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सशोको गृहमागत्य नारदोतं सविस्मयः। मातरं बोधचित्वाऽऽह नारदस्येव मे पिता। (290) नावोचच्छास्व-याथात्म्यमस्ति मय्यस्य नादरः। इति पुत्रवचस्तस्या हृदयं निशितास्त्रवत् ॥ (291) विदार्य प्राविशत्पापाद् विपरीतावमर्शनात्। ब्राह्मणी तद्वचित्तेनावधार्य शचं गता ॥ (292)
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अब तो पर्वत के शोक का पार नहीं रहा। वह शोक करता हुआ बड़े आश्चर्य से घर आया और नारद की कही हुई सब बात माता से कह कर कहने लगा कि पिताजी जिस प्रकार नारद को शास्त्र की यथार्थ बात बतलाते हैं, उस प्रकार मुझे नहीं बतलाते। ये सदा मेरा अनादर करते हैं। इस तरह पापोदय से विपरीत विचार करने के कारण पुत्र के वचन, तीक्ष्णशस्त्र के समान उसके हृदय को चीर कर भीतर घुस गए। ब्राह्मणी अपने पुत्र के वचनों का विचार कर हृदय से शोक करने लगी।
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कृत्वा स्नानाग्निहोत्रादि भुक्त्वा स्वब्राह्मणे स्थिते। अब्रवीत् पर्वतप्रोक्तं तनिशम्य विदां वरः। (293) निर्विशेषोपदेशोऽहं सर्वेषां पुरुषं प्रति। विभिन्ना बुद्धयस्तस्मानारदः कुशलोऽभवत् ॥ (294) प्रकृत्या त्वत्सुतो मन्दो नास्याऽस्मिन् विधीयताम्। इति तत्प्रत्ययं कर्तुं नारदं सुतसंनिधौ ॥ (295) वद केन बने भ्राम्यन् पर्वतस्योदयादयः। विस्मयं बहिति प्राह सोऽपि सप्रश्रयोऽभ्यधात्॥ (296) वनेऽहं पर्वतेनामा गच्छन्नर्मकथारतः। शिखिनां पीतवारीणां सद्यो नद्या निवर्तने॥ (297)
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जब ब्राह्मण क्षीरकदम्ब स्नान, अग्निहोत्र तथा भोजन करके बैठा तब ब्राह्मणी ने पर्वत के द्वारा कही हुई सब 3 बात कह सुनाई। उसे सुन कर ज्ञानियों में श्रेष्ठ ब्राह्मण कहने लगा कि मैं तो सब को एक-सा उपदेश देता हूं, परंतु ॐ प्रत्येक पुरुष की बुद्धि भित्र-भिन्न हुआ करती है। यही कारण है कि नारद कुशल हो गया। तुम्हारा पुत्र स्वभाव से ही
मंद है, इसलिए नारद पर व्यर्थ ही ईर्ष्या न करो। यह कह कर उसने विश्वास दिलाने के लिए पुत्र के समीप ही नारद से कहा कि कहो, आज वन में घूमते हुए तुमने पर्वत का क्या उपद्रव किया था? गुरु की बात सुन कर वह कहने लगा कि बड़ा आश्चर्य है? यह कहते हुए उसने बड़ी विनय से कहा कि मैं पर्वत के साथ विनोद-वार्ता करता हुआ वन में जा रहा था। वहां मैंने देखा कि कुछ मयूर पानी पीकर नदी से अभी लौट रहे हैं।
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FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFEEEEEEEET [जैन संस्कृति खण्ड/496