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(987)
विवत्ती बंभचेरस्स पाणाणं च वहे वहो । वणीमागपडिग्घाओ पडिकोहो य अगारिणं ॥ (57)
(दशवै. 6/320)
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(गृहस्थ के घर में बैठने से ) ब्रह्मचर्य व्रत के खंडित होने की सम्भावना रहती है और प्राणियों का वध होने से संयम का घात हो जाता है और भिक्षाचरों को अन्तराय और घर वालों को
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क्रोध उत्पन्न होता है। (अतः साधु को चाहिए की वह गृहस्थ के घर में अधिक न बैठे।) (57) 卐
(988)
जो भुंजदि आधाकम्मं छज्जीवाणं घायणं किच्चा । अहो लोल सजिब्भो ण वि समणो सावओ होज्ज ॥
(मूला. 10/929 )
का जीव का घात करके अध:कर्म से बना आहार लेता है वह अज्ञानी, 筑
लोभी, जिह्वेन्द्रिय का वशीभूत श्रमण ' श्रमण' नहीं रह जाता, वह तो श्रावक हो जाता है।
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(989)
एक्को वावि तयो वा सीहो वग्घो मयो व खादिज्जो ।
जदि खादेज्ज स णीचो जीवयरासिं णिहंतूण ॥
(मूला. 10/922)
सिंह अथवा व्याघ्र एक, दो या तीन मृग को खावे तो हिंस्र है, और उसी प्रकार यदि
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साधु जीव- राशि का घात करके आहार लेवे, तो वह नीच है।
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(990)
馬 अपरिमियणाणदंसणधरेहिं सील-गुण- वियण-तव- संजमणायगेहिं तित्थयरेहिं
सव्वजगज्जीव- बच्छलेहिं तिलोयमहिएहिं जिणवरिंदेहिं एस जोणी जंगमाणं दिट्ठा ।
筑 ण कप्पइ जोणिसमुच्छेओ त्ति तेण वज्जंति समणसीहा ।
(प्रश्न. 2/5 / सू. 156)
अपरिमित - अनन्त ज्ञान और दर्शन के धारक, शील-चित्त की शान्ति, गुण
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अहिंसा आदि, विनय, तप और संयम के नायक, जगत् के समस्त प्राणियों पर वात्सल्य
卐 धारण करने वाले, त्रिलोक-पूजनीय, तीर्थंकर जिनेन्द्र देवों ने अपने केवलज्ञान से देखा है कि
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ये पुष्प, फल आदि त्रस जीवों की योनि - उत्पत्तिस्थान हैं। योनि का उच्छेद - विनाश करना
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योग्य नहीं है । इसी कारण श्रमणसिंह - उत्तम मुनि पुष्प, फल आदि का परिवर्जन करते हैं। এএএএএএএএ
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[ जैन संस्कृति खण्ड /398