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स्वचन्द्रककलापाम्भोमध्यमवनगौरवात्
। भीत्वा व्यावृत्य विमुखं कृतपश्चात्पदस्थितिः॥ (298) कलापी मतवानेक: शेषा तज्जलार्दिताः। पत्रभागं विधूयानुस्तं दवा समभाषिषि ॥ (299) पुमामेकः स्त्रियवान्या इति मत्वाऽनुमानतः। ततो वमान्तरात् किंचिदामात्य पुरसंनिधौ ॥ (300) तथा करिण्याः पादाभ्यां पक्षिमाभ्यां प्रयाणके। स्वमूत्रघट्टनाभागे दक्षिणे तस्वीरुधाम् ॥ (301) भनेन मार्गात् प्रच्युत्य श्रमादारूढयोषितः। शीतच्छायाभिलाषेण सुप्तायाः पुलिनस्थले ॥ (302) उदरस्पर्शमार्गेण दशया गुल्मशक्तया। करिणीश्रितगेहाग्रसितोद्यत्केतनेन च॥ (303) मया तदुक्तमित्येतद्वचनाद् द्विजसत्तमः।
निजापराधभावस्याभावमाविरभावयत् ॥ (304) उनमें जो मयूर था वह अपनी पूंछ के चंद्रक पानी में भीग कर भारी हो जाने के भय से अपने पैर पीछे की ओर रख फिर मुंह फिरा कर लौटा था और बाकी जल से भीगे हुए अपने पंख फटकार कर जा रहे थे। यह देख मैंने + अनुमान-द्वारा पर्वत से कहा था कि इनमें एक पुरुष है और बाकी स्त्रियां हैं। इसके बाद वन के मध्य से चल कर किसी नगर के समीप देखा कि चलते समय किसी हस्तिनी के पिछले पैर उसी के मूत्र से भीगे हुए है, इससे मैंने जाना कि यह हस्तिनी है। उसके दाहिनी ओर के वृक्ष और लताएं टूटी हुई थी, इससे मैंने जाना कि यह हथिनी बांयी आंख से कानी है। वह बैठी हुई स्त्री मार्ग की थकावट से उतर कर शीतल छाया की इच्छा से नदी के किनारे सोयी थी, वहां उसके उदर के स्पर्श से जो चिह्न बन गए थे, उन्हें देख कर मैंने जाना था कि यह स्त्री गर्भिणी है। उसकी साड़ी का एक छोर किसी झाड़ी में उलझ कर लग गया था, इससे जाना था कि वह सफेद साड़ी पहने थी। जहां हस्तिनी ठहरी थी, उस घर के अग्रभाग पर सफेद ध्वजा फहरा रही थी, इससे अनुमान किया था कि इसके पुत्र होगा। इस प्रकार अनुमान से मैंने ऊपर की सब बातें कही थीं। नारद की ये सब बातें सुन कर उस श्रेष्ठ ब्राह्मण ने ब्राह्मणी के सम प्रकट कर दिया कि इसमें मेरा अपराध कुछ भी नहीं है- मैंने दोनों को एक समान उपदेश दिया है।
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तदा पर्वतमाताऽपि प्रसन्नाऽभूत् पुनश्च सः। तस्यास्तन्मुनिवाक्यार्थसंप्रत्ययविधित्सुकः ॥ (305) स्वपुत्रछात्रयोविपरीक्षायै
द्विजाग्रणीः। स्थित्वा सजानिरेकांते कृत्वा पिष्टेन वस्तकौ ॥ (306) देशेऽर्चित्वा परादृश्ये गन्धमाल्यादिमालैः।
कर्णच्छेदं विधायैतावद्यैवानयतं युवाम्॥ (307) उस समय पर्वत की माता भी यह सब सुन कर बहुत प्रसन्न हुई थी। तदनन्तर उस ब्राह्मण ने पर्वत की माता को उन मुनियों के वचनों का विश्वास दिलाने की इच्छा की। वह अपने पुत्र, पर्वत और विद्यार्थी नारद के भावों की ॐ परीक्षा करने के लिए स्त्री-सहित एकांत में बैठा। उसने आटे के दो बकरे बना कर पर्वत और नारद को सौंपते हुए कहा ॐ कि जहां कोई देख न सके- ऐसे स्थान में जाकर चंदन व माला आदि मांगलिक पदार्थों से इनकी पूजा करो और कान
ॐ काट कर इन्हें आज ही यहां ले आओ। SEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEET
अहिंसा-विश्वकोश/497]
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