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卐R तावद्विचारार्ह वधश्चेद्धर्मसाधनम्। अहिं सादानशीलादि भवेत्पापप्रसाधनम्॥ (401) अस्तु चेन्मत्स्यबंधादिपापिनां परमा गतिः। सत्यधर्मतपोब्रह्मचारिणो यान्त्वधोगतिम् ॥ (402) यज्ञे पशुवधाद्धर्मों नेतरत्रेति चेन्न तत्। वधस्य दुःखहे तुत्वे सादृश्यादुभयत्र वा॥ (403) फलेनापि समानेन भाव्यं कस्तनिषेधकः। अथ त्वमेवं मन्येथाः पशसृष्टे : स्वयंभुवः॥ (404)
परन्तु यह बात विचार करने के योग्य है कि यदि हिंसा, धर्म का साधन मानी जाएगी तो अहिंसा, दान, शील आदि पाप के कारण हो जाएंगें। हो जावें, यदि यह आपका कहना है तो मछलियां पकड़ने वाले आदि पापी जीवों की शुभ गति होनी चाहिए, और सत्य, धर्म, तपश्चरण व ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले को अधोगति में जाना चाहिए। कदाचित् आप यह कहें कि यज्ञ में पशु-वध करने से धर्म होता है, अन्यत्र नहीं होता, तो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि वध दोनों ही स्थानों में एक समान दुःख का कारण है। अतः यज्ञ में पशु-हिंसा करने वाले के लिए पाप-बंध नहीं होता तो यह मानना ठीक नहीं है, क्योंकि यह मूर्ख जन की अभिलाषा है , तथा साधुजनों के द्वारा निन्दित है।
यज्ञार्थत्वान
तस्यातिविनियोक्तुरघागमः। इत्येवं चातिमुग्धाभिलाषः साधुविगर्हितः॥ (405) . तथाऽन्यथा प्रयुक्तं तन्महादोषाय कल्पते । दुर्बलं वादिनं दृष्ट्वा ब्रूमस्त्वामभ्युपेत्य च ॥ (406) यथा शस्त्रादिभिः प्राणिव्यापादी वध्यतेंऽहसा। मन्त्रैरपि पशून हन्ता वध्यते निर्विशेषतः॥ (407)
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यज्ञ के लिए ही ब्रह्मा ने पशुओं की सृष्टि की है। यदि यह आप ठीक मानते हैं तो फिर उनका अन्यत्र * उपयोग करना उचित नहीं है, क्योंकि जो वस्तु जिस कार्य के लिए बनाई जाती है, उसका अन्यथा उपयोग करना । कार्यकारी नहीं होता। जैसे कि श्लेष्म आदि को शमन करने वाली औषध का यदि अन्यथा उपयोग किया जाता है तो वह विपरीत फलदायी होता है। ऐसे ही यज्ञ के लिए बनाए गए पशुओं से यदि क्रय-विक्रय आदि कार्य किया जाता है तो वह महान् दोष उत्पन्न करने वाला होना चाहिए। तू वाद करना चाहता है, परंतु दुर्बल है- युक्ति बल से रहित है, अत: तेरे पास आकर हम कहते हैं कि जिस प्रकार शस्त्र आदि के द्वारा प्राणियों का विघात करने वाला मनुष्य पाप से बद्ध होता है, उसी प्रकार मन्त्रों के द्वारा प्राणियों का विघात करने वाला भी बिना किसी विशेषता के पाप से बद्ध होता है।
अहिंसा-विश्वकोश 507]