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सहजानन्दशास्त्रमालायां
स्वयमेव स्वपर प्रकाशकत्वलक्षण ज्ञानमनाकुलत्वलक्षणं सौख्यं च भूत्वा परिणामते । एवमास्मनो ज्ञानानन्दो स्वभाव एव । स्वभावस्य तु परानपेक्षस्वादिन्द्रियविनाप्यात्मनो ज्ञानानन्दी संभवतः ॥१६॥ सोवखं सौरू-०ए० परिणदि परिणमति-वर्तमान लट् अन्य पुरुष एकवचन क्रिया 1 निरुक्ति-क्रियते इति कर्म | समास-प्रक्षोहानि बालिकर्माणि यस्य सः प्रक्षीणचातिकर्मा, अनन्तं वरवीर्य यस्य स: अनंतबरवीर्यः, अधिक तेजः यत्र स; अधिकतेजाः इन्द्रिय अतिक्रान्तः अतीन्द्रियः)।१६।। स्वभाव निज सहज ज्ञानदर्शनात्मक आत्मस्वरूपका अनुभव कर लेता है । (७) अविकार सहजचित्स्वभावका अनुभव कर लेने वाले ज्ञानी प्रात्माको धुन स्वरूपरमण को हो जाती है । (८) स्वरूपरमणको धुन वाला ज्ञानी एतदर्थ सर्व परिग्रहका न आत्मस्वभावका प्रसंग छोड़ देता है । (६) निर्ग्रन्थ दिगम्बर श्रमणके निर्विकल्पसमाधि अर्थात् शुद्धोपयोगके प्रतापसे कर्मप्रकृतियोंका क्षय हो जाता है । (१०) समस्त घातिया कर्माका क्षय हो चुकत हो अात्मा केवलज्ञानी हो जाता है । (११) केवलज्ञान केवल आत्माके द्वारा हो जानता है, इन्द्रियों द्वारा नहीं। (१२) आत्माको ज्ञानरूप व प्रानन्दरूप परिणमनेमें इन्द्रियादिक पर निमित्नोंकी अपेक्षा नहीं होती है। (१३) ज्ञान का स्वरूप स्वपरप्रकाशकता है और आनन्दका स्वरूप निराकुलता है । (१४) उपाधिरहित ज्ञान और आनन्द परिपूर्ण और अनन्त होता है, क्योंकि स्वभावको परकी अपेक्षा नहीं होती। (१५) केवलज्ञानी परमात्मा परिपूर्ण ज्ञान रूप व परिपूर्ण आनंद. मय होकर स्वयं ही परिणमते रहते हैं । (१६) स्वयंभु परमात्मामें इन्द्रियोंके बिना ही असीम ज्ञान और असीम अानन्द बर्तसा रहता है। (१७) स्वभावपरिणमनमें परको अपेक्षा रंचमात्र भी नहीं होती।
सिद्धान्त--(१) शुद्धोपयोगके सामर्थ्यसे धातिया कर्मोका निःशेष क्षय होता है । (२) घातिया कमोंका क्षय होनेसे अनन्त ज्ञान दर्शन प्रानन्द व शक्तिमय परिगमन होता है ।
दृष्टि----१- शुद्धभावनापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय [२४ ब] । २- उपाध्यभावापेक्ष शुद्ध द्रव्याथिकनय [२४] ।
प्रयोम-शाश्वत सहज परिपूर्ण ज्ञानानन्दके लाभके लिये अविकार ज्ञानानन्दस्वभाव अन्तस्तत्वका ज्ञान बनाये रहनेका सहज पौरुष करना ॥१६॥
अब अतीन्द्रियताके कारण ही शुद्ध प्रात्माके शारीरिक सुख दुःख नहीं है यह व्यक्त करते हैं---[केवलज्ञानि::] केवलज्ञानीके [देहगतं] शरीरसम्बन्धी सौख्यं] सुख वा पुनः दुःखं] व दुःख [नास्ति] नहीं है, [यस्मात्] क्योंकि [अतीन्द्रियत्वं जात] अतीन्द्रियता उत्पन्न हुई है [तस्मात् तु तत् ज्ञेयम्] इसलिये प्रभुका ज्ञान व आनन्द अतीन्द्रिय ही जानना चाहिये ।
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