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सहजानन्दशास्त्र्यालायां
द्रव्याणां केनचित्पर्यायेणोत्पादः केनचिद्विनाशः केनचिद्व्यमित्यवबोद्धव्यम् । श्रतः शुद्धात्मनोsप्युत्पादादित्रयरूपं द्रव्यलक्षरणभूतमस्तित्वमवश्यंभावि ।। १८ ।।
षष्ठी ए० । पज्जायेण पर्यायेन केण क्रेन-तृतीया एक० । अट्टो अर्थ: सब्भूदो सद्भूतः - प्रथमा एकवचन । य च दु तु खलु-अव्यय । निरुक्ति (परि अयते गच्छति पर्यायः, प्रर्यते इति अर्थः । समास - अर्थानां जातः समूहः अर्थजातः तस्य ।। १८ ।।
ध्रौव्य है । ३ - जैसे- संसारी जीवका मनुष्यपर्यायरूपसे उत्पाद देवपर्यायरूपसे विनाश व जीवद्रव्यरूपसे ध्रौव्य है । ४- परमात्माका सिद्धपर्यायरूपसे उत्पाद संसारपर्यायरूपसे विनाश वशुद्धात्मद्रव्यरूप से ध्रौव्य है । ७- परमात्माका नवीन केवल ज्ञानादि पर्यायरूपसे उत्पाद, पूर्व केवलज्ञानादि पर्यायरूपसे विनाश व शुद्धात्मद्रव्यरूप से ध्रौव्य रहता है । अगुरुलघु गुणोंके निमित्तसे होने वाली षड्गुण हानि वृद्धिरूप परिणमनके कारण परमात्मा के प्रतिसमय उत्पाद व्यय ध्रौव्य बर्तता है । - परमात्मद्रव्य के ध्रौव्य रहते हुए भी सम स्वाभाविक पर्यायों के रूपसे उत्पादव्यय होता रहता है ।
सिद्धान्त - १ - प्रत्येक सत् उत्पादव्ययध्रौव्य त्रिलक्षणसत्तामय है । २- परमात्मद्रव्य सम स्वाभाविक पर्यायों के रूपसे परिणमते रहते हैं ।
दृष्टि - १ - उत्पादव्ययसापेक्ष प्रशुद्ध द्रव्यार्थिकनय [ २५ ] । नित्य शुद्धपर्यायार्थिकनय [ ३६ ] |
प्रयोग - सहजानन्दमय सम स्वाभाविक पर्यायोंके रूपसे परिणमते रहने के लिये टंकोकी एक ज्ञायकभावस्वरूप अन्तस्तत्त्व में आत्मत्व अनुभवना ॥ १८ ॥
शुद्धोपयोग प्रभावसे स्वयंभू हो चुके इस शुद्ध आत्माके इन्द्रियोंके बिना ज्ञान पौर श्रानन्द कैसे होता है ? इस संदेहको दूर करते हैं: - [ प्रक्षोरणघातिकर्मा] जिसके घातिकर्म नष्ट हो चुके हैं, [ श्रतीन्द्रियः जातः] जो प्रतीन्द्रिय है, [ अनन्तवरवीर्यः ] अनन्त उत्तम वीर्य वाला, और [ अधिकतेजाः ] जिसके केवलज्ञान और केवलदर्शन रूप तेज अधिक अर्थात् अनन्त है [स] वह स्वयंभू ग्रात्मा [ज्ञानं सौख्यं च ] ज्ञान और सुखरूप [ परिणमति ] परिणमता रहता हैं |
तात्पर्य -- स्वयंभू परमात्मा के अनन्त ज्ञान व अनन्त आनन्द निरन्तर रहता है ।
टीकार्थ- शुद्धोपयोग सामर्थ्यसे घातिकर्म क्षयको प्राप्त हुए हैं जिसके, क्षायोपशमिक ज्ञानदर्शन के साथ संपर्क रहित होनेसे जो प्रतीन्द्रिय हो गया है, समस्त अन्तरायका क्षय होने से जिसके अनन्त उत्तम वीर्य है, समस्त ज्ञानावरण और दर्शनावरण कर्मका प्रलय हो जानेसे अधिक (नंत ) है केवलज्ञान और केवलदर्शन नामक तेज जिसके, ऐसा यह स्वयंभू आत्मा
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२- उपाधिनिरपेक्ष