Book Title: Ahimsa Vishvakosh Part 02
Author(s): Subhadramuni
Publisher: University Publication

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Page 529
________________ HEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEP नारद के वचन सुन कर उस ब्राह्मण ने अपने पुत्र की मूर्खता का विचार किया और कहा कि जो एकान्तवादी ) 卐 कारण के अनुसार कार्य मानते हैं वह एकान्तवाद है और मिथ्यामत है, कहीं तो कारण के अनुसार कार्य होता है और 卐 卐 कहीं इसके विपरीत भी होता है। ऐसा जो स्याद्वाद का कहना है, वही सत्य है। देखो, मेरे परिणाम सदा दया से आई 卐 卐 रहते हैं, परंतु मुझसे जो पुत्र हुआ उसके परिणाम अत्यन्त निर्दय हैं। यहां कारण के अनुसार कार्य कहां हुआ? इस! 卐 प्रकार वह श्रेष्ठ विद्वान् बहुत ही संतुष्ट हुआ और शिष्य की योग्यता का हृदय में विचार कर कहने लगा कि हे नारद!! ॐ तू ही सूक्ष्मबुद्धिवाला और पदार्थ को यथार्थ जानने वाला है, इसलिए आज से मैं तुझे उपाध्याय पद पर नियुक्त करता ॐ हूं। आज से तू ही समस्त शास्रों का व्याख्यान करना। इस प्रकार उसी का सत्कार कर उसे बढ़ावा दिया, सो ठीक ही卐 卐 है, क्योंकि जब जगह विद्वानों की प्रीति गुणों पर ही होती है। 明明明明明明明明明明明明 明明明明明明明明明明明明明明 निजाभिमुखमासीनं तनजं चैवमब्रवीत् । विनाङ्गत्वं विवेकेन व्यधा तद्विरूपकम्॥ (319) कार्याकार्यविवेकस्ते न श्रुतादपि विद्यते। कथं जीवसि मच्चक्षुः परोक्षे गतधीरिति ॥ (320) एवं पित्रा सशोकेन कृतशिक्षोऽविचक्षणः। नारदे बद्धवैरोऽभूत् कुधियामीदृशी गतिः॥ (321) नारद से इतना कहने के बाद उसने सामने बैठे हुए पुत्र से इस प्रकार कहा-हे पुत्र! तूने विवेक के बिना 卐 ही यह विरुद्ध कार्य किया है। देख, शास्त्र पढ़ने पर भी तुझे कार्य और अकार्य विवेक नहीं हुआ। तू निर्बुद्धि है, 卐 अत: मेरी आंखों के ओझल होने पर कैसे जीवित रह सकेगा? इस प्रकार शोक से भरे हुए पिता ने पर्वत को शिक्षा के 卐 दी, परंतु उस मूर्ख पर उसका कुछ भी असर नहीं हुआ। वह उसके विपरीत नारद से वैर रखने लगा। ऐसा होना ! ॐ ठीक ही है, क्योंकि दुर्बुद्धि मनुष्यों की ऐसी ही दशा होती है। स कदाचिदुपाध्यायः सर्वसंगान् परित्यजन्। पर्वतस्तस्य माता च मंदबुद्धी तथापि तौ॥ (322) पालनीयौ त्वया भद्र मत्परोक्षेऽपि सर्वथा। इत्यवोचद् वसुं सोऽपि प्रीतोऽस्मि त्वदनुग्रहात् ॥ (323) अनुक्तसिद्धमेतत्तु वक्तव्यं किमिदं मम। विधेयः संशयो नात्र पूज्यपाद यथोचितम्॥ (324) परलोकमनुष्ठातुमर्हसीति द्विजोत्तमम्। मनोहरकथाम्लानमालयाऽभ्यर्चयन्नपः ॥ (325) किसी दिन क्षीरकदम्ब ने समस्त परिग्रहों के त्याग करने का विचार किया, इसलिए उसने राजा वसु से कहा कि यह पर्वत और उसकी माता यद्यपि मंदबुद्धि हैं, तथापि हे भद्र। मेरे पीछे भी तुम्हें इनका सब प्रकार से पालन करना ॐ चाहिए। उत्तर में राजा वसु ने कहा कि मैं आपके अनुग्रह से प्रसन्न है। यह कार्य तो बिना कहे ही करने योग्य है, इसके ॐ लिए आप क्यों कहते हैं? हे पूज्यपाद! इसमें थोड़ा भी संशय नहीं कीजिए, आप यथायोग्य परलोक-योग्य अपेक्षित ॐ कार्य कीजिए। इस प्रकार मनोहर कथारूपी अम्लान (मुरझाई नहीं हुई) माला के द्वारा राजा वसु ने उस उत्तम ब्राह्मण ॐका खूब ही सत्कार किया। EFEREST अहिंसा-विश्वकोश/4991 R

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