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2. भाव हिंसा
(84)
मंदपगासे देसे रज्जुं किह्णाहिसरिसयं दद्धुं । अच्छित्तु तिक्खखग्गं वहिज्ज तं तप्परीणामो ॥ सप्पवहाभावंमि वि वहपरिणामाउ चेव एयस्स । नियमेण संपराइयबंधो खलु होइ नायव्वो ॥
( द्रव्य से हिंसा न होकर भाव से होने वाली हिंसा का स्वरूप इस प्रकार है- )
( श्रा.प्र. 225-226)
मंद प्रकाश युक्त देश में काले सर्प जैसी रस्सी को देख कर व तीक्ष्ण खड्ग को खींच कर उसके मारने का विचार करने वाला कोई व्यक्ति उसका घात करता है। यहां सर्पवध के बिना भी उसके केवलं सर्पघात के परिणाम से ही नियम से साम्परायिक (संसार- परम्परा का कारणभूत.) बंध होता है, यह जानना चाहिए ।
[ अब यहां दूसरे प्रकार की हिंसा का स्वरूप दिखलाते हुए दृष्टान्त द्वारा यह स्पष्ट किया गया है कि कोई
मनुष्य अंधेरे में पड़ी हुई रस्सी को भ्रमवश काला सर्प समझ कर उसे मार डालने के विचार से उसके ऊपर शस्त्र का
प्रहार करता है, परंतु यथार्थ में वह सर्प नहीं था, इसलिए सर्प के घात के न होने पर भी उस व्यक्ति के सर्पघात रूप हिंसा से जनित पाप-बंध अवश्य होता है। इस प्रकार यहां द्रव्य से हिंसा के न होने पर भी भावहिंसा रूप के दूसरे भेद का उदाहरण है ।]
(85)
आहिच्च हिंसा समितस्स जा तु सा दव्वतो होति ण भावतो उ । भावेण हिंसा तु असंजतस्स, जे वा वि सत्ते ण सदा वधेति ॥
(86)
fi बन्धः स्यान्न कस्यचिन्मुक्तिः स्यात् । योगिनामपि
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(बृह. भा. 3933 )
संयमी पुरुष के द्वारा कदाचित् हिंसा हो भी जाए, तो वह द्रव्यहिंसा होती है, भावहिंसा नहीं। परन्तु जो असंयमी है, वह जीवन में कदाचित् किसी का वध न करने पर भी, भाव- रूप से निरन्तर हिंसा में लीन हुआ माना जाता है।
शुभपरिणामसमन्वितस्याप्यात्मनः स्वशरीरनिमित्तान्यप्राणिप्राणवियोगमात्रेण
वायुकायिकवधनिमित्तबन्धसद्भावात् ।
शुभपरिणाम से युक्त आत्मा के भी यदि अपने शरीर के निमित्त से अन्य प्राणियों के
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(भग. आ. विजयो. 800 ) 事
प्राणों का घात हो जाने मात्र से बन्ध हो तो किसी की मुक्ति ही न हो। जैसे, योगियों के भी 编
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[ जैन संस्कृति खण्ड /36
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