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सहजानंदशास्त्रमालायां
प्रतोऽस्य सिद्धत्वेनानपायित्वम् । एवमपि स्थितिसंभवनाशसमवायोऽस्व न विप्रतिषिध्यते, भङ्गरहितोत्पादेन संभववर्जितविनाशेन तद्वयाधारभूतद्रव्येण च समवेतत्वात् ||१७||
एक० । विज्जदि विद्यते - वर्तमान लट् अन्य पुरुष एक० क्रिया । निरुक्ति-- भजनं भङ्गः, भवनं भवः, विनशनं विनाशः । समास (भिंगेन विहीनः भंगविहीन) सम्भवेन परिवर्जितः सम्भवपरिवर्जितः, स्थितिः सम्भवः नाश: चेति स्थितिसम्भवनाशाः तेषां समवायः स्थितिसम्भवनाशसमवायः ।। १७ ।।
टीकार्थ- वास्तव में इस शुद्धात्मस्वभावको प्राप्त ग्रात्मा शुद्धोपयोगके प्रसादसे शुद्धात्मस्वभावरूपसे जो उत्पाद है, वह पुनः उस रूपसे प्रलयका प्रभाव होनेसे विनाशरहित है; और जो उत्पाद है, वह पुनः उस रूपसे प्रलयका प्रभाव होनेसे विनाशरहित है और जो शुद्धात्मस्वभाव रूपसे विनाश है वह पुनः उत्पत्तिका अभाव होनेसे उत्पादरहित है । इस कारण उस आत्मा के सिद्धरूपसे अविनाशीपन है । ऐसा होनेपर भी उस श्रात्माके उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यका समवाय अर्थात् एकत्र होना विरोधको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि वह विनाशरहित उत्पादके साथ, उत्पादरहित विनाशके साथ और उन दोनोंके आधारभूत द्रव्यके साथ समवेत है अर्थात् तन्मयतासे युक्त एकमेक है ।
प्रसंगविवरण - अनन्तर पूर्व गाथा में शुद्धात्मस्वभाव के लाभको स्वायंभुव सिद्ध किया था । अब इस गाथामें "स्वायंभूव शुद्धात्मलाभका कभी भी विनाश न होगा" इस समर्थन के साथ साथ उसकी कथंचित् उत्पाद व्यय - ध्रौव्यात्मकताका भी विचार किया गया है ।
तथ्य प्रकाश-- - ( १ ) शुद्धात्मस्वभाव शुद्धोपयोग के प्रसादसे प्रकट होता है । ( २ ) अशुद्धात्मभावका अभाव भी शुद्धोपयोग के प्रसादसे हुआ है । ( ३ ) शुद्धात्मस्वभाव के प्रकट होने पर उसका कभी भी प्रलय नहीं होगा । ( ४ ) अशुद्धात्मभावका प्रभाव होनेपर अशुद्धात्मभाव की कभी भी संभवता नहीं होगी । ( ५ ) प्रशुद्धात्मभावका प्रलय होना व शुद्धात्मस्वभावका आविर्भाव होना यही सिद्धपना है । ( ६ ) सिद्धपना सदैव कायम रहेगा । ( ७ ) इस परमात्मद्रव्यका सिद्धपर्यायरूपसे उत्पाद हुआ है, संसारपर्यायरूपसे विनाश हुआ है व ऐसे उत्पादव्यय के आधारभूत स्वद्रव्यत्वसे धौव्य रहता है ।
सिद्धान्त - ( १ ) प्रभु शुद्धात्मभाव से हटकर शुद्धात्मस्वभावविकासरूप हुए हैं । (२) प्रभु सदा अविनाशी हैं ।
दृष्टि - १ - सादिनित्यपर्यायार्थिकनय [ ३६ ] । २- उत्पादव्ययगोणसत्ताग्राहक शुद्ध द्रव्यार्थिकनय [२२] ।
प्रयोग - प्रशुद्धात्मभाव के विनाशके लिये व शुद्धात्मस्वभाव के विकासके लिये शुद्धोपयोगके बीजरूप आत्मस्वभावाराधना करना ।। १७ ।।