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))) ) इत्यवादीत्ततः पापी पर्वतोऽस्ति न कश्चन। वनेऽस्मिन्निति विच्छिद्य कौँ पितरमागतः॥ (308) त्वया पूज्य यथोद्दिष्टं तत्तथैव मया कृतम्। इति वीतघृणो हर्षात् स्वप्रेषणमबूबुधत् ॥ (309)
तदनन्तर पापी पर्वत ने सोचा कि इस वन में कोई नहीं है, इसलिए वह एक बकरे के दोनों कान काट कर 卐 पिता के पास वापस आ गया और कहने लगा कि हे पूज्य! आपने जैसा कहा था मैंने वैसा ही किया है। इस प्रकार दयाहीन 卐 ॐ पर्वत ने बड़े हर्ष से अपना कार्य पूर्ण करने की सूचना पिता को दी।
नारदोऽपि वनं यातोऽदश्यदेशेऽस्य कर्णयोः। कर्तव्यश्छेद इत्युक्तं गुरुणा चंद्रभास्करौ॥ (310) नक्षत्राणि ग्रहास्तारकाच पश्यन्ति देवताः। सदा संनिहिताः संति पक्षिणो मृगजातयः॥ (311) नैते शक्त्या निराकर्तुमित्येत्य . गुरुसंनिधिम्। भव्यात्माऽदृष्टदेशस्य वने केनाप्यसम्भवात्॥ (312) नामादिचतुरर्थेषु
पापापख्यातिकारण-। क्रियाया अविधेयत्वाच्चाहमानीतवानिमम्॥ (313)
नारद भी वन में गया और सोचने लगा कि 'अदृश्य स्थान में जाकर इसके कान काटना है' ऐसा गुरुजी ने कहा था, परंतु यहां अदृश्य स्थान है ही कहां? देखो न, चंद्रमा, सूर्य, नक्षत्र, ग्रह और तारे आदि देवता सब ओर से देख रहे हैं। पक्षी तथा हरिण आदि अनेक जंगली जीव सदा पास ही रह रहे हैं। ये किसी भी तरह यहां से दूर नहीं किए जा सकते। ऐसा विचार कर वह भव्यात्मा गुरु के पास वापस आ गया और कहने लगा कि वन में ऐसा स्थान मिलना असम्भव है, जिसे किसी ने नहीं देखा हो। इसके सिवाय दूसरी बात यह है कि नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव-इन चारों पदार्थों में पाप व निन्दा उत्पन्न करने वाली क्रियाएं करने का विधान नहीं है, इसलिए मैं इस बकरे को ऐसा ही लेता आया हूं।
इत्याह तद्वचः श्रुत्वा स्वसुतस्य जडात्मताम्। विचिन्त्यैकान्तवाद्युक्तं सर्वथा कारणानुगम् ॥ (314) कार्यमित्येतदेकान्तमतं कुमतमेव तत्। कारणानुमतं कार्य क्वचित्तत्क्वचिदन्यथा ॥ (315) इति स्याद्वादसंदृष्टं सत्यमित्यभितुष्टवान्। शिष्यस्य योग्यतां चित्ते निधाय बुधसत्तमः॥ (316) हे नारद त्वमेवात्र सूक्ष्मप्रज्ञो यथार्थवित्। इतः प्रभृत्युपाध्यायपदे त्वं स्थापितो मया॥ (317) व्याख्येयानि त्वया सर्वशास्त्राणीति प्रपूज्य तम्। प्रावर्द्धयद् गणैरेव प्रीतिः सर्वत्र धीमताम्॥ (318)
[जैन संस्कृति खण्ड/498