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इति हस्ततलास्फालनेन निर्भर्त्स्य तं क्रुधा । घोषयामासुरत्रैव दुर्बुद्धेरीदृशं फलम् ॥ (335) एवं बहि: कृतः सर्वैर्मानभङ्गादगाद्वनम् । तत्र ब्राह्मणवेषेण वयसा परिणामिना ॥ (336) कृतान्तारोहणास सोपानपदवीरिव 1 (337) महाकालेन दृष्टः सन् पर्वतः पर्वते भ्रमन् । प्रतिगम्य तमानम्य सोऽभ्यधादभिवादनम् ॥ (343)
इस प्रकार सब ने क्रोधवश हाथ की हथेलियों के ताड़न से उस पर्वत का तिरस्कार किया और घोषणा की
कि दुर्बुद्धि को दुष्परिणाम इसी लोक में मिल जाता है। इस प्रकार, सबके द्वारा तिरस्कृत कर निकाला हुआ पर्वत मानभंग होने से वन में चला गया। वहां महाकाल नाम का असुर ब्राह्मण का वेष रख कर भ्रमण कर रहा था। उस समय वह वृद्ध अवस्था के रूप में था ।
ऐसे महाकाल ने पर्वत पर घूमते हुए क्षीरकदम्ब के पुत्र पर्वत को देखा। ब्राह्मण वेषधारी महाकाल ने पर्वत सम्मुख जा कर उसे नमस्कार किया और पर्वत ने भी उसका अभिवादन किया।
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महाकालः समाश्वास्य स्वस्ति तेऽस्त्विति सादरम् । तमविज्ञातपूर्वत्वात्कुतस्त्यस्त्वं वनान्तरे ॥ (344) परिभ्रमणमेतत्ते ब्रूहि मे केन हेतुना । इत्यपृच्छदसौ चाह निजवृत्तान्तमादितः ॥ ( 345 ) तं निशम्य महाकाल: सगरं मम वैरिणम् । निर्वशीकर्तुमेव स्यात्समर्थो मे प्रतिष्कसः ॥ (346) इति निश्चित्य पापात्मा विप्रलम्भनपंडितः । त्वत्पिता स्थण्डिलो विष्णुरुपमन्युरहं च भोः ॥ (347) भौमोपाध्यायसांनिध्ये शास्त्राभ्यासमकुर्वहि । त्वत्पिता मे ततो विद्धि धर्म भ्राता तमीक्षितुम् ॥ (348) ममागमनमेतच्च वैफल्यं मा भैषीः शत्रुविध्वंसे सहायस्ते भवाम्यहम् ॥ (349)
समपद्यत ।
मकाकाल ने आश्वासन देते हुए आदर के साथ कहा कि तुम्हारा भला हो। तदनन्तर अजान बन कर महाकाल थाने पर्वत से पूंछा कि तुम कहां से आए हो और इस वन के मध्य में तुम्हारा भ्रमण किस कारण से हो रहा है? पर्वत ने का भी प्रारम्भ से लेकर अपना सब वृत्तान्त कह दिया। उसे सुन कर महाकाल ने सोचा कि यह मेरे वैरी राजा को निर्वंश क करने के लिए समर्थ है, यह मेरा साधर्मी है। ऐसा विचार कर ठगने में चतुर पापी महाकाल पर्वत से कहने लगा कि हे पर्वत ! तुम्हारे पिता ने, स्थण्डिल ने, विष्णु ने, उपमन्यु ने और मैंने भौम नामक उपाध्याय के पास शास्त्राभ्यास किया था, इसलिए तुम्हारे पिता मेरे धर्म-भाई हैं। उनके दर्शन करने के लिए ही मेरा यहां आना हुआ था, परंतु खेद है कि का वह निष्फल हो गया। तुम डरो मत, शत्रु का का नाश करने में मैं तुम्हारा सहायक हूं।
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अहिंसा - विश्वकोश 501]
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