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प्रवचनसारः
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अथास्यात्मनः शुद्धोपयोगानुभावात्स्वयंभुवो भूतस्य कथमिन्द्रियविना ज्ञानानन्दाविति संदेहमुदस्यति--
पक्खीणवादिकम्मो अणंतवरवीरित्रो अहियतेजो। जादो अदिदियो सो गाणं सोक्खं च परिणामदि ॥१६॥
प्रक्षोणघातिकर्मा, अनन्तवर वीर्य अधिक तेजस्वी ।
हुया प्रतीन्द्रिय इससे, हो ज्ञानानन्द परिणामता ॥१६॥ प्रक्षीणघातिकर्मा अनन्तबरवीयोऽधिकतजाः । जातो. तीन्द्रियः स नानं सौख्यं च परिणति ।। १६ ॥
___अयं खल्वात्मा शुद्धोपयोगसामर्थ्यात् प्रक्षीणधातिकर्मा, क्षायोपशमिज्ञानदर्शनासंपृक्तस्वादतीन्द्रियो भुतः सन्निखिलान्त रायक्षयादनलवरवीर्यः कृत्स्नज्ञानदर्शनावरण प्रलयादधिककेवल. ज्ञानदर्शनाभिधानतेजाः समस्त मोहनीयामाबादत्यंतनिर्विकारशुद्ध चैतन्यस्वभावमात्मानमासादयन
. नामसंज-पवखीणघादिकम्म अणं तवरवीरिअ अहियतेज जाद अदिदिअ त णाण सोक्स च । धातुसंश-विख क्षत्रे, जा प्रादुर्भाव, परि गम प्रवत्वे । प्रातिपदिक.....प्रक्षोणघातिकर्मन् अनन्तवरवीर्य अधिकलेजस् जात 1 अतीन्द्रिय तत् ज्ञान सौख्य च मूलधातु-क्षि क्षये, जनि प्रादुर्भावे, परि सम प्रवत्वे 1 उभयपदविवरण-पक्खीणघादिकम्मो प्रक्षोणघातिकर्मा अग्गंतबरवीरिओ अनन्तवरवीर्य: अहियतेजो अधिकतेजा:प्र० ए० । जादो जात:- एक दन्त क्रिया । अदिदिओ अतीन्द्रियः सो सः-प्रथमा एक । णाणं जाने समस्त मोहनीयके अभावके कारण अत्यन्त निर्विकार शुद्ध चैतन्यस्वभाव बाले प्रात्माका अनुभव करता हुआ स्वयमेव स्वपरप्रकाशकतारूप ज्ञान और अनाकुलतारूप मुख होकर परिणामित होता है । इस प्रकार प्रात्माका ज्ञान और ग्रानन्द स्वभाव ही है । और स्वभावके अनपेक्षपना होनेसे इन्द्रियोंके बिना भी ग्राहमाके ज्ञान और प्रानन्द होता है।
प्रसंगविवरण----अनन्तरपूर्व गाथामें कहा गया था कि उत्पाद व्यय ध्रौव्य सर्व द्रव्यमें होते हैं सो शुद्धात्माके अर्थात् परमात्माके भी ये तीनों होते हैं । अब इस गाथामें शुद्धोपयोगके प्रतापसे स्वयंभू हुए शुद्धात्माके इन्द्रियोंके बिना ज्ञान प्रानन्द कैसे हो सकता है इस सन्देहको खत्म कर दिया है।
तथ्य प्रकाश----(१) यह प्रात्मद्रव्य अधिकारस्वभाव सहज ज्ञानदर्शनात्मक चैतन्यस्वरूप है। (२) अनादि कमोपाधिबन्धनके निमित्तसे इस जीवका ज्ञान और मानन्द प्रा. च्छादित हो गया है । (३) जिसका ज्ञान और आनन्द आच्छादित है वह शरीरधारी ही है । (४) शरीरबन्धन भी कर्मोपाधिके निमित्तसे चला आ रहा है । (५) शरीरबद्ध जीव कर्मोपाधिक्षयोपशमके अनुसार इन्द्रियोंके आश्रयसे कुछ अल्प ज्ञान व अन्य सुखरूप परिणमता है । (६) यह जीव वस्तुस्वरूपके परिज्ञानसे वैसी दृष्टिका अभ्यास करता हुआ कभी अविकार
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