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{440 संगात्कामस्ततः क्रोधस्तस्माद्धिंसा तयाऽशुभम्। तेन श्वाभ्री गतिस्तस्यां दुःखं वाचामगोचरम्॥
(ज्ञा. 16/11/831) परिग्रह से विषयवांछा उत्पन्न होती है, फिर उस विषय-वांछा से क्रोध, उस क्रोध से ॐ हिंसा, उससे अशुभ कर्म का उपार्जन, उससे नरकगति की प्राप्ति और वहां पर अनिर्वचनीय
दुःख प्राप्त होता है।
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{441) (तन्मूला: सर्वे दोषाः।) ममेदमिति हि सति संकल्पे संरक्षणादयः संजायन्ते। तत्र च हिंसा अवश्यंभाविनी। तदर्थमनृतं जल्पति। चौर्य वा आचरति। मैथुने च ॥ 卐 कर्मणि प्रयतते । तत्प्रभवा नरकादिषु दुःखप्रकाराः।
(सर्वा. 7/17/695) (सब दोष परिग्रहमूलक ही होते हैं।) 'यह मेरा है।' इस प्रकार के संकल्प के होने ॐ पर वांछित वस्तुओं के संरक्षण आदि हेतु मनोभाव उत्पन्न होते हैं। इसमें हिंसा अवश्यंभाविनी
है। इसके लिए व्यक्ति असत्य बोलता है, चोरी करता है, मैथुन-कर्म में प्रवृत्त होता है। नरकादिक में जितने दुःख हैं वे सब इससे उत्पन्न होते हैं।
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(442)
सयं तिवातए पाणे अदुवा अण्णेहिं घायए। हणंतं वाणुजाणाइ वेरं वड्डइ अप्पणो॥
(सू. कृ. 1/1/1/3) ____ परिग्रही मनुष्य प्राणियों का स्वयं हनन करता है, दूसरों से हनन कराता है अथवा हनन करने वाले का अनुमोदन करता है, वह अपने वैर को बढ़ाता है- वह दुःख से मुक्त नहीं हो सकता।
{443) आरंभपूर्वकः परिग्रहः।
(सूत्र. चू. 1/2/2) बिना हिंसा के परिग्रह (धनसंग्रह) नहीं होता। FFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEER [जैन संस्कृति खण्ड/192