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No. II KHETARWASI
त भवियजण ! एकमणु कन्नु धरेउ त जिणवरराय मोहराय - जुज्झु सुणेउ । त जइ संवाहि रि इणि संसारि वट्टइ लोइ ततइ सर्भितरि गुण-दोसंतरि जीवहं जोइ ॥ २॥ त सम्यग बोधे पुरवर जिण अधिरोहु
त तिजग - वइरि मिच्छापुर मोहराउ मोहु ।
त जिणवरसामि मणुयनामि ठविय लिखित्तु
त परसम्मभूमि- पमाणु वित्तु ॥ ३ ॥
| १० | अडयालं पयडिसयं कम्माणं खविय जो य संपत्तो । अक्खयसुक्खं मोक्खं भो भविया ! तं जिणं नमह ॥ २ ॥
श्रीजिनप्रभो मोहराजविजयोक्तिः समाप्ता ।
(४०) साधर्मिक वात्सल्यकुलक by जिनप्रभ. प. २१७-२२० Beginning:--
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साहम्मियवच्छलं भणामि भवियाण भावणानिज्यं । सम्मदंसणसोहिं जह विहियं परमपुरिसेहिं ॥ १ ॥
sa - भावभेयं काउं साहम्मियाण वच्छलं । सवन्नु भवियमेयं जिणपहमणहं लहइ जीवो ॥ २४ ॥ साधर्मिक वात्सल्यकुलकं । (४१) अन्तरङ्गविवाह by जिनप्रभ. Beginning:
प. २२०-२२१
पमाय - गुणठाणु पाटणु तर्हि अहे भवियजिउ निरुवमु वरु ए । चविहसंधु जानउत्र कीय अहे वाहण सहस सीलंग ॥ १ ॥ सुभपरिणाम संवेगु सहि अहे वर गढ सोहई ते सुए । उवसमसेणि आवासु कीउ अहे धर्मध्यान वानउ लागउ ए ॥
इणपरि परिणए जो अ जगि अहे लहइ सो सिद्धिपुरि वासु । मंगलिक वीर जिणप्रभ ए अहे मंगलिकु चडवीह संघ ए ॥ अंतरंगविवाहधवलः वसंतरागेण भणनीयः ।
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(४२) जिनजन्ममह by जिनप्रभ, प. २२१-२२७
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