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ETESHEETTEEEEEEEETTEEEEEEEEE ॐ नमस्कार कर पूछने लगा कि हे स्वामिन्! मैंने जो कार्य प्रारम्भ किया है, वह आपको ठीक-ठीक विदित है। विचार कर卐 ॐ आप यह कहिए कि मेरा यह कार्य पुण्य रूप है अथवा पाप रूप? उत्तर में मुनिराज ने कहा कि यह कार्य धर्मशास्त्र से 卐 ॐ बहिष्कृत है, यह कार्य ही अपने करने वाले को सप्तम नरक भेजेगा। उसकी पहचान यह है कि आज से सातवें दिन वज्र ॐ गिरेगा, उससे जान लेना कि तुझे सातवीं पृथ्वी प्राप्त होने वाली है। मुनिराज का कहा ठीक मान कर राजा ने उस ब्राह्मण 卐 पर्वत से यह सब बात कही। राजा की यह बात सुन कर पर्वत कहने लगा कि वह झूठ है, वह नंगा साधु क्या जानता yा है? फिर भी तुझे यदि शंका है तो इसकी भी शांति कर डालते हैं।
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इत्युक्तिभिर्मनस्तस्य संधार्य शिथिलीकृतम्। यज्ञं पुनस्तमारब्धं स ततः सप्तमे दिने ॥ (371) माययाऽसुरपापस्य सुलसा नभसि स्थिता। देवभावं गता प्राच्यपशभेदपरिष्कृता॥ (372) यागमृत्युफलेनैषा लब्धा देवगतिर्मया। तं प्रमोदं तवाख्यातुं विमानेऽहमिहागता॥ (373) यज्ञेन प्रीणिता देवाः पितरश्चेत्यभाषत। तद्वचःश्रवणाद् दृष्टं प्रत्यक्षं यागमृत्युजम् ॥ (374) फलं जैनमुनेर्वाक्यमसत्यमिति भूपतिः । तीवहिंसानुरागेण सद्धर्मद्वेषिणोदयात् ॥ (375) संभूतपरिणामेन
मूलोत्तरविकल्पितात्। तत्प्रायोग्यसमुत्कृष्ट दुष्टसंक्लेशसाधनात् ॥ (376) नरकायुः प्रभूत्यष्टकर्मणां स्वोचितस्थिते ।। अनुभागस्य बंधस्य निकाचितनिबन्धने ॥ (377)
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इस तरह के वचनों से राजा का मन स्थिर किया और जो यज्ञ शिथिल कर दिया था उसे फिर से प्रारम्भ कर 卐 ॐ दिया। तदनन्तर सातवें दिन उस पापी असुर ने दिखलाया कि सुलसा देव-पर्याय प्राप्त कर आकाश में खड़ी है, पहले卐 卐 जो पशु होमे गए थे, वे भी उसके साथ हैं। वह राजा सगर से कह रही है कि यज्ञ में मरने के फल से ही मैंने यह 卐 ॐ देवगति पायी है,मैं यह सब हर्ष की बात आपको कहने के लिए ही विमान में बैठ कर यहां आई हूं। यज्ञ से सब देवता 卐 ॐ प्रसन्न हुए हैं और सब पितर तृप्त हुए हैं। उसके यह वचन सुन कर सगर ने विचार किया कि यज्ञ में मरने का फल जन प्रत्यक्ष दिखाई दे रहा है, अत: जैन मुनि के वचन असत्य हैं। उसी समय तीव्र हिंसा से अनुराग रखने वाले एवं सद्धर्म के
के साथ द्वेष करने वाले कर्म की मूल-प्रकृति तथा उत्तर प्रकृतियों के भेद से उत्पन्न हुए परिणामों से नरकायु को आदि लेकर आठों कर्मों का न छूटने वाला अपने योग्य उत्कृष्ट स्थितिबंध एवं उत्कृष्ट अनुभागबंध पड़ गया।
विभीषणाशनित्वेन तत्काले पतिते रिपौ। तत्कर्मणि प्रसक्ताखिलाङ्गिभिः सगरः सह॥ (378) रौरवेऽजनि दुष्टात्मा महाकालोऽपि तत्क्षणे। स्ववैरपवनापूरणेन मत्वा रसातलम् ॥ (379)
दण्डयितुमुत्क्रोधस्तृतीयनरकावधौ ।
अन्विष्यानवलोक्यैनं विश्वभप्रभृतिद्विषम्॥ (380) EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/304
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