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189 तेरस सय अडवीसे वरिसे सिरिजिणपहुप्पसाएण । एसा संधी विहिया जिणिंदवयणाणुसारेणं ॥ ७१ ॥
श्रीनर्मदासुंदरीमहासतीसंधि समाप्ता । (११) जिनागमवचन by जिनप्रभ. प. १०६--१०८ Beginning:
बपु रि ! कंदप्प-सप्पिहिं जगु डसियउ ___ हा हा ! विसय-पिसायहिं गसियउ । जइ जिण-आगममंत न हु हुंतू ___ ता जिउ गयजिउ भवि भमडंतू ॥ जइ जिण अरि रि ! मिच्छत्त-महाविसिं घारिउ
हा हा ! मोह-रक्खसि तिजगु संहारिउ । जइ जिण ॥ २॥ मंत तहिं बाहिरु गहु विसु नासइ __ अंतरु पुण जिण विणु कोइ न विणासइ । जइ जिण ॥ ३ ॥
End:
आगमिकसूरि जिणइंदपह-बयणू जो सुणइ एहु सो लहइ सुहरयणू ॥ ४ ॥
वयणानि समाप्तानि । (१२) जिनमहिमा by जिनप्रभ. . प, ९९-१०६ Beginning:
जावह जिणवर नाणु ऊपन्नं तक्खणि समवसरणु नीपन्नं ।
चउविहदेव-निकाय सुरम्मा कारइं जिणवर-केवलिमहिमा ॥ १ ॥ End:
जो सुरु-कोडिहिं सेवियचलणू भवि भवि तसु जिण-पायह सरणू । जिणवर-रिद्धि कु वन्निउ सकू जइ वि पञ्चक्खउ होइ य सकू ॥ ११ ॥
बपु रि ! अतिस्सउ अरि रि ! झाणू . कटरि ! रिद्धि वपु निरुवमु नाणू । जिणप्रभु जग-गुरु देवहि देवू
चउवीह संघह मंगल देउ ॥ १२ ॥ (१३) भावनाकुलक(जम्म-जरा०). गा. २२ प. १०८-११० (१४) दूहामाई.
प. १११-११४ . .