________________
*
पद्मपुराणे
दिता योऽथवा श्रोता श्रेयसां वचसां नरः । पुमान् स एव शेषस्तु शिल्पिकल्पितकायवत् ॥३४॥ गुणदोषसमाहारे गुणान् गृह्णन्ति साधवः । क्षीरवारिसमाहारे हंसः क्षीरमिवाखिलम् ||३५|| गुणदोषसमाहारे दोषान् गृह्णन्त्यसाधवः । मुक्ताफलानि संत्यज्य काका मांसमिव द्विपात् ।। ३६ । अदोषामपि दोषातां पश्यन्ति रचनां खलाः । रविमूर्तिमिवोलुकास्तमालदलकालिकाम् ॥३७॥ सरो-जलागमद्वारजालकानीव दुर्जनाः । धारयन्ति सदा दोषान् गुणबन्धनवर्जिताः ||३८|| स्वभावमिति संचिन्त्य सज्जनस्येतरस्य च । प्रवर्तन्ते कथाबन्धे स्वार्थमुद्दिश्य साधवः ॥ ३९॥ सत्कथाश्रवणाद् यच्च सुखं संपद्यते नृणाम् । कृतिनां स्वार्थ एवासौ पुण्योपार्जनकारणम् ||४०|| 'वर्द्धमान जिनेन्द्रोक्तः सोऽयमर्थो गणेश्वरम् । इन्द्रभूर्ति परिप्राप्तः सुधर्म धारणीभवम् ॥४१॥ प्रभवं क्रमतः कीर्तिं ततोऽनु ( नू ) त्तरवाग्मिनम् । लिखितं तस्य संप्राप्य रखेर्यलोऽयमुद्गतः ॥४२॥ स्थितिर्वंशसमुत्पत्तिः प्रस्थानं संयुगं ततः । लवणाङ्कुशसंभूतिर्भवोक्तिः परिनिर्वृतिः ॥४३॥ भवान्तरभवैर्भूरिप्रकारैश्चारुपर्वभिः । युक्ताः सप्त पुराणेऽस्मिन्नधिकारा इमे स्मृताः ||४४॥ पद्मचेष्टितसंबन्धकारणं तावदेव च । त्रैशलादिगतं वक्ष्ये सूत्रं संक्षेपि तद्यथा ॥ ४५|| वीरस्य समवस्थानं कुशाग्रगिरिमूर्द्धनि । श्रेणिकस्य परिप्रश्नमिन्द्र भूतेर्महात्मनः ॥ ४६ ॥ तत्र प्रश्ने युगे यँत्तामुत्पत्ति कुर्लकारिणाम् । भीतीश्च जगतो दुःखकारणाकस्मिकेक्षणात् ||४७ ||
व्याप्त मानो गड्ढा ही है ||३३|| जो मनुष्य कल्याणकारी वचनोंको कहता है अथवा सुनता है वास्तव में वही मनुष्य है बाकी तो शिल्पकार के द्वारा बनाये हुए मनुष्यके पुतले के समान हैं ||३४|| जिस प्रकार दूध और पानी के समूह में से हंस समस्त दूधको ग्रहण कर लेता है उसी प्रकार सत्पुरुष गुण और दोषोंके समूहमें-से गुणों को ही ग्रहण करते हैं ||३५|| और जिस प्रकार काक हाथियोंके गण्डस्थलसे मुक्ता फलोंको छोड़कर केवल मांस ही ग्रहण करते हैं उसी प्रकार दुर्जन गुण और दोषोंके समूह से केवल दोषों को ही ग्रहण करते हैं ||३६|| जिस प्रकार उलूक पक्षी सूर्यकी मूर्तिको तमालपत्र के समान काली काली ही देखते हैं उसी प्रकार दुष्ट पुरुष निर्दोष रचनाको भी दोषयुक्त ही देखते हैं ||३७|| जिस प्रकार किसी सरोवरमें जल आनेके द्वारपर लगी हुई जाली जलको तो नहीं रोकती किन्तु कूड़ा-कर्कटको रोक लेती है उसी प्रकार दुष्ट मनुष्य गुणों को तो नहीं रोक पाते किन्तु कूड़ा-कर्कटके समान दोषों को ही रोककर धारण करते हैं ||३८|| सज्जन और दुर्जनका ऐसा स्वभाव ही है यह विचारकर सत्पुरुष स्वार्थ - आत्मप्रयोजनको लेकर ही कथाकी रचना करनेमें प्रवृत्त होते हैं ||३९|| उत्तम कथाके सुननेसे मनुष्यों को जो सुख उत्पन्न होता है वही बुद्धिमान् मनुष्यों का स्वार्थ - आत्मप्रयोजन कहलाता है तथा यही पुण्योपार्जनका कारण होता है ||४०|| श्री वर्धमान जिनेन्द्र के द्वारा कहा हुआ यह अर्थ इन्द्रभूति नामक गौतम गणधरको प्राप्त हुआ। फिर धारिणीके पुत्र सुधर्माचार्यको प्राप्त हुआ। फिर प्रभवको प्राप्त हुआ, फिर कीर्तिधर आचार्यको प्राप्त हुआ । उनके अनन्तर उत्तरवाग्मी मुनिको प्राप्त हुआ । तदनन्तर उनका लिखा प्राप्त कर यह रविषेणाचार्यका प्रयत्न प्रकट हुआ है || ४१-४२ ।। इस पुराण में निम्नलिखित सात अधिकार हैं - ( १ ) लोकस्थिति, ( २ ) वंशों की उत्पत्ति, ( ३ ) वनके लिए प्रस्थान, ( ४ ) युद्ध, (५) लवणांकुशकी उत्पत्ति, (६) भवान्तर निरूपण और ( ७ ) रामचन्द्रजीका निर्वाण । ये सातों ही अधिकार अनेक प्रकारके सुन्दर-सुन्दर पर्वोंसे सहित हैं ||४३ - ४४|| रामचन्द्रजीकी कथाका सम्बन्ध बतलानेके लिए भगवान् महावीर स्वामीकी भी संक्षिप्त कथा कहूँगा जो इस प्रकार है ।
1
१. दोषोक्तां म । २. चारयन्ति क. । ३. स्वर्थ क. । ४. ग्रन्थान्तेऽपि १२३ तमपर्वणः १६६ तमश्लोके ग्रन्थकर्त्रा ग्रन्थानुपूर्वीमुद्दिश्य निम्नाङ्कितः श्लोको दत्तः - "निर्दिष्टं सकलैर्नतेन भुवनैः श्रीवर्द्धमानेन यत्तत्वं वासवभूतिना निगदितं जम्बो : प्रशिष्यस्य च । शिष्येणोत्तरवाग्मिना प्रकटितं पद्मस्य वृत्तं मुनेः श्रेयः साधुसमाधिबृद्धिकरणं सर्वोत्तमं मङ्गलम् ।। " ५. धारिणी म. । ६. तावदत्र ख., म. । ७. यत्नां म । ८. कुलकारिणीम् म. ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org