________________
%%%%%%%%%%%%%%%%% %%%%%% 卐 प्रज्ञावान् साधु, जो असत्याऽमृषा (व्यवहारभाषा) और सत्यभाषा अनवद्य (पापरहित), अकर्कश (मृदु) और असंदिग्ध (सन्देहरहित) हो, उसे सम्यक् प्रकार से विचार
कर बोले। (3) म धैर्यवान् साधु उस (पूर्वोक्त) सत्यामृषा (मिश्रभाषा)को भी न बोले, जिसका
यह अर्थ है, या दूसरा है? (इस प्रकार से) अपने आशय को संदिग्ध (प्रतिकूल) बना देती हो। (4)
जो मनुष्य सत्य दीखने वाली असत्य (वितथ) वस्तु का आश्रय लेकर बोलता है, म उससे भी वह पाप से स्पृष्ट होता है, तो फिर जो (साक्षात्) मृषा बोलता है, (उसके पाप का ॥
तो क्या कहना?)। (5)
{967) अहिगरणकरस्स भिक्खुणो वयमाणस्स पसज्झ दारुणं। अढे परिहायई बहू अहिगरणं ण करेज्ज पंडिए॥
____ (सू.कृ. 1/2/2/41) 卐 ___ कलह करने वाले, तिरस्कारपूर्ण और कठोर वचन बोलने वाले, तिरस्कारपूर्ण और 卐 कठोर वचन बोलने वाले भिक्षु का परम अर्थ नष्ट हो जाता है, इसलिए पण्डित भिक्षु को 卐
कलह नहीं करना चाहिए।
1968) तइयं च वईए पावियाए पावगं ण किंचि वि भासियव्वं । एवं वइ-समिति卐 जोगेण भाविओ भवइ अंतरप्पा असबलमसंकिलिट्ठणिव्वणचरित्तभावणाए अहिंसए संजए सुसाहू।
(प्रश्न. 2/1/सू.115) अहिंसा महाव्रत की तीसरी भावना वचनसमिति है। पापमय वाणी से तनिक भी है पापयुक्त-सावद्य वचन का प्रयोग नहीं करना चाहिए। इस प्रकार की वाक्समिति (भाषासमिति) के योग से युक्त अन्तरात्मा वाला निर्मल, संक्लेशरहित और अखण्ड चारित्र की भावना वाला अहिंसक साधु सुसाधु होता है-मोक्ष का साधक होता है।
LELELELELELELELELELELELEUELELELELELELELELELELELEUCLEUCLEUCUCLE
अहिंसा-विश्वकोश।3891