुतस्य महीपीठे बृहद्गच्छस्य मंडनं । श्रीमान् विहारुकप्रष्ठः सूरिरुद्योतनाभिधः ॥ ५ ॥ तस्य शिष्योऽम्रदेवोभूदुपाध्यायः सतां मतः । यत्रैकांतगुणापूर्णे दोपैलेंभे पदं न तु ॥ ६ ॥ श्रीनेमिचंद्रसूरिरुद्धृतवान् वृत्तिकां तद्विनेयः । गुरुसोदर्यश्रीमन्मुनिचंद्र[चार्य]वचनेन ।। ७ ।। शोधयतु बृहदनुग्रहबुद्धिं मयि संविधाय विज्ञजनः । तत्र च मिथ्या दुष्कृतमस्तु कृतमसंगतं यदिह ॥ ८॥ Colophon: संवत् १३१० वर्षे माघशुदि १३ रवौ पुष्यार्के महाराजाधिराजश्रीवीसलदेवकल्याणविजयराज्ये महामात्यश्रीनागडमंडलेश्वरमुद्राव्यापारे अद्येह प्रल्हा(हा)दनपुरस्थितेन ठ: नाग...यष्टिश्रीकुमारसुतजींदडयोग्यमुत्तराध्ययनवृत्तिपुस्तकं लिखितं ॥५ ____अक्षर-मात्र etc. व्यासतुल्योपि यो वक्ता नानाशास्त्रविशारदः । मुह्यति लिखमानस्तु किं पुनः स्वल्पबुद्धयः ? ॥ उदकानल-चौरेभ्यः etc. मंगलं महाश्रीः etc. शुभं भवतु श्रीश्रमणसंघस्य । ३६४. चन्द्रप्रज्ञप्तिटीका by मलयगिरि. प. ३२३"४२३" Beginning: इति श्रीमलयगिरिविरचितायां चंद्रप्रज्ञप्तिटीकायां दशमस्य प्राभृतस्य एकादशं प्राभृतप्राभृतं समाप्त । तदेवमुक्तं दशमस्य एकादशं प्राभृतप्राभृतं । संप्रति द्वादशमारभ्यते । x x x x End: चंद्रे (वंदे) यथास्थिताशेषपदार्थप्रविसारकं । नित्योदितं तमोस्पृष्टं जैनं सिद्धांतभास्करं ॥ १॥ विजयंतां गुणगुरवो गुरवो जिनवचनप्रभासनैकपराः । यद्वचनवशादहमपि जातो लेशेन पटुबुद्धिः ॥२॥ चंद्रप्रज्ञप्तिमिमामतिगंभीरां विवृण्वता कुशलं । यदवापि मलयगिरिणा साधुजनस्तेन भवतु सुकृती ॥ ३ ॥ इति मलयगिरिविरचिता चंद्रप्रज्ञप्तिटीका समाप्ता । मंगलं महाश्रीः । शुर भवतु श्रीसंघस्य । प्रथानं ९५०० श्लोकमानेन यथा । श्रीसीमंधरखामिने नमः । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PADA ३६५. पार्श्वनाथ चरित्र by देवभद्र. See Peterson's 3rd Report प. ३११; २९”×२” End: इति श्रीप्रसन्नचंद्रसूरिपादसेवक श्रीदेवभद्राचार्य विरचितं श्रीपार्श्वनाथचरित्रं समाप्तं । Colophon:— संवत् ११९९ अश्विन वदि रवावहाशापल्यां गौडान्वय कायस्थ कवि सेल्हण - सूनुना पुस्तकं वल्लिगेनेदं लिख्यतेथ समाप्यते । Pras'asti of the Donor: जलधिवलयवेला मेखलायामितायां कलितविपुलशाखः सद्गुणानां निवासः । विततविशदपर्वा संश्रितप्रीतिहेतुर्जितधरणिधरर्द्धिः पत्रशाली विशालः || श्रीमान् प्राग्वाटवंशोस्ति तत्र मुक्ताफलप्रभः । सद्भूषणं शुचिः श्रेष्ठी बकुलः समजायत || चंचचाविंदुरोचिश्चय - हर सिताकार कीर्तिच्छटाभिः सतीभिः समंताद् धवलितवसुधः शुद्धबुद्धेर्निधानं दिकांता कर्णपूरप्रतिमगुणगणः सज्जनानंददायी संतोपापारवारः करणरिपुबलं हेलया यो जिगाय ॥ शीलेन शी (सी) तेव जनौघरंजिका सौभाग्यसंगेन जिगाय पार्वतीं । या क्षांतियोगेन निरासकास्य लक्ष्मीति जायाऽस्य बभूव सा शुभा ॥ सूनुस्तस्याः समजनि सच्छायो विबुधजनमनोहारी | वेल्लक इति विख्यातो नीरनिधेः पारिजात इव ॥ सुविहित पदां भोजे सेवारतिर्मधुपाधिका भुजगकमलासंगे बुद्धिर्मराल कुलोज्ज्वला । अमृतमधुरा सारा वाणी सतां हृदयंगमा विमलमनसो यस्यावश्यं वभूव मनोहरा || चरणचंचुरसाधुकृतादरो गुणगृहं दम-दान- दयापरः । गुरुपदाम्बुरुहप्रणतिः सुधीस्तदनुजोजनि वा (वी) जलनामकः ॥ सद्धर्माभिर तिर्गुणैकवसतिः संतोषपुष्यद्धृतिः ज्ञानाभ्यास रतिर्गृहीतविरतिः सौजन्यवारांपतिः । साधूपास्तिकृतादृतिर्गज गतिर्धीरः प्रसन्नाकृतिः 219 कल्याणव्रततिर्निरस्तकुगतिः प्राणिप्रणुन्नक्षतिः ॥ वीरणागाभिधः पुत्रस्तृतीयः सुगुणास्पदं । जाउकाथ पितुर्जा मिर्भगिन्येषां च वेल्लिका ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 220 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS या शी(सी)तेव कलंकचक्रविकलं शीलं दधाना सती जाता ख्यातिमती सतीति गुणिनां चेतश्चमत्कारिणी । कृत्याकृत्यविवेककारिधिषणा धर्मैकचिंतामतिः सज्जाया शितदेव्यभून्मतियुता सा वेल्लकस्य प्रिया । चाहिणी वाजकस्याद्या पत्नी जाता द्वितीयका । शृंगारमतिराज्ञायां जिनेशस्य व्यवस्थिता ॥ वाजकश्चिंतयामास सारसंवेगसंय(ग)तः । अन्यदा स्फटिकाकारे मानसे शुद्धधीर्यथा ॥ कल्पांतप्रलयप्रवृत्तपवनव्यावृत्तदीपांकुरा कारा प्रीतिरनंगसंगिललनाभ्रूभंगुराः संगमाः । धर्मक्लांतमृगेंद्रवक्त्रकुहरव्यालोलजिह्वाचलं ___ लावण्यं लवलीदलास्य विलसबिंदूपमं जीवितं ॥ शरदभ्रसमाः सर्वे पदार्थाः सुखहेतवः । संत्रासोद्भांतसारंगीविलोचनचलं बलं । माद्यत्कुंजरकर्णतालति रतिः प्रोच्चंडसौदामिनी दामाडंबरति प्रभुत्वमबलाचेतः शरन्मेघति । लक्ष्मीः शक्रशरासनत्यनुकलं संध्याभ्ररागत्यहो! तारुण्यं विषया वरा वरधुनीवेगंति नृणां यतः ॥ तस्मात् संसारवल्लीवलयविर......... ...क्षाभरंभामलनमदकलः काललीलाविजेता। मोक्षस्त्रीसंगदूतीसुगतिपथरथः संपदाह्वानमंत्रो ध्वस्ताशेषव्यपायो निखिलसुखखनिर्धर्म एवात्र कार्यः ॥ प्रभवति स च धर्मो ज्ञानतस्तञ्च शुद्धं...... जिनवचनसरोजाज्जायते सौरभं वा । तदपि सततसेवाहासभावान्न का......द्भिर्विरच्य॥ ततश्च । - कामोरुदावे विषयोरुतृष्णाच्छेदाय धन्यैः प्रतितन्यतेसौ । संसारसत्रे भविता जिनाज्ञा ज्ञानामृतांभःसरसी विलेख्य ॥ विशेषतो युक्तं ज्ञानदानं । यतः समस्तधरणीतले प्रथितकीर्तिकल्लोलिनी विनिर्गमकुलाचलो विमलकेवलालोक... ......शत्रतो वरां न चरणक्रियां विशदयोधपोन विना । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 221 No I. SANGHAVI Pipa 221 मोहध्वांतांशुमाली भववनगहनोत्सर्पिदावानलाभो मानामानागशंगप्रहतिहरिहयोदामहेतीयमानः...... ३६६. (१) पश्चाशक (मूल). प. १-४४ ___(२) पश्चाशकवृत्ति by अभयदेव. प. ४५-३६६ Colophon: संवत् १४४२ वर्षे भाद्रपदसुदि २ सोमे लिखितमिदं पुस्तकं श्रीस्तंभतीर्थनगरे लिखितं ॥ ७ ॥ आभूश्रेष्ठी। ३६७. (१) अनुयोगद्वार (मूल). अं. २००५ प. १-४३; ३२३०४२ (२) , वृत्ति by मलधारिहेमचन्द्र. प. ४४-२२३ Colophon: ग्रंथाग्रं ५८८८ संवत् १४८० वर्षे कार्तिकवदि १२ रवौ महं भीमासुतहरिदासेन लिखितं । शुभं भवतु । कल्याणमस्तु । मंगलमस्तु । श्रीसंघस्य भद्रं भूयात् । Pras'asti of the Donor: ॐ नमः सर्व विदे । पुरंदरपुरस्फाति भाति श्रीपत्तनं पुरं । धर्मन्यायमये यत्र नित्यं लोकः सुखायते ॥ १ ॥ विभाति गांभीर्यगुणेन नानाराजाप्तवृत्तिर्जडभावयुक्तः । राजन्ननेकैः पुरुषोत्तमैः श्रीश्रीमालवंशांबुनिधिर्नवीनः ॥२॥ तस्मिन् समप्रव्यवहारिरत्नमप्रनधामानुपमानकीर्तिः । निर्दूषणः सद्गुणधाम धर्ममयैककर्माजनि कर्मसिंहः ॥ ३ ॥ प्रियास्य गोईत्यभिधा सुधासहग्वचःप्रपंचा समजायताद्भुता । विशुद्धशीलादिगुणैरनुत्तरैर्या सीतया स्वं तुलयांबभूवुषी ॥ ४ ॥ तदंगभूर्भूरिसमृद्धिधामा महेभ्यसीमाजनि मालदेवः । बुधा अबुध्यंत भवांबुधौ यं धनेश्वरस्य प्रतिबिंवमेव ॥ ५ ॥ श्रीगूर्जरेश्वरनियोगिनि रत्नपाले ____तद्ग्राहयत्यपि वलेन जनं समयं । नैकादशीव्रतमधा[यजद् ? ] बहुधा प्रकारे स्तद्भापितोपि दृढदर्शनधीः सुधीर्यः ॥ ६ ॥ अहो ! अनेकैः सुकृतोन्मदैर्जनं सदैकधर्मात्ममयं नयनपि । अनंतधर्मात्मकवस्तुदेशिनो जिनेशितुः शासनमत्यजन या.॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS जगदंतगता विमुक्तवद् ध्रुवमानंत्यजुषोपि यद्गुणाः । ग्रहचक्रमिव स्थिरा अपि क्रममाणाश्च जगत्सु कौतुकं ॥ ८ ॥ श्रीदेव सुंदरयुगोत्तमसेवयाप्तश्रीमज्जिनागमविचारमहारहस्यः । नंदीश्वरस्तवनमु[ग्ध]तरान् नवातीचारांश्च यो निरुपमानमतिश्चकार ॥ ९ ॥ षड् विधान्यहरहः कुरुते स्मावश्यकानि कलिकालविजेता । यो यथोचितमथो धनदानो (नाद् ) दीनलोक मुददीधरदेव || १० || श्रीतीर्थयात्रा - जिनबिंब - साधु - पूजा-प्रतिष्ठादिविधानधीरः । सदापि साधर्मिकवत्सलत्व - दानादिधर्मैरजयत् कलिं यः ॥ ११ ॥ अथवा | संघभारधरणैकधुरीणा धर्मकर्मसु कदापि न रीणाः । नित्य- देव गुरुभाक्तिक चित्ताः क्षेत्रसप्तक नियोजितवित्ताः ॥ १२ ॥ भूतलप्रथितकीर्तिसमूहाः पूरितार्थिजन सर्व समीहाः । भूरिभूतिपरिभूतधनेशास्तेजसावजितबालदिनेशाः ॥ १३ ॥ मर्त्यलोक हित हेतु कमिंद्रप्रेपिता इव दिवः सुरवृक्षाः । पंच तस्य तनया विनयाढ्या भूरिभाग्यविभवा विजयंते ॥ १४ ॥ आसीजनाहादकमूर्तिराद्यः केहाभिधस्तेषु धियां निधानं । प्रभावकालंकरणस्य यस्य दशाप्यशोभंत दिशो यशोभिः ॥ १५ ॥ आस्ते जगत्ख्यातयशा द्वितीयो हीराभिधानो व्यवहारिहीरः । रमांबुधेर्यस्य गुणास्तरंगा इवास्तसंख्या जगतीं स्पृशंति ॥ १६ ॥ सकलव्यवहारिवर्गमौलिवराकः सुकृती सुतस्तृतीयः । कलयत्यधुना प्रपन्नशीलः श्रेष्ठदोरुपमां सुदर्शनस्य ॥ १७ ॥ भक्तः श्रीगुरुपदयोः सदापि धर्माधारः श्री जिनपतिशासनप्रभाकृत् । त्रैलोक्यप्रविततयशा विशां प्रधानं पाताकः समजनि तत्सुतश्चतुर्थः ॥ १८ ॥ सन्नंदकः स्फुटविराजिसुदर्शन श्रीलक्ष्मीविलासवसतिः पुरुषोत्तमोत्र । तस्यांगभूर्जयति पंचमकः क्षमायां गोविंद इत्यभिधया विदितो गुणैश्च ॥ १९ ॥ यौवनेपि दधता किल शीलं येन धीरपुरुषाचरितेन । स्मारितः स्मररिपुः परिभूय स्थूलभद्रमुनिवृत्तमिदानीं ॥ २० ॥ केल्हाभिधानस्य जनी विनीता ख्यातास्ति हर्पूरिति यद्धदुर्व्या । धर्मद्रुमः श्रीगुरु- देवभक्तिरसैः प्रवृद्धः फलतीप्सितौधैः ॥ २१ ॥ चतुरंबुधिचारुकीर्तयोश्चतुराशाजनतामनोमताः । तनुजा मनुजालिमंडनं चतुराः संति चतुर्मितास्तयोः ॥ २२ ॥ 222 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PAPA 223 व्यवहारिवर्गमंडनमखंडदानादिधर्मविधिनिरताः । डाहा भोला मंडन माणिक्येति क्रमाद् विदिताः ॥ २३ ॥ जगदद्भुतसौंदर्ये भार्ये हीराभिधस्य जयतो द्वे । आद्या शाणीनाम्नी हीरादेवी द्वितीया च ॥ २४ ॥ भाग्य-दाक्ष्य-विनयादिगुणाढ्ये ते क्रमेण तनयावसुवातां । आदिमा विजयकर्णसकर्ण भूरिभूतिमपरा च गजाह्नं ॥ २५ ॥ मायादिदोषरहिता दयिता विभाति वीराभिधस्य फलकूरनुकूलचित्ता । या यौवनेपि विमलं प्रतिपद्य शीलं योपासु धैर्यविरहापयशः प्रमा ि॥२६॥ सुतौ तयोर्भाग्यभृतौ विनीतौ प्रभूतभूती गुणभूरभूतां । आद्यः कृती नंदति देवदत्तस्तथा द्वितीयो गुणदत्तनामा ॥ २७ ॥ पाताभिधानव्यवहारिमौलेरुभे अभूतां दयिते विनीते । तत्रादिमा सच्चरितैः पवित्रा पत्रापदेवी रतितुल्यरूपा ॥ २८ ॥ अपरा पदमलदेवी नित्यं श्रीवीतरागभक्तिपरा । तनुजौ मनुजौ च वराविमे क्रमेणासुवातां द्वौ ॥ २९ ॥ श्रीजिनेंद्रपदपंकजभक्तः सर्वदा सुकृतकर्मसु सक्तः।। आदिमो विजयते नगराजः कीर्तिपूरसितशारदराजः ॥ ३० ॥ उदयराज इति प्रथितोपरस्सकलपौरविभूपणमंगजः। जयति देव-गुरूत्तमभक्तिभृन्नरमणी रमणीयगुणालयः ॥ ३१ ॥ गोविंदनाम्नो दयितास्ति गंगादेवी सदा श्रीगुरु-देवभक्ता । न जातु धर्मामृतशीतलं यन्मनः कलिस्तापयितुं समर्थः ॥ ३२ ॥ तयोर्जयंत्यब्धिमिताः सुताः श्रीपदं महाभाग्यभृतो विनीताः । भृताश्चतस्रोपि दिशो यशोभिर्येपामशेपा हिमरुग्महोभिः ॥ ३३ ॥ आद्यो हरिश्चंद्र इति प्रतीतः सूनुर्द्वितीयः किल देवचंद्रः । ततस्तृतीयो जिनदासनामा प्ररूढनामा गुरु-देवभक्तः ॥ ३४ ॥ अथ च । श्रीजैनशासनसमुद्धरणकधीराः श्रीदेवसुंदरयुगप्रवरा विरेजुः । तेषां पदे जनमुदे विहितावताराः श्रीसोमसुंदरगुरुप्रवरा जयंति ॥३५॥ निःशेषलब्धिभवनं भुवनातिशायि माहात्म्यधामभरतोत्तमसंयमाद्याः(ढ्याः) । किं चात्र सर्वगुणसुंदरशिल्पसीमाभूता जयंत्यधिजिनेश्वरशासने ये ॥ ३६ ॥ चत्वारः श्रीमदाचार्यास्तेषां शिष्या जयंत्यमी । एकपादपि यैर्धर्मश्चतुःपादभवत् कलौ ॥ ३७ ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 224 PATTAN CATALOGUE or MANUSCRIPTS शांतिस्तवेन जनमारिहृतः सहस्रनामावधानिबिरुदा महिमैकधाम । तेष्वादिमा विविधशास्त्रविधानधातृतुल्या जयंति मुनिसुंदरसूरिराजाः ॥ ३८॥ षट्त्रिंशता सूरिगुणैरलंकृतास्तथा द्वितीया विजयं वितन्वते । जगच्छु(त्स्तु)ताः कृष्णसरस्वतीति सद्यशःश्रियः श्रीजयचंद्रसूरयः ॥ ३९ ॥ व्यजयंत महाविद्याविडंबनप्रभृतिशास्त्रविवृतिकृतः । श्रीभुवनसुंदरगुरूत्तमास्तृतीया यशोनिधयः ॥ ४० ॥ तुर्या जयंति जगतीविदिता निखिलांगपाठपारगताः । श्रीजिनसुंदरगुरवः प्रज्ञावज्ञातसुरगुरवः ॥४१॥ अ(इ)तश्च । गणाधिपश्रीगुरुसोमसुंदरप्रभूपदेशं विनिशम्य सुंदरं । श्रुतस्य भक्तेरधुना जिनाधिपप्रवर्तमानागमलेखनेच्छया ॥ ४२ ॥ गोविंद-नगराजाभ्यां नंदेभ-मनुवत्सरे । लेखितः पुस्तको जीयादाचंद्रार्क प्रमोददः ॥ ४३ ॥ इति प्रशस्तिः । अनुयोगद्वारवृत्तिः । व्य० गोइंद-नगराजसत्कः ।। ३६८. शान्तिनाथचरित्र (प्रा.) by देवचन्द्रसूरि. . १२१०० त्रुटित प. ३२१; ३३°४२ Pras'asti of the Donor: क्षोणीतलप्रसृतमूल उदीर्णशाखो धमैकहेतुरुरुपर्वपरंपराभूः । श्रीमाननेकगुणभृद्विहितं प्रकुर्वन् प्राग्वाटवंश उदितो विदितोस्ति भूमौ ॥ १ ॥ तद्वंशलब्धप्रभवः पुरासीद् विनिर्गतः सत्यपुरादुदीर्णात् । श्रेष्ठी विशिष्टः किल सिंहनागस्तस्याथ भार्याभवदंपिनीति ॥ २॥ चत्वारोथ तयोः पुत्रा जाताः सर्वत्र विश्रुताः । णाढको वीरडश्चान्यो वर्धनो द्रोणकस्तथा ॥ ३ ॥ कनकरुचि पित्तलामयं बिंब यैः कारितं वरं । यत् पूज्यतेधुनापि दधिपद्रे श्रीशांतिजिनभुवने ॥४॥ णाढकश्रेष्ठिनस्तत्र [ ] वदेवी प्रियाभवत् । त्रयः पुत्रास्तयोर्जाताः सद्गुणाढ्याः पटा इव ॥ ५ ॥ तत्राद्य आम्रदत्ताख्यो द्वितीयश्चाम्रवर्धनः । तृतीयः सज्जनानंददायिमूर्तिश्च सज्जनः ॥ ६॥ येनाकार्यत निर्मलोपल......करशशांकप्रभपार्थे(च) सुपार्श्वतीर्थकरयोमूर्ति यशोवनिजं । Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 225 - No I. SANGIIAvi Pani प्रायः पूरयदौपयाचितशतान्याराधकप्राणिनां ___ श्रीमद्वीरजिनेश्वरस्य भवने मडाकृ(ह)तास्वे(ख्ये) पुरे ॥ ७ ॥ पुग्यौ च पो(णा)ढकस्य द्वे आसिषातां महत्तराः(रे)। यशःश्रीति गणिन्यन्या शिवादेवीति विश्रुता ।। ८ ॥ महुलच्छिः सज्जनस्याथ प्रियाभूत् पद्मिनीसमा । यया स्वपरि[मल]पद्माभातोपिता मार्गणा म(ल)या ॥ ९ ॥ विश्वप्रसिद्धाः कमनीयरूपाः समीहिताः सर्वजनस्य कामं । तयोः सुताः कामसुता इवोच्चैः पंचाभवन् किमु न साधुनिंद्याः ॥ १० ॥ तत्राद्यो धवलो नाम दी(वी)सलो देसलस्तथा । तुर्यों राहडनामा तु पंचमो वाहडो मतः ॥ ११ ॥ धवलस्य सलूणीति प्रियासीदथ चैतयोः । वीरचंद्रः सुतो जातो देवचंद्रस्तथा परः ॥ १२ ॥ विजयाजयराजापसरणमुख्यास्तत्र वीरचंद्रसुताः । जाता हि देवचंद्रस्य देवराजः सुतः प्रवरः ॥ १३ ॥ पुत्रिकैका सिरी जाता धवलस्य कलस्वरा । निरपत्यावभूतां च पुत्रौ वीसल-देसलौ ॥ १४ ॥ राहडस्य लघुभ्राता वाहडोभूजनप्रियः । भार्या जिनमतिश्चास्य पुत्रो जसडुकस्तयोः ॥ १५ ॥ सज्जनस्य तथाभूतां द्वे सुते तत्र शांतिका । माता शुकादि पुत्राणां द्वितीया धाविका पुनः ॥ १६ ॥ अथ तत्र राहडो यो विशेषतः सोभवद् गुणी प्राज्ञः । सुजनप्रियः सुशीलः प्रियधर्मा सर्वदोदारः ॥ १७ ॥ अपि च । सद्वप्रशाला(लो) भुवि नंदनाद्यः (ढ्यः) ससौमनस्योनघपंडरु.... । भव्यस्वभावं च दधदुन्नतात्मा सुवर्णभाग् राजति मेरुवद् यः ॥१८॥ तथा । पूजां करोति विधिना स्तवनं जिनानां साधून स्तुते तदुदितं समयं शृणोति । दानं ददाति च करोति तपोपि शक्त्या शीलं प्रपालयति गहिजनोचितं यः १९ तस्य प्रिया देगतिनामधेया धर्मार्थिनी देव-मुनींद्रभक्ता । ......... पात्रवितीर्णवित्ता नित्यं समाराधितभर्तचित्ता ।। २० ॥ या नित्यशः सहजभूषणभूषितांगी लजानवद्यवसना शुचिशीलचर्या । जैनागमश्रवणभाक्सुवर्णालंकारभृच्छुभवचक्रमुकाट्यवक्त्रा ॥ २१ ॥ 29 Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 226 तथा। PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS चत्वारस्तनया बभूवुरनयोः संपन्नकोशान्वया धर्माभ्यासपराः क्षमाभरधराः प्राप्तप्रतिष्ठाः कलौ । सत्यागा गुरुविक्रमाः सुयशसः सच्छकसाराः प्रजाः पूज्याः सद्विनयाः सुनीतिसदनं संतो नरेंद्रा इव ॥ २२॥ तत्राद्यश्चाहडो नाम वोहडिस्तु द्वितीयकः । आसडाख्यस्तृतीयश्च तुर्यो आसुधरस्तथा ॥ २३ ॥ पापारिप्रहतिसहाः सुबाणयुक्ताः सद्वंशसंजाताः । अन्यारूढगुणा ये धनुर्लता इव विराजते ॥ २४ ॥ राहडश्रेष्ठिनस्तत्र जाता वध्व इमा वराः । अश्वदेवी वसुंधी च चमाइ-तेजय-राजुकाः ॥ २५ ॥ यशोधर-यशोवीर-यशोकर्णादयोभवन् । पौत्री पुत्रश्च येऊ य जासुकाद्या जयंतु का ॥ २६ ।। एवं कुटुंबयुक्तस्य राहडश्रावकस्य तस्याथ । वोहडिनामा पुत्रः पंचत्वमुपागतः सहसा ॥ २७ ॥ अथ तद्वियोगविधुरः स राहडश्रावकः स्म चिंतयति । हा ! धिक् संसारस्वरूपमतिनिंदितं विदुषां ॥ २८ ॥ तथाहि-जीवितं यौवनं सद्वपुः सारसीमंतिनी संगमाः सज्जनाः । सर्वमित्यादिकं वस्तुजातं महामेघमध्यस्थविद्युल्लताचंचलं ॥२९॥ अतो मनुष्येण विधेय एव चतुःप्रकारोपि जिनेंद्रधर्मः । उशंति तत्रापि च सुप्रशस्यं सज्ज्ञानदानं मुनिकुंजरेंद्राः ॥ ३०॥ अतोहं ज्ञानदानं तत् करोमीति विचिंत्य सः । चरितं लेखयामास शांतेबिबं च कारितं ॥ ३१ ॥ स्वभुजोपात्तवित्तेन पूर्व सत्पित्तलामयं । गृहपूजोचितं स्फारं पुण्योपार्जनहेतवे ॥ ३२ ॥ नृपतिगृहमिवोच्चैश्चंचदंतःसुवर्ण निहितरुचिरचित्रं चारुपत्रेण शोभि । ..............अंगीकृतप(ब)हु...जमोदं पुस्तकं तच्चकास्ति ॥ ३३ ॥ संवत्सरे नग-भुजार्कमिते नभस्ये मासे पुरेणहिलपाटकनामधेये । सुश्रावके कुमरपालनृपे च राज्यं कुर्वत्यलिख्यत सुपुस्तकमेतदंग! ॥३४ श्रीमत्परमानंदाचार्येभ्यः श्रीधराः प्रभाचा...... । ..................शिष्येभ्यः ॥ ३५ ॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 227 No I. SANGHAI PADA 227 यावनभःश्री जननीव तोपं पयोधरक्षीरमथ प्रजानां । तनोति तारा-भ-रवी सुपुष्यदन्नांशु तावद् भुवि पुस्तकोयं ॥ ३६ ॥ श्रीचक्रेश्वरसूरेः श्रीपरमाणंदमूरिभिः शिष्यैः । विहिता प्रशस्तिरेषा पदमंते (?) पुस्तकस्यास्य ।। ३७ ॥ मंगलं महाश्रीः । ३६९. संमतितर्कटीका (उत्तरार्ध) by अभयदेव. प. ३३५; ३३३"४१३ Beginning: अथ कथं प्रत्यभिज्ञा प्रमाणमनुभवति ? Colophon: ___ संवत् १४४६ वर्षे फागुणसुदि १४ सोमे भट्टारकश्रीसोमतिलकसूरीणां भंडारे महं ठाकुरसीहेनालेखि । प्राग्वाटज्ञातीयसा० षोषासुतसा० महणाभार्यास० गोनीपुत्र्या विहितयात्रादिबहुपुण्यकृत्यसं० हरिचंदपितृसा० पारसभागिनेय्या वीलुश्राविकया भट्टारकश्रीदेवसुंदरगुरूणामुपदेशेन अभयचूलाप्रवर्तिनी पदस्थापना-श्रीनीर्थयात्राद्यर्थ समागतसं० हरिचंदेन सह प्राप्तया श्रीस्तंभतीर्थ संवत् १४७७ वर्षे संमतिपुस्तकं लेखितमिति । भद्रं श्रीसंघाय ॥ ३७०. त्रिषष्टिश. पु. चरित( पर्व ३-७,९) by हेमचन्द्र. . प. ३८०; ३२"४२३" Colophon: महंश्रीअभयसिंहस्य । x x सूर्याचंद्रमसौ यावदुदयेते नभोंगणे । पठ्यमानो बुधैस्तावन्नंदतादेप पुस्तकः । मंगलं महाश्रीः॥ ३७१. पउमचरिय ( पद्मचरित्र ). प. २५६; ३६३०४२" Colophon:-- इति पद्मचरित्रं समाप्तमिति । ग्रंथाग्रं १०५०० . संवत् १४५८ वर्षे प्रथमभाद्रपदशुदि ८ अष्टम्यां रवी श्रीपत्तने पद्मचरित्रं लिखितं । श्रीशिवमस्तु । श्रीः । Pras'asti of the Donor: प्राग्वाटज्ञातीयः श्रेष्ठी वीराभिधः सुकृतनिष्ठः । कीर्तिप्रथाप्रथिष्ठः शिष्टप्रष्ठोजनि गरिष्ठः ॥ १॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 228 Partav CATALOGUE OF MANUSCRIPTS प्रभूतपुण्यार्जनसावधानस्तस्यांगजोभूद् वयजाभिधानः । गुणैरनेकैरिह निःसमानः परोपकारप्रध(थ)नैकतानः ॥ २ ॥ माऊसंज्ञा तस्य भार्या विधिज्ञा जज्ञे धन्यागण्यपुण्यप्रवीणा । कीर्तिस्फीता सर्वदोदारचित्ता रेखाप्राप्ता स्त्रीषु शीलोत्तमा च ॥ ३ ॥ चत्वार एते तनयास्तदीया जाता धनाढ्याः सुकृतावदाताः । तेजाभिधो भद्रकभीमसिंहः स पूर्णसिंहो भुवि पद्मसिंहः ॥ ४ ॥ सुता तथा रूपलनामधेया गुणैरमेया शुभभागधेया । यस्याः पितृव्या त(स्त)नुमात्रकेण श्रीमजयानंदमुनींद्रचंद्राः ॥ ५ ॥ आबालकालादपि...पुण्यभरैकताना करुणार्द्रचित्ता । देवे गुरौ भक्तिमती सतीद्धा सदा तपःकर्मणि कर्मठा या ॥ ६ ॥ श्रीमत्तपागणनभोंगणभानुकल्पश्रीदेवसुंदरगुरुप्रवरोपदेशात् । नंदेषु-वारिधि-शशांक[१४५९]मिते प्रतीते संवत्सरे वहति विक्रमभूपतीये ७ श्रीमत्पद्मचरित्रं बहुना द्रविणेन लेखयित्वेदं । श्रीपत्तनीयकोशे निवेशयामास सा सिद्ध्यै ॥ ८ ॥ मोक्षाध्वनीनसाधूनां ज्ञानसत्रोपमं परं । आचंद्रार्कमिदं जीयात् पुस्तकं प्रास्तदूषणं ॥ ९ ॥ श्रीः श्रीः । ३७२. (१) ज्ञातासूत्र. प. १-१४४; ३२°४२ (२) , वृत्ति by अभयदेव. प. १-१२३ Pras'asti of the Donor: अखंडेयः खंडैनवभिरभितः पिंडितवपुः __सुधाकुंडैः कुंभीनससहकृतैमंडित इव । सुरैः सेव्यः सर्वैरविजितजरा-मृत्युचकितैः प्रभुः स श्रीपार्थो जयति नितमां यत्र सततं ॥१॥ उद्दामम्लेच्छकोटिप्रसृमरसमरत्रस्तवृंदारकाणां विश्रामस्थानतां यत् प्रतिपदमगमत् पुण्यलोकैरशोकैः । चंचगंगातरंगोज्वलबहलगुणैर्धाम धर्मश्रियां यत् श्रीमद् घोघाभिधानं सुललितनगरं स्वस्तिमन्नित्यमस्ति ॥ २ ॥ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 229 No I. Sanghaví Pīrā तस्मिन् रमायाः सदने दवीयोदेशस्थवस्तुप्रभुभिः प्रपूर्ण । वेलाकुले भूमितलप्रसिद्ध घोघाभिधाने नगरे समृद्धे ॥ ३ ॥ त्रिभिर्विशेषकं ।। वेधा वीक्ष्य कलिप्रचंडभुजगप्रस्तं समस्तं जगत् तत्राणाय ससर्ज तर्जनपरां यां दुर्जनानां ततः । ज्ञातिं पूर्णमृगांककांतिविशदां श्रीमालसंज्ञामिह __ शश्वद्दाम-विवेकवासभवनं विज्ञानवारांनिधिं ॥ ४ ॥ तस्यां ज्ञातौ बृहत्यामतिमतिविभवापास्तवाचस्पतिः श्री क्रीडागारं गरीयोनरवरनिवहेमाननीयः सदापि । मंत्री मंत्रप्रबलबलवान धुर्यधैर्या दिवर्यः । मांडाह्वानः समजनि जनतासेवनीयोऽवनौ वै ॥ ५ ॥ श्रीयादेवीति तस्यासीद् भार्या भूरिगुणैकभूः । या मान-दान-शीलादिपुण्यैर्जज्ञे प्रसिद्धिभाक ॥ ६ ॥ तयोः सुतावजायेतां विख्यातौ क्षोणिमंडले । सरवण-धींधाह्वानौ प्रधानौ व्यवहारिपु ।। ७ ।। आधः सर्वणनामतः सुविदितो देवालयैः सुंदरां सत्साधर्मिकलोकलमबहलां गुर्वादिभिर्भासुरां । श्रीशजय-रैवतादिषु महातीर्थेपु यात्रां सृजन श्रीसंघाधिपतेः पदं निजकुले विस्तारयामासिवान् ॥ ८ ॥ पादलिप्तपुरेऽपूर्वललताहसरोवरे । उद्धारं यश्चकारोरुद्रविणव्ययपूर्वकः (क) ॥ ९॥ संसारदेवी स्थवि......... ...............लादिवरेण्य पुण्यैः फलेग्रहिः स्वीयजनुः ससर्ज ॥ १० ॥ द्वितीयोऽद्वैतभाग्याभिरामः श्रीमान् धीमान धींधनामाजनिष्ट । यो दुष्काले भूरिलोकानशोकान् सत्रागारे भोजयित्वा वितेने ॥ ११ ॥ पादलिप्तपुरे पद्मप्रासादं यः समुद्दधौ । अन्यान्यपि बहून्येप धर्म[स्था]नानि चाकरोत् ॥ १२ ॥ सरवणसंघाधिपतेस्तनयो विनयोज्वलो गुणविशालः । देवानादि नाम धी(? संघा)धिपतिर्जयति प्रशममतिः ॥ १३ ॥ सद्भाग्य-सौभाग्य-कला-सुशीला दानादिपुण्येषु च धीधुरीणा । अस्यास्ति जाया............रमा परा धि(पि)मलदेवीनाम्नी ॥ १४ ॥ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 230 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS अनयोः सुतसमथ (ध) रो द्वितीयो को हिः मयर...... 1 .ई हस्तिनानि .. .. च गौरी गुणैरासन् ॥ १५ ॥ ..... । । इतश्च । श्रीमत्तपागणनभोगणभासनाची (?)जाप्र... [यु]गोत्तमगुणावलयो जयंति । श्रीदेवसुंदर गुरुत्तमनामधेयाः सूरीश्वरा निरुपम [ ] नामधेयाः ॥ तेषां निरंतरं सम्यक् निशम्य वचनामृतं । १६ ॥ [सद] यो विक्रमादित्यः प्रबुद्धहृदयांबुजः ॥ १७ ॥ [एका ] दशांगीवरसूत्र - वृत्ती: लिलेखयन् लेखयतुल्यलक्षा ( ? ) । अलीलिख...भिमिमां सपु ( प ) त्रां वस्वांगराह्नीं (?) अयनव्ययेन ॥ १८ ॥ श्रीदेवसुंदराचार्यसंतानजत्रतीश्वरौ (रैः) । वाच्यमानः सदा जीयात् पुस्तकः स्रस्तकल्मषः ॥ १९ ॥ ३७३. कुसुममालावृत्ति by म. हेमचन्द्र प. ३८४; ३१x२३" Colophon: ग्रंथाग्रं १३८६८ संवत् १३१३ वर्षे आश्विनमुदि १० शनौ कुसुममालापुस्तकं समर्थितं । Pras'asti of the Donor: ॥ ६० । येन विवजयी जिग्ये लीलया विषमायुधः । स वीरः श्रेयसे भूयाद् भवतां भववरणः ॥ १ ॥ यो लक्ष्मीलनाविलासवसतिर्गाभीर्य सत्वाश्रयो मर्यादा समलंकृतः प्रतिदिनं यो वल्लभानां पदं । चित्रं यज्जडसंगतो न हि सदा वैरस्य दाहप्रदः सोयं गुर्जरसंज्ञको विजयते वंशोऽतिसिंधुर्भुवि ॥ २ ॥ तस्मिन् वंशे विशदयशसा प्रोतविश्वान्तरालः सद्भिर्मान्यः... ३७४. धर्मसङ्ग्रहणीवृत्ति (अपूर्ण). Beginning:— प. १–२५०; ३४”×२” यथास्थिताशेपपदार्थसार्थप्रकाशनं शासनमद्वितीयं । कुतर्कसंपर्कविमूढचित्तप्रवाद्यधृष्यं जयताज्जिनानां ॥ १ ॥ ज्योतिर्ध्वस्ततमस्कांडं प्रकांडं वस्तुदेशिनां । बृहस्पत्यादिखद्योतोद्योतमार्तंडमंडलं ॥ २ ॥ श्री वर्धमानमानम्य प्रमाणं तत्त्वनिर्णये । धर्मसङ्ग्रहणेष्टीका महमाधातुमुत्सहे ॥ ३ ॥ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 231 No I. Sancavi Pāra 231 Colophon: संवत् १४४९.........There are ten verses of Prasasti, but they are damaged. धर्मसंग्रहणीवृत्तिय...धर्मामृतप्रपा । स्व-परांतरंगतृष्णोपशमार्थमलेख्यत ॥ १० ॥ पत्तने पुस्तकं लिखितं । ३७५. (१) ज्ञाताधर्मकथा ( मूल). प. ११९; ३५"४२१" ___ (२) , वृत्ति by अभयदेव. प. १-१०० Colophon: ग्रंथानं ९८३० संवत् १३८६ अश्विनवदि ४ सोमे लिखितमिदं पुस्तकं मंगलं महाश्रीः ॥ ___३७६. (१) जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति (मूल). प. १-९९; ३२"४२" Colophon: जंबुद्दीवप्रज्ञप्ति समाप्ता । शुभं भवतु । संवत् १४७८ वर्षे श्रावणसुदि ५ रवी लिखितं श्रीमदणहिल्लपत्तने । ___ (२) जम्बूद्वीपचूर्णि. Colophon: जंबुद्दीवकरणाण चुण्णी सम्मत्ता । संवत् १४७९ मार्ग. व. ११ (३) सूर्यप्रज्ञप्ति. ग्रं. २२०० प. १-५० (४) , टीका by मलयगिरि. प. १-२३७ Colophon: संवत् १४८१ वर्षे वैशाखशुदि ८ वुधे लिखितं श्रीमदणहिलपत्तने । शिवमस्तु ।। ३७७. आवश्यकनियुक्तिवृत्ति (त्रुटित जीर्ण). प. २५०; ३१३"४२" Beginning: ................मंदशक्तिरपि । आवश्यकनियुक्ति विवृणोमि यथागमं स्पष्टं ॥ ३७८. (१) नन्दीसूत्र (मूल). ग्रं. ७०० प. १-१५; ३१३"४२” (२) , टीका by मलयगिरि. ग्रं. ७७३२ प. १६-२२६ Prasusti same as No 367 "अनुयोगद्वारवृत्ति ३७९. (१) कल्पचूर्णि (अपूर्ण त्रुटित). प. २-८१; ३२"४२३" (२) बृहत्कल्पभाष्य. ग्रं. ६६००; प, २१-२०८ ३८०. सुपार्श्वनाथचरित्र (प्रा०). by लक्ष्मणगणि. प. २७५; ३२३४२१" . Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 232 PATTAN CATALOGUE OF ALANUSCRIPTS .. ३८१. धर्मसङ्ग्रहणीटीका by मलयगिरि. प. ३३९; ३१४२' Colophon: संवत् १४३७ वर्षे अश्विनवदि प्रतिपदतिथौ शनिवारे धर्मसंग्रहणी नाम ग्रंथस्य पुस्तकं लिखापितमस्ति । Pras'asti of the Donor: जैनत्वाव्यभिचारिभावसुभगाः सर्वेपि यस्मिञ्जना स्तस्मिन् धर्म-यशः-समृद्धिविशदे वंशे(शो)पकेशाह्वये । श्राद्धोभून्नरसिंह इत्यभिधया साधुः प्रसिद्धः सुधी___ स्तस्य प्रौढगुणा बभूव नयणादेवीति वित्ताप्रिया ॥ १ ॥ तयोरभूवंस्तनयास्त्रयोमी मूंजाल-माला-महिपालसंज्ञाः । मालाभिधस्तेषु विशेषधर्मी खर्वीकृतद्रोहकमोहगवः ॥ २ ॥ पुण्याय पाणिग्रहे (हणे) निषेधी धीरः सुशीलोत्तमगेहमेधी । जिनेश्वरा दिविशिष्टनित्यानुष्ठाननिष्ठः सुकृतालिपुष्टः ॥ ३॥ साक्षात् तीर्थमिलातले सुविपुले चांद्रे कुले श्रीतपा गच्छे व्योमविभूषणं वितमसस्तेजस्विनोदुवत् । श्रीगच्छाधिपपूज्य सद्गुरुजयानंदाह्वयाः सूरयः श्रीमंतो गुरुदेवसुंदर इति ख्याताश्च सूरीश्वराः ॥ ४ ॥ तेषां गुरूणामुपदेशयोगाद् दानं सदानंदरसानिदानं । विज्ञाय विज्ञो वपते[स्म] सप्तक्षेत्र्यां नयोपार्जितमात्मवित्तं ॥ ५॥ शास्त्रलेखनमिहापि हि सारं ज्ञानसत्रसदृशं यत एतत् । इत्यवेत्य विशदाशयवृत्तिधर्मसंग्रहणिवृत्तिमिमां च ॥ ६ ॥ साधुमल्ल इह लेखयति स्म स्तंभतीर्थनगरे गरिमाढ्ये । भूधराग्नि-जलधींदुमितांके वत्सरेश्वयुजि निर्मलपक्षे ॥ ७ ॥ सुराद्रिदंडस्थितिमिद्धतारामुक्तावलीकं वियदातपत्रं । श्रीसंघराजोपरि यावदास्ते सत्पुस्तकं नंदतु तावदेतत् ॥ ८ ॥ ३८२. पुष्पमालावृत्ति (त्रुटित) by म. हेमचन्द्र. प. १-३११; ३१°४२" ३८३. (१) जीवाभिगमसूत्र. ग्रं. ४७०० प. १-१२३ Colophon: मंगलं महाश्रीः । शुभं भवतु । छ । संवत् १४४४ वर्षे अश्विन वदि ८ बुधे । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 233 No I. Sanghavi PĀNĀ 233 (२) जीवाभिगमवृत्ति by मलयगिरि. (upto सप्तविधप्रतिपत्ति in fol. 351) प. १२४-३७१,३३३४२" ३८४. (१) व्यवहारभाष्य. प.१-१२७ (२) , वृत्ति (अपूर्ण). प. १-२७१; ३०x२" Colophon: संवत् १४७० वर्षे चैत्र वदि ३ तृतीयातिथौ वार रवि पुस्तकं लिखितं समाप्त । सूत्र वृत्ति सर्वग्रंथ सहस्र एकत्र सूत्रांकः । ३८५. उत्तराध्ययनलघुवृत्ति (सुखबोधा अपूर्ण) by देवेन्द्र. प. ३५०; ३०"४२३ Beginning: प्रणम्य विघ्नसंघातघातिनस्तीर्थनायकान् । सिद्धांश्च सर्वसाधूंश्च स्तुत्वा च श्रुतदेवताम् ॥ आत्मस्मृतये वक्ष्ये जडमति-संक्षेपरुचिहितार्थ च । एकैकार्थनिबद्धां वृत्तिं सूत्रस्य सुखबोधां ॥ बह्वद् वृद्धकृताद् गंभीराद् विवरणात् समुदत्य । अध्ययनानामुत्तरपूर्वाणामेकपाठगतां ॥ अर्थातराणि पाठांतराणि सूत्रे च वृद्धटीकातः । बोद्धव्यानि यतोयं प्रारंभो गमनिकामात्रं ॥ ३८६. उत्तराध्ययन (नियुक्ति-चूर्णि-वृत्तिसहित प्रथमखण्ड). प. ३०२, ३४"४२" ३८७. (१) उत्तराध्ययन (सूत्र). पं. २०५६ प.१-४७ ले. सं. १४०० (२) , वृत्ति (सुखबोधा ) by देवेन्द्र. पं. १२००० प. २७६; ३५°४२३ Prasasti of the Donor: नमः सर्वज्ञाय । सन्मर्यादो गभीरो धनरसनिचितः साधुपाठीनहेतु नित्यं लक्ष्म्या निवासः कुलधरनिलयः सद्वसुस्थानमुचैः । कुल्याधारो गरीयान् प्रचुरतरलसत्कोटिपात्रोपशोभी वंशः प्राग्वाटपुंसां क्षितितलविदितो वर्तते सिंधुकल्पः ॥ १॥ तत्राभवद् देवगजोपमानः सलीलगामी बहुदानवर्षः । यो नामतः ख्यातिमितोऽर्थतश्च जने भृशं शोभित इत्युदात्तः ॥ २॥ 30 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 234 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS पारिग्रहिकतां प्राप्तः स्थाने धान्येरकाह्वये । प्रजासु राजवर्गे च मान्यो मन्युविवर्जितः ॥ ३ ॥ सुदंती दंतिनीवाभूद् भार्या तस्येह रुक्ष्मणी । सलीलगमना कामं सुवंशोन्नतिशालिनी ॥ ४ ॥ जातास्तयोस्ततनयात(स्त)नया विनयान्विताः । जनितानेकलोकार्थाः पुरुषार्था इव त्रयः ॥ ५ ॥ तत्राद्यो वीरचंद्राख्यो विख्यातो निर्मलैर्गुणैः । ...तगुरु-देवासेवी वीरदेवाभिधोपरः ॥ ६ ॥ तृतीयः पूर्णपालः श्रीश्रेयसां भाजनं परं । यथाक्रममथामीपां भार्याः सच्चर्ययान्विताः। राजिनीप्रमुखाः सख्यं यासां साध्वीभिरायतं ॥ ७ ॥ पंचाथ पुत्रिका जाताः सुपवित्राश्च...... । पित्रोविनयकारिण्यो वरेण्यगुणराजिताः ॥ ८॥ तत्राविमा बांधवलोकमान्या पैशुन्यशून्या दितमत्यु(न्यु)दैन्या । नाम्ना प्रतीता सरणीति धन्या यशोवता(दा)ता सुतरां वदान्या ॥ ९ ॥ प्रियवाक्यप्रयोगेन प्रीणिताखिलदेहिनः । पासडवणिजः पत्नी श्रावकस्य विवेकिनः ॥ १० ॥ द्वितीया मरुदेवीति गणिनी गुणशालिनी । ज्ञान-दर्शन-चारित्र[गुणत्रयविभूषिता ॥ ११ ॥ सृतीया श्रितसंतोषा संतोषेति सुविश्रुता । यशोमतीरिति ख्याता तुर्या बहुयशोमतिः ॥ १२॥ विनयश्रीरिति ख्याता गणिनी पंचमी जने । मरुदेवीगणिन्यास्तु सदांतेवासिनी परा ॥ १३ ॥ यन्नैर्मल्यं निभाल्येवानन्यतुल्यं निशाकरः । लजितोकस्थलेनांतः कालुप्यं विभ्रते भृशं ॥ १४ ॥ अथान्यदा वाचमुवाच कर्ण सुश्र...(?) सरणी गुरूणां । यथा महार्था जिनभाषिता गीराराध्यमाना विनिहंति मोहं ॥ १५ ॥ निशम्य चैवं संजातबुद्धिर्जिनवरागमं । लेखयितुं सुतं पृष्ट्वा विमलचंद्रनामकं ॥ १६ ॥ द्वितीयं देवचंद्रं च धर्मसंबद्धचेतसं । तृतीयं च यशश्चंद्रं सुकृतन्यकृतांहसं ॥ १७ ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PĀDĀ तैरेव कृतसाहाय्या धनदानेन भूयसा । भगिनीभिश्च संतोषाप्रमुखाभिः सुखेच्छया ॥ १८ ॥ पुस्तकमे तदली लिख दिहोत्तराध्ययन सत्कटीकायाः । प्रांजलपंक्तिविशिष्टं विविक्तरेखाक्षर सोमं ॥ १९॥ सूर्याचंद्रमसौ यावद् यावद् दीपः ससिंधवः । पठ्यमानो बुधैस्तावन्नंदत्वेष सुपुस्तकः ॥ २० ॥ ३८८. उपदेशमालावृत्ति ( कर्णिका ) by उदयप्रभ. त्रुटिता प. २५७, ३३३" ×२३” Beginning: 1 अहं । अहंस्तनोतु भुवनाद्भुतकल्पवृक्षः श्रेयः फलं निविडबोधसुमप्रसूतं । यस्यांत्रिमूलमभितः पतितप्रसूनप्रायाः सुरासुरनगाधिपसंपदोपि ॥ १ ॥ देवः स वः शतमुखप्रमुखामरौघकृप्रप्रथः प्रथमतीर्थपतिः पुनातु । मुक्तिक्रमो न.... ॥ २ ॥ .यस्य कल्पतरवः सर्वेप्युपादानतां । नेत्थं चेत् कथमन्यथा वसुमतीमस्मिन्नलं कुर्वति त्रैलोक्यैकगुरौ न गोचरममी जग्मुर्जगचक्षुषां ॥ ३ ॥ तुंगे भभीममसितीव्रतरेण कर्म्मत्रातं व्रतेन विनिपाय भवाटवीपु । मुक्तावलिश्रियमशिश्रियदात्म.. ॥ ४ ॥ 235 . त्तंसेन हंसेन या । किंजल्कग्रसनप्रसक्तमन[स] स्तस्यैव हेतोः करे कुर्वाणा कमलं सतां भवतु सा ब्राह्मी परब्रह्मणे ॥ ५ ॥ जीयाद् विजय सेनस्य प्रभोः प्रातिभदर्पणः । प्रतिबिंबितमात्मानं यत्र पश्यति भारती ॥ ६ ॥ संघस्याद्भुत पुण्यपण्य विपणौ सा मा....... . पदेश पद्धतिरसौ सा प्रातराशायते ॥ ७ ॥ गाथास्ताः खलु धर्मदासगणिनः सज्जातरूपश्रियः किं चैष स्फुरदर्थरत्ननिकरः सिद्धर्षिणैवार्पितः । तेनैतामतिवृत्त संस्कृतमयीमातन्वतः कर्णिकां वृत्तिं मेत्र सुवर्णकार पदवीसीमाश्रमश्चित्यतां ॥ ८ ॥ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 236 End: - PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS यतः.......... यथाविधिस्तबकघटनादुज्जृंभंते यशांसि तु शिल्पिनः ॥ ९ ॥ कलश (मठ) घनभृतांभोराशिसंवासिसर्पाधिपतिकलित मूर्तिर्नीलनालीककांतिः । सितरुचि - रविराजल्लोचनः केवलश्रीपरिचयचतुरात्मा श्री जिनो वः श्रियेस्तु ॥ १ ॥ श्रीवर्धमानः शमिनां मनांसि जिनो घिनोतु त्रिपदी यदीया । व्याप्नोति विश्व बलिघातकर्म्मजयोदिता विश्वमनश्वरश्रीः ॥ २ ॥ श्री वीरशासन महामहिमा गरिष्ठः श्रीभद्रबाहु विहिताचरणप्रतिष्ठः । काले कलावपि लुप्तघनाघसंघः श्रीमानयं विजयते यतिमूलसंघः ॥ ३ ॥ श्रीनागेंद्र कुले मुनींद्रसवितुः श्रीमन्महेंद्रप्रभोः पट्टे पारगतागमोपनिषदां पारंगमप्रामणीः । देव : संयमदैवतं निरवधिस्त्रैविद्यवागीश्वरः संजज्ञे कलिकल्मषैरकलुषः श्रीशांतिसूरिगुरुः ॥ ४ ॥ शक्तिः कापि न कापिलस्य न नये नैयायिको नायक चार्वाकः परिपाकमुज्झितमतिर्बोद्धश्च नौद्धत्यभाक् । स्याद्वैशेषिकशेमुषी च विमुखी वादाय वेदांति के दांति: केवलमस्य वक्तुरयते सीमां न मीमांसकः ॥ ५ ॥ तत्पट्टे प्रथमः शमिप्रभुरभूदानंद सूरिः परः संजज्ञेऽमरचंद्रसूरिरखिलानूचानचूडामणिः । शश्वद् यस्य सरस्वतीप्रसरणे सिद्धेशितुः संसदि प्राज्ञैश्चेतसि वेतसीतरुरसावाचार्यकं कार्यते ॥ ६॥ सिद्धांतोपनिषन्निषण्णहृदयो धीजन्मभूस्तत्पदे पूज्यः श्रीहरिभद्रसूरिरभवचारित्रिणामप्रणीः । भ्रात्वा शून्यमनाश्रयैरतिचिराद् यस्मिन्नवस्थानतः संतुष्टैः कलिकालगौतम इति ख्यातिर्वितेने गुणैः ॥ ७ ॥ गुरुः श्रीहरिभद्रोयं लेभेधिकवयः स्थिति । मोहद्रोहाय चारित्रनृपनासीरवीरतां ॥ ८ ॥ तत्पट्टे विजयसेनसूरयः पूरयंति कृतिनां मनोरथान् । तद्गवी वृषमसूत नूतना कामधेनुरिव सर्वकामदं ॥ ९ ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGIHAVI PAPA 237 गर्वात् पूर्वमनादरैरवहितैः पश्चात् ततो विस्मितैः प्रस्विनैरनु विस्मृतात्मभिरथो वादेनुवादे क्षणात् । भाग्यैर्मानिमनीषिणां परिणता पुंस्त्वेन वागेष इ त्याक्षिप्तैरथ सेव्यतेथ सहसा यः सादरं वादिभिः ॥ १० ॥ यस्योपदेशममृतोपमितं निपीय श्रीवस्तुपालसचिवेश्वर-तेजपालौ । संघाति(धि)पत्यमसमं जिनतीर्थतेजःसंवर्धनाजितशतक्रतुस्तौ (?) ॥ ११ ॥ श्रीमद्विजयसेनस्य सौमनस्यं नमस्यत । यद्वासिता धृताः कैर्न गुणाः शिष्या सु(श्व ?: स्व)मूर्धसु ? ॥ १२ ॥ शिष्यस्तस्य च लक्षणक्षणचणः साहित्यसौहित्यवा___ नुद्यतर्कवितर्ककर्कशमतिः सिद्धांतशुद्धातुरः । श्रीधर्माभ्युदये कविः प्रविलसदुर्वादिगोत्रे पविस्तामेतामुदयप्रभाख्यगणभृद् वृत्तिं व्यधात कर्णिकां ॥ १३ ॥ तस्याज्ञया विजयसेनमुनीश्वरस्य शिष्येण सेयमुदयप्रभदेवनाना । योग्या विशेषविदुषामुपदेशमाला वृत्तिः कथाप्रथनतोभिनवा वितेने ॥ १४ ॥ प्रथमादर्शे प्रथमानमानसो देवबोधविबुध इमां । स्थपतिरिव स्थापयिता गुरुपु नतोतनुत साहाय्यं ॥ १५ ॥ चांद्रे कुले कलशतः किल सूरिदेवानंदाप्रशिष्यकनकप्रभसूरिनाम्नः । प्रद्युम्नसुरिरुदितः कवितासमुद्रमुष्टिंधयोंबुवदशोधयदेष वृत्तिं ॥ १६ ॥ उत्सेकतोत्सूत्रनिरूपणाद्यैर्याशातना स्यात् तनुतापि काचित् । मिथ्यास्तु मे दुष्कृतमत्र साक्षी श्रीसंघभट्टारक एव तीर्थ ॥ १७ ॥ एकैकेन विमोहशक्यचरणांश्छित्त्वा कपायानिमान दीप्ते भानु-कृशानुधामनि मनश्चैकेन हुत्वात्मनः। मंत्रस्याष्टशतैरितीह जपितैस्तैः पंचभिः सिद्धये गाथामिर्गुरुगुंफिता विजयते जप्योपदेशावलिः ॥ १८ ॥ कल्पाविःकिरणादितो विवरणाद् विज्ञाय विज्ञात्मना मानायादुपदेशपद्धतिमिमामासेवमानो मुदा । लोकाग्रोपरिवर्तिनीमभिमुखीं कुर्वीत वीतान्यधी वृत्तिनिर्वृतिदेवतां शिवपुरीसाम्राज्यकामः कृती ॥ १९ ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS तत्त्वोदित्वर सप्तभूमिक महाप्रासादराजांगणं यावद् भाति जगद्गुरोर्भगवतः तीर्थेशितुः शासनं । सावच्छ्रावक - साधुधर्मविजयस्तंभद्वयालंबिनी वृत्तिर्वदनमालिका विजयतां तत्रोपदेशस्रजः ॥ २० ॥ सेयं पुरे धवलके नृपवीरवीरमंत्रीशपुण्यवसतौ वसतौ वसद्भिः । वर्षे ग्रह-ग्रह- रवौ कृतभार्कसंख्यैः श्लोकैर्विशेषविवृतिर्विहिताद्भुतश्रीः ॥ २१ इत्याचार्यश्री उदद्यप्रभदेवसंघटितायामुपदेशमालायाः कर्णिकायां विशेषवृत्तौ तृतीयः परिवेशः संपूर्णः । ग्रं. ३७१४ एतावता च संपूर्णा उपदेशमालायाः कर्णिकाख्या विशेषवृत्तिरिति ग्रंथ १२२७४ । ५ । ६ ।। प. १–४६; ३४३′×२३” 238 ३८९. (१) चन्द्रप्रज्ञप्ति (मूल). Colophon:-- संवत् १४८० वर्षे फागुणवदि ११ शनौ । ॐ श्रीसीमंधरस्वामिने नमः । ६ । स्वस्ति श्रीः || (२) चन्द्रप्रज्ञसिटीका by मलयगिरि Beginning: End: वंदे यथास्थिताशेपपदार्थप्रविशासकं । नित्योदितं तमोस्पृष्टजैनं सिद्धांतभास्करं ॥ १ ॥ विजयंतां गुणगुरवो गुरवो जिनवचनभासनैकपराः । यद्वचनवशादहमपि जातो लेशेन पटुबुद्धिः ॥ २ ॥ प. १ - २७३ चंद्रप्रज्ञप्तिमिमामतिगंभीरां विवृण्वता कुशलं । यदवापि मलयगिरिणा साधुजनस्तेन भवतु कृती ॥ इति श्रीमलयगिरिविरचिता चंद्रप्रज्ञप्तिटीका समाप्ता । मंगलं महाश्रीः । शुभं भवतु श्रीचतुर्विधसंघस्य ॥ ग्रंथानं ९५०० Colophon: संवत् १४ आषाढादि ८१ वर्षे भाद्रपदवदि १ शनौ । Pras'asti of the Donor :-- ॐ नमः | श्रीश्रीमालकुले तेजा मंत्री वानूच तत्प्रिया । आसंस्तत्तनया मेला - मेघा - सेगाह्वयास्त्रयः ॥ १ ॥ तेषां डाही धर्मिणि कांऊनाभ्यः क्रमादिमाः पत्यः । मेलापुत्रा गोरा-सांईआ - रामदेव - चांगाख्याः ॥ २ ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 239 239 No I. SANGAVI PĀŅĀ इतश्च मेघादयिता धर्मिणिधर्मकर्मठा । घोघानगरवास्तव्यमंत्रीसिंघातनूद्भवा ॥ ३ ॥ कडुआ-धांगाबंधुप्रभृतिकुटुंबान्विता सुधर्मरता । श्रीमज्जैनेंद्रागमभक्तिभरोल्लसितचेतस्का ॥ ४ ॥ तपाधिपश्रीगुरुसोमसुंदरोपदेशतरूयष्ट-दिगिंदु १४८३ वत्सरे । अलीलिखत् स्वस्य हिताय चंद्रप्रज्ञप्तिवृत्तिं वरताडपुस्तके ॥ ५ ॥ श्रीरस्तु । ३९०. आवश्यकनियुक्तिचूर्णि (प्रा०). प. ४०३; ३३४२३" Colophon: __आवस्सगनिजत्तिचुण्णी समत्ता । मंगलमस्तु । संवत् १३६७ वर्षे पोपशुदि सोमे जंघरालायां श्रा। आवडप्रभृतिभिः...... .........श्रेयसे अष्टादशसहस्रप्रमाणमावश्यकचूर्णिपुस्तकं नव्यं गृहीतं ॥ ३९१. भगवतीविशेषवृत्ति by अभयदेव. प. ४३८; ३२°४२" Colophon:___ संवत् १३१८ वर्षे पौपशुदि ९ शनौ श्रीमरुकोटवास्तव्यमा हरियडमुत सा० वि(थि)रपाल तत्तनय......वीर-नेपाभ्यां कुटुंबश्रेयसे पितृष्वसाराल्हीश्रेयोर्थ इह वामनस्थले के......भगवतीवृत्तिपुस्तकं लिपापितं ॥ ३९२. त्रिषष्टि ( दशम पर्व). प. १६८; ३३°४२३" Colophon: संवत् १३७२ वर्ष मार्ग वदि १३ भौमे पुस्तकं लिखितमिदं ॥ ३९३. विशेषावश्यकवृत्ति (द्वितीयखण्ड). प. ३१८; ३५"४२" Beginning: ___ उद्देसु निहिस्सइ पायं सामण्णओ cte. Colophon:-- समस्त ग्रंथाग्रं २८००० शुभं भवतु । संवत् १४५३ वर्षे भाद्रपदवदि १४ गुरौ। प्राग्वाटज्ञातीयव्य० आयाभार्यया श्रा० आसलदेव्या व्य० आकाधर्मसीहवाछा-देवादिपुत्रैः सिवादिपौत्रैश्च युतया तपागच्छनायकश्रीदेवसुंदरसूरिगुरूणामुपदेशेन श्रीपत्तने सं. १४५३ वर्षे श्रीविशेषावश्यकद्वितीयखंडं लेखयति स्मेति भद्रं ॥ ३९४. प्रमेयकमलमार्तण्ड (प्रथमखण्ड). प. २७८; ३६०४२" Colophon: प्रमेयकमलमार्तडः खंडः मं० हींदाभार्यात्रा० पीचूसत्कः । Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS ३९५. उपासकदशादिपञ्चाङ्गसूत्रवृत्ति by अभयदेव. Colophon : पंचानामपि वृत्ति - सूत्र - सर्वानं ११५६९ संवत् १४५५ वर्षे ज्येष्ठशुदि ३ गुरू पंचांगीसूत्र - वृत्तिपुस्तकं लेखयांचक्रे । श्री कायस्थ विशालवंशगगनानित्योत्र जानाभिधः संजातः सचिवामणीगुरुयशाः श्रीस्तंभतीर्थे पुरे । तत्सूनुर्लिखनक्रियैककुशलो भीमाभिधो मंत्रिराट् तेनायं लिखितो बुधावलि मनःप्रीतिप्रदः पुस्तकः ॥ १ ॥ शुभं भवतु श्रीसंघभट्टारकस्य | ५ | ६ || 240 Pras'asti of the Donor: प. २२६; ३३"×२' नमः श्रीसर्वज्ञाय | प्राग्वाटवंश मुकुट प्रकट प्रतिष्ठः श्रेष्ठी बभूव भुवि लाषण इत्यभिख्यः । शीतांशुरश्मिभरभासुरकी र्तिसारैर्यः सर्वतोपि धरणिं धवलीचकार ॥ १ ॥ एतत्पाणिगृहीती साऊरिति विश्रुता विशदशीला । जिनवचनबद्धरंगा या गंगामनुकरोति निजचरितैः ॥ २ ॥ आल्हूरित्यभिधाना सकर्णं जनवर्णनीयगुणनिवहा । अभवत् तयोस्तनूजा जिनादिपूजाविधानरता ॥ ३ ॥ तामुपयेमे सुकृती मंत्री वरो वीरमो विशदबुद्धिः । 'धीसखशतमखधीदाचां पलदेवीप्रसूततनुजन्मा ॥ ४ ॥ सत्पात्रदानसफलीकृतभूरिवित्ता श्रीधर्मकर्मकरणप्रवणैकचित्ता । या स्वैर्विशुद्धचरितैर्विदुषामदोषश्लाघास्पदं समजनिष्ट सत्प्रतिष्ठा ॥ ५ ॥ श्रीमत्त पागणनभोगणसूरसूरिश्री देव सुंदरगुरुप्रवरोपदेशं । श्रुत्वा सुधासममसीमगुणासमाना सा श्रावकाचरणचारुरताथ आल्हू ॥ ६ ॥ मत्वासारतरं धनं धनफलं लिप्सुर्निजश्रद्धया वेदेषूदधि - शीतदीधिति १४५४ मिते संवत्सरे वैक्रमे । लक्ष्मीवैश्रवणातिशायिजनते श्रीस्तंभतीर्थाभिषे गेली लिखदेतदद्भुततमं पंचांगिका पुस्तकं ॥ ७ ॥ आ चंद्रादित्यमेतद् विरचितचतुरानंदसंपद्विशेषं संख्यावद्भिर्मुनी रहमहमिकया वाच्यमानं वितंद्रैः । Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 241 No. I. SANGHAVI PĀDĀ उद्यहुःखातिरेकाकुलनिखिलजगजी[वजी]वातुकल्पं श्रेयःश्रीहेतुभूतं प्रवचनमनघं जैनमेतच जीयात् ॥ ८॥ ३९६. आवश्यकलघुवृत्ति by तिलकाचार्य. प. ३५९+१ ग्रंथसंख्या सर्वामं १२३२५ Prasasti of the Donor: अणहिलपुरमस्ति स्वस्तिकप्रायमूर्त्यां नय-विनय-विवेकच्छेकलोकावरुद्धं । अपरनगरशोभागर्वसर्वस्वजैत्रं वरजिनगृहमालास्वर्विमानोपहासि ॥ १ ॥ श्रीश्रीमालकुलस्तत्र रावाख्यः श्रेष्ठिपोभयत् । नानादानादिसद्धर्मकर्मकर्मठमानसः ॥ २ ॥ तस्य राजलदेवीति जायाऽजायत सद्गुणा । विवेक-विनयप्रह्वा शीलालंकारधारिणी ॥ ३ ॥ सांडा सोमा मेघा भूपति पांचाह्वयाम्तयोः पंच । पुत्राः सुतीर्थयात्राद्यवाप्तसंघाधिपत्यपदाः ॥ ४ ॥ नामस्तवपंचशतीकायोत्सर्गकतत्परः सततम् । सांडाख्यः संघपतिर्विशिष्य तेष्वद्भुतक्रियो जक्षे ॥ ५॥ तेषां सांडादीनां पंचानामपि च पंच पन्योमूः । कामलदेवी सिंगारदेश्व माणिक्यदेवी च ॥ ६ ॥ भावलदेवी पाल्हणदेवी ख्याताः सुशीलतः क्रमतः । श्रीदेव-गुरुषु भक्ताः सद्धर्मकर्मविधौ ॥ ७ ॥ युग्मम् । सांडा-कामलदेव्योस्तनयाः पंचाभवन् क्रमादेते । श्रीधर्मकर्मकुशलाः सम्यक्त्वादोर्गुणैः प्रथिताः ॥ ८॥ मनाख्यः प्रथमस्तेषां धर्मणः कर्मणस्तथा । डाहाख्यश्च चतुर्थोस्ति योधाख्यः पंचमः पुनः ॥ ९॥ पुध्यौ तथा द्वे गुणराजिराजिते पूरीति वापूरिति विश्रुताभिधे । यन्मानसं श्रीगुरु-देवभक्तियुक् श्रीधर्मपीयूपरसेन पूरितं ॥ १० ॥ दयिताः क्रमतस्तेषां विमलान्वय-विनय-शीलसंपन्नाः । । रतनू कांऊ मांई मांकू वाल्हीति नामानः ॥ ११ ॥ मनाकस्य समधरः सालिगश्च सुतावुभौ । धर्मणस्य संघपतेहा-बालाभिधौ पुनः ॥ १२ ॥ डाहाकस्य मांइ आद्या हंसो योधांगजस्तथा । सर्वेप्यमी गुणमणिश्रेणिरोहणभूधराः ॥ १३ ॥ 31 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 242 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS नानाविधान धर्मविधीन सृजन सदा विशुद्धधीः संघपतिस्तु कर्मणः। श्रीज्ञानभक्तिं विशदा हृदा दधद् द्रव्यव्ययेन प्रचुरेण हर्षतः ।। १४ ॥ श्रेष्ठिसाल्हाक-सिंगारदेवीपुत्र्या पवित्रया। मांईनान्यानिशं शुद्धक्रियया प्रिययान्वितः ॥ १५ ॥ श्रीसोमसुंदरगुरुप्रवरोपदेशात् स्वश्रेयसे द्वि-नव-वार्धि-शशांकवर्षे । आवश्यकस्य लघुवृत्तिमलेखयत् श्रीताडीयपुस्तकवरे दृढधर्मभावः ॥१६ पुस्तकेष्वपरेष्वन्ये ग्रंथास्तेनाथ लेखिताः । अयं च वाच्यमानास्ते जीयासुर्विबुधैश्चिरं ॥ १७ ॥ श्रीसोमसुंदरसूरिगुरवो जयंतु ॥ श्री । छ । ठ० वैकुंठ ठ० कंठा । ३९७. (१) सूत्रकृताङ्गवृत्ति (अपूर्ण). प. २८३ Beginning: प्रयोजनादिति समुदयार्थोधुनावयवार्थः कथ्यते । तत्र तीर्थ द्रव्य-भावभेदाद् द्विधा । (२) सूत्रकृताङ्ग (मूल). प. १-४८ (३) , नियुक्ति. प.४८-५४ Colophon: पद्मोपमं पत्रपराप(रंप)रान्वितं वर्णोज्वलं सूक्त-मरंदसुंदरं । मुमुक्षु-भंगप्रकरस्य वल्लभं जीयाचिरं सूत्रकृदंगपुस्तकं ॥ शुभं भवतु । संवत् १४६८ वर्षे ३ शुक्रे अद्येह श्रीपत्तने लिखितमिदं ॥ ३९८. (१) उत्तराध्ययन (मूल). प. १-३५; ३४०४२ " Colophon: ग्रंथानं २००० शुभं भवतु । संवत् १४५२ वर्षे ज्येष्टवदि ८ भौमे । (२) उत्तराध्ययननियुक्ति. अं. ६०७ प. ३६-४२ (३) , चूर्णि . प. १-४४ (४) , बृहद्वृत्ति (द्वितीयखण्ड) by शान्त्याचार्य. प. ४५-२४८ Colophon: संवत् १४५२ वर्षे अश्विनशुदि १ प्रतिपत्तिथौ रविदिने श्रीउत्तराध्ययनबृह द्वृत्तिपुस्तकं लिखितं ॥ ग्रंथानं १८००० । छ । शुभं भवतु ॥ छ । ३९९. (१) आचाराङ्ग (मूल). ३४३"४२" (२) , वृत्ति by शीलाङ्काचार्य. पं. १२००० प. ३५१ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 243 No I. Sanghavi PĪDĀ 248 Colophon: संवत् १४५० वर्षे भाद्रपदवदि १ शुक्रे रेवत्यां पुस्तकं लिखितं ।। सद्धर्मव्यवहारिदेसलसुतः ख्यातः क्षितौ सर्वतः प्राग्वाटान्वयमंडनं समभवन्मेघाख्यसंघाधिपः । जाया मीणलदेवी नाम विदिता तस्य प्रशस्याशया पुत्री पुण्यवती तयोर्गुणवती स्याणीति संज्ञाभवत् । सम्यग्दृग् नरसिंहगांधिकसुतः श्रद्धालुवर्गाप्रणीः जज्ञे गागलदेविसूर्धणिगाह्वानः प्रधानः सदा । जाया याजनि तस्य शस्यचरिता पुण्यक्रियाप्रत्यला नित्यं श्रीजिनपूजनैकरसिका दानादिबद्धादरा ॥ श्रुत्वा श्रीगुरुदेवसुंदरमहाधर्मोपदेशं तया वर्षे विक्रमतो नभा-शर-नदीनाथेंदु १४५० संख्ये स्वकं । द्रव्यं भूरि वितीर्य पुस्तकमिदं सुश्रेयसे लेखितं नित्यं नंदतु वाच्यमानमनधैर्मेधाविभिः साधुभिः ॥ शिवमस्तु श्रीः। ४००. आचाराङ्गटीका (त्रुटित अपूर्ण ) by शीलाङ्क. ___ प. १०१-३५४; ३३"४२ ४०१. (१) परिशिष्टपर्व. Paper MS. प. १-११९, २१३०४२३ Colophon: संवत् १३९६ वर्षे आसोजसुदि १५ शुक्रे अश्विननक्षत्रे अद्येह श्रीअणहिलपुरपत्तने श्रीपरिशिष्टपर्व पुस्तकं संपूर्णमलेखि । (२) शान्तिनाथचरित्र by अजितप्रभसूरि. प. १-१७९* Colophon: संवत् १३८४ वर्ष अश्विनिशुदि १३ सोमे अद्येह श्रीश्रीमाले बृहद्गच्छीयश्रीवादींद्रदेवसूरिसंताने श्रीविजय...नसूरिशिष्यश्रीमाणिक्यसूरिशिष्यश्रीधर्मदेवसूरीणां शिष्यैराज्ञापरिपालकैः श्रीवयरसेणसूरिभिः साध्वीमत्सुंदरि विजयलक्ष्मी सा. पद्मलच्छि सा. चारित्रलक्ष्म्या अभ्यर्थनया स्वश्रेयोर्थ श्रीशांतिनाथचरित्रं सर्वेषामाचार्योपाध्यायप्रमुखसाधूनां वाचनार्थं पठनार्थमलेखि लिलिखे लिख्यते स्म लिखितं । उदकानल etc नंदतु श्रीशांतिनाथस्य चिरकालं यावत् पुस्तकं ॥ * १४-११८ पत्राणि न सन्ति । Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 244 Pattax CATALOGUE OF MANUSCRIPTS ४०२. कथावली. प. ३०७, ३४°४२" Beginning: ॐ नमः सरस्वत्यै । नमिऊण नाइ(हि)जणियं देवं सरस्सइ-गुरूण माहप्पा । विरएमि चरियसारं कहावलीमबुहसुहबोहं ॥ १ ॥ धम्मत्थ-काम-मोक्खा पुरिसत्था ते अ सुत्तिआ जेहिं । पढममिह बेमि ते चिय रिसहेसर-भरहचक्कि त्ति ॥२॥ End:___ ग्रंथानं १२६०० संवत् १४९७ वर्षे वैशाषवदि १२ बुधे अद्येह श्रीस्तंभतीर्थे महं मालासुतसांगालिखितं ॥ ७ ॥ ४०३. कथावली (द्वितीयखण्ड ) by भद्रेश्वरसूरि. प. ३०२ Beginning: बंभदत्तचकवट्टिकहानकं प्रारभ्यते । हरिवंसउन्भवअरिहनेमिजिण-भणिस्समाणपासजिणाणं च विचाले बारसमो बंभदत्तचक्कवट्टि त्ति कहा भण्णइ । सागेए नयरे...... End: भवविरहसूरि त्ति गयं । भणियाउ य कहाउ रिसहाइजिणाण वीरचरिमाणं । तत्तित्थकाहाहिं समं भवविरहो जाव सूरि ति ॥ ७ ॥ इय पढमपरिच्छेओ तेवीससहस्सिओ सअट्ठमओ । विरमइ कहावलीए भद्देसरसूरिरइउ त्ति ॥ ७ ॥ ७ ॥ इति कहावली...कस्य द्वितीयं खंडं समाप्तं । ७ ॥ संवत् १४[९७] । ४०४. श्रेयांसचरित्र (प्रा.) [by देवप्रभसूरि]. प. २३७; ३०"४२३" Beginning: जस्संसत्थलकुंतलवल्ली सउणाण वल्लहा स[ह]इ । सुमणोरम्मा सिवफलहे ऊ सो जयइ पढमजिणो ॥ पडिवज्जतो वि सया कलंतर नेह जस्स मुहवितूं (?) । पावइ चंदो नंदउ सिरीनिवासो स सेयंसो॥ End:__एवं ग्रंथाग्रमेकादशसहस्रसंख्यमिति । इति श्रीश्रेयांसचरितं समाप्तमिति । एत्थ त्थि चंदगच्छो चंदो व भवं अहो करेमाणो । उत्तमसत्तरिसीहिं सहिओ असवन्नपुग्नभरो॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 245 245 No I. Sangavi PĀDĀ तत्थ य सूरीण परंपराए सिरिअभयदेवसूरि त्ति । विद्दलियवाइदप्पो उप्पन्नो गणहरो वाई ॥ जेण चउरासीवायविजियसंपत्तजयपडाएण । वायमहन्नवगंथो निम्म विउ(ओ) कित्तिगंथो व ॥ तयणु धणेसरसूरी जातो जेणं निरीहपहुणा वि । भोजनरिंदसभाए गहिया वायंमि जयलच्छी ॥ अह अज(जि)यसिंहसूरी अहेसि जेणं धरित्तु वयसुद्धं । घोरं विसयप(पि)वासा-पिसाइया सुट्ठ निग्गहिया ॥ तो वद्धमाणसूरी सुदुद्धरखमाभरुबहण दक्खो। दिकुंजरो व गरओ आसि दिसापावियपइट्टो ।। ठवियं च तेण सिरिदेव-चंदप्पह त्ति सूरिजुगं । सप्पहप्पयासणे जेण सूर-चंदाइयं भवण ।। ताणं च मन्नणिज्जो मुणिवसहो सिस (स्स)लद्धिसंपन्नो। आसी कुलभूसणगणी गच्छधुराधरणधोरेओ ।। जस्सित्थ पउमहत्थो कप्पदुमपल्लवो व जाण सिर । जाओ ते सध(च)विया वलियगीवाए लच्छीए ॥ अह सिरिभद्देसरसूरिगणहरो आसि जस्स चरिएण । लोउत्तरेण अज वि रोमंचिजंति अंगाई। जावज्जीवं एगंतरोववासिम्स [जस्स देसणया।] सिरिउजयंततित्थं सजणसचिवेण उद्धरियं ।। जस्स य आएसेणं संतुयसचिवेण सज्जणे गं व ।। वडउदयं(रं)मि विहिया सवित्थरा गम्यरहजत्ता ।। तत्तो पालियतिखग(क्खग्ग)खग्गधारासरिच्छवय चरिओ । सिरिअजियसिंहसूरी जाओ सबाइसाइगुणो ।। जेणं अविसंगयागमत्थं आगामिणं सुगंते ।। भुवणे ण कस्स चित्तं चमक्कियं दुकहस्सावि ? ॥ तेसिं सिरिभदेसरसूरीहिं पाविओ नियपयंमि । सिरिअजियसिंहसूरीहिं पुण समत्थाण अत्थाणं ॥ वागरण-तक-साहित्त(च)-छंद-सिद्धंत-जोइसाईणं । पारं वच्छलवसेण लंभिओ कालमाणेण ।। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 246 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS सिरिदेव[प्पहसूरी] संजाओ तत्तबिंदुपमुहाई । विहियाई पगरणाई जेण जणाणुग्गहट्ठाए ॥ निम्मविओ वित्तेहिं जेण प्पमाणप्पयासतको य । तेणं च्छणचंदुजलम(मा)हप्पगुणमणिनिहाणस्स ॥ अब्भत्थणाए सिरिसिद्धसेणसूरिस्स सिस्सरयणस्स । भत्तस्स सिरिजिणेसरसूरिस्स य सबविजस्स ॥ अणहिल्लवाडयपुरे रइयं सेजंससामिणो चरियं । साहज्जेणं पंडियजिणचंदगणिस्स सीसस्स ॥ लिहियं च पढममेयं गणिणो सिस्सेण विमलचंदेण । ईहतेणं समाणमत्तणो पुण्णपन्भारं ॥ छ । Colophon:सं. १४७० माघवदि ९ बुधदिने पुस्तकं भादाकेन लिलिखे । ४०५. विशेषावश्यकलघुवृत्ति. प, २७५; ३३३"४२" Beginning: कयपवयणप्पणामो वुच्छं चरणगुणसंगहं सयलं । आवस्सयाणुओगं गुरूवएसाणुसारेणं ॥ १॥ प्रोच्यते ह्यनेन जीवादयोऽस्मिन्निति वा प्रवचनं । End: परमपूज्यजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणकृतविशेषावश्यकप्रथमाध्ययनसामायिकभाध्यस्य विवरणमिदं समाप्तं ॥ छ । सूत्रकारपरमपूज्यश्रीजिनभद्रगणिक्षमाश्रमणप्रारब्धा समर्थिता श्रीकोट्टाचार्यपादिगणिमहत्तरेण श्रीविशेषावश्यकलघुवृत्तिः । Colophon: संवत् १४९१ वर्षे द्वितीयज्येष्टवदि ४ भूमे श्रीस्तंभतीर्थे लिखितमस्ति ॥॥ चैत्रवदि १२ शनौ प्रभाते मंडितं । ४०६. (?) भाष्य (अपूर्ण). प. ४८-११७ ४०७. स्याद्वादरत्नाकर (परि. ५-६ अपूर्ण). प. ३४१; ३३३"४२३" प. २२९-इति शास्त्रवार्तासमुच्चयसमुल्लासनपूर्णचंद्रश्रीमन्मुनिचंद्रसूरिपादपद्मोपजीविना श्रीदेवाचार्येण विरचिते स्याद्वादरत्नाकरे प्रमाणनयतत्त्वा'लोकालंकारे विषयस्वरूपनिर्णयो नाम पंचमः परिच्छेदः । ग्रंथानं ७२८४ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PĀNA 247 247 End: यः शब्दोम्वय-व्यतिरेकाभ्यां वाचकत्वेन दृश्यते । स तस्याथः (र्थः) यथा गवाविशब्दानां सानादिमदादयो.......... एकवचनस्रीशब्दस्य परिभापितोर्थोऽस्ति । दृश्यते त्वागमे लोकरूढ एवार्थे स्त्रीशब्दः इत्थीओ जं... The original Ms from which the present manuscript is copied seems to have been much damaged as the copyist las left out many lines. ४०८. योगशास्त्रविवरण ( द्वादशप्रकाश ). ले. सं. १२७५ प. ३६५* ४०९. भगवती (मूल). प. ४३४; ३३३"४२३" Pras'asti of the Donor: श्रीद्वादशांगहिमरश्मिसमुद्रसुल्याः कल्याणपंकजविकासनभानुभासः । अज्ञानदुस्तरतमोभरदीपिकामा विश्वं पुनंतु किल वीर जिनस्य वाचः ॥१॥ सम्यक्सम्यक्त्वसिंहाक(१)तसुकृतिमनःकंदरः स्थैर्य सारः प्रस्फूर्जत्कीर्तिचूलो विनय- नय-शमामूल्यरत्नाभिरामः । दानाद्युद्दामधर्मप्रवरवनवृतः श्रीसमिद्धः पृथिव्या मास्ते प्राग्वाटवंशस्त्रिदशगिरिरिवानेकसत्कृत्यशंगः ॥ २ ॥ योऽचीकरन्मंडपमात्मपुण्यवल्लीमिवारोहयितुं सुकर्मा । ग्रामे च संडेरकनाम्नि वीरचैत्येऽजनि श्रेष्टिवरः स मोखूः ॥ ३ ॥ मोहिनी नाम तत्पत्नी चत्वारस्तनयोत्तमाः। यशोनागो धर्मधुर्यः वागधनः शुद्धदर्शनः ॥ ४ ॥ प्रल्हादनो जाल्हणश्च गुणिनोऽमी तनूभवाः । वाग्धनस्य गृहिण्यासीत् सीतू सम्यक्त्व-शीलभाक् ॥ ५ ॥ तत्कुक्षिभूरभूत् पुत्रश्चांडसिंहो विशुद्धधीः । सद्धर्मकर्मनिष्णातो विनयी पूज्यपूजकः ॥ ६ ॥ . पंच पुत्र्योऽभवन् खेतू मूंजला रत्नदेव्यथ । मयणल-प्रीमले सर्वा निर्मला धर्मकर्मभिः ॥ ७ ॥ इतश्च । वीजाभिधोऽभवन्मंत्री खेतूनाम्नी च तत्प्रिया । तत्पुत्री गौरदेवीति धर्मकर्मसु सोद्यमा ॥ ८ ॥ * ३२१ क्रमाङ्केन सह सम्बद्धं ज्ञायते । Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 248 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS तामूढवांश्चांडसिंहस्तत्तनूजा गुणोज्वलाः । आद्यः पृथ्वीभटो धीमान रत्नसिंहो द्वितीयकः ॥ ९ ॥ वदान्यो नरसिंहश्चतुर्थमल्लस्तु विक्रमी । विवेकी विक्रमसिंहश्वाहडश्च शुभाशयः ॥ १०॥ मूंजालश्चेत्यमीषां तु कल्याणाय कृतोद्यमा । स्वसा खोखी रता धर्मे पत्न्यश्चैषां क्रमादि[माः] ॥ ११ ॥ प्रथमा सूहवदेवी सूहागदेव्यथापरा । निपुणा नयणादेवी प्रतापदेव्यथो मता ॥ १२ ॥ भादला चांपलादेवी पूर्वाचारपरायणा । आसां च पुत्राः पुत्र्यश्चाभवन भाग्यभरांचिताः ॥ १३ ॥ श्रेष्टिनो या ध(वाग्ध)नस्यैते दे(वं वं)शे वृद्धिमुपेयुषि । श्रीरत्नसिंहसूरीणां पार्श्वे शुश्राव देशनां ॥ १४ ॥ पेथडः प्रवराचारः प्रयुक्तो निजबंधुभिः । जनकस्य सदा भक्तो रक्तो धर्मगुणार्जने ॥ १५ ॥ दानं धनस्योत्तममस्ति लोके ज्ञानात् पुनस्तत् कथितं जिनेंद्रैः। तत्रापि सिद्धांतसमं न ज्ञानं दानं तु तस्यैव महत् प्रधानं ॥ १६ ॥ इत्याकर्ण्य स गौतमस्य वदनांभोजेषु भुंगावलि कल्पं चैवमलीलिखत् भगवतीसूत्रं सटीकं मुदा । श्रीसिद्धांतविचारसार............. ...........................श्रेयसे पेथडः ॥ १७ ॥ वेद-याण-हुताशेंदुमिते विक्रमवत्सरात् । ......पुस्तकव्याख्यानं कारयामास यः पितुः ॥ १८ ॥ तिग्मांशौ युवराजतां सचिवतामारोप्य जीवे कवौ छाया-क्ष्मासुतयोः पुरा वनपदं सल्लेखकत्वं बुधे । राज्यं तारकपत्तियुक् प्रकुरुते ...दक्षजे...... ...............प्रकाशं सतां ॥ १९ ॥ Colophon: संवत् १३५३ वर्षे अयेह वि(वी)जापुरे श्रीसोमतिलकसूरिभिः श्रीभगवतीसूत्रपुस्तकं व्याख्यातं चार्चितं पं० हर्पकीर्तिगणिना ॥ ७ ॥ ७ ॥ शुभं भवतु श्रीसकलसंघस्य ॥७॥ ४१०. धर्मविधिवृत्ति (त्रुटित) by जयसिंह. प. २५८, २९४२" Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PADA 249 Beginning: ए । धम्ममहामहिमुद्धरिउमिच्छणो ज...विहियसत्तसिरो। दाउं साहेजं पिव उवढिओ सहइ भुयगवई ॥ इय इट्टदेवयाकित्तणेण निद्दलियविग्घसंदोहं । उवएससारमणहं फुडक्खरं किं पि जंपेमि ।। End: अथ कविरात्मनो गुरुकुल.........यितुमाह । आख्यायैनं विविधसुखदं धर्ममहत्प्रणीतं सर्वानर्थप्रहतिचतुरं यन्मया पुण्यमाप्तं । तेनैतेषां भवभयभयाभिद्रुतान............ .............................. ॥ १ ॥ व्योनीवातिमहीयसि स्फुटलसत्सोमे न तारेत् त्वयो (?) __ चांद्रे संयमिनां बभूव शशिवत् सद्वृत्तताशोभितः । सूरिः सर्वजनप्रमोदजनकः..................... ................................... ..॥ ...त् रभरभराकृष्टिर्तुर्यो (?) यशस्वी सूरिः सिद्धांतवेत्ता दितमदनसदोभूद् यशोदेवसूरिः । सम्माद् द्रव्यकुशेशयोष्णकिरणादांतोत्पथप्रस्थिते ........................ । ...............न क्रियावन्मतः स्वःप्रस्थानविधावबुद्धिविभवोप्यभ्यर्थितस्तैरसौ। तब्धस्य परोपकारकृतये सद्धर्म वि...व्याख्यप... ख्यातस्याल्पमतिप्रयो......... किं तु रचिता..................यावजिनेंद्रोदितो धर्मो विश्वमिदं च तावदखिलपापक्षयानंदतात् ।। शब्दपारायण-च्छंदः-काव्य-सिद्धांतकोविदैः । शोध्येयमुररीकृ......... ............॥ ..................धीमता । लिखितेयं पुस्तके प्रथमं ललामलिपिसुंदरा ।। द्विसहितचत्वारिंशच्छतयुक्तैकादशसहस्रीयं । श्लोकानां धर्मविधिवृत्तिप्रथस्य म......॥ ... . ... . . 32 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 250 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTO .. Pras'asti of the Donor: ...............णनिचिततनुष्ठकुरः पूर्णपाल: रुक् माता भावसारं जिनपतिगदिते दत्तचित्ता सुधम्र्मे । भार्या भूखवर्यप्रणयरतिगृहं रुक्ष्मिणी............ ...............सुकृती ठकुरो माहवाख्यः ॥ २ ॥ बंधुजनकुमुदविकसनकी ही च दुःखदाहस्य । सूहदेवी कांता तस्याभूञ्चंद्रमूर्तिरिव ॥ ३ ॥ पुत्रस्तयोरस्ति ........... ४११. नेमिनाथचरित्र (प्रा०) by रत्नप्रभसूरि. प. २७७, ३१४१३" Beginning: जयइ निरंजण-निश्चल-निम्मल--निस्सीम-निस्सम-सरूवा । सालोयालोयविलोयलोललीला नवा हि(दि)ट्ठी ॥ पल्लवियपुधरंगो कयभवविक्खंभविब्भमो जयइ । राइमइनेहनडियनट्टावयसेहरो नेमी ॥ जस्स सयमुरगराओ विरेहए आगउ व रक्खाए । सो पासनाहसासयसुहनिहिकलसो जए जयइ ।। विन्भमरहियसमुन्नयसमिसरलासोयतिलयपुन्नागं । भवतत्वतण(?)सिद्धत्थनंदणं सेवह सया वि ॥ उसभाइणो जिणिंदा जयंति जे भरह खित्तउत्तिन्ना । वयववसहकमविसुद्धा सिद्धिखले अक्खया जाया ॥ सइसुक्कपक्खिसेवियपयकमला वसमई हियप्पगुणा । पयडुत्तरंगसंगा तित्थेससरस्सई जयइ ॥ सुकइकए कवरसं घडिमालाए सुद्धरंति छ । फलिहक्खमालाकला सा जयइ सरस्सइदेवी ॥ चडइ सुतुंगचंगे गुरुवंसे कित्तिणट्टिया जस्स । नर-सुर-असुरसहाए स देवसूरी गुरू जयइ । सो कवरसो नधो सिज्झइ कस्सह कइस्स जंमि सुए । सजण-दुजणवत्तं सुवन-दुवमयं होई ॥ तं कथं जं नवं सा भजा जा पइस्स सुहसना । ते सुयणा जे खलयणखलीकया नो खलु खळंति ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... . No I. SANGHAVI PADA 251 End: सिवसुहरसस्स सिद्धी असेसदुरियावहारवरमंतो। सयलरसाणं परिसये जयइ सिरिनेमिचरियमिणं ॥५ गुरुसरिसकुलो मयरोहसोहिओ सत्तरंगआभोगो । इह अस्थि वडगच्छो पारावारो विव अतुच्छो ।। सुमहेदेउ पवित्तो अमयमउ(ओ) विहियकुवलयाणंदो । सिरिमुणिचंदमुणिंदो पवणचंदो व तत्थासि ॥ नियगच्छसराउ पमायपंकिलजलाउ नीहरिउ(ओ) । पत्तपरिवारजुत्तो जसपरिमलभरभरियभुवणो । आरद्धसुद्धधम्मरम्मणुट्टाणलट्ठमयरंदो । जो केण पउमो व मत्थयए एत्थ न हु धरिउ(ओ) ? ॥ नियमइमाहप्पाउ पारीकाऊण विवरिऊणेव । जेण विउसाण विहिया कम्मप्पयडी सुपयत्था ।। णेगंतजयपडाया उवएसपयाणि सत्थवत्ताउ । सह(ड्ड)सयरग(धम्म)विंदूभयाइणो विवरिया लेण ॥ सिरिदेवसूरिसुगुरूहिं तस्स सीसाहिएहिं सूरिपयं । दसदिसिपसरियजसभरेहिं तमलंकियं सुचिरं ॥ सिद्धसिरोमणिजयसिंघरायपुरउ(ओ) सहाए विबुहाण । थीनिवाणे साहिय पहावियं पवयणं जेहिं ॥ जेहिं भुवणेकमित्तेहिं भारह खेत्तयमखिलं पि। किरणेहिं व णेगेहिं पभासियं सूरिपवरेहिं ।। अणहिण(ल)वाडपुरंमि कारविओ साहुथाहडेणमिमो । जेहि सिरिवीरनाहो पइटिओ पउमहत्थेण ॥ सिरिभदेसरसूरी निवेसिओ तेहिं नियपटुंमि । पसमाइगुणग्गामेण जो जए ताण पडिच्छंदो । अह देवसूरिआणाए दिक्खिया विजयसेणसूरीहिं । . लहुएहि भाउगेहिं जे सुत्तिसुहापवाहेहिं ॥ उहावणविजाइसु जेसि नीसेसकजेसु । जाया गुरुणो सिरिदेवसूरिणो सइ पसायपरा ॥ सिरिरयणप्पहसूरीहिं तेहिं जम्मफलमहंतेहिं । आएसाओ अणुभावओ य दोण्हं पि सुगुरूणं ॥ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 252 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS सिरिभदेसरसूरीमाणसाणंदनंदिसिद्धिकए । नागउरं जवडा (?) णं विसेसउ पच्छया एया ॥ सिरिनेमिचरियमेयं वजरियं निविडजडमईहिं पि । बुहहिययाइं हरिस्सइ पइगुणसोहग्गसंगाओ । साहेजं सोहिं कयं कयंमित्थ गंथंमि । नयकित्तिबुहेणं पुण विसेसओ सोहणाईहिं ॥ सिरिदेवभहसूरीहिं सूरिसद्दे सु...हिं सुकइहिं । परमपसायाणुग्गहपरेहिं परिसोहियं एयं ॥ सिरिभद्देसरसूरी संतिप्पहसूरिपभिइणो णेगे। बंधुसिणेहेणेयं वित्थारियं किं चोजं ? ॥ बारसतित्तीसुत्तरवरिसे दीवूसवंमि पुग्नदिणे । अणहिल्ल[नय]रे एयं समत्थियं वीरभवणंमि ॥ ५॥ इति श्रीरत्नप्रभसूरिविरचिते श्रीमदरिष्टनेमिचरिते षष्ठः प्रस्तावः । ७ । Colophion: संवत् १४७० वर्षे आसो सुदि षष्ठी गुरौ तपागच्छि श्रीसोमसुंदरसूरिंगच्छनायकः । श्रीस्तंभतीर्थे सह[ज]समुद्र[ग]णीना भंडारी लिखापित । पुस्तकग्रंथानं १३६०० शुभं भवतु । ४१२. चन्द्रप्रभखामिचरित्र by हरिभद्रसूरि. २९४२" Beginning: सहलियसयलसुयासो सुवाणिओ रायहंसकयतोसो। विलसिरसुहओ उसहजिणो जयइ जिह सरओ॥ सुहहेउमित्तमंडलउदओ पियपावओ जयपसस्सो । हेमंतु व जिणिंदो दुहा वि चंदप्पहो सहइ ॥ कमलवणप्पडिवक्खो पहियासुहदाणफुरियपयमहिमो। हवउ तणुतावहारी सिसिरो इव पास जिणइंदो । भमरहियसुमणसीसम-असोग-पुन्नागदावियसमिद्धी । सिरिवद्धमाणसामी वसंतसमउ व दिसउ सुहं ॥ End: निययमहिमातिरोहियचिंतामणि-कामघेणुमाहप्पो । चवीसहमजिणिंदो जाओ सिरिवद्धमाणपहू ॥ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI PADA 258 तत्तित्थंमि य कोडियगणंमि विउलाए वइरसाहाए । चंदकुलंमि य चंदुज्जलंमि वडगच्छगयणससी ॥ तरणि व गरुअतेओ सयंभूरमणु व पत्तपरमदओ । हंसो ब विमलपक्खो सुरगिरिरिव लोयमज्झत्थो । लच्छी-कलाकलावासमाणमेहाहिं सच्चवियणामो । जाओ पत्तपसिद्धी भयवं जिणचंदसूरि त्ति ॥ वियसंतकुमुयकमला नियनियपुह विभु(बु)हच (भ)वकयतोसो। तस्सासि दोन्नि सीसा रयणीयर-सहस्सकिरण छ । तत्थ य सुरसो विरइयपरप्पबंधा वक(?)धरणिनाहु छ । सिरिअम्बएवसूरी गुणरयणमहोयही पढमो ॥ अणवरयधम्मकम्मोवउत्तचित्तो वि निश्चमपहरणो । कयकरणायारो वि हु अविहियरायट्ठिइविसेसो ॥ बहुसमओ वि अमओ पावियउदओ वि पत्तजलसंगो। बीओ विणेयरयणं अहेसि सिरिचंदसूरि त्ति ।। पसरियजसपडहारवनच्चावियकित्तितरुणिरयणस्स । असरिसगुणमणिनिहिणो पहुणो सिरिचंदसूरिस्स ॥ चउवीसइजिणपुंगवसुचरियरयणाभिरामसिंगारो। एसो विणेयदेसो जाओ हरिभद्दसूरि त्ति ।। इच्चो य । सिरिमालपुरुभवपोरुयाडवंसे सु...वाणिओ सगुणो। मुत्तामणि श्व निन्नयअमिहाणो ठकुरो आसि ॥ अह पयडीहोउ सिरीदेवीए कहियभाविअञ्च(ब्भु)दओ । सो सिरिमालपुराओ पत्तो गंभूयनयरीए । तत्थ य तग्गेहमहासरंमि विलसंतविउलकमलंमि । पायडियकुमुयवणरायमंडलोवचियपयविहवे ॥ पसरंतगंधसिंधुरघडाहिं वग्गंततुरयघट्टेहिं । कस्स न जणेइ विम्हयमणेगसो उदयवित्थारो ? ॥ बंधुमइणाह अणहिल्लपुरे वणरायनिवइनीएण । विजाहरगच्छे रिसह जिणहरं तेण कारवियं ॥ तत्तो विचित्तनयपत्तकित्तिपसराओ रयणनिहिणो छ । बहुसंख-सुत्तिसुहओ जाओ लहरो त्ति दंडवई ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 254 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS वग्गंततुरयघट्टस्स विंझगिरिसन्निवेसपत्तस्स । समग्गगहियकुंजरघडस्स तह निययपुरसमुहं ।। आगमिरस्स रिऊहिं तग्गयगहणूसुएहिं सह समरे । जस्सेह विंझवासिणिदेवी धणुहम्मि अवइन्ना ॥ ता पत्तसत्तुविजएण तेण सा विंझवासिणी देवी । पणयजणपूरियासा ठविया रु(सं)उत्थलग्गामे ॥ अह लच्छि-सरस्सईओ सद्धम्मगुणाणुरंजियाओ छ । जस्सुज्झियईसाउ मुंचंति न संनिहाणं पि ॥ तह सिरिवलो वद्धो वित्तपडो जेण टंकसालाए । संठविओ लच्छी उण निवेसिया सयलमुद्दासु ॥ सो चालुक्कसिरिमूलराय-चामुंडरायरजेसु । वल्लहराय-णराहिवदुल्लहरायाणमवि काले । निश्चं पि एक्कमंती जाओ पजंतचरियचारित्तो। सिरिमूलरायनरव इरजालयंकुरो वीरो॥ तस्स उ सिरि-सरस्सइदेवीण पुढो पुढो निवास ध । दो पुरिसपुंडरीया जाया वसुहाए विक्खाया ॥ तत्थ य निहणियदोसो पयडियकमलोदओ दिणयरो ब । सिरिभीमएवरज्जे नेढो त्ति महामई पढमो ॥ वीओ उ सरयससहरनिम्मलगुणरयणमंदिरमुदारं । निययप्पहापअ(अह)रियतरणी विमलो त्ति दंडवई ॥ अह भीमएवनरवइवयणेण गहीयसयलरिउविहवो । चड्डावल्लीविसयं स पहुवलद्धं ति भुंजतो ।। दह्ण तियसभवणारोहंतपसत्थजंतुनिस्सेणिं । सिरिनंदिवद्धणावरणाम अब्बुयगिरिंदमिमं ॥ नणु विविहसं विहायणघरमुत्तिमतित्थमवि इमो सिहरी । इय जइ इमस्स उवरिं कारिजइ उसहजिणभवणं॥ ता कयकिञ्चं मने सजीवियत्वं बलं च लञ्छि च । इय चिंतंतो सिविणे अंबाएवीए भणिओ सो ॥ जह भद्द ! सुंदरमिमं चिंतियमिय हिययइच्छियं कुणसु । तुझ बिइज्जा होउं करिस्समहयं पि साहेजं ॥ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 255 No I. SANGHAVI PADA सिरिभीमएवनरवइ-नेढाण वि पत्थुयत्थुवएसं । वियरइ देवी तक्खणमह सो तेहिं वि अणुनाओ ॥ सिरिरिसहबिंबविणयरउज्झोइयमज्झमूसियपडायं । सुविभत्तवि(चि)त्तसालं जिणसासणभणियनीईए ॥ पयडीहोउं अंबएवीउवइट्ठसंनिवेसंमि । अब्बुयगिरिणो उवरिं जिणभवणमिणं करावेइ ।। अह नेढमहामइणो सिरिकन्नएवरजंमि । जाओ निजयसधवलियभुवणो धवलो त्ति सचिविंदो ।। तत्तो रेवंतकयप्पसायसंपत्तउत्तिमसमिद्धी । धणुहाविदेवयासंनिहाणनिनउवसग्गो । जयसीहदेवरज्जे गुरुगुणवसउल्लसंतमाहप्पो । जाओ भुवणाणंदो आणंदो नाम सचिविंदो । तस्स ससिविमलसीलालंकारविरायमाणसव्वंगी। गुरुविणय-पणयवच्छल्ल-धम्मकम्माणुरत्तमणा ।। अहवा समगजयकयविम्हयगुणरयणपरममंजूसा । पउमावइ त्ति णामेण विस्सुया पिययमा जाया । अह सिद्धराय-सिरिकुमरवालएवावणिंदतिलयाणं । पुत्त-भरतारविहुरियमिव द₹णं पुहइवीढं ॥ आणंदमहामइणो तणओ जयसुकयसंचएण व्व । वयगरण-स्सिरिगरणारंभमहाभारधुरधवलो ॥ जयसीहएव-सिरिकुमरवालनरनायगाण रज्जेसु । सिरिपुहइवालमंती अवितहनामो इमो विहिओ ॥ अह निन्नयकारावियजालिहारयगच्छरिसह जिणभवणे । जणयकए जणणीए उण पंचासरयपासगिहे ॥ चड्डावल्लीयंमि उ गच्छे मायामहीए सुहहेउं । अणहिल्लवाडयपुरे कराविया मंडवा जेण ॥ ......जो रोहाइयवारसगे सायणवाडयपुरे उ संतिस्स जिणभवणं कारवियं मायामहवोल्हस्स कए । ता अब्बुयगिरिसिरि नेढ-विमलजिणमंदिरे करावेउं । मंडयमइश्वजणयं मज्झे पुणो तस्स ।। Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 256 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS व(वि)लसिरकरेणुयाणं सर्वसपुरिसुत्तमाण मुत्तीओ। विहिउं च संघभत्तिं बहुपुत्थय-वत्थदाणेण ॥ निश्चं पि महामइणो तेण कयत्थो कओ धुवं अप्पा । अह सविसेस सजणणी-जणयप्पाणं सुकयरुइणो । निरुवमसरस्सईवरपहावउवलद्धवंछियत्थस्स । अवितहअभिहाणस्स स्सिरिपुहईवालसचिवस्स ॥ अब्भत्थणाए सिरिचंदसूरिगुरुनाममंतमाहप्पा । संमाणहिगयसत्थविसेसेण वि अप्पमइणा वि ।। हरिभद्दसूरिणा सव्वदेवगणिविहियसंनिहाणेण । पुवकइंदपरंपरविरइयगंथा वलोएउ ॥ अणहिल्लवाडयपुरे सिरिकुमरनरिंदरजरिद्धीए । सिरिचंदप्पहपहुणो समत्थियं चरियमियं ति ॥ जं किंचि मए अणुचियमुवइह सुझवेह तमसेसं । न हि दिणयरस्स उदए अवयासो तमभरस्स त्ति ।। इय सत्तभवाणुगयं चरियं चंदप्पहस्स जिणवइणो । कहमवि गुरूवएसा जहापइन्नायमुवइढें ॥ अपि च । आचंद्रांबुनिधिप्ररूढयशसः श्रीमन्महासेनभू भर्तुः पुत्रशिरोमणेर्जिनवृजश्चंद्रप्रभस्य प्रभोः । एतन्मुग्धधियाप्यहो ! विरचयांचक्रे चरित्रं मया किंचिद् दिक्षु विसर्पिचंडमहसां स्मृत्वा गुरूणां गिरः ॥ इति । यावदमरगिरिरिह राजति यावच्च शशि-रवी स्फुरतः । सावजीयाञ्चरितं विद्वद्भिर्वाच्यमानमदः ॥ इति श्रीचंद्रसूरिक्रमकमलभसलश्रीहरिभद्रसूरिविरचितं सप्तभवोपनिबद्धं चंद्रप्रभखामिचरितं समाप्तमिति ॥ ग्रंथानं ८०३२ । ७ ॥ संवत् १२२३ कार्तिकवदि ८ बुधे श्रीचंद्रप्रभस्वामिचरितं भोजदेवेन समर्थितं ॥५ ४१३, सिद्धहेमबृहदृत्ति (अ. ३-५) by हेमचन्द्राचार्य. प. १९४+१५० Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No I. SANGHAVI Pipi 257 The work from which this Pras'asti is taken is not known. ............पल्लीवालकुले तत्सुतश्च वीराकः ।। तस्य सुतौ विदितो जगति महणसिंहाख्य-बीजाख्यौ ॥ १ ॥ बीजाकस्य श्रीरिति समजनि भार्या सुतात्रयस्तस्य । ज्येष्ठः कुमारपालो द्वावनुजौ भीम-मदनाख्यो ।॥ २ ॥ आधस्य जायामहणदेव्यामंगभवास्त्रयः। राणिगो वइराभिख्यः पूनाकश्चेति नामतः ॥ ३ ॥ तेषु राणिगपुत्रस्य झांझणस्य तनूद्भवाः । सलषा-विजपालाख्य-नरिया-जेसलसंज्ञिताः ॥ ४ ॥ सलपाकस्यास्ति खींमसिंहसंज्ञस्तनुरुहः । विजपालस्य पुत्रौ द्वौ जयसिंहो गुणैकभूः ॥ ५ ॥ नरसिंहश्च नरियाकस्य श्लाघ्यगुणांबुधेः । भार्यायां नागलदेव्यां जाताः संति सुतास्त्रयः ॥६॥ ते चैते लखमसिंहो रामसिंहश्च गोबलः । सक्रियौदार्य-यात्राद्यैः कृत्यैर्ये सज्जनोत्तमाः ॥ ७ ॥ वंशः प्रौढो भीमस्याजनि कपुरदेविजायायां : मदनस्य सरस्वत्यां देपालाख्यो बभूव सुतः ।। ८ ॥ तस्याथ धर्मज्ञजनालिसीनो भीमस्य निस्सीमगुणांबुराशेः । पुत्राः पवित्राश्चरितैकपात्रं चत्वार आसन् विशदावदाताः ॥ ९॥ तेषामाद्यः पद्मनामा यदीयो धीधाख्योऽभूत सूनुरन्यूनबुद्धिः । धौरेयो यो देव-गुर्वादिकार्ये पूनाह्वानस्तस्य पुत्रोऽधुनास्ति ॥ १० ॥ द्वितीयः साहणो यस्य पौत्रोऽस्ति कद्रुयाभिधः।। तृतीयस्तनयो जज्ञे सामतः संमतः सतां ॥ ११ ॥ तुर्योथ सौवर्णिकवर्णवर्ण्यनुराभिधः सुधापेयलसच्चरित्रः। तस्य प्रिया सूहवदेवीनाम्नी तयोरभूतां च सुतौ गुणाढ्यौ ॥ १२ ॥ प्रथमोऽत्र प्रथमसिंहः पाल्हणसीहो द्वितीयकः सूनुः । तस्य च पाल्हणदेव्यां लींबा आंबाभिधौ तनयौ ॥ १३ ॥ अथ प्रथमसिंहस्य सौवर्णिकशिरोमणेः । प्रिया प्रीमलदेवी ति पुण्यप्रेमपराजनि ॥ १४ ॥ तयोश्च तनयाः पंच सदाचारधुरंधराः। स्वावदातशतैर्भूमिसुस्थिरीकृतकीर्तयः ॥ १५ ॥ सोमा-रतन-सिहाक-साल्हा-डूंगरसंज्ञिताः । तेषु सोमाभिधानस्य सौम्यत्वादिगुणांबुधेः ॥ १६ ॥ 33 Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 258 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS भार्यायां साजणदेव्यां चत्वारः संति सूनवः । सद्गुणा नासण वासा गोधा राघवसंज्ञिताः ॥ १७ ॥ रत्नो द्वितीयोजनि सिंहयुक्तो दानांबुशीतीकृतभूरिलोकः । संघाधिपत्वं विमलाचलादिश्रीतीर्थयात्राकरणाद् य आप ॥ १८॥ प्रियायां रतनादेव्यामस्य पुत्रा गुणाब्धयः । । धनः सायरनामा च सहदेवस्तृतीयकः ॥ १९ ॥ तृतीयकस्तस्य सुतोऽस्ति सिंहाभिधः सुधीरोपत(?)मानमात्रं । गुणाः प्रभूतप्रतिभा-प्रभाद्या व्यधुस्तरां यत्र दृढानुबंधं ॥ २०॥ श्रीद्धजयानंदगुरु-सूरिश्रीदेवसुंदरगुरूणां । सूरिपदमहश्चक्रे येन महान् ख-द्वि-भुवनाब्दे ॥ २१ ॥ तस्य च सहचारिण्यः पुण्याचरणैकमानसास्तिस्रः । सोपलदेवी दूल्हादेवी पूजीति विख्याताः ॥ २२ ॥ अंत्यभार्याद्वयोत्पन्नौ तस्य द्वावंगसंभवौ। आद्य आसधरो नाम नागराजाह्वयोऽनुजः ॥ २३ ॥ तुर्योथ साल्हाभिध आत्मबंधुभक्ति-स्वभावार्जव-धैर्यभूमिः । तस्य प्रिया पुण्यपरास्ति हीरादेवी तयोः सप्त सुताश्च संति ॥ २४ ॥ इह देवराज-शिवराज-हेमराजाश्च खीमराजश्च ।। भोजाख्यो गुणराजो वनराजश्चेति गुणभाजः ॥ २५ ॥ इतश्च । सर्वकुटुंबाधिपतेः सिंहस्यादेशतस्तमालिन्यां । स्तंभनकाधिपचैये भू-चतुरुदधींदुसंख्येऽब्दे ॥ २६ ॥ धनाक-सहदेवाभ्यां चक्रे सूरिपदोत्सवः । श्रीज्ञानसागराख्यानां सूरीणां हर्पितावनिः ॥२७॥ तथा सौवर्णिकश्रेष्ठाश्चक्रुः सूरिपदोत्सवं ।। महा लखमसिंहो रामसिंहश्च गोवलः ॥ २८ ॥ द्वि-वाधि-युग-भूवर्षे प्रीणिताशेषभूतलं । श्रीकुलमंडनात् सूरिश्रीगुणरत्नसंज्ञिनां ॥ २९ ॥ युग्मं । अत्र साल्हाकुटुंबस्य प्रस्तुते नामवर्णने । तस्य स्वजनानामपि किंचिन्नामाद्यलिख्यत ॥ ३० ॥ ततः सौवर्णिकोत्तंससाल्हाभार्या विशुद्धधीः । शीलादिभिर्गुणैः ख्याता हीरादेवीति संज्ञिता ॥ ३१ ॥ सौवर्णिकशिरोरत्नलूंढा-लाखणदेवीजा। शत्रुजयादियात्राभिः पुण्योपार्जनसादरा ॥ ३२ ॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. II Khetarwasi (खेतरवसी) Bhandara, १. शतकचूर्णि. प. १४३, १४"४२" Beginning: सिद्धो निद्रु( )यकम्मो सद्धम्मपणायगो तिजगणाहो । सबजगुज्जोयकरो अमोहवयणो जयइ वीरो ॥ १ ॥ आयरिएण कयं सयपरिमाणनिप्पु(प्प)णणामगं सतगं ति पगरणं तमणुवक्खाइस्सामि । End: बंधमोक्खसरूवं बंधमोक्षार्थमिति शतकचूर्णी समाप्ता ॥ Colophon: संवत् १२३२ वर्षे चैत्रवदि ३ सोमे २. (१) कर्पूरचरित ( भाण ). ग्रं. १९० प. २०; १४°४२" (२) हास्यचूडामणि (प्रहसन). ग्रं. ३७२ प. २०-५१ (३) त्रिपुरदाह (डिम). ग्रं. ६६४ प. ५२-१०३ (४) किरातार्जुनीय (व्यायोग). अं. २८४ प. १०४-१३० ३. (१) वीतरागस्तव by देवभद्र. End: श्रीवीतरागस्तवनादमुष्मात् पुण्यं यदाप्तं भवतांती मे। श्रीदेव! भद्रैकमहानिधाने त्वच्छासने तीव्रतरानुरागः ॥ इति श्रीवीतरागस्तवः संपूर्णः । (२) अनन्तनाथस्तोत्र by देवभद्रसूरि. Beginning: संपत्तनाण-दसण-वीरिय-सोक्खाई जस्स णंताई । तमणंतमणंतमणंतसुहाण करणं संथुणामि जिणं ।। १ ॥ End: सिरिदेवभद्दसूरी पुणा पुणा विण्णवेइ इणमेव । तुह चे[व] गुणा हियए वसंतु मे आभवमणंता ॥ २१ ॥ इति श्रीअनंतनाथस्तोत्रं । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 260 No. II KHETARIVASI (३) स्तम्भनपार्श्वनाथस्तोत्र by देवभद्र. Beginning: लच्छीलीलाभवणं थंभणयपइट्ठियस्स पासस्स । सस्सा पहुणो पयकमलं रायहंस सव(?) सेवियं जयइ ॥ १॥ End: सिरिदेव ! भद्ददायग! नायग! सुरासुरस्स भवणस्स । कुणसु पसायं सामी होज तुम मज्झ पइजम्मं ॥ १६ ॥ श्रीस्तंभनकश्रीपार्श्वनाथस्य स्तोत्रं ॥ (४) न्यायग्रन्थ (?) Beginning:-- सन्यायनगरारंभमूलसूत्रसनाभयः । श्रीनाभेयस्य नंद्यासुदेशनावचनक्रमाः ॥ १॥ ज्ञान-ज्ञेयस्वरूपं यत् कलयत्येकहेलया। त्रैलोक्यमखिलं ज्योतिस्तदाहतमहं स्तुवे ॥२॥ End: अवा...यन्निन तपदार्थगोचरं कालान्तरेपि स्मृतिकारिधारणं । । वदंति विज्ञानमियं त्वनेकधा बह्वादिभेदप्रविकल्पनावशात् ॥ ८० ।। इति प्रत्यक्षः प्रकाशः प्रथमः॥ ४. पूजाष्टक (अनन्तनाथचरित्रोद्धृत ) by नेमिचन्द्रसूरि. प. १५२; १२३४१३ Beginning: जयइ जुगाइजिणिंदो परिविलसिरसमवसरणचउरूवो । वाग..................लतवउ भावणाधम्मो ॥ १॥ सरिउं सरस्सई नमिय गुरुकमे जिणवरिंदपूयमहं । सम्मत्तसुद्धिजणण.... ...........भवाणं ॥ २ ॥ End: धम्मधरुद्धरणमहावराहजिणचंदसूरिसिस्साण । सिरिअम्मएवसूरीण पायपंकयपराएहिं ॥१॥ सिरिविजयसेणगणहरकणिजसदेवसूरिजेटेहिं । सिरिनेमिचंदसूरीहिं भवलोओवएसत्थं ॥ २ ॥ सयमेव कयाउ अणंतसामिजिणरायचारुचरियाउ । पूयट्ठगमुद्धरियं तं नंदउ तिहुयणं जाव ॥ ३ ॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 261 No. II KHETARIN AST 261 पञ्चक्खरगणणाए सिलोगमाणेण एत्थ जायाइं । पूयट्ठगम्मि सयरीसमहिय अट्ठारस सय[ाइं] ॥ ४ ॥ ग्रंथानं १८७० । मंगलमस्तु जिनप्रवचनाय । शुभमस्तु सर्वजगतः ॥ ५. प्रकीर्णत्रुटितग्रन्थसङ्ग्रह. No information in available. ६. मुग्धबोधव्याकरण. प. ९-१६६; १४०४२" ७. कातन्त्रोत्तर (विद्यानन्द) by विजयानन्द. प. १--३१, १२°४२" End:-- . इति विजयानंदविरचिते कातंत्रोत्तरे विद्यानंदापरनाम्नि तद्धितप्रकरणं समाप्तं । दिनकर-शतपतिसंख्येष्टाधिकाब्दमुक्ते श्रीमद्गोविन्दचन्द्रदेवराज्ये जाह्नव्या दक्षिणकूले श्रीमद्विजयचन्द्रदेववडहरदेशभुज्यमाने श्रीनामदेवदत्तजह्मपुरीदिग्विभागे पुरराहूपुरस्थिते पौषमासे षष्ठयां तिथौ शौरिदिने वणिक्जल्हणेनात्मजस्यार्थे तद्धितविजयानंदं लिखितमिति । यथा दृष्टं तथा लिखितं । शुभं भवतु । पं० विजयानंदकृतं कातन्त्रसंबंधि कारक-समास-तद्धितपादपंजिकायाः कातंनोत्तरः। ८. (१) कल्पसूत्र. प. १०६; १५३"४१३ (२) कालकाचार्यकथा by विनयचन्द्र. प. १०७-११० Beginning: देविंदवंदि(विंद)नमियं सिवनिहिसंपत्तिपरमसासणयं । निजियपरमय-समयं नंदउ सिरिवीरसासणयं ॥ १ ॥ अस्थि धरावासपुरे नरणाहो वयरसिंहनामि त्ति । सुरसुंदरी पिया से पुत्तो कालयकुमारो य ॥ २ ॥ End: सिरिरविपहसूरीणं सीसेणं विणयचंदनामेणं । पज्जोवस(सव)णाकप्पो एसो संखेवओ विहिओ ॥ ७८ ॥ ___ समाप्ता कालि(ल)काचार्यकथा ॥ (१) समुद्रमथन (समवकार ). अं. ६१४ प. ४०,४३,१४"४२" (२) रुक्मिणीहरण (ईहामृग ). अं. ५०८ प. ४० १०. (१) उपदेशमाला. १३४"४१३ (२) प्रतिक्रमणसूत्र. (३) अजितशान्ति. Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 262 No. II KAETARWASI ११. (१) उपदेशमाला. प. ७३, १३०४२ (२) क्षेत्रसमास (जंबुद्दीवपगरण). गा. ८७ प. ७४-८६ (३) पिण्डविशुद्धि. प. ८६-१०० (४) नवपदप्रकरण. प. १००-११८ (५) आराधना. प. ११८-१२७ . (६) आउरपचक्खाण. प. १२७-१३१ (७) नवतत्त्व. प. १३१-१३४ (८) कर्मविपाक by गर्गर्षि. गा. १६८ प. १३४-१५७ (९) आवश्यकप्रतिलेखनाप्रकरण. गा. २५ प. १५७-१६१ Beginning: मुहणंतयदेहावस्सएसं etc. (१०) अनन्तकाय. गा.७ प. १६१-१६२ Beginning: पंचुंबरि यउगई etc. (११) प्रश्नोत्तररत्नमाला. प. १६२-१६६ (१२) धर्मलक्षण. प. १६६-१६८ (१३) सम्यक्त्व प्रकरण, गा. १७ प. १६८-१७१ Beginning: चउसहहण-तिभं(लिं)गं दसविणयविसुद्धिपन्नगयदोस । अत्थ-पभावणभूसणलक्खणपंचविहसंजुत्तं ॥ (१४) पचक्खाण. प. १७१-१७३ (१५) गौतमपृच्छा. प. १७३-१८० (१६) श्रावकविधि ( अपभ्रंश ) by जिनप्रभ. प. १८०-१८४ Beginning: वीरजिणिदह पयकमलो पणमिउ परमपवित्तू । , संखेवि सावगकिरिय विहिणा भणउं निरत्तउ ॥ End: इय आगमविहि सावगह पइदिणु किरियासारो । जाणिउ जिणपहि रइ करउ जिव छिन्नउ संसारो ॥ ३२॥ (१७) अजितशान्ति. प. १८५-१९५ (१८) चउसरण, प, १९५-१९९ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Beginning:— (१९) विवेकमञ्जरी. (२०) श्रावकविधिप्रकरण. गा. ३२ (२१) संवेग (? उपदेश) प्रकरण (त्रुटित ). End: १२. (१) उपदेशमाला. (२) स्थविरावली. (३) पिण्डविशुद्धि. Beginning: No. II KHETARIASI सद्देसणमलयानिलमंजरियविसुद्धिभावसहयारो । जयइ जणानंदयरो वसंतसमउ व जिणवीरो | End: प. ५१; १४३”×२” प. ५२-५७ प. ५७-६७ (४) षडावश्यक. प. ६७-९४ (५) धर्माधर्मविचारकुलक by जिनप्रभसूरि. प. ९४ - ९६ अह जण ! निसुणिज्जउ कन्नि धरिज्जउ धम्माधम्मविचार फुडु | जिम जाणिउ जिणपहु मिल्हिउ कुप्पहु पावहु सिवसुहु अभय फुडु ॥ १ ॥ Beginning:— प. १९९ - २१६ प. २१६-२१७ प. २१७-२२२ एवं जाणे विणु मतु हे विणु काय लोअप्प हिउ | आगम अनुसारिहिं जिणपहसूरिहिं धम्माधम्मविचारु किउ || १८ || धम्माधम्मविचारकुलकं समाप्तं । (६) आत्मसम्बोधकुलक by जिनप्रभ. मोक्खमुखे मयामोहं स्वमोहं जाण सासणं । तो कयपणामो हं संबोहं अप्पणी करे ॥ १ ॥ (७) श्रावकविधिप्रकरण. Beginning:— एयं वियाणिऊणं मुंच पमायं सया वि रे जीव ! । पाविहिसि जेण सम्मं जिणपहु- सेवाफलं रम्मं ॥ ३३ ॥ आत्मसंबोधकुलकं समाप्तं । 263 वीरजिनिंदह पयकमलु etc. (८) पश्चात्तापकुलक ( ? अपभ्रंश ). प. ९६-९९ प. ९९-१०१ प. १०१-१०२ प. १०१-१०२ Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 264 Beginning: गुरु न सेवि जंगमतित्थु सुणिउ न आगम-वयणु समत्थु । को विन पाविउ परमपयत्थु हा हा! जम्मु गयु अकयत्थु ॥ १ ॥ धरिउ न पंचमहवय - भारु दाणु न दिन्नु सुपत्तहं सारु । न हुइय न विय गिहत्तु हा हा ! जम्मु गयु अकत्थु || २ || वि दान दिन्नु ससत्तिहिं सीलु न पालिउ परमपयत्तिहिं । वुन विउ न हु भावण भाविय पुहवि - -भार करेवा आविय ॥ ३ ॥ (९) सुभाषितकुलक (अप) by जिनप्रभ. प. १०२ - १०६ Beginning: End: Beginning:— No. II KHETARWASI न्हा (ना) णु निम्मल नाणु सम्मत्तु सिंगारु जीवहं अभउ । सब (च) वयणु तं रोलु इट्ठउ । परदववज्जणु पियलि सुद्ध सील - आभरणु लद्धउ । आरूढ संतोसर हिप्पणु गुरु उवसु । जिणपहु सारहि जो करइ सु लहइ सिद्धि - पवेसु ॥ सुभाषितकुलकं । End: (१०) जीवानुशास्ति. (११) गौतमपृच्छा. (१२) विवेककुलक by जिनप्रभ. धणिणो कविणो जइणो तवस्णिो दाणिणो बहू लोया 1 पर अपनाणिणो पुणा विवेइणो के वि दीसंति ॥ १ ॥ Beginning:--- प. १०६-१११ प. १११-११५ प. ११५ - ११९ इको वि विवेयदीवो सुविसुद्धं जिणपहं पयासेई । तम्हा पन्नवियत्रो सो विवेय सया विसरियव्वो ॥ ३२ ॥ विवेककुलकं ॥ (१३) सम्यक्त्वकुलक. प. ११९ - १२२ सागि गमणं महाविरुद्धं जहा कुलवहूणं । जाहि तहा सावय ! सुसावगाणं कुतित्थेसु ॥ १ ॥ सो धन्नो सु पुन्नोस माणणिज्जो य वंदणिज्जो य । गडुरिगाइपवाहं मुत्तुं जो मन्नए [ ए ]याणं ॥ २४ ॥ सम्यक्त्वकुलकं समाप्तं । Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No II. KHETARWASI 265 (१४) उपशम(क्षान्ति)कुलक. प. १२२-१२३ Beginning: नमिऊण पुव्वपुरिसाण पसमरससुत्थियाण पयकमलं । नियजीवस्स णुसहिँ कसायवसगस्स वोच्छाम ॥१॥ End: एयं खंतीकुलयं दुहमजीवाण सासणं निययं । जो परिभावइ सम्मं सो पावइ पसमवररयणं ॥ २४ ॥ उपशमकुलकं समाप्तं ॥ (१५) दरिसणचउवीसी. प. १२३-१२५ End: इय दरिसणचउवीसी सम्मं नाऊण गुरुसयासाओ। विहिणा पयट्टियव्वं अणुचियचाएण संमत्तं ॥ २४ ॥ (१६) सारसमुच्चयकुलक. प. १२५-१२८ Beginning: नर-नरवइ-देवाणं जं सोक्खं सव्वमुत्तमं लोए। तं धम्मेण विढप्पइ तम्हा धम्मं सया कुणह ॥ १ ॥ End: एमाइ गुरुवइट अणुट्ठमाणो विसुद्धमुणिकिरियं । मुच्चइ नीसंदिटुं(द्धं) चिरसंचियकम्मवाहीहिं ॥ ३८ ॥ सारसमुच्चयकुलकं ॥ (१७) एगूणतीसी भावना. प. १२८-१३१ Beginning: संसारंमि असारे नत्थि सुहं वाहि-वेयणापउरे । जाणंतो विह जीवो न कुणइ जिणदेसियं धम्मं ॥ १ ॥ (१८) अजित-शान्तिस्तवन. प. १३१-१३७ . (१९) भव्यचरित (अप.) by जिनप्रभ. प. १३७-१४२ Beginning: भविय ! सुणउ भवजीवहं चरिउ संखेविहिं मणु नीचलु धरिउ । अत्थि अणाइउ भवपुरनामु मोहराउ तहिं वसइ पगामु । मिच्छदिहि तसु वल्लह वधूअ सयल जीव सा पिययम हूआ ॥१॥ तीणिहि मोहिउ एउ जियलोउ विनडिज्जंतु वि धरइ पमोउ । कह वि न जाणइ धम्माधम्मु भक्खाभक्खु न गम्मागम्मु ॥ २ ॥ 34 Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 266 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS End: मोहह राखिय जीव अणंत जे केइ आविय सरणु भणंत । जिणपहु मेल्हिउ सरणु न कोइ सुगुरु भणइ सयल वि जियलोइ ॥४४॥ इति श्रीजिनप्रभाचार्यविरचितं भव्यचरितं समाप्तं । (२०) भव्यकुटुम्बचरित by जिनप्रभसूरि. प. १४२-१४७ End: चउपइबंधेण इमं भवियकुडंबस्स संतियं चरियं । सेत्तुंजतित्थगएणं सिरिजिणपहसूरिणा रइयं ॥ ३७ ॥ द्रविडीभाषया । (२१) महर्षिस्तव. प. १४७-१५० Beginning: तित्थयरे तित्थाई सव्वे गणहारिणो तहा मुणिणो । समणी सावय सड़ी इय जिणतित्थं सया णमह ॥ End: जो न कुणइ अपमाणं जिणाण आणं जिणाणुवत्तीए । सो निश्च पि अणग्यो संघो भट्टारओ जयइ ॥ ३७ ॥ महर्पिस्तवः समाप्तः। (२२) महर्षिस्तव (बृहत् ). प. १५०-१५६ Beginning: अमरासुर-नरजगडणमयणविजयलद्धजयपडायस्स । होउ तिकालं पि नमो सिरसा सिरिवीरनाहस्स ॥१॥ End: अज वि दीसंति गुरू अज वि दीसंति साहुरयणाई। अन्ज वि सावयसद्दो अन्ज वि धम्मो जए जयइ ॥ ५९॥ बृहत् महर्षिस्तवः समाप्तः ॥ (२३) गौतमचरित्रकुलक (अपभ्रंश). प. १५६-१५९ Beginning: मगहा गोवरगामि वरि माहणि वरु वसुभूई । पुहइनंदणु जग-रयणू गणहर सिरिइंदभूई ॥ हो गोयमगोत्र-पहाणू पढमसीसु वीरजिण गुणगण-रयणनिहाणू ॥ १॥ मज्झिम पावापुरि तउ जग्गताडि सुइ सारु । अहमाणि समसरणि गउ पंचसय सपरिवार ॥ हो गोयम २ ॥ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. II KHETARWASI तिहिं भुवणिहिं थुब्वंतु जिणु दिक्खिउ चमकिउ चित्ति । अहह ! अहो ! वपु अच्छरिउ भूसिउ रिद्धि विचित्ति || हो गोयम ३ ॥ End:-- गोयमसुरियकुलयं रइयं पढमंजरीए भासाए । कत्तिय अमावसाए अट्ठावन्नस्स वरिसस्स ॥ २६ ॥ एयं जे भव्वजिया भावेण सया गुणंति निसुणंति । उच्छिन्ननेहनियला ते जंति सिवं जिणपण || २७ ॥ अणमहासिद्धिसंजुओ जयइ गोयमो भयवं । जस्स पसाएण जवि साहुणो सुत्थिया भरहे || २८ ॥ (२४) ऋषभजिनजन्माभिषेक. प. १५९--१६२ Beginning:— End: जय ज (जु) गादिजिनिंदो पयासिया से सपढमनयविंदो | घणकम्म - वणइंदो नयनरवर - खयर - देविंदो ॥ १ ॥ जो पण संकंदणो नाहिनिवनंदणो तिहुयणाणंदणो रिसह जिणू तासु सिरिजम्ममहूसवो पभणेसु.... End: जह हवियउ तियसासुरिहिं सामिउ रिसहजिणिंदु | तह न्हावर विहिणा भविय ! सिव- सुह-विल्लिहि कंदु ॥ १४३ ॥ इति जन्माभिषेक स्तुतिः समाप्ता । प. ९६२ - १६५ (२५) चाचरिस्तुति ( अपभ्रंश ). Beginning:— जय जय सिरिरि सहपहु तिहुयणि पढमजिणिदु । सेतुंजमंडणू तम - तिमिरनासण नवउ दिणिंदु || नयण सलून जिण पहु कह वि न मेल्हण जाइ | सरीरु पाच्छउं वाहुडइ मणु पुण तहि जि ठाइ ॥ ३४ ॥ aise छोटा माथइ चोटा अवरहं कापडिय होइ । देवंग वेस सिरि लंवा केस जिणवर कापडिय जोइ ॥ ३५ ॥ नंदउ जिणवर - धम्म जगि नंदउ चउविह संघु । जाहं पसाय सिद्धिवहु भवियण देयद आघु ॥ ३६ ॥ चाचरिस्तुतिरियं । वेलाउलीरागेण । (२६) गुरुस्तुतिचाचरि (अपभ्रंश). • प. १६५ - १६७ 267 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 268 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Beginning: नंदउ पुंडरीउ गोयमपमुह गणहर-वंसु । नाम-गहेण विह जाहं फुडु जायइ सिव-सुह-फंसु ॥ १ ॥ End: सहला ताहं जि दीहडा सहला ताहं जि मास । जे गुरु वंदइ विहिपरि ताहं जि पूरिय आस ॥ १५ ॥ गुरुस्तुतिचाचरि गूर्जरीरागेण । (२७) मयणरेहासंधि ( कडव ५). प. १६७-१७३ Beginning: निरुवमनाणनिहाणो पसमपहाणो विवेयसनिहाणो । दुग्गइदारपिहाणो जिणधम्मो जयइ सुहकम्मो ॥१॥ सुमरिवि जिणसासणु सुहनिहि-सासणु सिरिनमिमहरिसि मणि धरिउ । पभणिसु संखेविहिं मयणरेह-महासइ-चरिउ ॥ २ ॥ End: एसा महासईए संधी संधी व संजमनिवस्स । जं नमिनिवरिसिणा सह ससक्करा खीरसंजोगो ॥ २॥ बारह सत्ताणउए वरिसे आसोअ-सुद्ध-छट्टिए । सिरिसंघपत्थणाए एयं लिहियं सुआभिहियं ॥ ३ ॥ मयणरेहासंधिः समाप्तः ॥ (२८) अनाथिसन्धि (अप.) by जिनप्रभसूरि. प. १७३-१७६ Beginning: जस्स ज वि माहप्पा परमप्पा पाणिणो लहुँ हुँति । तं तित्थं सुपसत्थं जयइ जए वीरजिणपहुणो ॥ १॥ विसएहिं विनडिउ कसाय-जगडिउ हा ! अणाहु तिहुयण भमइ । जो अप्पं जाणइ सम-सुहु माणइ अप्पारामि सु अभिरमइ ॥ २ ॥ रायगिहि नयरि सेणीउ राउ गुरुभत्ति निवेसिय वीयराउ । सो अन्न दिवसि उज्जाणि पत्तु मुणि पिक्खिवि पणमइ नमिय-गत्तु ।। ३ ।। End: चारुचउसरणु-गमणो दाणाइसुधम्मपत्तपाहे उ । सीलंगरहारूढो जिणपहपहिओ सया सुहिओ ॥ १३ ॥ अणाथियासंधि । कडव २ (?) - (२९) जीवानुशास्तिसन्धि by जिनप्रभ. प. १७६-१७९ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 269 No. II KHATARWASI 269 Beginning: जस्स पहा ण ज वि तवसिरिसमलंकिया जिया हुंति । सो णिचं पि अणग्यो संघो भट्टारगो जयइ ॥ १ ॥ मोहारिहि जगडिय विसयहिं विनडिय तिक्खदुक्खखंडिय खंडियहं चिरु । संसारविरत्तहं पसमियचित्तहं सत्तहं देमि गुसट्ठि निरु ॥ २ ॥ End: इय विविहपयारिहिं विहि अणुसारिहिं भाविहिं जिणपहुमणुसरहु । सुत्तेण य पवरिहिं आणासु तरिहिं भवियण भव-सायरु तरहु ॥ १८ ॥ जीवानुशास्तिसंधिः समाप्तः । (३०) ऋषभचरितस्तवन( अपभ्रंश )by जिनप्रभ. प. १७९-१८२ inning: पणमिय पढमजिणिंद-पाय सेत्तुजविहू सण तिहुअणविलासवास भव-पास-विणासण । तसु तेरसभवगहण वत्थु-संथवु संखेविहिं ___ करिसु सया वि भत्तिवस सुगुरु तित्थ भाविहिं ॥ End: इय भव-भाव-विभावणग्गि कम्भिधणु जालिउ केवलनाणी जाइ मोक्खि संजमु परिपालिउ । रिसह-चरिउ-संथवणु रासि घोरेहिं जो देइ सो सिरिजिणपह-लग्गु सग्गु अपवग्गु वि लेइ ॥ २७ ॥ श्रीयुगादिजिनचरितकुलकं ॥ (३१) नेमिरास ( अपभ्रंश ) by जिनप्रभ. प. १८२-१८७ Beginning: - नंदउ नेमिजिणिंदो रेवयगिरि-मंडणु । हरिकुल-नय-चंदो दुग्गइ-दुहखंडणु ॥ १ ॥ जसु जिण नवभवचरिउ सुणीजइ तसु गुण-गण-लउ किं पि थुणीजइ । पढमभवंतरि धणनरनाहू धणवइसरिसउ हूउ विवाहू । । पाविउ वरदंसण सोहम्मी दो वि उत्पन्ना बीजई जम्मी तइयजमि विजाहर-राया चित्वइ रयणवई जाया ॥ १॥ End: तरुपल्लवह मिसेणं जो नच्चइ हरिसिहिं जसु सिरि नेमिजिणिंदू सोहग्गमहानिहि बहुविहकुसुममिसिहिं जो विहसिउ जा जिगुपहु-पय-पंकयफरिसिउ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 270 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS जसु गुण-गहणु सुरिंदिहिं कीजइ सो रेवयगिरि कसु उवमीजइ ? जिणपहि लग्गिउ भव-फलु लीजइ जिणवर-आणहं सो वंदीजइ जं जिण-आणा निरुवमु तित्थू एउ गणहरिहिं कहिउ परमत्थू ॥ नेमिनाथरास। (३२) भावनाकुलक by जिनप्रभ. प. १८७-१९० Beginning: सुमरिवि पंच परमिट्ठी थुइ तिजगगरिद्धी(ही) अनु जिण-वाणि विसिट्ठी मोक्ख-पह दिट्ठी नमवि चलण सिरिरिसहजिकिदह मंडण सिरिसित्तुज्जगिरिंदह चउविहधम्मह भावण सारू भणउ रासु भवियण-गल-हारू दुल्लह पाविऊ माणुसजम्मू भो भो भविय ! कुणउ जिणधम्मू दाण सील तव भावण रम्मू तुट्टइ तुम्हहं जिव गुरुकम्मू ॥ १ ॥ Endia एवं चउविहधम्म-पभावू बुझिउ जिणवर-समय-सहावू । उज्जमु कुणउ जिणप्पहि लग्गिउ मोक्खकए सुविवेगिहिं जग्गिउ ॥ ११ ॥ चतुर्विधभावनाकुलकं समाप्तं । (३३) अन्तरगरास (अपभ्रंश ) by जिनप्रभ. प. १९०-१९४ Beginning: पणमिउ पढमजिणिंदू सेत्तुज्जह मंडणु भणउं जीवसंबोहू भव-दुक्खह खंडणु रयणि-विरामे एउ भाविजइ गेहि पलित्तइ किमिह सूइज्जइ ? जाणउं जीवहं तिहुयण गेहू जाव अस्थि थेवो वि सिणेहू । कोवग्गिहिं पज्जलिउ निरंतर माण-पवणि पूरिउ आभितरु उट्ठिय माया-जालि विसाला पसरिय जा लाभिंधणमाला ॥ End:ताहे जिय जिण-सूरिहिं भासिउ करि जिणधम्मु मा उ विणासिउ ।। ११ । अंतरंगरासः समाप्तः । मंगलं महाश्रीः । (३४) मल्लिनाथचरित्र (अपभ्रंश ) by जिनप्रभ. प. १९४-२० Beginning: पणमवि सिरि[उ]सहाइ-वीरपजंतजिणेसरा तिहुयणसिरि-सवणावयंस ! नय-नलिणदिणेसर । Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ End: End:— No II. KHETARWAISI मल्लिसामि जिणराय - पाय निरवाय मुणेसू तासु चरिउ अच्छरिउ भुवणि संखेवि भणे ॥ १ ॥ (३५) महावीरचरित्र ( अपभ्रंश ). Beginning: एगूणवीसम्म डिजिणह चरियं इह जय - हिउ चंदकंति - सुपवित्तिणीए विन्नत्तिं विरइउ । चविसंघ देउ लच्छि सग्गह निरुवसग्गह अणुवग्ग वग्ग सिरिजिणपह लग्गह ॥ ५० ॥ मत्तछंद विणिम्मियह गंथ - माणु पन्नास । चरि गुणंत सुत वि भवियण पुज्जई आस ॥ मल्लिचरित्रं समाप्तं ॥ End: सुमरवि सिरिजिणवद्धमाणु गुण-मणि - रयणायरु तासु चरिउ जंपेमि किं पिवेरग्गह आयरु | अवरविदेह गाम - सामि नयसारु भिहाणू अडवि समण पह-गमण सम्मु सोहम्म विमाणू ॥ १ ॥ ( ३६ ) जम्बूचरित्र ( अपभ्रंश ). पणमवि सिरिअरिहंत सिद्धगण उवज्झायहं समह सुमहं सव्वलोअ समभाव समायहं । इय पंच नवकारु सारु संसार - तरंड पढमं मंगल होइ लोइ गुण - रयणकरंडहं ॥ २४ ॥ श्रीमहावीरचरितं रासेनापि दी ( गी ) यते । Beginning:— प. २०२-२०६ पढमभवे भवदेवो गहियवओ पढमकल्पि सुर पवरो । रायस्य सिवकुमारो कय - बारसवास - तव - सारो ॥ १ ॥ जंबूचरित्रं समाप्तं ॥ प. २०७ - २०९ बारस नवाणुए भद्दव सिय पडिव गुरि समुद्धरियं । धन्नासीभासाए भणियध्वं संघभद्दकए । २० ॥ (३७) सुकोशलचरित्र ( अपभ्रंश ). प. २०९-२१२ 271 Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS 272 Beginning: पणमं सिरिअरहंत निरवाय विसुद्धा सिद्धा सासयसुहसमिद्ध गणहर सुपसिद्धा । सिरिउवज्झाय साहुवग्ग अपवग्गपसाहणा ___ इय पंच वि परमेट्ठि लद्ध मोहह बल-खोहणा ॥ १॥ नंदउ सिरिवीसमु जिणिंदु मुणिसुव्वयसामिय जासु तित्थ-माहप्प होइ धामिउ सिवगामिउ । जयउ सुकोसलु मुणि-गरिह संतुङ चरित्तिहिं ___ तासु चरिउ संखेवि भणिसु जिण-आगम-जुत्तिहिं ॥ २ ॥ End: सिरिरायरिसि-सुकोसल-चरियं सको वि वन्नि न सको। तह वि सुसंघाणुग्गह गुरुणा रइयं समासेणं ॥ १ ॥ तेर दुरुत्तरवरिसे सिरिवीरजिणिंदमोक्खकल्लाणे । कल्लाणं कुणउ सया पढंत-गुणंताण भधाण ॥ सुकोसलचरित्रं समाप्तं ॥ (३८) चैत्यपरिपाटी (अपभ्रंश ) by जिनप्रभ. प. २१२-२१४ Beginning: जयइ जयइ जिणधम्मो विवेयरम्मो पणासियकुहंमो। उवसमपुर-पायारो पयडियनाणाइआयारो ॥ १ ॥ तं जयइ जगि सिरिजिणवरविंद जसु पय पणमइ सयल सुरिंद । परिवजियसावजारंभ नरय-कूव-निवडंतहं खंभ ॥ २ ॥ त दुल्लहु लहिउ सुमाणुस-जम्मु तह वि कह वि सिरिजिणवरधम्मु । तत्थ वि बोहि-बीउ पुण रम्मु जं निहणइ दुढ दृ वि कम्मु ॥ ३ ॥ End: दव्वत्थ भावउ जि कुणंति ते अणंतु भट्ठ(व)दुहु निहणंति । सिरिजिणपहणियसयलुवसग्ग ते लहु लहिसइं सग्गपवग्ग ॥ २॥ ' इति सर्वचैत्यपरिपाटिः स्वाध्यायरासेन दी(गी)यते । वोल्लिका भण्यंते समाधिना । (३९) मोहराजविजय (अपभ्रंश) by जिनप्रभ. प. २१५-२१६ Beginning: तिहुयणपणमियपाउ नासियनीसेसकम्मसंघाओ। - अच्छरियचरियजाओ जियराओ जयह जिणराओ ॥ १॥ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ End: End:-- No. II KHETARWASI त भवियजण ! एकमणु कन्नु धरेउ त जिणवरराय मोहराय - जुज्झु सुणेउ । त जइ संवाहि रि इणि संसारि वट्टइ लोइ ततइ सर्भितरि गुण-दोसंतरि जीवहं जोइ ॥ २॥ त सम्यग बोधे पुरवर जिण अधिरोहु त तिजग - वइरि मिच्छापुर मोहराउ मोहु । त जिणवरसामि मणुयनामि ठविय लिखित्तु त परसम्मभूमि- पमाणु वित्तु ॥ ३ ॥ | १० | अडयालं पयडिसयं कम्माणं खविय जो य संपत्तो । अक्खयसुक्खं मोक्खं भो भविया ! तं जिणं नमह ॥ २ ॥ श्रीजिनप्रभो मोहराजविजयोक्तिः समाप्ता । (४०) साधर्मिक वात्सल्यकुलक by जिनप्रभ. प. २१७-२२० Beginning:-- End:--- साहम्मियवच्छलं भणामि भवियाण भावणानिज्यं । सम्मदंसणसोहिं जह विहियं परमपुरिसेहिं ॥ १ ॥ sa - भावभेयं काउं साहम्मियाण वच्छलं । सवन्नु भवियमेयं जिणपहमणहं लहइ जीवो ॥ २४ ॥ साधर्मिक वात्सल्यकुलकं । (४१) अन्तरङ्गविवाह by जिनप्रभ. Beginning: प. २२०-२२१ पमाय - गुणठाणु पाटणु तर्हि अहे भवियजिउ निरुवमु वरु ए । चविहसंधु जानउत्र कीय अहे वाहण सहस सीलंग ॥ १ ॥ सुभपरिणाम संवेगु सहि अहे वर गढ सोहई ते सुए । उवसमसेणि आवासु कीउ अहे धर्मध्यान वानउ लागउ ए ॥ इणपरि परिणए जो अ जगि अहे लहइ सो सिद्धिपुरि वासु । मंगलिक वीर जिणप्रभ ए अहे मंगलिकु चडवीह संघ ए ॥ अंतरंगविवाहधवलः वसंतरागेण भणनीयः । 273 (४२) जिनजन्ममह by जिनप्रभ, प. २२१-२२७ 35 Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 74 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Beginning:अर्ह ॥ सो जयउ जस्स कल्लाणपंचगंमी महूसवं कुणइ । भवणवइ-वाणमंतर-जोइस-वेमाणिया देवा ॥१॥ सिरिजिणवररायह वियलियरायह पंच वि कल्लाणई कुणई । दाणत्र-देविंदा दिणयर-चंदा दुरिउ तुरिय अप्पह सुणई ॥ २ ॥ [कडवयं १ भासरागेण गा. १७ । कडवयं २ खंभाइथीभाषया गा. ११ । कडवयं ३ देवकृतीभाषया गा. १५] End:-- एवं जिणजम्ममहो संखेवेणं जिणागमा भणिओ। गुत्तु-निहि-सरगुवरिसे जुगाइजिणनाहनाणदिणे ॥ १० ॥ गुडकृतीभाषया धनासिका चतुर्थः कडवः ॥ ७ ॥ (४३) द्वादशार्थविचार (प्रा.). प. २२८-२३० Beginning: लयसहा दिणमणिणो धाइसंडं च जे विभूसंति । वन्नेमि ते दुवालस अत्थे जिणगोअरे किं पि ॥ १॥ End: भावारिहंतभावा सो धरमाणो जगस्स जिणनाहो । रयणप्पहाइदुग्गइविणिवायनिवारणं कुणउ ॥ १४ ॥ (४४) नेमिनाथजन्माभिषेक by जिनप्रभ. प. २३०-२३२ Beginning: मरगयमणिवन्नह तिन्नपयन्नह सारयचंदिमचरिउ जसु । सिरिनेमिजिणिंदह तिजगदिणिंदह गुणगणलवु वन्नेमि तसु ॥ १॥ End: हयमोहनिसायर! करुणासायर ! सायरजिणपहसूरिसु(थु)य !। बावीसमजिणवर ! नयनर-सुरवर ! भवि भवि तुह पय सरणु हुय ॥१०॥ ॥ ॥ नेमिनाथजन्माभिषेक ॥ ७ ॥ (४५) पार्श्वनाथजन्माभिषेक by जिनप्रभ. प. २३२ (१-२) Beginning: जय जय जगनायग! सिव-सुखदायग! पास ! पयासियपरमपय ! । तिहुयणसिरसेहर ! करुणा-कुलहर ! पावियअंतरवइरिजय ! ॥ १॥ End: इय पत्तपवग्गह हयउवसग्गह पासजिणिंदह थवणु किउ । जिणपहु पय लग्गह भव-उविग्गह भवि भवि तं पहु लहइ जिउ ॥ ११ इति पार्श्वनाथजन्माभिषेक ॥ Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. II KHETARWASI (४६) मुनिसुव्रतस्वामिस्तोत्र by जिनप्रभ. प. २३२-२३४ Beginning:— जयसिरिस मलंकि ! गयकमलंकियपाय ! पवित्तिय महिवलय ! | मुणि सुवयसामिय ! सिवपुरगामिय ! वीस मजिण ! जय गुणनिलय ! ॥ १ ॥ End: इय सुव्वयणाहह नाणसणाहह जिणपहुसूरिहिं संथविय । पंचवि कल्लाई सुक्खनिहाण कल्लाणगु देयउ भविय ॥ १३ ॥ इति श्रीमुनिसुव्रतस्वामिस्तोत्रं जन्माभिषेकं च भासरागेण ॥ ५ ॥ (४७) जिनजन्माभिषेक by जिनप्रभ. प. २३४-२३६ Beginning: सुर-नर- खयरिंदा दियर - चंदा पइदिणु पणमई पाय जसु । सिरिजिणवर यह वियलियरा यह गुण - गण - लघु कित्ते म त ॥ १ ॥ End: एवं सिरिजिण पहु पणि कुप्पहु तिहुयणगुरु जे संथुणई । भत्तिर्हि रोमंचिय बहुभवसंचियकम्मक्खड ते लहु कुणई ॥ १५ ॥ ॥ ६ ॥ छप्पन्न दिसाकुमारीजन्माभिषेक ॥ ६ ॥ (४८) जिनजन्ममहोत्सवस्तवन by जिनप्रभ. प. २३६-२३९ Beginning:-- नमिवि सिरपासनाहस्स पयपंकथं हरियदुरिउलि कलिकलु समलु पंकयं । मिलिवि छष्पन्नदिसिकुमरि जिणजम्मणे जेंव विरयं सुअह महमहं तह भणे ॥ १ ॥ End: 275 as विविपयारिहिं मेरुसिहरि विहिणा विहिउ । जिणजम्मणमज्जणु तोसियसज्जणु कुण्ड भविय भव - भयरहिउ ॥ २५ ॥ षट्पंचाशद् दिक्कुमारीस्तवनं ॥ ५ ॥ प. २३९-२४० (४९) रत्नत्रय. Beginning: नवकारेण विबोहो अणुसरणं सावओ वयाइं मे जोगो । चियवंदणयं पञ्चक्खाणं तु विहिपुत्रं ॥ १ ॥ तह चेइयहरगमणं सकारो वंदणं गुरुसयासे । पश्चक्खाणं सवणं जइ पच्छा उचियकरणिज्जं ॥ २ ॥ श्रावक - बार व्रत हुंति । कवण ति ? | पांच अणुव्रत । त्रीणि गुणव्रत । चियारि शिख्याव्रत । पांच अणुव्रत । कवणि ? । स्थूलप्राणातिपात - निवृत्ति १ । स्थूलमृपावाद - . Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 276 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS निवृत्ति २ । स्थूलअदत्तादान-निवृत्ति ३ । परदार-निवृत्ति ४ । अपरिमितपरिग्रहनिवृत्ति ५ । त्रीणि गुणव्रत । कवणि ति ? । दिनतु १ । उपभोग-परिभोगव्रत २। अनर्थदंडपरिहारबतु ३ । चियारि शिख्याव्रत कवणि ? । सामायिकु १ । देशावकाशिकु २ । पोषधोपवासु ३ । अतिथिसंविभागु ४ । बारहं व्रत-मूलि सम्यक्त्वु ॥ End: सम्यक्त्व चउत्थं लक्षणु अनुकंपा किंव जाणियइ ? । दटूण पाणिनिवहं भीमे भवसायरंमि दुक्खत्तं । अविसेसओ णुकंपं दुहा वि सामत्थओ कुणइ ॥ ४ ॥ सम्यक्त्व पांचमं लक्षणु आस्तिक्यु किंव जाणियइ ? । मन्नइ तमेव सञ्चं नीसंकं जं जिणेहिं पन्नत्तं । सुहपरिणामो सञ्चं कंखाइविसोत्तियारहिओ ॥ ५ ॥ एवंविहपरिणामो सम्मबिट्ठी जिणेहिं पन्नत्तो । एसो उ भवसमुदं लंघइ थेवेण कालेणं ॥ ६ ॥ । ७ । रत्नत्रयः समाप्तः । छ । मंगलं महाश्रीः ॥ ७ ॥ (५०) चउसरण, प. २४०-२४४ (५१) आतुरप्रत्याख्यान (प्रा.). प. २४४-२४७ (५२) संलेखनाविधि. प. २४७-२५० (५३) पर्यन्ताराधना. प. २५०-२५७ (५४) आवश्यकवृत्ति (? हारिभद्री). प. २५७-२६४ १३. ज्ञानार्णव(योगप्रदीपाधिकार) by शुभचन्द्र. प. २०७; १५०४२" End: इति ज्ञानार्णवे योगप्रदीपाधिकारे पंडिताचार्यश्रीशुभचन्द्रविरचिते मोक्षप्रकरणं । अस्यां श्रीमन्नृपुर्या श्रीमदर्ह देवचरणकमलचंचरीकः सुजनजनहृदयपरमानंदकंदलीकंदः श्रीमाथुरान्वय-समुद्रचंद्रायमानो भव्यात्मा परमश्रावकः श्रीनेमिचंद्रो नामाभूत्। तस्याखिलविज्ञानकलाकौशलशालिनी सती पतिव्रतादिगुणगणालंकारभूषितशरीरा निजमनोवृत्तिरिवाव्यभिचारिणी स्वर्णा नाम धर्मपत्नी संजाता । अथ तयोः समासावितधर्मार्थ-कामफलयोः स्वकुलकुमुदवनचंद्रलेखा निजवंशवैजयंती सर्वलक्षणालंकृतशरीरा जाहिणि नाम पुत्रिका समुत्पन्ना । छ । ततो गोकर्ण-श्रीचंद्रौ सुतौ जातौ मनोरमौ । गुणरत्नाकरौ भव्यौ राम-लक्ष्मणसन्निभौ ।। सा पुत्री नेमिचंद्रस्य जिनशासनवत्सला। विवेक-विनयोपेता सम्यग्दर्शनलांछिता ॥ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 277 No. II KHETARWASI ज्ञात्वा संसारवैचित्र्यं फल्गुतां च नृजन्मनः । तपसे निरगाद् गेहात् शांतचित्ता सुसंयता ॥ बांधवैर्वार्यमाणापि प्रण(य)तैः शास्त्रलोचनैः । मनागपि मनो यस्या न प्रेम्णा कश्मलीकृतं ॥ गृहीतं मुनिपादांते तया संयतिकाव्रतं । स्वीकृतं च मनःशुद्ध्या रत्नत्रयमखंडितं ॥ तया विरक्तयात्यंत नवे वयसि यौवने । आरब्धं तत् तपः कर्तुं यत् सतां साध्विति स्तुतं ॥ यम-व्रत-तपोद्योगैः स्वाध्याय-ध्यान-संयमैः । कायक्लेशाद्यनुष्ठानैर्गृहीतं जन्मनः फलं ॥ तपोभिर्दुष्करैर्नित्यं बाह्यांतर्भेदलक्षणैः । कषायरिपुभिः साध निःशेषं शोषितं वपुः ॥ विनयाचारसंपत्त्या संघः सर्वोप्युपासितः । वैयावृत्त्योद्यमात् शश्वत्कीर्तिीता दिगंतरे ॥ किमियं भारतीदेवी किमियं शासनदेवता ? । दृष्टपूर्वैरपि प्रायः पौरैरिति वितळते ॥ तया कर्मक्षयस्यार्थं ध्यानाध्ययनशालिने । तपः-श्रुतनिधानाय तत्त्वज्ञाय महात्मने । रागादिरिपुमल्लाय शुभचंद्राय योगिने । लिखाप्य पुस्तकं दुत्तमिदं ज्ञानार्णवाभिधं ॥ ५ ॥ संवत् १२८४ वर्षे वैशाषशुदि १० शुक्रे गोमंडले दिगम्बरराजकुलसहस्रकीर्ति. स्यार्थे पं० केशरि-सुतवीसलेन लिखितमिति ॥ १४. धातुपारायण by हेमचन्द्र. प. २३२; १४४१३" End: इत्याचार्यश्रीहेमचंद्रविरचिते स्वोपज्ञधातुपारायणे औत्सर्गिकशविकरणो निरनुबंधो भूवादिगणः संपूर्णः ॥ १५. (१) उपदेशमाला. प. ६१; १३°४२" (२) योगशास्त्र (प्रकाश ४) by हेमचन्द्र. प. ४९ (३) स्थविरावली (प्रा.). प. ११०-११५ (४) चतुर्विंशतिस्तवनियुक्ति (प्रा.). प. ११६-१२० Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 278 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS प. ७ (५) वन्दनकनियुक्ति (प्रा.). प. १२०-१२१ (६) प्रतिक्रमणनियुक्ति (प्रा.). प. २१ (७) कायोत्सर्गनियुक्ति (प्रा.). प. ५ (८) प्रत्याख्याननियुक्ति (प्रा.). (९) पिण्डविशुद्धि (प्रा.). प. १७०-१८० (१०) दशवकालिक (अ. ४). प. १८२-१९९ (११) कर्मविपाक (प्रा.). गा. १७८ प. १९९-२१७ (१२) कर्मस्तव (प्रा.). गा. ५७ प. २१७-२२४ (१३) जीव विचार (प्रा.). गा. ५१ प. २२४-२२९ (१४) अजित-शान्तिस्तव (प्रा.). प. २२९-२३५ (१५) नवतत्त्व विचार. प. २३६-२४४ (१६) नवतत्त्व. गा. २१ प. २४७-२४९ (१७) प्रत्याख्यान (प्रा.). गा. २० प. २४९-२५१ (१८) सम्यक्त्वालाप. प. २५१-२५२ (१९) रत्नत्रयी. प. २५२-२५७ (२०) प्रव्रज्याविधान (प्रा.). गा. २८ प. २५७-२६० (२१) प्रश्नोत्तररत्नमाला. प. २६०-२६३ (२२) धर्मलक्षण. प. २६३-२६५ (२३) महादेवद्वात्रिंशिका. प. २६५-२६९ (२४) साधर्मिककुलक (प्रा.). गा. २६ प. २६९-२७२ (२५) क्षेत्रसमास (प्रा.). गा. ८७ प. २७२-२७८ (२६) महर्षिकुलक. प. २७८-२८० (२७) गौतमपृच्छा. प. २८३-२८७ (२८) आराधना. गा. ६९ प. २८८-२९६ (२९) चताशरण (प्रा.). गा. २७ प. २९७-२९९ (३०) जीवशिक्षाकुलक (प्रा.). गा. ३० प. २९९-३०२ Beginning: संसारम्मि etc. (३१) दूहामाई. गा. ६४ प. ३१०-३१४ (३२) देववन्दन. प. ३१४-३२० Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. II KHETARWASI 279 (३३) धन्दनक (प्रा.). प. ३२०-३२२ (३४) प्रत्याख्यान (प्रा.). प. ३२२-३२६ (३५) प्रतिक्रमण (प्रा.). प. ३२६-३३१ (३६) अतिचार. प. ३३१-३३६ १६. योगशास्त्रविवरण (अष्टमप्रकाश) by हेमाचार्य. प. ९९; १५०४१३० The Ms also contains Farelate and some incomplete work containing 84 folios. १७. कल्पसूत्र (मूल). १२३"४२" १८. (१) आरम्भसिद्धि (अपूर्ण) by उदयप्रभ. प. २-१२०, ८x१३" .. (२) शब्दब्रह्मोल्लास (2) by उदयप्रभ. प. १४ Beginning:Incomplete up to 49th verse. ॐ नमः सकलाध्यात्मतत्त्ववाचे परात्मने । शब्दब्रह्मविवर्तकबीजायाक्षरमूर्तये ॥ १ ॥ अजिह्मपरमब्रह्मरवेरुदयदीपकः ।। प्रभोदयप्रभा शब्दब्रह्मोल्लासः प्रकाशतां ॥ २ ॥ १९. वीतरागस्तोत्र विवरण by प्रभानन्द. प. १४३, १५"४२ End:-- इति वीतरागस्तोत्रे विंशतितमस्याशीस्तवस्य पदयोजना । मंगलमस्तु चतुर्विधश्रीश्रमणसंघस्य । चांद्रे कुलेस्मिन्नमलश्चरित्रैः प्रभुर्बभूवाभयदेवसूरिः । नवांगवृत्तिच्छलतो यदीयमद्यापि जागर्ति यशःशरीरम् ॥ तस्मान्मुनींदुर्जिनवल्लभोथ [तथा] प्रथामाप निजैर्गुणौधैः विपश्चितां संयमिनां च वर्गे धुरीणता तस्य यथाधुनापि ॥ २॥ तेषामन्वयमंडनं समभवन संजीवनं दुःषमा मूर्छालस्य मुनिव्रतस्य भवनं निःसीमपुण्यश्रियः । श्रीमंतोभयदेवसूरिगुरवस्ते यद्वियुक्तैर्गुणै. द्रष्टुं तादृशमाश्रयांतरमहो! दिक्चक्रमाक्रम्यते ॥३॥ यतिपतिरथ देवभद्रनामा समजनि तस्य पदावतंसदेश्यः । दधुरधरितभावयोगरोगा जगति रसायनतां यदीयवाचः ॥ ४ ॥ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 280 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS तदीयपट्टे प्रतिभासमुद्रः श्रीमान्प्रभानंदमुनीश्वरोभूत् । स वीतरागस्तवनेष्वमीषु विनिर्ममे दुर्गपदप्रकाशं ॥ ५ ॥ एवं सपादशतयुतविंशतिशतीपरिमितः प्रबन्धोयम् । लिखितः प्रथमादर्शे गणिना हर्षेन्दुना शमिना ॥ ६॥ मंगलं महाश्रीः । भग्नपृष्ठ - कटि - ग्रीवा तप्तदृष्टिरधोमुखः । कष्टेन लिखितं ग्रन्थं यत्नतः परिपालयेत् ॥ २०. (१) कल्पसूत्र. (२) कालकाचार्यकथा. १४”×१३” प. १२० प. १४१ - १६५ Incomplete. Beginning: अस्थि इहेव जंबुदीवे भारहे वासे धरावासं नाम नयरं । तत्थ वइरिवारसुंदरी हवदिक्खागुरू वइरसीहो नाम राया । २१. योगशास्त्रविवरण (द्वितीयप्रकाश ). End: Pras'asti of the Donor: प. १६५; १४”×१३” इति परमार्हत कुमारपाल भूपालशुश्रूषिते आचार्य श्री हेमचंद्र विरचिते अध्यात्मोपनिषन्नानि संजातपट्टबंधे योगशास्त्रे खोपज्ञद्वितीय प्रकाशविवरणं ३३००. दिशतु वः श्रियं शश्वत् श्रीमान् वीरजिनेश्वरः । प्रणयीकृतसिद्धार्थ सिद्धार्थनृपनंदनः ॥ १ ॥ सूराकः संज्ञया ख्यातः क्षत्रियाणां शिरोमणिः । श्रीमान् शांतिदेवाख्यस्तस्य भ्राता गुणामणीः ॥ २ ॥ तस्मात् पुत्रः कलाधाम सुकरानंदितक्षितिः । विजपाल gariat झालाकुलनभस्तले ॥ ३ ॥ बभूव प्रेयसी तस्य राज्ञी राजगुणान्विता । नीतादेवीति नीतिज्ञा धर्मारंभसदोद्यता ॥ ४ ॥ राणकः पद्मसिंहाख्यस्तनयो विनयी नयी । जनानां नयनानंदी जज्ञे पुत्री तयोस्तथा ॥ ५ ॥ श्रीमती रूपलादेवी [वैरि] वीरप्रमाथिनी । पत्नी दुर्जनशल्यस्य साभूत् प्रेमवती सदा ॥ ६ ॥ श्रीदेवीकुक्षिजस्तस्योदय सिंहाभिधः सुतः । वैरिवार णविध्वंससिंहाद्वैतपराक्रमः ॥ ७ ॥ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. II KAETARWASI ततश्च । आसंश्चंद्रकरावदातसुयशोधौताखिलक्ष्मातले ___ श्रीचंद्रप्रभसूरयो विधिधरोद्धारादिवाराहकाः । तत्पट्टे प्रथिताः क्षितौ पृथुगुणाः श्रीधर्मघोषाभिधा स्तेषां चाभयघोषसूरितिलकाः प्राप्ता[:] प्रतिष्ठां पदे ॥ ८॥ तेषां शिष्यतमाः प्रबोधनिपुणा विद्याकुमारावयाः दुर्दातक्षितिपालभालपदवीसंक्रांतचारुक्रमाः । पीत्वा तन्मुखकोटरांतरगतां सद्देशनावाक्सुधां · सच्छ्रद्धांचितमानसा गुरुगिरा नीतल्लदेवी ततः ॥ ९ ॥ कारयामास पट्टयाँ चैत्यं पार्श्वजिनेशितुः । भाविपुण्यार्जनाक्षेत्रं तथा पौपधशालिकां ॥ १० ॥ विवृति योगशास्त्रस्य संप्राप्तपट्टबंधिनः । सत्प्रपां श्रेयसे स्वस्य लेखयामास शुद्धधीः ॥ ११ ॥ यावद् व्योमपथावलंबि निखिलं तारागणं वर्तते प्राच्यां यावदुदेत्ययं च सविता कुर्वन् तमोमाथनं । धत्ते यावदसौ फणापतिरिमां भूमिं फणाः स्फुटं ___ तावन्नंदतु पुस्तकं मुनिगणैर्व्याख्यायमानं सदा ॥ १२ ॥ मंगलं महाश्रीः । शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः । २२. अनेकार्थसङ्ग्रहटीका (अनेकार्थकैरवकौमुदी). प. २८६; १४°४२३" End: इत्याचार्यश्रीहेमचंद्रविरचितायामनेकार्थकैरवकौमुदीत्यभिधानायां स्वोपज्ञानेकार्थसंग्रहटीकायां त्रिस्वरकांडस्तृतीयः परिपूर्णः ॥ श्रीहेमसूरिशिष्येण श्रीमन्महेंद्रसूरिणा । भक्तिनिष्ठेन टीकेयं तन्नाम्नैव प्रतिष्ठिता ॥ १॥ सम्यग्ज्ञाननिधेर्गुणैरनवधेः श्रीहेमचंद्रप्रभोः ग्रंथे व्याकृतिकौशलं [न तथा- ]ऽस्मादृशां तादृशं । व्याख्यामः स्म तथापि तं पुनरिदं नाचा(श्य)र्यमंतर्मन- . स्तस्याजस्रमपि स्थितस्य हि वयं व्याख्यामनुकुर्महे ॥ २ ॥ यलक्ष्यं स्मृतिगोचरे समभवद् दृष्टं च शास्त्रांतरे तत् सर्व समदर्शि किंतु कतिचिन्नोदृष्टलक्षाः कचित् । अभ्यूह्यं स्वयमेव तेषु सुमुखैः शब्देषु लक्ष्यं बुधै र्यस्मात् संप्रति तुच्छकश्मलधियां ज्ञानं कुतः सर्वतः १ ॥ 36 Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 282 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS एकत्रापि कृताभिधेयविषये व्युत्पत्तिरथांतरे कर्त्तव्या स्वयमेव दर्शितदिशा निर्वेदवन्ध्यैर्बुधैः । वर्णाद्यक्रमवर्णनं च न कृतं तच्चापि कार्यं स्वयं यत् कृत्स्नप्रतिपादनेन विवृतिः कामं च (व) रीवृत्यते ॥ ६ ॥ ५ ॥ मंगलं महाश्रीः । शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवन्तु भूतगणाः । दोषाः प्रयान्तु नाशं सर्वत्र सुखीभवन्तु लोकाः ॥ शुभं भवतु लेखक - पाठकयोः । After this the following is added in a later hand भट्टा० श्रीजयतिलकसूरि पुस्तकमनेकार्थस्य । श्रीमन्तपापक्षे वृद्धशालायां भट्टा० रत्नसिंहसूरिपट्टे भट्टा० श्रीउदयवल्लभसूरि-श्रीज्ञानसागरसूरिभ्यां वाच्यमाना शर्मणेस्तु || प. २१२; १५ ×२३” २३. आवश्यकनिर्युक्ति. Colophon: समत्तं छविमावस्यं । सिद्धांतामृतजलनिधिविगाह्नप्रवणयाननिभां । विदेवभद्र एतामशोधयत् पुस्तिकां प्रायः ॥ मंगलं महाश्री : शुभमस्तु संघस्य । २४. आवश्यकनिर्युक्ति. Colophon: समत्तं छविहमावस्सयं । गाथा २५०० । संवत् १९९८ माघसुदि भौमे पारि० मुणिचंद्रेण आवश्यक पुस्तकं समाप्तमिति २५. हेमशब्दानुशासनबृहद्वृत्ति ( आख्यात). प. ३६०-६२८; प. १७१; १४”×२” १७”×१} २६. हैमशब्दानुशासनलघुवृत्ति (अ. १-५) प. २३१; १२ ४१ २७. हैमशब्दानुशासनबृहद्वृत्ति ( अ. ६ ) प २२८; १४x२ " Colophon:— उदकानल etc. पं० धनेश्वरेण लिखितमिति । शुभं भवतु लेखक - पाठकयोः । प. २१६; १२”×२" २८. उत्तराध्ययन. Colophon: संवत् १२९७ वर्षे उत्तराध्ययनपुस्तिका लिखितेति । Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No II. KHETARWASI 288 २९. उपदेशमालाविवरण. प. ४१३; १९३०४२ End: कृतिरियं जिन-जैमिनि-कणभुक्-सौगतादिदर्शनवेदिनः सकलप्रथार्थविनिगु(पु)णस्य श्रीसिद्धार्थमहावर्धमानाचार्यस्य । सिद्धर्षिकृता वृत्तिः कथानकैोजिता स्वावबोधार्थं । प्राक्तनमुनीन्द्ररचितैश्चारुभिरुपदेशमालायाः ॥ यदविधिना सूत्रोक्तं यच्चान्योक्तं न सम्यगिह लिखितं । जैनेन्द्रमताभिहस्तच्छोध्यं मर्षणीयं च ॥ Colophon: संवत् १२२७ अश्विनव दि ५ गुरौ लिखितं पासणागेन । उपदेशमालाविवरणं समाप्तं । सा० धणचंद्रसुत सा० वर्धमानसुत सा० लोहादेव तत्पुत्र कुलधर साहारण हेमचंद्रभ्रात्रि आसधरपुत्र रत्नसीह पासदेव कुमरसीह उभयोः सत्कं सिद्धव्याख्याबृहद्वृत्तिपुस्तकं ॥ ३०. चन्द्रप्रभचरित्र by सर्वाणन्द. (अपूर्ण) प. ३००; २३°४२३" ३१. उपदेशमालावृत्ति. प. २४३, १४"४२३ Beginning: अत्रैवोदाहरणानंतरमाहवंदामि चरणजुयलं मुणिणो सिरिथूलभदसामिस्स । जो कसिणभुयंगीए पडिओ वि मुहे न निहुसिओ ॥ सुबोधा । नवरं मदनोद्दीपनमहाविषद्वारेण संयमप्राणापहारकरणा कृष्णभुजंगीव कृष्णभुजंगी कोशा गणिकेत्यर्थः। End: . छदेण गओ छंदेण आगओ चिट्ठओ अ छंदेण etc. ३२. हैमशब्दानुशासनबृहद्वृत्ति(अ. १-२). प. ३५७; १५०x१३" ३३. (१) गौतमखामिस्तुति. गा. २५ प. १-८; १२०x१३" .. End: श्रीमजिनेशप्रभुशिष्यलेशः श्रीगौतमीयस्तुतिहंसिकायाः। अस्या निवासं स्वमनोज्ञकोशे रत्नप्रभो यच्छतु सूरिराजः ॥ २५ ॥ श्रीगौतमस्खामिस्तुतिः समाप्ता । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 284 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (२) विमलगिरिस्तवन (अपूर्ण). Beginning: कियहरे भ्रातर्विमलगिरिनामा नगवरः ? (३) उपदेशमाला. प. १-८० Colophon:__ संवत् १२९२ वर्षे कार्तिकवदि १४ रवौऽयेह श्रीभृगुकच्छे आसडेन्या पुस्तिका लिखापितेति ॥ (४) धर्मोपदेशमाला. प. ८१-९७ (५) पञ्चकल्याणक. प. ९८-११५ Beginning: तित्थं पवयणसुयदेवयं च etc. (६) मूलशुद्धि. प. ११५-१५० (७) जम्बूद्वीपसमास. गा. १०० प. १४१-१५६ ३४. योगबिन्दुवृत्ति. प. ३३१, १३३०४२" Beginning: सद् योगचिंतामणितोनणीयो येनाधिजग्मे जगतः पतित्वं । Last folio wanting ३५. शतकबृहद्भाष्य. प. १२३, १४३४१३" Beginning: __नमः सर्वज्ञाय । चउबंधणुओगविहीदुवारचउविणयमइकुसलो। उदइयचउतीमुत्तमपयडीजुत्तो जयउ जिणो ॥ १ ॥ सयगम्मि कम्मगंथे सुत्तपयाइं अफासइत्ताणं । कत्थ वि विसमपयाई फासित्ता किंचिमत्ताई ॥२॥ विरएमि सयगभासं तयथिएहिं च तस्स भावत्यो । . भावेयवो सम्मं सुत्तं परिभावयंतेहिं ॥ ३ ॥ End सिरिवद्धमाणगणहरसीसेहिं विहारुगेहिं सुहबोहं । एवं सिरिचकेसरसूरीहिं सयगगुरुभासं ॥ २६ ॥ गुणहरगुणधरनामगनिययविणेयस्स वयणओ रइयं । सुयणे(गा) सुमंतु आगंतु बुहयमा सह विसोहिंतु ॥ २७ ॥ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. II KHETARWASI सत्त-नव-रुद्दमियवच्छरम्मि विकमनिवाउ । वट्टते कत्तियचउमासदिणे गोलविसेसणनयरे ॥ २८॥ दहिवदंमि सिरिसिद्धरायभूवइपसायमेहस्स । अन्नलदेवनिवइणो सुहरज्जे वट्टमाणमि ॥ २९ ॥ निप्फत्तिमुवगयमिणं ता णंदउ जाव सिद्धिसुहमूले। . तियलोकपायडजसो जिणवरधम्मो जए जयइ ॥ ३॥ एवमादितः गाथाश्लोकमानेन १४१३ । श्रीसंविग्नविहारिश्रीवर्धमानसूरिपादपग्रो. पजीविश्रीचक्रेसरसूरिविरचितं शतकबृहद्भाष्यं समाप्तमिति ॥ ३६. त्रिषष्टिश. पु. चरित्र(पर्व ७-९ अपूर्ण). प. २९४; १६"४२" ३७. महावीरचरित by नेमिचन्द्रसूरि. प. २०४+२; १४०x२ Beginning: ॐ नमो वीतरागाय । पणमह पढमजिणिंदं भवियाणणकमलबोहणदिणिदं । कोहहयासणकंदं पणयासुरअमरनरइंदं ॥ १ ॥ सिरिसिद्धत्थनराहिवकुलनहयलविमलपुणिमाचंदं । निजियकामगइंदं पणमह वीरं सया धीरं ॥ २॥ पवरसुयनाणमणहरपसत्थपोत्थयविहत्थवरहत्थं । सारयससिकिरणुजलसव्वंगं थुणिय सुयदेविं ॥ ९ ॥ वोच्छामि समासेणं वीरजिणिंदस्स संतियं चरियं । संवेगट्ठा भवियाण अत्तणो सुमरणत्थं च ॥ १०॥ End: इय एवं संखेवा वीरजिणिंदस्स साहियं चरियं । संपइ जेण निबद्धं एत्तो एयं पवक्खामि ॥ सिरिजंबुनाम-सिरिपहव-सूरिसेजसमा(भवा)इसूरीणं । परिवाडीते जातो चंदकुले वडगच्छंमि ॥ सिरिउज्जोयणसूरी उत्तमगुणरयणभूसियसरीरो। वेहारुयमुणिसंताणगयणवरपुन्निमाइंदो॥ सोमत्तणेण सोमं खमं खमाए य जो अहिक्खिवति । थिरयाए मेरुगिरि गंभीरत्तेण मयरनिहिं ॥ अंमि य गच्छे आसी सिरिपज्जुन्नाभिहाणसूरि त्ति । सिरिमाणदेवसूरी सुपसिद्धो देवसूरी य ॥ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 286 PATTAN CATALOGUE OF MANOSCRIPTS उज्जोयणसूरिस्स सीसो अह अंबदेव उवज्झातो । खम-महवजवाईगुणकलितो सोममुत्ती य ॥ तस्स विणेएण इमं वीरजिणिंदस्स साहियं चरियं । पावमलस्स खयट्ठाए सूरिणा मिचंदेण ॥ जं एत्थ अणागमियं लक्खण-छंदेहिं दूसियं जं च । रइयमणाभोगेणं मिच्छा मिह दुक्कडं तस्स ॥ जो पढइ इमं चरियं वक्खाणइ सुणइ वायए वा वि । वीरस्स उ भत्तीए सो पावइ परमकल्लाणं ॥ अणहिलवाडपुरंमी सिरिकन्ननराहिवंमि विजयंते । दोहट्टिकारियाए वसहीए संठिएणं च ॥ वाससयाणं एगारसह विक्कमनिवस्स विगयाणं । अगुयालीसे संवच्छरंमि एवं निबद्धं ति ॥ ग्रंथाग्रं श्लोकतो ज्ञेयं ३००० । Colophon: संवत् १२३६ ज्येष्ठसुदि १४ शनौ वीरचरितपुस्तिका लिखितेति । मंगलं महाभीः । Pras'asti of the Donor:-- प्राच्या वाटो जलधिसुतया कारितः क्रीडनाय तन्नाम्नैव प्रथमपुरुषो निर्मितोध्यक्षहेतोः। तत्संतानप्रभवपुरुषैः श्रीभृतैः संयुतोयं प्राग्वाटाख्यो भुवनविदितस्तेन वंशः समस्ति ॥ १ ॥ तस्मिन्नभूत् सुचरितः शुभवृत्तशाली श्रेष्ठी गुणैकवसतिर्युतिमान् प्रसिद्धः । मुक्तामणिप्रतिकृतेः श्रियमाततान त्रासादिदोषरहितः सहवू प्रसिद्धः ॥२॥ . पनी सहवुकस्याभूच्छ्रेष्ठा गाजीति संज्ञिता । सद्धर्मकर्मनिरता जज्ञिरे तनयास्तयोः ॥ ३ ॥ आद्योभून्माणिभद्राख्यः शालिभद्रस्ततो गुरुः । तृतीयः सलहको नाम प्रिये तस्य बभूवतुः ॥ ४ ॥ आद्या बाबी गुणाधारा तत्सुतो वेल्लकाभिधः । सच्छीलांबरशालिनी पुत्री सहरिसंज्ञिता ॥५॥ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. II KHETARWASI थिरमत्या द्वितीयायास्तनयाः पंच जज्ञिरे । आधौ धवल - वेलिगौ यशोधवलः कलाभृत् ॥ ६॥ रामदेवोपि निःशेषकलासंकेतमंदिरं । ब्रह्मदेवो यशोदेवः पुत्री वीरीति विश्रुता ॥ ७ ॥ महौजा धवलसूनुरासदेवो विवेकवान् । वेलिंगस्यापि सत्सूनुरासचंद्रः कलालयः ॥ ८ ॥ इतश्च । आसीचंद्रकुले शशांकविमले सूरिर्गुणानां निधि - त्रैलोक्याभयदेवसूरिगुरुः सिद्धांतविश्रामभूः । स्थानांगादिनवांगवृत्तिकरणप्राप्तप्रसिद्धिर्भृशं येन स्तंभनके जिनस्य विशदा सम्यक् प्रतिष्ठा कृता ॥ ९ ॥ तत्पट्टे हरिभद्रसूरिरुदभून्निःशेपशास्त्रार्थवित् तच्छिष्यो जितसिंहसूरिरुदभून्निःसंगिनामग्रणीः । तच्छिष्योजनि हेमसूरिगुरुर्गीतार्थचूडामणि स्तत्पादांबुज षट्पदो विजयते श्रीमन्महेंद्रप्रभुः ॥ १० ॥ करिकर्णास्थिरा लक्ष्मीः प्राणास्तु [क्षण ] नश्वराः : इत्थं व्याख्यां ततः श्रुत्वा श्रद्धासंविग्नमानसः ॥ ११ ॥ यानपात्रं भवांभोधौ मज्जतां प्राणिनामिह । पततां दुर्गतौ कूपे रज्जुकल्पं हि पुस्तकं ॥ १२ ॥ इत्येवं मनसि ज्ञात्वा रामदेवेन लेखितं । श्रीमहावीरचरितमात्म[नः ] श्रेयसे मुदा ॥ १३ ॥ मनोज्ञपत्रसंयुक्तं सदक्षरविराजितं । भुवनचंद्रगणये दत्तं सद्भक्तियोगतः ॥ १४ ॥ पृथ्वीपीठकृतास्पदः सुरगिरिः सौवर्णकुंभश्रियं धत्ते वर्त्तुधिष्ण्यमौक्तिकलतागुच्छैः समंताद् वृतः । संछन्नो गुरुकल्पपादपदलैर्यावत् सदा मंगलं तानंद पुस्तको मुनिगणैः पापठ्यमानश्विरं ॥ १५ ॥ The following is added in a different hand. मौनं बौद्ध ! कुरु श्रुतेन रहितो नैयायिक ! त्वं सदा भो भो सांख्य ! भवादृशां न समयस्ते जैमिने ! नोऽधुना । भो वैशेषिक ! सत्वरं प्रसरतां ( ं) युक्तं कुबोधस्पृशां संप्रत्येष कुवादिकुंभिदलने श्रीहेमसूरिर्हरिः ॥ १ ॥ 287 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS कैश्चिन्मित्रविधि विधाय विबुधैः प्रज्ञाप्रतानोद्धतै रन्यैालिशतां प्रपद्य कृतिभिर्येषां पुरः स्थीयते । सच्छिष्यैरिव सेविताः प्रतिदिनं विद्वज्जनैः कैश्चन ते नंदंतु युगप्रधानगुरवः श्रीमन्महेंद्राभिधाः ॥ २ ॥ ३८. काव्यप्रकाशसङ्केत (काव्यादर्श उ. ९-१०) by सोमेश्वर. प. २४२-४५५; १४०x२" End: ___ सुधियां विकासहेतुर्मथोयं कथंचिदपूर्णत्वादन्येन पूरित इति द्विखण्डोप्यखण्ड इस यद् भाति तत्रापि संघटनैव सन्निमित्तं । .. स्वीकृत्य कल्पतरुतो मरुतः परागं ___ दृष्टेः क्षतिं विदधते जगतोपि किं तैः ? । भंगः कृतीत्र (ह) परितः सुमनोमुखेभ्यः पीतं मधूद्वमति येन मुदं करोति ॥ इति भट्टश्रीसोमेश्वरविरचिते काव्यादर्श काव्यप्रकाशसंकेते दशम उल्लासः । भरद्वाजकुलोत्तंसभट्टदेवकसूनुना।। सोमेश्वरेण रचितः काव्यादर्शः सुमेधसा ॥ संपूर्णश्व काव्यादर्शनाम काव्यप्रकाशसंकेतः । शुभं । ३९. (१) शास्त्रवार्तासमुच्चय. प. १-४७; १४"४२" (२) दशवकालिक (चूलिका २). प. १-५५ ४०. जिनपूजाद्युपदेश (रत्नचूडादिकथा) by नेमिचन्द्रसूरि. प. १७२; १४०४२" Beginning: पणमिय नमिरनरवरसरसिरुद्द वियासणं भुवणपणयं । नियतमतिमिरनियरं वीरजिणदिणेसरं सिरसा ॥ जयति [मुहकंति]निजियसारयरयणीयरा य सुयदेवी । दुत्तरसुयरयणायरतरणतरंडोवमपसाया ॥२॥ इय नमिउं वीरजिणं थोऊण [सरस्सइं च] भावेण । भवियजणबोहणत्थं उवएस किंचि वोच्छामि ॥ End: सोऊण परियमेयं तु रयणचूडाइयाण सत्ताणं । जिणपूषाइसु जत्तो कायव्वो भव्वसत्तेहिं ॥१॥ Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No II. KHETARIVASI 289 मिच्छत्त-मोहमहणं भव-सायरतरणपवहणं परमं । ......॥ सयलजयजंतुपत्थियसुहफलया कप्पपायवलय व्य । सग्गापवग्गसंगमनिबंधणं जयइ जिणपूया ।। २ ।। सयलसुहसिद्धिकरणो दुहहरणो पयडपाव-विसहरणो । जिणसासणस्स सारो जयइ सया पंचनमोकारो ॥ ३ ॥ धणओ धणकामीणं कामथीणं च सव्व कामकरो।। दाणाइओ वि धम्मो जिणिंदभणिओ जए जयइ ॥ ४ ॥ भदं सरस्सइए देवीए समणुभावओ जीसे । मंदमई विउसाणं सहासु विउसायए पुरिसो ॥ ५ ॥ आसि सिरिदेवसूरी दुव्वहसीलंगगुणधरो धरणो । उज्जयविहारनिरओ तग्गच्छे तयणु संजाओ ॥ ६ ॥ सिरिनेमिचंदसूरी कोमुइचंदो व्व जणमणाणंदो। तयणु महिवलयपसरियनिम्मलकित्ती विमलचिनो ॥ ७ ॥ समणगुणदुव्वहधुराधारणधोरेयभावमणुपत्तो। सिरिउज्जोयणसूरी सोमतणू सोमदिट्ठी य ॥ ८ ॥ धम्मो व मुत्तिमंतो पयपंकयनासियतमोहो । जसदेवसूरिनामो रवि व्व तव-तेयसा जुत्तो ॥ ९ ॥ दूरविणिजियमयणो रूवेण मणेण सयलगुण निलओ] । आणंदियसयलजणो पवरो पजुन्नसूरिवरो ॥ १० ॥ निविडमुणियदुग्गमकव्वो जीवो व्व वादसत्यत्थो । मुसुमूरियमयमयणो सूरिवरो माणदेवो त्ति ॥ ११ ॥ उद्दामकित्तिसद्दो मणहरदेहो महामई कुसलो । दसणमेत्ताणंदियजिणवयणपउट्ठलोगो वि ॥ १२ ॥ पयडियवरसत्थत्थो मुहसंठियसरस्सइ व्व पडुवयणो । . सिरिदेवसूरिनामो समस्थलोगंमि विक्खाओ ॥ १३ ॥ तह चेव तंमि गच्छे उज्जोयणसूरिणो पवरसीसो । जाओ गुणरयणनिही उवज्झायो अंबदेवो त्ति ॥ १४ ॥ कोमुइमयंकमंडलसोमसरीरस्स संतचित्तस्स । वरमइणो धंमसहोदरेण मुणिचंदसूरिस्स ॥ १५ ॥ 37 Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 290 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS सुयदेविपसाएणं सीसावयवेण तस्स तणुमइणा । एसा कहिया रतिया उ सूरिणा णेमिचंदेण ॥ १६ ॥ आणंदियविउसासु अन्नासु कहासु विजमाणासु । एसा हासट्ठाणं जाया जाणंतेणावि वि उसाणं ॥ १७ ॥ कलहंसगइविलासेण संचरंतो हु धवलिपुट्ठो। हासहाणं जायद जणंमि निस्संसयं जेण ॥ १८ ॥ किंतु सुयणरयणा हासोचियमवि हसंति न कया वि । अवि य कुणंति महग्यं गुणाणमारोवणेणेत्थ ॥ ११ ॥ इय वलियकारेण कव्वविहाणंमि जायवसणेणं । कवभासो विहिओ तेण प्पणो णुसरणत्थं ॥ २० ॥ तो गुग्गहं कुणंता सुगंतु गिण्हं (गुणं)तु निग्गुणं पि इमं । सोहंतु दोसजालं दक्खिण्णमहोयही सुयणा ।। २१ ।। डिंडिलवदनिवेसे पारद्धा संठिएण सम्मत्ता । चहावलिपुरीए एसा फग्गुणचउमासे ।। २२ ॥ पजुन्नसूरिणो धंमनतुएणं तु सुयणसारेणं । गणिणा जसदेवेण उद्धरिया एत्थ पढमपई ॥ २३ ॥ पूजाविधानं समाप्तं । छ । ग्रंथानं प्रमाणे(ने)ति च सहस्रत्रयपंचशताभ्यधिकं । ३५०० ॥ Colophon:-- संवत् १२०८ ज्येष्ठसुदि ६ रवौ अयेह श्रीमदणहिलपाटके । समस्तराजावली. समलंकृतमहाराजाधिराजउमापतिवरलब्धप्रसादप्रौढप्रतापनिजभुजविनिर्जितरणांगगोपेतशाकंभरीभूपालश्रीमत्कुमारपालदेवकल्याणविजयराज्ये तन्नियुक्तमहामात्यश्री महादेवे श्रीश्रीकरणादौ समस्तव्यापारं कुर्वत्येवं काले प्रवर्तमाने ऊमताप्रामवास्तव्य लेखकजालेन पूजाविधानपुस्तिका लिखितेति । लेखक-पाठकयोः शुभं भवतु । मंगलं महाश्रीः । ४१. पश्चाङ्गी [ उपासक, अंतगड, अणुत्तरोववाई, प्रभव्याकरण and विपाक ]. प. २३८; १५"४२" Colophon: श्रीमदूकेशवालीयवंशजातेन जिनप्रवचनप्रणीतधर्मवल्लभेन सिद्धांतप्रणीतानुष्ठान भावनायुक्तेन खीम्बडनामा श्रावकेण तथा तद्भार्यया शीलालंकारालंकृतया धर्माः Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 291 No. II KHETARWASI ष्ठानकारिकया लाच्छिनामिकया श्राविकया च स्वदुहितुर्ग्रहीतप्रव्रज्याया विनयश्रिया गणिन्याः पठन-श्रवणादिनिमित्तं पंचांगीपुस्तिका स्वविभवेन एकादशांगीसूत्रलिखापनाभिप्रायमता लेखयित्वा सिद्धांतमहोदधिपारगामिभ्यः श्रीजयसिंहसूरीभ्यो वितीर्णा । सा वाच्यमाना नंदतु श्रीवर्धमानतीर्थ यावदिति ॥ ४२. कादम्बरीशेष ( उत्तरार्ध) by पुलिन्द्र. प. १४८; १६३०४२" End: परां कोटिमानंदस्याभ्यगच्छत् । इति बाणकविविरचितायां कादंबरीकथायां तत्सूनुविरचितः शेषः परिसमाप्तः ॥ ७ ॥ Colophon:-- संवत् १२८२ कार्तिकसुदि २ भौमदिने कादम्बरीपुनःसंधानपुलिंद्रखंड समाप्तं ॥ शुभं भवतु । ४३. (१) पञ्चाङ्गी. प. २५२; १५"४२" Colophon: संवत् १२५८ वर्षे माघशुदि १५ बुधे पंचांगीसूत्र भ० श्रीकल्याणरत्नसूरियोग्यं । (२) आराधना. गा. ६९ (३) चउसरण. (४) स्तुति (सं.). गा. ४ (५) श्रावकधर्म (पश्चाशक) by हरिभद्र. (६) दरिसणसत्तरि. गा. ७० (७) ज्झाणसयय (ध्यानशतक) by जिनभद्र. गा. १०६ End: पंचुत्तरेण गाहासतेण झाणसययं समुद्दिढे । जिणभदखमासमणेहिं कम्मविसोहीकरं जइणो । ज्झाणसययं सम्मत्तं ॥ १०६ ॥ (८) धम्मोवग्गहकुलक. गा. २५ Beginning: धम्मोवग्गहदाणं दिजइ धम्मट्टियाणं नरनाहो । जे खंति-मद्दवज्जवनियमपरा मुत्ति-बंभधरा ॥ १ ॥ (९) श्रावकविधि. गा. २१ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 292 Beginning: Beginning:— End: End: PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (१०) नवकारफल. जत्थ पुरे जिणभवणं etc. घणघायकम्ममुक्का अरहंता तह य सवसिद्धा य । (११) धम्मरयणपगरण by शान्तिसूरि. End:— (१२) वीतरागस्तोत्र. ४४. (१) कल्पसूत्र. इ धम्मरयणपगरणमणुदियहं जे मणंमि भावंति । [म] पंका निवाणसुहाई पार्वति ॥ १४५ ॥ धम्मरयणपगरणं सम्मत्तं ॥ Colophon:— संवत् १३०५ वर्षे श्रावणशुदि बुधे धनिष्ठानक्षत्रे शोभनयोगे समर्थिता । सा० रत्नसिंहेन लेखितं स्तंभतीर्थिपौषधशालायां ॥ (२) कालकाचार्यकथा (प्रा० ). Beginning:— गा. २५ गा. १४५ विहिणा दिवं पत्तो । ४५. (१) लिङ्गानुशासनविवरण by हेमाचार्य. मं. ३२८४ प. २१८; १६x२ " प. १-१३१ (२) जीतकल्पवृत्ति by तिलकाचार्य. प. १–८७; १४३′′×१३” प. ८७ - ११२ वंदे वीरं तपोवीरं तपसा दुस्तपेन यः । शुद्धं स्वं विदधे स्वर्ण स्वर्णकार इवाग्निना ॥ १ ॥ जिनभद्रगणिं स्तौमि क्षमाश्रमणमुत्तमं । यः श्रुताज्जीतमुद्द शौरिः सिंधोः सुधामिव ॥ ४॥ ' इति नुतिकृतसुकृतः श्रुतरहस्यकल्पस्य जीतकल्पस्य । विवरणलवं करिष्ये स्वस्मृतिबीजप्रबोधाय ॥ ६॥ इति श्रीतिलकाचार्यविरचिता जीतकल्पवृत्तिः समाप्ता । श्री मां चंद्रप्रभसूरिर्युगप्राधान्यभागभूत् । तदासनमलं चक्रुः श्रीधर्मघोषसूरयः ॥ १ ॥ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. II KHETARWASI तत्पट्टे श्रीभुजो भूवन् श्रीचक्रेश्वरसूरयः । श्री शिवप्रभसूरिस्तत्पट्ट श्रीहारनायकः || २ || तदीयशिष्यलेशोहं सूरिः श्री तिलकाभिधः । अनन्यसमसौरभ्यश्रुतांभोजमधुत्रतः ॥ ३ ॥ इमामिदृग्विधां चूर्णिस्तस्याश्चोपनिबन्धनं । गुरूणां संप्रदायाश्च विज्ञायार्थं स्वशक्तितः ॥ ४ ॥ अकार्ष जीतकल्पस्य वृत्तिमयल्पधीरपि । सा विशोध्या श्रुतधरैः सर्वैर्मयि कृपापरैः ॥ ५ ॥ वृत्तिं रचयता चैतां यन्मया सुकृतं कृतं । भवे भवेहं तेन स्यां श्रुताराधनलालसः || ६ || शते द्वादशकाब्दानां गते विक्रमभूभुजः । विहिता स्वहितार्थेयं चतुःसप्ततिवत्सरे ॥ ७ ॥ सहस्रमेकं श्लोकानामधिकं सप्तभिः शतैः । प्रत्यक्षरेण संख्याया मानमस्यां विनिश्चितं ॥ ८ ॥ यावद् विजयते तीर्थं श्रीमद् वीरजिनेशितुः । असौ सन्मान से तावत् कलहंसीव खेलतु ।। ९ । मंगलं महाश्रीः । शुभं भवतु । (३) जीतकल्प ( मूल). प. १३२ - १४१ End: Colophon: संवत् १२९२ वर्षे माघशुदि १ गुरौ अद्येह श्रीभृगुकच्छे श्रीमानतुंगसूरिशिध्येण पंडि० गुणचंद्रेण जीतकल्प विवरणपुस्तिका लेखयित्वा श्री अभयदेवसूरीणां प्रदत्ता | शुभं भवतु । यादृशं etc. 293 यतिजीतकल्पवृत्तिः तिलकाचार्यकृता सूत्रं च । ४६. (१) कम्पयडीसंगहणी. गा. ४७५ प १ - ४५; १३३ " ×१३" (२) न्यायप्रवेशपञ्जिका. प. २–११९ न्यायप्रवेशशास्त्रस्य सद्वृत्तेरिह पंजिका । स्वपरार्थं दृष्टा(दृब्धा) स्पष्टा पार्श्वदेवगणिनाम्ना ॥ १ ॥ ग्रह-रस-रुद्रैर्युक्ते विक्रमसंवत्सरेनुराधायां । कृष्णायां च नवम्यां फाल्गुनमासस्य निष्पन्ना ॥ २ ॥ Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 294 इति श्री शीलभद्रसूरिशिष्य सुगृहीतनामधेय श्री मद्धनेश्वरसूरिशिष्यैः सामान्यावस्थाप्रसिद्धपंडितपार्श्वदेवगण्यभिधान (नैः) विशेषावस्थावाप्तश्री श्री चंद्रसूरिनामभिः विषयपदभंजिका न्यायप्रवेशक वृत्तेः पंजिका परिसमाप्तेति । प. १३५; ९”×१३” PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS न्यायप्रवेशविवृतेः कृत्वेमां पंजिकां यन्मयावाप्तं । कुशलस्तु तेन लोको लभतामवबोधफलमतुलं ॥ ३॥ यावलवणोदन्वान् यावन्नक्षत्रमंडितो मेरुः । खे यावचंद्रार्कौ तावदियं पंजिका जयतु ॥ ४ ॥ शुभमस्तु सर्वजगतः etc. स्वपरोपकारार्थं मंगलं महाश्रीः । ४७. (१) आवश्यक निर्युक्ति. (२) चउसरण. (३) अजितशान्ति ( अपूर्ण ). ४८. हेमशब्दानुशासन बृहद्वृत्ति (आख्यात). प. ४५५; १५३ " ×२" ४९. गउडव हो. प. १६८; १४”×२" H Beginning: पढमं चिय धवळकओ कहावीढं सम्मत्तं । गाथा १९६८ । लोकतः १४९० । गा. ५१४ गा. End:-- ५०. (१) बृहत्सङ्ग्रहणी. End:--- (२) नवपद by जिनचन्द्र. ई नवपयं तु एयं लिहियं सीसेण ककसूरिस्स । गणिणा जस ( जिण) चंद्रेण सरणत्थमणुग्गहत्थं च ॥ (३) पिण्डविशुद्धि. (४) अजितशान्ति. (५) क्षेत्र समास. (६) मूलशुद्धि. (७) एगवीसठाण. (८) गौतमपृच्छा. प. १-५२; १५ x २ १३८ प. ५३-६८ (९) वन्दन भाष्य. (१०) कर्मस्तव. गा. १०४ प. ६८- ८२ गा. ३८ प. ८२-८८ गा. ८८ प. ८९-९६ प. ९६ - ११४ प. ११४- १२० प. १२०-१२३ प. १२३-१२६ प. १२७-१३१ गा. ६४ गा. ५१ गा. २४ गा. ५८ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. II KHETARWASI 295 (११) कर्मविपाक. गा,१६७ प. १३१-१४५ (१२) सत्तरिया. गा. १९१ प. १४५-१६३ (१३) आगमिकस्तुविचारसार. गा. १०४ प. १६३-१७३ (१४) सूक्ष्मार्थविचारसार. गा. १२३ प. १७४-१८६ (१५) पवयणसंदोह. ग्रं. ३३४ प. १८७-३०९ (१६) मुनिमुक्तावली ( ? अपभ्रंश). गा. १३ प. १ Beginning: पणमह तिसलासुयजिगह पायजुयलु सिरिगेहु । जसु निम्मलनहपंतिमिसि रयणपुंजु नं एहु ।। १ ।। End:-- सिरिवयर अणंतरगुणिहि निरंतर मुत्तावली जिंव जे वहइ । मुणिरायपरंपर हियइ ण जिय पर ते भवियण सिवसुहु लहइ ।। (१७) तपोयनादि प. ४ ५१. त्रिषष्टिश. पु. चरित्र (प्रथमपर्व त्रुटित) हेमाचार्य. प. ३५७;१३"४२१" ५२. (१) दशषिधसामाचारी. प. १-६१; १२३"४१३" (२) उपपातनियुक्ति. (३) नमस्कारनियुक्ति. प. ६१-८९ (४) सामायिकनियुक्ति. (५) चउवीसत्थयज्झयण. प. ८५-९३ (६) वन्दननियुक्ति. प. ९४-१०५ (७) प्रतिक्रमणभाष्य. । (८) काउसग्गमाष्य. । प. १४०. First :20 folits missing. (९) पचखाणभाष्य. ५३. (१) गृहस्थधर्मकुलक (?) Beginning: वीरं नमिऊण निहत्थधम्म सम्मत्तमूलं पडिवजयामि । देवो जिणो मे जियरागदोसो सुसीलजुत्तो गुरुणो सुसाहू ।। (२) शालिभद्रचरित्र (अपभ्रंश) by पउम. गा. ६९ प. ६ (३) सामायिकप्रकरण. गा. १५ प. १-२; १३३"४२" Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 296 Beginning: Beginning:— सम्मसु देस विरई चरणं सामाइयाइं चत्तारि । सम्मसुए सत्त दिणा वारस पक्खो कमा विरहो ॥ (४) गुणस्थानक. गा. १६ End:-- PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS जीवाइपयत्थेसु जिणोवइट्ठेसु जा असद्दहणा | सहणा वियमिच्छा विवरीयपरूवणा जाय ॥ Beginning:— (५) उपदेशमाला. (६) धर्मोपदेशमाला. (७) मूलशुद्धि. (८) पञ्चकल्याणक. Beginning:— तित्थं पवयणसुयदेवयं ete. (९) क्षेत्रसमास. (१०) भवभावना. (११) वन्दनकनिर्युक्ति. (१२) वरखामिचरित्र (अपभ्रंश). गा. ५४१ प. ३-४६ गा. १०१ गा. २१२ गा. १३५ गा. ८८ गा. ५३१ गा. १८९ १ ॥ प. २-३ १ ॥ गा. २८ श्लो २८ प. ४७-५५ प. ५५-७३ प. ७३-८५ अहु जण निणिज्ज कन्नु धरिज्जउ वइरसामिमुणिवरचरिउ । गा. २७ गा. १६८ गा. १०३ प. ८५-९२ प. ९२-१४० प. १४०-१५७ प. १५७ - १७८ मुणिवरवरदत्ति जिणवरभत्ति वयरसा मिगणहचरिउ । साहिज्जउ भावि मुंच पात्रिं जिं तिहुयणु गुणगणभरिउ । वइरसामिचरित्रं समाप्तं । श्लोक ३०० ॥ प. १७८ - १८१ (१३) आराधनाप्रकरण. (१४) प्रश्नोत्तररत्नमाला. प. १८१ - १८४ (१५) धर्मलक्षण. प. १८४ - ९८५ (१६) पापप्रतिघात - गुणबीजाधान ( प्रा० ). प. १८५- १८९ प. १८९ - १९४ प. १९४-१९७ (१७) दर्शनसप्ततिका (प्रा० ). (१८) प्रव्रज्याविधान ( प्रा० ) . (१९) कर्मविपाक ( प्रा० ). (२०) पिण्डविशुद्धि (प्रा० ). प. ९९७-२१० प. २१०-२२० Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Beginning:— (२१) जीवदयाप्रकरण. (२२) सुकोशलचरित्र. End: Beginning: No. II KHETARWASI (२३) एकविंशतिस्थानप्रकरण. गा. ६६ (२४) पञ्चपरमेष्ठिनमस्कारविचार. (२५) नवपदप्रकरण (प्रा० ). गा. १४२ (२६) श्रावककुलक. (२७) प्रत्याख्यानभाष्य ( प्रा० ). गा. ४५ (२८) वन्दनभाष्य ( प्रा० ). गा. २५ गा. ५१ (२९) जीवविचार ( प्रा० ). (३०) स्थविरावलि (प्रा० ). (३१) ओघ नियुक्त्युद्धार. गा. ५० गा. ५३ अह इत्तो वीसइमे जिणंतरे वट्टमाणसमयंमि । विजओ नाम नरिंदो साएयपुराहिवो जाओ ॥ १ ॥ 38 (३२) नवतत्त्वभेद. (३३) नवतत्त्वप्रकरण. (३४) सम्यक्त्वभेदप्रकरण. Beginning:— गा. ११२ गा. १०५ पत्तं पत्तावबंध पायट्टवणं च पायकेसरिया । पडलाई रइत्ताणं च गोच्छउ पायनिज्जोगो ॥ १ ॥ आराहणार जुत्तो सम्म काऊ सुविहिओ कालं । कोसं तिन्नि भवे गंतूण लभिज्ज निवाणं ॥ ५३ ॥ ओ नियुक्ति उद्धार || ५४. (१) सूत्रकृताङ्गसूत्र. (२) "" प. २२०-२३१ प. २३१-२४० निर्युक्ति. गा. २१ प. २४०-२४७ प. २४७-२५० प. २५०-२६४ प. २६४-२६७ प. २६७ - २७१ प. २७१-२७३ प. २७३ - २७८ प. २७९-२८३ प. २८४-२८६ चउसद्दहण - तिलिंगं दसविणयं तिसुद्धि पंचगयदोसं । 297 प. २८७ - २९२ प. २९२ - २९४ प. २९४-२९५ प. १४५; प. १८ १३ " ×२" Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 298 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS ५५. (१) कर्मविपाक (प्रा०). गा. १६८ प. २५१; १४०x१३" (२) कर्मस्तव (प्रा०). गा. ५७ (३) ,, भाष्य (प्रा०). गा. २४ (४) षडशीतिप्रकरण (प्रा०). गा. १०४ (५) सूक्ष्मार्थविचारसार (प्रा०). गा. १५८ (६) शतकभाष्य (प्रा०). गा. २५ Beginning: नमिऊण वद्धमाणं क[इवयगाहाण सयगभासं तु । वोच्छं गुरूवएसा सरणत्थं अप्पणो चेव ॥ End: सुरदुगसेसं जाणसु नवअब्भहियं मुणेयर्छ । सयगसुभासयमेयं अभयपुरत्थं सया मुणसु ॥ शतकभाष्यं समाप्तं ॥ (७) शतकप्रकरण (प्रा०). गा. ११२ (८) सप्ततिकाप्रकरण (प्रा०). गा. ८३ (९) भवभावना (प्रा०). गा. ५३२ (१०) सङ्ग्रहणी (प्रा०). गा. ३७९ (११) प्रवचनसन्दोह (प्रा०). गा. ३५५ (१२) योगशास्त्र. श्लो०४६४ (१३) श्राद्धदिनकृत्य (प्रा०). गा. ३४१ (१४) धर्मरत्नप्रकरण (प्रा०). गा. १४५ (१५) आतुरप्रत्याख्यान (प्रा०). गा. ८० (१६) चतुःशरण (प्रा०). गा. ६४ (१७) चतुर्विंशतिजिननमस्कार. गा. २५ Beginning: पढममुणिवर ! जणमणाणंद ! सुरनाहसंथुयचलण ! भरह-जणय ! जय पढमसामिय ! संसारवणगहणदव ! चत्तदोस ! अपवग्गगामिय ! लोयालोयपयसयर ! पयडियधम्माधम्म ! सुविहाणं तुह रिसह जिण! योजय निजियकम्म ! ॥ १॥ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. II KHETARWASI 299 जेण दाणव-सिद्ध-गंधव-विज्जाहर-किन्नरह मलि उ माणु नरनाहविंदह हरि-रुड़-चउराणणह सूर-चंद-गोविंद-इंदह । सो पसरंतउ देव ! पइ निजि उ भडु कंदप्पु सुविहाणं वु(तु)ह अजियजिण ! जसु एवडु माहापु ॥ २॥ End: जे सुसावय साहु वरचित्त सुपसिद्धउ सुपभवतूर(?)नमण निसिहि विरमि थिरु करहि अणु देणु । चवीस वि जिणवरहं सुप्पभायथुइ भणइ अणुदिणु ते संसार-महोयहि हि उत्तारइ अप्पाणु पावह दुक्खक्खउ करवि संतिभद्दु कल्लाणु ॥ २५ ॥ चतुर्विंशतिजिनानां नमस्काराः संमत्ता ( समाप्ताः ) ॥ ५६. (१) आचाराङ्गसूत्र. प. २-१४८; १४३+२" (२) , नियुक्ति. गा. ३६७ प. १४८-१७१ ५७. कर्मग्रन्थचतुष्टय ( चूर्णिसहित ). प. १७६; १३३"४२" :. (१) उपदेशमाला. गा. ५४० प. ५२, १३°४२" (२) धर्मोपदेशमाला. गा. १५२ प. ५२-६८ (३) पञ्चकल्याणक. गा. १३४ प. ६८-८२ (४) स्थानकप्रकरण (मूलशुद्धि ). प. ८२-१०२ (५) क्षेत्रसमास. गा. ८४ प. १०२--१०९ (६) नवपदप्रकरण. प. १०९-१२७ (७) भावनाप्रकरण. प. १२७-१४६ (८) आराधनाप्रकरण. प. १४६-१५१ ५९. (१) वार्तिक. Beginning: हिताहितार्थसंप्राप्त्यै ctc. (२) वार्तिकवृत्ति by शान्तिसूरि. प. २६७; १४०x१३" Beginning: नमः स्वतः प्रमाणाय वचःप्रामाण्यहेतवे । ६०. (१) नवपदप्रकरण. गा. १४० प. १४ (२) जम्बूद्वीपप्रकरण (क्षेत्रसमास). गा. ८९ प. १५-२५ (३) चतुःशरण. गा. २७५ प. २५-२८ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 300 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (४) दर्शनसप्तति. गा. ७२ प. २८-३७ (५) प्रत्येकवुद्धचरित्र (१५ सन्धि). प. ३७-५४; ११"४१४" Beginning:इह जिणु-सासणि भव-दुह-नासणि अक्खं सुणहु पत्तेअकह । करकंडु कलिंगेसु पंचालेसु य दुम्मुहो । नमी राया विदेहेसु गंधारेसु य नग्गई । करकंडू वसहेण य दुम्मुहो इंदकेऊणा वलियसद्देण नमिरायरिसी धूयदसणेण नग्गई पडिबुद्ध चउरो । एक्कु कालु चत्तारि विहरिया संजमसिरि रत्तिहिं । बहुगुणवंतिहि लईय दिक्ख तिणि रज्जु रयसिहिं । सविसेसु सभणेसुं नमि-चरिउ कहेसुं मयणरेह अन्न महासई अ ॥ १ ॥ आवंतियनामिहि अत्थि देसु गामागर-नगरमंडीयपएसु । धण-धन्नसमिद्धउ गोउलगणेसु जहिं मत्तु (ग्गु) न लभइ पंथियजणेसु ॥२॥ End: इय भावण भ(भा)वंतो उपसमि जुत्तो केवल नाणु उप्पन्नु तहो । ते वरमुणि पत्तेय वरसिद्धिहि अच्छहि सुह माणता ॥ ८ ॥ ॥ १५ ॥ पं. २१४ एवं ।। (६) आराधना. गा. ६९ प. ५४-६२ (७) आतुरप्रत्याख्यान. प. ६२-६६ (८) ऋषभपश्चाशिका. गा. ५० प. ६६--७२ (९) पिण्ड विशुद्धि. गा. १०३ प. ७२-८६ (१०) वृहत्सङ्ग्रहणी. गा. ३७८ प. ८६-१३३ ६१. प्रवचनसारोद्धार. १२३०x१३ ६२. (१) दशवकालिक. प. ५२; १३३०४१३" (२) पाक्षिकसूत्र. प. ५३-७५ ६३. (१) उपदेशमाला by हेमचन्द्र. गा. ५०५ प. ५०; १३३०४२ (२) भवभावना by म. हेमचन्द्र. गा. ५३० प. ५०-१० (३) कर्मविपाक (अपूर्ण). गा. ४० प. १३१-१३' ६४. त्रिषष्टिश. पु. चरित्र by विमलसूरि. १४३४२" First folio is missing and a few others are damaged. Incomplete ............स्तुमः श्रीहरिभद्रसूरिं ॥ ६ ॥ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 801 No II. KAETARWASI श्रीहेमसूरेर्मुनिवृंदवृंदारकस्य तस्यास्तु नतिर्मदीया । ............बोधचक्षुर्निरीक्षते जनोखिलार्थान् ॥ ७ ॥ व्यामोहहालाहलदूषितं मे प्रबोधशक्त्य............ चैतन्यमुल्लासितमंजसा यैर्जयंतु ते श्रीमलधारि[सूरयः ॥ ६५. अनर्घराघवरहस्यादर्श by देवप्रभाचार्य. प. २१७; १३०४२" First folio damaged. Beginning with gat Ardere in the fifth act. End: इत्याचार्यश्रीदेवप्रभविरचितमनर्घराघवरहस्यादर्शो नाम मुरारिकृतेरनर्घराघवस्य नाम्नो नाटकस्य टिप्पनकं समाप्तमिति ॥ अस्ति स्म स्मयवर्जितः कविवृषा श्रीदेवभद्रः प्रभुः x x देवप्रभुष्टिप्पनं स्वस्मृत्यर्थमनर्घराघवरहस्यादर्शमेतद् व्यधात् ॥ १ ॥ अकलितपदोपि यदहं मुरारिपवृत्तिसाहसमकार्ष । संतु ततः सोत्प्रासं स्मेरास्याः सहृदयंमन्याः ॥ २ ॥ यदि वा । एकैकेन पदेन यस्य विदुषामंतः सुधासारणि ___ व्युत्पत्तिं वहता श्रवणयोरल्पप्रबंधस्पृहा । तस्मिन् नूनमन एव निविडध्यानेन तद्रूपता सिद्धेष्टिप्पनकं मदीयमिदमप्यवाप्स्यतेनर्घतां ॥ किं च। सध्रीचीरमृतस्य यस्य भणितीदग्ध्यसंवमिताः श्रुत्वा हर्पजुपो विलोचनयुगे यस्याः पयोबिंदवः । कुर्वति स्मितशुक्तिसंपुटपुटकोडे स्फुरन्मौक्तिक क्रीडामेष मुरारिरत्र भवतु ब्राह्मी च सा श्रेयसे ॥४॥ व्याकरणत्रयनिष्णस्तर्कनदीष्णः कवित्वनिष्णातः । जातः सखा ममास्मिन्ननुजो रत्नप्रभमनीपी च ॥ ५ ॥ अजस्रं वागीशा कविसहृदयावित्यभिहितं स्वतन्त्रं मन्वाना समधिवसतिं प्रीतहृदया। अजन्यात् सौजन्यादकृपदगदंकार इव स __ स्वयं शल्यान्यस्मान्मम विवरणाल्लूणिगसुधीः ॥ ६॥ प्रत्यकमक्षराणां निपुणं गणनेन मानमेतस्य । निरदेशि श्लोकानां सप्तसहस्रं शतं चैकं ॥ ७ ॥ ग्रं. ७१०० मंगलमस्तु । शुभं भवतु सकलसंघस्य । मंगलं महाश्रीः । Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 302 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS ६६. रावणवहो ( आश्वास ५-१३). प. ७८; १२०x२" प. १२-रण्णो सिरिपवरसेणस्स रावणवहे महाकचे पंचमो आसासउ समत्तो। End: भग्गाण प्रग्गलगां......रगाणणं पवरमणिवाहा तेतैतिस्य प. ? ६७. गौतमन्यायसूत्रटीका ( ? अपूर्ण ). प. २-११९; १४°४२" ६८. (१) दशवैकालिकनियुक्ति. गा. ४५२ प. ३२; १५"४२" (२) ऋषभपश्चाशिका by धनपाल. गा. ५१ प. १-६ (३) कर्मविपाक. गा. १४३ प. १-१७ ६९. कल्पसूत्र (त्रुटित ). प. १२०; १३"४१३" ७०. किरातार्जुनीय (जीर्ण. सर्ग १७). प. १३५; १६०x२" ७१. (१) बृहत्सङ्ग्रहणी. गा. ५२८ प. ६-३२; १५"४२३" (२) कर्मस्तव. गा. ५७ प. ३२-३६ (३) कर्मविपाक. गा. १६८ प. ३६-४६ (४) शतकप्रकरण. गा. १११ प. ४६-५३ (५) कर्मग्रन्थ. गा. ९१ प. ५३-५९ (६) चित्तसमाधिप्रकरण, गा. ३५४ प. ६०-८३ Beginning: अन्नाणतिमिरसूरं संपावियपरमपस............ उवसगह सणवीरं नमिउं जोईसरं वीरं ॥ सुत्ताणुसारउ हं समासउ सुललियाहिं गाथाहिं । चित्त....... . . . . . . . . . . . . . . End: समाहीसंवेगकरो गुरूवएसेण । चंदप्पहसूरीहिं परोक्यारम्मि भूरीहिं ॥ ४७ ।। पुवकइपुंगवेहिं सकयबद्धो वि पाइ............ .........णं अबलाणं मुद्धाण अणुग्गहट्ठाए । ...............संवच्छरम्मि वइसाहे । [आ]सावल्लिए पुरीए णिम्मवियं पगरणं एयं ॥ ५४ ॥ चित्तसमाधिप्रकरणं समाप्तमिति । गा. ३५४ ॥ Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 303 No. II KHETARWASI (७) ऋषिमण्डलस्तव. गा. २६९ प. ८३-१०२ Beginning: रिसिमंडलस्स गुणमंडलस्स तव-नियममंडलधरस्स । संसारमंडलविहाडयस्स थय(व)मुत्तमं वोच्छं ॥ १ ॥ End: एवं मय-मयणदोसरहिया थुया मए सुरसहस्समहिया रिसउ । परिसाए देंतु बोहिं मज्झ य सिद्धिवसहिं उववि हेतु ॥ २६९ ॥ रिसिमंडलस्तव समाप्त ॥ (८) आराधना [१] गा. ४२ प. १०२-१०५ (९) , [२] गा. ३९ प. १०५-१०८ (१०) गा. ४९ प. १०८-१११ (११) गा. १०७ प. ११२-१२० (१२) , [५] गा. ९८ प. १२१-१२६ Beginning: मणिरहकुमारसाहू कामगइंदो वि मुणिवरो भयन । वइरगुत्तो य मुणी सयंभूदेवो महरिसि त्ति ॥ १॥ End: तत्थ न जरा न मञ्च न वाहिणो नेय सबदुक्खाई। अञ्चंतसासयं चिय भुंजंति अणोवयं(म) सोक्खं ॥ ९८ ॥ पंचम्याराधना समाप्तेति । एवं ३२४ ॥ (१३) सूक्ष्मविचारसार. गा. १५३ प. १२७-१३८ (१४) आगमिकविचारसार. गा. ९४ प. १३८-१४५ (१५) वोच्छेजगण्डी. गा. १७१ प. १४६-१५८ (१६) नवतत्त्वप्रकरण. गा. १५२ प. १५९-१६९ (१७) ध्यानशतक. गा. १०६ प. १६९-१७७ Beginning: वीरं सुकल्लाणदढकम्भिधणं पणमिऊणं । जोगीसरं सरनं ज्झाणज्झयणं पवक्खामि ॥ १ ॥ End: पंचुत्तरेण गाहासएण ज्झाणसययं समुद्दिटुं । जिणभद्दखमासमणेहिं कम्मविसोहीकरं जइणो ॥ १०५ ।। ज्झाणसयं समत्तं ॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 304 Pattan CATALOGUE OF Manuscripts (१८) बृहत्षस्थानक. गा. १७३ प. १७७-१८९ Beginning: कयवीरजिणपणामो भणियाण पुबसूरीहिं । सावयधम्मगयाणं केसिं चि पयाण परमत्थं ॥ १ ॥ End: इय पुव्वसूरिविरइयगाहाजुयलस्स विवरियं किं पि । मुणिवरसिरिजिणेसरसूरीहिं अणुग्गहट्टाए ॥ १७२ ॥ तप्पायपउमछप्पयमुणीससूरि अभयदेवसूरीहि । दुरवगममित्थ सुगमं विहियं नियसीसवयणेण ॥ १७३ ॥ बृहत् षदस्थानकं समाप्तं । श्लो० २०२ (१९) सुकोशलचरित्र. गा. १०७ प. १८९-१९६ Beginning: अह पत्तो वीसइमे जिणवरे वट्टमाणसमयंमि । विजओ नाम नरिंदो साएयपुराहिवो जाओ ॥ १ ॥ Colophon: संवत् १२१३ भाद्रपदवदि ११ भौम अद्येह........... ७२. (१) बृहत्सङ्ग्रहणी. गा. ५२३ प. २-४८ (२) कर्मस्तव. गा. ५७ प. ४८-५४ (३) कर्मविपाक. गा. १६८ प. ५४-७० (४) शतक. गा. १११ प. ७०-८२ (५) सप्तति. गा. ९२ प. ८२-९१ (६) योगशास्त्र (प्रकाश १-४) by हेमचन्द्र. प. ९२-१३५ (७) प्रवचनसन्दोह. प. १३६-१६ (८) शालिभद्रचरित्र (प्रा.). त्रुटित प. १६८-१९ End: इय परमपवित्तं सालिभहस्स एयं चरियमइविसिढे जे पढंति मणुस्सा। तह य अणुगुणंति जे य वक्खाणयंति नर-सुरवरसोक्खं भुंजिउं जंति मोक्खं ॥ १८० ॥ सालिभदचरितं समाप्तमिति ॥ (९) देवकीसुतचरित्र (प्रा.). गा. ९७ प. १९८-२८ Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Beginning: End: नमिऊण चलणजुयलं नेमिजिनिंदस्स लोगनाहस्स | देवहसुयाण चरियं नामग्गहणं पत्रक्खामि ॥ १ ॥ Beginning: No. II KHETARWASI इय देवइस्चरियं जो पढेइ मुणेइ जो उ भावेणं । सो पावइ परमफलं इह लोए उत्तिमं सोक्खं ॥ ९७ ॥ देव [य] चरितं समाप्तं ॥ (१०) वज्रखामिचरित्र ( अप. ) . End: अह जण ! निसुणिज्जउ कन्न धरिज्जउ वइरसा मिमुणिवर- चरिउ End:-- घत्ता | मुणिवरवरदत्ति गणहरभत्तिं वइरसामिगणहर चरिउ | साहिज्जहु भाविं मुहु पाविं जिं तुह यणु नियगुणभरिउ ॥ ९९ ॥ चरि सुसारउं भविय पियारडं वइरसामिगणहर चरिउ । जो पढइ कियायरु गुण- रयणायरु सो लहु पावइ एम् ॥ ६ ॥ वइरसामिसंधिः समाप्तः । गा. ४० प. २३४ - २४२ गा. २५ प. २४२-२४५ प. २०७ - २३४ (११) अजित - शान्तिस्तव. (१२) गुरुगुणकुलक. Colophon: इय नियगुणगरुडं कुलयं पज्जुनसूरिणा रइयं । सवणंजली हिं सुयणा ! अमयं च कुणंतु कंठगयं ॥ २४ ॥ संवत् [१२] ७८ वर्षे माधवदि ४ भौमे । (१३) ऋषभपञ्चाशिका. ७३ (१) अनेकार्थसङ्ग्रह (त्रुटित ) by हेमचन्द्र. (५) आत्मानुशासन. (६) स्थविरावलि (प्रा.). 39 प. २४५ - २५० 305 प. २२-८०+९६-१.१६ गा. ५८ प. २३१ - २३४ (२) कर्मस्तव (प्रा.). (३) सूक्ष्मार्थविचारसार (प्रा.). गा. १५७ प २३४-२४७ (४) षडशीतिप्रकरण ( प्रा . ) . गा. ९१ प. २४७-२५३ ऋ० ७७ प. २५३-२५८ प. २५८-२६२ गा. ५० Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 306 Pattan CATALOGUE OF MANOSCRIPTS (७) क्षेत्रसमास (त्रुटित). (८) आतुरप्रत्याख्यान (प्रा. ७.). प. ३२३-३२५ (९) चतु:शरण (प्रा.). प. ३२५-३२६ (१०) पद्मावत्यष्टक. प. ३२६-३२८ Beginning: श्रीमद्गीर्वाणचक्रस्फुटमुकुटतटीदिव्यमाणिक्यमाला । End:देवी पावती नः प्रहसितवदना या स्तुता दानवेंद्रैः ॥ ९ ॥ पद्मावत्यष्टकं समाप्तं । (११) पश्चमी(श्रुतज्ञान)स्तोत्र. प. ३२८-३२९ Beginning: विगयमय-मयणमुणिवइपणिवइयं नरेसु सुकयपूयं । पणमितु सुयनाणं तस्सेव संथवं भणिमो ॥ १ ॥ End: सुर-नरवर-खयरेहि थूइयं भाविएहिं । सरह भवियसस्था ! होहि या जेण सुत्था ॥ २२ ॥ पंचमीस्तोत्रं समाप्तं । (१२) धर्मसुरिस्तुति. प. ३२९-३३१ Beginning: जय तिहुयणसूरिमंडण ! जय सियसियजसपसरधवलियत्थि । जय सिद्धत्थनराहिवनंदण ! जय गुणमणिनिहाण! ॥ १ ॥ Endi इय कहियपरमपयहेउ धम्मसूरीहिं पणयपयकमलं । तुह संथवं पढंता लुठंतु सिवरमणउच्छंगे ॥ २४ ॥ धर्मसूरिस्तुतिः समाप्ता। (१३) कल्याणकस्तोत्र. प. ३३१-३३२ Beginning: पुरंदरपुरस्पर्धि वर्धितर्द्धिमहोदयं । भूतलं तीर्थतीमहत्पंचकल्याणिकी स्तुमः ॥ १ ॥ जिनगृहमिह देवी पात्वसौ भव्यलोकं । तनययुगलमंबा बिभ्रती वासरादौ ॥ End: Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No II. KHETARWASI (१४) जीवोपालम्भकुलक same as aforesaid. धम्मोवएसजुत्तं उवएसं etc. (१५) गुरुगुणकुलक same as aforesaid, प. ३३३-३३४ Beginning:— End: गुरुवियणविद्दुरेण वि जिणसासणभाविएण सत्तेण same as afore. Beginning:— (१६) उपदेशकुलक (१७) कुलक ( निसा विरामे ). (१८) उपदेशकुलक. Beginning:— जम्म-जरा-मरणजले नाणाविहवाहि - जलयराइने देविंद साहुमहियं सिवसोक्खं जेण पाविसि ॥ २२ ॥ गा. २१ प. ३३५-३३७ गा. १२ प. ३३७-३३८ End:-~ Beginning: प. ३३४-३३५ संसारम्मि असारे नत्थि सुहं वाहि- वेयणापउरे । (१९) पार्श्वनाथमहास्तव. धरणोरगेंद्र - सुरपति विद्याधरपूजितं जिनं नत्वा । क्षुद्रोपद्रवशमनं तस्यैव महास्तवं वक्ष्ये ॥ (२०) नानकुसुमाञ्जलि (सं. प्रा. अप. ) . Beginning: Beginning:— गा. ३८ प. ३३८-३४० प. ३४०-३४१ मुक्कालंकारविकारसारसौम्यत्वकांतिकमनीयं । सहज निजरूपनिर्जितजगत्रयं पातु जिनबिंबं ॥ १ ॥ (२१) पर्यन्ताराधना कुलक (प्रा.). गा. ६९ (२२) धर्मघोषसूरिस्तोत्र. प. ३४१-३४५ प. ३४६-३४८ मणवं छियसुहकरणो दालिहरणो वालिह-रोग-सोगाणं । तिहुयणमंगल निलओ पासजिणो कुणउ कल्लाणं ॥ १ ॥ त भवियहु जयउ सुपासजिनिंदु त पणमहु धमघुषसूरिमुणिंदु || २ || त आपणु आपणु देसिहि बुल्लाह नारि त प्रभु वंदि फलु लिज्जइ संसारि । त सुंभर भोली लंवी वीणी सुरठिणि बाल त जुवण नयणिहि जघण विसाल ॥ 307 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 108 । . PAITAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS त जिणि बोहिउ तु? अम्हइ भट्टियराउ त काराविउ नेमिनिणराय-विहारु । चउधिहसंघह सासणदेवी रक्ख करंति त इणिपरि जिणहरि रमणि बुलंति ॥ २६ ॥ . .. (२३) धर्मसुरिस्तवन. प. ३४८-३५० Beginning: पहिलउं पणमउं वीरजिणिंदु पणयसुरासुर-खयरनरिंदु । पाय-पउमु सुमरिव(वि ? ) सुयदेवि धम्मसूरि-गुण गायसु के वि ॥ १ ॥ सायंभरिनरयइनयचलणु पणमहु धम्मसूरि मुणिरयणु । गोयमसामिसरिसु कलिकालि मूढ ! म हारहु नरजंमु आलि ॥ आंचली ॥२॥ End: - चउविह संघ दियउ आसीस अम्ह गुरु जीवउ कोडि वरीसु। . सासणदेवि पूरवउ जगीस तुम्ह तूमउ जिणवर चउवीस ॥ २७ ॥ (२४) पाचजिनजन्मकलश. प. ३५०-३५१ . Beginning: अरि रि ! भवियहु ! भावु नियचित्ति य पयडेविणु वयणु महु सुणहु । नियचित्तु निञ्चलु परमेसरु पासजिण-जंमकलसु हउं भणिसु निम्मलु ॥ दुट्ठ कुटुं खय खास खस अद्भुतर सय रोग नामगहणि सिरिपासजिण ब्रड वड त्रुट्टहि रोग ॥ १ ॥ .. End: पणयनरिंदा वहियइंदा धमसूरि-पय पणमेवि त गणधर-सारु नाणाधारु आणंदसूरि सुयदेवि। . तसु सिसु पभणइ भवियउ न्हावउ तिव तुम्हि पासजिणिंदु तुम्ह रिद्धि वृद्धि मंगल-समृद्धिउ श्रेउ करउ क(ध)रणिंदु ॥ (२५) दशषिधप्रत्याख्यान (प्रा.). प. ३५१-३५३ ७४. (१) गाथा. २५०-३८८ प. २३४-२४४; १७°४२ (२) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र (प्रा.). .. प. २५०-२५६ (३) प्रकीर्णपत्र (प्रा.). प. २५७-२५८. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 309 No. II KHETARVASI (४) अजित-शान्तिस्तोत्र (प्रा.). गा. ४४ प. २५८-२६४ (५) क्षेत्रसमास (प्रा.). गा. ९१ प. २६४-२६८ (६) पिण्डविशुद्धि (प्रा.). प. २६९-२८१ (७) धर्मोपदेशमाला (प्रा.). J Colophon: संवत् १३५४ वर्षे पोसवदि १२ श्रीश्रीमालवंशे सा० वाहात्मज सा. रासलपुत्रिकया मोहिणिनाम्या........ ७५. (१) आराधना. १४४१३" (२) प्रत्याख्यान (प्रा.). अव्यवस्थित (३) जम्बूद्वीपप्रकरण. टित Colophon:श्रीभद्रेश्वरसूरिश्रीविजयचंद्रसूरिश्रीगुणश्रीमहत्तरासत्कं श्रीपद्मश्रीमहत्तरायाः ॥ ७६. (१) ओघनियुक्ति (प्रा.). गा. ११५४ प. १-८४; १४०x१३ (२) पिण्डनियुक्ति (प्रा.). अं. ७०७ प. ८४-१३५ Colophon:संवत् १२५९ चैत्र............ ॥ मंगलं महाश्रीः ॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III Sangha Bhandara. (सङ्घभंडार) फोफलिया वाडा, वखतजी शेरी. [ ९९ ] १. (१) बृहत्कल्प ( उ. ६ ). प. १ - १३; १२३x२' (२) भाष्य. प. १४-२१७ "" [ ९८] २ (१) त्रिषष्टिश. पु. चरित ( द्वितीय पर्व ). प. १-११९ (२) पाक्षिकसूत्रवृत्ति by यशोदेव. प. १ - ९९; २९*×२” End: समाप्ता चेयं शास्त्रानुसारिणी पक्षप्रतिक्रमणवृत्तिः । कृतिरियं श्रीयशोदेवसूरिभिः । Colophon: संवत् १३२७ वर्षे माघशुदि ९ बुधे मंगलं महाश्रीः | शुभं भवतु | भद्रमस्तु । ग्रंथामं २७०० On the board: पाक्षिकसूत्रवृत्तिः श्रीरत्नाकरसूरीणां श्रीतपागच्छे । [८८] ३. दमयन्तीकथा (चम्पू) by त्रिविक्रम. End: इति श्रीत्रिविक्रमभट्टविरचितायां दमयंतीकथायां सप्तम उच्छ्रासः समाप्तः । Pras'asti:— प. १३७ स्वस्ति श्रीनृपविक्रमेण सततं पात्रप्रदानोदका - मंदा देश विशी (ती) र्यमाणभुजसद्भावेन विद्याविदा | उद्दानाहितहस्तिसिंहतरसा निष्पादितानां पुरा वर्षाणामखिळत्रयोदशशती संख्या व्यतिक्रांतितः ॥ १ ॥ चतुरधिकितचत्वारिंशवर्षेब्जयुक्ते तदनु महति मासे शुकपक्षे जिताहि । गुरुवरमगवारे स्वातिधिष्ण्ये तुलास्थे शशिनि गिरिशयोगे बर्तमाने बवे च ॥ २ ॥ मरालवारस्फुटवृत्तयुक्तां सल्लक्षणामंहिविभागसीनि । सालंकृर्ति शब्दविचारणायां नलोपनीतक्रियया सुशोभां ॥ ३ ॥ सिद्धेश्वरो नागर विप्रषर्यस्तदात्मजः पंडित साल्हणोस्ति । तदंगजः पंडित लिम्वदेवो भैमीं लिखित्वा स तदा समापत ॥ ४ ॥ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA श्रीपरमस्वरूपिणो भगवदधोक्षजस्य महाप्रसादोस्तु लेखकस्येति भद्रं । सदा यया व्याप्तमिदं जगत्रयं सरस्वती सा भवतु प्रसन्ना । कवेरिवेयं समचित्तमोदि कवेरिवेयं मम चित्तमोदि ॥ नवीन काव्यामृतदान शिक्षिता । शिषमस्तु सर्वतः ॥ [१३२] ४. आवश्यकवृत्ति ( द्वितीयखण्ड ) by मलयगिरि . End: प. ३१५; ३३३”×२” On the board: श्रीमलयगिरीय आवश्यकवृत्तिद्वितीयखंडं श्रा० पलहाईसत्कं । [वि० सं० १४४६ वर्षे पत्तने तपाग० देवसुन्दरसूरिसदुपदेशेन श्रा० पल्हाईनाइया ले० । प्रशस्तिः खण्डित - त्रुटिता ] [११९] ५. धर्मोपदेशमालावृत्ति by विजयसिंह. प. ४३३; २८४२३" Beginning:— 911 ओं नमो वीतरागाय । नृपत्व - तीर्थाधिपतित्वभाजा नयस्य धर्मस्य च येन मार्गः । प्रकाशितोऽपूर्वमिह प्रजानां जिनेंद्रमाद्यं तमहं नमामि ॥ १ ॥ तं वर्द्धमानं जिनमानमामि प्रवर्त्तितं येन सुतीर्थमेतत् । यत्रावतीर्णाः कृतिनोऽधुनापि प्रयांति पारं भष - सागरस्य ॥ मोहांधकारच्छिदुरा दुरात्मलोकैरलभ्याः प्रविलोकितुं ये । शेषाः समुत्तीर्णभवार्णवास्ते द्वाविंशतिस्तीर्थकरा जयंति ॥ ३ ॥ यस्याः प्रसादमासाद्य सद्यः पारं श्रुतोदधेः । सुधियो यांति सा मेस्तु वरदा श्रुतदेवता ॥ ४ ॥ तेषां गुरूणां पद - पंकजानि प्रणौमि भक्तिप्रणतोत्तमांगः । येषां प्रसादेन परोपदेशप्रदानदक्षत्वम [भून्ममापि ] ॥ ५ ॥ इत्थमेषु समस्तेषु स्तोतव्येषु कृतस्तुतिः । धर्मोपदेशमालाया विस्तीर्णां वृत्तिमारभे || ६ || इति आमलकद्विजाख्यानकं समाप्तं । धम्मो समालाविवरणमेयं सवित्थरं रइउं । पुण्णं जमज्जियं इह लहंतु भवा सिवं तेण ॥ एकारस- इगनउए माहे मासंमि किण्हपक्खमि । तइयाए हत्थरिक्खे समत्तं विवरणं एयं ।। ३५५ ॥ मंगलं महाश्रीः || Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 312 Parran Catalogue or MANUSORIPTS पृथ्वीभृता न मथितान्न जघस्वरूपाद् दैत्यामरानपट्टतामृतवामरनात् । श्रीप्रभवाहनकुलाजलराशिकल्पात् कल्पद्रुमोपमगुणः पृथुरस्ति गच्छः ॥ १॥ यः श्रीहर्षपुरीय इत्यभिषया ख्यातः क्षमामंडले निःशेषास्वपि दिक्षु विस्तृतमहाशाखोपशाखाशतः । संसेव्यः सुमनोभिरीप्सितफलप्राप्तेः परं कारणं छायासीनसमस्तजंतुजनितांतस्तापोपशांतिक्रियः ॥२॥ तत्र श्रीजयसिंहसूरिरभवनिःशेषविश्वंभरा भोगालंकरणक्षमैः क्षणशरच्चंद्रांशुगौरैर्गुणैः । उन्मीलनवकुंदगुच्छविशदस्वच्छस्वकीयत्रत व्यापारार्पितचित्तवृत्तिरसकृहत्तप्रमोदः सतां ॥ ३ ॥ एतस्मादपि शिष्यरत्नमनघं तत् किंचिदुश्चैस्तरा मुत्पन्नं परमप्रमोदजनकं निःशेषविद्वत्ततेः । यस्यात्यद्भुतभूरिनिर्मलगुणस्तोमस्तुतौ जिह्मतां । · ब्रह्मापि ब्रजति क्षणेन गुणिनः कान्यस्य वार्ता पुनः ॥ ४ ॥ रूपं विनिर्जितमनोभवमूर्तिशोभं वाणी तु चंदनरसादपि दत्तशैत्या । अर्कोपलादपि मनो विमलस्वरूपं यस्य प्रशस्यपदघीं किमु न प्रपेदे ? ॥ ५ । अत्यद्भुतानि जिनपुंगवशासनस्य श्लाघाकराणि चरितानि धनानि यस्य । श्रुत्वा स्वचेतसि चिरं परिभावयतः संतो जनाः परमविस्मयमुहति ॥ ६ ॥ यः कश्चिदप्यादरविप्रमुक्तः मुक्तः कचिद् धर्ममयक्रियायां । राज्ञापि तेन त्वरितं यदाज्ञा शेपेय शीर्षे निहिता सहर्ष ॥ ७ ॥ यस्योपदेशादखिलस्वदेशे सिद्धाधिपः श्रीजयसिंहदेवः। . . एकादशीमुख्यदिनेष्वमारीमकारयच्छासनदानपूर्वी ॥ ८ ॥ ..यस्य संदेशकेनापि पृथ्वीराजेन भूभुजा । रणस्तंभपुरे न्यस्तः स्वर्णकुंभो जिनालये ॥ ९॥ दाने तपसि पूजायां कल्याणकमहोत्सवे । येन प्रवर्तितो लोकः प्रायेणाष्टाह्निकासु च ॥ १० ॥ प्रमादरूपस्फुरदंधकारप्रच्छादिते वर्त्मनि संयमस्य । उद्यद्विवेकोद्यमदीप्तिजालैरुयोतमादित्य इवाकरोद् यः ॥ ११ ।। श्रीवीरदेवविदुषो वरमंत्रविद्यालाभेन यः समभवत् सुमहाप्रभावः । तस्य त्वभूदभयदेव इति प्रसिद्धं नामा[प्यभयदायि] जनश्रुतीनां ॥ १२ ॥ Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA श्री हेमचंद्र इति सूरिरभूदमुष्य शिष्यः शिरोमणिर शेषमुनीश्वराणां । यस्याधुनापि चरितानि शरच्छशांकच्छायोज्वलानि विलसंति दिशां मुखेषु ॥ १३ ॥ एकैकं जिनशासनोन्नतिकरं कार्यं किमप्यद्भुतं तत् संसाधितवानसाध्यमपि यः सद्बुद्धिपाथोनिधिः । यद् वक्तुं वचसास्तु दूरतरतः शक्यं न चेतस्यपि यातुं केनचिदेव देवगुरुणाप्यन्यस्य वार्तेव का ? ॥ १४ ॥ सकळनिजधरित्रीमध्यमध्यासितानां जिनपतिभवनानां तुंगशृंगावलीषु । अनघयदुपदेशात् सिद्धराजेन राज्ञा स्फुरदविरलभासः स्थापिताः स्वर्णकुंभाः ॥ १५॥ साधु-श्राद्धजनस्य दुर्जनजनात् संजायमाना पराभूतिर्भूपतिवल्लभादपि मदेनांधाद्.. शक्त्या येन निवारिता जिनगृहादानेपु. क्रुद्धारा जिनसद्मनां च जरतां जाता ...... ज्ञया ॥ १६ ॥ आरुह्य बुद्धिमघमक्षतयानपात्र मप्युद्यमप्रबलमारुतबद्धवेगं । यः संगमं सितपटस्य गुरोरवाप्य जैनागमार्णवतढं झटिति प्रयातः ॥ १७ ॥ येनोपदेशमाला चक्रे भवभावना च वृत्तियुता । अनुयोगद्वाराणां शतकस्य च विरचिता वृत्तिः ॥ १८ ॥ मूलावश्यक टिप्पनकं विशेषावश्यकीयवृत्त्यायं । ये प्रथितग्रंथस्य लक्षमेकं मनाग्तनं ।। १९ ॥ तस्मादभूद् विजयसिंह इति प्रसिद्ध: सूरिः सुधांशुकर गौरयाः समृद्धः । बाल्यात् प्रभृत्यपि विवेककलानिशांतं चेतः सदैव समजायत यस्य शांतं ॥ २० ॥ धर्मोपदेशमालाविवरणमासीच्चिरंतनं तनुकं यत् । तत् तेन सविस्तरमारचितं रसिकलोकमुदे ॥ २१॥ साहाय्यमत्र चक्रे गणिरभयकुमारसंज्ञितो विज्ञः । तस्यैव शोधनविधौ जाता मुनिपुंगवाः सर्व्वे ॥ २२ ॥ ग्रं० श्लोक १४४७१ ।। मंगलं महाश्रीः ॥ यस्याः क्षीरपयोनिधिर्निवसनं हारत्रजस्तारका स्ताढंके शशि- भास्करौ सुरधुनी श्रीपंड - पुंड्रस्थितिः । सा कीर्तिर्नरिनर्त्ति यावदमला वीरस्य विश्वत्रयीरंगे तावदमंददुंदुभितुलां धत्तामसौ पुस्तकः ॥ १ ॥ 40 313 · Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 314 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS [१००] ६. उपदेशकन्दलीवृत्ति. मू. आसड, वृ. बालचन्द्रसूरि. IR प. २३३; ३० ४२ End:-- उपदेशकंदली वृत्तिपुस्तकं ठ राहडेन लिखितं । शुभं भवतु प्र० ७६०० On the board: उपदेशकंदली वृत्तिपुस्तक महाजनी श्रेष्ठिकर्मासत्कं । पौपधशालायां समर्पितं श्रीधर्मदेवसूरीणां । Later added श्रीउदयसागरसूरीणां । [१५] ७ मुनिसुव्रतस्वामिचरित (प्रा.) by श्रीचन्द्रसूरि. Beginning:— प. ४५१; २६”×२” नमः सर्वज्ञाय | परमपुरिसो अणाई विहू अणतो अणंगनिद्दहणो । चउराणणो तमहरो सिरीनिवासो जिणो जयइ ॥ १ ॥ End: इय सिरिमुणिसुन्वयजिणिदचरिए सिरिसिरिचंद सूरिविरइए नवमं भवग्गणं सम्मत्तं ॥ मुनिसुव्वयोक्खाओ गएहिं छहिं वाससयस हस्सेहिं । नमिनाह उत्पन्न पंचहिं लक्खेहिंतो नेमी ॥ ६९॥ नेमजिणाउ पासो उत्पन्नो इय गएहिं वासाणं । तेसीए सहस्सेहिं सए अट्ठट्ठमेहिं च ॥ ७० ॥ अड्डाइज्जस्सएहिं गएहिं वासाण पासनाहाउ । उप्पन्नो वीरजिणो जस्सेयं वट्टए तित्थं ॥ ७१ ॥ तस्स अपच्छिमतित्थाहिवस्स तित्थे पयट्टमाणम्मि । सिरिपन्हवाहणकुले गच्छे हरिसउरपतवम्मि || ७२ ॥ सिरिजयसिंह सूरी सयंभरीमंडलम्मि सुपसिद्धो । पंचविहायारसमायरणउ एओ गुणणिही जाओ ॥ ७३ ॥ ताण विणेओ गुणरयण सायरो अभयदेवसूरिति । उवसमपहाणयाए जेण सुगराण वि मणो हरियं ॥ ७४ ॥ सुरगुरुसरिसमई विहु जस्स समग्गे वि गुणगणे गहिउं । नेय समत्थो किं पुण ते वोतुमहं खमो जिम्हो ! ॥ ७५ ॥ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No III. SANGI BAANDĀRA 815 असरिसगुणाण राएण परवसीहूयमाणसो तह वि । तेसिं गुणमाहप्पं मणं पि कित्तेमि सत्तीए ॥ ७६ ॥ गरुयगुणे अणुसरणं कुणमाणे पासिऊण व पवनं । तुंगत्तणं सरीरेण जस्स अच्चब्भुयं भुवणे ॥ ७७ ।। रूवेण निजिउ ठव मयरद्धओ महासुभडो । नियडो न कयाइ वि जस्स संठिओ विट्ठिमविमुक्को ॥ ७८ ॥ निव्वाणत्थगिरिसिरतिरोहिए दिणयरम्मि व जिणिंदे । पुव्वमुणि-मयंकमहे लोगंतरपट्टिए संते ॥ ७९ ॥ कलिकाल-निसापसरियपमाय-बलंधयारपडलेण । संजममग्गे पच्छाइयम्मि पाएण इह भरहे ॥ ८० ॥ जेण तव-नियम-संजमसमुज्जएणं महानिरीहेण । विष्फुरियं विमलमणिप्पइवकप्पेण...[पहु]त्तो ॥ ८१ ॥ तह कह वि अणुट्ठाणं मुककसायं अणुट्टियं जेण । परपक्ख-सपक्खेसु वि मणं पि जह होइ न विरोहो ॥ ८२ ॥ एगो य चोलपट्टो तह पच्छायणपडी वि एक्का । नियपरिभोगे जस्सासि सव्वया अइनिरीहस्स ॥ ८३ ॥ देहे वत्थे सुयसा वि जस्स मलनिवहमुव्वहंतस्स । अभितरफम्म-मलो स भयभीउ व्व नीहरइ ॥ ८४ ॥ घयविगई मोत्तूण पञ्चक्खायाओ सेस विगईओ। सव्वाओ जेण जावजीवं रसगिद्धिरहिएणं ॥ ८५ ॥ निज्झरणकए कम्माण जेण दिणतइयजामसमयम्मि । गिम्हे भिक्खा भमिया पढमगुणहाणियगिहेसु ।। ८६ ।। भिक्खाविणिग्गयं जं सोऊणं सावया निय-नियनिएएसु । होंति गिहेसुवउत्ता भिक्खादाणाहिलासेण ॥ ८७ ॥ जं नियगिहम्मि पयडागयमत्ता छउभदिट्ठिया वि नरा। आमणसेहिपमुहा पडिलाभंति य सहत्थेण ॥ ८८ ॥ गामे वा नगरे वा सो कत्थइ जत्थ संठिओ जाव । ताव तमवंदिऊण न तत्थ पाए जणो भुत्तो ।। ८९ ॥ सिरिवीरएवतणओ ठकुरसिरिजजउ सिरि जयपसिद्धो । गाउयपंचम(य)मज्झे अवंदिउं जं न भुंजतो ॥ ९० ॥ . . Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 316 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS अणहिल्लवाडयपुरे जायविऊसवे जिणाययणे । हकारिऊण नीए एकम्मि वि जम्मि तत्थ तओ ॥ ९१ ॥ गरुओ गरुयरो वि कुसेसो सावयजणो सयं चेव । जाइ अणाहूओ वि हु जस्स नमसणकयपइनो ॥ १२ ॥ मुत्ती वि जस्स सयला अमयरसेणेव निम्मिया विहिणा । तसणे वि नासइ जम्हा कसाय-विसं ॥ ९३ ॥ परतित्थीण वि दिट्ठो हिययं पल्हायए सदसणओ । जो तेहिं वि मण्णिजइ निय-नियदेवावयारो व ॥ ९४ ॥ तं चिय सया वि वयणं मुह-कुहराओ विणिग्गयं जस्स । जम्मि निसुए जणाणं परमा मणनिबुई होइ॥ ९५ ॥ अन्नोन्नगोटिकलहो जेहिं रोसबसा कओ सावएहिं । जिणभवणगमणनियमो उवसंता ते वि जस्स गिरा ॥ ९६ ।। कह वि कसायवसेणं सहोयरा भाउणो वि वडूंता । अन्नोन्नमणालावे विगयकसाया कया जेण ॥ ९७ ॥ लद्धनरिंदपसाया थद्धा जे देवयाण वि पणामं । किच्चे(च्छे)ण ऊणं वा तह गुरुणो एगस्स नियगच्छे ।। ९८ ॥ रायामच्चपमुहा निओगिणो ते वि जस्स वयणेण । सामन्नस्स वि मुणिणो मुक्कमया कमनया जाया ।। ९९ ।। गोवगिरिसिहरसंठियचरमजिणाययणदारमवरुद्धं । पुनिवदिन्नसासणसंसाधणिएहिं चिरकालं ॥ १० ॥ गंतूण तत्थ भणिऊण भुवणपालाभिहाणभूवालं । अइसयपयत्तेणं मुक्कलयं कारियं जेण ॥ १०१ ॥ वरणगसुयं संतूयसचिवं भणिऊण भरुयच्छे । सिरिसंवलियाविहारे हेममया रोविया कलसा ॥ १०२ ॥ जेण जयसिंहदेवो गया भणिऊण सयलदेसम्मि। काराविओ अमारिं पजोसवणाइसु तिहीसु ॥ १०३ ॥ ९०० ॥ पुहईराएण सयंभरीनरिंदेण जस्स लेहेण । रणखंभउरजिणहरे चडाविया कणयकलसा ॥ ४ ॥ जेण कुणतेण तवं चउत्थ-छटुं च उभयकाले वि । . सद्धम्मदेसणा भविभवियणस्स न कया वि परिचत्ता ॥ ५ ॥ . Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA सावयलोओ कल्लाणएसु अट्ठाहियासु सविसेसं । गामेसु य नयरेसु य बहू पयट्टाविओ जेण ॥ ६ ॥ नयनाणेण केइ तह वैमाणियसुरोवएसेण । परलोयगमणसमयं निययं नाऊण आसन्नं ॥ ७ ॥ नीरोगम्म विदेहे कमेण काऊण कवलपरिहारं । खविऊण सुहं सयलं जेण पवन्नो अभत्तट्ठो ॥ ८ ॥ जस्सुत्तिमट्ठगहणं सोऊणं गरुयखेयभरियमणा । परतित्थिया वि पइदिणमुवेंति पासे सयलनयणा ॥ ९ ॥ गुज्जरनरिंदरे सो को वि न अत्थि रायपभिइजणो । अणसणठियाण जो तेसिमागओ नेय पासम्मि ।। १० । सिरिसालिभद्दसूरिप मुहेहिं गभयगभयसूरीहिं । जस्स समीवे गंतूण सूरियं बहु ससोएहिं ॥ ११ ॥ मासम्म भद्दव [ ते ] तेरसम्म उववासे । सोहिय सावयवरभवणमज्झओ नीहरेऊण ॥ १२ ॥ पाययलेहिं लीलाए डंडहत्थेहिं अखलियगईहिं । कस्स व अन्नस्स करे अविलग्गतेहिं सयमेव ॥ १३ ॥ नरनाहमाणणिज्जो निवनयरनिवासिनेगमगणाण | सबेसिं पि पहाणो सगिहडिओ सीयओ सेट्ठी ॥ १४ ॥ जस्स पय- पउमदंसणकया हिलासो समाहिमलहंतो । दक्खिन्नमहोयहिणा परोवयारेकरसिएण ॥ १५ ॥ गंतू जेण वंदाविऊण विहिओ समाहिसंपन्नो । धम्मवए दंमाणं कराविओ वीससहस्साई ॥ १६ ॥ गुज्जरदेसम्मि समग्गगाम -- नगराइबासिसड्डूजणो । जस्सुत्तिमट्ठसवणे पाएण समागओ तत्थ ॥ १७ ॥ अह सग्गचालीस दिणाई पालिऊणं समाहिणाणसणं । धम्मज्झाणपरायणचित्तो जो परभवं पत्तो ॥ १८ ॥ बहुभूमिग - बहुकलसं अणेगसियधयवडेहिं रमणिज्जं । वरसिरिखंड विणिम्मियविमाणमारोहिऊण तओ ॥ १९ ॥ निहारियं सरीरं जस्स बहिं सयलमिलियसंघेण । एक्केकं गिहरक्खगमणुयं मोत्तूण सेसजणो ॥ २० ॥ 317 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 318 PATTAN CATALOGUE OF Manuscripts नीसेसो निवनयरस्स निग्गओ जस्स देसणनिमित्तं । भत्तीए कोउगेण य मग्गेसु अलद्धसंचारो ॥ २१ ॥ सबए(प)मयाउलेहिं सव्याओजेहिं बंदिहिं । सव्वेहिं वियंभियसद्दबहिरिए अंबराभोए ॥ २२ ॥ पायारपच्छिमट्टालए ठिओ परियणेण सह राया। जयसिंहो पेक्खंतो जस्सिडिं नीहरंतस्स ॥ २३ ॥ तं अच्छरियं दटुं नरिंदपुरिसा परोप्परं बैंति । मरणमणिहँ पि हु इटुं मन्नइ एइविभूईए ॥ २४ ॥ रविउदयाउ आरब्भ निग्गयं तं विमाणमवरन्हे । पत्तं सकारपए समणुपयं लोयकयपूयं ॥ २५ ॥ पूइजते मिउपटुंसुयपमुहपवरवत्थाणं । मिलियाई कोडियाणं तया सयाइं अणेगाइं ॥ २६ ॥ सिरिखंडविमाणेणं तेणेव समं सरीरसक्कारो । जस्स कओ लोएणं तह उवरि पुणो वि खित्ताई ॥ २७ ॥ कडा(ट्ठा)इं अगर-सिरिखंडसंतियाई घणो घणसारो। निव्वाणाए चियाए जणेण गहिया उ तओ रक्खा ॥ २८ ॥ रक्खाए वि अभावे गहिया तहाणमट्टिया तत्तो । ता जाव तत्थ जाया अनुमाणा वियडखड्डा ॥ २९ ॥ तीसे रक्खाए मट्टियाए अणुभावओ सिरोबाहा । वेलाजर-एगंतरजराइरोगा पणस्संते ॥ ३० ॥ भत्तिवसेणं न मए मणं पि इह भासियं मुसा किं पि । जं पञ्चक्खं दिळं तस्स वि लेसो इमो भणिओ ॥ ३१ ॥ नियतेयविसेसेणं पुरिसोतिमहिययरंजणो जाओ। कोत्थुहमणि व्व तत्तो सूरी सिरिहेमचंदो त्ति ॥ ३२ ॥ जगु(जुग)वट्टमाणपवयणपारगओ वयणसत्तिसंपन्नो। नियनामेव भगवई जीहग्गगया कया जेण ॥ ३३ ॥ मूलगंथि-विसेसावस्सय-लक्खण-पमाणपमुहाण । सेसाण वि गंथाणं पढियं जेण द्धलक्खं च ॥ ३४ ॥ रायामश्चाईण वि महिडियाणं जणाण आएजे । जिणसासणप्पभावणपरायणो परमकारुणिओ ॥ ३५ ॥ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA 319 नवजलहरगहिरसरे धम्मुवएसंति च दितए जम्मि । जिणभवणाओ बहिम्मि वि ट्ठिओ जणो सुणइ फुडसह ॥ ३६ ॥ वक्खाणलद्धिजुत्ते जम्मि कुणंतम्मि सत्थवक्खाणं । पाएण जडमईण वि जणाण बोहो समुप्पन्नो ॥ ३७ ॥ उवमियभवप्पवंचा वेरग्गकरी कहा कप्पा । आसि वक्खाणयसिद्धेणं जा पुव्वं सा कठोर त्ति ॥ ३८ ॥ वक्खाणिया सहाए पापण न केणई चिरं कालं । जस्स मुहनिग्गयत्था मुद्धाण वि सा तह कहं चि ॥ ३९ ॥ जाया हिययगयत्था अत्भत्थेऊण तेहिं जह एसा । उवरुवरि तिन्नि वरिसे नियमुया तस्सेव य मुहाउ ॥ ४० ॥ तदिणपभिइ पयारो जाओ पाएण तीए सव्वत्थ । जे तेण सयं रइया गंथा ते संपइ कहेमि ।। ४१ ॥ सुत्तमुवएसमाला-भवभावणपगरणाण काऊण । गंथसहस्सा चउदस तेरस वित्ती कया जेण ॥ ४२ ॥ अणुओगदाराणं जीवसमासस्म तह य सयगस्स । जेण च्छ सत्त चउरो गंथसहस्सा कया वित्ती ॥ ४३ ॥ मलावस्सयवित्तीए उवरि रइयं च टिप्पणं जेण । पंचसहस्सपमाणं विसमट्ठाणावबोधयरं ॥ ४४ ॥ जेण विसेसावस्सयसुत्तम्मुवरि सवित्थरा वित्ती। रइया परिप्फुडत्था अडवीससहस्सपरिमाणा ॥ ४५ ॥ वक्खाणगुणपसिद्धिं सोऊणं जस्स गुजरनरिंदो । जयसिंहदेवनामो कयगुणिजणमणचमकारो ॥ ४६॥ आगंतूण जिणमंदिरम्मि सयमेव मुणइ धम्मकहं । जस्सुवउत्तचित्तो सुइरं परिवारसंजुत्तो ॥ ४७ ॥ कइया वि जस्स दंसणउत्कंठियमाणसो सयं चेव । आगच्छइ वसहीए चिरकालं कुणइ संलावं ॥ ४८॥ अन्नम्मि दिणे अभत्थिऊण नेउं नियम्मि धवलहरे । सम्मुहमुट्ठिऊणं जयसिंहनिवेण जस्स सयं ॥ ४९ ॥ उद्धट्टियस्स उल्लसियबहलपुलए कंचणमएण । विउलेण भायणेणं दुबा-फल-कुसुम-जलमइओ ॥ ५० ॥ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 320 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS अग्यो भमाडिउणं थिरेण आरत्तियं व वारतियं । पक्खित्तो पयपुरओ कओ पणामो य पंचंगो ॥ ५१ ॥ थालपरिवेसायाउ आहाराउ सहत्थेण । दिनो नियइच्छाए चउबिहो तेण आहारो ॥ ५२ ॥ भणियं च जोडिऊणं करजुयमजेव खलु कयत्थो ह । जाओ अज्जेव तहा कल्लाणपरंपराठाणं ॥ ५३ ॥ जस्स मह अज भवणं तुब्भेहिं फरसियं सचरणेहिं । ता अज वीरनाहो मज्झ सयं आगउ ब गिहे ।। ५४ ।। जेण जयसिंहरायं भणिऊणं तस्स मंडले सयले । जिणमंदिरेसु कलसा चडाविया स(रु)इरकणयमया ॥ ५५ । धंधुक्ष(क)य-सञ्चउरप्पभिइसु ठाणेसु अन्नतित्थीहिं । जिणसासणस्स पीडा कीरंती रक्खिया जेण ॥ ५६ ॥ कारावियं च तह तेसु चेव अण्णे (ठाणे)सु रहपरिन्भमणं । निविग्धं जयसिंह भणाविऊण पुहइनाहं ॥ ५७ ॥ कुनिओइएहिं तह जिणहरेसु भजंतदेवदायाण । काराविया निवारा जयसिंहनरिंदपासाउ ॥ ५८ ॥ भंडारपविढे पि हु केसु वि(चि) ठाणेसु देवदायस्स । दचं जिणभवणेसुं पुणो वि अप्पावियं जेण ॥ ५९ ॥ किं बहुणा भणिएणं जिणसासणपरिभवम्मि जायते । सव्वप्पणा वि तुलियं जेण उवायंतरसएहिं ॥ ६०॥ जिणसासणकज्जाइं विसंसाहियाइं इह जेण । अन्नस्स मणम्मि वि फुरंति न हु जाई कइया वि ॥ ६१ ।। लिंगाविसेसमित्ते वि जइजणे परिभविजमाणम्मि । नियसत्तीए तत्ती जेण कया सव्वकालं पि ॥ ६२ ॥ अणहिल्लवाडनयराउ तित्थजत्ताए चलियसंघेण। अब्भत्थिऊण नीओ सहप्पणा जो महामहिमो ॥ ६३ ॥ सेज्जावलय-लंगडिपमुहाणं जत्थ सगडरूवाणं । एकारस उ सयाई संचलियाई............ ॥ ६४ ॥ हय-करह-वसह-वाहण-पयचराण स्थ व हुइ न संखा । वामणथलिनयरीए दिन्नावासम्मि संघेण ॥६५॥ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA वाडीविताणएहि गुरुरख (च) उखंडएहिं गुलिणीहिं । विडे विरायमाणे निवखंधावारसारिच्छे ॥ ६६ ॥ कयकुंकुमंगरायं नियत्थ (च्छ) पट्टयाइवरवत्थं । कंचण - रयणादिभूसियं अंगवंगेसु ॥ ६७ ॥ दहूण सावयजणं जिणहरपरिहावणं पकुव्वतं । खंगारस्स सुरट्टापहुणो जायं मणं दुहुं ॥ ६८ ॥ अन्ने विसो भणिओ रायमनहिलवाडयम्स नयरस्स । चिट्ठइ लच्छी सव्वा इहागया तुज्झ पुन्नेहिं ॥ ६९ ॥ ता गिण्ह तुमं एयं भंडारो होइ तुह जहा पोढो । संभाविज्जइ ठाणं एक्काए दबकोडीए ॥ ७० ॥ लोभेण सो वि सव्वं तं गहिरं वंछए पुणो वि परं । सव्वयणमज्जायालोवअय [स] भीओ नियत्तेइ ॥ ७१ ॥ इय अकयनिच्छओ सो गहण - मोक्खे य संसइयचित्तो । चिंतूणं दिणमाणं संघ धारेइ तत्थेव ॥ ७२ ॥ भाणिज्जंतो वि दिणो वि सो संघो संतियजणस्स । नो देइ दंसणं अन्नया य सयणो मओ तस्स ॥ ७३ ॥ तो दिक्खणयमिसेणं जेण मुणिदेण तत्थ गंतूण | पडिबोहिऊण एयं संघो मोयाविओ सद्धि ॥ ७४ ॥ उज्जयंत- सत्तुंज एसु तित्थेसु दोसु वि जिणिंदे | सिरिनेमि - उसना वंदइ संघो विभूईए ।। ७५ ।। तत्थुज्जयंततित्थे पारुत्थय अद्धलक्खमुत्पन्नं । सत्तुंज्जयम्मि तित्थे तीस सहस्सा समुत्पन्ना ।। ७६ ।। जाण पडिबोहिएणं भवियजणो भाविओ तह | धम्मो जिणभणिए पत्ते देसे सव्वे य विरईए ।। ७७ ।। पतेपि हु ठाणंतरसंकमाईयया नेय । आराहणा गुरूण व सत्त दिणा अणसणं नवरं ॥ ७८ ॥ नीहारणाइमहिम्म (मा) देहस्स तहेव जाव सकुसे । ..यसे ।। ७९ ।। किं तु सयमेव राया सम ........ . [विजय ] सिंह - सिरिचंद - विबुहचंद ति । ..... जाया तिनि गु (ग) हरा सिरिसिरिचंदो तओ सूरी ॥ ८० ॥ 41 ......... 321 Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 822 PATTAN CATALOGUE OF MAN USCRIPTS देसेसु विहरमाणो कमेण धवलकय्यम्मि वरनयरे । संपत्तो तत्थ तओ भरुयच्छयनामजिणभवणे ॥ ८१ ॥ उत्तुंगम्मि विसाले रूवगरमणिजमंडवसणाहे। एसो मुणिसुवयजिणवरपडिमसमहिट्ठिए रम्मे ॥ ८२ ॥ सडो अत्थि गुणडो धवलो नामेण पोवाडकुले । तेण जिणचंदसूरिप्पमुहो संघो समग्गो ॥ ८३ ॥ मेलेउं विनत्तो सिरिमुणिसुबयजिणिंदचरिअस्ल । करणत्थं संघेण वि सिरिचंदो पणिओ सूरी ॥ ८४ ॥ सो तं संघाएसं पडिवजिउं विणिग्गओ तत्तो। आसावल्लिपुरीए आगंतूणं ठिओ गेहे ॥ ८५ ॥ सिरिमालकुलसमुभववरसावयसेहिनागिलसुयाण । अवहरि-भंडसालिय-सरणयपमुहाण सगुणाण ॥ ८६ ॥ तत्थ ठिएण सिरिचंदसूरिणा विरइयं इमं चरियं । सिरिमुणिसुव्वयतित्थंकरस्स समयाणुसारेण ॥ ८७ ॥ जं किं पि इह अजुत्तं उत्तं मइमोहओ मए अस्थि । तं सुयहरा कयकिच्चा मज्झ विसोहंतु सव्वं पि ॥ ८८ ॥ पडि(ट्टि)य-पोत्थियलिहणे गणिणा कयमत्थ पासदेवेण । बहु साहेज उज्जमपरेण वरमइनिहाणेण ॥ ८९ ॥ अवह रि-सरणयाणं कणिट्ठभाया तहेव जसराओ। साहेजकरो उच्छाहम्मय जाओ रि(वि)सेसेण ॥ ९० ॥ विक्कमकालाउ एगवाससहस्से सए सावणओ (?) । तव्वयणंतर दीवसव्व दिणम्मि एयं परिसमत्तं ॥ ९१ ॥ एत्थ य पढमं पुत्थइमभिलिहियं देवरायकरसिस्से । ......म्मयवतणएण लेहएण विणीएण ॥ ९२ ॥ गाहाना(मा)णं संखाय जस्स दसहाति नव सयाई च । चउणवइसमहियाई नेयाइं एत्थ गंथम्मि ॥ ९३ ॥ वासे जाविह भारहम्मि विमले सव्यण्णुणो सासणं हुजा भव्यजणोहमोहसमिसवरे समित्ता नाण सवसं । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 323 No. III SANGRA BHANDARA ......मुणिसुव्वयस्स चरियं साणु नहु(ग्गहा) साहुणो वक्खाणंतु सुगंतु सव्वनिवहा एकग्गचित्ता सया ॥ १०९९४ ॥ . श्रीश्रीचंद्रसूरिविरचितं श्रीमुनिसुव्रतस्वामिचरितं समाप्तम् ॥ शुभं भवतु ॥ [१०५] ८. (१) पिण्डनियुक्तिवृत्ति. प. १-१५७; ३१३°४२१" (२) ओघनियुक्तिवृत्ति. प. १५८-३४६ Added in a later hand: श्रीज्ञानसागरसूरिगुरुभ्यो नमः । [९६] ९. उत्तराध्ययनलघुवृत्ति (सुखबोधा). प. २९२; ३३°४२३ Colophon: संवत् १२२८ वर्षे मार्गसिरसुदि ३ भौमे [८५] १०. त्रिषष्टिश. पु. चरित (अष्टमपर्व). कागद प. ८७; १९४४" Colophon: स क्षमेंदु-जलधि-क्षितिप्रमे वत्सरे सहजतो विचित्रिते । नेमिनाथचरितं ह्यददादसौ श्रीशशी स्वगुरवे विनेयकः ।। संवत् १४२४ वर्षे मार्ग. सुदि ७ सप्तम्यां तिथौ अद्येह युवराजवाटके पुस्तकं श्रीनेमिनाथस्य अलेषि ॥ शुभं भवतु ॥ [८३] ११. (१) उपदेशमालावृत्ति by रत्नप्रभसूरि. का. प. २४७ End:इति रत्नप्रभसूरिविरचिताया[मुपदेशमालाया विशेषवृत्तौ] चतुर्थो विश्रामः॥६१३॥ नानारूपनरोत्तमैकवसतिर्नीरागतासंततिः(गतः) ___ पातालं परितः स्फुरन्निह बृहद्गच्छोऽस्ति [रत्नाकरः] । स श्रीम...बुधसूरिषु गुरुस्तत्राभवद् भूरिभिः शाखाभिर्भुवि यः प्रयागवटवद् विस्तारमुद्रामगात् ।। साहित्य-तांगम-लक्षणेषु यग्रंथवीथी कविकामधेनुः । कस्योपकारं म चकार सम्यक् निःशेषदेशेषु च यद्विहारः ॥ शिष्यः श्रीमुनिचंद्रसूरिगुरुभिर्गीतार्थचूडामणिः पट्टे स्खे विनिवेशितस्तदनु स श्रीदेवसूरिः प्रभुः । Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 824 PATTAN CATALOGUE OF MANUSƠRIPTS [आस्थाने] जयसिंघदेवनृपतेर्येनास्तदिग्वाससा] स्त्रीनिर्वाणसमर्थनेन विजयस्तंभः समुत्तंभितः ॥ तत्पट्टप्रभवोऽभवन् नवगुणग्रामाभिरामोदयाः श्रीभद्रेश्वरसूरयः [शुचिधिय]स्तन्मानसप्रीतये । श्रीरत्नप्रभसूरिभिः शुभकृते श्रीदेवसूरिप्रभोः शिष्यैः सेयमकारि संमदकृते वृत्तिर्विशेषार्थिनां । श्रीदेवसूरिशिष्यभ्रातॄणां विजयसेनसूरीणां । आदेशस्यानृणभावमगममेतावताहमिह ॥ यदियमुपदेशमाला श्रावकलोकस्य मूलसिद्धांतः । प्रायेण [पठति चायं] तदिहास्माभिः कृतो यनः ॥ व्याख्यातृचूडामणिसिद्धनाम्ना प्रायेण गाथार्थ इहाप्य(म्य)धायि । कचित् कचिच्चानु विशेषरेखा सद्भिः स्वयं सा परिभावनीया ।। यदिह किंचिदनागमिकं कचिद् विरचितं मतिमंदतया मया । तक्षखिलं सुधियः! क्षमयामि वः कृतकृपाः परिशोधयतादरात् ॥ प्राप्य परस्य च सूत्राद् वृत्तिविस्तारिताथवा स्वीया । मणिखंडमंडलैरिव सुवर्णपूजा जिनेंद्राणां ॥ प्रकृता समर्थिता च श्रीवीरजिनाग्रतो भृगुपुरेऽसौ । अश्वावबोधतीर्थे श्रीसुव्रतपर्युपास्तिवशात् ॥ संशोधिता तथा श्रीभद्रेश्वरसूरिमुख्यविबुधवरैः । पुमरपि कंठकशुद्धिः कार्या वः प्रार्थये सर्वान् ॥ भास्वभास्करबिंबकांततिलकं प्रक्षिप्त......कृतं निर्यन्नीलशिलातलांशुपटलीदुर्धारदुर्वांकुरं । यावन्मेरुमहीभृतं प्रति करोत्यारात्रिकोत्तारणं ताराभिर्युविलासिनी विजयतां तावन्नवैषा कृतिः । विक्रमाद् वसु-लोकार्क १२३८ वर्षे माघे समर्थिता । एकादश सहस्राणि सार्द्ध पंचशतं तथा ॥ ११५५० ॥ Colophon: संवत् १३९४ वर्षे कार्तिकसुविप्रतिपदायां शुक्रे श्रीयुगादिचैत्यमंडिते मडवार प्रामे श्रीउपदेशमालावृत्तिः सुगुरुश्रीसर्वदेवसूरिवाचनक्रियायोग्या पं० अभयकळसे लिपिता ॥ शुभमस्तु ॥ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA (२) शान्तिनाथचरित by अजितप्रभ. [८४ ] Pras'asti of the Donor: प. १६६ विश्वसेनकुलोत्तंसोचिरादेवीतनूद्भवः । श्री शांतिनाथ भगवान् दद्यान्मंगलमालिकां ॥ १ ॥ संघाधिपत्यादिपदप्रतिष्ठासमन्वितैर्भव्यजनैर्विशाल: ः । दानादिपुण्योदयजन्मभूमिः श्रीमालवंशो विदितो जगत्यां ॥ २ ॥ बभूव तत्रांबुधितुल्यरूपे परोपकारादिगुणैः प्रसिद्धः । कल्पद्रुकल्पोर्थिजनस्य धीमान् रत्नाभिधानोपररनतुल्यः ॥ ३ ॥ सहजाकः सुतस्तस्य रेजे राजसभोचितः । धर्मकृत्यरतो नित्यं निजत्रंशविभूषणः ॥ ४ ॥ तस्यात्मजो धार्मिकचक्रचूडामणिः सुधाकारगिरां निवासः । सतां हि सेव्यः किल नागसिंहः कुलोद्यायैव कृतावतारः ॥ ५ ॥ साहादना नाम तदंगनाभूत् साहादवक्त्रा गुरुदर्शनेन । यया चतुष्कं सुषुवे सुतानां स्ववंशभारोद्धरणैकधीरं ॥ ६ ॥ हरिराजो विवेकेन रराज हरिविक्रमः । स्थिरपाल: स्थिरप्रेमा साधुवर्गे विशेषतः ॥ ७ ॥ प्रतापमल्लः सुभगः सद्दाक्षिण्य महोदधिः । चतुर्भुजश्चतुर्धर्मसमाचारपरायणः ॥ ८ ॥ भगिनी सुगुणा नाम सद्गुणानां निकेतनं । लाखान पनि (णि)न्ये कमलेव मुरारिणा ॥ ९॥ तथा सलवणा नाम स्वसा लावण्यशालिनी । स्वकीयेन च शीलेन पवित्रितनिजान्वया ॥ १० ॥ श्रीपद्मप्रभसूरीणां स्वगुरूणां मुखांबुजे ( जात् ) । शुश्रावेति महाभक्ता श्राविका सुगुणा गिरं ॥। ११ ॥ जिनेंद्र बिंबं भवनं जिनस्य संघ: स पूज्यश्च चतुः प्रकारः । सत्पुस्तकं तीर्थकरावदातविभूषितं यः कुरुते सुबुद्धिः ॥ १२ ॥ बोधबीजं भवेत् तस्य निश्चलं च भवांतरे । केवलज्ञानलाभश्च ततो मोक्षसुखं पुनः ॥ १३ ॥ आकर्ण्य वाचं सुकृतैकबुद्धिः श्रीशांतिनाथस्य जिनेश्वरस्य । पुण्यावदातेन युतं गुरुभ्यो ददौ शुभं पुस्तकमुत्तमं सा ॥ १४ ॥ 325 Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 326 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS जंबूद्वीपांतरे यावचतुर्वनविराजितः । अर्हचैत्ययुतो मेरुस्तावन्नंदतु पुस्तकं ॥ १५ ॥ शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः । मंगलं महाश्रीः । [१०३] १२. उपदेशमालावृत्ति by हेमचन्द्र. प. ३९८; ३२°४३' Beginning: ओं नमो वीतरागाय । येन प्रबोधपरिनिर्मितवाग्वरत्रां क्षित्वोद्धृतानि भवनानि भवांधकूपात् । निःशेषनाकिविभुवंदितपादपद्मो भूयान्ममाशुभभिदे स युगादिदेवः ॥ १॥ ज्ञेयार्णवं सुरवरैरिव यैः समंतात् सद्बोध-मंदरमथा प्रविमथ्य लब्धः । जीवादितत्त्ववररत्नचयो भवंतु ते वः श्रिये विजयिनो जिनवीरपादाः ॥ २ ॥ दर्पोद्धरस्मरतिरस्करणप्रवीणा विश्वत्रयप्रथितनिर्मलकीर्तिभाजः । शेषा अपि प्रविकिरंतु जिना रजो वः सर्वामरप्रणतपावनपादपद्माः ॥३॥ वंदे पादद्वितयं भक्त्या श्रीगौतमादिसूरीणां । निःशेषशास्त्र-गंगाप्रवाह-हिमवगिरिनिभानां ॥ ४ ॥ पारं यस्याः प्रसादेन देहिनः श्रुत-नीरधेः । गच्छंति तां जगवंद्यां प्रणौमि श्रुतदेवतां ॥ ५ ॥ अस्मादृशोपि संजातः परेषां किल बोधकः । यत्प्रभावेन तान् वंदे स्वगुरूंस्तु विशेषतः ॥ ६ ॥ इत्थं कृतनमस्कारो नमस्कार्य सवस्तुषु । प्रवक्ष्याम्यस्तविघ्नोर्थ प्रस्तुतं श्रुतनिश्रया ॥ ७ ॥ अंतरंगार्थगर्भ च यत् किंचिदिह वक्ष्यते । तत्रोपमितिग्रंथोक्ता नृणां सर्वापि भावना ॥ ८ ॥ End:-- जाव जिणसासणमिणं जाव य धम्मो जयम्मि विष्फुरइ । ताव पढिज्ज उ एसा भव्वेहिं सया सुहत्थीहिं ॥ सुगमा । इति श्रीहेमचंद्रसूरिविरचितोपदेशमाला समाप्ता । ग्रंथानं १४००० । Colophon: संवत् १४२५ वर्षे भाद्रपदवदि ५ भौमे पुष्पमालावृत्तिः संपूर्णा लिखिता । । ७ । स्वस्ति Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGITA BHANDARA 327 ऊकेशवंशे श्राद्धधर्मधुरीणोरीणदानादिपुण्यकृत्यकरणनिपुणः ठ० पूनाभिधानः श्रावकपुंगवोभूत् । तत्पुत्रः पवित्रः ठ० धणपालस्य तस्य सहचारिणी सदाचारिणी पापप्रवेशवारणी ठ० धुंधलदेवीति जज्ञे । तत्कुक्षिसमुद्भवेनात्यद्भुतसुकृतप्रोद्भूतश्रीश्रीदेवताप्रसादसाधिताधिकतरसकलशुभकृत्यनिवहेन ठ० मोषाभिधेन श्राद्धवरेण पूज्यभट्टा० श्रीअभयसिंहसूरिसद्व्याख्यामृतवृष्टिसमुत्पन्नभावनाकल्पवल्लीप्रभावात् श्रीपुष्पमालावृत्तिपुस्तकं स्वपित्रोः श्रेयोर्थमलेखयत् शुभवृद्धये वृद्धः पुत्रः ठ० देपाल १ लघुर्धनपालनामाभूत् । ठ० मोपा । लघुभ्राटषेताक आसीत् ।। [१२७] १३. (१) उत्तराध्ययन (मूल). प. १-५४; ३१°४२" (२) , टीका (त्रुटित) by शान्तिसरि. प. ३६८ Colophon: संवत् १३४३ वर्षे लौकिककार्तिकशुदि २ रवावोह श्रीमदर्हिल्लपाटके समस्तराजावलीसमलंकृतमहाराजाधिराजश्रीमत्सारंगदेवकल्याणविजयराज्ये तन्नियुक्तमहामात्यश्रीमधुसूदने श्रीश्रीकरणादिसमस्तमुद्राच्यापारान् परिपंथयति सतीत्येवं काले प्रवर्तमाने तेनैव नियुक्तमहंश्रीसोमप्रतिपत्तौ वीजापुरे पुस्तकामिदं लेखकसीहाकेन लिखितमिति । यादृशं etc. मंगलं महाश्रीः शुभं भवतु । श्रीश्रीमालवंशे श्रे० वूहडिसुतश्रे० तेजाश्रेयो) म...... [११२] १४. महावीरचरित(त्रि. श. पु. पर्व १०). प. २३२; २९"४२" Prasasti of the Donor: ......... सरस्वती पदमसौ] सद्वृत्तमुक्तालयः । [प्रौढश्री] कुलमंदिरं विजयते कोरिंदगच्छांबुधि श्चित्रं यन्न जडाशयो न च परं कुप्राहसत्त्वाकुलः ॥ १ ॥ सत्पत्रराजी शुभपर्वरम्यः स्था(छा)यी सुशाखी सरलः सुवर्णः । सद्धर्मकर्मा क्षितिभृत्प्रतिष्ठवंशोस्ति वंशो भुवि धर्कटानां ॥ २ ॥ श्रीमद केशवंशेस्मिन् स्वच्छमुक्ताफलोपमाः । साधूनां हृदलंकारा बभूवुः पुरुपास्त्रयः ॥ ३ ॥ आद्यो देवधरस्तेषु दाने धाराधरः परः । प्रीणिताशेपलोकोभून्न तु जातु जडान्वितः ॥ ४ ॥ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 328 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS जिनालययशः सिद्धि - दान-पुण्यादिकर्मणां । समुद्धरणधौरेयो द्वितीयोभूत् समुद्धरः || ५ || दानादिगुणगणाराम यशः कुसुम सौरभैः । वासिताशोऽपरो जात आशाधरस्तृतीयकः ॥ ६ ॥ समुद्धरस्य निर्माया जाया सौभाग्यशोभिनी । शोभिनीत्याख्यया जाता शीलालंकारधारिणी ॥ ७ ॥ धर्मद्रुमस्य मूलाभो जज्ञे मूलः सुतस्तयोः । पुत्री सरस्वती लीलू जातौ ब्राह्मी - श्रियाविव ॥ ८ ॥ गेहिनी मूलकस्यास्ति नाल्ही गंगेव देहिनी । तयो रत्नत्रयाधाराः पुत्राः संजज्ञिरे त्रयः ॥ ९॥ आद्य वराकनामा द्वितीयश्छाहडः सुधीः । सीहडस्तृतीयः ख्यातः पुमर्था मूर्तका इव ॥ १० ॥ पुत्रिकाश्च तयोस्तिस्रो जाताः शक्तित्रयोपमाः । चांपला कर्मी कर्पूरी सत्य - शील- दयान्विताः ॥ ११ ॥ वइराकस्य सद्भार्या नय-विनयगुणान्विता । विस्तिणिर्वस्तु तत्त्वज्ञा स्वजनानंददायिनी ॥ १२ ॥ तस्या जाताविमौ पुत्रो धर्म - शीलपरायणौ । आयो मदन एवासौ द्वितीयः कर्मसिंहकः ॥ १३ ॥ अथाशाधरकांताभूत् खेतुः क्षेत्रं सुकर्मणां । लक्ष्मीधरस्तयोः पुत्रो लक्ष्मीव (घ) र इवापरः ॥ १४ ॥ रूपला रुक्मिणीवास्ति तस्य सद्धर्मचारिणी । तत्सुतो हरपालाख्यः च्छाडू दक्षा च तत्सुता ॥ १५ ॥ एवं स्वकुटुंबयुतः साधुर्मूल स्वमातृश्रेयसे । श्रीमन्महावीरचरित्रं गृहीतं निजगुरुभिर्वाचयांच ॥ १६ ॥ तस्मिन् विस्मयकारिहारिचरितं कृष्णर्पिशिष्यः पुरा चंचश्चंद्र कुलध्वजः समजनि श्रीनन्नसूरिः प्रभुः । उद्गीते दिवि किंनरैर्यदमलश्लोके सुरा धुन्वते मूर्ध्नः कांचन किंकिणी कवचितश्रोत्रं गजास्यं विना ॥ १७ ॥ Colophon: संवत् १३६८ वर्षे कोलापुर्यां श्रीमहावीरचरितं श्रीनभसूरिभिः सभाव्याख्या व्याख्यात श्रावकमूलू- - वइरासकं ॥ ६ ॥ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 329 " No. III SANGITA BIRANIDARA 329 [१०४] १५. उपदेशकन्दलीवृत्ति by बालचन्द्रसूरि. प. २८४; ३२"४२३ Beginning:यन्नाभी-नासिका-भ्रू-गलिक-मुख-हत्-तालु-मौलि-श्रवस्नु ध्यानस्थानेषु रुद्धा निरवधि मरुतः पंच पश्यंति किंचित् । तस्माद् दृप्यत् यदंतः किमपि गुरुगिरा लक्ष्यते लक्ष्यरूपं यत्तेजः सर्वतेजोमदकदनमहं प्रत्यहं तन्महेहं ॥ १ ॥ वसशैवे मूर्ध्नि प्रतिदिशमुदस्ताखिलतमाः पायां तन्वानो रुचिमुपचितां शैल्यनिचितां । कलाशाली कामं कुवलयसमुल्लासरसिको मृगांकः श्रीशांतिर्भवतु भवतांतिप्रशमनः ॥ २ ।। धर्म निर्मलभासि दासितसिताभीपुप्रभासंपदि क्षीरक्षालननिस्तुपत्रिजगतीनेत्रभ्रमं विभ्रति । यस्तारातुलनां महोत्पलमहः संदोहसंदेहकृद देहश्रीरभजदू विभुः स भवतु श्रीपार्श्वनाथ श्रिये ॥ ३ ॥ कंदाद् विनिर्गत्य मृणालमूर्तिर्या ब्रह्मरंध्रांबुरुहे निलीना । सा योगिनां कुंडलिनीति नाम शक्तिः प्रसूते कविता-मधूनि ॥ १ ॥ आत्महितहेतवेहं सोदर्यायां विवेकमंजर्याः । वक्ष्ये श्रुत-वन-मयां विवरणमुपदेशकंदल्यां ॥ ५ ॥ इह किल कलिकालगौतमश्रीमदभयदेवसूरिसुगुरूपदेशपरिशीलितसकलसर्वज्ञसिद्धांतसारः सारस्वतज्योतिरुद्योतमानकविताडंवरः विवेकमंजरीप्रकरणकरणप्रवणसुकृतसौरभवासितवसुंधरः बंधुरोपजातगृहमेधिगुणः प्रगुणसम्यक्त्वनिःसीमः श्रीमदासडकविः कविसमाशंगार इत्यपरनामधेयः स्वश्रेयःसमुदयायोपदेशकंदली. प्रकरणचिकीः श्रीमंतमिहावसर्पिण्यामाद्यमहतमभिध्रुवन विहिताभीष्टसिद्धिप्रथामिमामादौ भावमंगलगाथामाह तिहुयणमंगलतिलयं कयदुजयभाववेरिभवविलयं । केवलसिरिकुलनिलयं रिसहं पणमामि मुणिवसहं ॥१॥ End: __ अथ ग्रंथसमाप्तौ मंगलमाहरइयं पगरणमेयं जिणपवयणसारसंगहेण मए । सम्म समत्तवियासडंबरं दिसउ भवियाण ॥ १२४ ॥ 42 Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 330 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS व्याख्या-एतत् प्रकरणं मया रचितं । केन कृत्वा ? जिणपवयणसारसंगहेण जिनानां प्रवचनं सिद्धांतस्तत्र सारभूतानां पंचानामपि व्रतानां चतुर्णी च धर्मागानां दान-शील-तपो-भावनारूपाणामपरेषां च चतुर्णां क्षांति-मार्दवार्जव-संतोषाणां संग्रहः एकत्र मीलनं जिनप्रवचनसारसंग्रहः तेन । अन्यदपि प्रकरणमुत्सवो विवाहादिः सारसंग्रहेण द्रव्योच्चयेन क्रियत इत्युक्तिलेशः । किं करोतु ? दिसउ ददातु । कथं ? सम्मं सम्यक् । किं तत् ? संमत्तवियासडंबरं सम्यक्त्वस्य सुदेव-सुगुरुसुधर्मप्रतिपत्तिरूपस्य विकाशाडंबरो विस्तरस्तं सम्यक्त्वविकाशाडंबरं । केभ्यः ? भवियाणं भव्येभ्यः भद्रकेभ्यः इति कवेरुक्तिः । वयं तु ब्रूमः-एतत् प्रकरणं भव्येभ्यः आसडं आसडनामानं सुकविं वरं प्रधानं दिशतु कथयतु । यतः कवयः काव्यकीर्तनैरेव परां प्रसिद्धिमायांतीति । किंविशिष्टमिदं प्रकरणं ? सम्मत्तवि 'वी प्रजनान]- कात्यशन-खादनेषु' इत्यनेन सम्यक्त्वं वेति समुद्दीपयति अवगमयति वा सम्यक्त्व वि किपा सिद्धमिति । अथ प्रशस्तिगाथामाहसिरिभिल्लमालनिम्मलकुलसंभवकडुयरायतणएण । एय आसडेण रइयं गुरूवएसाणुसारेण ॥ १२५ ॥ व्याख्या-इति पूर्वोक्तमुपदेशकंदलीनामधेयं प्रकरणं आसडेन रचितं रचनामानीतं । किंविशिष्टेन ? सिरिभिल्लमालेति निर्मलं निर्दूपणं च तत् कुलं निर्मलकुलं श्रिया उपलक्षितं च तत् भिल्लमालाख्यं निर्मलकुलं च तत् तथा तस्मात् संभवति श्रीभिल्लमालनिर्मलकुलसंभवः स चासौ कटुकराजस्तस्य तनयः पुत्रो यः स तथा तेन । नद् यथा श्रीभिल्लमालनामा हिमाद्रिरिव गोत्र शेपरो जयति । यस्य प्रजा महेशप्रिया न कैर्वर्ण्यतेऽपर्णा ? ॥ १ ॥ गंगाप्रवाह इव तत्र बभूव पुण्यभावोत्कटः कटुकराज इति प्रसिद्धः । यः सर्वदा जिनपदाश्रयणप्रवीणमाहात्म्यतः पदमदत्त भवस्य मूर्ध्नि ॥ २ ॥ अर्णोलतेति (आनलदेवी) दयिताऽस्य बभूव सीता रेखास्पदं वसुमतीव सती बभौ या व्योमावनीव च जिनत्रिपदीविविक्ता पुन्नागनंदनवती त्वमरावतीव ॥ ३ ॥ तयोरजनिषातां द्वौ सुतावासड-जासडौ । सत्पथं न व्यलंघेतां धु? धर्मरथस्य यौ ॥ ४ ॥ आसडः कालिदासस्य यशो-दीपमदीपयत् । मेघदूतमहाकाव्यटीकास्नेहनिषेचनात् ॥ ५ ॥ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 331 No. III SANGHA BHAN.ARDA 331 श्रुत्वा नवरसोद्गारकिरोऽस्य कवितागिरः । राजसभ्याः कविसभाशंगार इति यं जगुः ॥ ६ ॥ जिनस्तोत्र-स्तुतीः पद्य-गद्यबंधैरनेकशः । चक्रे यः कर्म-कृष्णाहि-जांगुलीमंत्रसंनिभाः ॥ ७ ॥ विवेकमंजरीनामधेयप्रकरणच्छलात् । कल्याणसिद्धये येन कृता सिद्धरस-प्रपा ॥ ८ ॥ तेन सदा जिनगुणप्रगुणांतःकरणकशाऽनुशासितहपीकावगडेन श्रीमतासडेन महाकविनेदमुपदेशकंदलीप्रकरणं किं स्वमनीपया विरचितमित्याह-गुरूवएसाणुसारेण गुरवोऽत्र श्रीमदभयदेवसूरिनामानस्तेपामुपदेशा गुरूपदेशास्तेषामनुसारोऽनुवादस्तेनेति संक्षेपार्थः । व्यासार्थस्तु प्रशस्तेरवसेयः । सा चेयम् श्रीवी(वय)रसेन इति वज्रमुनीश्वरस्य पट्टे वभूव दशपूर्वधरस्य पूर्व । शाखा य एष जिनशासनकल्पवृक्ष-स्कंधो दिगंतरगती: सुपुवे चतस्रः ॥ १॥ शाखांकुरा गणभृतोऽत्र बभूवुरेते नागेंद्र इत्यमलकीर्ति-नदी-नगंद्रः । चंद्रश्च सांद्रमतिभागथ निवृतिश्च विद्याधरश्च भुवि तिमानामधेयः ॥ २ ॥ एतेषु चंद्र इति यः प्रबभूव सूरिस्तस्य प्रफुल्लगुणगुच्छ-वनम्य गच्छे । भूयांस एव भुवनत्रयवंदनीयाः संजज्ञिरे गणधरा गुणिनो धरायां ॥ ३ ॥ प्रद्युम्नसूरिरिति तेषु रतिप्रियेपुभेत्ता बभूव निखिलागमशास्त्रवेत्ता । येन प्रबोध्य तलपाटपुरे नरेंद्रमुत्पाटयां तलत एव कलिबभूव ॥ ४ ॥ श्रीचंद्रगच्छ-नवकैरवकेलि-चंद्रश्चंद्रप्रभः प्रभुरभिज्ञतमस्ततोऽभूत् । यो विश्वलोकविदितं मुदितांतरात्मा प्राभातिकी जिनपतिस्तुतिमातनान ॥ ५ ॥ तस्माद् धनेश्वर इति श्रुतपारदृश्वा विश्वाभिरामचरितोऽभ्युदियाय सूरिः । यो मंत्रमाप गुरुतः सुरभूयभाजः प्रावोधयञ्च समयूपुरदेवतां यः ॥ ६ ॥ तस्याभितः समभवन भुवनप्रशस्याः शिष्याः श्रुताक्षकमलोद्धरणप्रवीणाः । चत्वार ऊर्जितरुचो विदुपां निपेव्या देव्याः करा इव पुराणकविप्रसूतेः ॥ ७ ॥ श्रीवीरभद्र इति सूरिरमीपु मुख्यः श्रीदेवसूरिरिति भूरिगुणो द्वितीयः । श्रीदेवभद्र इति सूरिवरस्तृतीयो देवेंद्रसूरिरिति च प्रथितश्चतुर्थः ॥ ८ ॥ श्रीमंडलीति नगरी नगरीतिकृप्तप्रासादसंहतिरितोऽस्यमरावतीव । देवेंद्रसूरिसुगुरुर्विततान तस्यां तद्वासिनां च हृदि मूनि च वासलक्ष्मी ॥ ९ ॥ प्रातिष्ठिपन्निजपदे स विनिद्रभद्रे भद्रेश्वरं प्रभुमनश्वरकीर्तिपूरं । . आख्यानमनंग इति संगतवान् यदीयध्यानानले मदनवन्मदनो विलीय ॥ १० ॥ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 332 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS तत्पट्टमौलिमणितामभजद् भवार्तिभीतात्मनामभयदोऽभयदेवसूरिः । पापातपापगममन्वमातपत्रीभूयांगिनां शिरसि यस्य करश्चकार ॥ ११ ॥ तस्योपदेशपदपेशललेशमाप्य वारांमुचेव कियदेव पयः पयोधेः । श्रीआसडेन कविना जनितोपदेशकंदल्यसावसुमतामुपकारहेतोः ॥ १२ ॥ किं च । तत्पट्ट-पर्वतमलंकुरुते स्म कर्म-ज्यालावली-हरियुवा हरिभद्रसूरिः । भूना यदीयचरणोपनतैरशोभि मुक्ताफलोज्वलतमैर्जगती यशोभिः ॥ १३ ॥ शिष्यस्तस्य विभोर्नमस्यचरणांभोजस्य जज्ञे महा साहियोपनिपनभोंगण-रविः श्रीबालचंद्रः कविः । यं स्वप्नांतमुपेत्य तदृढतरानुध्यानतुष्टा जगौ मत्पुत्रस्त्वमसीति शीतलगिरा देवी गिरामीश्वरी ॥ १४ ॥ इतश्च । आसडस्य मृडस्येव गौरी-गंगे बभूवतुः । पृथिवीदेवी-जैतलदेव्यौ द्वे तस्य वल्लभे ॥ १५ ॥ जैतल्लदेव्यां तनयावभूतां द्वावेतयोराजडनामधेयः । ज्येष्ठोतिविद्वान् कवयोभिदध्युर्खाल्येपि यं बालसरस्वतीति ॥ १६ ॥ दुर्वृत्तानां शंकनीयः कनीयान मंत्री जैत्रः सिंहवजैनसिंहः । मुद्रा सव्या त्यागिनोऽस्यापसव्या चापव्यापाराद्भुतस्याप हस्तं ।। १७ ॥ अरिसिंह इति च पृथिवीदेव्यां कर-पुष्करश्रवदानः । गुरुगिरिपरिणतकर्मा गज इव कलभोंगजः समभूत् ॥ १८ ॥ मंत्रिणो जैत्रसिंहस्य पत्नी जल्हणदेव्यसौ । त्रीनसूत सुतान वेदानिव वाणी प्रजापतेः ॥ १९ ॥ आशापाल इति प्रसिद्धगरिमा तेषां गरीयानयं मध्यश्चाजय इत्यनुगुणाध्यात्मैकधन्याशयः । चक्रे ज्ञानविलासकीर्तनमसौ शास्त्रं पुमर्थात्मकं पुण्यात्माऽमृतपाल इत्यसमधीपात्रं तृतीयस्त्वयं ॥ २० ॥ अरिसिंहस्य तथाल्हणदेवीति निवीतकलुपा पत्नी । रत्नत्रयमिव जिनवागजीजनत् तनुजनित्रितयं ॥ २१ ॥ आशाधरस्तेपु सुधीरधीती समग्रशास्त्रेपु किलानिमोऽस्ति । विमध्यमश्वाल्हणसिंहनामा प्रज्ञागरिष्ठोऽभयदः कनिष्ठः ॥ २२ ॥ इत्येवं स्वकुटुंबवर्गसहितेनाभ्यर्थितो मंत्रिणा श्रीजैत्रेण विवेकिना निजपितुः श्रेयःश्रियो वृद्धये । Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ IHER.. - . . . . . . . DELF PIVOTITUTE. 84. H. RUND, MADRAS. 4. No. III SANGHA BHANDARA 333 एतां वृत्तिमुवाच तत्कुलगुरुः श्रीबालचंद्राख्यया विख्यातोऽधिपतिर्गणस्य गणिनीरत्नश्रियो धर्मजः ॥ २३ ॥ देवानंदमुनींदुगच्छ-गगनालंकार-शीतयुतेः शिष्यः श्रीकनकप्रभाख्यसुगुरोपैविद्यचूडामणेः । श्रीबालेंदुकवींद्रपाणिकमलोन्मीलत्प्रतिष्ठः सुधी- रेतस्यां सहकारि कारणमभूत् प्रद्युम्नसूरिः पुनः ॥ २४ ॥ एतां शोधयति स्म विश्रुतवृहद्गच्छांबरश्रीशिरो रत्नं किं च धनेश्वरस्य सुगुरोः पट्टोदयाद्रौ रविः । छंदोलंकृति-तर्क-लक्षणचणः सिद्धांतशुद्धाशयः साहित्योपचयप्रपंचनविभुः श्रीपद्मचंद्रः प्रभुः ॥ २५ ॥ उत्सूत्रं यदसूत्रि सूत्रविकलेनालक्षणं लक्षण__ न्यूनेन श्लथरीति रीतिरिपुणा व्यर्थ हतार्थन च । किंचित् कापि वचो मया प्रलपितं स्वच्छंदमच्छंदसा __तच्छोध्यं विबुधैः परैरपि परं कृत्वा प्रसादं मयि ॥ २६ ॥ पूर्वाशा कुंकुमभिःसुभगमिव मुखं विभ्रति भानुविवं ___ संध्यारागांशुकश्रीपरिचयरचनाभासुरा वासरादौ । आत्मानं पश्चिमाशाधृतशशि-मुकुरे पश्यतीवात्र यावत तावद व्याख्यायमाना कृतिभिरतितरां वर्ततां वृत्तिरेषा ॥ २७ ॥ इत्याचार्यश्रीबालचंद्रविरचितायामुपदेशकंदलीवृत्तौ चतुःकपायविरति विवरणं त्रयोदशो विश्रामः समाप्तः ॥ शिवमस्तु सर्वजगतः परहितनिरता भवंतु भूतगणाः । दोषाः प्रयांतु नाशं सर्वत्र सुखी भवतु लोकः ॥ ग्रंथाग्रं ७६०० Colophon: संवत् १२९६ वर्षे फाल्गुणशुदि ९ शुके समस्तराजावलीपूर्व महाराजाधिराज. श्रीभीमदेवकल्याणविजयराज्ये तन्नियुक्तमहामात्यदंडश्रीताते श्रीश्रीकरणं परिपंथय. तीत्येवं काले पुस्तकमिदं लिखितमिति ॥ [२१] १६. कुमारपाल(जिनधर्म)प्रतिबोध by सोमप्रभाचार्य, __ ग्रं. ८८०० प. २५५; २१"x२" Colophon संवत् १४५८ वर्षे द्वितीयभाद्रपदशुदि ४ तिथौ शुक्रे दिने श्रीस्तंभतीर्थ बृहत्पौषधशालायां भट्टा० श्रीजयतिलकसूरीणां उपदेशेन श्रीकुमारपालप्रतिबोधपुस्तकं लिखि. तमिदं । कायस्थज्ञातीयमहं मंडलिकसुतषेतालिखितं । चिरं नंदतु छ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 334 Pattan Catalogue of Manusorists उ० श्रीजयप्रभगणिस(शि)ष्य उ० श्रीजयमंदिरगणिस(शि)ध्यभट्टा० श्रीकल्याणरत्नसूरिगुरुभ्यो नमः पं० व(वि)द्यारत्नगणि...... [९१] १७. उपदेशमालाविवरण. प. २४६; २९३"४२" Beginning: जिन-जैमिनि etc. सिद्धर्षिकृता वृत्तिः etc. Colophon: संवत् १२७९ वर्षे आषाढशुदि ६ सोमे अयेह श्रीवटपद्रके पंडि० सोहलेन ॥ [११०] १८. योगशास्त्रविवरण by हेमाचार्य. ग्रं. १२३९४ प. ३१९; ३१४२" Colophon: संवत् १४९२ वर्षे पोपशु. २ गुरौ अद्येह श्रीदर्भावत्यां...... १९. कथारत्नाकर. अव्यवस्थित त्रुटित. ३०४२४" २०. (१) अनुत्तरोपपातिकवृत्ति by अभयदेव. त्रुटित ३१°४२" (२) विपाकसूत्रवृत्ति ,, ,, , (३) प्रश्नव्याकरणवृत्ति , , , (४) कथारत्नकोश (प्रा.). (५) त्रिषष्टिश. पु. चरित्र (पर्व ७-९). प. १-३२१; २५३"४२" २१. (१) उत्तराध्ययन. प. १-१२; ३०°४२" ('दुगपत्तिय' अध्ययनपर्यन्तम् ). (२) नियुक्ति (Illustrated) प. १-१४ (३) वृत्ति . प. १४-३६६ Beginning: नमोहते। - शिवदाः संतु तीर्थेशा विनसंतोपघातिनः । भव-कूपोद्धृतो येषां वाग वरत्रायते नृणां ॥ On the board: उत्तराध्ययनबृहद्वृत्ति-द्वितीयखंड [११७] २२. आवश्यकवृत्ति (द्वितीयखण्ड) by हरिभद्रसूरि. प. २७७; ३३३"४२३ Colophon: संवत् १४४२ वर्षे श्रीस्तंभतीर्थे पौषधशालायां आवश्यकवृत्तिद्वितीयखंडपुस्तकं लेखितं । Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 335 No. III SANGHA BHANDARA [१०६] २३. शान्तिनाथचरित (प्रा० सचित्र ) by देवचन्द्रसूरि. प. ३१३; ३०४२३" Beginning: ॥ ६० ॥ नमः श्रीशांतिनाथाय । सरलंगुलि-दलपडलं णह-मणिकेसरं णर-सुरालिं । तेलोकसिरि-णिलयं जिणपहुपय-पंकयं णमह ।। दोसासंग-विमुकं तम-रयरहियं सुवित्तमकलंकं । पयडियपउरपयत्थं णमामि णाभेय-वरसूरं ॥ नमिरसुरासुर-नरसिरकिरीडगुरुरयणकिरणकरियं । बहुदुरिय-दारु-परसुं वंदे सिरिवीर-कमजुयलं ।। तिलोकविहियसंतिं तावियवरकणय-निघससमकंतिं । मय-मोह-विडवि-दंतिं वंदामि जिणेसरं संति ॥ दुबारमार-करिकरडवियडकुंभय[ड]पाडणपडिखें । तव-खरणहरकरालं णमिमो गुणसूरि-खरणहरं ।। कविराय-चकवहि वंदे सिरिइंदभूइमुणिनाहं । जस्स जले तेल्लं पिव वाणी सवत्थ वित्थरइ । वंदामि भदबाहुं जेण य अइरसियं बहुकहाकलियं । रइयं सवायलक्खं चरियं वसुदेवरायम्स ॥ वंदे सिरिहरिभदं सूरिं विउसयणणिग्गयपयावं । जेण य कहापबंधो समराइचो विणिम्मविओ ॥ दक्खिन्नइंधसूरिं नमामि वरवण्णभासिया सगुणा । कुवलयमाल व म(सु)हा कुवलयमाला कहा जस्स ॥ पणमामि सिद्धसूरि महामतिं जेण सबजीवाण । पञ्चक्खं पिव रइयं भवस्सरूवं कहाबंधे ॥ अण्णे वि एवमाई जयंतु सधे वि जे पहाणकइणो । [ना]मग्गहणेण वि जाणं होइ अम्हारिसो [पयडो] । कह सुयणो वन्निजउ जो पेच्छंतो वि मंगुलं को । निययसहावेणं चिय न जंपए तग्गयं दोसं ॥ पत्थुयपबंधसमए वणिजइ कह गु दुजणो एत्थं ? । वण्णिजंतो वि न जो दुजणपयइं परिचयइ ॥ Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 336 Partan CATALOGUE OF Manuscripts एवं कयप्पणामो उग्घाइयघोरविग्घसंघाओ। सिरिसंतिणाहचरियं संतिकरं वण्णइम्सामि ।। पंडिच्चपयडणत्थं ण चेव एवं अहं पवक्खामि । किं तु जिणणाह-संकह-भत्तिए परवसत्तणओ ॥ धम्मोवएसणत्थं च किंचि भवाण तहय संघस्स । संतिनिमित्तं च इमं पारद्धं मंदमइणा वि ॥ जह भरहपुच्छिएणं कहियं सिरिउसमसामिणा एयं । तत्तो कमेण कहियं जं जिणेहिं अन्नेहिं वि जहेव ॥ गोयममाईहिं तहा कहियं भवाण णुग्गहट्ठाए । तह किंचि अहं पि इमं वोच्छामि सुयाणुसारेण ॥ १८ ॥ End:एव इमो संतिजिणेसरस्स चक्काउहेणं तु समन्नियस्स ।। भवो मए बारसमो वि सिट्ठो भव्वाण सव्वाण वि जो विसिट्ठो ॥१२६५५॥ इइ संतिणाहचरिए वारसमभवग्गहणं सम्मत्तं ॥ कह वन्निउं समत्थो सिरिसंतिजिणेसरस्स भवगहणे? । जेण अहं छउमत्थो मंदमई तह य अञ्चत्थं(न्तं ) ॥ १ ॥ तहा य । बहुजोयणगंतव्वे मग्गे कह जाउ पंगुलो पुरिसो ? । कह वा वि हु दुम्मेहो पढउ असेसं पि सुयणाणं ॥ २ ॥ भूमिडिओ वामणओ कह वा गिण्हइ फलाणि तालस्स ? । कह वा वि मंदचक्खू पेच्छेउ वरक्खरे सुहुमे? ॥ ३ ॥ कह वा वि उच्च कन्नो सुणेउ अइगुत्तमंतमंतणयं ? । कह वा वि बाहुतरओ जाउ महाजलहि-पारंमि ? ॥ ४ ॥ कह वा वि वायभग्गो देउ जणाणंदगाणि करणाणि ?। कह वा वि अप्पविजो वियरउ आयासमग्गेण ? ॥ ५ ॥ एय-समो अयं पि हु वन्नेमि कहं नु संतिजिण-चरियं ? अहवा वि भत्तिवसया मुणंति णो अत्तणो सत्तिं ॥ ६॥ जहा जलहिमज्झि पडिओ बिंदुं पउ लेइ अत्तणो पूरं । बहुभोज्जे वि हु पत्ते लेइ नरो उदरभरमेव ॥ ७ ॥ जह बहुतारे वि गहे गणइ सुगणओ वि तारए कइ वि । 'जह बहुदव्वे वि जए पेच्छइ थोवाणि छउमत्थो ॥ ८ ॥ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No III. SANGHA BHANDARA जह वर वक्खाणे विहु मंदमई सुणइ कइ वि हु पयत्थे । जह सामन्ननरेंदो किंची भुंजेइ भरहस्स || ९ | तह संतिणाह-चरिए अपमाणगुणे अणेगवुत्तंते । अचंतमंदमइणा मए वि किंची समक्खायं ॥ १० ॥ जो यियसत्तिवियलो उप्पाडइ गरुयभत्तिए भारं । हास - ट्ठाणं जायइ णियमा सो सत्तिजुत्ताणं ॥ ११ ॥ तह अहमवि मंदमई पयट्टमाणो इमंमि कवंमि । जाउ (ओ) विउसजणाणं हास - द्वाणं महमईणं ॥ १२ ॥ अहवा हि णहि एयं हसइ न कइया वि सज्जनो अन्नं । जो हिययमज्झ - कलुसो सो पर जइ दुज्जगो हसइ ॥ १३ ॥ तेणं न वन्नणिज्जो सुयणो इह होइ कवयाराण | पेच्छतो वि हु दोसं गूहइ कवंमि जो अहियं ॥ १४ ॥ वन्नामि दुज्जणे चिय एक्कं इह जीवलोयमज्झमि । जो लेइ पयत्तेणं दोसं कवाउ उच्चिणिउं ॥ १५ ॥ उच्च - दोसं कां णिद्दोसं होइ तेण सो चेव । वन जोगो जायइ कवीण उवयारिभावेण ॥ १६ ॥ अहवा विहु किमणेणं सवाण वि पत्थणं करेमि अहं । अवणेत्तु सदो से एवं सोह मह कवं ॥ १७ ॥ एवं एय सम्मत्तं सुहयरचरियं संतिणाहस्स रम्मं जुत्तं चक्काउहस्स वरगणवइणो संकहाए सुहाए । जीवाणं संतिहेउं दलियकलि-मल... चर्च नंदिंद चंदं सुतं निचकालं सित्र - सुहजणयं [हो ] इ जीवाग सम्मं ॥ १८ ॥ सम्मं सम्मत्तमूलं दुदसभवकथं सबकल्लाण-ठाणं 837 भव्वाणं सव्यमाणं ललियपयजुयं सिद्धिसोक्खेकछेउं । संतं संतिष्पत्तं तिहुणतिलयं वन्नणिज्जं बुहाणं देवचंदोहवंद कुणउ इह सया सव्वजीवाण संतिं ॥ १९॥ परिहरियसुदारो वज्जियासेसखारो धरियवयसुभारो दुक्खलक्खोहदारो । तव - व - सिरि-वरहारो दोस- चोरिक्क चारो चरण घणअपारो अंतरंगारि-मारो ॥ २० ॥ कयपवरविहारो चत्तसव्वाणयारो पणमिरसुर-वारो मोह - वल्ली - कुठारो | दुह- दव-जलकारो केवलन्नाणकारो कयबहुअणगारो भव्वलोउवयारो ॥ २ ॥ 43 Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 388 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS सियमय-सुवियारो पाव-पंकावहारो पयडियसिव-पारो दिनसगापयारो। भव-जलनिहि-तारो संति-सोक्खेककारो जयउ तिजग सारो संतिणाहो सुतारो॥३॥ अत्थि धरित्तीए इहं पइटिओ पउमहत्थ-साहालो । सुमण-समणाहिवासो कोडियगणणाम-पवरतरू ॥ १ ॥ तस्स वइराभिहाणा साहा अचंतवित्थडा जाउ । तीए सिरिचंदकुलं कुसुमं व समुज्जलं सहइ ॥ २॥ तस्स य फलसारिच्छो समत्थसउणाण विहियउवयारो। खंति-रमणीए हारो णिचं चिय उज्जुयविहारो ॥ ३ ॥ णवमेहसरिससद्दो कोहाइकसायजणियउवमहो । आगामिपवरभद्दो सूरी णामेण जसभहो ॥ ४ ॥ जेण व(च) णीरोगेण वि संलिहिऊणं दढं णियसरीरं । उज्जे तसेल-सिहरे चउव्विहाहारचाएण ।। ५ ।। सिरिपुन्नतल्लगच्छुब्भवेण कयमणसणं विहाणेण । कलिकाले वि हु वटुंतयंमि दिवसाइं तेरस उ ॥ ६॥ तस्स य सिरिपजुन्नो हयपजुन्नो असेसगुणपुन्नो । सीसो अइसुपसन्नो संजातो जन्नसमपुन्नो ॥ ७ ॥ सत्तमुहो सुइ-सुहओ वाइजंतो जणेण अणवरयं । ठाणयपगरणरूवो जस्स जए भमइ जस-पडहो ॥ ८॥ वायरण-तक-सिद्धंत-कव्व-लंकार-कणय-कसवट्टो । णिस्संबंधविहारी महीयले विहरिओ सययं ॥ ९ ॥ तस्स वि सीसो जातो सिरिगुणसेणो विसिट्ठगुण-सेणो । निद्दलिय-सयल-एणो जसेण जियजण्हवी-फेणो ॥ १० ॥ णियमयणादिदप्पो जेणं णिचं पि पालिओ कप्पो । जो संजमे अणप्पो भव-वइ-तरणंमि वरतप्पो ॥ ११ ॥ वखाण-चारुमयरंद-लंपडुप्पेहडेहिं अणवरयं । सोयारय-भमरेहिं सेविजइ जस्स पय-कमलं ॥ १२ ॥ खंभाइत्थपुरंमि जेणं विहिऊण* ] अणसणं विहिणा । संलेहणाइपुवं लोयाण कओ चमकारो॥ * पत्तनीयताडपत्रादर्शपुस्तकस्य ३१० तमपत्रस्थः पाठोऽस्पष्टः कृच्छ्रेण वाच्य इत्येताह [ ] कोष्ठकान्तर्गतः पाठो वटपद्रीयप्राच्यविद्यामन्दिरसङ्गृहीतादर्शपुस्तकादुदृत्य संयोजितः। Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III. SANGHA BHANDARA 389 तस्स य सीसेण इमं अचंतं मंदबुद्धिविहवेण । सिरिदेवचंदनामेण सूरिणा जिण-सुभत्तेण ॥ सिरिसंतिणाहचरियं रइयं सिवसंग-चारुसोक्खत्थं । अन्नाण वि जीवाणं देउ सया संति-वरसोक्खं ॥ सिरिखंभतित्थनयरे जिण-पूयण-थुणण-वंदणजुत्तो । सामाइयाइनिरओ लेहियबहुपोत्थयसमूहो । सेट्ठिसद्धम्मजवो नामेणं आसि वीहवो पवरो । सयलगुणाण निहाणं धुरंधरो धम्मपुरिसाणं । तस्स य तग्गुणजुत्तो पुत्तो सिरिवच्छनामओ सेट्ठी ॥ तबसहीए ट्ठिएहिं रइयं सिरिदेवचंदेहिं ॥ आसद्देवो य गणी थिरचंदगणी य दोन्नि वि सुसीसा । मज्झ सहाया जाया लिहमाणा पट्टियाईसु ॥ एक्कारसहिं सएहिं विक्कमसंवच्छराउ सहेहिं । रइयं खंभाइत्थे रजे जयसिंघरायस्स ॥ जो पढइ सुणइ वायइ वक्खाणइ पवरभत्तिसंजुत्तो । सो पावइ इह संतिं परंपराए हवइ मुत्तो ॥ जावच्चंदो दिणिंदो सयलजलहरा जाव भूवीढमेयं __ जावदेवाण सेलो वरसुरसरिया जाव सग्गा[प]वग्गा । सा एवं मच्चलोए सिवसुहजणयं सव्वजीवाण सम्म पिच्चं नंदेउ एत्थं सिरिवरचरियं संतिणाहस्स रम्मं । एकेकखरगणणाए गंथपमाणं विणिच्छियमिमस्स । बारस उ सहस्साई सएण एक्केण अहियाई ॥ अंकतोपि सहस्रं १२१०० ॥ Colophon: श्रीविजयचंद्रसूरिशिष्यश्रीयशोभद्रसूरिशिष्यश्रीदेवप्रभसूरीणां सत्कं पुस्तकं ॥ Pras'asti of the Donor: प्राप्तो गोत्राधिपत्वं रसभरविलसन्नदनारामरम्यः सर्वस्याशाप्रकाशी सकलसुमनसां सेवनीयः सदैव । नानाकल्पागमानामुपचयननको राज-सम्मानभावं प्राप्तः श्रीधर्फटानां प्रकटितगरिमा वंश-मेहः समस्ति ॥१॥ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 840 PATTAN CATALOGUE OF MANUEÓRIPTS सच्छायः सरसः सपत्रनिचयः शाखा-प्रशाखांचितः पीनस्कंधविराजितः प्रतिपदं संतापहारी सतां । चिंतागोचरचारि वस्तुविसरं दातुं समर्थोऽर्थिनां तत्राजायत कल्पपादपसमः श्रीजावडः श्रावकः ॥२॥ तस्याभवन्निखिलकल्मषदोषहीनास्तिस्रः प्रियात्रिपथगा इवं पूरितशिा। लोकत्रयप्रथितशीलयुतास्तथापि प्राप्ताः कदाचन न दीनपथातिथित्वं ॥ ३ ॥ जिनदेवी बभूवासामाद्या मधुरवादिनी । स्त्रैणोचितगुणोपेता जिनेंद्रपदपूजिका ॥ ४ ॥ राकासुधारश्मिसमानशीला शुद्धाशयानंदितदीनंलोका । रूपश्रिया तर्जितकामकांता कांता द्वितीयाजनि सर्वदेवी ॥५॥ कुंदावदातधु तिशीलशालिनी मातेव सर्वस्य जनस्य वत्सला। पूर्णी तथा पूर्णमनोरथस्थितिर्जाता तृतीया गृहिणी विवेकिनी ॥ ६ ॥ यः सर्वदा सर्वजनोपकारी गंभीर-धीरो जिनधर्मकारी । तं दुर्लभं दुर्लभमल्पपुण्यैः प्रासूत तत्र प्रथमा तनूजं ॥ ७ ॥ संजातौ भुवि विख्यातौ सर्वदेव्याः सुतावुभौ । उदयाचलचूलायाः सूर्या-चंद्रमसाविव ॥ ८ ॥ आधस्तयोः सज्जनचित्तहारी नयी विनीतः सकलोपकारी । जिनेंद्रपूजाविहितानुरागः साधुप्रियोऽजायत देवनागः ॥ ९ ॥ द्वितीयश्च गुणावासः सत्य-शौचसमन्वितः। कलावानुज्वलो जातः कुल-कैरव-चंद्रमाः ॥१०॥ सूरेः श्रीजिनवल्लभस्य गणिनः पादप्रसादेन त___ लब्धं येन विवेक-यानमसमं दुःप्रापमल्पाशयैः । येनाद्यापि सुखं सुखेन कृतिनः संसार-वारांनिधेः पारं यांति परं निरस्तसकलक्लेशावकाशोदयाः ॥ ११ ॥ शिरसि नमनं यः साधूनां दृशोरतिशांततां वदन-कमले सत्यां वाणीं श्रुतौ श्रवणं श्रुतेः । मनसि विमलं बोधं पाणी धनस्य विसर्जनं जिनगृहगतिं पादाभोजे चकार विभूषणं ॥ १२ ॥ प्रालेयशैलशिखरोज्वलकांतिकांतश्रीनेमिनाथभुवनच्छलतश्च येन । मूर्तः स्वधर्म इव सर्वजनीयदातुराविष्कृतः सकललोकहितावहेन ॥ १३ ॥ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA 341 चारित्राचरणैकधीरमनसो गीतार्थचूडामणेः विद्यानां मणिदर्पणस्य शामिनः सेव्यस्य पुण्यार्थिभिः । यश्व श्रीमुनिचंद्रसूरिसुगुरोः पादांबुजं सेवितुं वांछन् मत्सरवर्जितः ः सुरवधू - - प्राणेश्वरत्वं गतः ॥ १४ ॥ निःसीमधर्म्मनिलयं कलितं सदर्थैः सद्वृत्तताविरहितं न कदाचनापि । ख्यातं जगत्रयमिवापदनंतसत्त्वं पूर्णी सुतत्रयमतीवगभीरमध्यं ॥ १५ ॥ लक्ष्मीविलासकलितो बलिदर्पहंता सत्यानुरागिहृदयो विधिपक्षपाती । लक्ष्मीधरः सुतवरोजनि तत्र मुख्यश्चित्रं तथापि न जनार्दनतामुपेतः ॥ १६ ॥ आराधितश्री जिननेमिनाथः संपादितानंतखलप्रमाथः । आसीद् द्वितीयो धनदेवसंज्ञः सदा सदाचार - विचार - विज्ञः ॥ १७ ॥ यस्यासमान - फलकांतगुणाभिरामं संरुद्ध - रंध्रमविलाभिजल-प्रवेशं । सदूधीवरैरनुगतं मति - यानपात्रं गंभीरकार्य - जलधेः परभागमेति ॥ १८ ॥ विवेकिजनवल्लभः स्फटिकशैल - शुद्धाशयः कलंकविकलः सदा सकललोक संतोषदः । बभूव जिनपूजकः सुगुरुवंदकः श्रावक स्तृतीय इह नंदनः सुजननंदनः श्रीधरः ॥ १९ ॥ तत्रोज्जलस्य समजायत धर्मपत्नी मंदाकिनी सलिल - निर्मलशीलयुक्ता । लक्ष्मीः समस्तजनवांछितदानदक्षा चित्रं न निर्गुणरता न चलस्वभावा ॥ २० ॥ उल्लासकाः सुमनसां विदितानुभावसंपादकाः समयिनां बहुलं फलानां । नित्यं निजऋमयुता भुवनप्रसिद्धाः पुत्रास्तयो ऋतुसमाः पडिहो जाताः ॥ २१ ॥ कारुण्य- रत्नांकुर - मेरुशैलः सौजन्य - पीयूप- रसांबुराशिः । आद्यः सुतोजायत वर्द्धमानस्तेषां कलाभिः परिवर्द्धमानः ॥ २२ ॥ अपारगांभीर्य निवासभूमिर्विद्वत्-सुश्राद्धादिजनोपकारी । अनल्पलावण्ययुतो द्वितीयः पुत्रः पवित्रोऽजनि मूलदेवः ।। २३ ।। कीर्तेः पात्रं निजगुरु गिरां पालने लब्धलक्षः स्थानं नीतेर्जन कनयनानंददायी सदैव । दूरीभूताखिळख.. ...... लो जातवान् पुत्ररत्नं तार्त्तीयकः कुशलवसुतावल्लभो रामदेवः ॥ २४ ॥ बभूव कारुण्यपरिग्रहाय कृताग्रहः कुग्रह - दर्पहंता । विपत्ति - संपत्तिसमानुरागी यशोधरो वीरिमधाम तुर्यः ॥ २५ ॥ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 342 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS जिनेंद्रपूजारचनानुबंधबद्धोद्यमो निर्मलकीर्तिशेषः । भक्त्या समासेवितसर्वदेवस्ततोनुजो जायत सर्वदेवः ॥ २६ ॥ मुक्ताफलारंभरतिर्नदीनो विश्रामभूमिः पुरुषोत्तमानां । पयोधिवन्नित्यगभीरभावः षष्ठस्तनूजोऽजनि चापदेवः ॥ २७ ॥ तत्रासीद् रामदेवस्य वल्लभा शीलशालिनी । आसदेवीति विख्याता सुरूपा रूपिकापरा ॥ २८॥ यशोधरस्य जाया च थेहिका हितकारिणी । शोभना सर्वदेवस्य चापदेवस्य शांतिका ॥ २९ ॥ अस्ति स्म थेहड इति प्रथितामिधानः कुंदावदातहृदयः सदयः सदैव । धीरो यशोधरसुतः कलितः कलाभिनित्यप्रशस्तचरितः प्रणतो गुरूणां ॥ ३० ॥ आनंदकः सुमनसां सततं सुधर्मवद्धादरः कृतविमानमनःप्रवृत्तिः । आस्ते महेंद्र इव वल्लभचित्रलेखः श्रीरामदेवतनयो विनयी महेंद्रः ॥ ३१ ॥ हरिचंद्राभिधानश्च द्वितीयोभूत् तनूद्भवः । वल्लभः सर्वलोकानां प्रतिपच्चंद्रमा इव ॥ ३२ ॥ विनयी नयसंवासो चापदेवस्म नंदनः । गोसलाख्यः सुशीलोभूद् गुण-रत्न-महानिधिः ॥ ३३ ॥ आसीदाद्या महेंद्रस्य महाश्रीरूपसप्रिया । राज्यश्रीः शील-कारुण्य-दानौचित्यादिशालिनी ॥ ३४ ॥ राज्यश्रियस्त्रयः पुत्रा वीसलोथ यशोभटः।। वोचिस्थश्चेति संजाता गुण-रत्नौघ-रोहणाः ॥ ३५ ॥ राज्यश्रीरन्यदा तत्र शुद्धश्रद्धानबंधुरा । इत्येवं चिंतयामास निस्समानगुणोज्वला ॥ ३६ ॥ प्राणा वायुमयाः स्वभावतरला लक्ष्मीः कटाक्षस्थिरा स्वाम्यं बालविलंबितातनुशिलावस्थानदुःस्थं सदा । पाठांदोलितदीप-कुड्मलदलप्रायः प्रियैः संगम स्तन्नास्तीह किमप्युदारमनसामाशामिवेशास्पदं ॥ ३७ ॥ तल्लब्ध्वा मनुजेपु जन्म विमलं संप्राप्य देशादिकं श्रुत्वा श्रीजिनचंद्रवाचमुचितां श्रीमद्गुरूणां पुरः। स्वाधीने च धने च संगतवति स्वीये कुटुंबे सतां युक्तो धर्मविधान एव सततं कर्तुं महानुद्यमः ॥ ३८ ॥ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 343 No III. SanguA BHANDĀRA सम्यग्ज्ञानपुरःसरश्च महतां धर्मादरः संमतः प्रायस्तच्च जिनागमादविकलं संजायते धीमतां । सर्व लोकमवेक्ष्य शांतविशदप्रज्ञाप्रकर्पोद्यमं काले सोपि कलौ न्यवेशि मुनिभिः संघोत्तमैः पुस्तके ॥ ३९ ॥ चारित्रभारचरणासहमानसेन पंचप्रकारविषयामिपलालसेन । पात्रादिदानमयधर्मवता तदेयं(तत्) लेख्यं परिग्रहवता गृहिणा तदेव ॥४०॥ एवं विचिंत्य सुचिरं श्रेयो) स्वस्य सांब(थ) राज्यश्रीः । श्रीशांतिनाथचरितस्य पुस्तकं लेखयामास ॥ ४१ ॥ विरचितविचित्ररेखं सुवर्णपत्रावलीकलितशोभं । यद् भाति करे विदुषां कंकणमिव कीलिकारम्यम् ॥ ४२ ॥ राकाशीतांशुशुभ्रः स्फुरदमलदृशः सर्ववस्तुप्रकाशी सम्यग्ज्ञान-प्रदीपस्त्रिभुवन-भवनाम्यंतरे भासमानः । यावन्मोहांधकारं शमयति सकलं पृरिताशेपदोपं तावन्नंद्यान्मुनींद्रेरयमिह सततं पुस्तकः पठ्यमानः ॥ ४३ ॥ [१२४] २४. (१) निशीथसूत्र ( उ. १-५). प. १-७; ३२३"४२३ (२) , भाष्य. प. १-७७ (३) , चूर्णि. प. १-३०४ Colophon: संवत् १३३० वर्षे वैशाखशुदि १४ गुरौ निशीथप्रथमखंडचूर्णीपुस्तकं लिखितमस्ति [१२३] २५. (१) बृहत्कल्पचूर्णि. प. ३८४; ३३४२" (२) , सूत्र. ग्रं. ४७४ प. ३८५-३९३ Colophon:संवत् १२९१ वर्षे पौषसुदि ४ सोमे On blank folio: श्रीज्ञानसागरसूरिभ्यो नमः । श्रीजयतिलकसूरि श्रीमाणिक्यसूरि । [१२२] २६. (१) नवपदप्रकरणवृत्ति (अपूर्ण). प. २३७, ३१°४२" (२) , (मूल) by देवगुप्त. प. २३७-२२८० . Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 344 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Colophon: नवपदवृत्तिपुस्तक सो० जसवीरसुतश्रे० जसदेव ग्रं. ९५०० लखित पत्र २८० पाठा २ दोरि १ [८९] २७ (१) धर्मविधिवृत्ति. [ वस्त्रे ] प १ - ७९; २५x५” End: इति श्रीउदयसिंहाचार्यविरचिता उद्यांकाष्टद्वारा श्रीधर्म्मविधिवृत्तिः समाप्ता । ग्रंथामं ५५२० । Colophon: संवत् १४१८ वर्षे चीवाप्रामे श्रीनरचंद्रसूरीणां शिष्येण श्रीरत्रप्रभसूरीणां बांधवेन पंडितगुणभद्रेण कच्छूली श्री पार्श्वनाथगोष्ठिकलींबाभार्या गउरी तत्पुत्रश्रावक जसा डूंगर तभगिनी श्राविका वीझी तील्ही प्रभृत्येषां साहाय्येन प्रभुश्री श्रीप्रभसूरिविरचितं धर्म्मविधिप्रकरणं श्री उदयसिंहसूरिविरचितां वृत्तिं श्रीधर्म विधिग्रंथस्य कार्त्तिकवदि दशमीदिने गुरुवारे दिवसपाश्चात्यघटिकाद्वयसमये स्वपितृ - मात्रोः श्रेयसे श्रीधर्म्मविधिग्रंथम लिखत् ॥ Pras'asti of the Donor: जावालिदुर्गे नगरे प्रधाने बभूव पूर्वं धणदेवनामा । सहजल्हदेवी दयिता तदीया ब्रह्माक लिंबा तनयौ च तस्याः ॥ १ ॥ गौरदेवि दयिता प्रबभूव लिंबकस्य तनयः कडुसिंहः । तस्य च प्रियतमा कडुदेवी तस्य चैव समभूद् धरणाकः ॥ २ ॥ ब्रह्माकपुत्रः प्रबभूव झंझण: प्राग्वाटवंशस्य शिरोमणिस्तु । आशाधरस्तस्य बभूव नंदनः पुत्रश्च तस्य प्रबभूव गोगिलः ॥ ३ ॥ गोगिलस्य तनयः प्रबभूव पद्मदेवसुकृती सुकृतज्ञः । तस्य चैव दयिता सुरलक्ष्मीर्जेन धर्मकरणैकको विदा ॥ ४ ॥ अमी जयंति तनया यस्याश्च जगतीतले । सुभटसिंहः क्षेमसिंहः स्थिरपालस्तथैव च ॥ ५ ॥ जाया सुभटसिंहस्य सोनिका हेमवर्णिका । तस्याः सुता जयंत्युचैरेते विदितविक्रमाः ॥ ६ ॥ तेजाको जयतश्चैव ना ( जा ) वड पातलस्तथा । एताः पुत्र्यश्च यस्या हि कामी नामल चामिकाः ॥ ७ ॥ 4 जाया स्थविरपालस्य श्राविका देदिकाभिधा । तस्याः सुताः षडेते च जयंति जगतीतले ॥ ८ ॥ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 845 45 No. III SANGAA BAANDĀRA नरपालश्च हापाकस्त्रिभुवनस्तु कालुकः। केल्हाकः पेथडश्चैव षडेते सुरसुंदराः ॥ ९ ॥ स्थविरपालस्य साहाज्जा(य्या)त् श्रीरत्नप्रभसूरिभिः । विशालाया धर्मविधेः पुस्तकं वाचितं वरं ॥ १० ॥५॥ (२) ॥६०॥ कच्छूलिकामंडनपार्श्वनाथपादारविंदस्य मरालतुल्यः । प्राग्वाटवंशे भुवनावतंसे बभूव पूर्व सहदेवनामा ॥ १ ॥ गुणचंद्रनामा तनयस्तदीयः श्रीवत्सनामा च तदंगजोऽभूत् । श्रीवत्सपुत्रा जगति प्रसिद्धा अमी बभूवुर्गुणराशिसंयुताः ॥ २ ॥ छाहडो निरुपमाकृति-रूपो धर्मकर्मनिपुणो यशोभटः । श्रीकुमारतनयस्तु तृतीयो वीतराग-गुरुपूजनापरः ॥ ३ ॥ छाहडस्य च शाखायां श्रीमाणिक्यप्रभसूरयः। गुरवश्व ततो जाताः श्रीकमलसिंघसूरयः ॥ ४ ॥ यशोभटस्य शाखायां श्रीश्रीप्रभसूरयः । वयं च गुरवो जाताः प्रज्ञातिलकसूरयः ।। ५ ।। श्रीकुमारेण च पुरा वृद्धग्रामे अचीकरत् । श्रीकमलसिंघसूरीणां पदस्थापनमुत्तमं ॥ ६ ॥ श्रीकुमारदयिता अभयश्रीः साल्हकस्तदनु बोडकाभिधः । साल्हकः सुगुरु-धर्मतत्परास्तस्य चैव तनयाः प्रबभूवुः ॥ ७ ॥ सोभाकस्य च जायाभूनाम्ना अविधवा सदा । सोला-गदाकनामानौ बभूवतुः सुतौ तयोः ॥ ८ ॥ गदाकस्य च जायाभूत् प्रथमा रतनिकाभिधा । श्रियादेवी द्वितीया च मूर्ति(ता)लक्ष्मीरिवापरा ॥ ९॥ कर्मा-भीमाकनामानौ श्रियादेव्याश्च नंदनौ । भीमाकस्येव दयिता रुक्मिणी रुक्मिणी परा ॥ १० ॥ रुक्मिण्याश्च त्रयः पुत्रा बभूवुर्धर्मकारकाः । लींबाकः सोहडश्चैव पेथाकश्च तृतीयकः ॥ ११ ॥ लीबाकभार्या गरी प्रसिद्धा भक्तौ जिनेंद्रस्य जसाक-डूंगरौ । पुत्रौ द्वितीयौ सदन प्रसिद्धौ पुत्र्यश्च तिस्रो भुवने हि यस्याः ॥ १२ ॥ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 346. Partan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS वीझिका तदनु तील्हिका श्रियो जैनशासनसरोरुह ग्यः । पूर्ववंशगुरुभक्तितत्पराः शील-रत्नभरिता भुवि पुत्र्यः ॥ १३ ॥ व्याख्यापितं श्रीउपदेशमालासुपुस्तकं श्राविकया च विंझ्या । खवंशरत्नप्रभसूरिपार्थात् समर्थनं श्राद्धजसेन कारितं ॥ १४ ॥ प्राग्वाटवंशे प्रबभूव पूर्व कच्छूलिकायां पुरि पार्श्वनामा । तदंगजो देसलनामधेयो बभूवतुस्तत्तनयौ प्रसिद्धौ ॥ १॥ बहुदेव-धीरचंद्रौ पुत्रौ जातौ मनोरमौ । वीरचंद्रस्य पुत्रोभून्मालकः पुण्यधारकः ॥ २ ॥ मालकस्य तनया मनोरमा आसको गुणधरोपि हि सांबः । वीरकः सुकृतकार्यहीरकः आसकस्य तनयश्च सोलकः ॥ ३ ॥ सोलकस्य दयिता सरस्वती पंच यस्य तनयाः प्रबभूवुः । माल्हणस्तदनु पार्श्वचंद्रमा बूटरोथ महिचंद्र-सेढकौ ॥ ४ ॥ सेढाकभार्या जमि(सि)णीतिनानी तयोश्च पुत्राः पडमी प्रसिद्धाः । आद्यो बभौ राल्हणनामधेयस्ततो द्वितीयः किल सोहडाह्वः ॥ ५ ॥ आल्हणा पद्मकश्चैव ब्रह्माको बोडकस्तथा । बोडाकस्य च दयिता वीरी धर्मे प्रवीरधीः ॥ ६ ॥ चत्वारस्तनया यस्या बभूवुर्वसुधातले। देपालो देवसिंहश्च सोमाकः सलपोऽपि च ॥ ७ ॥ (२) त्रिषष्टिश. पु. चरित ( पर्व ८, सर्ग ३). प. ८०-९२ [११५] २८. व्यवहारवृत्ति (द्वितीयखण्ड उ. ४-८). प. ३२४,२९०४२३" [१२८] २९. आवश्यकवृत्ति ( शिष्यहिता). प. २८७; ३१३"४२० द्वितीयखण्ड प्रत्याख्याननियुक्तिविवरण, [१०९] ३०. योगशास्त्रविवरण by हेमाचार्य. प. ३०८; ३१°४२३" On the Board: योगशास्त्रवृत्तिपुस्तकं सं. १४०७ आषाढशुदि १० बुधे [११८] ३१. समराइचकहा (प्रा.) by हरिभद्रसूरि. प. ३५४; ३२"४२" अं. १०००० Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 347 No. III SANGHA BHANDARA 347 Pras'asti of the Donor: परस्परपरिस्यूतनयगोचरचारिणी । अनेकांतामृतं दुग्धे यद्गवी तं जिनं स्तुमः ॥ १ ॥ अप्राप्तोऽपि हि खंडनां गुणवते धर्माय हिंस्रो न वा छायाभिः प्रणिहंति तापमभितो मुक्तः सदा पल्लवैः । निश्छिद्रोपि करोति यः श्रुतिसुखं वंशः क्षमाभृद्घनो लासी कोपि महीतले स जयति श्रीमालनामा नवः ॥ १ ॥ वंशेऽत्र तेजोद्भुतवृत्तशाली मुक्तामणिर्वोसरिसंज्ञकोभूत् । तस्थौ न केषां हृदये गुणेन निजेन यश्छिद्र विनाकृतोपि ॥ २ ॥ शचीव देवराजस्य रोहिणीव सितातेः । सद्वासनेव धर्मस्य लक्ष्मीस्तस्य प्रियाऽभवत् ॥ ३ ॥ अचलस्थितिः कुरंगव्याघाती नरवरवृत्तिसंयुक्तः । सिंह इव वैरिसिंहः सुतः सुता चानयोर्मादः ॥ ४ ॥ गेहिनी गेहनीतिज्ञा तस्य श्रीरिव देहिनी। अभूदानलदेवीति धर्मकर्मसु कर्मठा ॥ ५ ॥ असूत सा पंच सुतान् मनुष्यक्षेत्रस्य धात्रीव सुमेरुपर्वतान् । परं सदाप्येकमुखत्वमेषां केषां न रेखाकरमस्ति चित्ते ॥ ६ ॥ आद्योऽस्ति भांडशालिकमदनो लाडीपतिर्जिनप्रतिमाः । कारितवान् मंगलपुरचैत्ये पुण्याय पितृ-मात्रोः ॥ ७ ॥ प्रवरां वेलाकूले पोषधशालां च मातृपुण्याय । तनया विनयादिगुणोपेताः पंचास्य विद्यते ॥ ८ ॥ क्षेमसिंह-भीमसिंही तेजसिंहारिसिंहको । पंचमो जयसिंहस्तु दुहिता जासलाभिधा ॥ ९ ॥ प्रथमोपि धर्मकार्य द्वितीयीकस्तु[ मन ]लघुबंधुः । कलिकाल-मत्तकरि[वर]-वरसिंहो विजयसिंहोस्ति ॥ १० ॥ यथा प्रभा प्रभाभर्तुर्यथा चंद्रस्य चंद्रिका । यथा छाया शरीरस्य तथाशेषगुणाश्रया ॥ ११ ॥ पूनी दयिताऽस्योदयपालोदयमतसुता विरेजे या । निजवंश-प्रासादे विमलगुणा वैजयंतीव ॥ १२ ॥ युग्मं ॥ आद्योस्ति राजसिंहस्तनयो जैत्रसिंह इतरस्तु । नायकि-सहजल-सोहग-पद्मलनाभ्यस्तु पुज्य इमाः ॥ १३ ॥ Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 848 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS नयनाभ्यां मुखं पुष्पदंताभ्यां गगनं यथा । आभ्यां विजयसिंहोपि सुताभ्यां शोभते तथा ॥ १४ ॥ धर्मकर्मसु निष्णातस्तार्तीयीकस्तु धंधलः । वल्लभो बकुलदेव्यास्तुर्यो वरणिगामिधः ॥ १५ ॥ राजलजनको जयतलदेविधवो जाल्हणस्तु पंचमकः । दद्धतापि येन लघुतां बंधुषु भेजे परं गुरुता ।। १६ ॥ स्मरः शरैर्मानुषभूमिदेशः सुमेरुशैलैस्तनुरिंद्रियैर्यथा । पंडुस्तनुजैरिव वैरिसिंहो रेजे तथा पंचभिरेभिरंगजैः ॥ १७॥ इतश्च । श्रीमन्महावीरजिनेंद्रतीर्थकल्पद्रुगच्छे इह चंद्रगच्छे । शब्दान्वितः सुंदरपक्षयुग्मो द्विरेफलीलामवलंबमानः ॥ १८ ॥ [१२०] ३२. (१) निशीथसूत्र. प. १०; ३१"४२" (२) , भाष्य (द्वितीयखण्ड उ. ८-१४). प. ११-१०२ (३) , चूर्णि. प. १०३-४०५ [११४] ३३. धर्मोपदेशमालाविवरण by जयसिंह. प. ३२०, ३३"४२" [१३४] ३४. (१) योगशास्त्रविवरण. प. १-१३, ३१३०४२३" (२) बृहत्कल्पवृत्ति (द्वितीयखण्ड). अं. १४१६० *प. १-४२० [१३१] ३५. आवश्यकवृत्ति (प्रथम खण्ड ) by हरिभद्रसूरि. प. ४३६; ३४"४२३" Beginning: श्रीसिद्धार्थनरेंद्रविश्रुतकुल etc. [१३५] ३६. (१) अनुयोगद्वारसूत्र, प. १-४३, ३४°४२" Colophon: संवत् १४५६ वर्षे श्रीस्तंभतीर्थे वृद्धपौषधशालायां तपागच्छीयभट्टारिकश्रीजयतिलकसूरि तत्पट्टे श्रीरत्न (? ज्ञान)सागरसूरि तदुपदेशेन पुस्तकं लिखापितं ॥ (२) अनुयोगद्वारचूर्णि. प. ४४-२१८ . * ७, १-१९८ पत्राणि न सन्ति । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA 349 Colophon: संवत् १४५६ वर्षे श्रीस्तंभतीर्थे बृहत्पौषधशालायां भट्टारिक श्रीजयतिलकसूरि अनुयोगद्वारचूर्णि उद्धार कारापित ॥ (३) अनुयोगद्वारवृत्ति by म. हेमचन्द्र प. २१८-४३० [१०७] ३७. विशेषावश्यकवृत्ति (? प्रथमखण्ड ). प. ३२८; ३१ ×२” Beginning:— प्रणिपत्य जिनवरेंद्रं वीरं श्रुतदेवतां गुरून् साधून etc. [ ९२] ३८. महावीरचरित्र (त्रिषष्टि. पर्व १० ). प. १ - २०३; २९ " ×२" Prashasti of the Donor :--- पल्लीवालकुले पुनात्मजो बोहित्यसंज्ञितः । साधुस्तस्य सुतो जज्ञे गणदेवः सुधार्मिकः ॥ १ ॥ खंड तृतीयं संलेख्य त्रिषष्ठेः पुस्तके वरं । ददौ पौषधशालायां स्तंभतीर्थे पुरे मुदा || २ || यावन्नंदति जिनमतमिदमसमं सकलसत्त्वहितकारि । तावत् सुपुस्तकं वाच्यमानमेतद् बुधैर्जय || ३ || ३९. दशवैकालिकटीका by हरिभद्रसूरि. प. ४५३ [१११] ४०. उपदेशमालावृत्ति by सिद्धर्षि. प. २८४; ३१ ४२४" Beginning:— हेयोपादेयार्थी पदेशभाभिः प्रबोधितजनाब्जं । Endi विषं विनिर्धूय कुवासनामयं व्यधी ( दी ) धरद् यः कृपया मदाशये । अचित्यवीर्येण सुवासनासुधां नतोस्मि तस्मै निजधर्मसूरये ॥ उत्सूत्रमत्र विवृतं मतिमांद्यदोषात् गांभीर्यभाजि वचने यदनंत कीर्तेः । संसार सागरमनेन तरीतुकामं तत् साधुभिः कृतकृपैर्मयि शोधनीयं ॥ तोषाद विधाय विवृतिं गिरिदे ( गीर्दे ) वतायाः पुण्यानुबंधकुशलं यदिदं मयाप्तं । सर्वोपि तेन भवतादुपदेशमालाप्रोकार्थसाधनपरः खलु जीवलोकः ॥ Colophon: उपदेशमालाविवरण समाप्तं । ग्रंथाम ९५०० | मंगळं महाश्रीः शुभं भवतु लेखक - पाठकषोः । संवत् १३३१ वर्षे प्रथमज्येष्टवदि १५ शनौ महं० अरिसिंहपुस्तकं लिखितं । सा. सामन्तसीहपुस्तकं ॥ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 350 Pattan CATALOGUE OF ManuscripTS [१०१] ४१. ऋषभचरित (प्रा.) by वर्धमानाचार्य. 3 Illustrated. प. २९९ Beginning:— नमः सर्वज्ञाय । नमह जुगाइजिणिदं पुरिसोत्तमनाहिसंभवं पयडं । वरनाण-दसण-रविं सुगयमणतं महादेवं ॥ १ ॥ एगमणेगसरूवं दुल्लक्खं परमजोगिपञ्चक्खं । अञ्चयमसंखमक्खयमोसप्पिणिपढमतित्थयरं ॥ २ ॥ End: विक्कमनिवकालाउ सएसु एक्कारसेसु सट्टेसु । सिरिजयसिंहनरिंदे रजं परिपालयंतम्मि । खंभाइत्थढिएहिं सियपक्खे चित्तविजयदसमीए । पुस्सेणं सुरगुरुणो समत्थियं चरियमियं ति ॥ लोगुत्तमचरियमिणं काऊण जमजियं सुह किं पि । उत्तमगुणाणुराओ भवे भवे तेण मह होज ॥ पुव्वावरेण गणियस्स सव्वसंखा इमस्स गंथस्स । एक्कारस उ सहस्सा सलोगसंखाइ नायव्वा ॥ .. श्रीवर्धमानाचार्यविरचिते श्रीऋपभदेवचरिते पंचमोऽवसरः समाप्तः । Colophon:___ संवत् १२८९ बर्ष माधव दि ६ भौमावोह श्रीप्रह्लादनपुरे समस्तराजावलीसमलंकृतमहाराजाधिराजश्रीसोमसिंहदेवकल्याणविजयराज्ये श्रीऋषभदेवचरितं पंडि. धनचंद्रेण लिखितमिति । मंगलं महाश्रीरिति भद्रं ॥ Pras'asti of the Donor: हृद्यप्रोद्यदखर्वपर्वसुभगः सच्छाययाऽलंकृतः सद्वृत्तोज्वलमय॑मौक्तिकमणिभूभृत्प्रतिष्ठोन्नतः । प्रेनत्पत्रपरिष्कृतः परिलसच्छाखावृतो गूर्जरः श्रीमालाभिध इत्युदारचरितः ख्यातोऽस्ति वंशः क्षितौ ॥ १ ॥ वंशे तत्र बभूव मौक्तिकसमः सद्वृत्तशैत्याश्रितः ___ ख्यातो लल्लकमांडशालिक इति स्वच्छस्वभावान्वितः । . चित्रं छिद्रसमुज्झितोऽपि नितरां भूत्वा गुणानां पदं . विश्वप्राणिहृदि व्यधत्त वसतिं यश्छद्मवंध्याशयः ॥ २ ॥ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___No. III SANGITA BHANDARA 351 तस्याभूल्ललना नाम्ना लल्लिका भांडशालिनी । शील-मुक्तावली कंठे यया दधे समुज्वला ॥ ३ ॥ संतस्तयोस्त्रयः पुत्राः पवित्राश्चरितैः शुभैः । अजायंतागारभारोद्धारधुर्यत्वविश्रुताः ॥ ४ ॥ तेषां जविष्ठोऽजनि भांडशाली ख्यातो गुणैालकनामधेयः । श्रीमजिनाज्ञाकरणप्रतिज्ञाविभूपणं वक्षसि यस्य य(ज)ज्ञे ॥ ५ ॥ शुद्धात्माजनि भांडशालिकयशश्चंद्राभिधानोऽपरः श्रीमद्देव-गुरुप्रयोजनविधौ बद्धादरोऽनारतं । येनौदार्यगुणैरनर्गलतरैरावर्य(ज्य) विश्राणिता पात्रेषु स्थिरताप्रवर्तनकृते लक्ष्मीर्मन:स्वीच्छया ॥ ६ ॥ ततोऽभवद् देवकुमारनामा सुतो गुणर्दवकुमारमूर्तिः । प्रवर्त्तयनिःकपटं जिनानां वयाँ सपर्यामवदातचित्तः ॥ ७ ॥ लोलाकस्याभवद् भांडशालिनो भांडशालिनी । लक्ष्मीरित्यभिधानेन जिनपूजापरायणा ॥ ८ ॥ भांडशालिनो द्वौ पुत्री लोलाकस्य बभूवतुः । धंधूकाभिधः प्रथमः श्रीमदाद्यजिनार्चकः ॥ ९ ॥ वाहिनी गेहिनी तस्य बभूव प्रियवादिनी । यशोवीरस्तयोः पुत्रः सुशीला सिंधुका सुता ॥ १० ॥ धर्मोच्छंखलभांडशालिकयशश्चंद्रस्य दानप्रिया नित्यौचित्य-विनीतताऽऽर्जवगुणालंकारशृंगारिता । वर्यौदार्यगुणैविवेकविशदैरं यया रंजिता आत्मन्यप्रतिमप्रमोदपरतां नीताः समस्ता जनाः ॥ ११ ॥ सा जज्ञे गेहिनी नाम्ना जिंदिका भांडशालिनी । सुकृतोपार्जिका श्रीमद्देव--सद्गुरुपूजया ॥ १२ ॥ यशश्चंद्रस्य जज्ञाते द्वेऽपये भांडशालिनः। . स्वगृह श्रियः सीमंतमौक्तिकतिलकोपमे ॥ १३ ॥ आद्या पुत्री समजनि वरा राजिकानामधेया मंदाकिन्युल्लसितलहरीशीलसंभूपितांगी। यस्या अंतःकरणमृदुतासंगतं जंतुजातं . लक्ष्मीः साक्षादिव निजगृहे जंगमा यावतीर्णा ॥ १४॥ . Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 352 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS ठक्करशोभनदेवस्तामथो परिणीतवान् । संतोषभूषिता जाता संतोषाख्या तयोः सुता ॥ १५ ॥ श्रीसर्वज्ञपदांबुजार्चनरतिः संप्राप्तपुण्योन्नतिः किंचिन्मीलितमालतीदलभरस्वच्छेतिशीले मतिः । भक्त्यावेशसमुल्लसद्गुरुनतिर्विस्तीर्णदानस्थिति निश्छ कतपोविधानवसतिर्यस्या गुणैः संगतिः ॥ १६ ॥ दाक्षिण्योदधिभांडशालिकयशश्चंद्रस्य पुत्रोपरो धर्मोद्दामनराग्रणीरिह यशःपालाभिधः शुद्धधीः । पण्यस्यापि न केवलैव महती भांडस्य शाला कृता श्रीआद्यं वरिवस्यतां जिनपतिं येनात्र धर्मस्य च ॥ १७ ॥ भांडशालियशःपालस्याभवजयदेविका । औदार्य-शीलप्रमुखैः प्रेयसी श्रेयसी गुणैः ॥ १८ ॥ अभवंस्तयोस्तनूजाः सच्चरितास्त्रयो गुणैः । आनंददायिनः पित्रोरन्योन्यं प्रीतिशालिनः ॥ १९ ॥ आधः सुतः संश्रितधर्मका विवेकवेश्माजनि पार्श्वदेवः । अभ्यर्थन............भीरुः प्रकल्पितश्रीजिननाथसेवः ॥ २० ॥ अन्यो बभूवांबडनामधेयः कस्याप्यसंपादितचित्तपीडः । स्वकीयसंतानधुराधुरीणः स्ववेश्मलक्ष्मीहृदयैकहारः ॥ २१ ॥ सौचित्याचरणनिपुणः प्रीतिपूर्वोभिलापी [मुखाजिन्यार्जितगुरुगुणः सिद्धिवेश्म । गोत्राच रो जिन-गुरुपदाभ्यर्चनप्रहचेता-] स्तार्तीयीकस्तदनु तनुजः पल्हणाख्यो बभूव ॥ २२ ॥ पार्श्वदेवस्य संजज्ञे पद्मश्रीनामिका प्रिया । यस्याः पतिव्रतात्वेन स्वकुलं निर्मलीकृतं ॥ २३ ॥ अथांबडस्योचितकृत्यदक्षा मंदोदरी नाम बभूव पत्नी । स्फुरद्विवेकोजवलसारहारा स्वमंदिरे मूर्तिमतीव लक्ष्मीः ॥ २४ ॥ हरेरिव भुजादंडाश्वस्वारस्तनयास्तयोः । अजायंत सदाचार-गृहमारधुरंधराः ॥ २५ ॥ प्रथमोजनिष्ट तेषां पार्श्वकुमाराभिधो गुणैः प्रथमः । विनयगुमालवाला पित्राज्ञापालनप्रवणः ।। २६ ।। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 858 No. III Sangha BAANDĀRA बभूव प्रेयसी तस्य पृथ्वीदेवीति नामतः । विनीतविनया नित्यमौचित्यप्रियकारिणी ॥ २७ ॥ तदनु तनयो द्वितीयः समजनि धनसिंहनामको विनयी । निर्मलकलाकलापस्त्रैणक्रीडादिरभिरामः ॥ २८ ॥ नाना धांधलदेवीति संजज्ञे तस्य गेहिनी । पुण्यार्जनोर्जितश्लाघा श्लाघ्यकाभिरंजिका ॥ २९ ॥ ततस्तृतीयोजनि रत्नसिंहः संतापकारिव्यसनेभसिंहः । दूरं परित्यक्तविरुद्धसंगः श्रीमजिनेंद्रक्रम-पम-,गः ॥ ३० ॥ तस्याजनिष्ट दयिता नाम्ना राजलदेविका । पेथुकाख्या तयोः पुत्री समस्तानंददायिनी ॥ ३१ ॥ अनन्यसौजन्यजनानुकीर्णो विवेकलीलोज्वलचित्तवृत्तिः । सार्वत्रिकौचित्यविधिप्रवीणो जज्ञे जगत्सिंहसुतश्चतुर्थः ।। ३२ ॥ पनी जाल्हणदेवीति नाम्ना तस्य समजनि । कुत्राप्यनुत्सेकवती प्रदान-विनयान्विता ॥ ३३ ॥ सोलुकाख्या ततः पुत्री बभूव प्रियवादिनी । यस्याः शीलजलैः शुद्धैः पुण्यवल्ली प्रवर्द्धिता ॥ ३४ ॥ पत्नी ततोजायत पल्हणस्य माणिक्यमालास्फुरदंशु-शीला । जिनोपदेशश्रुति-कर्णसारा कृपा-प्रपा माणिकिनामधेया ॥ ३५ ॥ समजनि तयोस्तनूजो वरणिगनामा समस्तगुण-पात्रं । निखिलस्वकुलैकधुरा-धुरंधरः स्मित-मधुरभापी ।। ३६ ॥ बभूव प्रेयसी तस्य धनदेवीति विश्रुता । दाक्षिण्योज्ज्वलशीलेन सर्वेषां मोददायिनी ॥ ३७ ॥ अजायंत ततस्तिस्रः शीलालंकरणाः सुताः । कर्पूरदेवी-भोपलदेव्यौ वील्हणदेव्यपि ॥ ३८ ॥ अभूद् देवकुमारस्य प्रेयसी छड्डिकाभिधा । । पतिव्रतासमाचार-चातुयोर्जितसयशाः ॥ ३९ ॥ कुमारपालसुतोभूत् पितुराज्ञोद्यतस्तयोः । जिनशासनानुरागी विरागी दोषवस्तुषु ॥ ४० ॥ विवेक-रविरन्येद्युः स्फुरति स्मातिनिर्मलः । संतोषाया मानसाद्रौ विद्राविततमस्ततिः ॥ ४१॥ 45 Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 354 Partan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS घातत्रस्ततुरंगमांगतरलाः संपत्तयोत्यूर्जिता लुभ्यल्लुब्धकविभ्यदर्भकमृगीदृक्-चंचलं यौवनं । बं[धु]प्रेम तडिल्लता-द्युति-चलं चैतत् तथा जीवितं मत्वैवं जिनधर्मकर्मणि मतिः कार्या नरैः शाश्वते ॥ ४२ ॥ सोनंतसुखनिदानो धर्मोपि ज्ञायते श्रुतात् । श्रुतं च पुस्तकाधीनं तत् कार्यः पुस्तकोद्यमः ॥ ४३ ॥ पुस्तकं लेखयामास स्वसुः श्रेयोर्थमांबडः। संतोषनाघ्याः स्नेहेन पल्हणभ्रातृसंयुतः ॥ ४४ ॥ प्रोद्यन् यावदसौ बिभर्ति तपनः प्राची-पुरंध्री-मुखे कांतिव्यक्तदिशं सुवर्णतिलकश्रीसंनिभं विभ्रमं । श्रीनाभेय जिनस्य चारु चरितं तावत् कथाश्चर्यकृत् नंद्यादत्र विचार्यमाणमनघप्रज्ञैः सदा कोविदैः ॥ ४५ ॥ [११६] ४२. आवश्यकचूर्णि (प्रथम खण्ड). प. २६४; ३३°४२३" [१२९] ४३. बृहत्कल्पवृत्ति ( तृतीय खण्ड ) by क्षेमकीर्ति. प. १-३३५; ३३°४२" इति श्रीकल्पटीकायां षष्ठ उद्देशकः समाप्तः ॥ नंदी-संदर्भ-मूले सुदृढतरमहापीठिका-स्कंधबंधे तुंगादेशोर्ध्व-शाखे दलकुसुमसमैः सूत्र-नियुक्ति-वाक्यैः । सांद्रे भाष्यार्थ-सार्थामृतफलकलिते कल्प-कल्पद्रुमेस्मि नाक्रष्टुं षष्ठशाखा-फलनिवहमसावंकुटीवास्तु टीका ॥ ६ ॥ समाप्ता चेयं सुखावबोधा नाम कल्पाध्ययनटीका ॥ सौवर्णा विविधार्थ-रत्नकलिता एते षडुद्देशकाः श्रीकल्पेऽथ निधौ मताः सुकलशा दौर्गत्य-दुःखापहे । दृष्ट्वा चूर्णि-सुबीजकाक्षरततिं कुश्याथ गुर्वाज्ञया खानं खानममी मया स्व-परयोरर्थे स्फुटार्थीकृताः ॥ १॥ श्रीकल्पसूत्रममृतं विबुधोपयोगयोग्यं जरा-मरण-दारुणदुःखहारि । येनोद्धृतं मति-मथा मथितात् श्रुताब्धेः श्रीभद्रबाहुगुरवे प्रणतोऽस्मि तस्मै ॥२॥ . येनेदं कल्पसूत्रं कमलमुकुलवत् कोमलं मंजुलाभि गोभिर्दोषापहाभिः स्फुटविषयविभागस्य संदर्शिकाभिः । End: Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 355 No. III SANGIHA BHANDARA उत्फुल्लोद्देशपत्रं सुरसपरिमलोद्गारसारं वितेने तं निःसंबंधबंधुं नुत मुनि-मधुपा ! भास्करं भाष्यकारं ॥ ३ ॥ श्रीकल्पाध्ययनेऽस्मिन्नतिगंभीरार्थभाष्यपरिकलिते । विषमपद-विवरणकृते श्रीचूर्णिकृते नमः कृतिने ॥ ४ ॥ भुतदेवताप्रसादादिदमध्ययनं विवृण्वता कुशलं । यदवापि मया तेन प्राप्नुयां वोधिमहममलां ॥ ५ ॥ गम-नय-गभीरनीरश्चित्रोत्सर्गापवाद-वादोर्मिः । युक्तिशत-रत्नरम्यो जैनागम-जलनिधिर्जयति ॥ ६ ॥ श्रीजैनशासन-नभस्तल-तिग्मरश्मिः श्रीसद्म-चांद्रकुल-पद्मविकाशकारी । स्वज्योतिरावृतदिगंबरडंबरोऽभूत् श्रीमान् धनेश्वरगुरुः प्रथितः पृथिव्यां ।। ७ ॥ श्रीमच्चैत्रपुरैकमंडनमहावीरप्रतिष्ठाकृत स्तस्माच्चित्रपुरप्रबोधतरणेः श्रीचैत्रगच्छोऽजनि । तत्र श्रीभुवनेंद्रसूरिसुगुरुभूभूषणं भासुर ज्योतिः सद्गुण-रत्न-रोहणगिरिः कालक्रमेणाभवत् ॥ ८ ॥ तत्पादांबुज-मंडनं समभवत् पक्षद्वयीशुद्धिमान नीर-क्षीरसदृक्षदूषण-गुण-त्याग-ग्रहैकवतः। कालुष्यं च जडोद्भवं परिहरन् दूरेण सन्मानस स्थायी राजमरालवद् गणिवरः श्रीदेवभद्रप्रभुः ॥ ९॥ शस्याः शिष्यास्त्रयस्तत्पद-सरसिरुहोत्संगशृंगार-भुंगा विध्वस्तानंगभंगाः सुविहितविहितोत्तुंगरंगा बभूवुः । तत्राद्यः सञ्चरित्रानुमतिकृतमतिः श्रीजगञ्चंद्रसूरिः ___श्रीमद्देवेंद्रसूरिः सरलतरलसच्चित्तवृत्तिद्धितीयः ॥ १० ॥ तृतीयशिष्याः श्रुत-वारि-वार्द्धयः परीपहाक्षोभ्यमनः-समाधयः । जयंति पूज्या विजयेंदुसूरयः परोपकारादिगुणौघभूरयः ॥ ११ ॥ प्रौढं मन्मथ-पार्थिवं त्रिजगतीजैत्रं विजित्येयुषां __येषां जैन-पुरे परेण महसा प्रक्रांतकांतोत्सवे । स्थैर्य मेरुरगाधतां च जलधिः सर्वसहत्वं मही __ सोमः सौम्यमहर्पतिः किल महत् तेजोऽकृत प्राभृतं ॥ १२ ॥ वापं वापं प्रवचनवचो-बीजराजी विनेय क्षेत्रवाते सुपरिमलिते शब्दशास्त्रादि-सीरैः । Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS यैः क्षेत्रज्ञैः शुचिगुरुजनानायवाक्-सारणीभिः सिक्त्वा तेने सुजनहृदयानंदि सज्ज्ञान-सस्यं ॥ १३ ॥ यैरप्रमत्तैः शुभमंत्रजापैतालमाधाय कलिं स्ववश्यं । अतुल्यकल्याणमयोत्तमार्थसत्पूरुषः सत्त्व-धनैरसाधि ॥ १४ ॥ किं बहुना ?। ज्योत्स्नामंजुलया यया धवलितं विश्वंभरामंडलं या निःशेपविशेषविज्ञजनताचेतश्चमत्कारिणी । तस्यां श्रीविजयेंदुसूरिसुगुरोर्निष्कृत्रिमाया गुण श्रेणेः स्याद् यदि वास्तवस्तवकृतौ विज्ञः स वाचांपतिः ॥१५॥ तत्पाणि-पंकज-रजःपरिपूनशीर्षाः शिष्यास्त्रयो दधति संप्रति गच्छभारं । श्रीवत्रसेन इति सद्गुरुरादिमोत्र श्रीपद्मचंद्रसुगुरुस्तु ततो द्वितीयः ॥ १६ ॥ तार्तीयीकस्तेषां विनेयपरमाणुरनणुशास्त्रेऽस्मिन् । श्रीक्षेमकीर्तिसूरिविनिर्ममे विवृतिमल्पमतिः ॥ १७ ॥ श्रीविक्रमतः कामति नयनाग्नि-गुणेंदुपरिमिते वर्षे । ज्येष्ठश्वेतदशम्यां समर्थितैषा च हस्तार्के ॥ १८ ॥ प्रथमादर्श लिखिता नयप्रभप्रभृतिभिर्यतिभिरेषा । गुरुतरगुरुभक्तिभरोद्वहनादिव नम्रितशिरोभिः ॥ १९ ॥ इह च । सूत्रादर्शेषु यतो भूयस्यो वाचना विलोक्यते । विषमाश्च भाष्यगाथाः प्रायः स्वल्पाश्च चूर्णिगिरः ॥ २०॥ ततः-सूत्रे वा भाष्ये वा यन्मतिमोहान्मयाऽन्यथा किमपि । लिखितं वा विवृतं वा तन्मिथ्या दुःकृतं भूयात् ॥ २१ ॥ Colophon: ग्रंथ ९५५१ साहू आसधरसुतसाधु० श्रीरतनसीहसुततेजपालश्रेयोथं अयं (इदं) कल्पवृत्तिपुस्तकं त्रितयखंड कारापितं लिखापितं च ॥ शुभं भवतु ॥ ४४. दशवैकालिकवृत्ति by तिलकाचार्य. प. २४०, ३०°४२३ End:___ इति श्रीतिलकाचार्यविरचितायां दशवैकालिकटीकायामुत्तरचूलिकायाष्टीका समाप्ता। तीर्थे वीरविभोः सुधर्मगणभृत्संतानलब्धोन्नति__ श्चारित्रोज्वलचंद्रगच्छ-जलधि-प्रोल्लास-शीतद्युतिः । साहित्यागम-तर्क-लक्षण-महाविद्यापगा-सागरः — श्रीचंद्रप्रभसूरिरद्भुतमतिर्वादीभ-सिंहोऽभवत् ॥१॥ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 357 No. III SANGHA BHANDARA 357 तत्पट्टलक्ष्मी-श्रवणावतंसाः श्रीधर्मघोषप्रभवो बभूवुः । तत्पाद-पो कलहंसलीलां दधौ नृपः श्रीजयसिंहदेवः ॥ २ ॥ तत्पट्टोदयशैल-शृंगमभजत् तेजस्विचूडामणिः श्रीचक्रेश्वरसूरिरित्यभिधया कोप्यत्र भानुर्नवः । संप्राप्ताभ्युदयः सदैव तमसा नो जातुचिच्छायितः नैवोचंडरुचिः कदाचिदपि न प्राप्तापरागस्ततः ॥ ३ ॥ विललास खैरं तत्पट्ट-प्रासादशालायां । श्रीमान् शिवप्रभगुरुः संयम-कमलाकृतासक्तिः॥४॥ श्रीशिवप्रभसूरीणां तेषां शिष्योऽस्मि मंदधीः । नाना श्रीतिलकाचार्यः श्रुताराधनगृद्धिभाक् ॥ ५ ॥ एतां सोऽहं विषमदशवैकालिके वृत्तिटीका तत्पादाब्जस्मरणमहसा मुग्धधीरप्यकाएं । तद् यत् किंचिद् रभसशवतो दृब्धमस्यामशुद्धं तत् संशोध्यं मयि कृतकृपैः सूरिभिस्तत्त्वविद्भिः ॥ ६ ॥ टीका रचयता चैतां यन्मया सुकृतं कृतं । ........................................॥ स्वस्ति श्रीस्तंभतीर्थे तपापक्षे श्रीरत्नाग(क)रसूरिगच्छे वृद्धपौषधशालायां श्रीदश. वैकालिकपुस्तकं गृहीतं [श्रीसंघस्य On the board:- सा. लोहा [११२] ४५. भगवतीविशेषवृत्ति. प. ५०१; २८४२ Pras'asti of the Donor: निजभुज...पितसद्व्यकारितानेकतीर्थकृद्धिबाः । सद्धर्मनिरतमनसो जाताः पुत्रास्तयोश्वामी ॥ ४ ॥ प्रथमो वोढकसंज्ञो वीरडाख्यो द्वितीयकः। तृतीयो वट्ठडो नाम चतुर्थो द्रोणकाभिधः ॥ ५ ॥ तेषां च मध्ये जिनसाधुभक्तः श्रेष्ठी गरिष्ठः किल वीरडाख्यः । एतस्य भार्या धनदेविनामा बद्धा(ह्वा)दराभूजिनराजधर्मे ॥ ६ ॥ तयोश्च पुत्रः सरलस्वभावो जिनेशधर्मस्थिरचित्तवृत्तिः । कृपापरो दुःखितजंतुवर्गे सतां मतः पूजितपूजकश्च ॥ ७ ॥ येनाकारि मनोहररूपं श्रीवीरनाथतीर्थकृतः । सपित्तलामयमघध्वंसकर भीसमवसरणं ॥ ८॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 358 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS यो व्यधापयदनिंद्यमुत्तमं पापकर्म-पटलक्षयक्षमं । उत्तराध्ययनवृत्तिपुस्तकं ज्ञानभक्तिवरागः स्वमुक्तये ॥ ९ ॥ किं बहुना यः स्वं स्वं धर्मस्थानेष्वयोजयद् बहुशः । यश्चाजस्रं वंदनक - गुणन - सदूध्यानरतचित्तः ॥ १० ॥ श्रेष्ठी वरदेवाख्यः समजनि लक्ष्मीरतिप्रिया तस्य । लक्ष्मीः सौरेरिव हृदयहारिणी चारुरूपाढ्या ॥ ११ ॥ तयोश्च पुत्रः समभूत् प्रसिद्धः सिद्धाभिधः पुण्य- धनैकधामा । आदेयवाक्यो गुणिपक्षवत्तां (वर्त) वीरः कृतज्ञो रतिकांतरूपः ॥ १२ ॥ बादरो यो जिनराजधर्मे यश्चोपचक्रे जिनमंदिरेषु । यो मध्यबुधिवत् सुमेधा यो राजलोकेऽभिमतो गुणैः स्वैः ॥ १३ ॥ दृढप्रतिज्ञः प्रतिपन्नकार्ये दाक्षिण्यपाथोनिधिरस्तदोषः । दानांबुबर्पित्वपयोदकल्पः सदा सदाचारपरायणो यः ॥ १४ ॥ भगिनी यस्य च श्री... रासीच्चामृतदेविका । जिनमत्याख्या यशोराजपाजकांपा (?) तथा परा ॥ १५ ॥ यश्च दधिपद्रपत्तन वास्तव्योऽपि प्रकथ्यते लोकैः । पूर्व निवासापेक्षावशेन मड्डाहडपुरीयः ॥ १६ ॥ द्वे भार्ये तस्य संजाते पत्याज्ञारतमानसे । राजमत्यभिधानेका श्रियादेवी द्वितीयका ॥ १७ ॥ वीरदत्त पसरणादयः सूनवो वीरिका - जसहीणिप्रभृतयः पुत्रिकाः । तस्य जाताः सदाचारिमार्गे रताः सर्वलोकीयचेतः तिः प्रणयावहाः ॥ १८ ॥ अथान्यदा सिद्धपिता स्वकीयं पर्यंतमासन्नतरं प्रमत्य । परत्र पाथेयमतो जिघृक्षुः सिद्धाभिधं पुत्रमिदं जगाद ॥ १९ ॥ मच्छ्रेयसे वत्स ! वरेण्यतीर्थयात्रासु संघे जिनराजवेश्मनि । विशेषतः पुस्तक लेखनेषु वित्तं नियोज्यं भवता यथेच्छं ॥ २० ॥ . अथासौ गते ताते लक्षं ग्रंथस्य साधिकं । पुस्तकेषु पवित्रेषु दशसंख्येब्वली लिखत् ॥ २१ ॥ तत्थ य गंथा सूयगडंगवित्ती ससुत्त - निज्जुती । तह य उवासगदसियाइअंगसुत्ताणि वित्तीओ ॥ २२ ॥ तह ओवाउ (इ)यसुत्तं वित्ती रायप्पसेणइयत्तं । तह कप्पसुत्त-भासा चउत्थए पंचमे य पुणो ॥ २३ ॥ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III Sangha Buananda 359 कप्पचुन्नी छठे दसयालियवित्ति-सुत्त-निज्जुत्ती । उवएसमाल-भवभावणाण दो पुत्थया रम्मा ॥ २४ ॥ तह पंचासगवित्ती सुत्तं लिहियं च नवमयं एयं । पिंडविसुद्धीवित्ती पढमयपंचासगस्स तहा ॥ २५ ॥ चुन्नी जसदेवसूरिरइया तह लहुयवीरचरियं च । रयणचूडकहा वि य दसमंमि य पोत्थयंमि फुडं ॥ २६ ।। अन्यच्च सिद्धभार्यापि राजमत्यभिधानिका । कदाचिद् दिवमाराध्यतया चोचे निजो वरः ।। २७ ।। भगवतीपुस्तके रम्ये कार्य मत्पुण्यहेतवे । तेन तद्वचनात् तूर्ण कारितं पुस्तकद्वयं ॥ २८ ॥ एकत्र भगवतीसूत्रं द्वितीये वृत्तिरुज्वला । लेखिता चारुवर्णाढ्या मोक्षमार्गांतरप्रपा ॥ २९ ॥ संवत्सरे मुनि-वसु-स्मरवेरिसंख्ये श्रीमत्पुरेऽणहिलपाटकनामधेये । पृथ्वीं च शासति नृपे जयसिंहदेवे निष्पादितः प्रवरपुस्तकवर्ग एपः ॥ ३०॥ श्रीशालिभद्राभिधसूरिशिष्यश्रीवर्द्धमानप्रभुपादपद्मे । इंदिदिराकारजुषां ततः श्रीचक्रेश्वराचार्यविशिष्टनाम्नां ।। ३१ ।। समर्पितः पुस्तकवर्ग एप निरंतरं शोधन-वाचनाय । इदं च तन्मध्यगतं सुवर्ण सत्पुस्तकं राजति वाच्यमानं ॥ ३२ ॥ यावन्नभोंगणगताः शशि-भानु-तारा राजंति लोकतिमिरं सततं क्षिपंत्यः । यावद् ध्रुवः सुरगिरिश्च चकास्ति तावत् श्रीपुस्तको विजयतामिह पठ्यमानः ॥३३॥ Colophon: संवत् ११८७ वर्षे कार्तिकसुदि २ लिखितं भगवती विशेषवृत्तिपुस्तकं श्रीचक्रेश्वरसूरीणां श्रे० सिद्धश्रावकस्य । Added in different hand: श्रीवीरप्रभसूरीणां श्रे० रामदेवादीनां ॥ छ । [१२५] ४६. (१) सूत्रकृताङ्ग (मूल). प. १-४१; ३३°४२" (२) , नियुक्ति. प. ४१-४५ (३) ,, टीका by शीलाचार्य. प. ४६-३०३ End:___ समाप्ता चेयं सूत्रकृतद्वितीयांगस्य टीका । कृता चेयं शीलाचार्येण वाहरिगणिसहायेन । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 360 PATTAN CATALOOUE OF MANUSCRIPTS यदवाप्तमत्र पुण्यं टीकाकरणे मया समाधिमता । तेनापेततमस्को भव्यः कल्याणभाग भवतु ॥ ग्रंथाग्रं १३९५० Colophon: संवत् १४५४ वर्षे माघशुदि १३ सोमे अद्येह श्रीस्तंभतीर्थे लिखितमिदं पुस्तकं चिरं नंदतात् । शुभं भवतु । श्रीकायस्थविशालवंशगगनादित्योऽत्र जानाभिधः संजातः सचिवाग्रणीगुरुयशाः श्रीस्तंभतीर्थे पुरा(रे)। तत्सूनुर्लिखनक्रियैककुशलो भीमाभिधो मंत्रिराट् तेनायं लिखितो बुधावलिमनःप्रीतिप्रदः पुस्तकः ॥१॥ यादृशं etc. । शुभं भवतु श्रीसंघस्य लेखक-पाठकयोश्च । Pras'asti of the Donor: ओं नमः सर्वज्ञाय । प्राग्वाटवंशमुकुटः श्रेष्ठी गांगाभिधः समजनिष्ट । अधरयति स्म धरायां धनदं यः स्वीयधननिकरैः (चयैः) ॥ १ ॥ एतस्य विशदशीला जज्ञे पत्नी च गउरदेनाम्नी । निःसीमरूपसंपल्लक्ष्मीरिव वासुदेवस्य ॥ २॥ प्रीमलदेवीसंज्ञा सकर्णजनवर्णनीयगुणकलिता । अभवत् तयोस्तनूजा जिनपूजाधा(ध्या)नतचित्ता ॥ ३ ॥ विमलतमशीलसुभगा नूनं या शुद्धशीलचरितेन । चिरवीतामपि सीतां निरंतरं स्मारयत्येव ॥ ४ ॥ तामुपयेमे सुकृती भूभुव(च) इति विश्रुतो विशदबुद्धिः । ठकुरकालाभार्यारंभलदेवीप्रसूततनुजन्मा ॥ ५ ॥ श्रीजिनशासन-नभो-भानुश्रीदेवसुंदरगुरूणां । प्रीमलदेवी साथ श्रुत्वा पीयूषदेश्यमुपदेशं ॥ ६ ॥ मत्वाऽसारतरं धनं धनफलं लिप्सुर्निजश्रद्धया वेदेषूदधि-शीतदीधितिमिते [१४५४] संवत्सरे वैक्रमे । लक्ष्मीवैश्रवणातिशायिजनते श्रीस्तंभतीर्थाभिधे दंगेलीलिखदेतदद्भुततमं श्रीसूत्रकृत्पुस्तकं ॥ ७॥ भाचंद्रादित्यमेतद् विरचितचतुरानंदसंपद्विशेष संख्यावद्भिर्मुनींद्र्रहमहमिकया वाच्यमानं वितंद्रैः । उपहुःखातिरेकाकुलनिखिलजगज्जीवजीवातुकरूपं श्रेयःश्रीहेतुभूतं प्रवचनमनघं जैनमेतच जीयात् ॥ ८॥ श्री। Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA [१०२] ४७. विशेषावश्यकवृत्ति ( प्रथम खण्ड ). ग्रं. १४००० प. ३६३; ३२३”×२” Colophon: साहुरतनसीह - साहुकुमरसीहाभ्यां लिखापितं । उपा० श्रीउदयधर्मेण...सं. १५०८ वर्षे श्रीपत्तने वाचयांचक्रे । On the board:— साहु रतनसीहत्कं प. ३-३०० [८६ ] ४८. मल्लिनाथचरित by विनयचन्द्र. [१२६] ४९. महावीरचरित (प्रा.) by गुणचन्द्रगणि. प. ३४८ ३१ ४२" [३६] ५०. ज्ञाताधर्मकथा. मं. ५५०० त्रुटित प. १५९, ३१३x२” ५१. सूत्रकृताङ्ग (सवृत्ति) . त्रुटित. ३१३x२" [१३] ५२. (१) उत्तराध्ययनलघुवृत्ति ( सुखबोधा ) liy नेमिचन्द्र. ( अपूर्ण). प. १ - २८९; ३१३”×२” On the board:-- सा. लोहदेव आसाधरसत्क (२) उत्तराध्ययन ( मूल ). Added in later hand: 361 प. २९० - ३३९ श्रीमत् श्रीवृद्धतपागच्छे भट्टारक श्रीरत्नाकरसूरि संताने भट्टारक श्रीजयतिलकसूरिपट्टप्रभाकरभट्टा० श्रीरत्नसिंह सूरि शिष्यभट्टा० श्रीउदयवल्लभसूरि - श्रीज्ञानसागरसूरिमहत्तरः श्रीधर्मलक्ष्मीगणिनीप्रमुख परिवारस्य वाचनाय पुस्तकमिदं । श्रीउत्तराध्ययनसूत्रलघुवृत्तिश्च प्र १ आप संवत् १५१६ वर्षे १५ खौ मृगशीर्ष नक्षत्रेऽद्येह श्रीमदण हिलपुरपत्तने पात० श्रीमहिमूद विजयराज्ये पं० मुनितिलकगणि पं० उदयसारगणिभ्यां शोधितमिदं परं तथापि विद्वदुभिः शोध्यं ॥ Pras'asti of the Donor :— [१०] ५३. आवश्यकवृत्ति ( प्रत्याख्यानपर्यन्त ) by हरिभद्रसूरि. त्रुटित. प. ५१९; २६३”×२” १" 46 निःसीमदानोद्यतकृतिविलसत्कीर्तिकल्लोलिनीभिः स्वर्गगायाः प्रवाहैरिव विशदमिदं संगमोत्कंठये (चे) तः । कालंद्येव प्रयत्योपपरिहरिणया नीलरत्नांशुभिन्न छायो (स्रोतसा यद् वलयितमधिकं तीर्थभूतं विभाति ॥ १ ॥ Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS ख्यातं हिरण्यनगरं गुरु तत्र चित्रपत्रोपनिष्णमुचयः सुतरम्यशाखः । सद्गोत्रजोऽनुपमपर्व विराजमानो वंशोऽस्ति हुंबडनृणां शुभवर्णशाली ॥ २ ॥ तत्र स्ववित्तसुखतीकृत जंतुजातः कल्याणसंभृततया धनदायमानः । श्रेष्ठ्यंबक : कः सुहृदभून्न परं हरस्य मित्रं तथापि परमं स महेश्वराणां ॥ ३ ॥ अदक्षिणाशाऽपूर्वाशा न पराशा मनोमुदे । उत्तरेवोत्तमा भार्या तस्य नाढीति विश्रुता ॥ ४ ॥ नलकूवर इव पुत्रः प्रेयान् वैश्रमण पितृपरमभक्तः । जज्ञेऽश्वनागनामा तस्या वित्तोपयोगपरः ॥ ५ ॥ संपूर्ण च यशोदेवी राकानुमतिसंनिभे । चंद्रस्यैवास्य कांते द्वे प्रकाशे शुद्धपक्षतः || ६ ॥ .नां । 362 संपूर्णाया: सद्वा.. पुत्रो य (ज) ज्ञे ज्ञान - विज्ञानशाली शालीनात्मा सार्द्धदेवाभिधानः ॥ ७ ॥ यशोदेव्या यशोदायिकृत्यजातपरायणौ 1 वीरनाम्नाभवत् तस्य संजातौ द्वौ सुतोत्तमौ ॥ ८ ॥ सम्यग्बोध- सुराचलेन मथिते मिथ्यात्वबंधांबुधौ या चंद्रामृत सादरी सदविषावेगानभिज्ञा परं । सौंदर्येण च यै......... ...... कांतीकृता ॥ ९॥ केनासौ मदनस्तृतीयनयनज्वालाकलापे हुतः किं ...त त्रिपुरांतकेन ननु सोथा. यत्पुत्रच्छलतच्चकार स पुनः पंचप्रकारं वपुः ॥ १० ॥ ते चामी वनदेवोंट इलाकश्च केल्हणः खदिरः । पंचापि पंचबाणानुकारिरूपा अपि सुशीलाः ॥ ११ ॥ 1 ये च क्रीडाभवनमतयो.......... .. चरणनिभृते मूर्तिमान् पुण्यपुंजः । धृत्यं धाम प्रणयि परमाह्लादवृद्धेः समृद्धेः बुद्धेः सिद्धेः शरणमरणिर्ध्यानवह्नेः शुभस्य ॥ १२ ॥ भगिनी तेषां सादीनि शील - सौंदर्य - रूपतत्त्वेन । कुलटं कुरूपाणामपि संवेगयतीव चेतांसि ॥ १३ ॥ वनदेवप्रमुखाणां लक्ष्मीः सीता च रुक्ष्मणी धांवी । भार्या यशोमतिश्च क्रमेण जाता महासत्यः ॥ १४॥ याः कामधेनु प्रतिमा.. लीलाललामां अपि नव्य...... . संवेगरंगांगणबद्धनृत्ताः ॥ १५ ॥ लाः । Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA 363 लक्ष्म्याः पुत्री शन्हा सलक्षणा नंदनाश्च सीतायाः । आभूश्च पार्श्वनागश्च संतुकश्चेति शांतहृदः ॥ १६ ॥ गिण्यः श्रश्नदेवोऽभूद् देवतानिष्ठिपूजकः। पुत्रोऽपि तादृशस्तिस्रस्वामी राजश्व मोहिनी ॥ १७ ॥ वधिकायाः पुनः पुत्री पूर्णिका शीलशालिनी । सर्वदेवो यशोमत्याश्च इति सकलकुटुंबपतिः ॥ १८ ॥ जिनपति-यतिपूजा-दानदत्तावकी(धा)नः । अक्ष(कृ)त सुकृतिरत्नं प्रातरन्येा चिंतां सुगुरुगदितवाक्यादीलकः श्रावको यः ॥ १९ ॥ इह हि जगति संप...पकासारसारा __ रति रमि-मदसुतप्रेयसीस्तू वि(ल)लोला । ललितमपि वधूनां ध्वंसि बंधुश्च बंध स्तदिह शरणमेकं धर्ममेकं पवित्रं ॥ २० ॥ नोऽनेकधा यद्यपि वादिमुख्यैर्निगद्यते मुक्तिकृते मुनींद्रेः । तथापि......जनानां........... नतो विवेकैकविवृद्धिहेतुरावश्यकं यद्विधम...लेखि श्रेयःकृते स्वस्य तदीलकेन कुटुंबमालोच्य विवेकभाजा ॥ २१ ॥ इतश्च । श्रीचंद्रगच्छे सग................. श्रीवर्द्धमानो मुनिपोसना ...मनो मनःप्रार्थित...सुदायी ॥ २२ ॥ पट्टे तदीये निजबुद्धियोगात् निः...तत्रै दशसूरिबोधशुद्धांतरात्मा गुणरत्नभूरिः श्रीमान् श्रुतोऽभूद् भुवि देवसूरिः ॥ २३ ॥ श्री.....................भूव भूतिलकः । संसारांबुधि-सेतुः केतुः साक्षादनंगम्य ॥ २४ ॥ श्रीयशश्चंद्रसूरेस्तु तत्पदस्थस्य पुस्तकं । पठनायेल्लकश्राद्धपुंगवेन समर्पितः ॥ २५ ॥ नानाजीवादिवस्तुव्यतिकरलहरीभंगसंग......... प्रवाह ......वशमितवा......संतोपसंपत् । यावत सिद्धांत-सिंधुर्जयति जिनपतेः स्यात् तदोदात्तनक्रस्तावद् भूयादू बुधानामयमपि रतये पुस्तकः पठ्यमानः ॥ २६ ॥ .........साकं सिंधुराजेन ff तमरत् ॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 864 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS [८७] ५४. त्रिषष्टिश. पु. चरित (द्वितीयपर्व ) by हेमाचार्य. __ का. प. १२०, २१४४३° Illustrated. Colophon: संवत् १४३६ वर्षे भाद्रपदवद ५ भूमे लक्ष(लिखि)तानि पं० मलयचंदशिष्यसाल्हाकेन लिखितमिति भद्रं । भग्न etc. शुभं भवतु । Pras'usti of the Donor:-- जितो गत्या गजो यस्य सेवाहेवाकितां गतः । चिह्नापह्नवतो यस्य सोस्तु श्रियै श्रीअजितो जिनः ॥ १॥ श्रीमाले भुवनाकाशे वंशे मौक्तिकवत् पुरा । देवसिंहाभिधः श्रेष्ठी जातो जिनमतोच्छ्रितः ॥ २ ॥ विमुक्तमाया जाया च तस्य देवलदेव्यभूत् । माऊनानी हिता पुण्ये सामतस्य तु भ्रातृजा ॥ ३ ॥ या-दाक्षिण्य-दमता-दान-मानादिभिर्गुणैः । माऊनाम्नी विहायान्यां नाज्ञासिष्म वयं भुवि ॥ ४ ॥ इतश्च । श्रीमत्कोरंटगच्छाब्धिसमुल्लाससुधानिधिः । सूरिः सैद्धांतिको जज्ञे सावदेवः प्रभुः पुरा ॥ ५ ॥ तत्पट्टकमलाकेलिशैलः शीलकलोज्वलः । श्रीनन्नसूरिसूरींद्रस्ततो जयति संप्रति ॥ ६ ॥ तन्मुखादू देशनां श्रुत्वा पित्रोः पुण्यविवृद्धये । श्रीजिनाजितनाथस्य चरित्रमली लिखत् ॥ ७ ॥ गते विक्रमतो वर्षे सप्ताग्नि-खरसंख्यके । श्रीमद्भ्यो नन्नसूरिभ्यः पुस्तकं प्रददे तया ॥ ८ ॥ यावन्मेरुः स्थिरो यावदुदेति दिनकृद् दिवि । वाच्यमानं बुधैस्तावत् पुस्तकं नंदतादिदं ॥ ९ ॥ मंगलं भूयात् गुरुभ्यः ॥ ५५. (१) शान्तिनाथचरित्र by मुनिदेवसूरि. त्रुटित खण्डित. . (२) ऋषभदेवचरित्र by वर्धमान सूरि. , , ___ (३) त्रिषष्टिश. पु. चरित ( अष्टम पर्व ). , , [५०] ५६. (१) पुष्पमाला.. गा. ५०५ प. १-४२ - (२) सङ्ग्रहणी by जिनभद्र. गा. ३८८ प. ४२-७४ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 365 NO. III SANGHA BHANDARA (३) प्रवचनसन्दोह. गा. ३३४ प. ७४-९६ (४) नवपद by जिनचन्द्र. गा. १३९ प. ९६-१०७ (५) पिण्डविशुद्धि by जिनवल्लभ. प. १०९-११६ (६) धर्मोपदेशमाला. गा. १०० प. ११६-१२५ (७) जम्बूद्वीपक्षेत्रसमास. प. १२५-१३१ (८) एगवीसठाण. प. १३१-१३७ (९) विवेकमञ्जरी. प. १३७-१४९ (१०) स्थविरावली. प. १४९-१५३ (११) दृसमोद्धार by उदयप्रभसूरि. प. १५३-१५६ Beginning: नमिऊण भुवणवीरं जिणिंदधीरं समासओ किं पि । वच्छे य दृसमा-सुसमाण वोच्छं समुद्धारं ॥ १ ॥ End: सिरिधम्मसूरि-जसभद्दसूरि-रविसूरिसीसलेसेहिं । सिरिउदयप्पह सूरीहिं विरइओ एस उद्धागे ॥ ४८ ॥ दृसमोद्धारः ॥ (१२) भक्तामरस्तोत्र. प, १५६-१६१ (१३) श्रावकप्रतिक्रमण. प. १६१-१६५ (१४) चैत्यवन्दनादि. प. १६५-१७४ (१५) श्रावकवक्तव्यता(षट्स्थानक ). गा. १०३ प. १७५-१८२ Beginning: कयवयकम्मयभावो सीलत्तं चैव तह य गुणवत्तं । (१६) षट्स्थानकभाष्य by अभयदेव. प. १८२-१९४ End: इय पुवसूरिविरइयगाहाजुयलस्स विवरियं किंचि । मुणिपवरसिरिजिणेसरसूरीहिं अणुग्गहट्ठाए ॥ १७६ ।। तप्पाय-पउम-छप्पय-मुणीससिरिअभयदेवसूरीहिं । . दुरवगम मित्थ सुगमं विहियं नियसीसवयणेण ।। १७७ ।। श्रीमदभयदेवसूरिविरचितं षटूस्थानकभाष्यं समाप्तमिति ॥ . Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 366 Beginning:— End: PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (१७) धर्मकुलक. प. १९४ - २०० नमिऊण जिणं जयजीवबंधवं धम्म- कणय - कसवहं । वोच्छं धम्ममईणं धम्मविसेसं समासेण ॥ १ ॥ नाणाचित्ते लोए नाणापासंडमोहियमईए । दुक्खं निati एसओ धम्मो || २ || नाणंकुसे निरुम्भह मण - हत्थी उप्पण वचतो । मा उपपन्नो सीलारामं विणासेज्जा ।। ८१ ॥ नाणाइत्तं सम्मत्तं ॥ (१८) जीवदयाप्रकरण (प्रा.). गा. ११३ प. २००-२०९ (१९) धर्मघोष सूरस्तुति । रविप्रभसूरि. प. २०९ - २१६ श्रीधर्मोपसूरीणां गुणाल देवतामिव । अर्चयंति वच:- - पुष्पैः श्रीरविप्रभसूरयः ॥ १ ॥ सुलभ विविधलब्धिर्भाग्य - सौभाग्यभूमिभवशतकृतपुण्यप्राप्यपादप्रसादः । जिन पतिमतचित्रोत्सर्पणा केलिकारो जयति कलियुगेस्मिन् गौतमो धर्मसूरिः ॥ २ ॥ मिथ्यात्वोदधि-कुंभसंभव मुनिवदींद्रदर्पानल ज्वालाजाल -- जलावलिसुभगता - गंगापगा - सागरः । आदेयत्वधरा-धुरा - धरणीभृत् संसार- रोगोपचं क्रोध-ध्वांत-दिवामणिर्विजयते श्रीधर्मसूरिः प्रभुः ॥ ३॥ व्युत्पत्तिर्वचनेष्वनन्यसदृशी वन्याहता मौचितीं कर्त्तव्येषु समाश्रितेषु विधूतोपाधिं विशेषज्ञतां । तत्तच्छास्त्रविधानशक्तिमसमां श्रीधर्मसूरिप्रभोः लोलोन्मौलि - गलबतंस - कुसुमस्तोमेन को नांचति ? ॥ ४ ॥ असमसमसमृद्धि-स्वर्धुनी - सिंधुनाथः चरण-करण - संपन्नाटिका - सूत्रहा (घा) रः । अगणित गुण- ताराचक्रवालोदयाद्रि र्जयति जगति नित्यं धर्मसूरिर्मुनींद्रः ॥ ५ ॥ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANI HA BHANDARA 367 मुंचंत्यो मधुपूरये सभरसस्रोतः क्षिपंत्यः स्फुटा-- ___ हंकाराकरवादिदर्प-कमलामुन्मूलयंत्योमलं । क्रीडयो हृदयांगणे गुणवतां शाकंभरीभूभुजां जीयासुः सुचिरं गिरो भगवतः श्रीधर्मसूरिप्रभोः ॥ ६॥ मंद्रारद्रुममंजरीमलिकुलकाणेन वाचालिता मुद्भुताद्भुतगीतभंगिसुभगां हित्वा विपंचीमपि । धत्ते सापि सरस्वती भगवती श्रीधर्मसूरिप्रभो चिं संप्रति विस्फुरन्नवरसामभ्यर्णगां कर्णयोः ।। ७ ॥ नेदं व्योमनि पुंडरीकधवलं शीतातेमंडलं भ्राम्यत्यत्र न चैष भृगसुभगो धत्ते कलंकस्थितिं । पट्ट-स्फाटिक एप तत्र च गुणी श्रीधर्मसूरेः समः सृष्टः कश्चन नो मयेति लिखिता वर्णावली वेधसा ॥ ८ ॥ अवदधत बुधंद्राः ! सत्यमेतद वदामो ___जगति जलधि-सी म्नि स्नात विद्याकुलेपि । न हि न हि स विपश्चित् कश्चिदारते समः कः क्वचिदपि विपये यः श्रीमतो धर्मसूरेः ॥ ९ ॥ पाताले वसुधातले दिविपदा लोके च नैवान्वहं स्वच्छंदं विलसंति हार-सुहृदो गंगा-प्रवाहास्त्र यः । किं तु श्रीमति धर्मसूरिसुगुरौ रसृष्टं स हृष्टो विधिः __ नृत्यन् वर्धनके स्वयं निहितवान् तिस्रः पताका इमाः ॥ १० ॥ वैराग्यामृतसंभवैनववचः-कुंभैः समुभासिता धर्माख्यान--महाप्रपा विजयते श्रीधर्मसूरिप्रभोः । यामासाद्य तनुभृतो भव-पथा प्रस्थान खिन्नाश्चिरं खं प्रक्षाल्य तृपां विहाय च कति स्युर्नाम नो निर्वृताः ? ॥ ११ ॥ आरुह्य वलगद्गुण-वाजिराजी स्वैरं यशः-सादिवसूर्यदीयाः। प्रसाधयामास दिशः स सेव्यः श्रीधर्मसूरिर्मुनि-चक्रवर्ती ॥ १२ ॥ संदेह-द्रुम-धूमकेतनभरो निष्पो(श्शे)षविद्या-वधू लीनवेश्म मृगांकनिर्मलकला-कल्लोलिनी-नीरधिः । कंडूलप्रतिवादिवृंदवदनांभोजैक-शीतद्युति वाग्देवी-श्रुतिकुंडलं विजयते श्रीधर्मसूरिगुरुः ॥ १३ ॥ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 368 Pattan CatalogUE OF MANUSCRIPTS आदेशं दिश वादि-सिंह-सरभ ! स्मः किं नवा स्मोथवा ? तिष्ठामः प्रतिपद्य भक्तिमुभयीं शश्वद् विरुद्धामपि । यस्मिंस्तार्किक-चक्रवर्तिनि कृतोद्योगे परीक्षाकृते __ भाषाः प्राहुरिदं पुरः स जयति श्रीधर्मसूरिगुरुः ॥ १४ ॥ इंदोबिबे यदस्मिन्नतिकुलमलिनं किंचिदाभाति लोकः ___ तल्लक्ष्मेति प्रपन्नो मम तु मतिरिदं निश्चिनोत्यन्यथैव । की. श्रीधर्मसूरेरहिम-हिमरुचोस्तुल्ययोजीतु शंका शंके कस्तूरिकायास्स्तबकमिममसौ रोहिणी न्यस्यति स्म ॥ १५॥ कस्त्वं नन्वस्मि पान्थः क नु कथय दिशि प्रस्थितो दक्षिणस्यां हेतुः को हंत ! देवी नयनविषयतां शारदा प्रापणीया । भ्रातर्मूढोसि बाढं निवसति यदसावुत्तरस्यां न मूढः सापेष(क्षा) तत्र, मुख्या त्विह जयति यतिधर्मसूरीति नाम्ना ॥१६॥ प्रीति कस्य न संशयाद्रिदलने दंभोलयः प्रोल्लसद् व्युत्पत्त्युज्वलकेलयो विदधति श्रीधर्मसूरेगिरः । यासां स्वादिमलेशतोप्यविधिना द्राक्षेक्षु-पं(ख)डामृत प्रायास्ते भवनोदरे विदधिवि(रे)भावाः किल स्वादवः ॥ १७ ॥ व्युत्पत्तिं ध्वनिषु प्रकाशयति तां यस्मिन् जडः पाणिनिः काव्यं कुर्वति यत्र सोपि विरसः श्रीकालिदासः कविः । यस्मिन् वस्तु समस्तमेव वदति स्याद्वाद-मुद्रांकिते मूकः सोपि बृहस्पतिः स जयति श्रीधर्मसूरिगुरुः ॥ १८ ॥ देवैस्त्यक्तः सुराद्रिस्तुहिनगिरिधिया वासवोन्यान् गजेंद्रान् ___ अध्यास्ते स्वेभबुद्ध्या स्पृहयति कमला विष्णवे नो हलीति । रोहिण्युक्त्वा कलंकच्युतिसुभग इति श्लिष्यति श्वेतभानु यत्कीर्त्या शुभ्रमूर्ती जगति स जयताद् धर्मसूरिमुनींद्रः ॥ १९ ॥ साम्योक्तेकथि शारदा भगवती श्रीशारदा भावतो यस्मिन् वाङ्मयकोशसारमखिलं क्षिप्त्वा कृतार्था ध्रुवं । गत्वा क्वाप्यजने वने हिमगिरेस्तीव्र तपस्तप्यते । सैकः (षः)कस्य चमत्कृतिं न कुरुते श्रीधर्मसूरिगुरुः ? ॥ २० ॥ देवानां सदसि स्वयं बलभिदा प्रीतेन यस्योपमा दत्तामात्मनि भावयन सपुलकं सथः स वाचस्पतिः । Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA 869 श्रद्धालुत्वमुपाजगाम सुबहोः कालात् स्वकीये गुण ग्रामेसौ जयताद् बुधैकतिलकः श्रीधर्मसूरिर्गुरुः ॥ २१ ॥ स जयति यतिराजो धर्मसूरियदीयैः स्रवति शिरसि पूर्ण निर्भर कीर्ति-नीरैः । तुलयति कनकादि नीलमाकाशमस्मिन् अथ कुवलयमस्मिन् राजहंसं बुधांश्च ॥ २२ ॥ सूरिः श्रीधर्मघोषस्त्रिजगति जयति प्रोपिताशेपदोषः __ सैकः स्वःसिन्धुनीरानुगुणगणमणिश्रेणिशंगांरितांगः ।। पीत्वा शाकंभरी नैरमृतरसमुचां वाचमुच्चैरुदंचद् रोमांचैरीगन्यः कचिदपि न गुणीत्यन्वहं तुष्टुवे यः ॥ २३ ॥ श्लाघ्यः श्रीशीलभद्रो जगति मुनिपतिर्यस्य तुच्छेतरस्मिन् शिष्यः भालस्थलतिलकमणिधर्मसूरिः स धुर्यः । धारायत्र! त्यज स्वस्वसदसि चरितं यस्य गीतं सुरीभिः शृण्वन्नानंद-वारि स्रवति सुरपतिर्लोचनानां सहनैः ॥ २४ ॥ श्रोता यस्याजयेंद्रः सदसि तिलकिते कोविदानां घटीभिः सांख्यव्याख्यासु सूक्तीमधुमधुरसाः स्वैरमासाद्य सद्यः । घूर्णन्मौलिप्रवेल्लत्पविकचकुसुमोत्तंसलोलालिजाल व्याजानीलातपत्रं स्वयमधृत समस्तस्य को धर्मसूरेः १ ॥ २५ ॥ नंद्यादाचंद्रमिंद्रः स जगति गुणिनां धर्मसूरिर्वचस्वी यस्योद्यद्गद्य-गोदालहरिपु परितः प्लावयंतीपु मनः। कोहं किं स्थानमेतत् प्रकृतमिह किमित्यादि नामस्त किंचित् दिग्वासःशेखरोसावजयनरपतेः पर्पदि श्रीगुणेंदुः ॥ २६ ॥ अर्णोराजमहीपतेरधिसभं पश्यत्यशेपं जग त्यस्तित्वाखिलशास्त्रविन्मलयजैराकल्पितं दिक्पटं । आयांत्या जयसंपदा प्रकटितः सौभाग्य-भाग्योदयो यस्यानन्यसमः चिरं स जयति श्रीधर्मसूरिप्रभुः ॥ २७ ॥ एकोस्मिन् भुवनत्रये विजयते श्रीधर्मसूरिनिरां व्युत्पत्तिर्न शमस्य यस्य [च]शतं स विग्रहक्ष्मापतिः । ईदृक् कोस्ति विचक्षणः क्षितितलेत्ये(त्रे)त्यूचिषान्नापरं वक्त्रेण स्तवनोच्छल जलतालंकारनादैरपि ॥ २८॥ ' Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 370 Pattan CATALOGUE OF MANUMORIPTS स्तुत्यः कस्मिन् न धर्मसूरिसुगुरुर्यस्योपदेशात् पुरे __ स्वस्मिन् कारयति स्म विग्रहनृपो जैनं विहारं द्रुतं । यस्मिंस्तस्य गिरा चकार च गुरुबिंबप्रतिष्ठा[विधि] भूयोप्यस्य गिरा निवारितवधामेकादशी स्वक्षितौ ॥ २९ ॥ ऊर्वीकृत्य भुजं वदाम्यनुपम श्रीधर्मसूरेगिरा__ मादेयत्वमसौ यदस्य वचसा श्रीविग्रहेशः स्वयं । यस्मिन् राजविहार-दंड-कलशारोप-प्रतिष्ठादिने साधु श्रीअरिसीह-मालवमहींद्राभ्यां ध्वजे लग्नवान् ॥ ३०॥ पीत्वा पीत्वा श्रुतिभ्यां दिशि दिशि विशदानंदमन्ना महांत स्तत् तच्चित्रं चरित्रं जिनमतविततोत्सर्पणाकारि तस्य । शैथिल्यं नित्यकृत्येष्वपि दधति मुहुस्तत्परामर्शवश्या स्तस्य श्रीधर्मसूरेर्गुणलवमपि कः स्तोतुमस्मादृशः स्यात् ? ॥३१॥ एते शासनदेवि ! किंचिदुचितं विज्ञापयामो वयं व्यासंगांतरतो निवृत्य हृदयं मातः ! समाकर्णय । लोकेस्मिन् जिनशासनोन्नतिकृतः श्रीधर्मसूरिप्रभो रक्षां कांक्षित-कल्पवल्लरि ! परोक्षाः समास्त्वं क्रियाः ॥ ३२ ॥ एतां श्रीधर्मसूरीणां स्तुति मुक्तालतामिव । सतां कंठोत्थितां चक्रुः श्रीरविप्रभसूरयः ॥ ३३ ॥ (२०) धर्मसूरिस्तुति (बारह नावउं द्वादशमास अपभ्रंश ). प. २१६-२२१ Beginning: तिहुयणमणिचूडामणिहिं बारह नावउं धमुसुरिनाहह । निसुणेहु सुयणहु ! नाणसणाहह पहिलउं सावणु सिरि फुरिय ॥ ६ ॥ कुवलयदलसामल घणु गजइ नं मद्दलु मंडलझुणि छज्जइ । विजुलडी झबकिहिं लवइ मणहरु वित्थारेवि कलासु । अन्नु करेविणु कलि केकारवु फिरि फिरि नाचहिं मोरला । मेइणि हार हरिय छमि णवर त्रीजण-भय उहिय नीलंबर वियलिय नवमालइ कलिय ॥२॥ हलि ! तुह कहियई गुणइं निहाणु धमसुरि अनु जससूरिसमाणु । 'अनु न भत्थि को वि जगि Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 971 No. III SANGHA BHANDARA 71 इहु प्रिय ! परिसंतउ न गणिज्जइ जायवि धमसुरि गुरु वंदिजउ । किजउ माणुस-जमु सफलु ॥ ३ ॥ वंदंतह धमसुरि गुरु भाद्रव मासु पस्तु । मयगलि जिम्व गुलुवि घणि जलु किउ महिहि प्रभूतु ॥ ४ ॥ तुहु सहि ! वियसिउ के उडउ सेरउ धवल विलासु । जससुरि-नयण-पराभविउ [नं] सेवइ वण-वासु ॥ ५ ॥ पउणि पहरि जिण पंचसय पढिविणि विम्हिउ लोउ । तसु धमसूरि गुरु तणिय वड हुयउ न होसइ कोइ ॥ ६ ॥ गुजरि बोलइ चालु प्रिय ! मज्झु मणोरह पूरि । देसण सुणहु सुहावणिय वंदेविणु जससूरि ॥ ७ ॥ महियलि विमलउ सयलु जलु वय पहुतउ आसोय मासु । धमसुरि-केर चित्तु जिम्व वय निम्मलु ठिउ आगासु ॥ ८ ॥ चंदा चंदा चंदडा वय चडावय चंदिणडउं करि चंगु । मंडिन महि तुहं हंसडा ! वय भमरुल्ला कमलिहिं न रजु ॥ ९ ॥ Endi पीपलि करिवि स पिंड पहिरि कन्हिहि चल कुंडल । झलझलंत कंकण सनाह हत्थीहिं पुण हत्थल ॥ ४१ ॥ नव-सरु मोत्तिय-हारु कंठि कलकंठि ! ठवेविणु । पाल विसाल चलंत चंचलु पायहि पहि पहिरेविणु ॥ ४२ ।। चालिन उतावली सहिय ! पुरि पुरि विहरंतौ। जायवि धमसुरि नमहु सु पुणु जसरि गुणवंतौ ॥ ४३ ॥ माणिणि! माण महंतु मयगल मउ मोडिवि । सहि ! मंडलि वणि पत्तो आसाढ सु केसरि ॥ ४४ ॥ मेहुडलइ नवि गयणि धुडुक्कइ तहिं खणि विरहिणि-हियउं खुडुक्कइ । पसरिउ इंद्र-धणुहु फुड फारु किउ विजुलिय तरल झलकारु ॥४५॥ विदलिय कंद-केलि-कंपण-लालिय-तणु । व फुरिउ पवयणु पयट्टो दाहिण रवि-संदणु ॥ ४६ ॥ उचिय चडि वायस खजूरि लवि महुरई सरि जोइवि दूरि । आवंतउ तउ धमसुरि नाहु पहुचि जिंव तसु वंदण जाहु ॥ ४७ ॥ अडाइयवरिसेहिं जसु लोए समागमो । अहियमासु संपत्तो सो सहिय ! मणोरमो ॥४८॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 372 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS तहिं वंदउं जसरि सुहकारु तव - सिरि- कन्ह - वयंसपयारु । धमसुरि बारह नावडं संतह हरउ दुरिउ सुह कर पढतः (ह) ॥ ४९ ॥ End: विन्ह (न) त्तिय निसुणेहि सासणदि (दे ) वि ! सायरु | नंदउ धमसुरि लोए जा चंद- दिवायरु ॥ ५० ॥ वारह नावउं सम्मत्तं ॥ Beginning: [८२] [२७] (२१) गाथाकोश. निज्जरियजरा - मरणं वंदित्ता जिणवरं महावीरं । छप्पन्नयगाहाओ वुच्छं सुयणस्स जोग्गाओ ॥ १ ॥ पुरिसे सचसमिद्धे अलियदलिदे सहावसंतुट्टे । तव - नियम - धम्ममईए विसमा वि गहा समा हुंति ॥ २ ॥ गा. १५३ प. २२१-२३२ एयं गाहाको जो पढइ वियडूविरइयं लोए । सो होइ विउलबुद्धी जणंमि सोहग्गई लहइ ।। १५३ ॥ ५ ॥ गाहाको सम्मत्तं ॥ (२२) श्रावकविधि. (२३) दानविधिप्रकरण. [२९] ५७ (१) पर्युषण कल्पसूत्र. [८२] Beginning: गा. २१ प. २३२-२३४ गा. २५ प. २३४-२३६ गा. २५ प. २३६-२३९ JTT. २८ प. २३९-२४१ गा. ५१ प. २४१-२४६ प. २४६-२४९ प. २४९-२५१ प. १-९१; १४३”×२” (२४) नमस्कारफल (प्रा.). (२५) प्रव्रज्याविधान (प्रा.). (२६) जीवविचार (प्रा.) . (२७) पापप्रतिघात - गुणबीजाधानसूत्र. (२८) गुरुस्तुति. (२) कालकसूरिकथा (प्रा.). अपूर्ण प. १५४ - १६९ अणुसरि आगमवणं सिरिकालयसूरिजगपहाणेहिं । पज्जोसवणच उत्थी जह आयरिया तह सुणेह ॥ (३) दर्शनसप्तति (प्रा.). गा. ७१ प. १-६ (४) खण्डनखण्डखाद्यटीका ( शिष्यहितैषिणी ). प. ३०४–४५२; १३३”×२” Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDĀRA 873 Beginning: ओं नमः सर्वज्ञाय । प्रमाण-तदाभासनिरुक्त्या द्वैत-तद्विरोधं परिहत्याधुना निग्रह निग्रहस्थानसद्भावेन विरोधं निराचिकीर्षुश्चोद्यमुद्भावयति-नन्विति । हेत्वाभासानां निग्रहस्थानभेदत्वात् तेषु निरस्तेषु परिशिष्टानि प्रतिज्ञाहान्यादीनि बुद्धिस्थानि भवंतीत्यानंतर्यतत्खंडनस्य प्रतिज्ञाहानेस्तावदनिर्वाच्यतामाह का पुनरित्यादिना स्वीकृतत्यागोपसिद्धांते । End: काशीधराल्लब्धमानत्वेन परब्रह्मचित्तेन साहित्यादिनैपुणेन च प्रणेतुर्निर्दोपत्वप्रसिद्धेः प्रकरणस्य प्रचयगमनमाशास्ते । तांबूलद्वयमिति । यो ब्रूते पट पदार्थान् पडधिकदशधा भावभेदाभिधायी यस्ताभ्यां विद्यमाना क्षणविकलगतिः कंटकाभ्यामिवासीत् । तावुद्धत्याद्वितीयश्रुतिरधिकसुखा येन चक्रे कवींद्रः श्रीहर्षोन्वर्थनामा स्वयमपि परमानंदभावं प्रपेदे ॥ ओंकारो वदनांतरालकुहरे सर्वाधविध्वंसको ___ यस्य ज्ञानमयस्तनोति सततं हेपारवाडंबरं । वेदैः कल्पितदिव्यमूर्तिविभवः सांगैस्तुरंगाननः ___ सोयं मानस-पंकजेषु भवतां कुर्याद्धरिः सन्निधिं ॥ येनोच्चैः परमात्मबोध-तरणेः पंथानमातन्वता __तुंगं मोह-गिरिं निरुध्य चुलुकीचक्रे भवैकार्णवः । सञ्चेतः-पयसां प्रसत्तिकृदसौ चक्रे पदं ग्वंडने व्योम्नीवान्व(नु)भवस्वरूपभगवानव्याजकुंभोद्भवः ॥ इति शिष्यहितैपिण्यां खंडनटीकायां चतुर्थः परिच्छेदः ॥ [३०] (५) पाण्डवचरित (सर्ग १-४ अपूर्ण ) by देवप्रभसूरि. प. ५४-१३२; १४"४२" [७१] (६) षडावश्यकोद्धार. प. १-८३; ११४१३" (क) सामायिकोद्धार (प्रा.). गा. ४३ ए. १-८ (ख) चतुर्विंशतिस्तवोद्धार (प्रा.). प. ८-९ (ग) वन्दनकस्तवोद्धार (प्रा.). गा. १९० प. ९-४२. (घ) प्रतिक्रमणोद्धार (प्रा.). प. ४२-४९ (ङ) कायोत्सर्गोद्धार (प्रा.). , गा. ५५ प. ४९-५८ (च) प्रत्याख्यानोद्धार (प्रा.). गा. ७१ प. ५९-८३ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 374 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (७) पिण्ड विशुद्धि. प. ८४-१०१ (८) दशवैकालिक (षड्जीवनिकाध्ययन). प. १०२-१२५ Colophon: संवत् १२९३ वर्षे भाद्रवाशुदि १० बुधे पुस्तिकेयं लिखितेति । श्राविकाचांपलयोग्या लिखिता एषा पुस्तिका । उदकानल etc. शुभं भवतु ॥ (९) पर्यन्ताराधना. प. १२६-१३६ (१०) नवतत्त्व. प. १३६-१४० (११) जीवविभक्ति by जिनचन्द्रगणि. गा. २५ १४०-१४३ (१२) वन्दनालापक. प. १४३-१४५ (१३) पल्योपम-सागरोपमादिप्रकरण, गा. १५ १४५-१४७ Beginning: पलिओपमं च तिविहं उद्धारद्धं च खेतपलियं च । एकेकं पुण दुविहं बायर-सुहुमं च नायवं ॥ १ ॥ (१४) कवच(धर्मोपदेश प्रा. )by जिनचन्द्रसूरि. प. १४७-१६३ Beginning: नमिउं जिणवरवीरं धीरिमहेउं खलंतखवगस्स । धम्मोवएसरूवं कवयं उस्सग्गियं वोच्छं ॥ १ ॥ End: इय सुगुरुजिणेसरसूरिसीस-जिणचंदसूरिणा रइयं । कवयं समुवहंता न भावरिउणो खलिंति मुणिं ॥ १२३ ॥ शुभं भवतु लेखक-पाठकयोः ॥ [२०] (१५) उपदेशमाला (?) प. १-८४ (१६) धर्मोपदेशमाला. प. ८४-९९ (१७) योगशास्त्र (प्रकाश १-४) प. ९९-१६३ (१८) भक्तामर(स्तोत्र). प. १६३-१७३ (१.९) श्रावकप्रतिक्रमण. प. १७३-१८३ (२०) प्रव्रज्याविधान. गा. २४ प. १८३-१८५ (२१) नमस्कारफलप्रकरण. __गा. २३ प. १८५-१८९ (२२) पार्श्वनाथस्तोत्र. प. १८९-१९१ (२३) अतिचारगाथा. प. १९१-१९२ (२४) प्रभातप्रबोध (निसाविरामे ) कुलक. प. १९२-१९६ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No III. SANGHA BRANDĀRA 375 [३४] ५८. (१) पश्चसङ्ग्रहटीका by मलयगिरि. प. २६६; १५०x१३' [३९] (२) सिद्धहेमबृहकुत्ति(पञ्चमोऽध्याय ). १८३-३१२,१६ ४२ [३५] (३) ससतिकाटीका by मलयगिरि, पं. ३८०० १५३४१३. (४) परिशिष्टपर्व by हेमाचार्य. प. ३२४; १४°४२" (५) सङ्ग्रहणी by हरिभद्र. प. १-४; १०°४२" (६) जम्बूद्वीपक्षेत्रसमास (नमिऊण) प. ४-१५ (७) लोकनालिका. गा. ३२ प. १५-१९ (८) कर्मस्तवभाष्य. गा. २४ प. १९-२१ अहिणवगहणं बंधो etc. [५४] (९) धर्मोत्तरटिप्पन (परिच्छेद १-३) by मल्लवादी. प. ४-८३; १२"४१३ Much danger. End: यदवाप्तं कुशलं कतिपयपव्याख्यया कस्य न्यायविंदोग्रंथस्येति श्लोकार्थः । इति धर्मोत्तरटिप्पनके श्रीमल्लवाद्याचार्यकृते तृतीयः परिच्छेदः समाप्तः ॥ मंगलं महाश्रीः ।। Colophon: संवत् १२३१ वर्षे भाद्रपदशुदि १२ रखौ अद्येह जंत्रावलिग्रामवास्तव्यव्य० दाहडसुतव्य० चाहडेन धर्मार्थं धर्मोत्तरटिप्पणकं लिखापितं । जंत्रावलिग्रामवास्तव्य पं० प्रभादित्यसुतपं० जोगेस्वरेण पुस्तकं लिखितमिति ॥ यादृशं etc. हितं etc. [५३] (१०) काव्यमीमांसा by राजशेखर. त्रुटित. प. ५०;१३०४२ [५२] (११) कल्याणकस्तोत्र. गा. ११ प. १-३, १०°४१३". Beginning: ओहिनाणमुणियतित्थेसर मणुयत्तणपरिग्गह __जंमि हवंति सयलसुरसंहरि हरिसुद्धसियविग्गह । सो गय-वसहपमुहसुमिणावलिसुमुणियसुहसमुब्भओ जयइ जिणेसराण गम्भागमकल्लाणमहूसओ ॥१॥ (१२) दुःख-सुखविपाककुलक (प्रा.). गा. २७ प. ३-६ Beginning: अणवरयकम्म-जललहरिहीरमाणेहिं जंतुनिवहेहिं । भीमभवनवमझे लन्भउ पोउ व मणुयभवो ॥ १ ॥ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 376 PATTAN CATALOOUE OF MANUSCRIPTS End:इय चउविहज्झाण विवन्निजंतु दुह-सुह विवागसूयगं कुलगं सम्मत्तं ॥ (१३) कुलक. गा. ५ प.६-७ Beginning: इयमच्छेरयभूयं पुवकयदुक्कडोदया जायं । जय जायवाण सुबइ वारवइकुलक्खओ पुस्विं ॥ १ ॥ End: जो यत्ताणं पाडइ सो अत्ताणं परिपाडिंतो। तो संकं कुणइ जणो आणारहिओ जिण-गुरूणं ॥ ५ ॥ (१४) कन्दजातिकुलक (?). गा. ६ प. ७-८ Beginning: सबा य कंदजाई सूरणकंदो य वजकंदो य । End: कंदजाई समत्ता। ___(१५) सङ्ग्रहणी (निविय ). गा. ५०० ५. १-५३ End: जं उद्धियं सुयाओ पुवायरियमहव समइए । खमियवं सुयहरेहिं तहेव सुयदेवयाए उ ॥ ५०० ॥ Colophon:, वरनागगणिलिखितेयं स्वपठनार्थ कर्मक्षयार्थं च । वरनागगणिपुस्तिकेयं ॥ [६५] (१६) गौडवध ( सटीक ). प. ३-२२६; ११३४२३" End: कयरायलंछणस्स वप्पइरायस्स गउडवहं नामेण कहावीढं रइयं चिअ तह समत्तं च । गाथा ११६६ Colophon:इति गौडवहनाम महाकाव्यं समाप्तमिति । राजवीसलेन आत्मार्थे लिखितमिति । संवत् १२६४ कार्तिकशुदि पंचम्यां शुक्रदिने मूलनक्षत्रे धनस्थे चंद्रे लिखितमिति । [६८] ५९. (१) महावीरचरित (प्रा.) by नेमिचन्द्र. प. २६९; १२०४१३ (२) पर्युषणाकल्पसूत्र. प. ११६; १३०४२ (३) कालकाचार्यकथा. प, ११६-१२१ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA Beginning: उत्पत्ति-विगम-ध्रौव्यत्रिपदीव्याप्तविष्टपं । महेम श्रीमहावीरं निरस्तवृजिनं जिनं ॥ १ ॥ End: इति श्रीकालकाचार्याः कृत्वा प्रवचनोन्नति । यथायुः पालयित्वांतेनशनेन दिवं ययुः ॥ ८७ ॥ कालकाचार्यकथा समाप्ता । Colophon: सं. १३६४ वर्षे वैशापशुदि अक्षयतृतीयायां सोमे पर्युषणकल्पपुस्तिका लिखापिता ॥ [६१] (४) हैमसूत्रपाठ (लिङ्ग-धातु-गणोणादिसहित). प. १९०, १२°४२" [५५] (५) सङ्ग्रहणीवृत्ति by शालिभद्र. प. २२-१६३; १२३"५१३" [९] ६०. (१) सामाचारी. ग्रंथानं २००० प. ९८; ९३"४१३" End: एयं आयारविहिं जं(जु)जंता नाण-दसण[सं] जुत्ता। अचिरेण लहंति जिया जर-मरणविवजियं ठाणं ॥ २ ॥ [१२] (२) शतपदिका. प. २४४; १४"४२" Colophon: संवत् १३०० वर्षे जेष्ठशुदि ३ रवौ लिखिता । ग्रंथानं अंकतोपि ५२०० इति शतपदिका ॥ [११] (३) कर्मस्तवटीका by गोविन्दगणि. प. ७२; ११°४२" [७] (४) कल्पसूत्र.. __ प. १-८५; १३०४२ (५) कालकाचार्यकथा (प्रा.). पं. ४६० प. ८५-१०९ Beginning: अस्थि इहेव जंबुद्दीवे etc. End: सूरी वि य कालेणं etc. (६) कल्पनियुक्ति-चूर्णि (अपूर्ण). प. ११०-१५१ [१३] (७) सिद्धहैमवृत्तिविवरण (टिप्पन). प. २८७; १५०x१३ End: इत्याचार्यश्रीहेमचंद्रविरचितायां सिद्धहेमचंद्राभिधानखोपशशब्दानुशासनवृत्तिविवरणे तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः ॥ 48 Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 378 Pattay CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Colophon:-- संवत् १२८८ वर्षे आपाढवदि अमावास्यादिने भौमे राणकश्रीलावण्यप्रसाददेवराज्ये वटकूपकवेलाफूले प्रतीहारशाखाप्रतिपत्तौ श्रीमद्देवचंद्रसूरिशिष्येण भुवनचंद्रेण क्षुल्लकधर्मकीर्तिपाठयोग्या व्याकरणटिप्पनकपुस्तिका लिखितेति । पं. सोमकलसेन शोधिता च । यादृशं etc. शिवतातिरस्तु श्रीजिनशासनस्येति ॥ ६१. (१) ओघनियुक्ति. प. ९२; १३"५१" Colophon: संवत् ११५४ वैशाखशुक्ल प्रतिपदायां रविदिने श्रीअशोकचंद्राचार्यशिष्येण उदयचंद्रगणिना जिनभद्रलेखकहस्तादू विमलचंद्रगणिहस्ताच्च ओपनियुक्तिसूत्रं लिपा(खा)पितं मंगलं महाश्रीः ॥ (२) कथासङ्ग्रह. प. ३-२०६; १४"४१३ (अ) अभयश्रीकथा. गा. २०७ प. १-२७ (आ) धनमित्रकथा. १५७ प. २७-४७ (इ) जिनपालित-जिनरक्षितकथा १४६ प. ४७-६६ (ई) धनपालकथा [ दाने] ९४ प.६६-७८ (उ) शाल-महाशालकथा [ भावनायाम् ] ८५ प. ७८-८९ (ऊ) इलापुत्रकथा , ९२ प. ८९-१०१ (३) जयवर्म-विजयवर्मकथा , ९४ प. १०१-११३ (३) प्रसन्नचन्द्रकथा । प. ११३-१२८ (ल) विष्णुकुमारकथा [ तपसि] ८४ प. १२८-१३८ (ल.) दत्त-शङ्खायनकथा [ अदत्तव्रते ] प. १३८-१४९ (ए) सुबन्धुकथा [ दिग्वते ] ८६ प. १४९-१६२ (ऐ) आषाढभूतिकथा [ मायायाम ] प. १६२-१७४ (ओ) कपिलकेवलिकथा ६३ प. १७४-१८२ (औ) नागदत्तमुनिकथा. ५७ प. १८२-१९० (अ) अरहन्नककथा. ८३ प. १९०-१९८ (अ) अञ्चकारिभट्टाकथा. प. १९८-२०६ [४५] (३) प्रशमरति. प. १-३०; ११"४२ (४) चउसरण. गा. २७ प. ३०-३३ (५) सङ्ग्रहणी by जिनभद्र. गा. ३६७ प. १-४६ [४०] (६) कल्पसूत्र. प. ५३-११० Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ End: No III. SANGHA BHANDARA 879 (७) कालकाचार्यकथा. Illustrated प. १११-१४३; १३ ४२” सूरी चिय कालेणं etc. कालिकाचार्यकथानकं समाप्तं ग्रं. ३७६ Pras'asti of the Donor:— ऊकेशवंशे भुवनाभिरामे छायासमाश्वासितसत्वसार्था । शौराणकीयास्ति विशालशाखा साकारपत्रावलीराजमाना || तत्राभवद् भवभयच्छिदुरार्ह दंघ्रिराजीवजीवितसदाशयराजहंसः । पूर्वः पुमान् गणहरिर्गणधारिसार........ ************* [eat] यान थिरदेवस्य हरिदेवोस्ति बांधवः । हर्षदेवीभवाः पुत्रा नरसिंहादयोस्य च ॥ सहोदर्यः सप्तैत(?)स्य लग्मिणिर्धर्मकर्मठा । कर्मिणि हरिसणिश्च पुत्रयस्तिस्रो गुणश्रियः ॥ १६ ॥ गुणधरस्य यो भ्राता कनिष्ठो धंधुकाभिधः । पेढानामास्ति तत्पुत्रः पवित्रगुणसंततिः ॥ १७ ॥ अथ गुरुक्रमः । श्री राजगच्छ मुकुटोपमशीलभद्रसूरेर्विनेयतिलकः किल धर्मसूरिः । दुर्वादिगर्व भर सिंधुरसिंहनादः श्रीविग्रहक्षितिपतेर्दलितप्रमादः || आनंदसूरिशिष्यश्री अमरप्रभसूरितः । श्रुत्वोपदेशं कल्पस्य पुस्तिकां नूतनामिमां ॥ १९ ॥ उद्यमात् सोमसिंहस्य सपुण्यपुण्यहेतवे । अलेखयच्छुभालेखां निजमातुर्गुणश्रियः ॥ २० ॥ या चिरं धर्म्मधराधिराजः सेवाकृतां सुकृतिनां वितनोति लक्ष्मी । मुनींद्र वृरिह वाच्यमाना तावन्मुदं यच्छतु पुस्तिकेयं ॥ २१ ॥ Colophon:-- संवत् १३४४ वर्षे मार्ग. शुदि रवौ सोमसिंहेन लिखापिता । [४६ ] (१) पर्युषणाकल्पसूत्र. (२) कालकाचार्यकथा. Beginning: प. १०७; १४३”×२" प. १०७ - १४४ अस्थि इहेव जंबुद्दीवे etc. End: कालिकाचार्य कथानकं समाप्तं ॥ ६ ॥ ग्रंथामं कथानिकायाः । मंगलं महाश्रीः Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 380 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Pras'asti of the Donor: ६० ॥ वंशः प्राग्वाटेनामास्ति सर्ववंशशिरोमणिः । यो जातश्चोत्त (चित्र) माधारो महतामपि भूभृतां ॥ १ ॥ तत्राभूद् भरतो नाम पुरुषः पुण्यपूरितः । सदाचाराध्वपांथेयो धौरेयो धर्म्मधारिणां ॥ २ ॥ सुतस्तस्य यशोनागो गुणानां जन्ममंदिरं । यशोभिर्भृतभूभागः सुभगो वामचक्षुषां ॥ ३ ॥ पद्मसिंहः सुतो जातस्तस्य सिंहपराक्रमी । येन भूपाज्ञया प्राप्तं पदं श्रीकरणादिषु ॥ ४ ॥ जज्ञे तिहुणदेवीति पत्नी तस्य शुभाशया । या पितुश्च भर्तुश्च गुणैवंशो विभूषितः ॥ ५ ॥ तयोः क्रमेण चत्वारस्तनयाः पुण्यशालिनः । आसन् धार्मिकधौरेयाः सुशीले द्वे च पुत्रिके ॥ ६ ॥ तेषामाद्यो यशोराज आशराजस्ततोऽपरः । तृतीयः सोमराजाख्यश्चतुर्थो राणकाह्वयः ॥ ७ ॥ सोदुकेत्याख्यया ज्येष्ठा कनिष्ठा सोहिणिराया । धर्मेण निर्ममे शुद्धे सोदुकाहृदये पदं ॥ ८ ॥ महाव्यापारनिष्ठस्य यशोराजस्य वल्लभा । जज्ञे सूहवदेवीति सती सीमंत मौक्तिकं ॥ ९ ॥ तयोराद्यः सुतः पृथ्वीसिंहाख्योऽभूत् कलांबुधिः । परः प्रह्लादनो नाम विजयी पुत्रिके उभे ॥ १० ॥ तन्मध्यात् पेथुकास्त्येकाऽपराभून्नाम सज्जनी | प्रह्लादनप्रियतमा माधलास्ति विवेकिनी ॥ ११ ॥ देवसिंहः सोमसिंहः सुतौ द्वौ तिष्ठतस्तयोः । पद्मला सद्मला राणी तिस्रस्तिष्ठति पुत्रिकाः ॥ १२ ॥ 'पेथुका चंपलादेवीं नरसिंहं महामनाः । आसलस्य प्रिया पुण्यं हरिपालमजीजनत् ॥ १३॥ सुता राजलदेवीति चंपलायाः पतिव्रता । स्वकीय मातृशोकार्त्तिसंहारपरमौषधी ॥ १४ ॥ वल्लभा नरसिंहस्य नायकीदेविनामिका । तत्सुता गौरदेवीति मातृवद् धर्मनिर्मला ॥ १५ ॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 881 No. III SANGHA BHANDARA विनीता हरिपालस्य माल्हणिर्नाम गेहिनी । नंदना जनितास्ताभ्यां चत्वारो रम्यमूर्तयः ॥ १६ ॥ जगतसिंहस्य दयिता सजना तनयत्रयं । प्रसूते स्म सुतां चैकां शीलालंकारडंबरां ॥ १७ ॥ ज्येष्ठस्तिहुणसिंहाख्यः पूर्णसिंहाभिधोऽपरः । तृतीयो नरदेवोथ तनया तेजलाह्वया ॥ १८ ॥ आस्ते तिहुणसिंहस्य रुक्मिणी नाम वल्लभा । तयोर्ललवणसिंहोऽस्ति सुतः सुता च लक्षमी ॥ १९ ॥ रंगात् कटुकराजेन मोहिनिः पर्यणीयत । चत्वारो नंदनास्ताभ्यां जनिता जनरंजनाः ॥ २० ॥ पुत्र्यौ शीलपवित्रे च मूर्ती द्वे धर्मयोरिव । पूर्णदेवी तयोराद्या वयजेत्यपरा मता ॥ २१ ।। धौरेयः सोहियो नाम सहजाकाभिधोपरः । तृतीयो रत्नपालोभूदमृतपाल इत्यथ ॥ २२ ॥ सोहियस्य प्रिया ज्येष्ठा ललितादेविसंज्ञिता । तत्सुता प्रीमलादेवी जैत्रसिंहस्य वल्लभा ॥ २३ ॥ ताभ्यां जातौ कलावंतौ सुतौ द्वौ धर्मनिर्मलौ । परोपकारसामर्पो धारावर्पोग्रजोऽभवत् ॥ २४ ॥ द्वितीयो मल्लदेवोऽस्ति कुलालंकारकौस्तुभः । तप्रिया गौरदेवीति श्वश्रूशुश्रूषणोद्यता ।। २५ ॥ सोहियस्य द्वितीयास्ति शीलुकेत्याख्यया प्रिया । गुरुत्वगुणगंभीरा पतिभक्तिपवित्रिता ॥ २६ ॥ तयोरासीत् सुतो भीमसिंहनामाग्रजः सुधीः । महत्त्व-सत्त्वमुख्यानां गुणानां जन्मभूमिका ॥ २७ ॥ परः प्रतापसिंहोस्ति गुरूणां भारहारकः । नाम्ना चाहिणिदेवीति प्रिया तस्यास्ति पावना ॥ २८ ॥ पुज्यौ द्वे सोहियस्याथ शीलुकाकुक्षिसंभवे । जाते जात्यमहारत्नतेजोनिर्मलमानसे ॥ २९ ॥ नालदेवी तयोर्मध्यादाद्या दानविशारदा । परा कील्हणदेव्याख्या साक्षादिव सरस्वती ॥ ३० ॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 882 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS आसीत् सुहागदेवीति सहजाकस्य वल्लभा । तयोर्माल्हणदेवीति सुतास्ति शीलशालिनी ॥ ३१ ॥ विरक्तोमृतपालोथ सर्वान संबोध्य मातुलान् । गच्छे श्रीमलधारिणां व्रतं जग्राह साग्रहः ॥ ३२ ॥ सोमराजस्य वर्तित्वं धर्मसीमासमन्वितं । न केषामुपकाराय जातं वात्सल्यवारिधेः ? ॥ ३३ ॥ सुसाधोः कुलचंद्रस्य विख्यातव्यवहारिणः । सुता जासलदेव्याश्च जैनधर्मेण वासिता ॥ ३४ ॥ नाम्ना राजलदेवीति राणकस्य प्रियाऽभवत् । यस्यां सत्यां गृहे भर्तुः क्लेशलेशोपि नाजनि ॥ ३५ ॥ तयोः संग्रामसिंहाख्यः सुतो जातोऽस्ति विश्रुतः । श्रियोपकुर्वता येन निजानां जगृहे मनः ॥ ३६॥ सुताभयकुमारस्य सलक्षणांगसंभवा । सुहडादेविरस्यास्ति प्रिया दान-दयाप्रिया ॥ ३७ ॥ तदीयो हर्पराजोऽस्ति पुत्रः स्वगोत्रपावनः । माता-पित्रोः समादेशं यो न कुत्रापि लंघते ॥ ३८ ॥ हर्पराजेन रागेण लषमादेविसंज्ञिका । परिणीता विनीतात्मा सतीव्रतविभूपिता ॥ ३९ ॥ गौरदेवीति नामास्ति कनिष्ठास्य सहोदरा । पीयूषप्रायवचनैर्माननीया मनीपिणां ॥ ४० ॥ सुतः संग्रामसिंहस्य सुहडादेविसंभवः । नाम्ना कटुकराजोऽस्ति द्वितीयो नयनामृतं ॥ ४१ ।। श्रीमलधारिसूरीणां हितामाकर्ण्य देशनां । श्रेयसे सुहडादेव्या सिद्धांतातीवभक्तया ॥ ४२ ॥ भर्तुः संग्रामसिंहस्य साहाय्या विशदाक्षरैः । पुण्या पर्युषणाकल्पपुस्तिका लेखिता नवा ॥ ४३ ।। स्वामिनां शृण्वतां व्याख्याकारिणां पुण्यसंचयं । वर्द्धयंती सदा सर्वैराचंद्रं वाच्यतामसौ ॥ ४४ ॥ ॥ मंगलमस्तु ॥ ५ ॥ ६०३ ॥ ७ ॥ ५ ॥ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA 383 [६६] (१०) नवपदप्रकरण by जिनचन्द्र. (११) उपदेशमाला by धर्मदास. (१२) by म. हेमचन्द्र. (१३) भवभावना by , (१४) श्रावकदिनकृत्य. प. ११४-२३२ (१५) विवेकमारी. (१६) धर्मोपदेशमाला by जयसिंह. (१७) मूलशुद्धि by प्रद्युम्नसूरि. (१८) पिण्डविशुद्धि. (१९) जीवविचार. [२६] ६२. (१) अलङ्कारतिलक (वाग्भटकाव्यानुशासनटीका ). यथा च कर्पूरधूलिध......अपूर्ण प. १८५; १२°४२' [८] (२) वृत्तरत्नाकरटीका (अ. ६) by त्रिविक्रम. प. १२७ [२५] (३) कातन्त्रपञ्जिकोद्योत by त्रिविक्रम. प. १-८३ Beginning: ओं नमः शिवाय । अथ अविदितानीति नञ् न पठितव्यः । सूत्रकारस्य विदि. तत्वात् । न च शिष्यापेक्षया तस्यासूत्रकारत्वात् । End:-- इति श्रीवर्धमानशिष्यत्रिविक्रमकृते पंजिकोद्योते प्रत्ययपादः समाप्तः । उक्तं यदालूनविशीर्णवाक्यैर्निरर्गलं किंचन फल्गु पूर्वैः । उपेक्षितं सर्वमिदं मया तत् प्रायो विचारं सहते न येन ॥ आसीदियं पंजरचित्रसालिकेव हि पञ्जिका। उद्योतव्यपदेशेन त्वियं पूर्णोज्ज्वलीकृता ॥ इति श्रीमत्कर्णोपाध्यायश्रीवर्धमानशिष्यश्री त्रिविक्रमकृते कातंत्रपंजिकोद्योते द्विउक्तिपादः॥ इति श्रीवर्धमानशिष्यत्रिविक्रमकृते पंजिकोद्योते संप्रसारणपादः सपादः समाप्तः । प. ८१उक्तं etc. इति श्रीवर्धमानशिष्यश्रीत्रिविक्रमकृते पंजिकोद्योतेऽनुषंगपादः।। सं. १२२१ ज्येष्टवदि ३ शुक्रे लिखितमिति । Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 384 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS प. ८२__ इ उ तोरित्यनयेत्यादिरोषिष्यत इत्यादौ तु वादिद्वारके upto the Com. on हन् [३१] (४) उपदेशमाला. त्रुटित. प. ५-४६; १४१४२" (५) धर्मोपदेशमाला. प. ४६-५४ (६) मूलशुद्धि. प. ५४-७० (५) पञ्चकल्याणक. प. ७०-८१ Beginning:— तित्थं पवयणसुयदेवयं च नमिऊण सबभावेणं । कल्लाणपंचएणं आदिजिणंदं नमसामि ।। (८) क्षेत्रसमास (नमिऊण ). प. ८१-८८ (९) नवपद by जिनचन्द्र. गा. १४० प. ८८-९९ (१०) सङ्ग्रहणी by जिनभद्र. गा. ३६७ प. ९९-१२७ (११) चउसरण. गा. २७ प. १२७-१३० (१२) आतुरप्रत्याख्यान. प. १३०-१३२ (१३) स्थविरावली. प. १३२-१३७ (१४) अजितशान्ति. प. १३७-१४२ (१५) जीवविचार. प. १४२-१४६ (१६) संवेगमञ्जरी (प्रा.) by देवभद्र. प. १४६-१४९ Beginning: संदेसण-मलयानिलमंजरीयविसुद्धभाव-सहयारो। जयइ जयाणंदयरो वसंतसमउ ब धीरजिणो॥ End: इय संवेगपरो खणं पि रे जीव ! होसु ता तुजु सुलहा । सिवलच्छि लद्धमणूयसिरिदेवभहस्स ॥ संवेगमंजरीमिमं समणावयंसभावं नयंति सुयणाऽमिलाणसोहं जे निश्चमेव । सुरसिद्धवहूकडक्खलक्खो वि(व)लक्खियतणू खलु ते हवंति ॥ १३२ ॥ संवेगमंजरी समाप्ता ॥ (१७) पञ्चसूत्र. प. १४९-१५२ (१८) षत्रिंशिका. प. १५२-१५५ Beginning: संसार-विसमसायर-भव-जलवडियाण संसरंताणं Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA 385 [३३] (१९) कर्मस्तव. प. १५५-१५८ (२०) कर्मविपाक. प. १५८-१७१ (२१) शतक. गा. ११३ प. १७१-१८० (२२) सप्तति. गा. ९१ प. १८०-१८७ (२३) जीवदयाप्रकरण. गा. ११३ प. १८७-१९५ (२४) उपदेशमाला by धर्मदास. प. १-८२; १११x१३" (२५) धर्मोपदेशमाला. प. ८३-९९ (२६) मूलशुद्धि by प्रद्युम्नसूरि. श्लो. २६५ प. ९९-१२८ [२८] (२७) पिण्डनियुक्ति. प. १-९१, १२"x१३" Colophon:___ संवत् ११८१ ज्येष्ठवदि १३ शनौ मुनिचंद्रसाधुना लिखितेति । (२८) ओघनियुक्ति. प. १-६२ [७२] (२९) स्थविरावलिकावृत्ति. त्रुटित. प. ३१ (३०) पश्चसूत्रव्याख्या. प. ३२-६४ (३१) अजित-शान्तिस्तववृत्ति by गोविन्दाचार्य.प. ६६-९२ End: इति वृत्तिरजित-शांतिस्तवस्य संक्षेपतो मयाभिहिता । श्रीगोविंदाचार्येण कल्मषविनिर्जरार्थमियं ॥ इत्यजितशांतिस्तवस्य विवृतिः समाप्ता । (३२) ऋषभस्तुतिवृत्ति मू. धनपाल, वृ.नेमिचन्द्र.प. ९३-१२५ Beginning: नत्वा जिनेंद्रवीरं सर्वनरामर्त्यपूजितं वीरं । सद्भूतार्थप्रभावं सांप्रततीर्थस्य कर्तारं ॥ १ ॥ सुरैः प्रणतपादस्य नाभेयस्य महात्मनः। स्तुतेर्गुरुप्रभावेन किंचिद् वच्मि विवरणं ॥२॥ भगवति गुणानुरागः सत्यं प्रेरयति मां यतो नित्यं । तेनाहमत्र सुजडोपि विवरणं कर्तुमिच्छामि ।। ३ ॥ क्लिष्टमपि यथात्यर्थ वचनं वालस्य शोभते पितरि । एतदपि तथा प्राप्स्यति शोभां शिष्टप्रभावेन ॥ ४ ॥ End: यदू व्याख्यानेन मया पुण्यं निर्वाणसाधकं लब्धं । तेन जनः सर्वोपि हि जायेत जिनस्तुतौ निरतः ॥ १। 49 Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS श्री धनपालस्य कृतिर्गणिनाहतेह नेमिचंद्रेण । कर्मक्षयस्य हेतोर्बोधनिमित्तं च विरचिता ॥ २ ॥ (३३) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति अपूर्ण प. ९२६ - १४५; १२ ×१३" Beginning:— 886 प्रणिधाय श्रीवीरं स्वल्परुचीनां कृते समासेन । विवरणमिदं करिष्ये गृहिप्रतिक्रमणसूत्रस्य ॥ १ ॥ [३८] ६३. (१) पर्युषणाकल्पसूत्र. [३६] (२) हेमश. बृहद्वृत्ति ( अ. ३-३ ) [२३] [४२] End:--- प. २०९ (३) पट्पञ्चाशिकाविवृत्ति by भट्टोत्पल प. ३२; १४x२" (४) पर्युषणाकल्पसूत्र. (५) कालकाचार्यकथा. } प. १३२; १८”×११” (६) प्रकरणसङ्ग्रह. (क) उपदेशमाला. (ख) पुष्पमाला. (ग) भवभावना. (घ) सङ्ग्रहणी. गा. २७४ (ङ) स्थविरावली. Beginning: प. १०७; १२”×२” *प. ३०६; १२”×१३” (छ) योगशास्त्र. (ज) वीतरागस्तोत्र. (च) आत्मानुशासन. (७) जिनस्तव by नरचन्द्राचार्य. (झ) प्रश्नोत्तररत्नमाला. (ञ) शान्तिस्तोत्र गा. २१ • (ट) भक्तामर. जय प्रथमतीर्थेश ! जय प्रथम निर्मम ! | जय प्रथमनीतिज्ञ ! जय प्रथमपार्थिव ! ॥ यद् वैश्वानर चंद्रार्कज्योतिषामपि जीवितं । तदुदेतुस्तवादस्मान्महानंदमयं महः ॥ १२१ ॥ कृतिरियं श्रीनरचंद्राचार्याणां । Colophon: संवत् १३३४ वर्षे भाद्रवा सुदि १ शनौऽयेह श्रीदेवपत्तने सकलराजावली पूर्व परमपाशुपताचार्यमहामहत्तरपंडितगंड... परबृहस्पति - अय्यपारिमहं श्री अभयसीहप्रभृतिप्रतिपत्तौ ओसवालज्ञातीय साहुभाव तत्पुत्र साहुधनेसरतत्पुत्रगुणधरेण पितृभगिनी ललिनी (जिणि) पुण्यार्थं प्रकरणपुस्तिका लिखापिता । मंगलं महाश्रीः । २५९ - २९४ पर्यन्तं पत्राणि न सन्ति । Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 887 ॥ ॥ No. III SANGHA BHANDARA [४०] (८) लिङ्गानुशासन. प. १-४६; ११३४१३ Colophon: संवत् १२७३ श्रावणवदि ८ रवौ लिंगवृत्तिपुस्तिका लिखिता । (९) धर्माभ्युदय (छायानाटक). प. ४७-६७ (१०) सूक्तमुक्तावली by मेघप्रभ. प. ६८-८५ [३] ६४. (१) अनेकार्थसङ्ग्रह hy हेमचन्द्र. ग्रं. १८२६ प. ११९, १५°४२" [४] (२) कल्प सूत्र ( Illustrated. ). प. १-११३; १५३०४२" Colophon: संवत् १३३६ वर्षे ज्येष्टशुदि ५ रवी श्रीअणहिल्लपुरे महाराजाधिराजश्रीसारंगदेवस्य विजयराज्ये लिखितं । शुभमस्तु श्रीसंघभट्टारक स्य । (३) कालकाचार्यकथा (Illustrated.). प. ११४-१५२ Beginning: अस्थि इहेव जंबुदीवे भारहे वासे धारावासं नाम नयरं । End: सूरी वि हु कालेणं जाणिसा निययआउपरिमाणं । संलेहणं विहेउं अणसणविहिणा दिवं पत्तो ॥ इति पतसवणाकप्पो सम्मत्तो। तत्समाप्तौ च समाप्तं चेदं कालिकाचार्याख्यानकं । Colophon:___ संवत् १३३६ वर्षे ज्येष्टशुदि ५ रवी श्रीपत्तने महाराजाधिराजस्य श्रीसारंग. देवस्य विजयिनि राज्ये श्रीमत्प!पणाकल्पोयं लिखितः। शुभं भवतु श्रीचतुर्विधसंघभट्टारकस्य । मंगलं महाश्रीः । श्रे. वीणेन मातृमोहिणिश्रेयोर्थं श्रीपर्दूषणाकल्पपुस्तिका लिखापिता ।......प्रदत्ता पूज्यश्रीदेवसूरिभ्यः । [१] (४) हैमलघुवृत्ति ( चतुष्कवृत्ति ). प. १-११५, १३०x२" Colophon: तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः । ग्रंथान १६६५ संवत् १३७० भा. वदि १४ चतुष्कवृत्तिले० सागरेण समर्थिता । मंगलं महाश्रीः । यादृशं etc. शुभं भवतु । ___(५) हेमशब्दानुशासन. प. १-१०४ Colophon:-- संवत् १३७० अश्विनवदि ४ स्तंभतीर्थे पूज्यश्रीरत्नाकरसूरीणां आदेशेन ले० सागरेण पुस्तिका लिखिता । ग्रंथानं ३४०० (अ. ३, पा. ३-अ. ५, 'पा. ४). Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 888 [ ७५ ] Beginning:— [2] (६) वस्तुविचारविवरण. End: PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Beginning: नमो जिनागमाय । सिरिया सजिणं नमिडं वत्युवियारस्स विवरणं भणिमो । इह आयसु मरणत्थं गुरुवएसा समासेणं ॥ (७) पर्युषणाकल्पसूत्र. (८) कालकाचार्यकथा. प. १–६८; १३३”×२” प. १-१३९; १५”×२” गा. ८५ प १३९-१५१ देविंदविंदन मियं सिव - निहिसंपत्ति परमसासणयं । निज्जियपरमय समयं नंदउ सिरिवीरसासणयं ॥ १॥ समाप्तोयं लघुपर्युषणाकल्पः परं कथाया दिङ्मात्रं । [१६] (९) अनेकार्थसङ्ग्रह. [१५] (१०) हेमलघुवृत्त्यवचूरि (अ. १-३) End: ग्रं. १८२५ प. २८२; १२”×१३” प. १६६; १३३”×२” इति लघुवृत्त्यवचूरिकायाः तृतीयाध्यायस्य द्वितीयः पादः समाप्तः । मंगलं महाश्रीः । पंडितधनचंद्रेण लघुवृत्त्यवचूरिका । श्रुतोद्धृता च स्वगुरोः श्रीमद्देवेंद्रसूरितः ॥ Colophcn: संवत् १४०३ वर्षे मार्ग, शु. ११ खौ ग्रंथानं २२१३ [१४] (११) सिद्धहेमबृहद्वृत्ति ( अ. १ - ३) [५] ६५. (१) पर्युषणाकल्पसूत्र. [१०] ( २) दशवैकालिकलघुटीका. (३) कल्पसूत्र. (४) कालकाचार्यकथा (प्रा.). प. २६८; १४३ " ×१३" प. ११३; १४३”×२” प. १६२; १४”×२” Colophon: संवत् १२४८ वर्षे श्रावणशुदि ९ सोमे अद्येह श्री आशापहयां दंड० श्रीअभय पतिप्रतौ लघुशवैकालिकटीका समाप्ता । [६] प. १-१२४ प. १२५-१४४ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Beginning: End: [२१] End: No. III SANGHA BHANDARA नमः सर्वज्ञाय | जो कुइ ससत्तीए संघरस समुन्नई सयाकालं । लीलाइ सुगइ - सुक्खं कालयसूरि व सो लहइ || इय पवयणप्पभावणफलमउलं निसुणिऊण मइरम्मं । जिणपवयणस्स सम्मं पभावणं कुणह भो ! निचं १५३ ॥ इति कालकाचार्यकथानकं समाप्तं । ग्रंथाग्रं २११ ॥ (५) कम्मपयडी. (६) कर्मस्तव. (७) कर्मविपाक. गा. ४७७ प. १-४१; १४”×१ गा. ५६ प. ४२-४६ गा. १६८ प. ४६-५९ गा. ११० प. ६०-६९ गा. ९१ प. ६९-७६ गा. १९० प. ७६- ९४ (८) शतक. (९) सप्ततिका. (१०) कर्मग्रन्थ (?). इय सत्त कम्मबंधाइरूवणा लेसओ मए भणिया । संतं ता ताणतं अभयपुरं इच्छमाणेण ।। १९० ॥ गा. २४ (११) शतक भाष्य. (१२) आगमिकवस्तुविचारसार. (१३) श्रावकव्रत भङ्गप्रकरण (अपूर्ण). (१४) लोकनालिका. 389 प. ९५ - ९७ प. ९७ - ११० प. ११०-११२ Colophon:— संवत् १२५८ श्रावणशुदि ७ सोमे श्रीमदणहिलपाटके श्रीहर्षपुरीयगच्छे श्रीम लधारिसका अजितसुंदरीगणिन्या पुस्तिका लिखा पिता ॥ [ ५७ ]६६. (१) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र - चूर्णि by विजयसिंह. Beginning: प. २८५; १७" ×२" Illustrated. ओं नमः सर्वज्ञाय । सिद्धं सिद्धत्यं सुयधम्मपयासयं सयालोयं । लोय तुलं लोयाण नमह सिरिमं महावीरं || समणोवासग-पडिकमणसुत्त चुणि भणामि लेसेण । मंदमईण विबोहण सुत्तानुसारेणं ॥ २ ॥ - Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 890 PATTAN CATALOQUE Or Manuscripts End: एवं समत्ता पडिकमणचुन्नी । नमो सुयदेवयाए भगवईए। जयइ जिणसासणमिणं जंमि निलीणा जणा सुहेणेव । लंघति भवं भीमं जाणेण व जत्तिया जलही ।। जयइ इह चंदगच्छो चंदो इव भविय-कुमुय-बोहयरो । उवसम-जुण्हापुन्नो समणजणाणंदणो सयलो । ऊसियसील-पडाओ तव-नियम-रहंग-संगयसुघोसो । गुण-गच्छ-रहो धवलेहिं व जेहिं उबूढो ॥ सिरिसबएव-सिरिनेमिचंदनामधेया मुणीसरा गुणिणो । होत्था तत्थ पसत्था तेसिं सीसा महामईयो । जे पसमस्स निदंसणमुदही दक्खिन्न-वारिवारस्स कब-रयणाण रोहण-खाणी खमिणो अमियवाणी । सिरिमं संतिमुणिंदा तेसिं सीसेण मंदमइणा वि आयरिय विजयसीहेण विरइया एस चुन्नी ति ॥ जं किं पि मए उस्सुत्तमेस्थ रइयं मईए दोबलाए । तं मे खमंतु सोहंतु सुयहरा गुग्गहं काउं ॥ एगारसहिं सएहिं तेसीइ हि एहिं विकमनिवाउ । एहिं चित्ते मासंमि समत्थिया एसा ॥ सावगपडिक्कमणसुत्त-चुन्नी समत्ता । शुभं भवतु । ग्रंथान श्लोकप्रमाणेन ४५९० ॥ Colophon: संवत् १३१७ वर्षे माह शुदि १४ आदित्यदिने श्रीमदाघाटदुर्गे महाराजाधिराज-परमेश्वर-परमभट्टारक-उमापतिवरलब्धप्रौढप्रतापसमलंकृत-श्रीतेजसिंहदेवकल्याण विजयराज्ये तत्पादपद्मोपजीविनि महामात्यश्रीसमुद्धरे मुद्राव्यापारान् परिपंथयति श्रीमदाघाटवास्तव्यपं रामचंद्रशिष्येण कमलचंद्रेण पुस्तिका व्यलेषि(खि) ॥ [१६] (२) उत्तराध्ययन. प. २-१५८; १७३"४२" Colophon:ठ० धरणिगसुतलषमसीहेन उत्तराध्ययनसूत्र[पुस्तिका] लिखितेति ॥ (३) ओघनियुक्ति. प. १५९-२४० (४) पिण्डनियुक्ति (अपूर्ण). प. २४१-३०८ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BHANDARA [ ५९ ] ६७. (१) काव्यप्रकाश - टीका (सङ्केत) by भट्ट सोमेश्वर. प. ३ – ३३८; ९३”×१३” [ उल्लास ४ - ६ त्रुटित ] . (२) आवश्यक नियुक्ति. (३) उपदेशमालावृत्ति by सिद्धर्षि. [७४] (४) सिद्धम - लघुवृत्ति ( कृदन्त त्रुटित अव्यवस्थित ). (५) सत्तरि ( सतति) वृत्ति (प्रा.). up to 85 th गाथा. प. ११७ प. १६२; १५" ×२” [६०] [१७] [१८] [४३] [४१] Beginning:— साहूणं अणुग्गह आयरिएण कथं प्रमाणनिष्कण्णनामयं सत्तरिति पगरणं । (६) जीवानुशासनवृत्ति. प. १६-२१९; १४”×१३” (७) प्रवचनसारोद्वारवृत्ति (लघु). प. १७७ १५" ×२" [ द्वार ४०- ७२ अपूर्ण ] (८) सङ्ग्रहणी. ( त्रुटित अपूर्ण ). (९) जीतकल्प (सवृत्तिक ). [ ८० ] [७७] [ ६७ ] (१०) नागानन्दनाटक. (२) कालकाचार्यकथा ( त्रुटित ). Beginning: प. १०१-१७९+२२० - २२२; १६३x२” Colophon:— संवत् १२५८ वर्षे श्रीमदणहिलपाटके मुनिचंद्रेण लोकानंदयोग्या पुस्तिका लिखिता ॥ [६१] ६८. (१) पर्युषणाकल्पसूत्र. (३) भवभावना. (४) मूलशुद्धि. (५) आराधना. 391 Beginning:— प. १०४ त्रुटित. प. २–११; १२”×१३” अस्थि इहेव जंबुद्दीवे etc. [७३] (३) रयणचूडकहा (प्रा.). अपूर्ण जीर्ण प. २५ - १५८; १३" ×१३” [२२] ६९. (१) उपदेशमाला. प. १-४६ (२) धर्मोपदेशमाला. प. ४६-५३ प. ५४ - ६९ प. ७० - ८६ प. ८७ - १२० प. १२०-१३५ 35 (ख.) मणिरह कुमार साहू काम - गइंदो वि मुणिवरो भयवं । गुत्तो वि मुणी सयंभुदेवो महरिसित्ति ॥ १॥ प. १ - १०२; १३३" ×२ " प. १०३ - १३१ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 392 End:-~~ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS मऊ गणहरिंदे आयरिये धम्मदायए सिरसा । नमिऊ सबसाहू चविहाराहणं वोच्छं || ६ || (७) श्रावकप्रतिक्रमणसूत्र. प. १३५ - १५७ (८) आउरपच्चक्खाण. प. १५७ - १५८ (९) जीवोपालम्भकुक (प्रा.). प. १५८-१६१ (१०) जीव विभत्ति by जिनचन्द्रगणि. प. १६१ - १६३; १२ ×१३ " End:--- जेहिं तुम्ह निसुया मणहरगुणनियरचित्त सा वाणी । ताण कयत्यो जम्म अम्हाण वि होज सो चेव ।। १५८ ।। आराधना समाप्तेति ॥ Beginning: End:— मऊ चलणजुयलं वीरजिविंदस्स लोगनाहस्स । वोच्छं जीव - विभत्तिं मंदमइविवोहणट्टाए || एसा जीव - विभत्ती रइया संखेवओ मुणिगणाणं । गणिणा जिणचंदेणं कम्मक्खयमिच्छ्रमाणेणं ॥ २५ ॥ जीवविभत्ती सम्मत्ता । (११) चउसरण. (१२) परिग्रहपरिमाण. Beginning:— पण मिय परमपयत्थं नयसुरसत्थं सुदिपरमत्थं । वीरं वीरं सम्मं गिहीण धम्मं पवज्जामि ॥ १ ॥ प. प. सिरिसीलभद्दमुणिवइविणेयसिरिधम्मघोससूरीण | पय मूलंमि पवन्नो धंधलसङ्केण गिहिधम्मो || ८३ || एक्कारससु सएमुं छासीई (ए) समहिएस वरिसाणं । मगसिरपंच मिसोमे लिहियमिणं परिगहपमाणं ॥ ८४ ॥ परिपरिमाणं समत्तं ॥ १६३ - १६६ १६७ - १७४ Colophon: संवत् १९८६ मार्गसिरवादि ५ सोमे लिखितमिति ॥ [७९]७०. (१) उपदेशमालाविवरण (त्रुटित ) by सर्वानन्दसूरि. Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. III SANGHA BRANDĀRA 893 End: __इत्याचार्यश्रीसर्वानंदविरचितकथासंक्षेपोपदेशमालाविवरणं चतुर्ष शतं । [६३] (२) स्थानाङ्गसूत्र (अपूर्ण). प. १३-१९५; १४°४२३ [८२] (३) विद्यापरिपाटि (१ प्रा. अपूर्ण). प. १-२१ Beginning: सधे भणंति लोया अम्हाणं अत्थि निम्मलो बोहो । बोह-सुवनयवनी लभिजइ समय-कसवट्टे ॥ (४) सामाचारी (प्रकीर्ण अपूर्ण). (५) ज्ञातासूत्र (वर्ग ९). प. २-१८३, १५६४२" [७६] (६) प्रतिक्रमणसूत्रवृत्ति (अपूर्ण ). प. २-५१; १५:"xt" [५९] (७) पर्युषणाकल्पसूत्र(सभाष्य). त्रुटित प. २१२ । Pras'asti of the Donor: पायाद् वः पूर्वतीर्थस्य शिखाली श्रोत्रयोरधः । दग्धाष्टकर्म-कक्षस्य धूमलेखेव लक्ष्यते ॥ १॥ भूयात् सद्भाविनां भूरिभग्नसंसार-विभ्रमः । खर्मोक्ष-फलदः स्वामी श्रीवीरः कल्पपादपः ॥२॥ अस्ति भूमंडलव्यापी वंशो वंशोत्तमः किल । श्रीमच्छीमाल इत्याख्यो लक्षशाखाभिर्विस्तृतः ॥ ३॥ प्रसिद्धपुरुषप्रक्षा(?ख्या) यस्य च्छायानिषेविनः । इहैवाद्यापि दृश्यते तद्विदः श्रुतिकोविदाः ॥ ४ ॥ तद्वंशसंभवो जैनश्रेयसेनःप्रखंडनः । बभूव बूटडिश्रेष्ठी सुदृष्टिः श्राद्धसत्तमः ॥ ५॥ पत्नी धांधलदेवीति शीलस्वकुलपावनी । हंसश्च खेलते यस्या जैनश्रेयः सुमानसे ॥६॥ तत्तनूजो जितक्रोधस्तेज पालोस्ति धर्मधीः । यस्यायजिनपदाब्जे श्रृंगवद् भ्रमते मनः ॥ ७॥ शीलसद्गुषवः खच्छा लच्छीसंज्ञास्ति तद्वधूः । जैनपुण्यायने रका सद्गुरु]प्रणतौ नता ॥८॥ पवित्र-चारु-चारित्र-रखराशि-महार्णवः । गणिश्रीदेवभद्रोभूत् संयमामृतसंभृतः ॥ ९॥ 50 Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 394 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS तत्पट्ट-व्योम-सोमस्य सदा सद्वृत्तशालिनः । श्रीमद्विजयचंद्रस्य सूरिणः सद्गुरोर्मुखात् ॥ १० ॥ आकर्ण्य कर्ण-सुखदां विशदां धर्मदेशनां । ततः संजातसद्भावः सिद्धांतोद्धारकारणे ॥ ११ ॥ अथ पर्युषणाकल्पमनल्पश्रेयसः पदं । विभाव्य व्यक्तवर्णाट्या लेखयामास पुस्तिकां ॥ १२ ॥ यावचंद्र-दिवानाथौ यावद् व्याहा(व्योम) वसुंधरा । विबुधैर्वाच्यमानासौ तावन्नंदतु पुस्तिका ॥ १३ ॥ संवत् १३३१ श्रावणवदि ११ रवौ पुस्तिका लिखितेति शिवमस्तु श्रावकेभ्यः ॥ [७५] (८) ललितविस्तरा (त्रुटित ). [१९] (९) कर्मस्तव. प. १-६ (१०) , भाष्य. गा. २७ प. ६-९ (११) कर्मविपाक by गर्गर्षि. प. ९-२३ (१२) शतक by शिवशर्म. प. २४-३४ (१३) सत्तरि (सप्तति ) by चन्द्रर्षि. प. ३४-४२ (१४) षडशीति by जिनवल्लभ. प. ४२-५२ (१५) सार्धशतक by जिनवल्लभ. प. ५२-६७ . (१६) बृहत्सङ्ग्रहणी by जिनभद्रगणि. प. ६७-११२ (१७) प्रकरण (जीर्ण त्रुटित ). प. ११२-११५ [८] (१८) भावनाप्रकरण (अपूर्ण). प.१-६३ End: आश्रवभावना। यथा चतुष्पथ[स्थस्य बहुद्वारवेश्मनः । अनावृतेषु द्वारेषु रजः प्रविशति ध्रुवं ।। ८३ ॥ प्रविष्टं स्नेहयोगाच्च तन्मयत्वेन बध्यते । न विशेन्न च बध्येत द्वारेषु स्थगितेषु च ॥ ८४ ॥ यथा वा सरसि कापि सर्वैारैर्विशेजलं । तेषु तु प्रतिरुद्धेषु प्रविशेन मनागपि ॥ [६९] (१९) आगमिकवस्तुविचारसार-विवरण by यशोभद्रसूरि. प. १८१; १४४१३ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Beginning: End: No. III SANGHA BHANDARA आगमिकवस्तुगोचर - विचारसारप्रकरणपदजाता । कासौ श्रीजिनवल्लभस्य रचना सूक्ष्मार्थचचचिता केयं मे मतिरप्रिमाप्रणयिनी मुग्धत्व पृथ्वीभुजः ! । पंगोस्तुंगनगाधिरोहणसुहृद् यत्नोयमायांस्ततो [s] सद्ध्यान- व्यसनार्णवे निपततः स्वांतस्य पोतोर्पितः ॥ 395 इत्यागमिक वस्तु विचारसारप्रकरण- विवरणं ॥ शब्देककारणतयाद्भुतवैभवेन सद्भावभूपिततया ध्रुवतानुवृत्त्या । पुष्णात्यखंडमिह यद्गमनेन संख्यं चांद्रं कुलं तदवनावविगीतमस्ति ॥ तत्त्वो (नित्यो) दितः प्रतिदिनं स्मरमत्सरादिदैतेयनिर्दय विमर्दनकेलिलोलः । विश्वेप्यधृष्यमहिमा सवितेव सूरिः श्री शीलभद्र इति विश्रुतनामधेयः ॥ २ ॥ बहुपरिभवातिदीना येन स्वात्मनि गुणा: सबहुमानं । न्यस्ताः संप्रति कृतयुगमुनिविपयविषाददलनाय ॥ ३ ॥ तस्याभवद् भुषनवल्लभभाग्यसंपत् सूरिर्धनेश्वर इति प्रथितः सुशिष्यः । अद्याप्यमंदमतयो ननु यत्प्रतिष्ठामादित्सवः किमपि चेतसि चिंतयंति ॥ ४ ॥ सूक्ष्मार्थ - सार्धशतकप्रकरण विवरणमिषेण । स्वस्य यशो मलयजमिव लोकानां हृदयानि मुखानि भूषयति ॥ ५ ॥ येन विविधस्तवादिप्रपंच पेयूष समर्पितनिपुणाः । के के पाय पायं न भवंति रुजार्त्तिनिर्विमुक्ताः ? ॥ ६ बाल्यादपि वलमांसभव - रिपुपृतना पराभवारंभः । अजनि नय-विनयसदनं तयोर्विनेयेषु यस्तिलकः ॥ ७ ॥ बोधावधारण- विरोधनिरोध- धर्मोपायप्रदर्शन - परोपकृता दिशक्त्या । यो रोचकं व्यरचयश्चतुराशयेषु प्रायेण विश्रुतगुणेष्वपि सज्जनानां ॥ ८ ॥ नृपतिरजयदेवो देव - विद्वन्मनीप मददलन विनोदैः कोविदैस्तुल्यकालं । स्थितिमुपधिविरुद्धां मागधीयामधत्ता स्खलितमखिल विद्याचार्यकं यस्य दृष्ट्वा ॥ ९ ॥ अर्णोराजनृपे सभापरिवृढे श्रीदेवबोधादिषु प्राप्तानेकजये......[सा]क्षिषु स दिग्वासः शिरः शेखरः 1 Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 896 PATTAN CATALOGUE OF MANUNORIPTS सद्विद्योपि गुणेंदुरंतरुदितक्षोभोद्भवद्वेपथु हेतुं यस्य निशम्य मंतुविमुखं तत्याज वाच(चो) प्रतं ॥ १०॥ यस्य....पांडुर्धमति दश दिशः कीर्तिरुत्साहितेव घाटं द्रष्टुं त्रिलोक्याः सुरभितभुवनैस्तैः पवित्रैश्चरित्रैः। तस्य श्रीधर्मसूरेनिरवधिधिषणा......शिष्यलेशः स्मृत्यै स्वस्येदमल्पं विवरणमकृत श्रीयशोभद्रसूरिः ॥११॥ मृदुमतिपरिस्पंदाद् यद्वावधानवियोगतो यदिह विवृतं किंचित् कुदर्शनबाधया । सदखिलमपि क्षुद्राचारानुवृत्तिपराअखैविदितविशदानायैः सम्यग् विशोथ्यमशंकितैः ॥ १२ ॥ षडशीतिवृत्तिः श्रीयशोभद्रसुरिकता ॥ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. IV Tapāgachha Bhandāra. (फोफलियावाडा आगलीशेरी-भण्डार) १. कर्मप्रकृतिवृत्ति (द्वितीयखण्ड ) by मलयगिरि. प. २४७; १७°४२१" Colophon: - संवत् १३३१ वर्षे प्रभुश्रीविजयचंद्रसूरिश्रमणोपासकसाहुरत्नपाल साहुसामंतसीह आत्मश्रेयोर्थ कर्मप्रकृतिवृत्तिद्वितीयखंड लिषापित वीजापुरीयपौषधशालायां प्र० श्लो० ४५७७ २. धर्मरत्नवृत्ति by शान्याचार्य. प. १७१; १६०x१३" Colophon: संवत् १२७१ वैशाष सुदि ८ गुरौ प्रीमति-देवसिरि-पूनमतिश्च आत्मश्रेयोर्थ पुस्तिका कारिता। ३. सूक्ष्मार्थविचारसारोद्धार (सार्धशतक)वृत्ति by धनेश्वरसरि. प. १५०; (१४९ तमं पत्रं लुप्तम् ) १४°४२" ४. (१) प्रशमरति by उमास्वाति. प. १-४९, १२३४१" (२) पथक्खाणवियार by शालिभद्रसूरि. प. १-२३ Beginning:-- ओं नमः सरस्वत्यै । केवलपञ्चक्खेणं पञ्चक्खसमत्थवत्थुवित्यारं । पाक्खं जोइणं सिरिवीरजिणेसरं नमिउं ॥ १॥ वोच्छं पञ्चक्खाणे वियारणं समयतंतजुत्तीए । स-परोवयारहेउं दाराणुगयं समासेणं ॥ २ ॥ End: पञ्चक्खाणवियारणमेयं सिरिसालिभद्दसूरिणा रइयं । जं एत्थ किं पि वितहं तं गीयत्था विसोहिंतु ॥ २३७ ॥ ५. प्रवचनसारोद्धारवृत्ति (द्वार १-१२९). प. २९८, २६°४२' Beginning: संनद्धैरपि यत् तमोभि etc. . . ६. (१) आवश्यकनियुक्ति. . प. १४८+१; १५°४३' Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 398 Beginning: PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS ओं नमः सर्वज्ञाय | यत्पादद्वितयावनम्रशिरसो भव्यासुमंतोनिशं जायंते सकलार्थसिद्धिसुभगास्त्रैलोक्य लोकोत्तमाः । श्री सिद्धार्थ नरेंद्रवंश विलसद्रत्नत्रयी पोपमः श्रीमद्वीर जिनेश्वरः स दिशतां नित्यं पदं भाविनां ॥ १ ॥ श्रीमालवंशोन्नतिकारणोभूत् श्रेष्ठी पुरा झांझणनामधेयः । पत्नी च तस्याजनि जयतुलाख्या सद्दान - शीलादिगुणैकभूमिः ॥ २ ॥ तत्पुत्रः श्राद्धधुरोऽजनि जनितनयो लूणसिंहाभिधानो लीलादेवीति नाम्ना प्रथितगुणगणा प्रेयसी तस्य चासीत् । तत्पुत्रश्चाजनिष्ट प्रथमदृढबर: श्रावको मुंजनामा मालाख्यश्च द्वितीयोऽजनि गुणनिभृतः साहकाख्यस्तृतीयः || ३ || आद्या सुवा माणिकनामधेया सोषीति नाम्ना प्रथिता द्वितीया । पूजीति च ख्यातिमगात् तृतीया धुनीति नाम्ना विविता च तुर्या ॥ ४ ॥ एता विरेजुः शुभभावपूर्णा लावण्यसिंहस्य सुताश्चतस्रः । चतुष्कषायज्वलनोपशान्त्यै पीयूषकुल्या इव मूर्तिमत्यः ॥ ५ ॥ पुण्याशया पंडित कीर्तिगणिभ्य एताभिरुदारधीभिः । अदीयतावश्यक पुस्तिकेयं सिद्धांतभक्त्या किल लेखयित्वा ॥ ६ ॥ नग - नगर - निवेशैर्मंडिता भूतधात्री जगति जयति तावत् वीरतीर्थं च यावत् । भवभयपरिमुक्तैः साधुभिर्वाच्यमाना भुवि जयतु नितान्तं पुस्तिकावश्यकस्य ॥७॥ Colophon: संवत् १३९१ वर्षे तिमिरपुरवास्तव्यलावण्यसिंह भार्यया लीलादेव्या पं. हर्षकीर्तिगणिभ्य आवश्यकपुस्तिका वाचनाय प्रदत्ता ॥ ५ ॥ (२) आवश्यकपीठिकाव्याख्या. प. १-१३ ७. (१) छन्दोऽनुशासनवृत्ति by हेमचन्द्र प. १ - १२३; १५ ४२ (२) काव्यानुशासनवृत्ति (अलङ्कारचूडामणि ),, प. १२४-२५२ Colophon:-- ग्रं. २८०० । ५ । संवत् १३९० वर्षे चैत्रसुदि २ सोमे श्रीस्तंभतीर्थे लिखितमस्ति । ५ । शुभं भवतु । ६ । ८.. (१) जीतकल्पचूर्णि ( बृहत् ). प. १ - ११० १२३x२}" Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. IV TAPĀQACHAA BHANDARA 399 Beginning: सिद्धत्थ-सिद्धसासण-सिद्धत्थसुयं सुयं च सिद्धत्थस्स । वीरवरं वरवरदं वरवरएहिं महियं नमह जीवहियं ॥ १॥ End: इति जेण जीयदायाणं साहूण तियारपंकपरिसुद्धिकरणं । गाहाहिं फुडं रइयं महुरपयत्थाहिं पावणं परमहियं ॥ जिणभद्दखमासमणं निच्छ यसुत्तत्थवा(दा)यगामलचरणं । तमहं वंदे पयओ परमं परमोवगारकारिणं महग्यं ।। जीयकप्पचुण्णी समत्ता ।। ७ । ग्रंथानं १३०० । छ । मंगलं महाश्रीः । (२) जीतकल्पचूर्णिव्याख्या by श्रीचन्द्रसूरि. प. १-१०८ Beginning: ओं नमो वीतरागाय । नत्वा श्रीमन्महावीरं परोपकृति हेतवे । जीतकल्पबृहचूर्णेाख्या काचित् प्रकाश्यते ॥ १ ॥ End: इति जीतकरूपचूर्णिविषया व्याख्या समाप्ता । छ । जीतकल्पबृहचूर्णी व्याख्या शास्त्रानुसारतः । श्रीचंद्रसूरिभिर्दब्धा स्व-परोपकृतिहेतवे ॥ १॥ मुनि-नयन-तरणिवर्षे श्रीषीरजिनस्य जन्मकल्याणे । प्रकृतग्रंथकृतिरियं निष्पत्तिमवाप रविवारे ॥ २ ॥ संघ-चैत्य-गुरूणां च सर्वार्थप्रविधायिनः । वशाभयकुमारस्य वसतौ दृब्धा सुबोधकृत् ॥ ३ ॥ एकादशशतविंशत्यधिकश्लोकप्रमाणग्रंथानं ११२० । ग्रंथकृतिप्रविवाच्या मुनिपुंगवसूरिभिः सततं ॥ ४ ॥ यदिहोत्सूत्रं किंचिद् दृब्धं छद्मस्थबुद्धिना च मया । तन्मयि कृपानुकलितैः शोध्यं गीतार्थविद्वद्भिः ॥ ५ ॥ प. १०७प्रथाप्र ११२० । समाप्ता चेयं श्रीशीलभद्रप्रभुश्रीधनेश्वरसूरिपादचंचरीकश्रीश्रीचंद्रसूरिसंरचिता जीतकल्पवृहचूर्णिदुर्गपदविषया निषी(शी)थादिशास्त्रानुसारतः संप्रदायाच सुगमा व्याख्येति । Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 400 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS यावल्लवणोदन्वान् यावन्नक्षत्रमंडितो मेरुः। खे यावच्चंद्रार्को तावदियं वाच्यतां भव्यैः ॥ इति । Colophon: संवत् १२८४ वर्षे फागुणशुदि ७ सोमे मंगलं महाश्रीः । शुभं लेखकपाठकयोः। प. १०८ शुभ्रांशु वि वस्तुपालसचिवस्त्यागोस्य चंद्रातप स्तेनोन्मीलितमर्थि-कैरवकुले यत् तु श्रियस्तांडवं । तस्याः पादतलप्रपातरभसोडीनैरिवोड्डामरै स्तेनातस्तरिरे तरंगितयश:-किंजल्कजालैर्दिशः ॥ ३७॥ विश्वेस्मिन् कस्य चेतो हरति नहि समुल्लास्य विश्वासमुच्चैः प्रौढश्वेतांशुरोचिःप्रचयसहचरी वस्तुपालस्य कीर्तिः । मन्ये तेनेयमारोहति गिरिषु भिया लीयते गहरेषु स्वर्गोत्संगानुपास्ते भजति जलनिधिं याति पातालमूलं ॥ ३८ ॥ एतेभ्यः प्रभुणा सगौरवमहं तावत् प्रदत्ता परं देशं देशममी भ्रमंति तदहं गच्छाम्यमीभिः समं । नो चेत् काप्यपरा मिलिष्यति वधूस्तत्रेति भीत्या ध्रुवं कीर्तिर्यस्य गुणानु भ्रामति स श्रीवस्तुपालः कृती ॥ ३९ ॥ सोयं धात्री धवलयति को घस्तुपालोचलेंद्र___ स्तस्मादाविर्भवति समरे कापि दोस्फूर्तिगंगा । यस्यां मनाः प्रतिवसुमतीवल्लभानां समंतात् संपते खलु पुनरनावृत्तये कीर्तयस्ताः ॥ ७ ॥ ९. (१) गौडवध( उद्धृतगाथा). गा. १७६ १. १-२३, १४°४२" Beginning: इह ते जयंति कइणो जयमिणमो जाण सयलपरिणामं । वायासु ठियं दीसइ आमोयषणं व तुच्छं व ॥ १॥ End: महधूमलया एयस्स सुचरियाहूयतियसणाहस्स । सुरकरिणो बहलमयंबुसामला सहइ सरणि व ॥ [१] ७६ ॥ - (२) स्त्रीनिर्वाण-केवलिभुक्ति. प. २४-११ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 401 No. IV TAPĀGACHHA BHANDĀRA Beginning: इह च ये स्त्रीनिर्वाणं प्रति विप्रतिपद्यते, त एवं बाच्याः । इह खलु यस्य यत्र संभवो न तस्य तत्र कारणावैकल्यं यथा शुद्धशिलायां शाल्यंकुरस्य । अस्ति च तथाविधस्त्रीषु मुक्तेः कारणावैकल्यं । न चायमसिद्धो हेतुर्यतोऽस्यासिद्धत्वं । किं स्त्रीणां पुरुषेभ्योऽपकृष्यमाणत्वेनाहोखिन्निर्वाणस्थानाद्यप्रसिद्धत्वेन निर्वाणसाधकप्रमाणाभावेन वा? End: एवमुत्तरचरादिकमपि न केवलित्वेन विरुध्यत इति स्थितं कवलाहार-सर्वज्ञत्व. योरविरोधादिति हेतुः सिद्धिवधूसंबंध इति ॥ (३) योगविधिप्रकरण. प. १-३४ Beginning: अथ योगविधिप्रकरणं । आगमग्रंथार्थयोगहेतुत्वाद् योगा आचाम्ल-निर्विकृतिकरूपास्तपोविशेषास्ते च द्विधा आगाढा अनवगाढाश्च । १०. हैमबृहकत्ति (तद्धित). प. ३८५; १६"४२३" Colophon: संवत् १२९७ वर्षे कार्तिकवदि ११ रवौ तद्धितबृहद्वृत्तिपुस्तिका लिखितेति । भन्न etc. यादृशं । शुभं भवतु मंगलं महाश्रीः ॥ ७ ॥ ११. उत्तराध्ययनलघुवृत्ति( सुखबोधा )by देवेन्द्र (नेमिचन्द्रसूरि). प. ४२८; ३१°४२}" ११. सारखतीप्रक्रिया. प. १४३, १३"४२३" १३. सङ्ग्रहणीवृत्ति by मू. जिन भद्र, वृ. शालिभद्रसूरि. __प. २-२५७; १२३°४२ End संग्रहणीवृत्तिमिमां कृत्वा यदवापि पुण्यमत्र मया । तेनागमसंग्रहणीप्रवणोस्तु सदैव भव्यजनः ॥ १ ॥ यदनवबोधानुपयोगतः किमिति(मपि) विवृतमन्यथात्र मया । तच्छोध्यं सूरिवरैः कृतांजलिः प्रार्थयेहमिति ॥ २॥ थारापद्रपुरीयगच्छनलिनीषंडैकचंडद्युतिः सूरिः पंडितमूर्धमंडनमणिः श्रीशालिभद्राभिधः । आसीत् वस्य विनेयतामुपगतः श्रीपूर्णभद्राह्वयः तेपा शिष्यलवेन मंदमतिना वृत्तिः कृतेयं स्फुटा ॥ ३ ॥ 51 Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 402 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS एकादशवर्षशतैर्नवाधिकत्रिंशताब्दकैर्यातैः । विक्रमतोरचयदिमां सूरिः श्रीशालिभद्राख्यः ॥ ४ ॥ सहस्रद्वितयं साधं ग्रंथोयं पिंडितोखिलः । द्वात्रिंशदक्षरश्लोकप्रमाणेन सुनिश्चितः ॥ ५ ॥ शुभं भवतु। १४. उपमितिभवप्रपञ्चा (चतुर्थखण्ड) by सिद्धर्षि. प. २४०; १५३०४२ अथास्ति जगदाह्रादं etc. Colophon: संवत् १२६१ ज्येष्टशुदि ४ सोमे ले० सोहडेन समाप्तेति । खस्तिश्रीविक्रमतः संवत् १२७४ वर्षे नागसारिकायां श्रीमालवंशालंकारेण वरयुवति(?)तारसारहारेण] श्रे० छाडू-यशोदेवीनंदनेन निखिलविवेकिजनानंदनेन जिनवचनातिश्रावकेण श्रे० आम्बूसुश्रावकेण पत्नीलक्ष्मीसुतआशापालसहितेन ज्ञानार्थिसाधुहितेन एषा उपमितिभवप्रपंचा चरमचतुर्थखंडपुस्तिका गृहीतेति ।।७। शुभं भवतु श्रीसंघस्य छ ॥ ७ ॥ १५. (१) हैमबृहद्वृत्ति (अ. १-२). प. ३०४; १२"४२३" (२) हैमगण (अ. ३-७). प. ३०४-३५१ Contains 4 pictures showing the king Siddharaja requesting Hemachandra to write a new grammar and others illustrating carrying of the Vyakarana on the back of the elephant etc. १६. (१) आवश्यकनियुक्ति. प. १-२३२; १५३"४२१ Colophon: - संवत् १३११ वर्षे लौकिकज्येष्टव दि १५ रवावयेह स्तंभतीर्थे महं श्रीकुम्वरसीहप्रतिपत्तौ संघ० वील्हणदेवियोग्या आवश्यकसूत्रपुस्तिका लिखिता।७ । मंगलमस्तु समस्तश्रीश्रमणसंघस्य । गा. २५०० (२) अन्तरङ्गसन्धि (अपभ्रंश). प. १-१२ Beginning: पणमवि दुहखंडण दुरियविहंडण अगमंडण जिण सिद्धिठिय । मुणिकन्नरसायणु गुणगणभायणु अंतरंग मुणि संधि जिय ॥ १॥ इह अस्थि गामु भववासनामु बहुजीवठामु विसयाभिरामु । दीसंति जत्थ अणदिवछेह-बहुरोग-सोग-दुहु जोग-गेह ॥ २ ॥ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 No. IV TAPĀGACHHA BAANDĀRA 408 End: अहि-अंतह कारणु विस-उत्तारणु जंगुलिमंतह पढणु जिम । कयसिवसुहसंधिहि एह सुसंधिहि चिंतणु जाणु भविय! तिम ॥ १८ ॥ . इति अंतरंगसंधिः समाप्तः । इति नवमोधिकारः । Colophon: संवत् १३९२ वर्षे आषाढशुदि २ गुरौ ग्रंथाप्रश्लोक २०६ श्रीधर्मप्रभसूरिरत्नप्रभकृतिरियं ॥ १७. (१) जीवविचार (अपूर्ण). प. ५९-६० (२) ऋषिमण्डल (भत्तिब्भर०). प. ६०-६८ (३) भावनाकुलक by यशोघोष. प. ८०-८३ End: इय जो चउविहधम्म सम्म पालेइ कुणइ जहसत्ती । सिरिजसघोसनिहाणं होऊण सिवं स पावेइ ॥ ४५ ॥ (४) आत्मसम्बोधकुलक by भुवनतुङ्ग. प. ८३-८६ End: भवविरत्ताण सत्ताण सत्ताण अणुसासणं भणियमेयं ति जे करिंति भवनासणं । सिरि भ(भु)वणतुंगठाणमि लहु ते जिया भुक्खि विलसंति घणकम्म-मलवज्जिया ॥ ४३ ॥ आत्मसंबोधकुलकं समाप्तं ॥ (५) चउसरण. गा. २५ प. ८६-८९ (६) पिण्डविशुद्धि. गा. १०४ प. ८९-९६ (७) अजितशान्ति. गा. ४४ प. ९६-९९ (८) लघुअजितशान्ति, गा. ९ प. ९९-१०० Beginning: गम्भ अवयार सोहम्मसुरसासिओ etc. (९) सतीकुलक [१]. प. १००-१०१ (१०) , [२]. गा. १२ [२]. गा. १२ प. १०१-१०२ . (११) . . कुलक. गा. २५ प. १०२-१०३ . End: संसार-विसमसायरभवजलवडियाण संसरंताणं । (१२) कुलक. गा. २२ प. १०३-१०५ . Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 404 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS Beginning: जम्म-जरा-परणजले नाणाविहवाहि-अलयराइने । भव-सायरे अपारे दुलहं खलु माणुसं जम्म ॥ १ ॥ १८. (१) जीतकल्पवृत्ति by तिलकाचार्य. अं. १००० प. १-१४९ (२) श्रावकसामाचारी (प्रायश्चित्त ) by तिलकाचायें. प. १५०-१५१ Beginning सिरिवीरजिणं नमिउं पच्छिन्तं साधयाण बुच्छामि । वीमंसिऊण बहुसो सामायारीउ विहिलाओ १॥ End: सिरिचकसूरिमठाहिव-सिरिसिवपहसूरिसीसलेसेहिं । एसा सामायारी रझ्या सिरितिलयसूरीहिं २०१३ (३) श्रावकसामाचारीव्याख्या. म, १५१-१५९ Beginning: प्रणिपत्य जिनं वीरं श्रावकाणां विशुद्धिकृत् । प्रायश्चित्तं स्वगाथोक्तं व्याख्यामि सुखबुद्धये ॥ १ ॥ End: इति श्रीतिलकाचार्यगुंफितः श्रावकप्रायश्चित्तसामानातिनिधिः । (४) पोषधिकप्रायश्चित्तसामाचारी. ग्रा. १० प. १५९-१६१ Beginningim पोसहिओ न करेइ आवसियं वा निसीहियं वा वि । कुणइ य मुत्तुच्चारे थंडिलपडिलेहणाइ धिणा ॥१॥ End: एताः पौषधिकप्रायश्चित्तसामाचारीगाथाः। (५) पौषधिकप्रायश्चित्तसामाचारीवृत्ति. प. १६१-१६३ Endiner इति श्रीतिलकाचार्यगुंफितः पौषधिकप्रायश्चित्तसामाचारीविधिः ४ ॥ . (६) जीतकल्प(सूत्र). प. १६४-१७५ Colophon: बभूव लक्ष्मणाः भाद्धः सपूना तस्य गहिनी । सिंहमामा तयोः पुत्री शंभूनानी च पुत्रिका ॥ Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. IV TAPĀGACHHA BRANDĀRA 105 सिंहसूर्यशोदेवः संलुकाकुशिभूः सत्र । मुक्तिनं जीतकरूपस्य श्रेयसैलेखयत् पितुः ॥ २॥ १९. उत्तराध्ययन (मूल अ. ३५ अपूर्ण ). प. १६३; १४४१५ ९०. कथासङ्ग्रह. प. २०८, १६३"४२१ (१) प्रत्येकबुद्धकथा. प. १-२२ (२) नलकथा (ते). प. २२-४९ (३) प्रदेशिचरित. गा. २०२ प. ४९-६२ (४) आर्द्रकुमारकथा. गा. १७० प, ६२-७० (५) सिंह-व्याघ्रकथा (क्रोधे ). प. ७०-९० (६) गोधनकथा (माने ). प. ९०-९८ (७) नागिनीकथा (मायायाम् ). ग्रं. ११३ प. ९८-१०३ (८) सागरकथा (लोभे). गा. ९९ प. १०३-१०९ (९) देवपालकथा (पूजायाम् ). (१०) सम्प्रति-अवन्तिसुकुमालकथा. गा. ११९ -१५२ (११) प्रद्युम्न-साम्बचरित. गा. ८४९ प. १५३-२०० Beginning: शामिरमुरासुरमणिमउडकोडिमसिमियपापारविंदस्स । मालाणविल्लिकंदस्स पणमिमो नेमिचंदस्स ॥ १ ॥ Endir जाण पहावेण जणे वि किं पि (सम ?) सरचरिमकित्तणं कुणह । ते भामसूरिगुरुणो गुणनिहिणो विजइणो हुंति ॥ ८४१ ॥ इति......पजुन्न-संबचरितं समर्थितमिति ॥ (१२) धनदेव-धनदत्तकथा ( दाने ). प. २००-२०८ Colophon: संवत् १३९८ वर्षे पो. शुदि ७ सोमे कथाद्वयं लिखितमिति । २१. (१) पर्युषणाकल्पसूत्र. प. १-११५७ १३३°४२" (२) , नियुक्ति. गा. ६७ प. ११८-१२५ KR) , चूर्णि. स. १२७-१९५ End: पजोसवणाकप्पचुण्णी अहमज्झयणं परिसमत्तं ॥ Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS संबंधो सत्तमासियं फासित्ता आगते तेह वासाजोगं उवहिं उप्पाएइ । वासाजोगं च खेत्तं पडिलेइ । एएण संबंघेण पज्जोसणाकप्पो सम्मत्तो । तस्स दारा चार अधिकारे जोगेण खेत्तेण उवहिणा य जायवासासु मज्जाया । (४) कालकसूरिकथा. प. १९६-२१२ 406 Beginning: End:-- अणुसरि आगमवणं सिरिका लयसूरिजुग पहाणेहिं । पज्जोसवणचउत्थी जह आयरिया तह सुणेह ॥ १ ॥ सूरी वि य कालेणं जाणित्ता निययआउपरिमाणं । संहणं विडं असणविहिणा दिवं पत्तो ॥ ५ ॥ श्रीकालिकाचार्यविरचिता [ पर्युषणाचतुर्थी ] कथा समाप्ता । एवं गाथा १३२ Colophon:— संवत् १३७७ वर्षे कार्त्तिक सुदि १५ शुक्रे पेरंभ ( ? ) द्वीप संघ० लूणाकेन पर्युषण कल्पपुस्तिका लिखापिता ॥ २२. (१) दशवैकालिक. (२) पाक्षिकसूत्र. (३) ओघनिर्युक्ति. (४) पिण्डविशुद्धि. (५) उपदेशमाला. (६) पुष्पमाला. (७) भवभावना. (८) विवेकमञ्जरी. (९) उपदेशकन्दली. प. १ - ३७; १३x२" प. ३७-५४. प. ५५-१२२ प. १२३ - १२९ प. १२९-१६५ प. १६५ - १९६ प. १९६ - २३० प.. २३० - २३९ प. २३९-२४८ (१०) सङ्ग्रहणी by श्रीचन्द्र. प. २४८-२६६ (११) जम्बूद्वीपसङ्ग्रहणी by हरिभद्र. प. २६६-२७५, (१२) योगशास्त्र ( ४ प्रकाश ). प. २७५ - ३०४ (१३) वीतरागस्तव (२० प्रकाश ). प. ३०५ - ३१६ Colophon: संवत् १३७२ वर्षे आषाढ व १४ शनौ स्तंभतीर्थे श्रीउपाध्याय मिश्राणां . आगमिकगच्छे पुस्तिका ॥ ६ ॥ . Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. V Bhandār of Mahālaxmi Pādā (महालक्ष्मीपाटक-भाण्डागार). १. हैमशब्दानुशासनबृहद्वृत्ति ( कृदन्त ). ___प. २८६-५३२; १५०x२' २. , (अ. २, पा. ३;-अ. ३, पा. २) प. २०२ ३. , (अ. ३, पा. ३;-अ. ४, पा. ३). प. २५०; १५३४२° ४. (१) उत्तराध्ययन. प. १७८ Pras'asti of the Donor: आशाधरामृतादेव्यो [:] सुतः सर्वजनप्रियः । ख्यातो जगति शाकल्ये कुलचंद्रेणेति नाना ॥ अंबिका तस्य संपन्ना पुत्रिका विनयान्विता । ............देशेन पुस्तिकेयं लिखापिता ॥ नंदतु ताव[] धरित्र्यामेषा भो पुस्तिका महा । जा(या)वन्निशीथिनीनाथो तथा मार्तडमंडलं ॥ भद्रमस्तु । (२) कुशलानुबन्धि. (३) आतुरप्रत्याख्यान. । प. २६-४४ (४) भक्तपरिज्ञा. (५) संस्तारकप्रकीर्ण. Colophon:संवत् १३६९ फागण सुदि ८ रवौ स्तंभतीर्थे लिखितं । ५. (१) सूक्तसङ्ग्रह by लक्ष्मण. प.१-६६ Beginning: ओं नमः सरस्वत्यै । सूक्तरत्नसुधासिंधुं ध्यात्वा श्रीश्रुतदेवता । सूक्तानां संग्रहं चक्रे लक्ष्मणो लक्षसूक्तिकः ॥ Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 408 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS End: वल्लभागमनानंदनिर्भरे हृदये सति । वद कुत्रावकाशोस्ति मानस्य मन सांप्रतं ॥ . ग्रंथान ॥ ६८० ॥ (२) चैत्यवन्दनसूत्रव्याख्या by हरिभद्र. प. १-४६ Beginning: प्रणम्य मुवनालोकं महावीरं जिनोत्तमं । चैत्यवंदनसूत्रस्य व्याख्येयमभिधीयते ।। ऐयोपथिकीप्रतिक्रमणपूर्वकं चैत्यवंदनमित्युक्तं । सत ऐयोपथिकीसूत्र बाख्या... End:___ आचार्यहरिभद्रसूरिकृता चैत्यवंदनटीका समाप्ता । शुभं भवतु सर्वदेव श्रीश्रमणसंघस्म मंगलं महाश्रीः। (३) पिण्डविशुद्धिदीपिका by उदयसिंह. प. ०२; १३°४१३" End: समाप्ता चेयं पिंडविशुद्धिदीपिका । विविधविलसदर्थ सुविशुद्धाहारमहितसाधुजनं । श्रीजिनवल्लभरचितं प्रकरणमेतन कस्य मुदे ॥१॥ मादृश इह प्रकरणे महार्थ(ई)पंक्ती विवेश बालोपि । यद्धृत्त्यंगुलिलमस्तं श्रयत गुरुं यशोदेवं ॥ २ ॥ आसीदिह चंद्रकुले श्रीश्रीप्रभसूरिरागमधुरीणः । तत्पदकमलमरालः श्रीमाणिक्यप्रभाचार्यः ॥ ३ ॥ तच्छिष्याणुर्जडधीरात्मविदे सूरिरुदयसिंहाख्यः । पिंडविशुद्धवृत्तेरुद्दधे दीपिकामेनां ॥ ४ ॥ अनया पिंडविशुद्धेर्दीपिकया साधवः करस्थितया । शस्यावलोककुशला दोषोत्थतमांस्यपहरंतु ॥ ५ ॥ विक्रमतो वर्षाणां पंचनवत्यधिकरविमितशतेषु । विहितेयं श्लोकैर्यदिह सूत्रयुता व्यधिकसप्तशती ॥६॥ एषा पिंडविशुद्धिसाधनधियां बोधात्मिका दीपिका ___ तन्वाना विशदप्रभापरिचयं दूरे हरती तमः । श्रेय:श्रीकरसंगमेन द्धती सत्पात्रशोभा परां . . विद्वद्भिः स्वपरप्रकाशनकृते नेहेन संपुष्यतां ॥ ७ ॥ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 409 No. V BAANDĀRA OF MAHĀLAXMI PADA इति श्रीउदयसिंहाचार्यविरचिता पिंडविशुद्धिदीपिका व्यधिकश्लोकसप्तशतप्रमाणा समाप्ता ॥ ७ ॥ ६. (१) ओघनियुक्ति. प. १०६; १५३"४२" (२) पिण्डनियुक्ति. प. १०७-१७५ ७. प्रकरणसङ्ग्रह. प. ३३६; १२३"४२३ (१) दशवकालिक. ग्रं.७०० प. १-३५ (२) पाक्षिकसूत्र. ग्रं. ३०० प. ३५-५० (३) यतिप्रतिक्रमणसूत्र. ग्रं. ५० प. ५०-५४ (४) उपदेशमाला. गा. ५४४ प. ५४-८८ (५) कुसुममाला. गा. ५०५ प. ८८-१२१ (६) भवभावना. गा. ५३२ प. १२१-१५२ (७) सङ्ग्रहणी. गा. २७३ प. १५२-१६९ (८) विमानविचार. गा. ५२ प. १६९-१७२ (९) लोकनालिका. गा. ३८ प. १७२-१७४ (१०) पल्योपमविचार. गा. १५ प. १७४-१७५ (११) कृष्णराजीविचार. गा. १४ प. १७५-१७६ (१२) जम्बूद्वीपविचार. गा. ११२ प. १७६-१८१ (१३) जम्बूद्वीपसङ्ग्रहणी. गा. २६ प. १८१-१८३ (१४) जम्बूवृक्षविचार. गा. १९ प. १८३-१८४ (१५) पातालकलश-लवणशिखाविचार. गा. ११ प. १८४-१८५ (१६) अन्त:पविचार. गा. ९ प. १८५-१८६ (१७) एकविंशतिस्थानक. प. १८६-१८९ (१८) नवतत्त्वविचार. गा. ५३ प. १८९-१९२ (१९) जीवविचार. गा. ५१ प. १९२-१९५ (२०) उपदेश.. गा. १४ प. १९५-१९६ (२१) दर्शनचतुर्विंशति. गा. २४ प. १९६-१९७ (२२) पिण्डविशुद्धि. गा. १०४ प. १९७-२०३ (२३) उपदेशकन्दली. गा. १२२ प. २०३-२१० (२४) विवेकमञ्जरी. गा. १४४ प. २१०-२१७ (२५) वृद्धचतुःशरणम्. गा. ६४ प. २१७-२२१ । 52 गा. ६४ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 410 Pattan CATALOGUE OF MANUSCRIPTS . (२६) भक्तिभर. गा. १६७ (२७) शीलप्रशंसाकुलक. गा. ४४ (२८) ऋषभपश्चाशत्. (२९) गौतमपृच्छा. (३०) प्रव्रज्याविधान. (३१) आराधना. (३२) आतुरप्रत्याख्यान. गा. २० (३३) अजितशान्तिस्तव. गा. ४६ (३४) आत्मसम्बोधकुलक. गा. (३५) भावनाकुलक. गा.२२ (३६) धर्माधर्मविचार. (३७) सुभाषितद्वात्रिंशिका. गा. ३२ (३८) द्वादशभावनाकुलक. गा. १२ (३९) दृसमपद्धति. गा. ६४ (४०) एगूणतीसीभावना. गा. २९ (४१) नवकारफलकुलक. गा. १४ (४२) योगशास्त्र ( द्वादश प्रकाश). (४३) वीतरागस्तव. (४४) आत्मानुशासन. (४५) रत्नमालिका. (४६) रत्नत्रय. (४७) धर्मलक्षण. (४८) मङ्गलस्तव. (४९) परमसुखद्वात्रिंशिका. (५०) ज्ञानप्रकाश. प. २२१-२२९ प. २२९-२३२ प. २३२-२३५ प. २३५-२३७ प. २३७-२३९ प. २३९-२४२ प. २४२-२४४ प. २४४-२४५ प. २४५-२४९ प. २४९-२५० प. २५०-२५२ प. २५२-२५६ प. २५६-२५७ प. २५७-२६० प, २६०-२६२ प. २६२-२६४ प. २६४-३१६ प. ३१६-३२५ प. ३२५-३२६ प. ३२६-३३१ प. ३३१-३३२ प. ३३२-३३३ प. ३३३-३३४ प. ३३४-३३५ प. ३३५-३३६ ३२ Wwww Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. VI Wadi Pārswanath Bhandar (वाडी पार्श्वनाथ भंडार). (१) पर्युषणाकल्प (अपूर्ण). प. ३-९९; २४°४२ (२) अलङ्कारचूडामणि (अपूर्ण). प. ३-१८७ (१) दशवैकालिक. प. १-३६, १२"४२३ (२) पाक्षिकसूत्र. (१) पर्युषणाकल्प. प. १-१०८; १३३२१ (२) कालकाचार्यकथा. गा. ६५ Beginning: श्रीवीरवाक्यानुमतं सुपर्व कृतं यथा पर्युषणाख्यमेतत् । श्रीकालिकाचार्यवरेण संघे तथा चतुर्थी शृणु पंचमीतः ॥ (१) उपदेशमाला. प. १-६७ (२) पुष्पमाला. प. ६८-१२२ (३) भवभावना. प. १२३-१९६ (४) जीवदयाप्रकरण. प. १९७-२०७ (५) प्रवचनसन्दोह (प्रा.). प. २०७-२३२ Colophon: संवत् १३३२ माघवदि शनौ श्रीभर्तृपुरीयगच्छे ईश्वरसूरिशिष्यपं० नरचंद्रेण गृहीता पुस्तिका........थें । प्रकरणपुस्तिका. प. १५९; १३°४१३" (१) जिनस्तुति by बिल्हण. (२) जिनस्तोत्र. (३) कल्याणकस्तुति. (४) आत्मसम्बोधकुलक. (५) धर्माधर्मविचार ( अपभ्रंश ). (६) महासतीकुलक. (७) संसारभावनाकुलक. (८) दानादिकुलक (अपभ्रंश). (९) खामणाकुलक. Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 412 PATTAN CATALOGUE OF MANUSCRIPTS (१०) भावनाकुलक. (११) सिद्धिकुलक (अपभ्रंश). (१२) नवतत्त्वप्रकरण. (१३) श्रावकवतप्रकरण. (१४) स्थूलभद्र (कडव २). गा. १३+८ Beginning: मढ विहार पायारह सोहिउ वर मंदिर पवर पुर अमरनाहु पिक्खिवि मोहिउ । इय एरिसु पाडलियपुरु जंबुदीव विक्खाउ करइ रज जियसत्तु तहिं नंदु महाबलु राउ ॥ १॥ को वि नियतणु तविण सोसइ कु वि अरंन ध(व)ण निवसए । पिय को वि किर सेवालु भक्खइ सो वि तुय आसंकए ॥ जो वेस-घरि चउमासि निवसइ सरस-भोयणसित्तउ । तसु थूलभद्द व (ह) पायए णमउं जिणि मयण! तुंहुँ जित्तउ ॥॥ (१५) जीवानुशास्ति (प्रा.). (१६) धर्मलक्षण. (१७) प्रश्नोत्तररत्नमालिका. (१८) अजित-शान्ति (लघु). (१९) जिनप्रतिमाकोश (अपभ्रंश ). (२०) जिनस्तुति (अपभ्रंश). (२१) विचारसप्ततिका. (२२) वीरजिणिंदपारणय (अपभ्रंश) by वर्धमानसुरि. (२३) रिसहजिणिंदपारणं (अपभ्रंश). (२४) चउवीसी (अपभ्रंश). Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ No. VII Modi Bhandar (मोदी भंडार). त्रिषष्टि श. पु. चरित्र (तृतीयपर्व). प. १५१, १३३"४१३" आवश्यकनियुक्ति. प. २२७; १४४१३ Colophon: संवत् १४०० वर्षे माधवदि १० रवौ आवश्यकसूत्रपुस्तिका लिखिता। No. VIII Aduvasi Pāda Bhandāra. (अदुवसी पाडा भंडार). (१) विजयचंदकेवलिचरिय by चन्द्रप्रभमहत्तर. [रचना वि. सं. ११२७] नं. १३०० प. १-५४; १२३४२" (२) सङ्ग्रहणी. गा. ५३० प. ५५-८९ (३) जीवदयाप्रकरण. गा. ११२ प. ८९-९४ प्रश्नपद्धति by हरिचन्द्र. प. ४९; १८°४१३ [संघवीपाटके क्र. ३०६(२) द्रष्टव्यम् ]. Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्टम् । वाडीपार्श्वनाथ - विधिचैत्य - प्रशस्ति - शिलालेखः । स्वस्ति श्रीवाडीपार्श्वजिनसंघचैत्यकाराय | लक्ष्मीमुदयं श्रेयः पत्तनसंस्थं करोतु सदा । श्रीवाडीपुरपार्श्वनाथचैये श्रीबृहत् खरतरगुरु पट्टावलीलिखनपूर्व प्रशस्तिर्लिख्यते । श्रीअर्हं नत्वा । पातिशाहिश्री अकच्चरराज्ये श्रीविक्रमनृपसंवत्संवते १६५९ मार्गशीर्षसित - नवमीदिने सोमवारे पूर्व भद्रपदनक्षत्रे शुभवेलायां आदिप्रारंभः । शासनाधीशश्री महावीरस्वामिपट्टा विच्छिन्नपरंपरायां उद्यतविहारोद्यतश्रीउद्योतनसूरि । तत्पट्टप्रभाकरप्रवर - विमलदंडनायककारितार्बुदाचलव सतिप्रतिष्ठापक - श्रीसीमंधरस्वामिशोधितसूरिमंत्राराधक - श्रीवर्धमानसूरि । तत्पट्ट० अणहिल्लपत्तनाधीशदुर्लभराजसंसञ्चैत्यवासिपक्ष विक्षेपाशीत्यधिकदशशतसंवत्सरप्राप्तखरतरबिरुद - श्रीजिनेश्वरसूरि । तत्पट्ट० श्रीजिनचंद्रसूरि । तत्पट्ट० शासनदेव्युपदेशप्रकटितदुष्टकुष्टप्रमाथहेतुस्तंभन पार्श्वनाथ - नवांगी वृत्त्याद्यनेकशास्त्रकरणप्राप्तप्रतिष्ठ- श्री अभयदेवसूरि । तत्पट्ट ० लेखरूपद्वादशकुलकप्रेषणप्रतिबोधितवा गडदेशीयदशसहस्रश्रावक - सुविहितहित कठिनक्रियाकरण - पिंड विशुद्ध्यादिप्रकरणप्ररूपण जिनशासनप्रभावक - श्री जिनवल्लभसूरि । तत्पट्ट० स्वशक्तिवशीकृतचतुःषष्टियोगिनीचक्र - द्विपंचाशत्वीर- सिंधुदेशीयपीरअंबडश्रावक करलिखित स्वर्णाक्षरवाचनाविर्भूतयुगप्रधानपदवीसमलंकृत - पंचनदी साधक - श्री जिनदत्तसूरि । तत्पट्ट० श्रीमाल - ओसवालादिप्रधान-श्रीमतीयानप्रति - बोधक- नरमणिमंडितभालस्थल - श्रीजिनचंद्रसूरि । तत्पट्ट० भंडारिनेमिचंद्रपरीक्षित- प्रबोधोदयादिप्रंथरूपपत्रिंशद् वादसाधित विधिपक्ष - श्रीजिनपतिसूरि । तत्पट्ट० लाडोल - वीजापुर प्रतिष्ठितश्री शांति - वीरविधिचैत्य - श्री जिनेश्वरसूरि । तत्पट्ट० श्रीजिनप्रबोधसूरि । तत्पट्ट० राजचतुष्टयप्रतिबोधोबुद्ध राजगच्छसंज्ञाशोभितश्री जिनचंद्रसूरि । तत्पट्ट० श्रीशत्रुंजय मंडनखरतरवसतिप्रतिष्ठापक - विख्यातातिशयलक्ष - श्रीजिनकुशलसूरि । तत्पट्ट० श्री जिनपद्मसूरि । तत्पट्ट० श्री जिनलब्धिसूरि । तत्पट्ट० श्री जिनचंद्रसूरि । तत्पट्ट० देवांगणावसरवासप्रक्षेपोदित संघपतिपदाद्युदय - श्रीजिनोदयसूरि । तत्पट्ट० श्रीजिनराजसूरि । तत्पट्ट० स्थान-स्थानस्थापितसारज्ञानभांडागार - श्री जिन भद्रसूरि । तत्पट्ट० श्रीजिनचंद्रसूरि । तत्पट्ट० पंचयक्षसाधक - विशिष्टक्रिय - श्रीजिनसमुद्रसूरि । तत्पट्ट ० तपो - ध्यानविधानचमत्कृतश्री सि Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 415 परिशिष्टम् । कंदरपातशाहिपंचशतबंदीमोचनसम्मानित-श्रीजिनहंससूरि । तत्पट्ट० पंचनदीसाधकाधिकध्यानबलशकलीकृतयवनोपद्रवातिशयर्द्धिराजमान-श्रीजिनमाणिक्यसूरि । तत्पट्टालंकारसार-दुर्वादिविजयलक्ष्मीशरण-पूर्व क्रियासमुद्धरण-स्थानस्थानप्राप्तजयप्रतिदिनवर्द्धमानोदय-सदय-सन्नय-त्रिभुवनजनवशीकरणप्रवणप्रणवध्यानोपशोभितपवित्रसूरिमंत्रविहितलय-दूरीकृतसकलवादिस्मय-निजपादविहारपावितावनीतल-अनुक्रमेण १६४८ श्रीस्तंभतीर्थचतुर्मासकस्थानसमुद्भूतामितमहिमश्रवणदर्शनोत्कंठित जलालदीनप्रभुपातिशाहिश्रीमद् अकब्बरसमाकरण-मिलन-स्वगुणगणतन्मनोनुरंजनसमासादितसकलभूतलाखिलजंतुसुखकारि आषाढाष्टाहिकामारिफरमान-श्रीस्तंभतीर्थसमुद्रमीनरक्षणफुरमान-तत्प्रदत्तसत्तमश्रीयुगप्रधानपदधारक-तद्वचनेन च नयन-शर-रस-रसा[ १६५२ ]मितसंवति माघसितद्वादशीशुभतिथौअपूर्वपर्व-गुर्वान्नायसाधितपंचनदीप्रकटीकृतपंचपीरप्राप्तपरमवर-तदादिविशेष-श्रीसंघोन्नतिकारक-विजयमानगुरुयुगप्रधानश्री १०८ श्रीजिनचंद्रसूरिसूरीश्वराणां श्रीपातिशाहिसमक्षस्वहस्तस्थापिताचार्यश्रीजिनसिंहसूरिसपरिकराणामुपदेशेन ओसवालज्ञातीयमंत्रिभीमसंताने मंत्रिचंपाभार्यासुहवदे तत्पुत्रमं. महिपति तदूभार्या अमरी तत्पुत्र मंत्री वस्तपाल तद्भायी शिरीयादे तत्पुत्र मंत्री तेजपाल तद्भार्या श्रीमांनु तत्कुक्षिसरोमराल अर्थिजनमनोभिमतपूरणदेवशाल-देव-गुरुपरमभक्त विशेषतो जिनधर्मानुरक्तस्वांत ऊकेशवंशमंडनशाहअमरदत्तभार्या रतनादे तत्पुत्ररत्न कुंवरजी तद्भार्या सोभागदे बहिनीबाई वाछी पुत्री बाई जीवणी प्रमुखपुत्र-पौत्रादिसारपरिवारयुतेन तेन श्रीअणहिल्लपुरपत्तनशंगारसार-सुर-नरमनोरंजनसुरगिरिसमान-चतुर्मुखविराजमान-प्रधानविधिचैत्यं कारितं श्रीपौषधशालापाटकमध्ये । तदनु कर-करण-काय-कु[१६५२]प्रमित संवत् अल्लाई ४१ वर्षे वैशाखवदि द्वादशीवासरे गुरुवारे रेवतीनक्षत्रे शुभवेलायां महामहपूर्व प्रतिमा श्रीवाडीपार्श्वनाथस्य स्थापिता ॥ एतत् सर्वं देव-गुरु-गोत्रजदेवीप्रसादेन वंद्यमानं पूज्यमानं समस्तश्रीसंघसहितेन चिरं जीयात् कल्याणमस्तु ।। एषा पट्टिका पं. उदयसारगणिना लिपीकृता । पं. लक्ष्मीप्रमोदमुनि आदरेण कोरिता गजधरगलाकेन । शुभं भवतु नित्यं ।। Page #494 --------------------------------------------------------------------------  Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तनस्थजैनग्रन्थागारीय-ताडपत्रीयपुस्तकानां वर्णानुपूा सूची। * * २७३ ग्रन्थनाम पृष्ठे ग्रन्थनाम अजित-शान्तिस्तवः (प्रा.) ३२, ५९, अनेकार्थसङ्ग्रहः ९४,१०५,३०५,३८७, ६३,६४,७१,७८,९९,१०७,१५८, ३८८ १५९, १६२, १७७, २६१, २६२, ,, टीका (अनेकार्थकैरवकौमुदी)२८१ २६५, २७८, २९४(२), ३०५, अन्तकृद्दशाः (प्रा.) ३०९,३८४,४०३,४१० , वृत्तिः २१७ , वृत्तिः ३८५ *अन्तरङ्गरासः (अप.) २७० , (लघु प्रा. अप.)९५,९९, ,, विवाहः (,,) १४६,४०३,४१२ , सन्धिः (1) ४०२ *अजीवकल्पः ६० अन्त:पविचारः (प्रा.) ४०९ *अञ्जनासुन्दरीकथा (अप.) १८४ अन्ययोगव्यवच्छेदद्वात्रिंशिका १४९, अतिचाराः ६४,१०७,१५८,२७९, ३७४ अभिधानचिन्तामणिः ६६,१४९ *अध्यात्मतरङ्गिणी (टीका) १७१ , टीका ७४ अनन्तकायप्र० २६२ अमरुशतकम्-शृङ्गारशतकम् *अनन्तनाथस्तोत्रम् (प्रा.) २५९ अलङ्कारग्रन्थः ६१,१९७ *अनर्घराघवरहस्यादर्शः ३०१ अलङ्कारचूडामणिः (हे. का. व्या.) ४११ अनशन-प्रत्याख्यानम् (प्रा.) १४५ अलङ्कारतिलकः (वा. का. टीका) ३८३ *अनाथि-सन्धिः (अप.) ९८,२६८ *अवन्तीसुकुमालसन्धिः (अप.) ९८, अनुत्तरोपपातिकदशाः (प्रा.) ८७ , वृत्तिः २१७,३३४ अष्टकानि १७४ अनुयोगद्वारसूत्रम् (प्रा.) २२१,३४८ , टीका १६५ , चूर्णिः (प्रा.) ११२,१५०, *आगमाद्यालापकः ३४८ आगमिकवस्तुविचारसारः (प्रा.) . ३९, , वृत्तिः २२१,३४९ ५८, १६८, १६९, १७६, २९५, अनुशासनफलकुलकम् (प्रा.) ४५ ३०३,३८९ अनुशासनाङ्कुशः (प्रा.) १३१ , विवरणम् (प्रा.) ३८८,३९४ * एतादृचिह्नाङ्किता ग्रन्था यावज्ज्ञातमद्यावधि मुद्रणादिना प्रसिद्धिमनधिरूढाः । १९३ 53 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम १७६ 418 पत्तनस्थजैनग्रन्धागारीय-ताडपत्रीयपुस्तकानां वर्णानुपूा सूची । ग्रन्थनाम पृष्ठे प्रथनाम पृष्ठे आगमिकवस्तुविचारसारवृत्तिः २१ आवश्यकसूत्रनियुक्तिः (प्रा.) ५१,५५, आचाराङ्गसूत्रम्(प्रा.)१०८,२१६,२४२, ६९,९५,१०६,१०७, ११२,१२९, २९९ १५०, १८८, १९७, २८२, २९४, ,, नियुक्तिः (प्रा.)१३,१०९,२१६, " ३९१,३९७,४०२,४१३ , वृत्तिः २१६,२४२,२४३ , चूर्णिः (प्रा.) १६६,२३९,३५४ *आचार्यप्रतिष्ठाविधिः (प्रा.) ५ , वृत्तिः (ह.) २३१,२७६,३३४, आतुरप्रत्याख्यानम् (प्रा.) १३,२३,६०, ३४६,३४८,३६१ ६४,७०,७७,१२१,१३५,१६९, , , टिप्पनम् १६६ २६२, २७६,२९८,३००,३०६, , , (म.) ३११,३९८ ३८४,३९२,४०७,४१० ,, ,, (लघु ति.) २४१ *आत्मशुद्धिस्तवः १५७ , स्वरूपम् १०१ *आत्मसम्बोधकुलकम् (प्रा.) ६५(२), *आहार(पिण्ड)विशुद्धिः (प्रा. गू.) १५४ ७७,२६३,४०३,४१०,४११ *इलातीपुत्रकथा आत्मानुशासनम् २३,२४,३५,६५,७०, ईश्वरकर्तृत्वप्रकरणम् ९१,९५,१०२,१०५,१४५,१८८, *उक्तिव्यक्तिः ३०५,३८६,४१० । ७१ , विवृतिः १२८ आदि-वीरस्तुतिः (प्रा.) १४३ आरम्भसिद्धिः *आरात्रिक-स्नपनविधिः (अप.) ६९ " विवरणम् , वृत्तिः *आराधना १५४,२६२,२७८,२९१, उत्तराध्ययनसूत्रम् (प्रा.) १२, १३, ३१, ३०३(१-५),३०९,३९१(२),४१० , (गू.) ५९.१११ ४०,६०, ६२, ७२, ७८ (२), १०७, *आराधनाकुलकम् १३, ६५, ७७(२), १६१, १६४, २३३, २४२, २८२, ९८,१४५,१६१ ३२७,३३४,३६१,३९०,४०५,४०७ , पताका ७७ ,नियुक्तिः(प्रा.)१३,२०२,२४२,३३४ * ,, प्रकरणम् (प्रा.) ६५(२),९६, * , चूर्णिः (प्रा.) २४२ २९६,२९९,३०० , बृहद्वृत्तिः (प्रा.) २०२,२४२, * , ष्टकम् ३२७,३३४ ७७ * , लघुवृत्तिः (सुखबोधा) २१७, *आर्द्रकुमारकथानकम् (प्रा.)१३६,१५३ २३३,३२३,३६१,४०१ आवश्यकप्रतिलेखना २६२ *उपदेशकन्दली (प्रा.) १०२,१९१, * , विधिः (प्रा.) ४०६,४०९ २७९ उणादिगणसूत्रम् सारः Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम पत्तनलजैनप्रन्यागारीय-ताडपत्रीयपुस्तकानां वर्णानुपा सूची। 419 पृष्ठे ग्रन्थनाम *उपदेशकन्दलीवृत्तिः १५९,२१५, उपमितिभवप्रपञ्चासलेपोद्धारः १८६ ३१४,३२९ * ,, सारोद्धारः ५० उपदेशकुलकम् (प्रा.) २४,९९, १३०, उपशमकुलकम्=क्षान्तिकुलकम् १३३,३०७(२),४०९ *उपश्रुतिद्वारम् (प्रा.) उपदेशगाथाः ९९ उपासकदशाङ्गम् (प्रा.) उपदेशपदानि ५२,११८ उपासकादिपञ्चाङ्गसूत्रवृत्तिः २४० उपदेशमणिमाला १४४ *ऋषभजिनचरितम् (प्रा. व.) १६९, उपदेशमाला (ध. प्रा.) २२, २३, ३१, ३५०,३६४ ३३(२),४३,६०,६३,६४,६७,७८, * ,, (धर्मोपदेशशतम्) ६२ ९१, ९४,९५, १०१, १०६, १४२, * , जन्माभिषेकः (अप.) २६७ १४५, १५०, १५२, १५५, १६०, * ,, पारणकम् (अप.) ४१२ १६१, १६२, १६९, १७७, २६१, * , स्तवः (अप.) २६९ २६२, २६३, २७७, २८४,२९६, * ,, स्तवनम् (प्रा.) १७७ २९९, ३००, ३७४, ३८३, ३८४, ,, स्तुतिः (पश्चाशिका प्रा.) ३०, ३८५, ३८६, ३९१,४०६, ४०९, १२९, १५९, १७७, ३००, ६९,३०२,३०५,४१० ,, कथासमासः ९० ,, विवरणम् (व.) ५२,२०३, . . * ,, ,, वृत्तिः (२) १५९,३८५ २८३,३३४,३९२ * , , (अप. २) ४४,४५ बृहद्वृत्त्युद्धारः १३ *ऋषिदत्ताकथा (२) १६८,१७५ ,, वृत्तिः (सि.) १०९,२०९, ऋषिमण्डलस्तवः (भत्तिभर०) ९६, २८३,३४९,३९१ १२१, १६९, १७७, ३०३, ४०३, * ,, वृत्तिः (र.) २०६,३२३ । ४१० * ,, ,, (उ. कर्णिका) २३५ * ,, ,, बृहद्वृत्तिः ११८ उपदेशमाला-पुष्पमाला (हे.) एकविंशतिस्थानकम् (प्रा. इकवीसठाण*उपदेशरसायनम् (प्रा.) १३१ यम् ) २३, ३५,४३,७१,९०,९६, , (अप.) १९३ १०२, १४२, २९४,२९७, ३६५, "उपदेशसारः (प्रा.) ४०९ उपदेशामृतम् (प्रा.) १३०,१३१,१३२ एकोनत्रिंशद्(प्रा. एगूणतीसी)भावना उपपातनियुक्तिः (प्रा.) २९५ . २६५,४१.० उपमितिभवप्रपञ्ला १६५,४०२ *एलकामकथा (प्रा.) १३ __ * * * Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " 420 पत्तनस्थजैनग्रन्धागारीय-ताडपत्रीयपुस्तकानां वर्णानुपूर्दा सूची। ग्रन्थनाम पृष्ठे ग्रन्थनाम ओघनियुक्तिः (प्रा.) ४०, ९५, ९८, कर्मस्तवः ४५, ५३, ५८,८९,९६,९९, १०७, ११२, ११९, १६१, १७५, १४२, १६४, १६९, २७८, २९४, १७७, ३०९, ३७८, ३८५,३९०, २९८, ३०२, ३०४, ३०५, ३८५, ३८९,३९४ ,, वृत्तिः २१५,३२३ टीका १९,३७७ , उद्धारः २९७ , ,, (दे.) औपपातिकसूत्रम् (प्रा.) , भाष्यम् ९३, १६९(२), , वृत्तिः १७६,२९८,३७५,३९४ *कलावतीकथा (प्रा.) १९५ *कथानककोशः (प्रा. वि.) ४२ कल्पसूत्रम्=पर्युषणाकल्पः ६२ , चूर्णिः= ,, चूर्णिः (प्रा.) १३६, *कथारत्नकोशः (प्रा.) ३३४ २३१,३७७,४०५ *কথাঃ ३३४ * ,, नियुक्तिः (प्रा.) ४०५ * , (न.) १४ , भाष्यम् (प्रा.) १९७,३९३ *कथावली (प्रा.) २४४ *कल्याणकप्रकरणम् (प्रा.) ६३,९४ *कथासङ्ग्रहः (प्रा. २) ४६,४०५ * ,, (अप.) ५९ * , (प्रा. ३) ६१,१३६,३७८ * ,, स्तवः ८९,१२६,३०६ कन्दजातिप्र. (प्रा.) ३७६ , स्तुतिः ४११ कर्पूरचरितम् २५९ , स्तोत्रम् (प्रा.) ३७५ कर्मग्रन्थाः (प्रा.) ३,१०६,२०२,२१०, *कवचम् (प्रा.) ३५,३७४ २९९,३०२,३१० *कातत्रवृत्तिपञ्जिका ५७,१६२ कर्मप्रकृतिः ३८९ * , उद्योतः ३८३ , वृत्तिः ३९७ *कातत्रोत्तरम् २६१ * ,, सङ्ग्रहणी २९३ कादम्बरीशेषः २९१ कर्मविपाकः ३२,४५,५३,५८,९६,९९, कायस्थितिस्तवः . १४२, १६४, १६९, २६२, २७८, कायोत्सर्गनियुक्तिः (प्रा.) २७८ २९५, २९६, २९८, ३००, ३०२, ,,,, भाष्यम् (प्रा.) २९५ ३०४,३८५,३८९,३९४ , उद्धारः ३७३ , वृत्तिः १९,२२,१०४ कारणपदार्थः , कुलकम् (प्रा.) . ११४ *कालकाचार्यकथा (प्रा.) १३,१८,९९, १५७ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम ग्रन्थनाम पत्तनस्थजैनग्रन्थागारीय-ताडपत्रीयपुस्तकानां वर्णानुपूा सूची। ग्रन्थनाम पृष्ठे । *कालकाचायकथा ३६,७४,९४ क्षपकशिक्षाप्रकरणम-कवचम् ,, १४७,१९२,३७२,३७९(२) क्षमा(क्षान्ति)कुलकम् (प्रा.) ११४,२६५ ,, ३८६,३८७,३८८(२) *क्षमापना (प्रा. खामणा)कुलकम् ६५, ३९१,४०६ ४११ ,, २६१,२८०,२९२,३७७ *क्षुल्लक (प्रा. खुड्डुग)कुमारकथा १३६ ,, १५१,१५८,३७६,४११ क्षेत्रसमासः १६०, १६१,१६२, १७६, कालसप्ततिः (प्रा.) ५९ २७८,२९६, २९९, ३०६, ३०९, *काव्यकल्पलताविवेकः १७३ ३८४ काव्यप्रकाशः ११६,१६४ (जम्बूद्वीपसमासः) २३, सङ्केतः ५३,५९ २८,३३, ६७, ६९, ८९, ९१, ९९,२६२,२९४ * ,, ,, (काव्यादर्शः) २८८, * ,, वृत्तिः २८,३४ *खण्डनखाघटीका (शिष्यहितैषिणी) काव्यमीमांसा ३७२ *काव्यशिक्षा काव्यादर्शः १६२ *गजसुकुमालकथा १७५ काव्यानुशासनम् ११६ गणकारिका ,, वृत्तिः (अलङ्कारचूडामणिः) ३९८ *गणधर(युगप्रधान)सप्ततिः (प्रा.) ३१ किरातार्जुनीयम् २५९,३०२ * स्तुतिः कुमारपालप्रतिबोधः-जिनधर्मप्रतिबोधः , होरा (प्रा.) * ,, प्रबन्धः १५ गणिविद्या (प्रा.) *कुलकानि (प्रा.) २३,७७,११४,१३३, *गमनागमनप्र. (प्रा.) ३०७,३७६,४०३(२) *गम्भीरस्तवः कुशलानुबन्धि चतुःशरणम् गर्गसंहिता ( उत्पातदर्शनम् ) ८० कुसुममाला-पुष्पमाला उपदेशमाला (२) , (गर्भलक्षणम् ) , *कृतपुण्यकथा १७६ , (ध्वजाध्यायः) कृष्णराजीविचारः ४०९ , (वर्षालक्षणम् ) कौटलीयम् ( अर्थशास्त्रम् ) १७२ , (सिद्धादेशः) * , टीका १७३ *गाथाकोशः (प्रा.) १७४,३७२ क्रियारत्नसमुच्चयः ७१,२१४ गिरनारकल्पः *क्षणिकत्व(वाद)निरासः ५ , रासः (ग.) १९३ ३७५ ४६ गच्छाचारप्र. (प्रा.) . ५९ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 422 ग्रन्थनाम गुणस्थानकप्र. (प्रा.) * गुरुगुणकुलकम् (प्रा.) * वेदना कुलकम् (प्रा.) "" "" 93 २९६ ३०५, ३०७ ६८ ( देवभद्र ) स्तुति: ( प्रा. सं . ) १४५ * गुर्वादिचारः गृहस्थधर्मकुलकम् (?) पसनस्थजैन ग्रन्थागारीय-ताडपत्रीयपुस्तकानां वर्णानुपूर्व्या सूची । पृष्ठे गौडवधः (प्रा.) (उद्धृतगाथा ) टीका 33 गौतम - न्यायसूत्रटीका गौतम - पृच्छा (प्रा.) २३,२४,३३,६०, ६३, ६९, ७८, ९९, १११, १४५, १४६, १६१, १६२, २६२, २६४, * "" स्तुतिः चतुर्थोपाङ्गतृतीयपदसङ्ग्रहणी * चतुर्दशक कुलकम् (प्रा.) "" गौतम - भाषितानि (प्रा.) ९२ * गौतमस्वामिचरित कुलकम् (अप.) २६६ * 59 "" "" "" "" * चतुर्विंशतिका ( अप. चउवीसी) ४१२ * चतुर्विंशतिजिनकल्याणकम् (अप) ४३ नमस्कार : ( अप.) २९८ स्तुति: १७७ १९६ ६९ 99 चतुर्विंशतिस्तवः (प्रा.) २९५ निर्युक्तिः (प्रा.) २७७ उद्धारः (प्रा.) - ३७३ 'चतुःशरणम् (प्रा॰ चउसरणं- कुशलानु " 99 ३७२ ७९ * चन्द्रप्रज्ञप्तिः (प्रा.) २९५ टीका 33 ६३,२९४,३७६ *चन्द्रप्रभचरितम् (प्रा.) ग्रन्थनाम पृष्ठे बन्धि ) १३, २३, ६०, ६४, १०३, १११, ११४, १२१, १३३, १४५, १६९, १८८, २६२, २७६, २७८, २९१, २९४, २९८, २९९, ३०६, ३७८,३८४,३९२, ४०३, ४०७ वृत्ति: "" ,, स्थानकम् (प्रा.) २५२ ४०० २८३ 55 ३७६ * चन्द्रावेध्यकम् (प्रा. चंदाविज्झयं) ६० ३०२ ४३ २६७ चर्चरी (अप.) २७८,२९४,४१० *चारुदत्तादिकथा * चार्चिकप्रन्थः * चित्तसमाधिप्रकरणम् "" गुरुस्तुति: (अप. ) 59 * चारित्र मनोरथमाला (प्रा.) * २८३ चित्र सम्भूतीयम् = उत्तराध्ययनम् २०१,२३८ २०१,२१८,२३८ ११६ [* चिन्तामणिस्तवः ] १५५ * चूडामणिसारः ८ * चैत्य परिपाटिः (अप.) २७२ चैत्यवन्दनसूत्रम् १०६,१११, १४५,३६५ "" स्तुति: ( अप. ) "" "" 33 99 ८९ १६८, १७५ २३ ३०२ "" "" भाष्यम् ५९,१२१,१६२,१७७ चूर्णि: (प्रा.) ८५,८८ वृत्ति: (हे.) २८,३४,१२६, ४०८ (ललित विस्तरा ) १२६,३९४ पञ्जिका १११,१२६ " चौलुक्यवंश:- श्राश्रयमहाकाव्यम् * छन्दोऽनुशासनम् (वा.) वृत्तिः (हे. २) ३१ ११७ ३९८ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तनस्थजैनग्रन्थागारीय-ताडपत्रीयपुस्तकानां वर्णानुपूर्षा सूची। 23 ग्रन्थनाम पृष्ठे अन्थनाम पृष्ठे *छन्दोवृत्तिः (अमृतसञ्जीवनी) १७८ जीतकल्पसूत्रम् (प्रा.) २९३,३९१,४०४ *छन्दोऽनुशासनोद्धारः ११६ * , चूर्णिः ३९८ *छायाद्वारम् (प्रा.) ८२ * , वृत्तिः २१०,२९२, *जन्माभिषेकः (अप. वीरज.) १८४ ३९१,३९९,४०४ *जम्बूचरितम् (अप.) २७१ जीवदयाप्रकरणम् (प्रा.) ४३,५८,९२, * ,, कुलकम् (प्रा.) २४ १११, १५२, १६१, १६४, २९७, जम्बूद्वीपप्रकरणम् २४,३३,७८,१४५, ३६६,३८५,४११,४१३ १५२,१६१,३०९,३६५,३७५ जीवविचारप्र. (प्रा.) ७१,७८,९१,९९, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिः (प्रा.) २३१ १०७, १२१,२७८, २९७, ३७२, * , चूर्णिः (प्रा.) , ३८३,३८४,४०३,४०९ *जम्बूद्वीपविचारः ४०९ *जीव विभक्तिप्र. (प्रा.) ३७४,३९२ ,, सङ्ग्रहणी २९,६१,४०६,४०९ जीवशिक्षाकुलकम् (प्रा.) २७८ , समासः १०२, १०७, १४२, जीवसमासः (प्रा.) १२९ १७७,१८८,२८४ *जीवानुशासनम्(प्रा.२) २४,७७,१३४ जम्बूवृक्षविचारः ४०९ * , वृत्तिः ३९१ *जिनकल्याणकस्तोत्रम् (प्रा.) ७१ *जीवानुशास्तिकुलकम् (प्रा.) ७०,८९, *जिन-गणधरनमस्कारः (अप.) १९२ ११५,१३३,२६४,४१२ *जिनजन्ममहः (अप.) २७३ , सन्धिः (अप. २) ९८,२६८ * स्तवनम् २७५ जीवाभिगमसूत्रम् २३२ *जिनजन्माभिषेकः (अप.) , टीका १२३,२३३ जिनधर्मप्रतिबोधः (प्रा.) २०१,३३३ *जीवित-मरणप्रकरणम् (प्रा.) ७९ *जिनपूजागुपदेशः (प्रा.) २८८ जीवोपदेशपश्चाशिका (प्रा.) १३० *जिनप्रतिमाकोशः (अप.) ४१२ जीवोपालम्भकुलकम् (प्रा.) ६८,११४, *जिनमहिमा (अप.) १८९ ३०७,३९२ *जिनस्तवः ३८६ ज्ञातधर्मकथासूत्रम् (प्रा.). २२८, २३१, * ,, स्तुतिः (अप.) ४१२ ३६१,३९३ " " ४११ , वृत्तिः २२८,२३१ * ,, स्तोत्रम् (अप.) १४५ *ज्ञानपञ्चमीकथा (प्रा. म.) ३०,३३ ४११ * ,, प्रकाशकुलकम् (अप.) १०२, *जिनागमवचनम् (अप.) १९१,४१० Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 424 ग्रन्थनाम * ज्ञानाङ्कुशः 33 ज्ञानार्णव: ( योगप्रदीपः ) ज्योतिष्करण्डकटीका * ज्योतिर्द्वारम् (प्रा.) तपोयादि तपोविधिः * तर्कभाषा तिलकमञ्जरी १० ३०८ ८२ २९५ " ४०, ४३ *तत्त्वोपपुवः तत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् १४९, १६१, १९७ * दशविंशतिभावना (प्रा.) १६५ दशवैकालिकम् (प्रा.) २४, ६४, ९५, १९६ * तटीका निबन्धः तन्दुलवैचारिकम् (प्रा. तंदुलवेयालियं) ६० १०२, १०६, १०७, ११२, १४३, १५०, १५८, १६३, १६४, १७७, २०९, २७८, २८८, ३००, ३७४, २९५ ७८ ५५, १९२ ३४ * पत्तनस्थजैन ग्रन्थागारीय ताडपत्रीय पुस्तकानां वर्णानुपूर्व्या सूची । पृष्ठे ग्रन्थनाम पृष्ठे १०५ दर्शनसप्ततिका (प्रा.) ९२,२९१,२९६, १७५ ३००,३७२ ५७,२७६ (२) *दंगड (अप. ) दमयन्तीकथा - चम्पूः 33 * ८७ 31 टिप्पनम् * तीर्थोद्गारिकप्र. ( प्रा. तित्थुग्गालियं ) * १२१ * २३ "" * त्रयोविंशतिस्थानम् (प्रा.) त्रिपुरदाहः २५९ * दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् (प्रा.) १५५ * त्रिपष्टिध्यानकुलकम् (प्रा.) त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरितम् ६७, ८७, ९०, १३८, १४३, २१५, २२७, २३९, २८५, २९५, ३१०, ३२३, ३३४,३४६, ३६४,४१३ "" दवदन्तीचरितम् (प्रा.) ६२ * दशविधप्रत्याख्यानम् (प्रा.) सामाचारी "3 "" "" "" * "" "" "" ४०६,४०९,४११ निर्युक्तिः १३,३५,२०९,३०२ वृत्ति: (ह. ) १३५, २०३, "" "" 55 (सु.) (लघु) (ति.) "" दानविधिप्रकरणम् (प्रा.) दानादिकुलकम् (प्रा. अप.) "" ,, प्रकरणम् निर्युक्तिः (प्रा.) चूर्णि: (प्रा.) ३०० दामन्नककथा २५ दिनकृत्यम् = श्राद्धदिनकृत्यम् २०९,३४९ ११,१२,८६ १५३, ३८८ ३५६ २०९ १६२,३१० * दिवाकरकथा विवरणम् दुःख-सुख विपाककुलकम् १६२ * दर्शनचतुर्विंशतिका (प्रा.) २६५,४०९ * दु: पमगण्डिका (प्रा.) ४०,६१,१४२ दर्शनशुद्धि: (प्रा.) * २.३,३१ ,, पद्धति: (प्रा.) विवरणम् * उद्धारः (प्रा.) "" "" ३७२ ७८,४११ १७६, १८५ १७५, १९६ १३ ३७५ ४१० ३६५ Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम दूहामाई ( अप. गू.) * दृढप्रहारिकथा * देवकीसुतचरितम् (प्रा.) देववन्दनम् (प्रा.) देवेन्द्रस्तवः : (प्रा.) देशीनाममाला (प्रा.) वृत्तिः "" * द्रुमपत्रकम् = उत्तराध्ययनम् * द्वात्रिंशज्जीवपरिमाणम् (प्रा.) * द्वात्रिंशिका * " द्वादश कथा : (प्रा.) * भावनाः (प्रा. २) ६५, ७७, ९१, ४१० "" पत्तनस्थजैन ग्रन्थागारीय-ताडपत्रीय पुस्तकानां वर्णानुपूर्या सूखी । पृष्ठे ग्रन्थनाम १८९,२७८ *धर्मघोषसूरिस्तुति: (सं.) ( अप. २) स्तोत्रम् (अप.) ३०७ धर्मरत्नप्रकरणम् (प्रा.) ६९,१०७, १२०, २९२,२९८ "" * द्वादशार्थ विचार: (प्रा.) 33 "" १७६ ३०४ २७८ ६० ६० १२७ 1" 54 * * 99 * धनश्रीकथा * धन्य - शालिभद्रकथा * धन्यसुन्दरीकथा (प्रा.) धरणोरगेन्द्र (पार्श्व) स्तोत्रम् २६,६५,१५८ *धर्मकथा (? धर्मोपदेशशतम् प्रा . ) १७५ धर्म कुलकम् (प्रा.गू.) १३,२५,६०,३६६ * धर्मघोष सूरिस्तवनम् (अप. गू.) ३०८ स्तुति: (प्रा.) ३०६ 39 १४२ ६४ * धर्मविधिवृत्ति: ( ज . ) ३५ व्रतकथा : (प्रा. सं . ) ८५, १४८ २७४ १२२ * द्वीपसागर प्रज्ञप्ति: (प्रा.) (छायानाटकम् ) व्याश्रयमहाकाव्यम् (सं.) ११८, १५१, धर्मोत्तरसूत्रम् (न्यायबिन्दुः) "" १८१ वृत्तिः ३९७ धर्मलक्षणम् (प्रा.) २४, ३५, ६३, ६६, ६९, ७०, ८९, १०२, १२९, १४६, १४९, १७४, २६२, २७८, २९६, ४१०,४१२ 39 55 धर्मशर्माभ्युदयम् धर्मसङ्ग्रहणिटीका * वृत्ति: १५१, १६६,२१६ (प्रा.) वृत्तिः २४८ ३४४ ३२, ११२ २३०,२३२ * धर्माधर्मविचारः (अप.) २६३, ४१०, ४११ * धर्माभ्युदयम् (सङ्घपतिचरितम् ) १४ ३८७ ५८ टिप्पनम्८८ धर्मोपग्रहदानकुलकम् (प्रा.) २१६ * धर्मोपदेशकुलकम् (प्रा.) १७५ (प्रा.) * टीका "9 27 (२ उ.) "" पृष्ठे 23 "3 425 ३६६ ३७० वृत्तिः * १३ 39 ( अप.) १५६ २८ * धर्मोपदेशमाला (प्रा.) २२, २३, ३३, ४३, ६०, ६३, ६४, ६७, ७८, ९४, ९५, १०२, १०७, १५२, १६०, १६१, २८४, २९६, २९९, ३०९, ३६५, ३७४, ३८३, ३८४, ३८५, ३९१ _३११,३४८ " ३७५ २९१ ११४ १३१,१३२ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 426 पत्तनस्थजैनग्रन्धागारीय-ताडपत्रीयपुस्तकानां वर्णानुपूर्ध्या सूची। ग्रन्थनाम ग्रन्थनाम १२२ धातुपाठः २८ *नागदत्तकथा १७५ धातुपारायणम् ५७,१४७,२७७ नागानन्दनाटकम् , वृत्तिः १६२ *नाडीद्वारम् (प्रा.) ध्यानशतकम् (प्रा.) २९१,३०३ ,विचारः (प्रा.) नन्दीसूत्रम् (प्रा.) ५,१९७,२३१ * ,,विज्ञानम् ,, टीका (ह.) १९७,२३१ नानाचित्तप्र.-धर्मलक्षणम् नमस्कारसूत्रम् (१ प्रा.) १२१ *निमित्तद्वारम् (प्रा.) , नियुक्तिः (प्रा.) २९५ निरयावली (प्रा.) ,, कुलकम् (प्रा.) ४४ , वृत्तिः ,, फलप्र. (प्रा.अप.) २३, ४४, निशीथसूत्रम् (प्रा.) १४३,३४३,३४८ २९२,३७२,३७४,४१० * ,, भाष्यम् (प्रा.) ३४३,३४८ , स्तोत्रम् (प्रा.) ५९ * ,, चूर्णिः (प्रा.) २०३,३४३,३४८ नमिप्रव्रज्या उत्तराध्ययनम् * ,, विशेषचूर्णिः २१५ नयगमस्तवः (प्रा.) १४६ नीतिवाक्यामृतम् २८, ३१ *नर्मदासुन्दरीकथा १७६ *नेमिनाथचरितम् (प्रा.) २५० * , सन्धिः (अप.) * ,, जन्माभिषेकः (प्रा.) २७४ नल-दमयन्तीकथा * ,, बोली (अप.) २६ नवकार =नमस्कार * ,, रासः (अप.) २६९ नवतत्त्वप्रकरणम् (प्रा.) ९९, १०२, * ,, स्तवनम् (प्रा.) १७७ १११, २६२, २७८, २९७, ३०३, नैषधीयम् ६४,११३,१७० ३७४,४१२ न्यायकन्दली १४८ , भाष्यम् (प्रा.) ५७ , टीका ५७ ,, विचारः (प्रा.)२७८,४०९ न्यायकलिका नवपदप्रकरणम् (प्रा.) २३, ३२, ३९, *न्यायकुसुमाञ्जलिटीका १०३ ६८, १०७, १४२, १५२, १६०, न्यायप्रन्धः (?) ११६,२६० २६२, २९४,२९७, २९९, ३४३, न्यायप्रवेशकम् ११६,१५४,१९२ ३६५,३८३,३८४ , व्याख्या , टीका २ ,, , पञ्जिका २९३ ,, लघुवृत्तिः ३१,३४३ न्यायावतारसूत्रम् ५७,१५४,१६४ *नवफणपार्श्वनमस्कारः (अप.) १४४ , वृत्तिः ८६,१५५ * * * * Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम * * * * पतनस्थजैनमन्यागारीय-ताडपत्रीयपुस्तकानो वर्णानुपूर्या सूची। 427 प्रन्थनाम पृष्ठे अन्थनाम न्यायावतारवृत्तिटिप्पनम् ५७ परमेष्ठिस्तोत्रम् ,, (प्रमाण) वार्तिकम् ४१,८६,२९९ *परिग्रहप्र(परि)माणम् (प्रा.)१०६,३९२ " , वृत्तिः ४१,८६,२९९ परिशिष्टपर्व १६३,१६४,२१६, *पञ्चकल्पचूर्णिः (प्रा.) २१० २४३,३७५ * , भाष्यम् (प्रा.) , पर्यन्ताराधना १८८,२७६,३०७,३७४ *पश्चकल्याणकस्तोत्रम् ३०६ पर्युपणाकल्पसूत्रम् (प्रा.) ३४,३६,६६, * , (प्रा.) ६०,६७,९१,१०७, ७४, ९४, १३६, १४७, १५१, १५७,१५८,१६९,१९२,२६१, १५२,२८४,२९६,२९९,३८४ २७९,२८०,२९२,३०२,३७२, *पञ्चतीर्थ्यालेख(ख्य)पटः १५४ ३७६,३७७,३७८,३७९,३८६, पश्चनमस्कारः (प्रा.) ७० ३८७,३८८,३९१,३९३,४०५, पश्चपरमेष्ठिनमस्कारविचारः २९७ ४११, *पञ्चपर्वकुलकम् (प्रा.) १३३ * , टिप्पनम् ३७,६६,१७८ *पञ्चमी(श्रुतज्ञान)स्तोत्रम् (प्रा.) ३०६ पल्योपमविचारः (सागरोपमादिप्र. प्रा.) पश्चवस्तुकम् (प्रा.) १५१,१६६ ३७४,४०९ पश्चसङ्ग्रहः (प्रा.) १८८ पश्चात्तापकुलकम् (प्रा.अप.) १३३,२६३ ,, वृत्तिः १८८,३७५ पाक्षिकसूत्रम् (प्रा.) २४,३३,५८,६४, पञ्चसूत्रम् (प्रा.) ३८४ १०७, १४३, १५०, १५८, ३००, ४०६, ४०९, ४११ व्याख्या ११७,३८५ " वृत्तिः ३१० पश्चाङ्गी (प्रा.) २९०,२९१ *पञ्चाणुव्रतकथा , क्षमापना (प्रा.) ६४ १७४ पाण्डवचरितम् ३७३ पश्चाशकानि (प्रा.) ५,५१,५८,९३,९६, पातालकलश-लवणशिखाविचारः ४०९ १०३,१०६,१४२,१६४,२२१ पात्रपरीक्षा (?) १७५ , वृत्तिः *पादलिप्ताचार्यकथा (प्रा.) १९४ पञ्चाशिका (प्रा.) ५९ पापप्रतिघात-गुणबीजाधानम् (प्रा.) ३२, पदार्थधर्मसङ्ग्रहः १४८ ६३,१०७,१६२,२९६,३७२ पद्मचरितम् (प्रा. पउमचरिय) २२७ *पार्श्वनाथचरितम् (स.) . ७२ *पद्मप्रभचरितम् (प्रा.) २१० ,, (२) १६६,२१५ *पद्मश्रीचरितम् (अप.) १८३ * ,, ,, (३ प्रा. दे.) २१९ पद्मावत्यष्टकम् ३०६ , जन्मकलशः (अप.) . ३०८ परमसुखद्वात्रिंशिका १०२,४१० * ,, जन्माभिषेकः (अप.) २७४ २२१ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 428 प्रन्थनाम * पार्श्वनाथमहास्तवः स्तवः स्तोत्रम "" "" अष्टकम् "" पिण्डनिर्युक्ति: (प्रा.) ९८,१०७,११२, ११९, १६१, १७५, ३०९, ३८५, ३९०, ४०९ २१५, ३२३ वृत्तिः *पिण्डविशुद्धिः(प्रा.) २३,३२,७८, ९५, ९९, १०२, १०७, १२१, १५०, १६१, १६५, १६९, १७७, २६२, २६३, २७८, २९४, २९६, ३००, ३०९, ३६५, ३७४, ३८३, ४०३, "" पत्तनस्थजैन ग्रन्थागारीय- ताडपत्रीयपुस्तकानां वर्णानुपूर्वा सूची । पृष्ठे प्रन्यनाम पृष्ठे ७०,३०७ * पौषधिकप्रायश्चित्त सामाचारी (प्रा.) ४०४ वृत्तिः १७७ ,, प्रकीर्णकम् ( प्रकरणम् ) २६, ३७४ २६,७१ "" "" * * (दीपिका) "" * पिपीलिकाज्ञानम् (प्रा.) वृत्तिः "" पुण्यपालस्वप्नफलम् ११५,१४९ पुराणश्लोकाः १२९ पुष्पमाला (प्रा. उपदेशमाला) ५३,६३, ६७,९४,१०१, १०७,११२,१२०, 99 * पुष्पवतीकथा (प्रा.) * पूजा विधानम् (प्रा.) 17 "" प्रज्ञापनासूत्रम् (प्रा.) टीका * प्रणष्टलाभादिप्र. (प्रा.) प्रतिक्रमणसूत्रम् (प्रा.) "" निर्युक्तिः (प्रा.) भाष्यम् (प्रा.) वृत्तिः उद्धारः (प्रा.) ४०६, ४०९ * प्रतिष्ठाविधानम् (प्रा.) ५५, १०६,१६६ प्रत्याख्यानसूत्रम् (प्रा.) ४०८ ८३ * "" " "" " "" " २,३६४, १४५, १६१,१६२, ३८३,३८६,४०६, ४११ * वृत्ति: २३०, २३२,३२६ "" सङ्ग्रहः स्तोत्रम् "" चूर्णि: (प्रा.) वृत्तिः विचार: (प्रा.) उद्धारः (प्रा.) १८१ * प्रत्येकबुद्धकथा (प्रा.) * २९० "" 99 ५९ १५३ २०३ १७१ _३३,४३ १७७,२६१,२७९ निर्युक्ति: (प्रा.) भाष्यम् (प्रा.) "" * पूजाष्टकम् (प्रा. अनन्तनाथचरितोद्धृतम्) * प्रदेशिकथा (प्रा.) पोषधविधिप्रकरणम् (प्रा.) चरितम् (अप. ) २६० * प्रद्युम्नचरितम् (प्रा.) १४३ प्रबोधचन्द्रोदयम् 29 १५५,२६१ १४,३९४ १११,२६२, २७८,२७९,३०९ २७८ २९५ ३९३ ३७३ १२ २७८ ५९, १२१, २९५, २९७ ८५,८८ १२६ ३९७ ३७३ २८ ३०० २८ १३६ २८ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थ नाम ११६ *पातप्रबोधः १३५ पत्तनस्थजैनप्रन्यागारीब-तापायपुस्तकामा वर्गानुषा सूची। 429 पृष्ठे प्रन्थनाम पृछे प्रभातप्रबोधः (प्रा.) ३७४ १२९, १३३, १४६, १४९, १७४, प्रमाणनयतत्त्वालोकालङ्कारः ५७ २६२, २७८, २९६, ३८६, ४१०, ४१२ *प्रमाणमीमांसोद्धारः प्रमाणवार्तिकम् न्यायावतार । प्राभातिकस्तुतिः *प्रमाणसङ्ग्रहः ४ प्राभातिकाष्टकम् प्रमेयकमलमार्तण्डः २३९ *प्रायश्चित्तविधिः १८ *प्रवचनसन्दोहः(प्रा.) ५,२३,४५,५८, बन्धस्वामित्वप्र. (प्रा.) ६९, १०६, १७६, २९५, २९८, टीका ३०४, ३६५, ४११ *बपभट्टिकथा (प्रा.) १९५ प्रवचनसारोद्धारः (प्रा.) १२०, १४३, *बिरदावली (जिनपतिस्तुतिः) २६ १५२,१६३,१६९,३०० बृहत्कल्पसूत्रम् (प्रा.) २१०,३१०,३४३ * ,, वृत्तिः (लघु) ३९१ , भाष्यम् (प्रा.) २३१,३१० , चूर्णिः (प्रा.) ३४३ , ५२,६७,७३,१३७, ,, वृत्तिः ३४८,३५४ १६१,३९७ बृहचतुःशरणप्र. (प्रा.) ६५,१६१,१७७, प्रव्रज्याविधानम् (प्रा.) २५,३३,६८, ७०, ११०, १६१, २७८, २९६, *बृहत्पट्स्थानकम् (प्रा.) ३०४ ३७२, ३७४, ४१० बृहत्सद्धाहणी (प्रा.) ३१,१७६,१८८, * ,, वृत्तिः ४५ २९४,३००,३०२,३०४,३९४ प्रशमरतिः २३,९१,१०५,१४९,१५२, बृहदाराधना (प्रा.) १५८, १६२, १७४, १९७, *बोटिकप्रतिषेधः ३७८,३९७ *बोधकुलकम् (प्रा.) * , वृत्तिः ९६,११३ *बोधप्रदीपः । प्रभपद्धतिः १८१,४१३ ब्रह्मदत्तचक्रिचरितम् . १६८ प्रश्नव्याकरणम् (१ प्रा.) ८७,२१६ - . *ब्राह्मण(ण्य)जातिनिराकरणम् ४ , टीका २१७,३३४ भक्तपरिज्ञा (प्रा.) १३,६०,६५,१२१, ____ १६४,१६८,१६९,१७७,४०७ *प्रश्रव्याकरणटीका (चूडामणिः) ८ भक्तामरस्तोत्रम् २६,३२,६३,६५,७०, * , (लीलावती) ८ १०२, १४५, १८८, १९५, ३६५, प्रश्नोत्तररत्नमाला २४,६४,७०,१०२, .३७४,३८६ ४०९ १२१ ६५ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 430 "" पसनस्थ जैनमन्थागारीय ताडपत्रीय पुस्तकानां वर्णानुपूर्व्या सूची । पृष्ठे ग्रन्थनाम भक्तिभरप्र. = ऋषिमण्डलप्र. भगवती सूत्रम् (प्रा.) विशेषवृत्तिः आलापकाः "" भयहरस्तोत्रम् (प्रा.) २६, १५८, १६२, * महादण्डकप्रकरणम् (प्रा.) १७७ महादेवद्वात्रिंशिका ५८,९०,१२०, महानिर्ग्रन्थीयम् = उत्तराध्ययनम् * भव्यचरितम् (अप.) * भव्यजीवमनोरथः (प्रा.) * भवभावना (प्रा.) १६१, २९६, २९८, ३००, ३८३, *महानिशीथम् (प्रा.) ३८६, ३९१, ४०६, ४०९, ४११ * भव्य कुटुम्बचरितम् (अप. ) * भावना कुलकम् (प्रा. ४) "" * (अप. २) 39 भावनाप्रकरणम् २४७ "" २३९,३५७ * महर्षिकुलकम् (प्रा.) १७५ * महर्षिस्तवः (प्रा.) ६८, ८९, १८९,४०३,४१०, ४१२ २४, २७० ग्रन्थनाम * मल्लिनाथचरितम् (अप.) * भावनासङ्ग्रह : ( चारित्रसारः) भावनासार : ( अप. ) * भाववर्धनकुलकम् (प्रा.) * भावनावकलक्षणम् (प्रा.) ३९४ (प्रा.) २३, १६०, १६९,२९९ *भूमिज्ञानम (अप. ) मङ्गलस्तवः * मदनरेखासन्धिः (अप.) * मनः संवरणकुलकम् (प्रा.) (प्रा.) * मनःस्थिरीकरण मरणसमाधि. (प्रा.) *मरुकदृष्टान्तः * मलयगिरिव्याकरणम् * मलवादिकथा (प्रा.) * महिनाथचरितम् (प्रा.) महाप्रत्याख्यानम् (प्रा.) २६६ महावीरचरितम् (प्रा.) २६५ ८९ * "" "" "" "" 55 "" "" "" पृष्ठे २७० ३६१ ११५, २७८ ६५, २६६ (२) १६९ २७८ "" २०९ ६० २८५ ३७६ 33 स्तोत्रम् (प्रा.) १६१ * महासतीकुलकम् (प्रा.) ११४,४११ [* महेन्द्र मावलिसंजल्पः ] ७६ मातृकाचतुष्पदी (माईच उपई गू ) १९२ ३१ २९ * मिध्यात्वकुलकम् (प्रा.) १४४ ६५ * मिध्यात्वपरिहारकुलकम् (प्रा.) ९९ २४ २६१ १३४ ( अप.) २७१,३६१ (प्रा. गू.) " २०५,३२७,३४९ ८४ ४१० मुग्धबोधव्याकरणम् मुनिचन्द्रसूरिविरह: (प्रा.) स्तुति: ( अप. ) २६८ * मुनिमुक्तावली (? अप.) "" २९५ १११ * मुनिसुव्रत स्वामिचरितम् (प्रा.) ३१४ १,१५३ * स्तोत्रम् (अप.) २७५ ६० *मूलशुद्धि: (प्रा.) २३,३२,३३,४३, १३ ११७ १९५ १३६ ! ६१,६३,६७,९१,९४,९५, १०२, १०७, १५०, १५२, १६०, १६४, २८४, २९४, २९६, ३८३, ३८४, ३८५,३९१ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम मृगापुत्र कुलकम् (प्रा.) * मेघमाला (? अप.) मोक्षोपदेशपञ्चाशत् (शिका) * 32 * यमकस्तुतिवृत्तिः पत्तनस्थ जैन ग्रन्थागारीय- ताडपत्रीय पुस्तकानां वर्णानुपूर्व्या सूची । पृष्ठे * मोहराजविजय: (अप. ) यतिप्रतिक्रमणसू. (प्रा.)१०७, १५८, ४०९ २७२ वृत्तिः १८,१२० यमप्रकरणम् [ यशोधरचरितम् ] *योगकल्पद्रुमः योगबिन्दुवृत्तिः * योगविधिप्रकरणम् 39 योगशास्त्रम् (अध्यात्मोपनिषत् ) 71 " ३, ४, १०५,१३० "" ग्रन्थनाम पृष्ठे १२० रनचूडादिकथा (प्रा.) २८८, ३९१ १२७ * रत्नत्रयम् (प्रा., गू.) २७५, २७८, ४१० १३२ ३१ १८६ २८४ लकुली प्रार्थना ४०१ २३, * लक्षणसमुच्चयः (वैरोचनीयः) लघुधर्मोत्तरटी का= धर्मोत्तरटीका ३३, ३४, ५३, ५८, ६३, ६५, ७०, ९५, १०२, १०५, १०८, ११०, लघुरत्नत्रयम् (प्रा.) लघुशान्तिः १२९, १४५, १४९,१५२, १५८, १७७, १८८, १९३, २७७, २९८, लघुसङ्ग्रहणी (प्रा.) ३०४,३७४,३८६,४०६,४१० ललित विस्तरा = चैत्यवन्दनसूत्रवृत्तिः विवरणम् ३०,६२,११७, लिङ्गानुशासनम् आन्तरश्लोकसङ्ग्रहः ३१,१६३ चैत्यवन्दनवृत्तिः पडावश्यक विवरणम् सुभाषितसमुच्चयः 29 * योगशास्त्रम् (त्रिभुवनसारः ) * योगसङ्ग्रहसार : ( अध्यात्मपद्धतिः) ५६ योगसारः (?) * रघुविलासनाटकम् रत्नत्रयकुलकम् (प्रा.) रत्नमालिका = प्रश्नोत्तरर० राजप्रश्रीयसूत्रम् (प्रा.) टीका "9 रामचरितम् १५७ * राम-लक्ष्मणचरितम् (प्रा.) ५ रावणवध: ( प्रा. सेतुबन्धः ) *रिष्टद्वारम् (प्रा.) रुक्मिणीहरणम् 431 ९९ वन्दनकसूत्रम् (प्रा.) १९२ वन्दनकचूर्णि: (प्रा.) २१४ • " १७० १३६ ३०२ ८३ २६१ विवरणम् १४८, १९७, २४७, २७९, " २८०,३३४,३४६,३४८ लीलावती = प्रश्नव्याकरणटीका * लीलावतीकथा (प्रा.) १९३ लोकनालिका (प्रा.) ३७५, ३८९,४०९ १६३ १०२,१४६ १५८ ९९ २८ २९२,३८७ ८ ३२ * वङ्कचूलकथा (प्रा.) १५३ १४९ * वज्रकर्णकथा १७५ ७८ * वज्र (वर) स्वामिचरितम् (अप. ) . ४३, १९०,१९३,२९६,३०५ १११,२७९ ८८. Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 432 ग्रन्थनाम पृष्ठ बन्दनकनिर्युक्तिः (प्रा.) २७८,२९५, विमलगिरिस्तवनम् २९६ * विमानविचार : ( प्रा . ) भाष्यम् (प्रा.) ५९, १२१, *विलासवतीकथा २९४,२९७ *विवेककलिका "" पत्तनस्थजैन ग्रन्थागारीय ताडपत्रीय पुस्तकानां वर्णानुपूर्व्या सूची । वृत्ति: स्तवोद्धारः (प्रा.) आलापकाः "" वन्दारुवृत्तिः = श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रवृत्तिः वन्दित्तु = श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रम् वराहमिहिरसंहिता 19 "" वसन्तराजशकुनशास्त्रम् * वसुमित्रकथा वस्तुविचारविवरणम् = आगमिकव वामनीयालङ्कारः * वासुपूज्यचरितम् (प्रा.) * विक्रमकथा * विक्रमसेनकथा * चरितम् (प्रा.) "" *विक्रमाङ्काभ्युदयम् विचारगाथा ( ? ) * विचारसप्ततिः (प्रा.) विजयचन्द्रचरितम् (प्रा.) * विज्ञप्तिका (प्रा.) * विद्यापरिपाटि (प्रा.) [ * विद्याप्राभृतम् ] विधाकुलकम् (प्रा.) विपाकसूत्रम् (प्रा.) "" वृत्तिः * विभक्तिविचारः (प्रा) १२६ * विवेककुलकम् (प्रा.) ३७३ * विवेकपादपः ( सूक्तसमुच्चयः ) ३७४ ग्रन्थनाम १६९ ९९,१६२ विवेकविलासः १७६ विशेषणवती (प्रा.) ८७,१७६,२१६ २१७,३३४ विवेकमञ्जरी (प्रा.) २४, ३३, ५८, ६७, ७०, ७८, ९५, १०२, १२१, १४५, १५२, १६१, १६२, २६३, ३६५, * विशेषावश्यकलघुवृत्तिः ११७ १४० * विषयनिन्दापश्चाशत् (प्रा.) १९७ *वीतरागस्तवनम् (? दे.) स्तोत्रम् (२) १७५ १७३ ८५ १९१ "" * * ७८,४१२ विवरणम् 55 १८,३४, १५३,४१३ *वीरजिनचरितम् (प्रा.) १७७ ३९३ १६ २४ वृत्तरत्नाकरः "" 93 "" 99 २५९ २३,६३,७०, 37 ९५, १०२, १०५, १२९, १४३, १४५, १४९, १५२, १५८, १७५, १७७, १८८, २९२, ३८६,४०६, पृष्ठे ३८३,४०६,४०९ २८,५१,८५,२७९ "" २८४ ४०९ १७६ १८७ वृत्तिः २३९,३४९,३६१ वृत्तिः २६४ १८७ (२) "" ३५ वृद्धचतुःशरणम् = बृहच ० "" ११६ २४६ ४१० २७९ ६२ पारणकम् (अप) ४३,४१२ विज्ञप्तिका ( अप.) स्तवः (प्रा.) ७७ ९३ ६० २८ २८ ३८३ Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन्थनाम पत्तनखजैनमन्धागारीय-ताडपत्रीयपुस्तकानां वर्णानुपर्णा सूची। 433 पृष्ठे ग्रन्थनाम *वैजनाथकलानिधिः (मराठी) ७४ *शान्तिनाथस्तुतिः (अप.) १३५ वैराग्यकुलकम् (? प्रा.) ६५ * ,, स्तोत्रम् (प्रा.) ३८६ व्यवहारसूत्रम् (प्रा.) १४३ शालिभद्रचरितम् (गू. ककः) १९०,२९५ , भाष्यम् (प्रा.) २३३ * ,, (प्रा.) ६१,९२,३०४ ,, वृत्तिः २३३,३४६ , मातृका (अप. माई) *व्युच्छेद्यगण्डिका (प्रा. वोच्छेज्जगंडिया) २५ *शाश्वतचैत्यस्तवः (प्रा.) ५९,१५३ १४२,३०३ *शकुनद्वारम् (प्रा.) , ८१ (२) १०६,*१७७ * ,, विचारः (प्रा.) शास्त्रवार्तासमुच्चयः २८८ शतकप्रकरणम् (प्रा.) ३२,५८,९६, शिशुपालवधमहाकाव्यम् ९८,१४८ १६४, १७६,२९८, ३०२, ३०४, , टीका (सन्देहविषौषधिः) ५८ ३८५,३८९,३९४ *शीलकुलकम् (प्रा.) १४६,१७७ , चूर्णिः (प्रा.) १४७,२५९ * ,, गुणकुलकम् (प्रा.) ७७,४१० * ,, बृहद्भाष्यम् (प्रा.) २८४ * ,, रक्षा (प्रा.) ३३ , भाष्यम् (प्रा.) २९८,३८९ *शीलवतीकथा (प्रा.) १९५ *शतपदी १३७,३७७ *शीलाङ्गरथविधिः (प्रा.) ४० शत्रुक्षयकल्पः (प्रा.) १६,५९,१७७ शीलोपदेशमाला (प्रा.) १०७,१६१ शत्रुञ्जयमाहात्म्यम् शृङ्गार( ? अमरु)शतकम् १६४ *शनैश्चरचक्रम् (अप.) शोकपरिहारकुलकम् (प्रा.) *शब्दब्रह्मोल्लासः (?) ६५ *शब्दानुशासनम् (म.) श्राद्ध(श्रावक) दिनकृत्यम् (प्रा.) १३,५९, १११, १२०, १६१, १६२, १७७, शम्भलीमतम् ९९ २९८,३८३ *शान्तिनाथचरितम् (प्रा. दे.) ६३, , * ,, वृत्तिः १६२ २२४,३३५ * , , (मा.) २०३ श्राद्धप्रतिक्रमणसूत्रम् (प्रा.) २३,३३, , , (हे.) १०७,२१६ ६३, ६९, ७०,७१, १५२, १५८, * ,, (मु.) १२४,३६४ ३०८,३६५,३७४,३९२ " , (अ.) २४३,३२५ * , चूर्णिः (प्रा.) ३८९ * ,, वृत्तिः (चं.) ८,३१ , स्तुतिः (प्रा.) १७७ * , , (पार्श्व) १८,१२० * * , स्तवः * 55 Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम ग्रन्थनाम * * 434 पसनस्थजैनग्रन्थागारीय-ताडपत्रीयपुस्तकानां वर्णानुपूर्या सूची। ग्रन्थनाम पृष्ठे ग्रन्थनाम पृष्ठे श्राद्धप्रतिक्र. सूत्रवृत्तिः(३) १३,३४,१६९ षडावश्यकवृत्तिः श्राद्धप्रतिक्रमणवृत्तिः * ,,, (४ ति.) १२६,३८६ * , उद्धारः (प्रा.) ३७३ *श्रावककुलकम् (प्रा.) २९७ पडशीतिप्रकर. (प्रा.)२९८,३०५,३९४ ,, जीतकल्पः (प्रा.) ११५ ,,, टीका २२,४३ ___ द्वादशव्रतकथा द्वादशव० षड्विधप्रवचनकौशलम् (प्रा.) १२० ,, धर्मः (पञ्चाशकम्) २९१ पोडशकम् १७४ ,, प्रज्ञप्तिः (प्रा.) ११९ *सकलतीर्थस्तोत्रम् (प्रा.) १५५ ,, प्र.श्राद्धप्रतिक्रमण *सगरचक्रिचरितम् (प्रा.) १८२ , प्रायश्चित्तसामाचारी (प्रा.) ४०४ *सङ्केपाराधना (प्रा.) १३४ , , व्याख्या , सङ्ग्रहणी (प्रा.) २३,३३,५३,५९,६८, , वक्तव्यता-षट्स्थानकम् ६९, ७८, ८९, ९४, ९६, १०७, , वर्षाभिग्रहाः (प्रा.) ४० १११,११९,१२०, १४२, १५५, , विधिः (प्रा.) ४४,१५६, १५७, २९८, ३६४, ३७६, ३७८, २९१,३७२ ३८४,३८६,४१३ * ,, , (अप.) २६२,२६३ , वृत्तिः ५९,९४,११३ * ,, व्रतप्रकरणम् (प्रा. २) १३५, , , ३७७,४०१ १५५,४१२ , रत्नम् ९९,१०२,४०६,४०९ , व्रतभङ्गप्रकरणम् ३८९ , (ह.) ११६,१६८,३७५,३९१ * ,, सामाचारीव्याख्या ६२ *सङ्घाचारटीका ९४ *श्रुतधर्मप्र. (प्रा. सुयधम्म) ५९ "सतीकुलकम् (प्रा.) *श्रेयांसनाथचरितम् (प्रा.) २४४ *सनत्कुमारचरितम् *श्वानरुतम् (प्रा.) ७९ सन्मतितर्कटीका २१६,२२७ शकुनाध्यायः १२६ सप्ततिः (प्रा.) ३२,३९,५८,९६,१६४, *पत्रिंशत्स्थानकम् ३२४ २९५,२९८,३०४,३८५,३८९,३९४ *षट्त्रिंशिका (प्रा.) ३८४ , टीका ९८,२०२,३७५ षट्पञ्चाशिकाविवृतिः ३८६ , वृत्तिः (प्रा.) ३९१ षट्स्थानकम् (प्रा.) ११,३६५ *सप्तशतीच्छाया ,, भाष्यम् (प्रा.) , सप्तषष्टिसम्यक्त्वभेदसम्यक्त्वप्र. षडावश्यकम् (प्रा.) २६३ समरादित्यकथा (प्रा.) ३४६ ,, विवरणम् योगशास्त्र *समवसरण स्तवः प्र.. (प्रा.) ५९,१७७ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्रन्थनाम * सम्यक्त्वकुलकम् (प्रा.) सम्यक्त्वप्रकरणम् (प्रा.) ५९,९९,२६२, सम्यक्त्वालापः सम्यक्त्वोत्पादविधिः (प्रा.) पत्तनस्थजैन ग्रन्थागारीय-ताडपत्रीय पुस्तकानां वर्णानुपूर्या सूची । पृष्ठे ग्रन्थनाम पृष्ठे २६४ * सामाचारी ( आचारविधिः प्रा. ४) ३७७,३९३ २९५ समुद्रमन्थनम् संयतीयम् = उत्तराध्ययनम् संयममञ्जरी ( अप. ) ६८,१६२,१९३ * सरस्वतीकण्ठाभरणवृत्तिः *सर्वज्ञव्यवस्थापकम् सर्वसामान्य स्तोत्रम् संलेखनाविधिः (प्रा.) "" * साधारणस्तवः (प्रा.) साधुजीतकल्प: (प्रा.) २६ २७६ * संवेगमञ्जरीप्रकरणम् (प्रा.) २६३, ३८४ * १९० "" मातृका (गू. माई ) संसक्तनिर्युक्तिः (प्रा.) ८९,११६,१२२ संसारदावा- स्तुतिः १५८, १७७ ४११ संसारभावनाकुलकम् (प्रा.) संस्तारकप्रकीर्णम् (प्रा.) १३,६०,६५, ७७,१२१,१६५,१७७,४०७ * सागारप्रत्याख्यानविधिः (प्रा.) ६५ साधर्मिककुलकम् (प्रा.) २७८ * वात्सल्यकुलकम् (प्रा.) २७३ सामाचारी (प्रा.) 55 १०३ ११५ साधु प्रतिक्रमणसूत्रम् (प्रा.) ५८, ६४, ७१ ३२,१८८ "" २९७ सामायिकनिर्युक्तिः (प्रा.) २७८ प्रकरणम् (प्रा.) १३१ उद्धारः (प्रा.) "" २६१ सामुद्रिकम् (नारदीयम् ) "" ३७ = उत्तराध्ययनम् (२) (३) ५ * "" 99 *साम्यशतकम् * सारसङ्ग्रहः (प्रा.) * सारसमुच्चयकुलकम् (प्रा.) सारस्वती प्रक्रिया सार्धशतकम= सूक्ष्मार्थविचारसारः सिद्धचक्रस्तुति: (प्रा.) सिद्धप्राभृतम् (प्रा.) टीका २६ १२३ १२२ "" * सिद्धसेनकथा चरितम (प्रा.) २८, १९४ सिद्धहेमशब्दानुशासनम् (सूत्रपाठः) ३७७,३८७,३८८, ४०१,४०२ ४०२ " गणः वृहद्वृत्ति: ३३,५७,६६,७७, ९०, १०६, १३५, १६२, २५६, २८२, २८३, २९४, ३७५, ३७७, " "" 435 55 "" ३७३ ८१ १७१ १४९ १५३ २६५ ४०१ 99 ७३, ९४,९९,११२, १७०, २८२, ३७७, ३९१ टिप्पनम् ३८७ अवचूरि : ९९, १२२, १५८, १६१,१७०,३८८ ३८६,४०१,४०७ लघुवृत्ति: ३०,३१,५९,६६, 95 ६२,११४ ५७,१७५,१९७ *सिद्धिकुलकम् (अप. ) ४१२ . Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 436 ग्रन्थनाम सिन्दूरप्रकरः * सीताचरितम् (प्रा.) "" पत्तनस्थजैन ग्रन्थागारीय- ताडपत्रीय पुस्तकानां वर्णानुपूर्व्या सूची । पृष्ठे ग्रन्थनाम ६६, १२९ सूर्यप्रज्ञप्तिः (प्रा.) टीका १३६ * सुभद्राचरितम् (अप.) * सुभाषितकुलकम् (अप . ) * महाकाव्यम् सत्त्वम् (अप. सत) "" * सुकोशलकथा (प्रा.) "" * चरितम् २७१, २९७,३०४ * स्तुति: (प्रा. जिनस्तुतिः ) १२०,२९१ * सुदर्शनाचरितम् (प्रा.) २०८ स्तुतिचतुर्विंशतिकावृत्तिः सुपार्श्वनाथचरितम् (प्रा.) १९७, २३१ १९६ स्तुतिद्वात्रिंशिका (२ अप, सं.) २५ * सुबाहु चरितम् (प्रा.) ६१,९१,१४३, * स्तेनकथा १३ * स्तोत्रसङ्ग्रहः : (अप.) १९५ स्त्रीनिर्वाण - केवलिभुक्तिः ३,४०० १३ " सुरसुन्दरीकथा (प्रा.) *सुलसाचरितम् (अप) *. "सूक्तमाला सूक्तमुक्तावली 19 सूक्तरत्नाकरः (१) "" ? (२) * सूतसङ्ग्रहः ? (१) 99 द्वात्रिंशिका (प्रा.) ? (२) "" (३) * सूक्तसमुच्चयः (विवेकपादपः) सूक्ष्मार्थविचारसारः (प्रा.) 59 39 २८, १७६ स्तवः (जिनस्तवः ) "" ५ १७६ स्कन्दनाम ४५ * स्तम्भनपार्श्वस्तोत्रम् (प्रा. दे.) २६० १५७ १६१ १५८ २६४ ४१० ९१, ११९, २९५, २९८, ३०३, ३०५,३९४ २३१ 95 ५७ १८२ १८८ ३८७ वृत्तिः 99 १३७ * स्थानकप्र. ( मूलशुद्धि: प्रा. ) ३३,२९९ १८६ * स्थानकस्तवनम् (प्रा.) १३४ सूत्र कृदङ्गसूत्रम् (प्रा.) २१५, २४२, * स्थविराकथा स्थविरावली (प्रा.) ३०,६९,७०,१२९, १६१, १६९, २६३, २७७, २९७, ३०५,३६५,३८४, ३८६ ३८५ १८७ २०१,२१६ " १९७ स्थानाङ्गसूत्रम् (प्रा.) ११५, २१६,३९३ टीका ४०७ * स्थूलभद्रसन्धिः (अप. ) १८७ * स्नात्रकुसुमाञ्जलिः ३९,५८, स्याद्वादमञ्जरी स्याद्वादरत्नाकरः विवरणम् (प्रा.) ४६ * स्वप्नद्वारम् (प्रा.) १६३,१६४,३९७ हरिकेशीयम् = उत्तराध्ययनम् हास्यचूडामणिः वृत्ति: २९७,३५९,३६१ * हितोपदेशः (प्रा.) निर्युक्तिः (प्रा.) १३, २९७,३५९ * हेतु बिन्दुः (सटीक ) वृत्ति: २१५, २४२, ३५९,३६१ हैमी नाममालावृत्तिः ४१२ ३०७ ११२ २०१,२४६ ८३ २५९ १३० १७७ १४८ Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तनस्थ जैनग्रन्थागारीयसूचिपत्रे निर्दिष्टसंवत्सराणां सूची। ११२७ ११३९ 6 वि. संवत् ग्रन्थरचना-लेखनादि पृष्ठे वि. संवत् प्रन्यरचना-लेखनादि पृष्ठे ९५६ (शकाब्दाः ८२१) रचना १८ ११९८ लेखनम् १२९,२८२ १०७३ , ३ ११९९ ,, २१९ १०८० [विरुदप्राप्तिः] ४१४ १२०३ १७६ रचना ४१३ १२०८ २६१,२९० , २८६,४०२ १२११ १८१,१९६ ११५४ लेखनम् ३७८ १२१२ १५२ ११५७ २०३ १२१३ १[१]५९ ६० १२१९ ११९ ११६० रचना ३३९,३५० १२२१ , ३०,९८,३८३ [११]६१ १५९ १२२२ रचना ११६६ लेखनम् ४२ १२२३ लेखनम् २५६ ११६९ रचना २९३ १२२४ ११७२ २२ १२२७ , २२६,२८३ [११]७५ १७८ , रचना ३९९ ११७८ ११७ १२२८ लेखनम् १९,१०५,३२३ ११७९ १२ ॥ रचना १२२ ११८१ ३८५ १२३१ लेखनम् १४३,३७५ रचना ३९० १२३२ ३१,२५९ ११८५ लेखनम् ३४ १२३३ रचना ९७ १२३६ लेखनम् ५२,२८६ ११८६ ३९२ १२३७ ३१ १९८७ ३५९ १२३८ रचना २०८,३२४ ११८८ १२ १२४२ १४८ १[१]९० १६२ १२४(?)६ रचना ११९१ ५५,५८,१८३ १२५४ २१२ ३११ १२५५ लेखनम् १४८ ११९२ २९ १२५८ ॥ ४३,१६६,२९.१, ११९७ २८५ ३८९,३९१ लेखनम् 2 रचना २५२ लेखनम् ___" रचना Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 438 वि. संवत् ग्रन्थरचना-लेखनादि लेखनम् १२५९ १२६१ १२६२ १२६४ १२७१ १२७२ १२७३ १२७४ 19 19 १२७५ १२ (१) ७८ १२७९ १२८२ १२८४ 33 १२८६ १२८७ १२८८ १२८९ १२९० पत्तनस्थ - जैन ग्रन्थागारीयसूचिपत्रे निर्दिष्टसंवत्सराणां सूत्री । 23 १२९२ १२९३ ,, १२९४ १२९५ पृष्ठे वि. संवत् ग्रन्थरचना-लेखनादि पृष्ठे ३०९ १२९५ ४०८ ४०२ १२९६ ३३३ १६६ १२९७ ३७६ 33 ३९७ १२९८ १७६ १२९९ "" ३८७ ३४,५८,१९७ १३०० २९३ १३०२ पुस्तिकाग्रहणम् ४०२ १३०३ लेखनम् २२ " " "" 19 "" "" 99 रचना 99 93 "" 13 29 रचना लेखनम् १४२, २७७, " 99 १२९१ रचना १९,२०,२२, १३१४ ९६,३७८ १३१६ ३५० १३१७ ३१,९४ १३१८ ७३ १३१९ ३४३ १३२२ २८४,२९३ १३२६ १३२७ रचना १३२८ लेखनम् १११,२०६ १३२९ ३३,१६३ १३२७ "3 लेखनम् 11 95 ३०५ १३०४ "" २३,३३४ "" १३०५ २९१ १३०६ १,१५३ १३०७ १३०९ ४०० १३१० ६३ १३११ ३२ १३१३ २०८, ३७४ २७४ रचना लेखनम् 99 22 39 53 रचना लेखनम् रचना 23 लेखनं व्याख्यानं च लेखनम् 93 " 33 "" 35 95 19 "" "" ५१,२८२,४०१ ( रचना) 99 रचना लेखनम् २६८ ६०,९८,१२० "" ९ २३८,२७१ ३७७ २७२ १४० १४९ ६४ २९२ ५२ १६२ ४० १२२,२१८ ४०२ ३३,१६९,२३० "" रचना लेखनम् ३,२३,१३५ ६६ १९१ ३९० २३९ १४ १२५ ३१० १८९ रचना लेखनम् ३,२३,१३५ ३१० Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 55 १३३४ वि. संवत् ग्रन्थरचना - लेखनादि १३२८ रचना १३२९ लेखनम् १३३० १३३१ १३३२ १३३५ १३३६ पत्तनस्थ- जैन ग्रन्थागारीय सूचिपत्रे निर्दिष्टर्सवस्वराणां सूची । "" १३४४ १३४६ १३४७ १३४९ १३५३ १३५४ 59 "" रचना पुस्तिकाग्रहणम् लेखनम् "" "" १३३७ १३३९ " १३४३ पुस्तिकाप्रदानम् लेखनम् 95 "" "" 55 21 439 पृष्ठ पृष्ठे | वि. संवत् ग्रन्थरचना-लेखनादि १८९ | १३७३ [ चन्द्रशेखरसूरिदीक्षा ?] ११६ ५३ | १३७५ १४४ १११,३४३ | १३७७ ४०६ ३४९,३९४,३९७ १३७९ १६८ ३५६ | १३८१ ६२ ४११ | १३८४ ३८६ | १३८६ व्याख्यानम् "" लेखनम् रचना लेखनम् "" १३५५ [ चन्द्रशेखरसूरिजन्म ? ] ११६ १३५७ लेखनम् १३५८ १३६४ १३६७ १३६८ १३६९ १३७० [१३१]७१ १३७२ 95 पुस्तकग्रहणम् व्याख्यानम् लेखनम् 34 " ३६,११९ | १३८८ ३८७ | १३९० ७४ | १३९१ १७६ | १३९२ २२ | १३९४ ३२७ | १३९५ ३१०,३७९ | १३९६ 55 पुस्तकप्रदानम् लेखनम् "" २३९,४०६ "" "" "" 99 29 99 "" "" A "" "" "" "" २०१ | १३९८ १३८ १४०० १६५ | १४०३ २४८ | १४०७ २४८ | १४०९ ३०९ | १४११ १४१८ 39 ११२ १४२० [ जयानन्द- देवसुन्दर २६७ ३७७ | १४२४ २३९ | १४२५ ३२८ | १४३६ ५९,४०७ | १४३७ 99 99 "" "3 प्रदानम् 19 ३७,२४३ २३१ १४६ ३९८ प्रदानम् "" ग्रहणम् लेखनम् २१६,२५३ ४०५ ४१३ ३८८ "" ४०३ ३२४ ११३ ३४६ १६२ प्रदानम् ३२३ ३४४ सूरपदमहः ] २५८ ३२३ ३२६ २१५,३६४ ९३२ ३६४ "" ३८७ प्रदानम् "" १५७ | १४४·१ [ ज्ञानसागरसूरि पदोत्सवः ] २५८ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७७ १४७८ % ع ع २४३ २४८३ २०८ १४८५ " 440 पतनस्थ जैनप्रन्यागारोबसूमिपत्रे निर्दिसंवत्सराणां सूची। वि. संवत् अन्यरचना-लेखनादि पृष्ठे वि. सवत् अन्य लेखनादि पृष्ठे १४४२ लेखनम् २२१,३३४ १४७३ लेखनम् २१४ " [गुणरत्रसूरिपदोत्सवः] २५८ १४७५ २०२ १४४३ लेखनम् १२४ १४७६ २२७ १४४४ , ८१,१२३,२३२ २३१ १४४६ ,, सोमतिलकसूरिभाण्डागारे १४७९ २०१,२१२,२३१ २२७ १४८० २०१,२२१,२३८ लेखनम् १४८१ चित्कोशे. २१३ .१४४९ २३१,२३८ १४५० १४५१ २१६ " , ज्ञानकोशे च स्थापनम् २०९ त्रुटितं समारचितम् , १४५२ लेखनम् १२२,२४२ १४८६ लेखनम् , १४५३ २३९ १४८९ , २०१,२०३(२), १४५४ , २०९,२४०,३६० १४५५ २४० १४९० आलेख्यपटौ १५४ १४५६ उद्धारः २१०, १४९१ लेखनम् २४६ ३४८,३४९ १४९२ ,, २१४,२४२,३३४ १४५८ २२७,३३३ १४९७ पुस्तकत्रुटितपूर्तिः ११३ १४५९ , पत्तनीयकोशे लेखनम् २४४ निवेशः २२८ १५०८ वाचना ३६१ १४६२ , २० १५१६ शोधनम् ३६१ १४६५ ,, पत्तनीयज्ञानकोशे १६४८ [जिनचन्द्रसूरेः चातुर्मासकम् निवेशः २० स्तम्भतीर्थे] ४१५ १४६७ २१६ १६५१ [पत्तने वाडीपार्श्वनाथ१४६८ २४: चैत्यप्रारम्भः] ४१४ १४७० २०५,२३३ १६५२ ( अल्लाई ४१) , २४६,२५२ [प्रतिमास्थापनम् ] ४१५ २२४ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्तनस्थ-जैनग्रन्थागारीयसूचिपत्रसूचितानाम् इतिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची । ३८९ २४५ १८४ विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम मअउज्झ १५६ अजितसिंह सूरि २८७ अकबर ४१४,४१५ अजितसुंदरी गणिनी अगडदत्तचरित १४ अजियजिण=अजितजिन अग्गेणीय अग्रे(प्राय)णीय अजियसिंहसूरि अग्रे(प्राय)णीय १२२,१२३ अंचलगच्छ अघड निव १७४ अंजणसुंदरी अघोरमुखा ७६ [अणंतसामि जिण-चरिय] २६० म अंग ४८ अणहिल्ल नग(य)र २०९,२५२ 'अंगइया १५६ 5 - पत्तन ८९,१८१,२०२, मअचलपुर २३१,४१४ अचिरादेवी ३२५ पाटक १२,२२,४३,१०५, २०१ १२४,१३५,२०१,३२७,३८९ अजय ३६९ फअणहिलपाटक १९,५५,६२,७४, ३३२ ९७,१३५,१५६,२१४,२२६, अजयदेव ३९५ २४६,२५१,२५६,२८६,२९०, 'अजयमेरु १३० ३१६,३२०,३२१,३५९,३९१ अजयराज २२५ फअणहिल(ल्ल)पुर २१६,२४१,२४३, अजयसिंह २५३,३६१,३८७,४१५ __=अजियसिंह सूरि __- पट्टन अणहिलपाटक अजयेंद्र ३६९ : - वाड% , अजित जिन ९५,१४०,१९२, -नयर3 २९९,३६४ फअण(न)हिलवाड पुर=,, [ - चरित] ३६४ फअणहिल्लवाडय पुर= ,, अजितप्रभ सूरि २४३,३२५ [अणुओगदार] १२९,३१९ अच्छुप्त धनपति म एतादृक् चिह्न स्थानविशेषाभिज्ञानायात्र प्रयुक्तम् । । ईदृक्चिह्ननात्र भूपालाः सूचिताः । ईदृशचिह्ननात्र महामात्यादिराज्याधिकारिणः।* एतादृशचिह्नाङ्किता अत्र प्रन्थकाराः समभिज्ञापिताः। 56 Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 442 पत्तनस्थजनग्रन्थागारायसूचिपत्रसूचितानाम् ३४५ अंध्र w moc ocw c. - विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम [अतिचार] १९८ अभयश्री अहगकुमार ७७ अभयसिंह १४४,१६७,२२७,३२७ *अनुभवस्वरूप ३७३ - सूरि १४९ [अनुयोगद्वारचूर्णि] १२२ अभयसीह ३८६ अंतर्वेदी ४८ *अभिनंद ४९,१७० ४८,४९ अभिनंदन जिन १९२ 'अन्नपाटक १८१ अमर सूरि ४०५ अन्नलदेव २८५ *अमरचंद्र सूरि ३५,३६ अपसरण २२५ अमरदत्त 5अब्बुय गिरि १५६,२५४,२५५ अमरप्रभ सूरि ३६,३७९ *अभय गणि १५८ अमरी अभय सूरि १८२ अमारिफरमान अभयकलस ३२४ अमृतदेविका अभयकुमार (पं.) १७८,३१३,३८२, अमृतपाल ३८१,३८२ ३९९ अमृतादेवी अभयघोष सूरि २८१ अंपिनी अभयचूला २२७ अंब(अम्म)एव सूरि २५३,२६० *अभयड दंड० ३८८ अंब(बा)एवी २५४,२५५ *अभयतिलक १५१,१६६,२१६ अंबक ३६२ *अभयदेव सूरि (१ वादी) २२७,२४५ अंबट - सूरि (२ नवाङ्गी०) ५७,११६, अंबड १६०,१८१,२०१,२१४,२१६, अंबदेव उ. २८६,२८९ २२१,२२८,२३९,२४०,२७९, अंबा २८७,३०४,३३४,३६५,४१४ अंबिका -- (३ इ.) १४,३१२,३१४ अम्रदेव उ. २१८ -- (४ क.) ३२९,३३१,३३२ अरिठ्ठनेमि --- (५ रु.) १६०,२७९ अरिसिंह ५२,१३८,१४६,३३२, --- (६ बृ.) १२५ ३४७,३४९ . २० अरिसीह ५२,३७० २९३ अर्जुन २२४ ४१४ m ४०७ २४४ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम + अर्जुनदेव + अर्णोराज 5 अर्बुद 5 अर्बुदाचल - वसति अचैत्य अर्हत् (न्) 'अलक *. अल्लाई संवत् 5 अवंती देश अवहरि अविधवा अशोकचंद्र अश्वदेवी अश्वनाग +अश्वसेन 5 अश्वावबोध तीर्थ अष्टापदचैत्य असोग सूरि 5 अहिछत्र पुर आइजिण आविजिन आका आगमिक ग सूरि आघाट दुर्ग [आचारकल्पाध्ययन] आचाल्य (?) * आजड * आणंद आनंद सर १३०,३६९,३९५ इतिहासापयागिनाम्ना वर्णक्रमण सूची । पृष्ठे विशेषनाम १४,७४, १३५ आदिजिन सचिवेन्द्र ४८,२१५ आद्यजिन ४१४ आद्यन् ३२६ | आनंद सूरि ६,७,२३५ आनलदेवी ३९ आधु ४१५ आभड वसाक आभीर ४८, १९४ ३२२ | आभू ३४५ | आम ३७८ | | आमण २२६ आमदेव ३६२ | आमाक १४४ आंबड २०७, ३२४ आंबा १२५ आंत्रकुमार ९० आंबू आम्रदत्त आम्रदेव २३९ आम्रवर्धन १४५ ४०६ आम्रश्री १८९ / आया ३९० १८१ ४८ ३७, ३८, ३९ आल्हण ५२ आल्हणा देवी सिंह सीह 443 ६७,७१,८१,९१,१०७, १०९,२१० ३११,३५१,३९३ १०९,३२९ ३६,२३६,३७९ ३३०, ३४७ १०० १२२,१४४ ४८ पृष्ठे २५५ आल्हू ५२ | आवड. ३०८ | अवंतिय देश २२१,३६३ १५२ ३१५ ५० ५०, १५२ ५२, १४४, ३५२, ३५४ २५७ ५० ४०२ २०६,२२४ २०६ २२४ ३५८ २३९ ५२ ३३२ 39 ५२ · ३४६ २१५,२४० २३९ ३०० Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 444 विशेषनाम [आवश्यक नियुक्ति ] आवस्सय आशापाल - आशापुर आशाप्रभ आशाराज आशा आशादेवी _८१,१४१,२६६, ३३५ ३६२,३६३ आशाधर ३२८,३३२,३४४,४०७ इ (ई) ला (ल)क 5 आशापल्ली ३०,१११,१३८, २१९, इक्खाग ( ईक्ष्वाकु कुल २५, ९५, १३६ ३८८ ईश्वर १४८ ४११ १७ २११ ३२१ २७ २४५, ३२१ १५६,३४१ १५६,१९४ आशुक महामात्य आषाढाष्टा हि कामारिपुरमान आसक आसचंद्र आसचंद्र गणी * safa "" आसदेव आसदेवी आसव गणी आसधर आसराज = आशाराज आसल . देवी - आससेण= अश्वसेन आसाधर ―――― पत्तनस्थजैनप्रन्थागारीयसूचिपत्रसूचितांनाम् विशेषनाम १२ आहाड ८८ आणि १३९ इंदभूह (ई, यि ) = इंद्रभूति १३९ इंद्रभूति आसावल (ल्ली) आसुधर आहड पृष्ठे ३३२,४०२ २२ 5 उच्चा ९६ उच्चानागरी 5 उज्जयंत 卐 फ ८९,३८० १२ ४१५ १४४, ३४६ २८७ ३३ १५२,१६१,३१४, ३२९ सूरि फ्रउजिल 5 उज्जेणी 5 उज्जेत सेल उज्जोयण सूरि उडी उत्तरा २२६ १३९ ३८० उदयचंद्र २३९ गिरि तिथ ३३२ २२६ २८७ २८४,३४२ [उत्तराध्ययन-वृद्धटीका ] ३३९ [उत्तराध्ययनवृत्तिप्पु० ] २५८,२८३,३५६ 5 उत्तरापथ (उत्तरदेश ) ४८,४९,१५६ | * उत्पल भट्ट * १५६ ११२ गणी ३३८ २८५, २८९ ४८ ३६२ २३३ ३५८ ३८६ ५१ धर्म ३६१ * उदयप्पह= उदयप्रभसूरि ३०२,३१९ * उदयप्रभ सूरि (देव) १४, २३५, २३७, २३८,२७९ (२) ३६५ ३७८ ३६१ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम उदयम उदयराज उदयवल्लभ सूरि उदयसागर सूरि उदयसार गणी (पं.) उदयसिंह * सूरि उदीच्य (ज्ञाति ) उद्योतन सूरि ( १ ) (२) उपकेश वंश [उपदेशमाला ] वृत्ति ] [ [ उपमिति ] उपाध्यायमिश्र उपासकप्रतिमा फ्र उवएस [उवएसपय] [उवएसमाला] इतिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची । विशेषनाम [ उवमियभवपवंच कहा ] [उवा सगदसिया ] उसभजिण ऋषभ जिन ऊकेश - गच्छ 卐 पुरीय गच्छ ऊकावार ३४४,४०८,४०९ पृष्ठ ष्ठ १५ ऊदल १४४ २२३ ऊदा २०१ २८२,३६१ ऋषभ जिन (देव) २५, ४२, ४४, ४५, ३१४ ३६१,४१५ १०६, १२१, १२२, १४७, १५३, १५७, १९६, २०६, २४४, २५०, २५२, २५३, २५५, २६०, २६७, २७०, २९८, ३२१, ३३५, ३३६, २८० ३५०, ३५४, ३८१ ११३ २१८ ४१४ २३२ ३२४, ३४६ २०६ ३२६ ४०६ १८१ फ्रउ (ऊ) मता ग्राम १५०,२९० *उमास्वाति ५०,९१,९७,१५८, ३९७ ४०,६८ १५६ २९ २५१ कक्काचार्य ३ ३१९,३५९ 5 कच्छ १५६ ९०,३१९ कच्छूलिका (कच्छूली) ३४४ - ३४६ 出 ३५८ । ३४४-३४६ १०५,३८१,३८२ [ १२३ २५४ ओकाक २०२ फओड़ ४८, ११७,११८ [ओवाइय सुप्त ] ३५८ ओस ( उश) वाल (ज्ञाति) ३८६, ४१४, ११५ (वीशा) १४६ ४८ 5 औसीर †कईवच्छल =हाल कक्कसूरि चरित्रम् ] भवण १२३ कडवयं कटुकराज ( ठ०) पार्श्वनाथ ३, ३४ कडुआ २९ कडुदेवी वंश ३६,२०२,३२७,३७९, कडुयराय ४१५ २९० कडू 445 2 २.७४ २३९ . ३४४ ३३० ३४४ २०८,२०९ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 446 १०० कर्मण कर्मसिरी १५६ कर्मिणि ३२८ पत्तनस्थजैनप्रन्भागारीयसूचिपत्रसूनितानाम् विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम कणभुक् (भोजि) कणाद कर्पूरदेवी २५७,३५३ कणाद मुनि ५४,१४८,२०३,२८३ कर्पूरी १४०,३२८ कंठा २४२ कर्म २४१,२४२,३१४,३४५ कदंबक भट्ट २१४ कदंबका १२३ कनकप्रभ सूरि ४५,११०,१२४,३३३ कर्मसिंह १९८,२२१,३२८ फकन्नउज्ज ३६,३७९ किन्नएव = कर्णदेव कर्मी किन्न नराहिव= , भकलिंग ४८,४९,३०० मकन्यकुब्ज ४८,४९ कलशेश्वर १०१ कपर्दी श्रा० ५०,१८१ फलिकाल(युग)गौतम २३६,३२९, - यक्ष ३६६ [कप्पचुन्नी ३५९ फकलिकुंड [--- सुत्तभास] [कल्पटीका ३५४ 卐कप्पडवाणिज्ज | [कल्पविवरण २३७ १४५ [कल्पाध्ययन ३५४ कमल कल्याणरत्न सूरि कमलचंद्र २९१,३३४ कमलसिंघ सूरि कवडी-कपर्दी कविवत्सल हाल कमलसुंदरी १९५ 'कंपिल्लट्टण पुर कविसभाशृंगार ३३१ 卐कम्मग १५६ कांऊ २३८,२४१ [कम्मप्पयडी] २५१ कागद १२२ करकंडू २४,३०० कर्ण उ. ३८३ 5कांची + - देव १५,२५५,२८६ कापिल २३६ काट १७,४८,४९ काम - राज १७९ - गइंद ३९१ मकर्णावती १२,२०५ | 5 कामरूप कर्णेश्वरदेव १२ कामलदेवी २१४,२४१ ३५८ २८ कमठ ६५० 卐काछ ४८ ४८ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ ० Xir ur ४ ० इतिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची। 447 विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम ॐकामाक्ष ४८ कुिमार नृपति-कुमारपाल कामी ३४४ 'कुमारपाल १५,१७,३२,२०४,२५५. 卐कांबोज ४९ २५७,२८०,२९०,३५३ कायस्थ ज्ञाति ६०,१३०,३३३ 1 - देव (नृप) १०५,२२६ - वंश २१९,२४०,३६० कुमुदचंद्र १२५ काल(लि)काचार्य (सूरि) ७४,१४७, कुरंग १४८, १५१, २६१, ३७२, कुरा ३७७, ३८९, ४०६, ४११ कुरु वंश कालप कुल ११८ *कुलचंद्र कालय-कालक काला ३६० ३८२ कालिदास कवि ४९,३३०,३६८ ४०७ कालुक ३४५ कुलधर २८३ प्रकाशी १७ कुलप्रभ सूरि काशीधर ३७३ कुलभूपण गणी ॐ काश्मीर २७,४८ कुलमडन २५८ फकासहरय गच्छ २११ कुलमंडन सूरि जकिराडउ [कुवलयमाला कहा] २०४,३३५ 卐 किरात कुंवरजी ४१५ फ़कीर १७,४८,४९ कुंवरसीह महं. ४०२ कीर्तिचंद्र गणी कीर्तिश्री गणिनी १४६ कीर्तिसमुद्र ११७,१६६ कील्हणदेवी मकुंकम ११०,३२८ कुंडणी , २००,२२४ कुंदकुंद वंश ४८ कुमरनरिंद-कुमारपाल कुम(मा)रवाल , केल्हण कुमरसीह २८३,३६१ केल्हा . १९९,२२२ कुमार (प्राग्वाट) ३४५ -- क ३४५ occ ४ २१५ १५६ ४८ ३२ कुसुमपुर १४० करपाल ३८१ कृष्ण ४८,१५६ कृष्णपि १५६ कृष्णसरस्वती ११३ 5 केकाण केगइ .४५ ३६२ Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 448 विशेषमाम केशरी केसव *कोऊहल ( कुतूहल ) कोकणक कोटिक गण (गच्छ) * कोट्टा (या) चार्य को ० = कोठारी कोडिय - कोटिक गच्छ (गण) 5 कोरिं (रं) ट फ्र कोलापुरी कोल्लाक 5 कोशल कोसल (ला) = कोशल गच्छ कोसला पुरी * क्षेमकीर्ति क्षेमराज क्षेमसिंह खंगार खट्टऊ (?) देस फखंडिल खदिर खदिरालुका खंदअ पत्तनस्थ जैन ग्रन्थागारीयसूचिपत्रसूचितानाम् पृष्ठे विशेषनाम २७७ खीमराज १९३ खीमसिंह १९३ खीमाक १७,४८,४९ खीम्वड ६,२११,२५३, । खेटक खंभतित्थ नयर भाइत्थ पुर भाइथी भाषा खरतर बिरुद वसति ३३८ 5 खेटकाधार मंडल २४६ खेड १५४ खे (षे) तसिंह खेता १५६ खेताक ३२७,३६४ खेतू खोखी ३२८ ४८ + गइयाण (पाल) देव ११,४८,१३६,१६८ गउरदे गउरी १९५ * गग्ग रिसि=गर्ग ऋषि ३५४,३५६ फगंगा तीर १५, १७ देवी ३४४,३४७ गज ३३८,३३९,३५० 5 गजउर पृष्ठे २५८ २५७ २२ २९० १८३ १८३ १५६ ८८ १५४ १५२ २४७,३२८ २४८ २७४ १४५,४१४ गल्लाक ( गजधर ) ४१४ गागलदेवी २०३,२१६ ३६० ३४४, ३४५ ४८ ३२१ १५६ गढ़ाक "" गणदेव ३६२ 5 गंधार ४८ 5 गंभूका (य) नयरी १२०,१२२,२५३ १४२ फगंभूता ३३९ * गर्ग (१) * ६६,२००,२२३ २२३ १५६ ३४५ ३४९ ३०० १८ ८० ऋषि (२) २०,४५,५८,९६, १४२,२६२,३९४ ४१५ २४३ Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम गांग * गांगिल महं गाजी [गाथाकोश ] गांधिक 5 गुज्जर देस 卐 + गुज्जर गुडकृती भाषा नयर नरिंद्र फ गुड्डराय * गुणचंद्र गणी वादी गुणदत्त गुणदेव गुणसार गुणसेण इतिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची । पृष्ठे विशेषनाम ३६० * गुणाच्य १८३ गुणावास २८६ गुणेंदु ( दि०वादी ) - गुणचं १७४ गुणेयक २४३ गुर्जर ज्ञाति १५६,३१७ 5 गूर्जर देश 1 ३१७ ३१९ वंश 5 ३७१ | गुर्जरात्र देश २७४ गुर्जरी राग १५६ †गूर्जरेश्वर ३६१ गोई ३६,३६९,३९६ गोकर्ण (मानतुङ्गसूरिशिष्य पं . ) २९३ गोगिल [ प्राग्वाट वंश ] ३४५ | गोधा गुणधर ३६,२८४,३४६, ३७९,३८६ गोव (व)ल गुणभद्द २११ | गोमंडल गुणभद्र पं. ३४४ | गोयम = गौतम * गुणरत्न सूरि ( १ ) ७१,२१४,२१५, गोयाल सूरि (२) गुणराज गुणश्री महत्तरा गुणाकर पं. (संडेर गच्छीय) २२३ | गोनी १५० | गोपाल गिरि गोरा 5 गोल देश २५८ ७३ २५८ +गोल्हण ३०९ | गोवगिरि = गोपालगिदि 449 ३३८ ३३ | * गोविंद गणि ( श्वे० ) - वा० गणि (देवानंदितगच्छीय) १९६ + गोविंदचंद्र 57 पृष्ठे ४९ ३४० १७,४८,४९,११२, १७२,२२९, ३५० १६६,२३०. १७२ २६८ १९८ १९८,२२१ २७६ २४४ २५८ २२७ १५४ १६८ १५६,३१६ २५७,२५८ २७७ ३७९ | गोवर गाम २६६ १८३ गोविंद ( श्रीमालवंशीय ) १९९, २००, २२२,२२३,२२४ १७४ २३८ २८५ १७९ १९,३७७ २६१ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 450 विशेषनाम * गोविंदाचार्य गोष्ठिपद गोसल गोसा गौड गौडान्वय पत्तनस्थ जैन ग्रन्थागारी व सूचिपत्रसूचितानाम् पृष्ठे विशेषनाम ३८५ *चंद (द्र ) महत्तर (ऋषि) * गौतमस्वामी गणधर ८,४०,४९,९२, गौरदेवी १२४,१४१,२०४, २६६, २६८, चद्गच्छ-चंद्रगच्छ ३०८,३२६,३३६ चंदप्पह = चन्द्रप्रभ घंटामाघः 5 घोघा वेलाकूल 5 घोषपुरीय गच्छ २४७,३४४,३८०,३८१, चंद्र १५२ ३४२ चंद (द्र) सूरि १७६ चंदकंती प्रवर्तिनी ४८,४९,१२८ चंद (द्र ) कुल ९,३७,८७,१७०,२१४, २१९ २१७,२५३,२८५, २८७, ३३८, ४०८ २२८,२२९,२३९ चउपइबंध चक्क ( क ) सूरि-चक्रेश्वरसूरि चक्काउह=चक्रायुध २०५,३३६,३३७ * चंद्रप्रभ उपाध्याय चंद्रप्रभ जिन चंड * चंडपाल चंडराद्यंमुखी चतुर्थमल्ल [ चतुर्विंशतिजिनचरित] [ चतुष्कवृत्ति ] ३८२ चंद्र गणधर ( सूरि ) ४९ चंद्रगच्छ ११०,११३,१६२,१९१, २४४,३३१,३४८, ३५६, ३६३, ३९० चक्रायुध चक्केसरसूरि (चक्रेश्वराचार्य वर्धमान सूरिशिष्य) २२७, २८४, २८५, ३५९ चक्रेश्वरसूरि (धर्मघोषसूरिशिष्य ) १२६, २९३,३५७,४०४ प्रचडावलि ( ल्ली ) १५६,२५४,२५५, १५१ २६६ *चंद्र सूरि मलधारी ८, ९,१४,२३,५९, ६९,१४२,१५५,१५७, २९४ १२२ * पृष्ठे ३२, १८८, ३९४ २५३,२५६ २७१ सूरि सूरि * २९० १७४ १६२ ७६ २४८ २५३ चंद्रशेखर सूरि ३८७ 5 चंद्रावती १०९ ३३१ १४०, १४२ १७२,१८३,२४५, २५२,२५६ ३०२ ४ ६,७ २७,२८,२८१,२९२, ३३१, ३५६ महत्तर १८,३४,४१३ सूरि ( जयसिंहसूरिशिष्य) ७२ १६२ ११६,२१५ २३,४८,९६,२०८ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७,२४८ डिय-चेटक १३९ घचेदि चांदू ११८ इतिहासोपयोगिनानां वर्णक्रमेण सूची। विशेषनाम पृष्ठे । विशेषनाम चमाइ २२६ फचित्कोश चंप(पा) १५६ चित्तउड चित्रकूट चंपकनेर १५४ चित्तव २६९ चंपला देवी ३८०(२) चित्तावालय गच्छ २०८ चंपा(मं.) ४१५ चित्रकूटाचल ३४,६६,१५६ म चंपा उरी १५९ चि(चै)त्रपुर-महावीर ३५५ चरणसुंदर गणी १७०चीबा ग्राम ३४४ 'चरमजिणाययण ३१६ चेटक १४५ चांडसिंह ४९ चांद्र कुल ६,१६०,२३२,२७९, चैत्यपद्धति ३५५,३९५ [ चैत्यवंदनचूर्णि ] - गच्छ चैत्यवासि पक्ष ४१४ चापदेव चैत्रगच्छ ३५५ चामिका ४८,४९ चामुंडराय चिौलुक्य वंश ७,११८,१८१ चांपल फचौसा १०४ छड्डिका चांपला - देवी [छप्पन्नय गाहा] ३७२ चांम छाडउ २०१ चारित्रलक्ष्मी साध्वी छाडू चारुभट ४०२ चार्वाक २३६ छाहड ३४५ चालुक छीता १२३ - वंस-चालुक्यवंश जगचंद जगचंद्र चालुक्य वंश २१२ जगचंद्र सूरि २०८,३५५ चासपा १५२ जगत्सिंह(पल्लीवाल) चाहड १३९,१४४,२२६,२४८,३७५/ -- (१ प्राग्वाट) चाहिणी | --- (२ , ) ३८१ - देवी ११२,३८१ | - (गूर्जर श्रीमाल) ' ३५३ फचौड ---- देवी ३५३ ३२८ छत्रभारवि Sonococccc ०४ ocm AWA ४९ २३८ ع مم ع . : १०५ २२० Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 452 विशेषनाम जगदेव प्रतीहार जगसिंह ( ऊकेश ) 5 जंघराल जज्जउ ठ. 5 जंत्रावलि ग्राम जंबु (बू) [ नाग ] 5 जंबुद्दी ( दी ) ब= जंबूद्वीप जंबूद्वीप 5 जंबूसर जयचंद्र सूरि जयत जयतल जयतसिरी जयसिंह जयतसीह १९५,२८०,३२६,३७७, ३७९, ३८७,३९१,४१२ देवी जयतुला जयदेव उपाध्याय सूरि जयदेविका * जयंत पत्तनस्थजैन ग्रन्थागारीयसूचिपत्रसूचितानाम् पृष्ठे विशेषनाम २०४ | जयपुर १२३ जयप्रभ गणी • सूर ३१५ | जयमंदिर गणी ३७५ *जयराशि भट्ट ११३,२३९ श्रेष्ठी जयंतसीह ( कायस्थ ) जयंती १०,२११,२८५ जयलच्छी १८,१२० | जयश्री १८,२८,१५८,१९२, ८८ * ५२ जयता ५२ +जयसीह=जयसिंह जयतिलक सूरि (वृद्धतपागच्छीय) २८२, जयानंद सूरि २१४,२१५,२२८,२३२ ३३३,३४३,३४८,३४९,३६१ जर्जर ३९८ १७६ ५१ ३५२ ५५,५६ जल्हण देवी जस १३८ पृष्ठे +जयसिंह (घ) देव १२,२२,५५,९७, १८३,२०३, २०७, २५१,२५५, २५७, २८५, ३१२-३१४,३१६, ३१८-३२०,३२४, ३३९,३४७, ४८ ३५०, ३५७,३५९ २००,२२४ *जयसिंह सूरि ( १ ) २४८, ३४८, ३८३ ३४४ (२) ६, ७२ २०१ (३) १०९,१२५ ३४८ * (४) ३२ १२३ ( ५ कृष्णर्पिशिष्य ) ११० ( ६ हर्पपुरीयगच्छीय) ३१२ (७) १५५,१८१,२९१ + जलाल (लु ) दीन = अकब्बर * + जण देव १५६ ३३४ जल्हण (वणिकू ) १५२ ३३४ ६० जस सूरि ५० * जसघोस यशोघोप १६५ १७४ १२३ ४८ १७८, १८०,१८१ २६१ ३३२ ३४६ ३७० - ३७२ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 453 २९० जासल २६०,२८९ देवी जासुक १४६ जाहिणि ० urum २७६ २०१,३२२ * ३२२ इतिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची। विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम जसडक २२५ जासउ ३३० जसदेव गणी २२,११३,३४७ - सूरि १५२,३८२ (एव)=यशोदेव सूरि ३५९ जासी (श्रे०) २२६ जसभद्र (व्यव०) सूरि (पूर्णतल्लगच्छीय) ३३८ जिण-जिन (धर्मसूरिसन्तानीय) ३६५ *जिणचंद-जिनचंद्र गणी (पं.) २४६ • जसराअ(ज) =जिनचंद्र सूरि जसलंव १३९ (वटगच्छीय) २५३,२६०, जसवीर ३४४ जसहड १२ जिणणाह-जिननाथ जसहीणि ३५८, तित्थ-जिनतीर्थ जसाक ३४४,३४५ जिणदत्त १५९ ३४६ जिणदेव (महं) 'जह्मपुरी २६१ - सूरि जाउका २१९ जिणधम्म-जिनधर्म जाकिनी महत्तरा ३८९ *जान मं. ___२४०,३६० *जिणपह-जिनप्रभ सूरि जिणभद-जिनभद्र जानकी ऊ जिणभवण (मंदिर)१५६,२५५,३२० जायव जिणराय-जिनराज 'जालउर जिणवर-जिनवर पाजालंधर १७ - धम्म जिनधर्म मजालिहर १५६ जिणवल्लह जिनवल्लभ - गच्छ २११,२१२,२५५ जिणसासण-जिनशासन जाल्हण २४७,३४८ जिणहर-जिनगृह ३५३ जिणिंद-जिनेंद्र जावड ३४०,३४४ जिणेसर-जिनेश्वर जावालिदुर्ग ३४४ -- = -- सूरि जसिणी ११,११७ जिण-पवयण १५० - देवी Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२०,३२१ जिनबिंब 454 पत्तनस्थजैनग्रन्थागारीयसूचिपत्रसूचितानाम् विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम जिन ४,६,१०,२१,४२,५३,८६,८९, जिनधर्म ११८,१३९,१५७,१९१, ९७,१०२, ११५, १२१, १२२, २६८,२७२,२८५,३५४ १३२,१३९,१४०,१७१,१७८, जिननाथ १८८,२०८,३३६ १८२,१८४,१८९,१९८,२०३, जिनपति १८६,१९९,२२२, २०६,२१३,२२२,२३०,२३६, २५०,३६३,३६६ २४०,२४३,२५५,२६५,२७४, 1 - स्तुति प्राभातिकी] ३३१ २७६,२८३,२८४,२८७,२९०, जिनपति सूरि २९५,२९७,३००,३०७,३१२, जिनपद्म सूरि •. ३१४,३३०,३३४,३३९,३५७, जिनप्रबोध सूरि ३६०,३६६ जिनप्रभविभु जिनकुशल सूरि ४१४ । * *जिनप्रभ सूरि (आ०) १०२,१०५, फ़ जिनगृह (जिणहर ) २४१,३०८, । १४६,१८८,१९१,२६२-२७५ ३०७ जिनचंद्र *जिनचंद्र गणी ३,२३,३२,४०,६८, . *जिनभद्र(जिणभद्द ) गणी क्षमाश्रमण ___३४,२४६,२९१,२९२,३०३,३६४, १५२,१६०,२९४,३६५,३७४, ३८३,३८४,३९२ , ३७८,३८४,३९४,३९९,४०१ *जिनचंद्र सूरि (१) ३५,३७४,४१४ * – सूरि (शालिभद्रसूरिशिष्य) ९० (२) -सूरि (जिनराजसूरिपट्टधर) ४१४ (लेखक) 5 जिनभवन १८४ जिनमति(ती) २२५,३५८ ४१५ फजिनमंदिर जिनतीर्थ (जिणतित्थ) २३७,२६६ जिनमााणक्य सूरि ४१५ *जिनदत्त सूरि (ख०) १९३,४१४ जिनराज २६०,२७२,३५८ * -- (वा०) ५१ - धर्म जिनदास २०.०,२२३ - सूरि ४१४ * • - गणी महत्तर ११२,१५० जिनलब्धि सूरि जिनदेव उपाध्याय २२,९७ जिन(ण) वर ३,४०,८६,१०१,१९१, .२०१ २३४,२६०,२६७,२७२-२७४, .जिनदेवी ,२९९,३०४,३०८,३४९ ४१४ - गणी ३४० Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवणी ३३२ इतिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची। 155 विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम *जिनवल्लभ (जिणवल्लह) गणी २१,२२, जिंदिका ३५१ २३,३२,३५,३९,४६,९१,९५, जिह्व १५० ११९,१५०,१६०,१६१,१६८, जींदड २१८ १६९,१७७,२७९,३४०,३६५, जीयसत्त १५९ ३९४,३९५,४०८ -- सूरि ४१४ *जीवदेव सूरि १४१ जिनशासन ४,१२,२०,१८४,३२०, जीवसमास] ३१९ ३२६,३५३,३६०,३७० जुगप्पहाण युगप्रधान जिनसमुद्र सूरि ४१४ जुगाइ(दि ) जिण–युगादि जिन जिनसिंह सूरि ४१५ जूठिल जिनसुंदर सूरि २००,२२४ जेसल जिनसुंदरी गणिनी १९ जैतल्लदेवी जिन(ण) सूरि ११५,२७० [जिनस्तोत्र १२ सिंह १३९,३३२,३४७,२८१ जिनहंस सूरि २२३,३७० जिनागम १८५,१९८ फजिनालय ३२८ प्रवचन २४१ जिनेंद्र (जिणिंद) ५,१३,१८,७६, शासन १८,२००,२०२ १३०,१५२,१७१,२०७,२२३, मनालय १७२ २२६,२५२,३४०,३५३ २३९,२८३ जिनेश जैनेंद्र ४३,५६,१७२,१९८, जैमिनि २०३,२८३,३३४ २२०,२२१,२८३,३५७ जोगेस्वर जिनेश्वर (जिणेसर) २,८६,१६३, १९६,२१३,२१४,२३२,३७५ ज्ञानकीर्ति मुनि (गणी) १२६,१६८ 5 - विहार २१३ ज्ञानकोश १७०,२०२,२०९ * - सूरि (१) २४,३५,१६५, ज्ञानभांडागार ४१४ ३०४,३६५,३७४,४१४ ज्ञानसागर सूरि २१५,२५८२.८२, २४६ ३२३,३४३,३४८,३६१ ४१४ [ज्योतिःकरंड-विवृति] जिनोदय सूरि . ३४४. ' जैन धर्म (२) , झंझण Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ ८८ मतलवाड ४८ पताइकार २५४ २३९ . 0 १२२ ॐ 0 ३९८ 0 0 0 456 पत्तनस्थजैनग्रन्थागारीयसूधिपत्रसूचितानाम् विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम झबकू २१४ तमालिनी झांझण १३८,२५७,३९८ तिरंगवइकहा १४१ झाला कुल २८० मतलपाट पुर ३३१ मझेरंडक नगर मटक फटंकसाला ताडपुस्तक जटिवाणक *तात महामात्य ३३३ ठाकुरसीह मतापी | ठाणयपगरण] तित्थ २५४ डाह २४१ [तित्थोगालि] डाहल म तिमिरपुर डाहा तिलक गणी २४१ डाही तिलकप्रभा गणिनी फडिंडिलवद्द २९. *तिलकाचार्य (सूरि) १२६,२१०,२४१, फंडिंडूआणय २९२,२९३,३५६,३५७,४०४ डूंगर २५७,३४४,३४५ तिलयसूरि तिलकाचार्य 5 - पुर २०३,२१६ तिसला १७३,१८४,२९५ णाढक २२४ तिहुणदेवी ३८० णाभेय=नाभेय तिहुणसिंह ३८१ [णेगंतजयपडाया] २५१ तिहुणा १२३ णेमिचंद सूरि नेमिचंद्रसूरि [तत्तबिंदु 5 तीरभुक्ति १०४ तपागच्छ १२२,२०२,२०५,२०९, तीर्थकल्प ८९ २१४,२१५,२३२,२३९,२५२, तील्हिका (ल्ही) ३४४,३४६ ३१०,३४८ तपागण ८८,१२३,२०२,२१३,२२८, फतुरष्क २३०,२४० तेजः(ज)पाल (ठ.महं) ३३,६०, तपाधिप २३९ २३७,३५६,३९३ तपापक्ष ३५७ (मं.) ४१५ (वृद्धशाला) २८२ तेजय २२६ १५६ २४६ तीडा Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ प्रदक्षिणापथ तेजू १३८ *दत्तिल THE RIFF!! Y COSTRI. R$Ciru!STITUTE, 84. Fun H. RO MADRAS. 4. इतिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची। विशेषनाम पृष्ठे शषनाम तेजल ३८१ थूलभद्र (पं.) १०५,२८३,४१२ - देवी ८८ थेहड ३४२ तेजसिंह २२८,३४७ थेही( हिका) ३६,३४२ + - देव ३९० *दक्खिन्नइंध सूरि *तेजा (मं.) १५४,२३८,३२७ प्रदक्खिणदेस १५६ ४८,४९ तेजी १७१ *दंडी (आचार्य) १६२ "दत्तक १०० १४८ तेज १०० कत्रिनेत्र गंड 'दधिपद्र पत्तन २२४,३५८ त्रिभुवन ३४५ दमयंती ३१० -- गंड फंदर्भावती ४८,१९६,३३४ - पाल [दर्शनशुद्धि-बृहवृत्ति] ७ *त्रिलोचनदास ५७,१६२ दवदंती १०,११ [त्रिवर्गपरिहार] ३७ [दसयालिय-वित्ती ३५९ त्रिविक्रम भट्ट ४९,३१०,१८३ दिसरथ ४५ [त्रिषष्टि] ३४९ मदहिवद्द २८५ जथंभण पुर १५६ *दाक्षिण्यांक सूरि २०४ मथंभणय पास २६० दाद ११२ मथली १५६ *दामोदर १२७,१२८ ९९,१०० थाजल दाहड जथाराउद्दय-थारापद्र दिक्पट ३६९ जथारापद्र पुर १५६,४०१ दिगंबर - गच्छ २१७ राजकुल २७७ थाहड २५१ दिग्वासः ११०,२०७,३६९,३९५ थिरचंद गणी ३३९ *दिङ्नाग • ३८ थिरदेव ३७९ दिसिकुमरि(छप्पन्न) २७५ थिरपाल २३९ दीपिकाकालिदास थिरमती २८७ दीशापा(वा)ल वंश · २०६ 58 गुप्त Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 458 विशेषनाम 5 दुग्गम दुम्मुह 5 दुर्गमीय पत्तन * दुर्गसिंह दुर्गस्वामी दुजनशल्य दुर्लभ दुर्लभराज दुलहराय दूदा दूलज्जिया दूली दूल्हादेवी देउ देगति देदक देदा देदिका ( देदी ) देधनपुर देपाल (८) पत्तनस्थ जैन ग्रन्थागारीयसूचिपत्रसूचितानाम् विशेषनाम देवचंद्र ( १ ) - ( २ ) देव देवक भट्ट देवकुमार देवकृती भाषा पृष्ठे देवगिरि * देवगुप्त सूरि *देवचंद सूरि-देवचन्द्र १५६ ३०० ३ १६२ ५२ २८० 'देवदत्त ३४० देवधर ४१४ देवनाग २५४ 5 देवपत्तन ११३ देवपाल १२२,१२३ देवम्पह सूरि १८४ देवप्रभ गणी १७६ २५८ ८८ २२५ १४४ ३६,११२,१४४,१४६, २०१,२५७,३२७,३४६ पृष्ठे २००,२२३ २२५ ( ३ ) २३४ सूरि (१) १२४, १८२, २२४, ३३५, ३३७,३३९ (2) * . सूरि (2) ८८,१२३ देवबोध ८९,३४४ ( मलधारी) (२) देवप्रसाद (१) (२) १७८ देवभद्द=देवभद्र मुनि सूरि (३) ३७८ १९९,२२३ ३२७ १९,३४० ३१,५२,३८६ सूरि (आचार्य) १४३ २४५,२४६ २१५ २४४ १४, १८७, ३०१,३७३ ३३९ १७ २०३ २३७ ३९५ २०८ २५२ २३९ १९१ २८८ देवभद्र २८२ ३५१,३५३ देवभद्र गणी ३५५,३९३ * २७४ २१९ * २०२ ५-७ २, ३, ३४३ * देवभद्र सूरि ६४,११९, १४३, १४५, १६०,२५९,२६०,२७९,३८४ २९ ३३१ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 459 *देवेन्द्र इतिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची । विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम *-- (मलधारी) ५७ देवानंद सूरि (१) ४५,११०,१२४, देवमंगल गणी २१५ ३३३ देवराअ (य,ज) १५६,२२५, १४ २५८,३२२ देवानंदित गच्छ १९६,३३३ देवलदेवी *देविंद साहु-देवेन्द्र साधु मदेवलवाटक नगर ___ गुरु (जा०) २१२ देवशर्मा *देवेन्द्र साधु नेमिचंद्र सूरि देवशेखर गणी २१५ * * ___- सूरि ( चैत्र, तपा०) १३,३४, देवसिरी गणिनी ५२,८९, ९४,९९, १०४,१६२, ३९७ १६९,२०२,२०८,२१०,२१५, देवसिंह १२३,३४६,३६४,३८० ३३१,३५५,३८८ देवसुंदर सूरि ८८,१२२,१२३, देसल २२५,२४३,३४६ १७०,१९८,२००,२०२,२०९, दहाड़ १४३ २१३,२१५,२२२,२२३,२२७, दोहटि २२८,२३०,२३२,२३९,२४०, द्रविड ४८,४९ २४३,२५८,३११,३६० द्रविडी भाषा *देवसूरि (वादी) ४५,५१,५७,११०, द्रोणक २२४,३५७ १२४,१२,१३४,१३५,१५८. *द्रोणसूरि (आचार्य) २१४,२१५ १९५,२०६,२०७,२४६,२५०, [द्वादशकुलक .. ४१४ २५१,२८५,२८९,३२३,३२४, [ द्वादशांगी ] 4... देश ४८ - गच्छ २६९ - पादुका धण सिट्ठी १५४ * ----(२) २८३ *देवसूरि (३ जा०) २१०,२१२ धणदत्त २७४ देवसेन गणी ३७ धणदेव १७४,३४४ *देवाचार्य=देवसूरि १३५,३२७ .. ज -वसति . १४८ घणवह ३३१,३६३,३८७ द्वीप ६२ घण २०६ १८६ धणचंद्र धणपाल Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 460 ३४४ ३९० ४९ पत्तनस्थजैनग्रन्थागारीयसूचिपत्रसूचितानाम् विशषनाम पृष्ठ विशेषनाम धणसिरी १८३ मधंधुक्य ३२० धणिग २४३ मधंधू(धु) क ३५१,३७९ धणुहावि देवी २५५ धन्नासी भासा २७१,२७४ धणेसर सूरि-धनेश्वर सूरि धम्म सूरि १,३०८,३६५,३७०-३७२ *धनचंद्र (पं.) ९९,३५०,३८८ *धम्मघोस सूरि २११,३०७,३९२ धनंजय ४९ धम्मदत्त १७४ धनदेव ३४१ *धम्मदास गणी धर्मदास गणी धनदेवी ३५३,३५७ धिम्मबिंदु] २५१ धापाल (ठ.) १४ धरण १६७ ९६ धरणाक ३२७ धरणिग *धनपाल कवि ३०,४४,४९,१५६, धरणिंद-धरणेंद्र १५९,३०२,३८५,३८६ धरणी १४६ धनपालारघट्ट धरणू ८८ धनश्री ६७,७०,१४५,३०८ धनसिंह पंधरावास ७४,१५८,२६१,२८० धनाक ३२७,३३९ धनासिका धन्नासी धर्म २१३ *धनेश्वर सूरि *धर्मकीर्ति ५८,१७७,३७८ २४१ -- (पं.) धर्मिणि २३८,२३९ सूरि २४५ *धम्म(म )दास गणी २२,९०,१०१, -(बृहद्गच्छीय) २३५,३८३,३८५ ३५५ धर्मदेव सूरि २४३,३१४ सूरि १०८,१४८.२९४. *धर्मघोष ६२,६५,१३७ ३३१,३९५,३९९ २१५ * "धंध ठक्कुर (विधिपक्ष) ७,२८,७२, .१७८ २८१,२९२,३५७ धंधल . ३४८,३९२ - धर्म सूरि १२३ धरणेंद्र Su २५८ धर्कट वंश धनू ६८,८९ धर्मण २८२ - सूरि १९७ ९,३९७ - सूरि धंधट Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम धर्मनाथ धर्मप्रभ सूरि धर्म लक्ष्मी गणिनी [धर्मविधि ] धर्मसीह धर्म (म्म) सूरि धवल राग धवलकपुर धवल (ल) कक धांइ धांग (गा) धान धांधक धांधलदेवी धांधू * धर्माक [ धर्मोपदेशमाला-विवरण चिरंतन ] ३१३ [ धर्मोपदेशमाला - विवृति] ११० धवल ( भांडशालिक ) धान्ये रक धांविका (वी) धारा उर +धारावर्ष इतिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची । विशेषनाम पृष्ठे ११२,११३ धीधा ४०३ धीर धारावास * वाहिल कवि धीणा ३६१ धीरसिंह (पू.) २३९ धुंधलदेवी २८,३६,१५३,३०६, फनगर ३६६-३७२,३७९,३९६ नगराज १०६,१०७ नग्गई ३४४,३४५ धुनी २१४ निंद * नंदिगुरु नंदिवत्स ९७,२२५, 5 नंदिवद्धण २५५,२८७ 5 नंदीश्वर २७३ २३८,३२२ ४८,५२,७३, नमि १६५,१८३ २०९,२३९ १२३ १३९ ३५३,३९३ २२५, ३६२ [ नन्न सूरि नमिनाह ५० नय कित्ति नयणादेवी नयप्रभ नयसार ३६ | नरकेसरी २३४ | * नरचंद्र सूरि ( मलधारी) ४८,१५६ ३८१ | नरदेव १९२, ३८७ नरपति स्तवन ] १८३ नरपाल ५२ नरवर्म पं. 461 पृष्ठे २२९,२५७ ३४२ १४४ ३९८ ३२७ १५६ २००,२२३,२२४ २४,३४०. ४१२ ५६,५७ ५६ २५४ २२२ १९८,२२२ ३२८,३६४ ८९,२६८,३०० ३१४ २५२ २३२,२४८ ३५६ २७१ १९५ १४,७४, ८८,१८७,३४४,३८६ ४११ १२३,३८१ १६७ १६५, ३.४५ १२३. Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ नरिया ३६२ नालदेवी २२८ नाल्ही 462 पत्तनस्थजैनग्रन्थीगारीयसूचिपत्रसूचितानाम् विशषनाम पृष्ठे । विशेषनाम नरसिंह ३६,१००,१२३,१६७, नांदिय वर २१५ २३२,२४३,२४८,२५७,३७९, नाभि ३८० - ज (सम्भव)=ऋषभदेव जनराण १५६ नाभेय ऋषभदेव २५७ नामल ३४४ *नरेंद्रप्रभ सूरि १८७ नायकि देवी १६७,३४७,३८० नरेश्वर सूरि (व्याख्याता) १४० *नारद मनर्मदातट ४८ नारायण नल ३१० नारायणीय शाखा १२३ नलकूवर नलदेवी नाल्हा २०१ ३२८ नवखंड पार्श्व नासण २५८ नवफण पार्श्व १४४,१४५ [नवाङ्गीवृत्ति ४१४ नाहिसंभव-ऋषभदेव कनिन्नय नाग २५३,२५५ मनागउर ११२ नागड महामात्य ३३१ निशीथ ३९९ नागदेवी २८०,२८१ नागपाल नीलकंठ भट्ट नागर फनृपुरी २७६ नागराज २५४,२५५ नागलदेवी १५२,२५७ नेप नागशर्मा त्रिपाठी ८९,१२३ फ़नेपाल ४८ नागसिंह १२३,३२५ नेमि(गोष्टिक) फनागसारिका ४०२ - २६,१४६,२५०,३१४,३२१ नागार्जुन ७३ नेमिकुमार ११८ नागेंद्र २३६,३३१ * .. नाढी ३६२ नेमिचंद्र(माथुरान्वय दि. श्रा.) २७६ जनाण १५६ - (भं.) ४१४ नाणकीय गच्छ १७६ * गणी ३८५,३८६ w १५६,२५२ निर्मल निवृति m ons ५२,१०८ नीतल्ल(ता)देवी ३१० १०१ २५८ रनेट (महामति) २३९ १२ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम नेमिचंद्र सूरि ( वैरस्वामि पट्टधर) * ३९० पंचनदी (आम्रदेव सूरिशिष्य) ६५, पंचपीर ११४,१६९,२१७,२१८,२३३, पंचयक्ष २६०,२८५, २ ,२८६,२८८,२८९, २९०,३६१,३७६, ४०१ नेमि जिण (न) २६,२७,२६९,२७४, ३१४,४०५ ३०८ ३१ नाथ २७,२१०, ३२३, ३४१ ३४० १६२ १३० 5 पत्तनीय कोश २३६ पत्तेय ३७५ १९०,२९५ 出 राय - विहार देव 卐 [ नेमिप्रभ सूरि ] नैगमान्वय नैयायिक पचाक पज्ज़ुन्न • भुवन [ न्याय बिंदु ] * पउम पउमंक = पद्मप्रभ पउमचंद सूरि = पद्मचन्द्र सूरि पउमप्पह = पद्मप्रभ प[म] सिरी पउमावइ=पद्मावती इतिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची । पृष्ठे विशेषनाम सिट्ठी सूरि =प्रद्युम्नसूर प्रपंचाल ५४, (पंचासगा (य) - वित्ती] २०४ प्रपंचासरय-पासगिह 5] पहरी पडिमा (प्रतिमा) पढमजिण (जिणिंद) = प्रथमजिन + [पणवत्थुयविवरण] पत्तन पुर पत्रापदेवी पदम देवी पदमसीह [ पदार्थप्रवेशक ] पद्म पद्मक १३९ पद्मचन्द्र पद्मचन्द्रसूरि (१) २०३ ३३८ | पद्मतिलक सूरि २१२ | पद्मदेव २८५ पद्मप्रभ ३,१४,४८,५९,११९, १२२,१२३,१४८, १९८,२०२, २१४,२१५,२२१, २२७, २३१, २३९,२४२,३११, ३३८,३६१, ३८७,४१४ बृहद्गच्छीय 5- प्रासाद 463 ष्ठ ८८, ३५९ २५५ ४१४,४१५ ४१५ ३०० पद्मप्रभ सूरि 39 २८१ १९५ ३४८. ८८ २२८ ३०० १९९,२२३ १९९,२२३ '५२,१२२ १४८ ११२,२५७ ३४६ १४२ १७३,३३३ ३५६ २१५ २४४ २१०,२१२ २२९ ३२५. Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ ८९ १२५ पातू २ 464 पत्तनस्थजनग्रन्थागारायसूाचपत्रसूाचतानाम् विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम पद्मल ३४७ पांचू पद्मलक्ष्म पद्मप्रभ पाटलिपुत्र १०० पद्मलच्छि २४३ | पाडलियपुर ४१२ पद्मला ३८० *पाणिनि ३६८ पद्मश्री महत्तरा ३५२ | पांडु ३०९ पाता पद्मसिंह १३९,१४०,२२८,२८०, पाताक १९९,२२२,२२३ ३८० पाताल ३४४ पद्माकर ५१,१३८ पद्मावती १४५,३०६ पादलिप्तपुर २२९ *पादलिप्ताचार्य पद्मी १३९ ऊपांतीज ग्राम पन्हवाहण कुल 'पापांतक ४८ पभव परमचंद्र गणि(पं.) १८,१२० *परमाणंद सूरि २१५,२२६,२२७ ३४६ *परमानन्द ३५२ *परितोष मिश्र चन्द्र(भांडशाली) ३८,३९, [पर्युषणाकल्पपु०] ३८२,३९४ १५६ - जिन पार्श्वनाथ पल्लीपा(वा)ल(वंश) ३३,५०,१०९, *पार्श्वदेव गणी २९३,२९४ १३९,१६३,२५७,३४९ ३५२ पल्हण ३५२-३५४ *पार्श्वनाग ३५,६५,९१,३६३ पल्हाई ३११ पार्श्वनाथ २,३,२१,६८,७१,७२, पवइणि १५२,१५६,१६८,२२८,२४४, पवयणसुयदेवया(पवयणदेवी) ६७, २५०,२५२,२७४,२८१,३०७, ९१,१०७ ३०८,३१४,३२९,३४४,३४५, *पवरसेण ३८८ फपश्चिमदेश ४८,१५६ [ -- चरित] ४८,२११ पहवसूरि . २८५ ...- चैत्य(सदन) ३,१०९,२८१, पांचा - २४१ ४१४ २११ पारस १४८ *पार्श्व १९,२० - कुमार मपल्ली ३०२ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 465 ३२६ इतिहासोपयोगिनानां वर्णक्रमेण सूची। विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम +पार्श्वजिनालय २०३ *पुलिन्द्र २९१ पार्श्वस्थ व्रती ६६ मपुत्रदेस १५६ *पालित्त[य]सूरि ७१,१४१,१९४ [ पुष्पमाला-वृत्ति] पाल्हण ५२ पुहईराअ ३१६ -- देवी २४१ पुहईवाल सचिव २५५,२५६ -- सीह २५७ पूजी २५८,३९८ पावापुरी १५६,२६६ पून २५७,३२७ पाशुपताचार्य ३८६ पूनड ५५,१५०. पास-पार्श्व पूनमति पास जिण पार्श्वनाथ पूना ३४९ *पास कवि १८४ पूनाक १५२,२५७ पासड ५०,२३४ पूनी ३४७ पासणाग १३९,२८३ पूरी २४१ पासदेव ११९ पूर्णचंद्र सूरि ११३ २८३ तल्ल गच्छ ८७,३३८ --गणी ३२२ पूर्णदेवी ३८१ पासनाह पार्श्वनाथ पूर्णपाल २३४ १४७ -(ठ.) [पिंडविशुद्धिप्रकरण] ४१४ पूर्णभद्र [पिंडविसुद्धी-वित्ती] ३५९ पूर्णसिंह ९६,२२८,३८१ पिंमलदेवी २२९ पूर्णिका ३६३ पीच २३९ पूर्णिमापक्ष १४४ ४१४ पूर्णी ३४०,३४१ पुंडरीअ २६८ पृथिवीदेवी पुंड ४८ *पृथ्वीचन्द्र सूरि (१) • पुण्यपाल १४३,१४४ पृथ्वीदेवी ३५३ पुण्यमेरु गणी ११३ फ़पृथ्वीपुर १३० पुण्यसिंह १२५ पृथ्वीभट २४८ पुग्नतल्ल गच्छ पूर्णतल्ल गच्छ पृथ्वीराज ३१२. 59 पासुक पीर Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पेथाक २१९ ३५० 466 पत्तमलजैनग्रन्थागारीपसूषिपत्रसूषितानाम् विशेषनाम पृष्ठे । विशेषनाम पृथ्वीसिंह ३८० प्रभव २११ 'पेटलापद्र ४८ प्रभादित्य ३७५ पेथड १६६,२४८,३४५ *प्रभानन्दाचार्य १५९,१६०,२७९, ३४५ २८० पेथुका ३५३,३८० प्रमाणंद सूरि १५१ 'पेरंम द्वीप ४०६ मप्रयागवट २०७,३२३ पोरवाड कुल ३२२ [प्रवचनसारोद्धार-वृत्ति] ५२ पोरुयाउ वंस २५३ प्रवराचार १०१ 'पोप ८८ [प्रशमरति-वृद्धवृत्ति पोपा २२७ प्रश्नवाहन कुल ३१२ फपौषधशालापाटक ४१५ प्रसन्नचंद्र सूरि प्रज्ञातिलक सूरि ३४५ प्रह्लादन (२) २४७,३८० प्रतापदेवी २४८ + पुर ३६,८८,१९७,२१८, प्रतापमल्ल ३२५ प्रतापसिंह ३८१ प्राग्वाट ज्ञाति ५५,१५४,२०२,२१४, प्रतिचरणा १८ २२७,२३३,२३९,२८६ प्रतीहार शाखा ३७८ - वंश ८८,१०५,१२५,१५०, प्रथमजिन २५,१२१,१४०,१५९, १५२,१७०,२०८,२१३,२१४, १८२,२६९,२७०,२८५ २१९,२२४,२४०,२४३,२४७, प्रथमतीर्थपति २३५ ३४४-३४६,३६०,३८० प्रथमसिंह प्रद्युम्न १२ प्रीमल(ला)देवी २४७,२५७,३६०, १५१ ३८१ *प्रद्युम्न कवि (शोधक) ४५,११०, फदकू १२४,१२५,२३७,३३३ फलकू २२३ *प्रद्युम्न सूरि ४३,६७,९१,९५,१०७, मफीलणि प्राम २०९ । १५०,१५२,१६०,३८३,३८५ फुल्ल(श्रेष्ठी) १९५ ३०५ बकुलदेवी १५,३४८ --(२) २१८,२८९,२९०,३३१ २१९ [प्रबोधोदय] ४१४ बडूयाली २५७ प्रीमति १९० Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम * बप्पभ (ह) हि बिंभदत्त 5 बंभाण 5 बर्बर बहिनीबाई बहुबुद्धि बहुदेव बहुलाइच्च (बहुलादित्य) * बाण कवि बाणवाममुखी बाबी बाम्ब बालचंद मुणी * बालचन्द्राचार्य (कवि) बालमति गणिनी बालसरस्वती * बृहस्पति ( २ ) बोडक stefe इतिहासापयोगिना ४६,१९४ - १९६ | बोहित्थ २४४ बौद्ध १५६ | फ बाला बालेंदु कवि बालचंद्र * बिल्हण (जैन) बीजसिंह बल्हणदेवी बूटडी (श्रेष्ठी) बूटर बृहत्खरतर - गुरुपट्टावली बृहद्गच्छ पृष्ठे | विशेषनाम १५९,२१५, ३१४,३२९,३३ ,३३३ १२ ७६ २८६ २०९ २११ ४८ ब्रह्मन् ४१५ ब्रह्मदेव १७४ | ब्रह्माक ३४६ ब्रह्माण गच्छ ब्राह्मणपाटक १९३ ४९,२९१ | [भगवई] ३३२ २४१ ― [ भगवती सूत्र ] + भट्टियराअ भंडार २२ * भद्दवाहु=भद्रबाहु भद्दा विहार 5 भद्दिलपुर भदेसर सूरिभद्रेश्वर सूरि भद्रबाहु २३०,३६८ ३४५,३४६ फ * भद्रेश्वर २६,४११ २५७ १६६ ३९३ ३४६ * ४१४ 5 भंभेरी p २१,९८,११०,२०६, 5 भयाण देश २१८,२४३,३२३ +भरत ( १ चक्री) सूरि स्वामी १२,१६,५०,५१,५५, २०४,२०९,२१०,२३६, 467 ३३५, ३५४ ४० गोत्र १२३ सूरि २०,३८, ११०, १२५, १७०,२०७,२४५,२५१,२५२ पृष्ठे ३४९ ८६, २३६ ७५ ८१ २८७ ३४४,३४६ १७८ ४९ (२) ३१८. ३५९ ३०८ २५२ • १९० १५६ ३०९,३२४, ३३१ २४४ १७ १५६ ५४,१००, १६९, २४४,२९८, ३३६,३८० १५६,१६८,१८३,१.९५ ४५ Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 468 20 3 ० 9 पत्तनस्थजैनग्रन्थागारीयसूचिपत्रसूधितानाम् विशेषनाम पृष्ठे । विशेषनाम भरतेश्वर सूरि ५४,२०५ भास राग २७४ भरद्वाज कुल २८८ *भासर्वज्ञ 卐भरह-भरत भास्करवर्मा - वास ६१,१९५ भिगु जभरुअ(य)च्छ-भृगुकच्छ भिन्नमाल १५६ - वावी ११८ - कुल ३३० फभर्तृपुरीय गच्छ ४११ भीम भीमदेव भले ४६ ॐ भीम(मं.) २१२,२४०,२५७, भवदेव ३६०,४१५ [ भवभावण] ३१९,३५९ भीमएव-भीमदेव *भवविरह-हरिभद्र सूरि भीमक ३४५ [भवस्सरूव] ३३५ भीमदेव १५,४३,२१२,२५४,३३३ भाऊ २०२ भीमसिंह २२८,३४७,३८१ भांडशाली ३८ भीमसीह ११६ भादला २४८ भीमा २२१ भादाक २४६ भुवणचंद(गुरु) २०८ भारइ देवी १७३ *भुवण(न)तुंग ६२,१३६,४०३ भारती १५,४६ भुवणपाल ३१६ *भारवि ४९ भुवनकीर्ति ५८ प्रभारहवास (भारतवर्ष) १८,१५८, भुवनचन्द्र १९२,१९५,२८०,३२२,३८७ - गणि प्रभालिज्ज ४८ *भुवनसुंदर सूरि २००,२२४ भावड ३८६ ---री ४० भावदे १५४ भुवनेन्द्र सूरि भावदेव सूरि . १५१ भूपति २४१ * -- सूरि १६६,२१५ भूभुव(च) भावलदेवी १६७ *भूस(ष)ण भट्ट-तनय १९३ २४१ अभृगुकच्छ ६०,११८,१४०,१५६, भावसुंदरी .१४० २०३,२०८,२८४,२९३, *भाष्यकार ३५५ ३१६,३२२ ३७८ २८७ Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेषनाम 5 भृगुपुर भैमी भोगपुर **भोज (राज) - देव भोपलदेवी भोला मगह 5 मङ्गलपुर- चैत्य मज्झिमला मञ्जरी मडवाडा ग्राम 5 मड्डाहड पुरी 5 मड्डाहत मणिकंठ मणिरह --- मंडन कुमार मंडप मंडलिक 5 मंडली नगरी मत्सुंदरि ( ? ) मदन (भां.) चंद्र सूरि इतिहासोपयोगिनानां वर्णक्रमेण सूची । पृष्ठे विशेषनाम २०७, ३२४ | 5 मधुमती मदनसिंह - सुंदरी * मदनोदय ३१० मधुसूदन (महामात्य ) ४८ | मध्यकुरु 45 २५६ मन २५८ | मनाक ३५३ मन्दोदरी १९९,२२३ *मन्मथसिंह २६६ * मम्मट ३४७ मयंकरेहा २११ मयणरेह १०१ | मयणल ३७,४९,२४५ - देश १९९,२२३ ३२४ ३५८ २२५ १०० |फमरु ३९१ | मरुकोट ३०३ मरुदेवी ५५, ३३१ २४३ ५२,१३८,१६६,२५७, ३२८ मयणसेण 5 मरहट्ठ ५५,३३३ | मलधारी देसिभासा २४७ 5 मरुवरेन्द्र गणिनी 469 ५० १३९ | मलयचंद्र (पं.) १०० पृष्ठे गच्छ सूरि मलबारीय [ ताड] ३४७ | *मलयगिरि २२,४२,४३,५९,६२,९४, ४५ ७४, १२५ ५२ ३२७ ४८ १९८ २४१ २४१ ३५२ १३७,१३८ '३९ १७४ २६८,३०० २४७ १७४ १५६ १९४ १५६ २३९ २५,२३४ १२ ४८ १४,८८, ३८२,३८९ १८७,३८२,३८९ ३०१,३८२ २०१ = मलयगिरि ९८, १८८, १९७, २०१ - २०३, २०८,२१४,२१५,२१८, २३१ २३३,२३८,३११,३७५, ३९७ २३,७४,३६४ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ ४८ देव १३६,२७१ ३८१ महुरा नयरी महुलच्छि १३८ महेन्द्र २८७ 470 पत्तनस्थजैनग्रन्थागारीयसूचिपत्रसूचितानाम् विशेषनाम पृष्ठे । विशेषनाम *मलयचंद्र २५ मिहिमूद (पातसाह) ३६१ -- सिंह ८८,८९ महिलण *मल्ल वादी ४१,४२,८६,१९४, 1महीतट १९५,२३२,३७५ महुण २०२ १५६ मल्लिनाथ २२५ महण २८८,३४२ - देवी २५७ देव (भ.) -- सिंह ३६,१६७,१६८,२५७ प्रभु २३६ महणा २२७ महतीयान(ण) ४१४ १,१५३,१६९ ऊमहाथूम १५६ * २८१ महादेव(उ०) १०४ *महेश्वर सूरि ३०,३३,६८,६९,१६२ - (पं.) *- (महामात्य) ७४,२९० 卐महाराष्ट्र १०९,२१४,२४१ [महाविद्याविडंबन-विवृति] २०० माऊ २२८,३६४ मांकू २४१ महावीर १५,६६,७९,८७,११५, १३१,१४९,१६१,१८६,१९६, मागध ३४८,३५५,३७२,३८९,३९९, *माघ ४९,१४८ ४०८,४१४ माढल(पं.) [ – चरित] १४९,३२८ फमाणखेड-मान्यखेट मिहासेण १८३ माणदेव सूरि २८५,२८९ महिचंद्र(पं.) ६२,३४६ माणिक क्षुल्लक महिंद पुर - १८४ माणिकि ३५३,३९८ - सूरि महेन्द्र सूरि माणिक्य १९९,२२३ महि(ही)पाल ७४,९६,२३२ * - चंद्र(आचार्य) ५३,५४,५९ महिपति(मं.) ४१५ २०३,२०५ महिमा गणिनी १४७ माणिक्यचंद्र सूरि १९५ ३१,१४८ महेसर सूरि-महेश्वर सूरि १७,४८ माई ४८ १३० १६२ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 471 इतिहासोपयोगिनानां वर्णक्रमेण सूची। — 471 विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम पृष्ठे -देवी २४१ माल्हणि ५०,३८१ - प्रभ सूरि ३४५,४०८ प्रमाहड वास - सूरि २४३,३४३ माहव (ठ.) २५० ----माणिक्यचंद्र माहिणि ३०९ माणिभद्र २८६ मीणलदेवी २४३ कमांड(मंत्री) २२९ मीणला १६७ 卐मातर ४८ मीमांसक मातू ८८ मुंज माथुरान्वय २७६ मुंजाक १३५ मादू ३४७ मुंजाल(ले.) माधला ३८० मुणि सूरि-मुनिचन्द्र सूरि माधव(ठ.) १०४ मुणिचंद सूरि= ,, १३४ *मानतुंग १५८ --- चंद(द्र) ७१,१७०,२५१, - सूरि २९३ मानदेव सूरि २१ - सूरि १३४,२८९ -- गच्छ ९७ मुणिसुव्वय जिण १३६,१८४,२७२, - सूरि २१८ २७५,३१४,३२२-३२३ मानू ४१५ मुद्गलभंग मान्यखेट(माणखेड) १५६,१७२ फमुद्गवती(टी) ७४ 卐मारव १७ मुनिचंद्र साधु १३५,२१८,३८५,३९१ माल ३९८ * __ सूरि(आचार्य) ३,४,१४, मालक ३४६ १०५,१११,१२६,१३०,१३३, कमालदेव(महामात्य) १४,१३५, १३५,२०७ १९८,२२१ * --- सूरि १४,१९५,२४६,३२३, फमालव मंडल(देश) १५,१७,४८, ३४१ ४९,१५६ - (सैद्धान्तिक) . ६७ + - महींद्र ३७० *मुनिदेव सूरि ४५,१०९,११०,१२४, माला २३२,२४४ १२५,३६४ माल्हण ३४६ मुनिप्रभ ३८२ *मुनिसुंदर सूरि २६०,२२४. ११३ ३. देवी Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 472 विशेषनाम मुनींद्रसोमसूरि * मुरारि मुहुणा मूंजला मूंजाल * - देव (महं) मूंध (ठ.) मूलगभाया मूलगंथि मूलदेव + मूलराय मूलावरसय मूलूक · - मेघ [ * मेघा मेघाक मेघी दूत] प्रभ 5 मेदपाट मेला 5 मेवाड * मोक्षाकर गुप्त मोखू मोढगुरु ज्ञाति 5 मोढेर मोती मोपल (ल) देवी मोपला P पतनस्थजैन ग्रन्थागारीय सूचिपत्रसूचितानाम् पृष्ठे १२७ मोषा ३०१ मोहण विशेषनाम २३२,२४८,२९० १५२ देवी २४७ मोहिणी (नी) १७६,२४७,३०९,३६३, २०१ म्लेच्छ ६४ म्हादेव ७१ यक्षदेव ३१८ ३४१ | यमुना ८८,२४३ २५४ ३१९ यश ३२८ यशचंद्र (भां.) सूरि ३३० | यशःपाल (भां.) ३८७ -श्री २३८,२४१ | यशोकर्ण (सिद्धांतिक) त्रिविक्रम ― १२६ | * यशोघोष सूर २०२ | यशोदेव पृष्ठे ८९,३२७ १३९ ८८ १२३ | यशोभट १०८ यशोभद्रसूरि ११२ * ३८१,३८७ २२८ १८० १२,१२०,१५० १८ ४८ ४९ १४४ ४८ उपाध्याय २९,४०५,४०८ २३८ यशोदेव सूरि ५५,८८,१०६,१६६, १७,१५६ २८७,३१०,३५९ ५५, १९२ यशोदेवी ९६,३६२,४०२ २४७ यशोधन १४७ १५१ यशोधर २०१ | यशोधवल १५६ यशोनाग २३४,३५१,३५२ ३६३ ३५२ २२५ २२६ ६५, ७०, ४०३ १५० २२६,३४१,३४२ २८७ ९७,२४७, ३८० ३४२,३४५ १४,३७,३३९ ३९४,३९६ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ येऊ .. इतिहासोपयोगिनान्नां वर्णक्रमेण सूची। 473 विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम यशोमति १४७,२३४,३६२,३६३ रतू २१३,२१४ यशोराज ३५८,३८० : रत्न १३९,३२५ यशोवीर २२६,३५१ .- तिलक गुरु याकिनी महत्तरा ११,११७ --- देवी ५०,२४७ युगप्रधानपदवी ४१४,४१५ . -- पाल १९८,२२१,३८१,३९७ युगादि देव (जिन) १५,१५९,२६७, : * . - प्रभ सूरि २०६,२०७,२५२ २७४,३२६ - --- २८३,३०१,३२४ + - चैत्य ३२४ सूरि ३४४-३४६,४०३ युवराज देव १०४ . * --- - २५०,२५१,३२३ # __वाटक ५३,३२३ [ रत्नमंजरी कथा ] १२५ २२६ रत्नश्री गणिनी योगदेव ५० रनसिंह ६७,१३८,२४८,२५८, योगमार्ग १७२ २९२,३५३ योगिनी(६४) ४१४ ...... सूरि २४८,२८२,३६६ जयोगिनीपुर १७,१२२ रत्नसीह २८३ *योग्घम(मुग्धविलास) रत्नाकर सूरि ३२,३१०,३६१,३८७ योध ___- गच्छ ३५७ रइसुंदरी २२९ फरणखं(थं)भउर-रणस्तंभपुर रंभा १५२ रणदेवी [रयणचूडकहा ] ३५९ रणसिंह रयणप्पह-रत्नप्रभ फरणस्तंभपुर १५६,३१२,३ रयणवई २६९ 卐 - जिनगृह ३१६ रवि(श्रावक) रतधी १३९ रतन ५२,२५७ *रविप्रभ(पह) गणेश्वर . ४८,२६१ -~-सीह ३३,३५६,३६१ * - सूरि (रवि सूरि) ३६५,३६६, ३७० रतनादे २५० __-देवी रतनिका ३४५ राउल २०३ रतनू २४१ राघव x १९५ रमा ४१५ २५८ राइमइ २५८ 60 Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 474 विशेषनाम राज फराजउर राजगच्छ फ राजगृह पुर 5 राजजगद्दल - विहार राजड राजदे राजपुत्र राजमती राजल राजविहार * राजशेखर राजसिंह राजा राजका राजिनी राजीमती राजुका राज्यश्री राणक देविका (वी) राणिग राणी राव + रामं पं. पत्तनस्थजैन ग्रन्थागारीयसूचिपत्रसूचितानाम् पृष्ठे विशेषनाम ३६३ | रामदेव 1 १५६ २०४,२०५,३७९,४१४ रामभद्र सूरि १४२,१५६,२६८ रामसिंह ५५ रामाक १५७,३३२ रांभलदेवी १२२ रांभू १०० 5 रायगिह = राजगृह ३५८,३५९ ' [ रायप्पसेणइय सुत्त ] ३४८ राहण २४१,३५३, राल्ही ३८०, ३८२ रावण ३७० रास ४९,३७५ रासचंद्र ३४७ रामदेव ५२ रासल ३५१ २३४ राहड १७७ राहव - देवी १०५,२२६ राहूपुर ३४२,३४३ रिसह ऋषभ १३९,३८०,३८२ पृष्ठे १५०,२३८,२८७, ३४१, ३४२,३५९ ६२ २५७,२५८ १२३ ३६० ४०४ जिण ऋषभ १९६ रिसहेसर = ऋषभ जिन २५७ रिसिदत्त (त्ता) ३८० रुक्मिणी २४१ रुक्ष्मणी २७०,२७१ २८७ २८७ ३०९ १६३ ११८,२२५,२२६, ३१४ ४५ २६१ २६९,३२९ ३५८ ३४६ २३९ २०९ ४५,२७६ रुद्रपाल चंद्र (चारण) १५, ११३,१४४ प्ररुंडत्थल = संडत्थल [कवि] : (पं.) १९२,२०४ रुंडाक ३९० रूडी १८८ १३९,३४५,३८१ २३४,२५०,३६२ १७९,१८० ११२ ८८ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 475 3 M १३९ २८१ ३५१ लक्खण ४८ * इतिहासोपयोगिनानां वर्णक्रमेण सूची । विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम रूपल २२८ ललतू रूपला ३२८ ललितप्रभ(देव) सूरि -- देवी २८० ललितादेवी रूपिका ३४२ लल्लक (भां.) ३५० रूपी ५० लल्लिका रेवंतक २५५ लल्लिणी ३८६ फरेवय गिरि २६९,२७० लवणसिंह ३८१ मरैवत क १६,२२९ लष(ख)मसी २०९ मरोहाइय वारसग २५५ लहर २५३ मरोहेला १४४ लाखणदेवी २५८ ४५ लाखाक ३२५ २१२ लाच्छि २९१ लक्ष्मण २७६,४०४,४०७, मलाजी - भट्ट ८ फलाट देश १७,४८,४९ ४०७ लाडण १३८ * ~~- गणि १९७,२३१ लाडी १५४,३४७ लक्षमी(क्ष्मी) २१९,३४१, ३४७,३५१, फलाडउ(डो)ल ४१४ ३५८,३६२,३८१,४०२ लावण्यप्रसाद लक्ष्मीदेवी २१३ लावण्यसिंह ३९८ लक्ष्मीधर ३२८,३४१ लाषण ११९,२४० लक्ष्मीप्रमोद मुनि ४१५ लापा(खा) १२३,२१३,२१४ लक्ष्मीप्रिय १३९ [लिङ्गानुशासन १२७ लष(ख)मसिं(सी)ह २५७,२५८,३९० लिंबक(बा) २१६,३४४ लखमाक १५२ लिंबदेव (पं.) ३१० लष(ख)मादेवी ३८२ लिप लष्मि(ख्मि)णि ३६,३७९ लींबाक २५७,३४४,३४५ जलघुपौषधशाला २०५ लीलादेवी .३९८ लच्छी ३९३ लीलावई(ती) मललता-सरोवर २२९ लीलू. ललता(ना)देवी १३८ लुणदेव(पारि) * * १९४ ३२८ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 476 विशेषनाम लूणसिं (सी) ह (महं) लूणाक लूणिग (पं.) लूंढा लोकानंद लोल (ला) क लोहदेव फलोहपुर लोहपुरुष लोहा फलोहित वइजा चइर गुत्त सामी साहा सीह वइराक वंग वज्रसिंह वज्रसेन 5 वटकूपक= वडू वटपद्रक वडपद्रीय पत्तनस्थजैन ग्रन्थागारीयसूचिपत्रसूचितानाम् पृष्ठे विशेषनाम ६०,३९८ | वडगच्छ ७३,४०६ 5 वडपद्र = वटपद्रक 5 वडवाण ३०१ २५८ Sasहर देश ३९१ वडू ३५१ | वड्डगच्छ २८३,३६१ विणराय फवटपल्ली १७८ वत्स afधका वटुड 5 वडउदय (र) = वटपद्रक ४८ ३५७ वद्धमाण - वर्धमान जिन ४८ १२३ २५७,३३८ | वनदेव ३०३,३९१ विनराज ४८,४९ : वयरसिंह (सीह) वच्छ १४७ वयरसीक (पं.) वज्र मुनीश्वर (स्वामी) १६,१००, १७९, वयर सामी 5वद्धमाण नयर (पुर) - सूरि ३३१ | वयरसेण सूरि ५०,१६७,२०८ | वरण (णि) ग ३५६ * वरदत्त मुनि वरदेव २२,२४५,३३४ वरनाग गणि ३३८ वरसिंह १७२ | * वराहमिहिर .. ३५७ | वर्णक वर्धन २९६,३०५ | विप्पइ (य) राय = वाक्पतिराज २११,२५३ वयज (ज्ज) २८० वयजा २११,३२८ वयरस पृष्ठे २५३ ४८ २६१ ४८,३७८ २५१,२८५ २५३ १४७ ३६३ १८८, २१२ २११,२४५ ३६२ २५८ १३८,१४४,२२८ ३८१ ३३१ ५२,२६१ ३० १९१ २४३ ३१६,३४८,३५३ २९६,३०५ ३५८ ३७६ १७१ १६९ १६६ २२४ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 2471 इतिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची। 477 विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम पृष्ठे वर्द्धमान जिन १,२,४,५,६,८,१९, वाग्देवताभांडागार ३१,४०,६२,८६,९०,९२,९३, वाग्देवी १४३,१५५,१८२,१८८,२०६, वाग्धन २४७,२४८ २१४,२१५,२३०,२३६,२५२, *वाग्भट ११७,११८ २७१,२८३,२९८,३११,३४१, वाघाक १५४ ३५९,३६३,३८३ वाचक १२ - तीर्थ २११ *-- मुख्य - (श्रा. ठ.) १४८ वाछा २३९ - सूरि ८७,२८५,४१४ वाछी ४१५ १६९,३६४,४१२ वाजक २२० वर्द्धमानाचार्य २०३ फवाडी[पुर] ३५० ------- पार्श्वजिन ४१४,४१५ जवलापद्र पथक १०५ 5 ------ चैत्य ४१४ *वल्लभदेव ५८ --- प्रतिमा ५१५ विल्लहराय २५४ जवाणारसी १००,१४४,१५६ वल्लिग २१९ *वात्स्यायन वसंतपुर १९५ *वादिदेवसूरि-संतान वसंत राग २७१ वाधुमति (आर्यिका) वसा ५२,८८ वानू विसुदेवराय ११,३३५ वामणथली नगरी २३९,३२० [वसुदेववृत्त २०४ वामदेव [वसुदेव हिंडि] ५२ *वामध्वज ५०३,१०४ वसुंधी २२६ वामनस्थल-वामणथली वसुपुज्ज वासुपूज्य वामादेवी वसुभूई २६६ वामुक पं. १८३ वस्तुपाल सचिव २३७,४०० वामेय जिनेश पार्श्वजिन - मंत्री (२) ४१५ / *वामेश्वरध्वज वामध्वज फवाकाण ४८ 5वायड १५६ *वाक्पतिराज ६३,३७६ फवारवह ३७६ वागडदेशीय ४१४ | फवाराणसी-वाणारसी . .... ० ० . २४३ १३० r ० m Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 478 २५१ M २११ पत्तमस्थजैनप्रन्यागारीयसूचिपत्रसूचितानाम् विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम मवालभ ४८ विजयसीह (3. दंडाधिपति) ३३,३०९ *वाल्मीकि ४९ विजयसेण २६० वाल्ही २४१ ---- सूरि वावु २४१ विजय सेन २३५,२३७ वासड ३३० ---सूरि २०७,२३६,३२४ वासा २५८ *विजयानन्द २६१ वासुपूज्य १४०-१४२ विजयेन्दु सूरि ३५५,३५६ वासू १३९ विजाहरगच्छ 'वाहड २२५,३०९ विजाहरा साहा वाहरि गणि ३५९ मविझगिरि २५४ वाहल १५० विझवासिणी २५४ वाहिनी ३५१ *विटपुत्र १०० विकमसेण १७४ *विणयचंद-विनयचन्द्र विक्रम १४०,१४४,२३० प्रबिण(णी)य नयरी-विनीता नगरी विक्रमपाल भूपति १७९ विदर्भ विक्रमसिंह २४८ विदर्भी (रीति) २१२ विग्रहक्ष्मापति ३६,३६९,३७०,३७९ विदेह विजअ २९७,३०४ 5. ग्राम २७१ विजपाल २५७,२८० विद्याकुमार २८१ विजय २२५ विद्याधर विजयकर्ण १५९,२२३ [विद्यानन्द] विजयचंद-विजयचंद्र - सूरि २१५ विजयचंद्र गुरु १५१,२६१ विद्यापुर ११२ - सूरि ५२,१९५,२०८,३०९, विद्या [प्राभृत] ३३९,३९४,३९७ विद्यारत्न गणि ३३४ विजयपाल १७९ विद्यासिंह विजयलक्ष्मी २४३ विधि-उद्धार ११३ - चैत्य ४१४,४१५ विजय सिंह सूरि १४,३१३,३२१, पक्ष(पक्ख) २८,४१४ ३४७,३४८ *विनयचंद्र(आचार्य) ४२,४६,४९,६६, ३११,३८९ ६७,२६१,३६१ २६१ १३८ २८१ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४७ ३४,२४६ वीझी १९५ वींझिका इतिहासोपयोगिनास वर्णक्रमेण सूची। 479 विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम विनयश्री २३४,२९१ । विस्तिणि ३२८ 'विनीता नगरी ___२५,१६९ विहारुक (ग) २१८,२८४ भविंध्य ४८ वीकल *विबुध(ह)चंद्र(द) कवि १८७,३२१ वीज (मंत्री) विमल जिन ११,२६ वीजल २१९ *विमल २४.१३३. 5वीजापुर २०१,२४८,३२७, ७०,२५८ ३९७,४१४ * - दंडपति २५४,२५५.११४ ॥ --- पौषधशाला ३९७ -- गणि ७ वीजा महं - गिरि-शत्रुञ्जय -शाला चंद(द्र) ३४४ - उ. ३४६ *- गणि १८६ वीर जिण(न) १,२,८,१०,१३,१९, २०,२२,३४,३५,४४,४६,५०, विमलप्रभ सूरि २१५ ५३,५७,६१,६२,७१,७२,८४, *विमल सूरि(आचार्य) २६,३०० ९२, ९३, ९४, ९५, ९७, ९८, १९५ १०३,१०८,११९,१२०,१२४, *विरहांक(विरह) १२६,१३१,१३२,१३४,१३९, ३४,१०३ विरूपाक्ष १०३,१०४ १४०,१४२,१४७,१५५,१५७, विलासिनी १०० १६३,१६६,१७३,१७४,१८२, १८८,१९०,२२५,२२७,२३०, [विविधस्तव ] ३९५ २३६,२३९,२४४,२४७,२५४, [विवेकमंजरी] ३२९,३३१ २५९,२६१,२६२,२६३,२६६, विवेकसिंह १४४ २६८,२७०,२७२,२८०,२८५, विशालकीर्ति ११३ २८६,२८८,२९२,२९३,२९५, *विशाखिल ३०२,३०३,३०४,३०८,३१३, *विशुद्ध मुनि ३१४,३१५,३२४,३२६,३३५, विष्णु भट्ट ३४९,३५८,३६२,३६५,३८४, विश्वसेन ३२५ ३८५,३८६,३९२,३९३,३९७, [विसेसावरसय ] ३१८,३१९ ३९८,४०४,४११ १०० १०० Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 480 विशेषनाम [ - चरिय ] 卐 चैत्य तीर्थ प्रतिमा प्रवीर जिनभवन वीर वीरक * वीर गणि वीरचंद्र वीरप्रभ वीर (ठ०) वीरड वीरणाग (५२) वीर तिलक वीरदत्त वीरदास वीरदेव सूरि वीरधवल वीर नाह= वीरनाथ वीर नृप 5वीर पुर वीरप्रभ पत्तमस्थजैन ग्रन्थागारीय सूचिपत्रसूचितानाम् पृष्ठे विशेषनाम ३५९ वीर (मंत्री) सूरि * वीरभद्र 5- वसति ३९८ *वीरम (महं मंत्री ) ३२४ वीरमइ १३५,२०७,२५२ 5वीर - विधिचैत्य ५०,१९९ | वीरविभु ४१४ | वीर - सासण ३४६ वीरा ९५ २४७,४१४ २२५,२३४,३४६ १६६ २७३ ७३ वीराक वीरिका २३४,३१२ १८६,२३८ वीरी वीलू वील्हण वीरनाथ २७,९०,१०३, ११५,२५१, वूहडि २६६,३२०,३५७ देवी वीहव बुवाई (वृद्धवादी) 5 वृद्धग्राम पृष्ठे १३,१८८ 5 वेलाकूल ३३१ : वेलिंग २३८ २२४,३५७ वील्हा २१९ वीहुका ४० वीशल (पारि०) ३५८ वीसल १४४,२२५, २७७, ३४२, ३७६ १८८ + वी (वि) सल देव ३३,६०,१६२,२१८ वृद्ध तपागच्छ २३८ 5 पौषधशाला १६३ | वेजल्लदेवी ५७ | वेदान्तिक ३५९ | वेलाउली राग "" १३८,२४० १८८ ४१४ ३५६ ३८८ २१५,२२३ १९९,२२२,२५७ ३५८ २८७,३४६ २२७ ४९,२०१,३८७ ३५३,४०२ १३९ १३९ १४८ ३३९ १९४ ३२७ ३४५ ३६१ ३४८ १३८ २३६ २६७ ३४७ २८७ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 481 ० वेल्लिका ० १९६ शाणी م *वैरोचन س م ३६२ । م इतिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची। विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम वेलुका १४७ शन्हा ३६३ वेल्लक २१९,२२०,२८६ शंभली १०० १२,२१९ *शय्यंभव सूरि ४९ वेसामयण १७४ शाकटायन ३,५० वेहारुय मुणि २८५ फशाकंभरी १५६,२९०,३६७,३६९ वैकुंठ ७१,२४२ -भूप वैद्यनाथ १९९,२२३ वैरशाखा ६ शांति जिन १०,३८,२०४,३२९,४१४ वैरस्वामी ५४,२०५ - नाथ २२,१२४,१३५, वैरिसिंह ३४७,३४८ २०५,२४३,३२५,३३५,३४३ - बिंब २२६ वैशेषिक - भुवन २२४ [ - स्तव २०० वैश्रमण शांतिका २२५.३४२ वोचिस्थ शांतिनाथ-प्रासादालेख्य १५४ [ - वृत्त] वोल्ह ११०,१२४ शांति सूरि २०,८७,२३६ वोसरि ३४७ * * -- ९१,९९,१०७,२०२, वोसिरि १२५ २९२,२९९,३२७ वोहडि २२६ ___ - भद्र सूरि फव्याघ्रपल्ली ४६ शांतिमदेव २८० ४९ शांतू २२५ *शांत्याचार्य ४१,४२,८६,८७(२), *शकटाल १४५ २४२,३९७ शकाब्द ८७,२१७ १५१,१७९ शालि १२५ [- स्तव] २१३ शालिभद्र [शतकचूर्णिटिप्पनक] १४७ - सूरि ९०,३५९ 卐शत्रुजय तीर्थ २५,२६,१०२,१९१, * ३७७,३९७,४०१,४०२ २२९,२५८,२८४,४१४ शालिवाहन हाल [शत्रुजय -- कल्प १६ शाहड वोढक ३५७ هر व्यास शक २८६ ३२८० 61 Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ ३७९ २५८ श्री *शिवशर्म २२५ *श्रीकंठ १४० श्रीकरण १९ श्रीचंद्र - २४२ 482 पत्तनस्थजनप्रन्थागारायसूाचपत्रसूत्वतानाम् विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम शितदेवी २२० शोषी(बाई) शि(सि)रीयादे ४१५ शौराणकीया शाखा शिवदेवी १२५ शौराणी शिवप्रभ सूरि १२६,२९३,३५७ श्यामल १४४ शिवराज १४७,३४६ २५७ शिवादेवी २८ शीतल शीलचंद्र २७६ शीलभद्र सूरि ९,७२,३६९,३९५,३९९ *श्रीचंद्र सूरि (मलधारी) ३३,६८,६९, -- (२) ३७,५४,२९४,३७९ ८९,९९,१०२,१०७,१५७, *शीलांकाचार्य ५०,२१५,२१६,२४२ ३१४,३२३,३९९,४०६ *शीलाचार्य ३५९ श्रीताड २१४ शीलुका ३८१ श्रीताडीय पुस्तक शीलू १०८ श्रीदेवी १६७,२०६ शुभकीर्ति ११३ *श्रीधर भट्ट ५१,१४८,३४१ *शुभचंद्र योगी ५७,२७६,२७७ ६.२७७मश्रीनार ४८ शुभतुंग १७२ श्रीपत्तन ११९ शूर १४४ प्रश्रीपर्वत शूराक श्रीपाल १४०,१६९ शूलपाणि(स्तलेमाणे) | श्रीप्रभ सूरि ३४४,३४५,४०८ शृंगारमति २२० श्रीमति गणिनी *शोभन कवि श्रीमाल ४८,२४३ |-- कुल १४७,२३८,२४१ शोभनदेव (श्री.) -ज्ञाति २२९,३५०,४१४ --- (गू.) १६८ - वंश ७४,९६,१०८,१३८, " - (ठ.) १४३,१८१,१९८,२२१,३०९, शोभना ३२५,३२७,३४७,३५०,३६४, शोभित . २३३ ३९३,३९८,४०२ शोभिनी। ३२८ श्रि(श्री)यादेवी २२९,३४५,३५८ ४८ ० ० w w 9 ० ३५२ ० Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इतिहासापयागिनाम्ना वणक्रमण सूची। 483 फश्रीराष्ट्र १८२ له ع لم سد ३९० विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम ४८ साला ३८० श्रीवत्स ३४५ संति (शांति) १०,१३५,१५९,२५५ *श्रीहर्ष कवींद्र ४९,६४,१७०,३७३ - जिणेसर श्रुतदेवता ४०७ - णा(ना)ह २१०,३३७-३३९ श्वेतांबर ९७,१५०,१९६ [ -चरिय] ३३६,३३९ श्वेतांबराचार्य ११२ फसंतिपुर पेढ( खेढा) ३६,३७९ संति सूरि (ख)ता ३३३ संतिप्पह सूरि ३२७ संतिभद्द २९९ [षोडशकसूत्र-वृत्ति १२२ - मुणिंद षोषल (खोखल) १४६ संतिसमुह १४५ सउधर १४० संतुक सगर(चक्री) १८२,१८३ संतुका ४०५ संगण १२५ के संतुय सचिव २४५,३१६ १४६ संतोषा २३४,२३५,३५२-३५४ - सिंह ३८२ ऊसपादलक्ष *संघदास क्षमाश्रमण २१० सपूना ४०४ जसञ्चउर १५६,३२० समधर २३०,२४१ सजण सचिव २४५ समंतभद्र सजन १३९,१४४,२२४,२२५ सजना(नी) ३८०,३८१ फसमयूपुर-देवता ३३१ [सड्ढसय] २५१ [समरादित्यसंक्षेप ४५,३३५ मसंडत्थल २५४ समवसरण ३५७ फसंडेरक(य) १५६,२४७ समुददत्त १७४ ---गच्छ ३३ समुद्दविजय मसत्तजय ३२१ कैसमुद्धर (महामात्य) ३२८,३९० [सस्थवत्ता २५१ संपूर्णा (ना) २२४ संभरि शाकंभरी सत्रागार २२९ संभव.देव १९२ सहर्षि ५२ सम्मेय सेल • १५६. संग्राम २७ सत्यपुर Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२९ १६७ 484 पत्तनस्थजैनग्रन्थागारीयसूचिपासूचितानाम् विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम फसम्वी ग्राम ७३ सबट्ट [सयग] ३१९ सवाणंद २११ सयडाल-शकटाल फ़ संवलिया(समलिका)-विहार २०८ ऊसयंभरी मंडल ३१४ संविग्नविहारी २८५ 1 - राजा ३१६ *ससिपाल कवि १८४ सयंभूदेव ३०३,३९१ ससारदेवी संयमसिरी ६६ ससारवल्लभा सरणय ३२२ सहजकीर्ति (पं.) ७४ सरणी २३४ सहजपाल १४४ फसरव(4)ण .१४५ सहजमति १३९ २२९ सहजल ३४७ सरस्वती ५६,२४४,२५७,३२८,३४६ सहजल्हदेवी ३४४ सरस्सइ देवी २५६,२८९ सहजसमुद्र गणि २०५,२५२ सर्वदेव ३९,३४२,३६३ सहजाक ३२५,३८१,३८२ - सूरि ३२४ सहदेव १५२,१८८,२५८,३४५ सर्वदेवी ३४० सहरि २८६ *सर्वान(ण)द सूरि ७२,७३,२८३,३९२ सहवू सलक्ष १६७ सहस्रकीर्ति २७७ सलक्षणा १०८,३८२ सहस्रनामावधानी मसलपुर १३५ सांईआ . २३८ सलवणा ३२५ साउ(ऊ) ८८,८९,२४० सलष ३४६ फसाएय(साकेत)पुर १९५,२९७,३०४ सलषण २०२ सागर ३८७ -देवी ३३ सागरनन्दी १७२ १४६ सागरेंदु सूरि सलषा(खा) २५७ ऊसागेम नयर २४४ सलहक २८६ सांग सांगाक .' सलूणी २२५ १४४ सधए(द) २५६,३९० सांगण १२३,१४४ -सीह Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 485 साडा । साभड م س इतिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची। - 485 विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम पृष्ठे *सांगा क (महं) २०१,२४४ साल्हा २५७,२५८ साजण (पं.) ११८ -क २४२,३६४ साटीनि ३६२ सावत्थी १५६ २१४ सावदेव ३६४ साढल १२५ [साक्यधम्मग] ३०४ साढाक साहर ५२,२५७ मसांडउसी प्राम २०२ साहारण २८३ सांडा २४१ साहारण सिद्धसेन सूरि सांताक ऊसाह्लाद साह्लाद १४४ सामत २५७,३६४ साह्रादन ३२५ सामंत १०९,१३८,१४४ सिकंदर पातशा(तिसा)हि ४१४-५ *--- मंत्री सिंगारदे ( देवी ) २४१,२४२ -सीह ३४९,३९७ मसिंघल सांब ३४६ ४८ सिंघा २३९ ऊसायणवाडय पुर २५५ सितांबर ११०,११७,१८२ फसायंभरि ३०८ भसित्तुंज गिरिंद (तित्थ) ७१,१५६, t - नरवह २६६,२६७,२६९,२७० सायर १४१,१५५ सारंग *सिद्ध (व्याख्यानिक) ३१९,३२४ सारंगदेव ७४,११९,२०१,३२७, (श्रा.) ३५८,३५९ +--- चक्रवर्ती=जयसिंह सार्धदेव ३२ सिद्धत्थ २८५,३०६,३९९ [ सार्धशतक] ३९५ - नंदण (सुय) २५०,३८९ सालिग सालिभद्द १९०,३०४,३१७ सिद्धराज(य)-जयसिंह -सूरि-शालिभद्र सूरि *सिद्धर्षि (साधु) ५२,१६५,२०३, साल्हक २५८,३४५,३९८ २०४,२०७,२०९,२३५,२८३, साल्हण १३९,३१० ३३४,३४९,३९१,४०२ س سم سم لم ३०८ २५८ सिद्ध ८८ सिद्ध ३८७ सारु १४४,१४७,२४१ प्रसिद्धपुर २०२ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 486 पृष्ठे पसनस्थजैनग्रन्थामारीयसूचिपत्रसूषितानाम् विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम [सिद्धसारस्वत शब्दानुशासन] १२४ सीमंधर स्वामी *सिद्ध सूरि. २८,२९,३४,९०,३३५ सीय *सिद्धसेण(न) दिवाकर ४१,५७,१९४ सीलभद्द * ---- सूरि २३,४३,९०,९१,१३७, सीहकेसरी १४२,१५५,१५६,१६१,१७७ सीहड २३८,४१४ ३१७ ३९२ ११८,१४४,३२८ २४६ सीहाक महं ३९४ सुअंगी १२१ ३५४ सुट्टिय २११ ४८ ३२७ सिद्धाधिप-जयसिंह सिद्धांत सिद्धांतिक [सुखावबोधा] सिद्धार्थ ३२५ ४६,२८०,३९८ सुगुणा सिद्धेश सिद्धेश्वर सुदरिसणा-सुदर्शना जसिंधु मसुदर्शन १४८ श्रे० १९९,२२२ ३५१ - देशीय सुदर्शना २०८ . *सुधर्मा ३२,७२,९४,१२४,३५६ सिंधुल(ल्ल) मसुंदरसेन सिरिकुमार सुंदरी १७४ सिरिचंद सूरि ३२१,३२२ सुंधीग फसिरिमाल पुर सुप्पडिबद्ध २११ सिरिवच्छ ३३९ सुपार्श्व २२४ सिरी २२५ *सुबंधु जसिरोह १५६ सुभटसिंह सिव २३९ सुभदा १५९ ---- कुमार २७१ सुमति (लेखक) सिवपह सूरि ४०४ * - सूरि ११,१२ सिंह २५८,४०४,४०५ सुमेरुसुंदरी --मांग २२४ सुंभर ३०७ सिहाक २५७ सुयदेवया( श्रुतदेवी) ५,१०,४२,९५, २२१,३६०,३६२ १४६,१५८,१७३,१८४, सीतू . २४७ २८५,२९०० ११९ २५३ 20 १९ सीता Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ इतिहासोपयोगिना । वर्णक्रमेण सूची। 487 विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम 卐सुरहा ३२१ फसैंधव सोढल सुरष्टिणि ३०७ सोद्धका ३८० सुरलक्ष्मी ३४४ सोनिका ३४४ सुरसुंदरी २६१ सोभनदेव १८३ *सुराचार्य १७६,१८५,१८६ सोभाक सुराष्ट्र (ट्रा) ४९ सोभागदे प्रसुव्रत (सुवय) जिन २०७,२०८,३२४ सोम (मह) १०८,१६७,२५७,३२७ सुहडादेवी १६७,३८२ *सोम सूरि १३,९८,१५७; सुहम्म सामी-सुधर्मा १५८,१८८ सु(सू)हवदे ४१५ सोमकलश ३७८ सुहागदेवी ३८२ सोमतिलक सूरि २१५,२२७,२४८ सूमा ५२ *सोमदेव सूरि ३१,८९ [ सूयगडंग-वित्ती] ३५८ सोमदेव मुनि २७२ सूर २५७ सोमप्रभ (पं.) १५८,१६० --- वंश १७९ * सूरि ६५,९८,२१५ सूराक १७७,२०१,३३३ सूरिमंत्र ४१४ सोमराज ३८०,३८२ ५०,५१ सोमसिंह सूहवदेवी १३९,१४४,२४८, २१५,३७९,३८० २५०,२५७,३८० *सोमसुंदर सूरि २००,२०२,२१३, सूहागदेवी २४८ २१४,२२३,२२४,२३९,२४२, सेगा २३८ २५२ *सेजंभव २८५ सोमाक २४१,२५७,३४६ सेजंस २४६ *सोमेश्वर २८८ सेढक ३४६ * -- देव (भूलोकमल्ल) ८५,८६ सेिणिय २६८ * - भट्ट ३९१ फसेत्तुज्ज-सितुंज + सोरट्ठ • •१५६ सेयंबर-सितांबर म सोरियपुरी १५६ सेल्हण २१९ सोलक (सोला) ३४५,३४६ सैद्धांतिक १२० सोलण २८० * सूल्हणि ३५० Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४३ २५८ स्याणी ३९८ ३४७ स्वर्णा २७६ ~ ३३४ १४७ हरिकुल * १८१ 438 पत्ननस्थजैनग्रन्थागारीयसूषिपत्रसूचितानाम् विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम सोलाक (ठ०) १०५ स्थिरदेव सोलुका ३५३ स्थूलभद्र १९९,२२२ सोपलदेवी सोषी स्वर्णनंदि सोहग महडान नगर सोहग्गसुंदर महत्थिसीस नयर सोहड १४६,३४५-३४६,४०२ हरदेव १५२ सोहम्म सौधर्म हरपाल ३२८ सोहल हरसउर हरिसउर सोहिक २६९ सोहिणि ३८० *हरिचंद्र (महाकवि) ३२,११२,४१३ सोहिय ३१७,३८१ * गणि सोही १२५,१३९ २५,८८ २०३,२८३ २२७,३४२ ___ ९५,१५१,२६९,२७१ हरिदास २२१ सौम्य १६६ हरिदेव ३७९ १७,४८ हरिपाल ३६,३७,३८०,३८१ सौवर्णिक ३३,२५७,२५८ हरिप्रभ सूरि फसौवीर *हरिभद्द(द्र) सूरि (१ विरहाङ्क) ५,११, १२,५०,५१,५२,८६,९२,९३, फस्तंभतीर्थ ३३,३७,११२, ११७,११८,१२३,१२४,१३५, १२६,२०८,२१०,२२१,२२७, १४१,१५१,१५७,२०३,२०४, २३२,२४०,२४४,२४६,२५२, २०९,२१०,२४४,२९१,३००, २९२,३३३,३३४,३४८,३४९, ३३४,३३५,३४६,३४८,३४९, ३५७,३६०,३८७,३९८,४०२, ३६१,४०८ ४०६,४०७,४१५ * -(२ जिनदेवोपाध्यायशिष्य) --- समुद्रमीनरक्षणफुरमान ४१५ २१,२२,२९,६१,९६-९९, मस्तंभनक २५८,२८७ ११६,३७५,४०६ --- पावेनाथ . ४१४ * - (३ श्रीचन्द्रसूरिशिष्य) २५२, स्त्रीनिर्वाणसमर्थन २०७ २५३,२५६ स्थवि(स्थि)रपाल ३२५,३४४,३४५ - (४) । ____२१२,३३२ [स्थानांगादिनवांग-वृत्ति] २८७ -- (५ अभयदेवशिष्य) २८७ सौगत सौधर्म ऊसौराष्ट्र !! Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 489 इतिहासोपयोगिनाम्नां वर्णक्रमेण सूची। विशेषनाम पृष्ठे विशेषनाम हरियड २३९ ॐ हिरण्य नगर हरिवंश २४४ हींदा २३९ हरिश्चंद्र २००,२२३ हीर १९९,२२२ महरि(र)सउर पत्तण १५६ हीरादेवी २२३,२५८ - गच्छ ३१४ हीरुयाणी हरिसि(स)णि ,३७९ महुडापाद्र पुर १५२ प्रहरीराह(? हृतरोह) १७६ हुंबड कुल (वंश) ११२,३६२ हर्षकीर्ति ३९८ हेमकीर्ति - गणि २४८ *हेमचंद्र सूरि ( १ मलधारी) १४,५३, हर्षदेव ५८, ६३, ६७, ९०, ९४, १०१, हर्षदेवी ३६,३७९ १०७, १६१,१६६, २०७,२२१, महर्षपुर ४८ २३०, २३२,३००, ३०१,३१३, हर्षपुरीय गच्छ १४,३१२,३८९ ३१८,३४९,३८३ हर्षराज *हेमचंद्राचार्य (२ क.स.) १५-१७,२८, ३०-३३,३९, ५७,६०,६६,७४, २४१ ८८,९०,९४,१०५,१०८,११८, १९९,२२२ १२४, १४३,१४७, १४९,१५२, हर्षेदु गणी २८० १५५, १५८,१६२, १६३,१६८, *हलायुध १८१, २०५,२१०, २१६,२२७, २४१ २५६,२७७,२७९-२८१,२८३, २०२ २९२,२९५,३००, ३०४,३०५, ११३ ३१३, ३२६,३३४,३४६,३६४, हापाक ३४५ ३७५,३७७,३८७,३९८ हारलता १०० हेममेरु गणि ११३ महारीज नगर १४६ हेमराज * हाल १८१ हेमसार गणी हांसी १६७ हेमहंस सूरि हिगोन १२३ *हेमाचार्य हेमचन्द्राचार्य म हिमालय ४८ हेरंब १२८,१९७ ३८२ हो १७८ हंस हादू हानू ११३ ११३ Page #568 --------------------------------------------------------------------------  Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रास्ताविक - टिप्पनी । प्रास्ताविक - टिप्पनी । १. “उसमे णं अरहा कोसलिए x x लेहाइआ गणियप्पहाणाओ सउणरुयपज्जवसाणाओ बावसरिं कलाओ, चउसट्ठि महिलागुणे सिप्पसयं च कम्माणं तिन्निवि पयाहिआए उवदिसइ, उवदिसित्ता पुत्तस्यं रज्जसए अभिसिंचइ ।” 491 --जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ती [सू. ३० ], दशाश्रुतस्कन्धाष्टमाध्ययने कल्पसूत्रे [ सू. २११], आवश्यकसूत्रचूर्णौ [ ऋ. के. प. १६०] २. "लेहे x" "लेहं लित्रीविहाणं जिणेण बंभीर दाहिणकरेणं ।" - आवश्यकसूत्र - निर्युक्तौ [गा. २०३], वि. भाष्ये, [ह. वृ. प. १३२, १३] ३. " नमो बंभीर लिवीए ।" - भगवतीसूत्र - प्रारम्भे । समवायाङ्गसूत्रे [सम. १८,७२], राजप्रश्नीये, विपाकश्रुते [अ.२, सू.८], औपपातिके, अपभ्रंशकाव्यत्रयी - भूमिकायाम् [ पृ. ८८,८९ ] ४. ५. "अह तं अम्मा- पियरो जाणित्ता साहियअट्ठवासं तु कयको उयलंकारं लेहायरियस्स उवर्णेति ॥ " - विशेषावश्यकभाष्ये, आवश्यकचूर्णी [ऋ. के. प. २४८], [ह. बृ. प. १८२, ७६] ६. अपभ्रंशकाव्यत्रयी भूमिका [ पृ. ८४ ] समीक्षणीया । ७. "दबसुय पोंडयाइ अहवा लिहियं तु पुत्थयाईसुं ।" — उत्तराध्ययननिर्युक्तौ [अ. ११ बहुश्रुतपूजाध्ययने गा. ३१२, दे. ला. प. ३४२] “से किं तं जाणयसरीर-भवियसरीरवइरित्तं दब सुयं ? xx पत्तय-पोत्थयलि हियं ।" -अनुयोगद्वारसूत्रे [आ. समिति प्र. प. ३४] चूर्णो, हा. वृत्तौ [ऋ. के. प. १५,२१] “पत्ताइगयं सुयकारणं ति सदो व तेण दबसुयं ।" x x ‘पत्ताइगयं सुत्तं' x "दब सुयमसाहारणकारणओ परविबोहय होज्जा ।" “गुरुवायणोवयातं न चोरियं पोत्थयाओ वा ।" "फलयलिहियं पि मंखो पढाइ प्रभासइ तहा कराईहिं । दाइ य इत्थं सुहबोहत्थं तह इहं पि ॥ " - विशेषावश्यकभाष्ये [गा. १२४, १७४, ८५७, ८७८, १०८९ य. वि. ग्रं. प. ८०, १०५, ४०६, ४१७, ४९९] "पोत्थसु घेप्पंतरसु असंजमो भवइ । x x कालं पुण पंडुच्च चरणकरणट्ठा अबोच्छित्तिनिमित्तं च गेण्हमाणस्स पोत्थए संजमो भवइ ||" - दशवैकालिकसूत्र - चूर्णी [ ऋ. के. प. २१ ह. वृत्तौ ], "मेहा-ओगहण-धारणादिपरिहाणि जाणिऊण कालियसुयणिज्जुत्तिनिमित्तं वा पोस्थ -. गपणगं घेप्पति ।" 62 Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wiririn 492 जिनागमादि-लेखन-संरक्षणादि-प्रवृत्तिः। द्रष्टव्यं निशीथभाण्य-विशेष-निशीथचूर्णादौ [उ. १२ हं. प. ३३९, ३४० विचाररत्नाकरे दे. ला. प. १४४-१४७] "मन्दमेधसः पुरुषान् वाचनया ग्रहण-धारणासमर्थानवबुध्य पट्टिकापठनप्रवृत्तिः। किञ्चित् संयमविरोधेऽपि सिद्धान्तस्य पुस्तकेष्वारोपणं कवलिकादिधारणं च प्रवचनाव्यवच्छित्तये गीतार्थप्रणीतं गृह्यते।" धर्मरत्नप्रकरणस्य खोपज्ञवृत्तौ [आ.सभा पृ.५९] ८. "जेसिं इमो अणुओगो पयरइ अज्ज वि अड्डभरहम्मि । बहुनयरनिग्गयजसे ते वंदे खंदिलायरिए ॥ कालियसुयअणुओगस्स धारए धारए य पुवाणं । हिमवंतखमासमणे वंदे णागजुणायरिए॥ मिउमद्दवसंपन्ने आणुपुचि वायगत्तणं पत्ते । ओह-सुयसमायारे नागजुणवायए वंदे ॥" -नन्दीसूत्रे ( स्थविरावल्यां गा. ३३, ३५-३६) विशेषजिज्ञासुना तच्चूर्णिहरिभद्रसूरि-मलयगिरीया तव्याख्या, भद्रेश्वरसूरीया प्रा. कथावली च विलोकनीया। ९. कल्पसूत्र-वृत्त्यादिपूद्धता-“वलहिपुरंमि नयरे देवड्डिपमुहसयलसंघेहिं । पुत्थे आगमु लिहिउ नवसयअसीयाउ वीराओ॥" "श्रीवीरनिर्वाणादशीत्यधिकनवशतवर्षेषु व्यतीतेषु देवर्धिगणिक्षमाश्रमणैर्हि कालदोषात् सर्वागमानां व्यवच्छित्तिमालोक्य ते पुस्तकेषु न्यस्ताः । पूर्व पुस्तकानपेक्षयैव गुरु-शिष्ययोः श्रुतार्पण-ग्रहणव्यवहारोऽभूदिति वृद्धसम्प्रदायः।" -वि. सं. १५५३ वर्षे पद्ममन्दिरगणिः ऋषिमण्डल( सुत्तत्थ० गाथा)-वृत्तौ । १०. विशेपनिशीथचूर्णौ [ हं. प. ३९, ४५, ८४, ८९, १६५, १७२, ३४४, ४७६ ] स्मर्यते । तत्कथा-चरितं प्रा. कथावली[पत्तनीयता. प. २९९]-प्रभावकचरित( शृङ्ग ८ वृद्धवादि-सिद्धसेनप्रबन्ध)-सम्यक्त्वसप्ततिविवृतिप्रभृतौ समवलोकनीयम् । ११. "बुद्धाणंदो वि गओ नियविहरियाए । संभालेंतो य मल्लवायभणियमणुवायत्थं वि भुल्लो त-वियप्पाडवीए । तउ संखुद्धो हियएण से दीवाए विसिऊणोवरिंग टिप्पेइ भित्तीए तवियप्पमालं । तहा वि न सुमरेइ । x x"-कथावल्याम् [ता. प. २९९] "श्रीवीरवत्सरादथ शताष्टके चतुरशीतिसंयुक्ते । जिग्ये स मल्लवादी बौद्धांस्तव्यन्तरांश्चापि ॥" । -प्रभावकचरित्रे [ विजयसिंहसूरिप्रबन्धे श्लो. ८३] विशेषजिज्ञासुना कथावली-प्रभावकचरित-सम्यक्त्वसप्ततिवृत्त्यादौ विलोकनीयम् । १२. “संघोवरि बहुमाणो गुत्थयलिहणं पभावणा तित्थे । जिणसासणंमि राओ णिच्चं सुगुरूण विणयपरो॥ पपरा ॥ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 प्रास्ताविक-टिप्पनी। कप्पूर-धूव-वत्थप्पभिइदवेहिं पुत्थयाणं च । निम्माइ सया पूया पबदिणंमि विसेसाओ॥ दवसए संजाए गेहंमि जिणिंदबिंब-संठवणं । पवयणलिहणं सहस्से लक्खे जिणभवण-कारवणं ॥ ___-संबोधप्रकरणे [ श्रावकधर्माधिकारे गा. २०, २२, २३ ] "तथा सिद्धान्तमाश्रित्य विधिना लेखनाऽऽदि च ।। लेखना पूजना दानं श्रवणं वाचनोद्ग्रहः। प्रकाशनाऽथ स्वाध्यायश्चिन्तना भावनेति च ॥" -योगदृष्टिसमुच्चये [ योगबीजम् श्लो. २७-२८] "समप्पियं च सूरिणो लल्लिगेण पुवागयरयणाणं मज्झाउ जच्चरयणं तदुजोएणं य रयणीए वि ट(टि)प्पेइ सूरी भित्ति-पट्टयाइसु गंथे। लिहाविजंति य पोत्थएसु ते अ....यं समिद्धसावगेहिं ।"-कथावल्याम् [भवविरह ० ता. प. ३०० ] "विहितमिह मया हि शास्त्रवृन्दं ननु भवता भुवि पुस्तकेषु लेख्यम् । तदनु यतिजनस्य ढोकनीयं प्रसरति सर्वजने यथा तदुच्चैः॥ चिरलिखितविशीर्णवर्ण-भग्न-प्रविवरपत्रसमूहपुस्तकस्थम् । कुशलमतिरिहोदधार जैनोपनिषदिकं स महानिशीथशास्त्रम् ॥" -प्रभावकचरित्रे [ हरिभद्रसूरिप्रबन्धे श्लो. २१६, २१९ ] महानिशीथ(अ. ३)प्रान्तोल्लेखो विचाररत्नाकरे [ दे. ला. प. १५१ ) उद्धृतः पाठश्व पठनीयः । ... जिनप्रभसूरिमथुराकल्पे जिनभद्रक्षमाश्रमणं निर्दिशति स्म "इत्थ देवनिम्मिअथूमे पक्खक्खमणेण देवयं आराहित्ता जिणभदखमासमणेहिं उद्देहिआभक्खियपुत्थयपत्तत्तणेण तुटै भग्गं महानिसीहं संधिअं।" १३. "गंतूण जिणिंदघरं काऊणं तत्थ विविहपूअं च । ठविऊण पुत्थयवरं सुहतंदुलसस्थिअं कुजा ॥ घयपरिपुन्नं काउं पंचहिं वट्टीहिं दीवयं तह य । फल-पुप्फ-वस्थ-गंधाइएहिं परिपूअणं कायं ॥" "अह पुण्णाए ताए नियविहवं भाविऊण हियएणं । हीणुत्तम-मज्झिमयं उज्जवणं होय(इ) कायचं ॥ पंचण्हं पुत्थाणं काऊण लिहावणं च सत्तीए । पच्छा जिणवरबिंबे ण्हवणाईयं सुहं काउं ॥ ठविऊण पुत्थयाई काऊण विलेवणं च वन्नेहिं । कयपुप्फाइविहाणो देइ बलिं पंच पंचेहिं ॥" Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 494 जिनागमादि-लेखन-संरक्षणादि-प्रवृत्तिः। नेउं जिणिंदभवणे पुत्थयरयणं च ठावियं पुरओ। दिन्नो इमो य नियमो समणीए सुद्धभावाए ॥" -पञ्चमीमाहात्म्ये [वि. सं. १००९ वर्षे लि. जे. ता. गा.१४-१५,२०-२२] १४. दुर्लभराजराजसभायां चैत्यवासिविजेता वसतिवासस्थापकः [वि. सं. १०८० वर्षे विद्यमानः ] जिनेश्वरसूरिः "अन्नेसिं पवत्तीए निबंधणं होइ विहिसमारंभो । सो सुत्ताओ नजइ तं चिय लिहेमि ता पढमं ॥ जिणवयणामयसुइसंगमेण उवलद्धवत्थुसब्भावं । कुस्सुइनियत्तभावा भयंति जिणधम्ममेगे उ ॥ जिणवयणं साहंती साहू जं ते वि साहणसमत्था । वायरण-छंद-नाडय-कवालंकारनिम्माया ।। छद्दरिसण-तक्कविआ कुतित्थिसिद्धंतजाणया धणियं । ता ताण कारणे सबमेव इह होइ लेहणीयं ॥ काऊण पुत्थयाइं समप्पिय सासणं कुतित्थीहिं । अधरिसणीयमेयं काहामि तओ य जिणधम्मे ॥ -सम्यक्त्व-पञ्चलिङ्गी-प्रकरणे [ लि. ४, गा. ६१-६५] जिने-“वयं दूरदेशादागताः पूर्वपुरुषविरचितस्वसिद्धान्तपुस्तकानि न कानिचिदानीतानि । आनयत पूर्वपुरुषविरचितसिद्धान्तपुस्तकगण्डलकम् । x x पुस्तकगण्डलकमानीतमात्रमेव छोटितं दशवैकालिकं निर्गतम् ॥"-गणधरसार्धशतकबृहद्वृत्तौ [प.१०] १५. वि. सं. ११२५ वर्षे जिनचन्द्रसूरिः "ज सत्थं जिणपवयणपरमुन्नइकारणं महत्थं च । वोच्छिज्जंतं दिढं सुयं च तं जइ लिहावेउं ॥ सयमसमत्थो अन्नो य नत्थि जइ तल्लिहावगो कोइ । ता साहारणदघेणं तं लिहावेजा बुड्डिकए ॥ तिसरं चउसरं बहुस्सरं च विहिणा लिहाविऊणं च । तप्पोत्थयाइं सुवियड्डसंघट्ठाणेसु ठावेज्जा ॥ जे गहण-धारणाए पडुया ओयस्सिणो वई कुसला । पइभाइगुणसमेया ताण समप्पेज विहिपुवं । आहार-वसहि-वत्थाइएहि काऊणुवग्गहं ताण । सासणवन्ननिमित्तं कुजा तबायणाविहिं च ॥ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 495 प्रास्ताविक-टिप्पनी। अद्धरिसणीयमन्नेसिं सासणं कयमिणं कुणंतेणं । थिरया नवधम्माणं चरणगुणाणं विसुद्धी य ॥ अघोच्छित्ती जिणसासणस्स भवाणुकंपणं अभयं । सत्ताण य ता एत्थं पयट्टियवं जहासत्ति ॥" -संवेगरङ्गशालायाम् [ पुस्तकद्वारे गा. ३२-३८] १६. 'स्वहस्तन्यस्तवादस्थलपुस्तिकाः सूराचार्यप्रभृतिचतुरशीतिसायचैत्यवास्याचार्याः' इति गणधरसार्धशतकबृहवृत्तौ[ पृ. ५] सूचितो विक्रमीयैकादशशताब्यां दुर्लभराज. राजसभायां वादे चैत्यवासिपक्षप्रमुखोऽथवा प्रभावकचरित(शृङ्ग १८)प्रबन्धवर्णितो द्विसन्धानमहाकाव्यकर्ता गूर्जरेश्वरभीमदेवमातुलसुतः सन्मानितो मालवेशभोजदेवसभाविजेता द्रोणाचार्यभ्रातृजस्तत्पट्टधरश्च सूराचार्यः "तर्क-व्याकरणाद्या विद्या न भवन्ति धर्मशास्त्राणि । निगदन्त्यविदितजिनमतमिति जडमतयो जनाः केऽपि ।। मिथ्यादृष्टिश्रुतमपि सद्दष्टिपरिग्रहात् समीचीनम् । किं काञ्चनं न कनं रसानुविद्धं भवति ताम्रम् ॥ व्याकरणालङ्कार-च्छन्द:-प्रमुखं जिनोदितं मुख्यम् । सुगतादिमतमपि स्यात् स्यादत स्वमतमकलङ्कम् ॥ मुनिमतमपि विज्ञातं न पातकं ननु विरक्तचित्तानाम् । यत् सर्व ज्ञातव्यं कर्तव्यं न त्वकर्तव्यम् ॥ विज्ञाय किमपि हेयं किञ्चिदपादेयमपरमपि हृद्यम् । तन्निखिलं खलु लेख्यं ज्ञेयं सर्वज्ञमतविज्ञैः ॥ ये लेखयन्ति सकलं सुधियोऽनुयोगं शब्दानुशासनमशेषमलतीश्च । छन्दांसि शास्त्रमपरं च परोपकारसम्पादनकनिपुणाः पुरुषोत्तमास्ते ॥ किं किं तैर्न कृतं न किं विवपितं दानं प्रदत्तं न किम् ? ___ का वाऽऽपन्न निवारिता तनुमतां मोहार्णवे मजताम् ।। नो पुण्यं किमुपार्जितं किमु यशस्तारं न विस्तारितं सत्कल्याणकलापकारणमिदं यैः शासनं लेखितम् ॥ __-दानादिप्रकरणे [ पञ्चमावसरे श्लो. ८५, ८८,९१-९५] १७. "इह किल कलिकाले चण्डपाखण्डिकीर्णे व्यपगतजिनचन्द्रे केवलज्ञानहीने । कथमिव तनुभाजा सम्भवेद् वस्तुतत्त्वावगम इह यदि स्यानागमः श्रीजिनानाम् ॥ जिनमतविषयाणां पुस्तकानां ववित्तरतिशयरुचिराणां लेखनं कारयेद् यः । प्रथयति महिमानं वस्त्रपूजादिरम्यं सुगुरु-समयभक्तिर्मानवो माननीयः ॥" Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनागमादि-लेखन- संरक्षणादि-प्रवृत्तिः । इत्यादि देशनया प्रोत्साहितैस्तै ( प्रह्लादोदयग्रामवासिभिः श्राद्धै: ) लेखितानि भगवद्विरचितनानासिद्धान्तवृत्तिपुस्तकानि प्रचुराणि । " — वि. सं. १२९५ वर्षे सुमतिगणिर्गणधर सार्वशतकबृहद्वृत्तौ [ अभयदेवसूरि-परिचये]. वि.सं. १९२० - २८ वर्षेषु अणहिलपाठकपत्तनादौ अभयदेवसूरिणा विरचितवृत्तीनां पुस्तकानि प्रभावकचरित (१९ शृङ्ग) प्रबन्धानुसारेण श्रुतदेवताप्रसादेन भीमभूपालराज्यकालीनाः पत्तनादिवासिनश्चतुरशीतिः श्रीमन्तः श्रावका लेखयित्वा सूरिभ्यः प्रदत्तवन्तः । धवलक्ककाधिकारिदण्डनायक जिणहाप्रभृतिना च लेखितानि तानीति वि. सं. १४२६ वर्षीयायां भक्तामरस्तव - वृत्तौ प. ८४ सूचितम् । १८. वि. सं. ११२९ वर्षेऽणहिलपाटके दोहट्टिश्रेष्ठिवसतौ सन्तिष्ठता नेमिचन्द्रसूरिणा विरचितायामुत्तराध्ययनसूत्र - वृत्तौ [ अ. ८] सर्वदेवगणिलिखितपट्टिकातो दोहट्टिश्रेष्ठिना लेखितायां प्रथमायां प्रतौ प्राचीनमिदं पद्यमुद्धृतम् "आरोग्य - बुद्धि - विनयोद्यम - शास्त्ररागाः पञ्चान्तराः पठनसिद्धिगुणा भवन्ति । आचार्य - पुस्तक - निवास - सहाय - बल्भा बाह्यास्तु पञ्च पठनं परिवर्धयन्ति ॥" १९. श्रीजिनचन्द्राचार्याभयदेवसूरिविनेयप्रसन्न चन्द्र सूविचनेन सुमतिवाचकविनेयेन गणिना गुणचन्द्रेण वि. सं. ११३९ वर्षे छत्रावल्लिपुर्यां विरचितं १२०२५ पद्यपरिमितं प्रा. वीरजिनचरितं याभ्यां कारितम्, ताभ्यां कर्पटवाणिज्यपुरवासिनः सुधार्मिक कृत्यतत्परस्य वाकुलीनश्रेष्टिनो गोवर्धनस्य पौत्राभ्यां जजनागस्य च पुत्राभ्यां सिद्ध - वीरनागाभ्यां सकलागमपुस्तकानां लेखनेन श्रुतज्ञान - प्रपा प्रवर्तिताऽऽसीदिति तत्प्रशस्तौ समसूचि“अन्नाण-तण्हसमणी सुयनाण - पवा पयट्टिया जेहिं । सयलागमपोत्थय लेहणेण निचं पि भवाण || " २०. वि. सं. ११७२ वर्षे श्रीमदभयदेवसूरिशिष्यवर्धमानसूरिः “तदेतद् दानतः सर्वं तच्च दानं त्रिधा मतम् । विज्ञानाभयमेदेन धर्मोपग्रहतस्तथा ॥ उक्तं च--' -" किं किं दत्तं न तेनेह ? किं किं नोपकृतं नृणाम् । येनागणितखेदेन ज्ञानसत्रं प्रवर्तितम् ॥ न ज्ञानदानाधिकमत्र किञ्चिद् दानं भवेद् विश्वकृतोपकारम् । ततो विदध्याद्धि पुनः खशक्त्या विज्ञानदाने सततप्रवृत्तिम् ॥ 'पठति पाठयते पठतामसौ वसति - भोजन- पुस्तक - वस्तुभिः । प्रतिदिनं कुरुते य उपग्रहं स इह सर्वविदेव भवेन्नरः ॥' - धर्मरत्नकरण्डकस्य खोपज्ञविवृतौ [ही. हं. भा. २, पृ. ४८०, ४८१ ] २१. प्रा. सत्तठाण ( सप्तस्थानानि ) संज्ञयोपलभ्यमाने प्राचीने ग्रन्थे जिनबिम्ब - जिनचैत्यगृह - जिनशासन पुस्तक - साधु- संयता श्रावक-श्राविकाऽऽत्म के स्थानसप्तके सद् 496 Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 97 प्रास्ताविक-टिप्पनी। धनव्ययः समुपदिष्टः । यत्र जिनशासनपुस्तकानामपि दर्शितं तृतीयं स्थानम् । गूर्जरेश्वरसिद्धराजाभ्यर्थनया साङ्ग-सुवृत्ति-सुगम-सिद्धहेमशब्दानुशासनविधाता सुप्रसिद्धहेमचन्द्राचार्यः परमार्हतकुमारपालभूपालशुश्रूपिते स्वोपज्ञविवरणविभूपिते योगशास्त्रे (प्र. ३) "एवं व्रतस्थितो भक्त्या सप्तक्षेत्र्यां धनं वपन् । दयया चातिदीनेषु महाश्रावक उच्यते॥" इत्यस्मिन् ११९ पद्ये सूचितायां जैनबिम्ब-भवनागम-साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविकालक्षणायां सप्तक्षेत्र्यां जिनागमक्षेत्रमपि धनवपनाहमिति सविस्तरं प्राबोधयत्-"जिनागमक्षेत्रे च स्वधनवपनं यथा-जिनागमो हि कुशास्त्रजनितसंस्कारविषसमुच्छेदनमहामन्त्रा. यमाणो धर्माधर्म-कृत्याकृत्य-भक्ष्याभक्ष्य-पेयापेय-गम्यागम्य-सारासारादिविवेचनहेतुः सन्तमसे दीप इव, समुद्रे द्वीप इव, मरौ कल्पतररिव संसारे दुरापः । . जिनादयोऽप्येतत्प्रामाण्यादेव निश्चीयन्ते। x x जिनागमबहुमानिना च देव-गुरुधर्मादयोऽपि बहुमता भवन्ति । किञ्च केवलज्ञानादपि जिनागम एव प्रामाण्येनातिरिच्यते। x x एकमपि जिनागमवचनं भविनां भवविनाशहेतु । xx . जिनवचनं तु दुःपमाकालवशादुच्छन्नप्रायमिति मत्वा भगवद्भिर्नागार्जुन-स्ख(स्क). न्दिलाचार्यप्रभृतिभिः पुस्तकेषु न्यस्तम् । ततो जिनवचनबहुमानिना पुस्तकेषु लेखनीयम् । वस्त्रादिभिरभ्यर्चनीयं च । यदाह “न ते नरा दुर्गतिमाप्नुवन्ति न मूकतां नैव जडस्वभावम् । न चान्धतां बुद्धिविहीनतां च ये लेखयन्तीह जिनस्य वाक्यम् ॥ लेखयन्ति नरा धन्या ये जिनागमपुस्तकम् । ते सर्व वाङ्मयं ज्ञात्वा सिद्धिं यान्ति न संशयः ॥" जिनागमपाठकानां वस्त्रादिभिरभ्यर्चनं भक्तिपूर्व सन्माननं च । यदाह 'पठति०' लिखितानां च पुस्तकानां संविग्नगीतार्थेभ्यो बहुमानपूर्वकं व्याख्यापनम्, व्याख्यापनार्थ दानम् , व्याख्यायमानानां च प्रतिदिनं पूजापूर्वकं श्रवणं चेति ॥" इत एव प्रकाशिते प्राचीनगूर्जरकाव्यसङ्ग्रहे वि. सं. १३२७ वर्षीये सप्तक्षेत्रीरासेऽपि तद्विवेचनम् । तथा राजगच्छीयधर्मघोषसूरिप्रशिष्येण पं. पद्मप्रभ-देवप्रभसूरिशिष्येण प्रद्युम्नसूरिणा सङ्कलिते प्रा. विचारसारप्रकरणे [ आराधनाविधौ ], धर्मरत्नप्रकरणवृत्तिदानप्रदीपादौ च तस्यां सप्तक्षेत्र्यां जिनागम-पुस्तकलेखनाथ धनव्यय उपादेशिः। . २२. समवलोकनीयमत्र भूपाल-महामात्यादिनामसूचितपत्रेषु । २३. क्रियारत्नसमुच्चयादि-प्रशस्ति-गुर्वावली-सोमसौभाग्यकाव्य-तपागच्छपट्टावलीप्रमुख पर्यवलोकनीयम् । Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 498 २४. २०२ कडू २०४-९ राजमती जिनागमादि-लेखन-संरक्षणादि-प्रवृत्तिः। (श्रमण्यः ) अजितसुन्दरी गणिनी ३९७ भुवनसुन्दरी गुणश्री ३०९ मरुदेवी गणिनी जिनसुन्दरी गणिनी १९ महिमा गणिनी तिलकप्रभा गणिनी ३७ वा(ब)धुमति आर्यिका दूलजिया १८३-४ विनयश्री गणिनी देवसिरि गणिनी १८३ धर्मलक्ष्मी गणिनी महत्तरा श्रीमति गणिनी पद्मश्री महत्तरा ३०९ सुमेरुसुन्दरी महत्तरा बालमति गणिनी १२ संयमसिरि (श्राविकाः) आल्हू २१५,२४० मोषल्लदेवी आसदेवी २८४ मोहिणि(णी) १७६, ३०९, ३८७ आसलदेवी २३९ रंभा १५२ ३५८,३५९ गंगादेवी ६६ राज्यश्री ३४२, ३४३ ३७९ रूपल २२८ चांपल ३७४ लजिणि (लल्लिनी) ३८६ जालू १७६ लीलादेवी जासल २२ विंझी दूली २२७ देवसिरि ३९७ वील्हणदेवि ४०० धर्मिणि नीता( नीतल्ल )देवी ( राज्ञी) २८०-१ शोषी पल्हाई ३११ संतोष(षा) २३५, ३५४ पवइणि २३४ पातू ५०-५१ ८८, ८९ पूनमति सुगुणा ३२५ प्रीमति ३८२ प्रीमलदेवी ५०,५१ भाऊ २०२ २४३ माऊ ३२८ हादू २०२ 2013 ala ilai:315-tartj 1351o:11 गुणश्री di rilatichetelor ३९८ ३४६ १७६ वीलू २३८-९ शांतू १४६ १७६ सरणी साऊ ३९७ ३६० सुहडादेवी ३६४ स्याणी मूलू Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AGET Gaekwad's Oriental Series CATALOGUE OF BOOKS? 1937 ORIENTAL INSTITUTE, BARODA Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SELECT OPINIONS Sylvain Levi: The Gaekwad's Series is standing at the head of the many collections now published in India. Asiatic Review, London: It is one of the best series issued in the East as regards the get up of the individual volumes as well as the able editorship of the series and separate works. Presidential Address, Patna Session of the Oriental Conference: Work of the same class is being done in Mysore, Travancore, Kashmir, Benares, and elsewhere, but the organisation at Baroda appears to lead. Indian Art and Letters, London: The scientific publications known as the "Oriental Series' of the Maharaja Gaekwar are known to and highly valued by scholars in all parts of the world. Journal of the Royal Asiatic Society, London: Thanks to enlightened patronage and vigorous management the "Gaekwad's Oriental Series is going from strength to strength. 99 Sir Jadunath Sarkar, Kt.: The valuable Indian histories included in the 66 Gaekwad's Ori ental Series " will stand as an enduring monument to the enlightened liberality of the Ruler of Baroda and the wisdom of his advisers. The Times Literary Supplement, London: These studies are a valuable addition to Western learning and reflect great credit on the editor and His Highness Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ GAEKWAD'S ORIENTAL SERIES Critical editions of unprinted and original works of Oriental Literature, edited by competent scholars, and published at the Oriental Institute, Baroda 1. BOOKS PUBLISHED). 1. Kävyamimārsā : il work on poetics, by Rikhara (850--920 A.D.): dited by (D. Dlalink antakrishna Sastry, 1916. Reissued. 19 Thiri clition revised and enlarged by lan lit. Ramaswami Shastri of the Oriental Institute. Barola. 1931 est u di This book hus brow set asilor. bok b Benares. Dowburn armi l' l'utml. 2. Naranārāvanānanda: il poem on the luminot Arjuna and Krona's rumbles on Mount tirnar. . ! tupala, Minister of Rug Virabhavala o! Dolhit.com posed between Samvat 1:377 and 1871 11'i and 131: edited by C.D. Dalal : R Than krishna Sastry, 1916 .. 3. Tarkasangraha : i work on Philosopl:i refutation of Vaibesika theory of atomic creation by Inanajuana or Inandagiri, the famous commentators on Saker cärva's Bhassas, who tlourished in the latter half of the 13th century: cited by T.M. Tripathi. 1917. Chol print. Parthaparákrama: drunat describine Triunits covery of the cows of King Virāti, b Prahladunda the founder of Palampur and the younger brother of the Paramra king of (handrivati (i stat..Mirwer), and il fenatory of the kings of wenizi ishe was id Yuvirija in Samvat 1.0 or ). 1161. alted by C. D. Dalal, 1917 .. .. Out of print 5. Rāstraudhavansa: a historical poem Mahaka) describing the history of the Bicules of Maas üragiri, from Rastranha, king of anaujind the originator of the dinasta, to Variana Shab of Macura riri, boy Rudra Ravi, composed in Saka 15ls or 1.1. 17996: edited by Pandit Embar Krishnamacharia with Intro duction by C. D. Dalal. 1917 .. .. Out of print. 6. Lingānusāsana : on (Grammar. br limana, who livell. between the last quarter of the Stli conturi and the .. first quarter of the 9th century: edited b ( 1). Dalal, 1915 7. Vasantavilāsa: an historical poem (Malakivya) de scribing the life of Vastupala and the history of .. 08 Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Guzerat, by Balachandrasuri (from Modheraka or Modhera in Kadi Prant, Baroda State), contemporary of Vastupala, composed after his death for his son in Samvat 1296 (A.D. 1240): edited by C. D. Dalal, 1917 8. Rūpakaṣaṭkam: six dramas by Vatsaraja. minister of Paramardideva of Kalinjara, who lived between the 2nd half of the 12th and the 1st quarter of 13th century edited by C. D. Dalal, 1918 9. Mohaparajaya: an allegorical drama describing the overcoming of King Moha (Temptation), or the conversion of Kumarapala, the Chalukya King of Guzerat, to Jainism, by Yaśaḥpala, an officer of King Ajayadeva, son of Kumarapala, who reigned from A.D. 1229 to 1232: edited by Muni Chaturvijayaji with Introduction and Appendices by C. D. Dalal, 1918 Hammiramadamardana: a drama glorifying the two brothers, Vastupala and Tejahpala, and their King Viradhavala of Dholka, by Jayasimhasuri, pupil of Virasuri, and an Acirya of the temple of Munisuvrata at Broach, composed between Samvat 1276 and 1286 or A.D. 1220 and 1239: edited by C. D. Dalal, 1920 .. 11. Udayasundarikatha: a romance (Campu, in prose and poetry) by Soddhala, a contemporary of and patronised by the three brothers, (hchittaraja. Nagarjuna, and Mummuniraja, successive rulers of Konkan, composed between A.D. 1026 and 1050: edited by C. D. Dalal and Pandit Embar Krishnamacharya, 1920 Mahavidyavidambana: a work on Nyaya Philosophy, by Bhatta Vadindra who lived about A.D. 1210 to 1274: edited by M. R. Telang, 1920 10. 12. 13. Pracinagurjarakāvysangraha: a collection of old Guzerati poems dating from 12th to 15th centuries A.D. edited by C. D. Dalal, 1920 Out of print. biographical work in 11. Kumarapalapratibodha : a Prakṛta, by Somaprabhacharya, composed in Samvat 1241 or A.D. 1195 edited by Muni Jinavijayaji, 1920 1. Gaṇakārika: a work on Philosophy (Pasupata School), by Bhasarvajña who lived in the 2nd half of the 10th century edited by C. D. Dalal, 1921 16. Sangitamakaranda : a work on Music, by Narada: edited by M. R. Telang, 1920 17. Kavindracārya List: list of Sanskrit works in the collection of Kavindracarya, a Benares Pandit (1656 'A.D.) edited by R. Anantakrishna Shastry, with a foreword by Dr. Ganganatha Jha, 1921 is. Varahagṛhyasūtra: Vedic ritual (domestic) of the Yajurveda edited by Dr. R. Shamasastry, 1920 Lekhapaddhati: a collection of models of state and private documents, dating from 8th to 15th centuries A.D.: 19 Rs. A. 1-8 2-0 2-0 2-1 22-S 2-4 7-8 1 1 2-0 0-12 0-10 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rs. A edited by C. D. Dalal and G. K. Shrigondekar. 1925 .. 2-0 20. Bhavisayattakahā or Pancamikahā : a romance in Apabhramsa language, by Dhanapala (circa 12th cen. tury): edited by t. D. Dalal and Dr. P. D. Gune, 1923 6-0 21. A Descriptive Catalogue of the Palm-leaf and Im portant Paper MSS. in the Bhandars at Jessalmere, compiled by C. D. Dalal and edited by Pandit L. B. Gandhi, 19:23 2.2. Parasurāmakalpasūtra: a work on 'Tantra, with com mentary by Rimesvara : edited by A. Mahadeva Sastry, B.A., 1923 23. Nityotsava : à supplement to the Parasuramakalpastra by Umanandanatha : edited by A Mahadeva Nastry, B.A., 1923. Second revised edition by Swami Tirvik rama Tirtha, 1930 21. Tantrarahasya : a work on the Prabhakara School of Purvanimuisi, br Rumahuacarva: edited !. Dr. R. Shamasastry, 1923 . .. ilut of print. 25, 3. Samarāngana: a work on architecture, touil planning, and engineering, by king Bhoja of Dhara (lth century): edited by Mahamahopadhna T. (anapati Shastri, Ph.D. Hlustrated. vols., 19:1-19:25 !11-0 20, 11. Sadhanamālā : a Buddhist Tantric test of rituals, dated 1165 AD)., consisting of 31: small works, composed by distinguished writers : edited by Benontosh Bhattacharyya, M.A., Ph.1). Illustrated. vols., 19251928 .. .. 10 27. A Descriptive Catalogue of MSS. in the Central Library, Baroda : compiled by G.K. Shrigondekar, M.A., and K. S. Ramaswami Shastri, with a Prefaco by B. Bhattacharya, Ph.D., in 12 vols., vol. 1 (l'eda, Vedalaksana and Upanisads), 19:25 .. .. 6-0 28. Mānasollāsa or Abhilasitarthacintamani : an ency. clopedic work treating of one hundred different topics connected with the Roval household and the Roval court, by Some varadeva, a Chalukva king of the !:th century : edited by G. K. Shrigondekar, MA., 3 vols., vol. I, 1925 .. .. 29. Nalavilāsa: a drama by Ramachandrasūri, pupil of Hemachandrasūri, de ribing the Paurunika story of Nala and Damayanti: edited by G. K. Shrigondekar, M.A., and L. B. Gandhi, 1926 30. 31. Tattvasangraba: a Buddhist philosophical work of the 8th century, by Santaraksita, a Professor at Välanda with Panjikā (commentary) by his disciple Kamalasila, also a Professor at Nalanda: edited by Pandit Einbar Krishnamachārva with a Foreword by B. Bhattacharvva, M.A., Ph.D., 2 vols., 1926 .. 24-0 Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 33, 34. 4 Mirat-i-Ahmadi: by Ali Mahammad Khan, the last Moghul Dewan of Gujarat: edited in the original Persian by Syed Nawab Ali, M.A., Professor of Persian, Baroda College, 2 vols., illustrated, 1926-1928 35. Mānavagṛhyasūtra : work on Vedic ritual (domestic) of the Yajurveda with the Bhasya of Aṣṭāvakra: edited with an introduction in Sanskrit by Pandit Ramakrishna Harshaji Sastri, with a Preface by Prof. B. C. Lele, 1926 36, 68. Nāṭyaśāstra: of Bharata with the commentary of Abhinavagupta of Kashmir: edited by M. Ramakrishna Kavi, M.A., 4 vols., vol. I, illustrated, 1926, vol. II, 1934 Vol. I (out of print). 37. Apabhraṁśakāvyatrayi: consisting of three works, the Carcari, Upadesarasa yana, and Kalasvarūpakulaka, by Jinadatta Suri (12th century) with commentaries: edited with an elaborate introduction in Sanskrit by L. B. Gandhi, 1927 38. Nyayapravesa, Part I (Sanskrit Text): on Buddhist Logic of Dinnaga, with commentaries of Haribhadra Suri and Parsvadeva: edited by Principal A. B. Dhruva, M.A., LL.B., Pro-Vice-Chancellor, Hindu University, Benares, 1930 .. 43. 39. Nyayapravesa, Part II (Tibetan Text): edited with introduction, notes, appendices, etc., by Pandit Vidhusekhara Bhattacharyya, Principal, Vidyabhavana, Visvabharati, 1927 40. Advayavajrasangraha: consisting of twenty short works on Buddhist philosophy by Advayavajra, a Buddhist savant belonging to the 11th century A.D., edited by Mahamahopadhyaya Dr. Haraprasad Sastri, M.A., C.I.E., Hon. D.Litt., 1927 42, 60. Rs. A. Kalpadrukośa: standard work on Sanskrit Lexicography, by Kesava: edited with an elaborate introduction by the late Pandit Ramavatara Sharma, Sahityacharya, M.A., of Patna and index by Pandit Shrikant Sharma, 2 vols., vol. I (text), vol. II (index), 1928-1932 Mirat-i-Ahmadi Supplement by Ali Muhammad Khan. Translated into English from the original Persian by Mr. C. N. Seddon, I.C.S. (retired), and Prof. Syed Nawab Ali, M.A. Illustrated. Corrected reissue, 1928 44. Two Vajrayāna Works: comprising Prajñopavaviniścayasiddhi of Anangavajra and Jñanasiddhi of Indrabhuti-two important works belonging to the little known Tantra school of Buddhism (8th century A.D.): edited by B. Bhattacharyya, Ph.D., 1929 45. Bhavaprakāśana: of Saradātanaya, a comprehensive work on Dramaturgy and Rasa, belonging A.D. 1175-1250; edited by His Holiness Yadugiri Yatiraja Swami, Melkot, and K. S. Ramaswami Sastri, Oriental Institute, Baroda, 1929 to 19-8 5-0 11-0 4-0 4-0 1-8 2-0 14-0 6-8 3-0 7-0 Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 46. 47. Nañjarajayaśobhūṣaṇa; by Nrsimhakavi alias Abhinava Kalidasa, a work on Sanskrit Poetics and relates to the glorification of Nanjaraja, son of Virabhupa of Mysore edited by Pandit E. Krishnamacharya, 1930 48. Natyadarpana: on dramaturgy, by Ramacandra Suri with his own commentary: edited by Pandit L. B. Gandhi and G. K. Shrigondekar, M... 2 vols., vol. I, 1929 50. 5 49. Pre-Dinnaga Buddhist Texts on Logic from Chinese Sources: containing the English translation of Satasastra of Aryadeva, Tibetan text and English translation of Vigraha-ryavartani of Nagarjuna and the re-translation into Sanskrit from Chinese of Upanahdaya and Tarkasastra: edited by Prof. Giuseppe Incer, 1930 Rāmacarita: of Abhinanda, Court poet of Haravarsa probably the same as Devapala of the Pala Dynasty of Bengal (cir. 9th century A.D.): edited by K. S. Ramaswami Sastri, 1929 54. 51,77. Trişaṣṭiśalākāpuruṣacaritra: of Hemacandra, translated into English with copious notes by Dr. Helen M. Johnson of Osceola, Missouri, U.S.A. 4 vols., vol. I (Adiśvaracaritra), illustrated, 1931: vol. II, 1937 (shortly) 52. Dandaviveka: a comprehensive Penal Code of the ancient Hindus by Vardhamana of the 15th century A.D. edited by Mahamahopadhyaya Kamala Krsna Smrtitirtha, 1931 Mirat-i-Ahmadi Supplement : Persian text giving an account of Guzerat, by Ali Muhammad Khan. edited by Syed Nawab Ali, M.A., Principal, Bahauddin College, Junagadh, 1930 53. Tathāgataguhyaka or Guhyasamaja: the earliest and the most a:.thoritative work of the Tantra School of the Buddhists (3rd century A.D.): edited by B. Bhattacharyya, Ph.D., 1931 Jayakhyasaṁhita: an authoritative Pañcaratra work of the 5th century A.D., highly respected by the South Indian Vaisnavas: edited by Pandit E. Krishnama. charyya of Vadtal, with one illustration in nine colours and a Foreword by B. Bhattacharyya, Ph.D., 1931 56. 55. Kavyalankarasarasaṁgraha: of Udbhata with the commentary, probably the same as Udbhaṭaviveka of Rajanaka Tilaka (11th century A.D.): edited by K. S. Ramaswami Sastri, 1931 Pārānanda Sutra: an ancient Tantric work of the Hindus in Sutra form giving details of many practices and rites of a new School of Tantra: edited by Swami Trivikrania Tirtha with a Foreword by B. Bhattacharyya, Ph.D., 1931 Rs. A. 7-8 50 1 S 90 6-0 15 0 8-8 4 4 12 0 2-0 3-0 Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rs. A. 57.69. Ahsan-ut-Tawarikh: history of the Safawi Period of Persian History, 15th and 16th centuries, by Hasani-Rumlu : edited by C. N. Seddon, I.C.S. (retired), Reader in Persian and Marathi, University of Oxford. 2 vols. (Persian text and translation in English), 1932-34 19-8 58. Padmānanda Mahākāvya : giving the life history of Rsabhadeva, the first Tirthankara of the Jainas, by Amarachandra Kavi of the 13th century: edited by H. R. Kapadia, M.A., 1932 .. 14-0 59. Sabdaratnasamanvaya : an interesting lexicon of the Nánirtha class in Sanskrit compiled by the Maratha King Sahaji of Tanjore: edited by Pandit Vitthala Sästri, Sanskrit Pathagāla, Baroda, with a Foreword by B. Bhattacharyya, Ph.D., 1932 .. 1-0 61. Saktisangama Tantra: a voluminous compendium of the Hindu Tantra comprising four books on Kāli, Tārā, Sundari and Chhinnamastā: edited by B. Bhatta charyya, M.A., Ph.D., 4 vols., vol. I, Kālikhanda, 1932 2-8 62. Prajñāpāramitās : commentaries on the Prajñāpāra mitā, a Buddhist philosophical work: edited by Giuseppe Tucci, Member, Italian Academy, 2 vols., vol. I, 1932 .. .. .. 12-0 63. Tarikh-i-Mubarakhshahi : an authentic and contem porary account of the kings of the Saiyyid Dynasty of Delhi: translated into English from original Persian by Kamal Krishna Basu, M.A., Professor, T.N.J. College, Bhagalpur, with a Foreword by Sir Jadunath Sarkar, Kt., 1932 7-9 4. Siddhāntabindu : on Vedānta philosophy, by Madhusu dana Sarasvati with commentary of Purusottama: edited by P. (. Divanji, M.A., LL.M., 1933 11-0 65. Istasiddhi : on Vedānta philosophy, by Vimuktātmā, disciple of Avyavātmā, with the author's own commentary: edited by M. Hirivanna, M.A., Retired Professor of Sanskrit, Maharaja's College, Mysore, 1933 .. 24-0 66, 70, 73. Shabara-Bhāsya : on the Mimāṁsā Sūtras of Jaimini: Translated into English by Mahāmahopādhyāya Dr. Ganganath Jha, M.A., D.Litt., etc., ViceChancellor, University of Allahabad, in 3 vols., 19331936 .. 18-0 67. Sanskrit Texts from Bali: comprising a large num. ber of Hindu and Buddhist ritualistic, religious and other texts recovered from the islands of Java and Bali with comparisons: edited by Professor Sylvain Levi, 1933 .. .. 3-8 71. Nārāyana Sataka : a devotional poem of high literary merit by Vidyākara with the commentary of Pitāmhara : edited by Pandit Shrikant Sharma, 1935 .. 2-0 Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 72. Rajadharma-Kaustubha: an elaborate Smrti work on Rajadharma, Rajanīti and the requirements of kings, by Anantadeva: edited by the late Mahamahopadhyaya Kamala Krishna Smrtitirtha. 1935 74. Portuguese Vocables in Asiatic Languages: translated into English from Portuguese by Prof. A. X. Soares, M.A., LL.B., Baroda College, Baroda. 1936 75. Nayakaratna: a commentary on the Nyayaratnamālā of Parthasarathi Misra by Ramanuja of the Prabhakara School: edited by K. S. Ramaswami Sastri of the Oriental Institute, Baroda. 1937 76. 7 2. II. BOOKS IN THE PRESS. 1. Natyaśāstra: edited by M. Ramakrishna Kavi, 4 vols., vol. III. 3. A Descriptive Catalogue of MSS. in the Jain Bhandars at Pattan: edited from the notes of the late Mr. C. D. Dalal, M.A, by L. B. Gandhi, 2 vols., vol. I. 1937 Mānasollāsa or Abhilaṣitärthacintamani, edited by G. K. Shrigondekar, M.A., 3 vols., vol. II. Alamkaramahodadhi: a famous work on Sanskrit Poetics composed by Narendraprabha Suri at the request of Minister Vastupala in 1226 A.D.; edited by Lalchandra B. Gandhi of the Oriental Institute, Baroda. 4. Suktimuktavali : a well-known Sanskrit work on Anthology, of Jalhana, a contemporary of King Krsna of the Northern Yadava Dynasty (A.D. 1247): edited by Pandit E. Krishnamacharya, Sanskrit Paṭhasala, Vadtal. 5. Ganitatilaka: of Sripati with the commentary of Simhatilaka, a non-Jain work on Arithmetic with a Jain commentary: edited by H. R. Kapada. M.A. 6. Dvādaśāranayacakra: an ancient polemical treatise giving a résumé of the different philosophical systems with a refutation of the same from the Jain stand point by Mallavadi Suri with a commentary by Simhasuri Gani: edited by Muni Caturvijayaji. 7. Hamsa-vilāsa: of Hamsa Bhiksu: forms an elaborate defence of the various mystic practices and worship: edited by Swami Trivikrama Tirtha. 8. Tattvasangraha: of Santarakṣita with the commentary of Kamalaśila: translated into English by Mahamahopadhyaya Dr. Ganganath Jha. 9. Krtyakalpataru: of Laksmidhara, minister of King Govindachandra of Kanauj: edited by Principal K. V. Rangaswami Aiyangar, Hindu University, Benares. Rs. A. 10-0 12-0 4-8 5-0 Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10. Bṛhaspati Smṛti, being a reconstructed text of the now lost work of Brhaspati: edited by Principal K. V. Rangaswami Aiyangar, Hindu University, Benares. 8 III. BOOKS UNDER PREPARATION. 1. A Descriptive Catalogue of MSS. in the Oriental Institute, Baroda: compiled by the Library staff, 12 vols., vol. II (Srauta, Dharma, and Grhya Sutras). 2. Prajñāpāramitās: commentaries on the Prajñāpāramita, a Buddhist philosophical work: edited by Prof. Giuseppe Tucci, 2 vols., vol. II. 3. Śaktisangama Tantra: comprising four books on Kāli, Tara, Sundari, and Chhinnamasta: edited by B. Bhattacharyya, Ph.D., 4 vols., vols. II-IV. 4. Natyadarpaṇa: introduction in Sanskrit giving an account of the antiquity and usefulness of the Indian drama, the different theories on Rasa, and an examination of the problems raised by the text, by L. B. Gandhi, 2 vols., vol. II. Rs. A. 5. Gurjararāsāvali: a collection of several old Gujarati Rāsas: edited by Messrs. B. K. Thakore, M. D. Desai, and M. C. Modi. 6. Parasurāma-Kalpasūtra : an important work on Tantra with the commentary of Ramesvara: second revised edition by Swami Trivikrama Tirtha. 8. 7. Tarkabhāṣā: a work on Buddhist Logic, by Mokṣākara Gupta of the Jagaddala monastery: edited with a Sanskrit commentary by Pandit Embar Krishnamacharya of Vadtal. 10. Madhavanala-Kamakandala: a romance in old Western Rajasthani by Ganapati, a Kayastha from Amod: edited by M. R. Majumdar, M.A., LL.B. 9. A Descriptive Catalogue of MSS. in the Oriental Institute, Baroda: compiled by the Library staff, 12 vols., vol. III (Smrti MSS.). An Alphabetical List of MSS. in the Oriental Institute, Baroda: compiled from the existing card catalogue by the Superintendent, Printed Section. 11. Nitikalpataru: the famous Niti work of Kşemendra : edited by Sardar K. M. Panikkar, M.A., of Patiala. 12. Chhakkammuvaeso: an Apabhramsa work of the Jains containing didactic religious teachings: edited by L. B. Gandhi, Jain Pandit. Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Rs. A. 13. Saṁrāț Siddhānta : the well-known work on Astro nomy of Jagannatha Pandit: critically edited with numerous diagrams by Pandit Kedar Nath, Rajjyotisi, Jaipur. 14. Vimalaprabhā: the famous commentary on the Kāla. cakra Tantra and the most important work of the Kālacakra School of the Buddhists : cditet with comparisons of the Tibetan and Chinese versions by Giuseppe Tucci of the Italian Academy. 15. Nişpannayogāmbara Tantra : describing a large number of mandalas or magic circles and numerous deities: edited by B. Bhattacharyya. Basatin-i-Salatin : a contemporary account of the Sultans of Bijapur: translated into English by M. A. Kazi of the Baroda College and B. Bhattacharyya. 17. Madana Mahārnava : a Smộti work principally dealing with the doctrine of Karmavipāka composed during the reign of Māndhātā son of Madanapāla : circuit bov Embar Krishnamacharya. 18. Trisastiśalākāpuruşacaritra : of lemacandra: trans lated into English by Dr. Helen Johnson, vols., vols. III-IV. For further particulars please communicate with THE DIRECTOR, Oriental Institute, Baroda. Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 10 THE GAEKWAD'S STUDIES IN RELIGION AND PHILOSOPHY. Rs. A. 1. The Comparative Study of Religions: (Contents : I, the sources and nature of religious truth. II, supernatural beings, good and bad. III, the soul, its nature, origin, and destiny. IV, sin and suffering, salvation and redemption. V, religious practices. VI, the emotional attitude and religious ideals) : by Alban G.. Widgery, M.A., 1922 . .. 15-0 Goods and Bads: being the substance of a series of talks and discussions with H.H. the Maharaja Gaekwad of Baroda. [Contents : introduction. I, physical values. II, intellectual values. III, ästhetic values. IV, moral value. V, religious value. VI, the good life, its unity and attainment]: by Alban G. Widgery, M.A., 1920. (Library edition Rs. 5) 3-0 3. Immortality and other Essays : (Contents: 1, philos ophy and life. II, immortality. IU, morality and religion. IV, Jesus and modern culture. V, the psychology of Christian motive. VI, free Catholicism and non-Christian Religions. VII, Nietzsche and Tolstoi on Morality and Religion VIII, Sir Oliver Lodge on science and religion. IX, the value of confessions of faith. X, the idea of resurrection. XI, religion and beauty. XII, religion and history. XIII, principles of reform in religion): by Alban G. Widgery, M.A., 1919. (Cloth Rs. 3) .. 2-0 1. Confutation of Atheism : a translation of the Hadis-i llalila or the tradition of the Myrobalan Fruit: translated by Vali Mohammad Chhanganbhai Momin, 1918 .. 0-144 Conduct of Royal Servants : being a collection of verses from the Viramitroda ya with their translations in English, Gujarati, and Marathi : by B. Bhattacharyya, M.A., Ph.D. 0-6 Page #589 --------------------------------------------------------------------------  Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ SELLING AGENTS OF THE GAEKWAD'S ORIENTAL SERIES England Messrs. Luzac & Co., 46, Great Russell Street, London, W.C.1. Messrs. Arthur Probsthain, 41, Great Russell Street, London, W.C. l. 30, Trinity Street, Messrs. Deighton Bell & o., 13 & ('ambridge. Germany Messrs. Otto Harrassowitz, Buchhandlung und Anti quariat, Querstrasse 14, Leipzig, C. I. Austria Messrs. Gerold & Co., Stefansplatz 8, Vienne. Calcutta Messrs. The Book Co., Ltd., 4/3, College Square. Messrs. Thacker Spink & Co., 33, Esplanarle East. Benares C'ily Messrs. Braj Bhusan Das & Co., 105, Thathari Bazar. Lahore Messrs. Mehrchand Lachmandass, Sanskrit Book Depot, Said Mitha Street, Messrs. Motilal Banarsidass, Punjab Sanskrit Book Depot, Said Mitha Street. Bombay Messrs. Taraporevala & Sons, Kitab Mahal, Hornby Road. Messrs. Gopal Narayan & Co., Kalbadevi Road. Messrs. N. M. Tripathi & Co., Kalba levi Road. Poonce Oriental Book Supply Agency, 15, Shukrawar Peth. Page #591 -------------------------------------------------------------------------- _