________________
No II. KHETARWASI
265
(१४) उपशम(क्षान्ति)कुलक. प. १२२-१२३ Beginning:
नमिऊण पुव्वपुरिसाण पसमरससुत्थियाण पयकमलं ।
नियजीवस्स णुसहिँ कसायवसगस्स वोच्छाम ॥१॥ End:
एयं खंतीकुलयं दुहमजीवाण सासणं निययं । जो परिभावइ सम्मं सो पावइ पसमवररयणं ॥ २४ ॥
उपशमकुलकं समाप्तं ॥ (१५) दरिसणचउवीसी.
प. १२३-१२५ End:
इय दरिसणचउवीसी सम्मं नाऊण गुरुसयासाओ। विहिणा पयट्टियव्वं अणुचियचाएण संमत्तं ॥ २४ ॥ (१६) सारसमुच्चयकुलक.
प. १२५-१२८ Beginning:
नर-नरवइ-देवाणं जं सोक्खं सव्वमुत्तमं लोए।
तं धम्मेण विढप्पइ तम्हा धम्मं सया कुणह ॥ १ ॥ End:
एमाइ गुरुवइट अणुट्ठमाणो विसुद्धमुणिकिरियं । मुच्चइ नीसंदिटुं(द्धं) चिरसंचियकम्मवाहीहिं ॥ ३८ ॥
सारसमुच्चयकुलकं ॥ (१७) एगूणतीसी भावना.
प. १२८-१३१ Beginning:
संसारंमि असारे नत्थि सुहं वाहि-वेयणापउरे ।
जाणंतो विह जीवो न कुणइ जिणदेसियं धम्मं ॥ १ ॥ (१८) अजित-शान्तिस्तवन. प. १३१-१३७
. (१९) भव्यचरित (अप.) by जिनप्रभ. प. १३७-१४२ Beginning:
भविय ! सुणउ भवजीवहं चरिउ संखेविहिं मणु नीचलु धरिउ । अत्थि अणाइउ भवपुरनामु मोहराउ तहिं वसइ पगामु । मिच्छदिहि तसु वल्लह वधूअ सयल जीव सा पिययम हूआ ॥१॥ तीणिहि मोहिउ एउ जियलोउ विनडिज्जंतु वि धरइ पमोउ । कह वि न जाणइ धम्माधम्मु भक्खाभक्खु न गम्मागम्मु ॥ २ ॥ 34